Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 177.

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ट्रेक-१७७ (audio) (View topics)

समाधानः- .. निर्णय करना पडे। काँच कौन है और हीरा, रत्न आदि क्या है, उसकी परीक्षा करनी पडे। ... बाहरमें तो करता है, लेकिन अंतरमें करना है। आत्मा कौन? उसे बतानेवाले कौन? गुरुदेवने कोई अपूर्व स्वरूहप बताया है। और आत्मा भी अपूर्व और आत्मा अनुपम है। उसे पहिचाननेका प्रयत्न करना। मनन, चिंतवन, उसकी महिमा (करनी)। पुरुषार्थकी मन्दतासे उतनी तैयारी न हो इसलिये ये सब साधन दिखते हैं, उसमें रुचि हो जाती है। वहाँ ऐसे साधन नहीं होते न। बारंबार उसीका घोलन करते रहना। मनुष्यभव मिला, उसमें ऐसे गुरु मिलने इस पंचमकालमें महा मुश्किल है। सच्चा मार्ग बतानेवाले। मार्ग गुरुदेवने बताया। अंतरमेंसे स्वयं रुचि करके, नक्की करके पुरुषार्थ करने योग्य है।

मुमुक्षुः- आप अन्दरका सब जानते हो। हमारा कल्याण हो..

समाधानः- करनेका स्वयंको है।

मुमुक्षुः- वह तो हमको ही करना है। अंतर ज्ञानी हो न, इसलिये हम कहाँ है, क्या है, ... तो हमें जरा... वहाँ तक पहुँचे।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- मन्त्र गुरुदेवने एक ही दिया है, ज्ञायकका मन्त्र है। वह मन्त्र भी अन्दर ज्ञायक ज्ञायकरूप परिणमे। एकत्वबुद्धि अनादिकी है। उसका अभ्यास एकत्वताका है। उसे एकत्वबुद्धि हो रही है। उसे तोडकर मैं ज्ञायकरूप हूँ। ज्ञायकरूप परिणति प्रगट करनी, वह अपने हाथकी बात है। स्वयंको शरीरके साथ एकत्व, विभावके साथ एकत्व, हर जगह एकत्वबुद्धि हो रही है। इसलिये उसे पूरे जीवनका-परिणतिका पलटा करना है। परिणति दूसरी हो गयी है। पूरा पलटा।

अन्दर मैं ज्ञायकरूप ही हूँ, उसका पूरा पलट जाना चाहिये। मैं ज्ञायक ही हूँ, अन्य कुछ नहीं हूँ। मेरेमें कुछ है ही नहीं। मैं तो अकेला ज्ञायक, अकेला ज्ञायक हूँ। ऐसी परिणतिका पूरा पलटा, उसकी दिशाका पलटा, उसकी दृष्किा पलटा। उसके पूरा आंतरिक जीवनका पलटा हो, वह उसे पुरुषार्थसे होता है। पूरा पलटा.. अभी तो दृष्टि, ज्ञान और अमुक प्रकारसे उसकी परिणतिका पलटा हो। आगे तो अभी स्वानुभूति


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तो दूर रही, परन्तु अभी तो उसे पूरी दृष्टिका पलटा करना है। वह पलटा करनेके लिये उसे उतना अभ्यास करनेका है। पूरी दृष्टि बाहर है। उसका पूरा पलटा स्वयंको करनेका है। पूरी दिशा बदलनी है, दृष्टि पलटनी है। वह दृष्टि पलटे तो अन्दरसे परिणति प्रगट हो।

मुमुक्षुः- पुरुषार्थ करना यानी वांचन ज्यादा करना या मनन करना?

समाधानः- वांचन, विचार आदि सब करना, लेकिन एक चैतन्य-ओरकी दृष्टि प्रगट करनी। अंतरकी दिशा पलटनेके लिये। हेतु-ध्येय वह होना चाहिये। (जब तक) वह हो नहीं, वह परिणति तदगतरूप, उस रूप तदाकार परिणति न हो तब तक वांचन, विचार आदि सब वही करना होता है। विचारमें टिके नहीं तो वांचन करे, वांचनमेंसे फिर विचार करे। जहाँ परिणति उसकी स्थिर हो, वह करता रहे। परन्तु करनेका एक ही है-उसकी दृष्टि पलटनी है। अन्दरकी दिशा पलटनी है।

मुमुक्षुः- दिशा तो पलटती हो ऐसा दिखाई नहीं देता। पीछे पडे हैं..

