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समाधानः- ... मन्दिरमें दर्शन करते हो, परन्तु किसीका ध्यान .. वह प्रगट हो वह यथार्थ है। जैसा भगवानने किया। मुनिओं, गुरु सब। गुरुदेवने साधना की, सब मंगल-मंगल है। वह सब मंगलता स्वयंने प्रगट की। चैतन्य पूरा मंगलतासे भरा है, उसकी मंगलरूप पर्यायें प्रगट होती है। ... पूर्णता पर्यंत उसकी मंगलता छा जाय तो अन्दरकी मंगलता ...
देव-गुरु-शास्त्र मंगल हैं। वह मंगलता कोई अलग प्रकारकी होती है। वैसा आत्मा मंगल है। मंगलता, आत्माकी मंगलता दिखा दी है। उपादान-निमित्तका सम्बन्ध है। ... उसका साधन आदि सब मंगल है। द्रव्य तो अलौकिक अनादिअनन्त मंगल है। ... मंगल। तीर्थंकरका द्रव्य इसलिये विशेष मंगल। मंगलमूर्ति ही थे गुरुदेव।
... देव-गुरु-शास्त्र सुप्रभात है। वही यथार्थ प्रभात है। जैनशासनमें गुरुदेव प्रभातस्वरूप सूर्य थे। जैनशासनमें देव-गुरु सुप्रभात (हैं)। शासनमें सुप्रभात ऊगी थी। गुरुदेव सुप्रभात (थे), शासनमें सुप्रभात (थे)। गुरुदेव बताये वह करनेका है। दीपक प्रगटाते हैं। चैतन्यका दीपक अंतरमें प्रगट करना। अंतरमें दीपक प्रगट करे। पर्याय मंगलरूप, पर्यायरूपी दीपक है वह प्रगट करने जैसा है, मंगलतासे। चैतन्य पूरा सिद्ध भगवानस्वरूप है वह तो। सब दीपक प्रगट करते हैं। ... कैसे हो, वह करने जैसा है।
... अनुभूति हो वह कोई कहनेकी बात है? स्वानुभूति कोई वचनमें तो आ सकती नहीं, वह तो कोई अपूर्व चीज है। जो दृष्टिमें दिखता है वह अलग है और आत्माका स्वानुभव अर्थात आत्माका अंतरमेंसे आनन्द, ज्ञान आदि अनन्त गुण जो आत्मामें भरे हैं, वह तो स्वयं उसमें दृष्टि करे, उसका ज्ञान करे, उसमें लीनता करे तो प्रगट होता है। विकल्प टूटे, आकुलता जो हो रही है, विकल्पकी आकुलता टूटकर जो स्वानुभूति (हो), विकल्प टूटकर निर्विकल्प हो, वह स्वानुभूति उसके वेदनमें आती है। जगतसे भिन्न जात्यांतर है। जगतके कोई पदार्थके साथ उसका मेल नहीं है। वह तो अनुपम है। उसे कोई उपमा लागू नहीं पडती।
मुमुक्षुः- .. कैसे समझमें आये कि अनुभव हुआ है? इस प्रकारका है। ऐसा कोई ... उसका वेदन कैसा हो? ऐसा अनुभव हुआ... आप समझाइये।
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समाधानः- वेदन तो... बहुत लोग ध्यानमें रहते हैं उसे विकल्प शान्त हो और वेदन हो, वह नहीं। ये तो विकल्प टूटकर जो स्वानुभूति हो उसका आत्मा ही उसे कह दे कि यही मुक्तिका मार्ग है और यही आत्माकी स्वानुभूति है। उसका आत्मा ही उसे अन्दरसे यथार्थ ज्ञान और यथार्थ अनुभूति होती है। बाकी बहुत लोग ध्यान करे, विकल्प मन्द करे और अन्दरमें आकुलता सूक्ष्म भरी हो, परन्तु विकल्प टूटा न हो तो वह कोई स्वानुभूति नहीं है। विकल्प टूटकर भेदज्ञानकी धारा हो कि मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञाता हूँ, मेरा स्वभाव भिन्न (है), ये विकल्पकी झाल है वह मैं नहीं हूँ, वह तो आकुलतारूप है। उसकी कर्तृत्वबुद्धि छूटकर जो ज्ञायककी (अनुभूति हो), फिर उसे अल्प-अल्प विकल्प होते हैं, परन्तु वह विकल्प मेरा स्वभाव नहीं है। उसमें भेदज्ञान करके जो उसे उग्रता हो, उसमें विकल्प टूटकर जो स्वानुभूति हो वह कोई अलग होती है। उसका आत्मा ही यथार्थ कह देता है कि यह स्वानुभूति है और यही आत्माका वेदन है।
