Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 96.

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ट्रेक-९६ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- जगतमें जिन प्रतिमा, भगवान जो साक्षात समवसरणमें विराजते हों, वह ध्यानमय (मुद्रा), आत्मामें लीन हो गये हो, ऐसा उनका दिखाव होता है। उनकी वाणी भिन्न होती है, वे भिन्न हैं। तो साक्षात भगवान तो विराजते नहीं हैं, इसलिये श्रावक भगवानके दर्शन हेतु जिन प्रतिमाकी स्थापना करते हैं।

जगतमें शाश्वत प्रतिमाएँ हैं। जो देवलोकमें, मेरुमें, नंदीश्वरमें सब जगह शाश्वत, किसीके द्वारा किये बिना, पुदगलके परमाणु प्रतिमारूप इकट्ठे हो गये हैं। रत्नमय प्रतिमाएँ पाँचसौ- पाँचसौ धनुषकी, जैसे समवसरणमें विराजते हों, वैसी प्रतिमाएँ। मात्र वाणी नहीं। मानो बोले या बोलेंगे, हूबहू भगवान जैसा लगे। कुदरत ऐसा कह रह है कि जगतमें भगवान सर्वोत्कृष्ट हैं। कुदरत भी भगवानकी प्रतिमारूप परिणमित हो गयी है। जगतमें सर्वोत्कृष्ट हो तो भगवान हैं। आत्मा तो शक्तिरूप स्वयंको पहचानना है। आत्मा सर्वोत्कृष्ट है, लेकिन वह प्रगट किसने किया? भगवान जगतमें सर्वोत्कृष्ट हैं। जो जगतमें वाणी बरसायी और सबको मार्ग बता रहे हैं, स्वयं स्वरूपमें लीन हो गये हैं। उनका शरीर भी परम औदारिक हो जाता है। जगतमें सर्वोत्कृष्ट.. कुदरतके परमाणु प्रतिमारूप इकट्ठे हो जाते हैं। किसीने किया नहीं है। शाश्वत प्रतिमाएँ देवलोकमें हैं, नंदीश्वरमें हैं, मेरु पर्वतमें हैं। और प्रत्येक देवोंके जो महल हैं, उन सबके पास हर जगह असंख्यात ऐसी जिन प्रतिमाएँ चारों ओर हैं। ऐसी प्रतिमाएँ होती है।

भगवान जगतमें सर्वोत्कृष्ट हैं। उनकी प्रतिमा भी वंनदीय है, पूजनिक है। श्रावक स्वयं अंतरमें आगे नहीं बढ सकते हैं तो भगवानको देखकर उनको उत्साह आ जाता है। ओहो..! भगवान! जिन्होंने आत्माका स्वरूप प्रगट किया! ये भगवान। उनकी प्रतिमाओंका भी उतनी महिमा है। जगतमें जिसे अपने पिता एवं माता-पिता पर प्रेम हों, उनकी फोटू देखकर खुशी होती है। उनकी फोटू रखते हैं। उन पर उसे महिमा आती है, स्तुति करता है, गुणग्राम करता है। ऐसा करता है।

यह भगवान तो सर्वोत्कृष्ट (हैं)। जगतमें मार्ग दर्शानेवाले और अंतर स्वरूपमें लीन हो जाय। भगवानकी प्रतिमा, कुदरत प्रतिमारूप परिणमती है। श्रावक प्रतिमाकी प्रतिष्ठा


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करते हैं। और भगवान अहो! भगवानने (पूर्ण स्वरूप प्रगट किया), ऐसा करके भगवानको याद करते हैं। भगवान आप इस स्वरूपरूप परिणमित हो गये। मैं आपकी क्या पूजा करुँ? क्या भक्ति करुँ? क्या स्तुति करुँ? उसे उत्साह आता है।

उसी प्रकार गुरु पर, शास्त्रमें ऐसा तत्त्वका वर्णन आता है, ओहो! इस तत्त्वका वर्णन किसने किया? आचायाने। उनकी भी महिमा आती है, तत्त्वकी महिमा आती है, गुरु जो साधना करते हैं, ओहो..! आत्माकी साधना करते हैं। मुझसे कुछ नहीं होता है। साधना करते हैं, उन्हें नमस्कार! उनकी क्या सेवा करुँ? और क्या पूजा करुँ? जगतमें अहो..! भगवानकी क्या पूजा करें? क्या महिमा करें?