समाधानः- उसके पीछे लगे रहना, उसके पीछे पडते रहना। जब तक न हो तब तक एक ही करना है। तो ही अन्दरसे ... ये तो अनादिका अभ्यास है। जिसे पलटता है उसे अंतर्मुहूर्तमें पलटता है, न पलटे उसे देर लगती है। गुरुदेवने मार्ग बताया। कितने ही लोगोंको तो मार्ग ही हाथमें नहीं आता। ये तो गुरुदेवने मार्ग बताया है। ये शरीर तू नहीं है, विभाव तू नहीं है, गुणके भेद, पर्यायके भेदमें रुकना नहीं। दृष्टि अखण्ड पर करनी। गुरुदेवने मार्ग कितना स्पष्ट कर दिया है। परको तू कर नहीं सकता। कर्ता, क्रिया, कर्मके भेदसे भी वह परको करता नहीं। तू तेरे स्वभावका कर्ता है। कितने प्रकारसे स्पष्ट करके बताया है। स्वयं अंतरसे भीगना वह भी अपने हाथकी बात है। सब अपने हाथकी बात है। गुरुदेवने तो मार्ग बताया है।

समाधानः- .. सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेका, भेदज्ञान करना वह उसका उपाय है। बारंबार भेदज्ञान। आत्मा-ओरकी रुचि हो, उसकी महिमा हो, उसकी महिमा विशेष करनी, उसका भेदज्ञान करना वह उसका उपाय है। ये शरीर मैं नहीं हूँ। आत्मा चैतन्यतत्त्व अंतर भिन्न है। विभाविक पर्याय जो संकल्प-विकल्प वह भी आत्माका स्वरूप नहीं है। आत्मा भिन्न है।

परद्रव्य जो है उसका उत्पाद-व्यय-ध्रुव (भिन्न है)। आत्मा उत्पाद-व्यय-ध्रुवस्वरूपसे भिन्न है। अंतरमें उसे पहिचानना, बारंबार उसे पहिचाननेका प्रयास करना। मैं चैतन्यतत्त्व हूँ। मेरेमें ज्ञान है, मेरेमें आनन्द है। अनन्त गुणसे भरा मैं आत्मा हूँ। बारंबार उसका अभ्यास करनेसे वह प्रगट होता है। वह हो नहीं तो भी बारंबार उसका अभ्यास करनेसे वह प्रगट होता है।


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जैसे चनेके सेकनेसे उसका स्वाद प्रगट होता है। वैसे बारंबार उसका प्रयास करनेसे प्रगट होता है। इसलिये बारंबार उसका अभ्यास करते रहना। तो प्रगट होता है। पानी स्वभावसे निर्मल है। कीचडसे मलिन हुआ। तो उसमें औषधि डालनेसे वह निर्मल होता है। वैसे आत्माका भेदज्ञान (करनेसे होता है)।

आत्मा तो अनादिअनन्त स्वभावसे द्रव्य स्वरूपसे निर्मल ही है। परन्तु मलिनता विभावके कारण हो गयी है। इसलिये जो विभावपर्याय होती है, वह विभाव भी आत्माका स्वभाव नहीं है। उसका स्वभाव चैतन्यका भिन्न ग्रहण करना। आत्मा ज्ञायक स्वभाव है, उसमें आनन्द है। आदि अनन्त गुणोंसे भरा आत्मा है। उस ओर दृष्टि करनी, उसकी प्रतीत करनी, उसमें लीनता करनेसे वह प्रगट होता है।

जो जिसमें हो उसमेंसे आता है। सुवर्णमेंसे सुवर्ण पर्याय ही होती है। वैसे आत्मामेंसे आत्मा ही प्रगट होता है। विभावमेंसे विभाव होता है। अनादि कालसे शुभाशुभ भावोंकी पर्याय करे तो उसमेंसे जन्म-मरण उत्पन्न होते हैं। आत्माकी शुद्ध निर्मल पर्याय प्रगट करनेसे उसमेंसे शुद्धता ही उत्पन्न होती है। इसलिये बारंबार उसका अभ्यास करनेसे प्रगट होता है।