मुमुक्षुः- आनन्द और सुखसे ज्ञात हो।
समाधानः- आनन्द जगतसे कोई अलग (अनुभवमें आता है)। अभी तक जो वेदनमें आया है उससे अलग जातका आनन्द है। और जो आत्मामेंसे प्रगट होता आनन्द है। उसका मूल अस्तित्व आत्माका है। चैतन्यतासे भरा आत्मा है। उसमें आनन्द है, ज्ञान है, आदि अनन्त गुण हैं। वह आनन्द और सुख कोई अपूर्व उसे प्रगट होता है। भेदज्ञानकी धारा प्रगट करे, ऐसा पुरुषार्थ करे, तत्त्व विचार करे, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा करे, अंतर मेरा ज्ञायक आत्मा मुझे कैसे पहचानमें आये? ऐसे ज्ञायकका लक्ष्य करे। बारंबार अभ्यास करे तो वह प्रगट हो सके ऐसा है।
अमुक जातकी पात्रता तैयार हो तो वह स्वानुभूति प्रगट होती है। बाहर कहीं सुख न लगे, चैन न पडे, विकल्पमें आकुलता लगे। ज्ञायक लक्षण आत्माका है उसे स्वयं गहराईमें जाकर ग्रहण करे। मात्र बुद्धिसे नहीं परन्तु उस तत्त्वमेंसे उस वस्तुको पहचाने-चेतनको, तो यथार्थ स्वानुभूति हो।
मुमुक्षुः- अन्दर जानेके लिये भेदज्ञान करनेकी जरूरत है?
समाधानः- हाँ, भेदज्ञान करनेकी जरूरत है।
मुमुक्षुः- अन्दर जानेके लिये अनुभव करनेके लिये भेदज्ञानसे भिन्न तो करना पडेगा।
समाधानः- भेदज्ञान करना। आत्माको लक्षणसे पहचान ले कि मैं ये जाननेवाला ज्ञायक हूँ। ये सब जो जाननेमें आता है वह आकुलतारूप है, वह मेरा स्वरूप नहीं है। मेरा स्वरूप तो शान्ति, आनन्द, ज्ञायकता जाननेवाला मैं, ऐसे स्वयंको पहचानकर उसका भेदज्ञान (करे)। क्षण-क्षणमें भेदज्ञानकी धारा प्रगट हो, उसकी उग्रता हो तो
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विकल्प टूटकर स्वानुभूति हो। वह उसका उपाय है। चैतन्य पर ऐसी एकत्वबुद्धि और परसे विभक्त। अर्थात परकी ओरसे विभक्त भेदज्ञान और चैतन्यकी ओर एकत्व (हो) कि मैं चैतन्य हूँ। इस प्रकार अपने अस्तित्वको अभेदरूपसे ग्रहण करता है।
मुमुक्षुः- उदयगत जो विस्मृत हो जाता है, बाहरके जो भी उदय आये उसमें जुड जाते हैं, छूट जाता है, अभ्यास नहीं है न।
समाधानः- हाँ, उदय है उसे वह जानता है। उदय कर्म नहीं करवाता है, अपनी अस्थिरताके कारण होता है। वह जानता है कि मेरे पुरुषार्थकी मन्दता है। लेकिन वह विभावस्वभाव है, मेरा स्वभाव नहीं है।
मुमुक्षुः- इस प्रकार भिन्न करता जाय?
समाधानः- हाँ, उसे भिन्न करता है कि यह पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है, उसे भिन्न करके मेरा स्वभाव ज्ञायक है। इस प्रकार भिन्न करता है। वही भवका अभाव होनेका उपाय है और वही सुखका उपाय है।
मुमुक्षुः- सतत यही करनेका है?