शास्त्रमें (आता है), जिन प्रतिमा जिन सारखी, नमें बनारसीदास। बनारसीदास कहते हैं। जिन प्रतिमा जिनेश्वर समान ही है। उसमें कोई फर्क नहीं है। दर्शन करनेवालेको ऐसा ही हो जाये, उस वक्त ऐसा विकल्प नहीं आता कि यह भगवान हैं या प्रतिमा? उसे तो भावका आरोप ही हो जाता है कि भगवान हैं। अल्प भवस्थिति जाकी सो जिनप्रतिमा प्रमाणे जिन सारखी। जिसकी भवस्थिति अल्प है, वही जिनप्रतिमाको जिनेश्वर समान ही देखता है।

ओघे-ओघे रूढिगतरूपसे तो सब भगवानके दर्शन करते हैं। ऐसे नहीं, लेकिन अन्दरसे उत्साह आता है, ओहो..! भगवानने आत्माका स्वरूप प्रगट किया। जिस स्वरूपकी मैं इच्छा करता हूँ, जिसकी मुझे भावना है। उस स्वरूपको प्रगट करनेवाले जिनेन्द्र देव जगतमें सर्वोत्कृष्ट हैं, उनकी क्या महिमा करुँ? इसलिये उसे प्रतिमा पर एकदम प्रेम आता है। पूजा, भक्ति सबमें उसे प्रेम आता है। उनके कल्याणकके दिन आदि सब पर, उसे देखकर उसे उत्साह आता है।

मुमुक्षुः- सत शास्त्रके दर्शन करना, ऐसा आता है।

समाधानः- हाँ, शास्त्रके दर्शन करना। शास्त्र भी पूजनिक है। तत्त्वकी बात उसमें आती है। वस्तु स्वरूप (आता है)। आचायाने शास्त्र रचे हैं। जिसमें आत्म स्वरूपका वर्णन किया है। वह भी पूजनिक है, वह दर्शन करने योग्य है।

मुमुक्षुः- उसमें आत्म स्वरूपका वर्णन है इसलिये?

समाधानः- हाँ, आत्म स्वरूपका वर्णन है इसलिये पूजनिक है। इसलिये पूजा (करते हैं)। आत्म स्वरूपका वर्णन और आचार्य, मुनिराज जो आत्माकी आराधना करते हैं, उन्होंने वह शास्त्र रचे हैं। और उसमें आत्माका वर्णन है, इसलिये पूजनिक है।

मुमुक्षुः- जब पूजा करते हैं, तब आठ प्रकारके अर्घ्य चढाया जाता है, उसका क्या प्रयोजन है?

समाधानः- भगवान पर महिमा आती है। भगवान मैं क्या धरुँ? आपको तो


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कुछ नहीं चाहिये। परन्तु आपके गुणोंकी मुझे महिमा आती है। इसलिये जगतमें जो उच्च वस्तुएँ हैं, सामान्य वस्तु नहीं परन्तु उच्च वस्तुएँ आपके चरणमें धरता हूँ। अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, फल आदि आठ प्रकारके द्रव्य लेकर मैं आपकी पूजा करुँ, मैं आपके चरणमें क्या रखुँ? मेरेमें कोई शक्ति नहीं है। मैं आपकी पूजा करता हूँ। पूजा करनेके लिये अष्ट प्रकारी पूजा करता है। उसमें कुछ जगह साधारण वस्तुएँ रखते हैं, वह नहीं (होना चाहिये)। यह बराबर है, अक्षत, पुष्प, जल, चंदन आदि। यह उसकी विधि है। पूजा करनेकी विधि इस प्रकारकी है।

वह श्रावकोंका (कर्तव्य है)। श्रावक जो गृहस्थाश्रममें होते हैं, जो अपने लिये खाते-पीते थे, अपने लिये पैसे खर्च करते हो, भगवान पर उसे भाव आये बिना नहीं रहता। मुनिराजने जिसका त्याग कर दिया है, उनके पास कुछ नहीं है। तो वे मात्र भगवानके दर्शन करते हैं और स्तुति करते हैं, और स्तोत्र रचते हैं। बाकी उनके पास कोई वस्तु नहीं है, पूजा नहीं करते हैं, वे भावपूजा करते हैं। जो श्रावकोंके पास वस्तुएँ हैं, वह वस्तुएँ लेकर पूजा करते हैं।

आचाया तो भगवानके स्तोत्र रचते हैं। आचायाको एकदम उत्साह आ जाता है। उस प्रकारके स्तोत्र रचते हैं। भगवान! मैं तो चारों ओर आपको ही देखता हूँ। ये बादलके टूकडे हुए, वह इन्द्रोंने आपकी स्तुति करके भूजाएँ लंबी की तो बादलोंके टूकडे हो गये। ऐसे अनेक प्रकारकी स्तुति उपमा देकर करते हैं। ऐसे आचायाको उतनी भक्ति आती है, मुनिराजोंको (आती है)। हे भगवान! यह नदी बह रही है, आपने जब दीक्षा ली तब सबको आपका विरह लगा था। उस बहाने नदी रो रही है, कलकल- कलकल आवाज करती है।

मुमुक्षुः- भगवानके विरहमें?