मैं चैतन्य हूँ, ये विकल्प मेरा स्वरूप नहीं है। ऐसे बारंबार तदरूप परिणति करनेसे, उसमें लीन होनेसे निर्विकल्प दशा होती है और स्वानुभूति होती है। और उसका बारंबार अभ्यास करनेसे चैतन्य जैसा है वह पूर्ण स्वभावसे प्रगट होता है। वह करने जैसा है। वही जन्म-मरण टालनेका उपाय है और वह गुरुदेवने बताया है। अपूर्व उपकार किया है। आत्माकी अपूर्वता गुरुदेवने बतायी है। उसे ग्रहण करने जैसा है।

आत्मा अनादिअनन्त ज्ञायक स्वरूप है। उसमें कोई भेदके विकल्प या आत्मामें अनन्त गुण हैं, परन्तु वह भेद स्वरूप नहीं है। उसके भेदके विकल्पसे भी लक्ष्य दूर करके एक अभेद पर दृष्टि करने जैसी है। ज्ञानमें सब लेना, लेकिन दृष्टि एक आत्मा पर करनेसे (प्रगट होता है)।

जैसे पानीमें कमल भिन्न निर्लेप रहता है। वैसे आत्मा निर्लेप स्वभावी प्रगट होता है। प्रगट होता है तब वह निर्लेप स्वरूप है न, निर्लेपता प्रगट कर सकता है। पुरुषार्थ करनेसे प्रगट होता है। वही जीवनका कर्तव्य है और वही जीवनमें करने जैसा है। आत्मा शाश्वत है और उसमेंसे पर्यायें प्रगट होती है, वह करने जैसा है।

स्वयं ही है। आत्मा जाननेवाला स्वयं ही है। शरीरसे भिन्न आत्मा (है)। शरीरके अन्दर स्वयं भिन्न है। शरीर कुछ जानता नहीं है। अन्दर जाननेवाला है वह आत्मा है। जो जानता रहता है अन्दर वह जाननेवाला आत्मा है। उसमें आनन्द और ज्ञान सब आत्मामें है। ये शरीर कुछ नहीं जानता। अन्दर जाननेवाला आत्मा भिन्न है।


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चत्तारी मंगलं, अरिहंता मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपणत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारी लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपणत्तो धम्मो लोगुत्तमा।

चत्तारी शरणं पवज्जामि, अरिहंता शरणं पवज्जामि, सिद्धा शरणं पवज्जामि, केवली पणत्तो धम्मो शरणं पवज्जामि।

चार शरण, चार मंगल, चार उत्तम करे जे, भवसागरथी तरे ते सकळ कर्मनो आणे अंत। मोक्ष तणा सुख ले अनंत, भाव धरीने जे गुण गाये, ते जीव तरीने मुक्तिए जाय। संसारमांही शरण चार, अवर शरण नहीं कोई। जे नर-नारी आदरे तेने अक्षय अविचल पद होय। अंगूठे अमृत वरसे लब्धि तणा भण्डार। गुरु गौतमने समरीए तो सदाय मनवांछित फल दाता।

मुमुक्षुः- मैं तो परिपूर्ण द्रव्यको पकडकर बैठा हूँ। ऐसा उसमें आता है।

समाधानः- द्रव्यको ग्रहण किया है, पकडकर बैठा है उसका अर्थ यह है। जो पूर्ण स्वभाव द्रव्य अनादिअनन्त पूर्ण भरा ही है पूर्ण स्वभावसे। उसे मैंने ग्रहण किया है, पकडकर बैठा हूँ, उसका अर्थ यह है। उसे ग्रहण किया है। उसकी आगेपीछेकी नीति वैसी है न, पकडकर बैठा हूँ। आगेपीछे क्या आता है?

मुमुक्षुः- आगेपीछे हो तो ज्यादा मालूम पडे।

समाधानः- परिपूर्ण द्रव्यको मैंने ग्रहण किया है।

मुमुक्षुः- ग्रहण किया है, मतलब?

समाधानः- ग्रहण किया अर्थात लक्ष्यमें लिया है। उस पर दृष्टिको स्थापित की है। मैंने दृष्टि बदलकर चैतन्य द्रव्य पर दृष्टि की है। उस पर दृष्टि की वह ग्रहण। उसका अवलम्बन लिया है-ग्रहण किया है।

मुमुक्षुः- अवलम्बन लिया माने?