समाधानः- हाँ, वही करनेका है, करना यही है। चैतन्यकी ओर एकत्वबुद्धि और परसे विभक्त, यह करना है।
मुमुक्षुः- अनादिकालसे जो कर्ताबुद्धि है वह उसमें दौड जाती है। उसमेंसे वापस मुडना है।
समाधानः- कर्ताबुद्धि (है कि) मैं परको कर सकता हूँ, मैं परको रख सकता हूँ, ऐसी जो परके साथ कर्तृत्वबुद्धि है। पर तो स्वयं परिणमता है, उसे-पर पदार्थको स्वयं कर नहीं सकता। विभावपर्याय अपनी अस्थिरतासे होती है। होता है चैतन्यकी पर्यायमें परन्तु वह अपना स्वभाव नहीं है, इस प्रकार उसे जानता है। उसका ज्ञायक होता है।
... तेरे आत्मामें सब भरा है। तेरे आत्माका अस्तित्व ग्रहण कर। उसमें ज्ञान, आनन्द और सुख सब भरा है। इसलिये तू (उसमें) जा। उसमें तुझे सुहाय ऐसा है। वह तेरे रहनेका स्थान है, वह तेरे सुखका धाम है, उसमें तू जा। तो तुझे उसमेंसे सुख प्रगट होगा। रहनेका स्थान, ठिकाना हो तो वह चैतन्य है।
मुमुक्षुः- बाहरमें कहीं अच्छा न लगता हो तो ही इसमें अच्छा लगे ऐसा क्यों?
समाधानः- बाहरमें अच्छा न लगता हो तो ही अच्छा लगे, नहीं तो कहाँ- से? बाहरकी रुचि जिसे लगी है, उसे आत्माकी रुचि नहीं है। जिसे आत्माकी रुचि लगे उसे बाहरकी रुचि टूट जाती है। बाहरमें जिसे रुचि और तन्मयता है, उसे आत्माकी लगन नहीं है, वह आत्माकी ओर जा नहीं सकता। अनादि कालसे स्वयं बाहरमें तन्मय
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होकर रहा है। इसलिये आत्माकी लगन नहीं लगायी है, उसमें अनन्त काल व्यतीत हो गया है। आत्माकी रुचि लगे तो ही आत्मामें जा सके ऐसा है।
बहुत लोग कहते हैं, कहीं अच्छा नहीं लगता, अच्छा नहीं लगता। परन्तु तेरे आत्माका अस्तित्व ग्रहण कर। वह तेरे रहनेका स्थान है। उसमें तुझे अच्छा लगे ऐसा है, वह सुखका धाम है। इसलिये तू उसे ग्रहण कर और उस जातका पुरुषार्थ कर। तो उसमेंसे ही सब सुख प्रगट होगा। परन्तु बाहर रुचे नहीं तो ही अन्दर जा सके ऐसा है। बाहर जिसे रुचे उसके लिये तो बाहर संसार खडा ही है।
मुमुक्षुः- अन्दरमें सुख देखा नहीं है तो कैसे विश्वास करे?
समाधानः- सुखको देखा नहीं है, परन्तु बाहर कुछ रुचता नहीं और सुखको इच्छता है, सुखकी इच्छा है। उसे बाहर कहीं चैन नहीं है, रुचि नहीं है तो सुखका एक पदार्थ जगतमें है, उसे तू तेरे विचारसे ग्रहण कर। तत्त्वको ग्रहण कर, उसीमें सुख है। जो देव-गुरु और शास्त्र बता रहे हैं, मुनिओंने प्रगट किया है। अनन्त तीर्थंकरोंने सुखका धाम प्रगट किया है और सब महापुरुषोंने बताया है। इसलिये तू विचार कर तो आत्मामें ही सुख है। तुझे दिखाई नहीं देता है। जो तीर्थंकरोंने महापुरुषोंने, गुरुने जो कहा है, तू तत्त्वका विचार करके अन्दर देख तो तुझे भी दिखाई देगा। तो तेरा आत्मा ही अन्दरसे जवाब देगा।
तू तत्त्वका स्वभाव अन्दर देख। जाननेवाला अन्दर विराजता है, ये कुछ नहीं जानता है। जाननेवाला विराजता है, उसमें सुख है। तू विचार कर तो तुझे प्रतीत हुए बिना नहीं रहेगा। उसी मार्ग पर अनन्त तीर्थंकर मोक्षमें गये हैं और उन्होंने वह मार्ग बताया है। उसका तू विश्वास लाकर अंतरमें विचार कर तो तुझे विश्वास आये बिना नहीं रहेगा।
मुमुक्षुः- राग और द्वेषके परिणाममें अटक जाते हैं। कुछ समझमें नहीं आता। ऐसी उलझन होती है...