समाधानः- हाँ। मुनिराज ऐसे शास्त्र रचते हैं। उतनी भक्ति आती है! भगवानको अनेक प्रकारकी उपमा देते हैं। भक्तिके भावमें कहते हैं। वे उपमासे कहते हैं, लेकिन ऐसी भक्ति आये बिना नहीं रहती।

मुमुक्षुः- स्वसन्मुख होनेके पुरुषार्थके लिये रुचि...?

समाधानः- हाँ, रुचि, विचार, वांचन आदि। सबकी संधि मिलाकर करना। द्रव्य अपेक्षासे क्या है? पर्याय अपेक्षासे क्या है? सब मिलान करके करना। द्रव्य और पर्यायकी संधि कैसे है, समझकर करना।

मुमुक्षुः- देव-गुरु-शास्त्रके दर्शन सम्बन्धित पूछा, बहुत समयसे ओघे-ओघे करनेके बजाय माताजीके पास समझकर करें तो विशेष आनन्द आये। उसमेंसे बहुत समझ प्राप्त हुयी। आरती उतारनेका प्रयोजन..?


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समधानः- वह भी एक प्रकारकी भगवानकी भक्ति है। वह भक्तिका भाव है। कुछ जगह आरती नहीं उतारते हैं, कोई-कोई उतारते हैं। लेकिन भगवान पर महिमा आती है इसलिये आरती उतारते हैं। एक प्रकारकी भक्ति है। श्रावकोंको भक्ति और महिमा आती है। भगवान! मैं आपका क्या करुँ और क्या न करुँ? मैं जो कुछ भी करुँ, आपका ... मैं यह सब संसारकी ऋद्धियाँ हैं, उसकी मुझे कोई महिमा नहीं है। मुझे आपकी महिमा है, इसलिये मैं आरती द्वारा आपके गुणोंकी महिमा करता हूँ। आपका वारना ऊतारुँ कि वाह! आपने यह गुण प्रगट किये। उसे मैं क्या कहूँ? इसलिये वह आरती ऊतारता है। वाह रे वाह..! भगवान! ऐसा करके आरती ऊतारता है, वह एक प्रकारकी भक्ति है।

... कितना उनका मान! लोग उनको कितना (मानते थे)। उनकी प्रतिष्ठा कितनी थी स्थानकवासीमें। उन्हे माननेवाले कितने थे। उन्होंने शास्त्र पढकर छोड दिया कि यह जूठा है। कितनी उनकी प्रतिष्ठा। गुरुदेव तो स्वयं एकदम (निस्पृह थे)। कोई सामने देखे, न देखे, उनको कुछ नहीं था। एकदम अपनेमें ही थे। लेकिन लोगोंमें उतनी उनकी प्रतिष्ठा थी।

मुमुक्षुः- जब महोत्सव था तब हम बहुत छोटे थे।

समाधानः- ... सरलता प्रगट करे तो माया चली जाती है। दोनों प्रकारकी माया। दर्शनमोह ... सब विभाव है वह विभाव ही है। मैंने यह कैसे जिता? मैंने यह कैसा किया? ऐसा कुछ आता है। मैं दूसरे प्रकारसे आकर खडा हूँ। तू मान, तुझे उसमें ठगता है। एक गुण (प्रगट) करके उसकी स्वयं विशेषता करने जाय तो दूसरा दोष आ जाता है। यह मैंने कितना अच्छा किया, यह गुण मैंने कैसा अच्छा (प्रगट) किया, ऐसा करने पर तुझे मान ठग लेता है। इसलिये कहते हैं, माया आदि कषायोंके अन्दर... भिन्न-भिन्न कषाय उस प्रकारसे जीते नहीं जाते। एक ज्ञायकको स्वयं पहचाने तो सबको जीता जाता है। लेकिन पात्रताकी भूमिकामें ध्यान रखने जैसा है। "कषायनी उपशांतता मात्र मोक्ष अभिलाष'। आत्मार्थीको प्रयोजन आत्माका होना चाहिये। उसमें उपशांतता होनी चाहिये। विशालबुद्धि, जितेन्द्रियता, सरलता, मध्यस्थता आदि आता है न? तत्त्व पानेका उत्तम पात्र है। सरलता, मध्यस्थता, विशालता तत्त्व ग्रहणकी शक्ति होनी चाहिये, जितेन्द्रियता होनी चाहिये, सरलता होनी चाहिये, मध्यस्थता होनी चाहिये। वह तत्त्व पानेका उत्तम पात्र है।