समाधानः- स्वयंकी रुचि नहीं है। रुचि मन्द है इसलिये अटक जाता है। पुरुषार्थ अधिक करना। अधिक पुरुषार्थ करना, रुचि ज्यादा बढानी। पुरुषार्थ मन्द हो जाय तो बारंबार उसका अभ्यास करना। बाहर कहीं पर रुचि लगे तो उसका प्रयत्न करता ही रहता है। बाहरकी रुचि हो तो बाहरकी महेनत अथवा कोई भी कामकी जिम्मेदारी ली हो तो करता ही रहता है, उसके पीछे लग जाता है। तो इसकी रुचि लगे तो उसके पीछे लगकर बारंबार प्रयत्न करे तो होता है। किये बिना नहीं होता।
मुमुक्षुः- उतावली करनेसे नहीं होता।
समाधानः- उतावली करनेसे नहीं होता है, स्वभावको पहचानकर होता है, धैर्यसे
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होता है। प्रमाद करे तो नहीं होता है, आकुलता करे तो नहीं होता है। धैर्यसे, शान्तिसे स्वभावको पहचानकर यथार्थरूपसे विचार करे तो होता है। स्वयं पुरुषार्थ करे। अपने स्वभावको ग्रहण करे तो होता है।
मुमुक्षुः- संतोंके आशीर्वादसे हो तो होता है।
समाधानः- संतोंके आशीर्वादसे स्वयं उपादान तैयार करे तो आशीर्वाद आशीर्वादरूप हो। अकेला निमित्त-पर पदार्थ कुछ कर नहीं देता। स्वयं पुरुषार्थ करे तो आशीर्वाद उसे लागू पडता है।
मुमुक्षुः- वास्तवमें अनेक जीवोंका तारते हैं।
समाधानः- तारते हैं... पुरुषार्थसे तिरता है। तीर्थंकर भगवानने तारा,.. भगवानकी वाणीमें उतना प्रबल निमित्तत्व है कि भगवानकी वाणी छूटे तो सब तिर जाय। ऐसा निमित्त है। परन्तु वस्तु स्वभाव ऐसा है कि जिसका उपादान तैयार हो, उसे निमित्त निमित्तरूप (होता) है। जिसका उपादान तैयार न हो उसे निमित्त निमित्तरूप नहीं होता। उपादान तैयार हो उसे ही निमित्त होता है। पुरुषार्थ करे उसे होता है। कोई किसीको तारता हो तो अनन्त तीर्थंकर मोक्षमें गये तो सबको क्यों नहीं तारा?
मुमुक्षुः- शास्त्रज्ञान..
समाधानः- प्रयोजनभूत तत्त्वको पहचाननेके लिये कि मैं चैतन्य भिन्न हूँ। यह भिन्न है। अतः प्रयोजनभूत (जानना)। ज्यादा जानना और ज्यादा धोखना, ऐसा प्रयोजन नहीं है। तत्त्वका विचार करना। मूल प्रयोजनभूत चैतन्यतत्त्वकी पहचान हो उतनी जरूरत है। परन्तु उससे ज्यादा जरूरत... स्वयं ज्यादा अभ्यास करे तो उसमें कोई नुकसान नहीं है, परन्तु वह ऐसा मानता हो कि इसका अभ्यास करनेसे ही होगा, ऐसा नहीं है। अंतर दृष्टि करे तो हो। शास्त्र अभ्यास करे परन्तु अंदर दृष्टि न करे तो नहीं होता है। दृष्टि स्वयंमें करनी चाहिये।
मुमुक्षुः- बात तो यहीं पर आती है, घुमफिर यहीं आती है।
समाधानः- घुमफिर कर स्वयंको ही करना है, दूसरा कोई नहीं कर देता।
मुमुक्षुः- मार्ग अन्दरसे ही मिलेगा।
समाधानः- अंतरमेंसे मार्ग मिलता है।
मुमुक्षुः- ...
समाधानः- अनन्त तीर्थंकरों मार्ग बता गये हैं, करना स्वयंको ही है। गुरुने वाणी बहुत बरसायी है। मार्ग अत्यंत स्पष्ट कर दिया है। किसीको कहीं भूल न रहे उतना गुरुदेवने स्पष्ट किया है। इसलिये स्वयंको ही करना है। अपनी कचासके कारण स्वयं करता नहीं है। अपनी भूल है। निमित्त तो प्रबल होता है भगवानकी वाणीका, गुरुकी
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वाणीका निमित्त प्रबल (है)। उपादान स्वयं तैयार न करे तो गुरु अथवा देव क्या करे? प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। स्वयं पुरुषार्थ करे, स्वयं निमित्तको ग्रहण करे कि गुरु क्या कहते हैं? भवगान क्या कहते हैं? स्वयंको ग्रहण करना चाहिये।
समाधानः- .. आत्मामें कुछ नवीनता प्रगट करनी है। अनन्त कालसे बाहरका सब करता रहा है, अंतरका कुछ नहीं किया है। अंतर दृष्टि करके अंतरमें कुछ नवीनता प्रगट करे। भेदज्ञान करके दृष्टि स्व सन्मुख करके कुछ नवीन पर्याय प्रगट हो, भावना (करे)। ज्ञाता पर दृष्टि (करे)। ज्ञाताको पहचानकर उसका भेदज्ञान करके स्वानुभूति प्रगट करे उसकी भावना, अभ्यास करे। बाकी शरीर तो शरीरका काम करता रहे। आत्मा स्वतंत्र है। आत्माको जो करना है (उसमें) स्वयं स्वतंत्र पुरुषार्थ करके कर सकता है। गुरुदेवने बहुत कहा है।
दिशा अपनी ओर स्वसन्मुख करके अपनेमेंसे ज्ञान, दर्शन, चारित्रकी पर्यायें प्रगट करनी, वही करना है। वही नवीनता है। जीवनकी नवीनता वही है कि अंतरमेंसे कुछ नवीनता प्रगट हो। और वही मार्ग है। सुखका मार्ग, आनन्दका मार्ग वही है। बडे- बडे राजाओंने भी वही मार्ग ग्रहण किया है। वही करने जैसा है। चक्रवर्ती आदि सबने वही मार्ग ग्रहण किया है। यथार्थ वही करना है।
(देव-गुरु-शास्त्रको) हृदयमें रखना। आत्माकी अंतर दृष्टि करके आत्माका स्वरूप प्रगट करना। उसके लिये तत्त्व विचार, शास्त्र अभ्यास आदि करना। आत्मा स्वयं स्वतंत्र है। चैतन्य आत्मा स्वतंत्र है इसलिये आत्माका पुरुषार्थ आत्मामें करना।
... के कारण कि मैं शरीर, विभाव मैं, संकल्प-विकल्प आदि मानों मैं हूँ, ऐसी एकत्वबुद्धि हो गयी है। वह एकत्वबुद्धि तोडकर अंतर दृष्टि करे तो आत्मा पहचाना जाय ऐसा है। गुरुदेवने वह मार्ग बताया है और वह मार्ग कोई अपूर्व है। आचार्य भगवंत, गुरुदेव आदि सब वही कहते हैं कि आत्मा अंतरमें है। अंतरमें सुख है, अंतरमें आनन्द है, बाहर कहीं नहीं है। बाहर जीव व्यर्थ प्रयत्न करता है। अनन्त कालसे अनन्त जन्म-मरण करता है। मानों बाहरसे कहींसे मिलेगा। ज्यादासे ज्यादा बाहरसे थोडी क्रिया कर ले अथवा कुछ कर ले तो मानों धर्म हो गया, ऐसा मानता है। परन्तु धर्म तो अंतरमें रहा है। शुभभाव करे तो पुण्य बन्ध होता है, देवलोक मिलता है। परन्तु भवका अभाव तो अंतर आत्मा-शुद्धात्माको पहचाने तो ही होता है। इसलिये अंतर आत्माकी दृष्टि करके पहचाननेके लिये तत्त्व विचार, शास्त्र स्वाध्याय, गुरुका उपदेश (श्रवण करना), वह सब जीवनमें करने जैसा है। उसका विचार करके आत्मा पहचाने तो भवका अभाव होता है। अंतर आत्मा विराजता है और कोई अपूर्व तत्त्व है। वह ज्ञान, आनन्दसे भरा है। उसे पहचानने जैसा है। और वह स्वानुभूतिमें प्रगट होता है।
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ये विकल्पकी झाल है, वह टूटकर जो निर्विकल्प स्वानुभूति हो, सिद्ध भगवानका अंश प्रगट होता है, वह करने जैसा है। जीवनमें वह कैसे हो, वही सत्यार्थ मुक्तिका मार्ग है। गुरुदेवने और अनन्त तीर्थंकरोंने सबने वह मार्ग दर्शाया है।
मुमुक्षुः- स्वाध्याय मन्दिरमें सब बताया, आपका भूतकाल, भविष्यकाल। ये सब क्या है? आश्चर्य होता था कि ये सब है। ... भूत, भविष्य और वर्तमान सब बताया है...