हृदय ऐसा सरल होना चाहिये, वक्रता नहीं होनी चाहिये। जो कोई कुछ बात करे तो सीधी तरहसे स्वयं ग्रहण कर सके। ऐसा अपना हृदय होना चाहिये। वक्रतामें छल-कपट नहीं होना चाहिये। सरलतासे जो बात हो वह सीधी ग्रहण हो, ऐसा अपना


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चित्त और अंतरमें अपना चित्त होना चाहिये कि अन्दर विभावभावोंको स्वयं पहचान सके, आडी-टेढी रीतसे बचाव करने हेतु वक्रता धारण करे (नहीं)। टेढा-मेढा अन्दरमें ... ऐसा सीधा स्वयंका वक्रता रहित सरल चित्त होना चाहिये। वक्रता नहीं आती। ... यह सब आता है न?

फिर संतोष द्वारा लोभको। अतिशय लोभ अच्छा नहीं। इतना लोभ... या तो शरीर प्रति, या धनके प्रति, अनेक प्रकारका (लोभ होता है)। जहाँ-जहाँ स्वयंको राग हो, उसका अतिशय लोभ नुकसानका कारण होता है। चमरी गायने प्राणत्याग किये। उसके बालकी पूंछ (अटक गयी), उसके बाल ऐसे होते हैं, चमरी गायके। उसको इतना राग था। बेलमें लिपट गयी। लिपटनेके बाद अन्दरसे निकली ही नहीं। क्योंकि निकलूँगी तो मेरे बाल टूट जायेंगे। इसलिये बालके लोभमें निकली नहीं तो शिकारी आकर उसका वध करता है। ऐसा कहते हैं।

ऐसा कहते हैं कि, स्वयं लोभके कारण ऐसे पैसेमें, शरीरादिके लोभमें धर्मकी ओर मुडता नहीं है और मनुष्य जीवन पूर्ण हो तो देह (छूटकर) आयुष्य पूरा हो जाता है। बादमें करुँगा, बादमें करुँगा, इतना कमा लूँ, इतना कर लूँ, इतना यह कर लूँ, ऐसा करते-करते आयुष्य पूर्ण हो जाता है। धनका लोभी। लोग कहते हैं न? चमडी टूटे लेकिन दमडी न छूटे। शरीर जाय तो भी उसे पैसा अन्दरसे छूटता नहीं। ऐसे कुछ जीव होते हैं। प्राण जाय तो भी उसके पैसे नहीं छूटते, ऐसे जीव होते हैं। पैसे पर कितना राग होता है। शरीर पर उतनी ममता होती है। बैठे-उठे तो भी मानो मेरे शरीरको कुछ हो जायेगा। शरीरको सँभाल-सँभालकर करता है। लेकिन उसमें तेरा आयुष्य पूरा हो जायेगा। ऐसा करुँगा तो शरीर अच्छा रहेगा और ऐसा करुँगा तो आरोग्य रहेगा, ऐसा करुँगा तो ऐसा रहेगा, ऐसा करते-करते स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहता है। वह तो जैसा बनना होता है वैसा बनता है। उसे अमुक प्रकारसे रख सकते हैं। ऐसे रह नहीं सकते। अपना आयुष्य पूरा हो जाय तो भी शरीर रखुँ, धन रखुँ..। देव- गुरु-शास्त्रमें धनव्यय करनेके प्रसंगमें जिसका धन नहीं छूटता। देव-गुरु-शास्त्रका प्रसंग आवे, उनकी अमुक प्रकारकी सेवाका, ऐसे प्रसंग आवे, सेवाके, वात्सल्यके प्रसंग आवे उसमें जो मन-वचन-कायासे शरीर आदि जो कुछ.. चाहे जो भी उपसर्ग आवे तो भी वह कर नहीं सकता, तो ऐसा लोभ किस कामका?