समाधानः- अंतर आत्माको पहचाने। आत्मा ज्ञानसे भरा है। त्रिकाल केवलज्ञानी जगतमें है, वे लोकालोकको जानते हैं, समय-समयको जानते हैं। ये तो एक अल्प है। ज्ञान तो जीवका स्वभाव है। अंतर स्वानुभूति करके आत्मा प्रगट करना, वही सत्यार्थ है। भूत, भविष्य और वर्तमान वह तो आत्माका जाननेका स्वभाव ही है। समय- समयका जाने ऐसे केवलज्ञानी भगवान जगतमें विराजते हैं। ये तो एकदम अल्प है और वह तो आत्माका स्वभाव ही है, जान सके ऐसा है।
अनन्त जन्म-मरण करते-करते यह जीव आया है। कोई कहीं जन्मता है, कोई कहीं जन्मता है। स्वयंके जैसे पूर्वके उदय हों, उस अनुसार जन्म लेता है। उसमें कोई पूर्वका कारण है। पूर्वमें अनन्त भव करके आया है। वर्तमान जिस प्रकारका स्वयं करता है, उस जातका उसका भविष्य होता है। इसलिये ज्ञानस्वभावी आत्मा है। विकल्प तोडकर आत्मामें ज्ञानकी निर्मलता हो तो वह सब प्रगट हो सके ऐसा है। आत्मा ज्ञानस्वभावसे भरा है। आत्मामें अनन्त ज्ञान है।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- जिसे आत्माका करना है, आत्माकी खरी जिज्ञासा जागृत हुयी हो, वह सच्चे सत्पुरुषको पहचान लेता है। जिसे भवका अभाव करनेकी जिज्ञासा जागी हो, उसका हृदय ऐसा पात्र हो जाता है कि सच्चे गुरु कौन है, उनकी वाणी, उनका हृदय, उनका अंतरंग हृदय किस प्रकारका है, उनकी वाणी द्वारा और अमुक प्रकारके उनके परिचय द्वारा पहचान लेता है कि ये सत्पुरुष है। जिसे खरी जिज्ञासा जागृत हुयी है, वह पहचान ही लेता है। ऐसी स्वयंकी तैयारी चाहिये। तो सत्पुरुष पहचानमें आये बिना नहीं रहते। गुरुको पहचाना जा सके ऐसा है। जिसके हृदय-नेत्र ऐसे निर्मल हो जाय, वह सच्चे सत्पुरुषको पहचान लेता है। जिसे आत्माकी जिज्ञासा जागृद हुयी हो, प्रथम आत्माकी जिज्ञासा तैयार करनी। जिसे बाहरमें कहीं रुचि नहीं लगता, जिसे कहीं सुख नहीं लगता, ऐसी यदि जिज्ञासा हो और जिसे आत्माका ही करना हो, उसे स्वयं विचार करना, स्वाध्याय करना, सच्चे गुरुको पहचानना, सच्चे गुरु क्या कहते हैं, कैसा मार्ग बताया है, सच्चे गुरुकी पहचान करके वे क्या कहते हैं, उस मार्गका
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निश्चय करना, विचार करना। उसकी रुचि आत्माकी ओर जानी चाहिये। जबतक बाहरकी रुचि है, जिसे बाहरमें रुचता है उसे तो आत्माकी ओर (आना कठिन है)। इस जन्म- मरणसे, इस विकल्पकी झालमें जिसे शान्ति नहीं लगती है। शान्ति कहाँ है उसकी जिसे खोज करनी हो तो उसे विचार करना, लगन लगानी, उस जातके शास्त्र पढना, उस जातके गुरुका परिचय करना। उस प्रकारका सत्संग करना कि जिससे उसे सच्चा मार्ग मिल जाय। सच्चा मार्ग मिले तो उस प्रकारका विचार, लगनी सब वही करने जैसा है। लेकिन आत्माकी अंतरमेंसे लगनी चाहिये।