संतोष द्वारा लोभको (जीते)। उसे संतोष है। इस जीवनमें क्या चाहिये? कुछ भी तो नहीं चाहिये। पेटमें रोटी डालनी है, बस, उतना ही चाहिये। ओढना ओर रोटी, दूसरा कुछ नहीं चाहिये। यह सब धन तो पडा रहेगा, कहाँ साथ आनेवाला है? शरीरको चाहे जितना सँभल-सँभलकर आवे तो जो खरा प्रसंग होता है, वह चला जाता है,


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तो शरीरको सँभालकर क्या करना है? इसलिये जीव ऐसा करता है। एक इतनी रोटी चाहिये और थोडे कपडे चाहिये। उसके लिये पैसा-पैसा करता रहता है। देव-गुरु- शास्त्रमें जिसका जीव उदारतासे कुछ (नहीं धनव्यय करता है) तो वह मनुष्य जीवन किस कामका? वह धन भी किस कामका और मनुष्य जीवन भी किस कामका? शरीर भी किस कामका? कुछ नहीं।

अन्दरसे एक आत्मामें परपदार्थका अंश भी नहीं है। एक पुदगल उसका नहीं है। ज्ञायक स्वरूप आत्मा, जो देहातीत दशा धारण करते हैं, जो सब छोडकर निष्परिग्रही होकर मुनि चल देते हैं। बाह्य-अभ्यंतर परिग्रह, विभाव और बाहरका छोडकर एक आत्मामें ज्ञायककी धाराको चारित्रमें लीनता करते हैं। निष्परिग्रह (हैं)। उन्हें लोभ आदि सब छूट जाता है। ऐसी मुनिओंकी दशा (होती है)। यह सब मुनिओंको कहते हैं न? हे मुनि! तूने यह सब लिया, तुझे लोभ क्यों बीचमें आता है? मुनिओंकी ओर (बात) लेते हैं)। उनकी चारित्रदशाके अन्दर सम्यग्दर्शनपूर्वक छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें झुलते हैं। मुनिओंको कहाँ लोभ था? परन्तु अल्प लोभ भी मुनिओंको पुसाता नहीं। मुनिओंको दूसरा लोभ तो है नहीं। आहार लेने जाते हैं। ऐसा सब मुनिओंको होता है। तो भी मुनिओंको कहते हैं, तुझे किसी भी प्रकारका पुसाता नहीं।

... शोभा नहीं देता। आत्माका स्वभाव ही नहीं है। क्रोधका, मानका, मायाका, लोभका। संतोष। संतोषस्वरूप आत्मामें कुछ है ही नहीं। प्रवेश ही नहीं हुआ है। आत्माको कुछ चाहिये ही नहीं। आत्मा स्वयंसे परिपूर्ण है। उनके गुणोंका परिग्रह, वही उनके पास धन है। दूसरे धनकी उन्हें कोई आवश्यकता नहीं है। मुनिकी बातमेंसे जिसे जो लागू पडे वह लेना।

... आता है न? दानमें देता है। उसकी शक्ति अनुसार। बहुत खेद हो जाय या शरीर काम नहीं करता हो, .. यथाशक्ति आता है। लेकिन यह तो चमरी गायका दृष्टान्त दिया। एक बाल भी टूट जाय, वह उसे पुसाता नहीं। बहुत लोग (ऐसे होते हैं), चमडी टूटे, दमडी न छूटे, ऐसे बहुत लोग पैसेमें ऐसे होते हैं। यह चमडी जाय तो भले जाय, लेकिन पैसा छूटता नहीं। ऐसे भी कुछ लोग होते हैं। गाय भी ऐसी होती होगी, चमरी गाय। पूँछ ऊँची करती होगी तो उसे दिखायी देता होगा।

मुमुक्षुः- कैसी ममता!

समाधानः- हाँ, यह तो बडा लोभ है, बालका। बाल जाय वह भी पुसाता नहीं। उस जगह अल्प ..., यह लोभ तो बडा है।

... श्रेणिमें बीचमें आये तो केवलज्ञान नहीं होता है। इतना लोभ भी नुकसान करता है। सूक्ष्म ... इतना संज्वलनका है। उन्हें कोई प्रगटरूपसे धनका, शरीरका, कुटुम्बका


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ऐसा कुछ भी नहीं है। अन्दरमें कुछ है, अबुद्धिपूर्वकका कुछ है। मन्दपने.. उसका नाम भी कुछ नहीं सकते, ऐसा कोई लोभ है। इतना लोभ नुकसान करता है, तो इतने बडे लोभकी तो क्या बात करनी? वह लोभ तो बैलगाडी जितना हुआ।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!
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