समाधानः- शब्दके शब्द और उसके पीछे... शुद्ध पर्याय प्रगट होती है। सम्यग्दर्शन प्राप्त हो (तो) अनेक जातकी शुद्ध पर्यायें, चारित्रकी पर्यायें सब द्रव्यदृष्टिके आलम्बनसे, द्रव्यको ग्रहण करनेसे सब प्रगट होता है। मूल वस्तु वह है। उसे ग्रहण करनेसे, उस पर दृष्टि स्थापित करनेसे सभी पर्यायें निर्मल होती हैं। दृष्टि ऊलटी है इसलिये सब पर्याय विभावकी पर्याय होती है। दृष्टि स्वभावकी ओर गयी तो स्वभावमेंसे फिर निर्मल पर्यायें प्रगट होती हैं। आत्मामेंसे सब शुद्ध पर्यायें प्रगट होती है। उस ओर दृष्टि जाय, उस ओर परिणति मुडे इसलिये निर्मलता प्राप्त होती है।

मुमुक्षुः- .. में कहना है कि चारित्र बिना सम्यग्दृष्टि नहीं है।


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समाधानः- चारित्र बिना सम्यग्दृष्टि नहीं है,.. सम्यग्दर्शन सच्चा न हो तो चारित्र नहीं है। उन लोगोंको हमें जवाब क्या देना, हम जवाब दे नहीं सकते हैं। चारित्र बिना सम्यग्दर्शन नहीं है, ऐसा है? सम्यग्दर्शन नहीं है तो चारित्र नहीं है। चारित्र यानी बाह्य चारित्र वहाँ नहीं कहा है। बाह्य चारित्र... अन्दर स्वरूप रमणतारूप चारित्र कब प्राप्त हो? सम्यग्दर्शन प्राप्त हो तो ही चारित्र प्राप्त होता है। स्वरूपकी रमणतारूप चारित्र, जो यथार्थ चारित्र है वह सम्यग्दर्शनके बिना होता नहीं। और वह चारित्र प्रगट हो, उसमें बीचमें मुनिपना आदि सब सहज ही आता है। लेकिन वह सम्यग्दर्शन पूर्वकका चारित्र वही चारित्र है। सम्यग्दर्शन बिनाका चारित्र तो बाह्य क्रिया मात्र और शुभभाव मात्र है। सम्यग्दर्शन बिनाका चारित्र तो शुभभावरूप क्रियामात्र है।

सम्यग्दर्शन हो तो ही सच्चा चारित्र है। अनन्त कालसे जो चारित्र सम्यग्दर्शन बिना अंगीकार किया वह द्रव्य मुनिपना तो अनन्त बार पाला। ऐसा द्रव्य मुनिपना पालकर अनन्त बार ग्रैवेयकमें गया। ऐसा चारित्र तो सम्यग्दर्शन बिनाका अनन्त कालमें बहुत पाला। उससे कहीं भवका अभाव नहीं हुआ। सम्यग्दर्शन हो, अन्दरकी स्वानुभूति प्राप्त हो तो ही सच्चा चारित्र हो। सम्यग्दर्शन बिना चारित्र नहीं है। चारित्र बिना सम्यग्दर्शन, वह तो बाह्य चारित्र समझना, शुभभावरूप। वह चारित्र नहीं है, उससे पुण्य बन्ध होता है। उससे नौंवी ग्रैवेयक तक जाता है।

जिसे सम्यग्दर्शन होता है उसे अवश्य क्रमशः चारित्र आता ही है। उस भवमें न आवे तो दूसरे भवमेें (आता है)। जिसे सम्यग्दर्शन प्राप्त हो, उसे अवश्य चारित्र होता है। गृहस्थाश्रममें सम्यग्दृष्टि होते हैं, चारित्र नहीं होता है, परन्तु सम्यग्दर्शन होता है। परन्तु सम्यग्दर्शन जिसे प्राप्त हुआ उसे अवश्य चारित्र उस भवमें अथवा दूसरे भवमेें अवश्य चारित्र होता है। बाहरसे कपडे छोड दिये इसलिये (हो गया) चारित्र। और फिर धर्मकी प्रतीति वह सम्यग्दर्शन। उसका क्या समझाये? ... वह भिन्न है। अंतरमें ऐसा हो, बादमें बाहरसे त्याग होता है। अंतरमें हो तो बाह्य त्याग आता है। छठवां-सातवां गुणस्थान हो तो ही मुनिपना (होता है)।

मुमुक्षुः- गुरुदेवके शब्दोंके पीछे इतना गंभीर आशय रहा है...

समाधानः- कहनेका आशय अलग ही था।

मुमुक्षुः- गुरुदेवके आशयको आप और मामा समझे हैं। बाकी सब तो..

समाधानः- कहनेका आशय, उसका रहस्य सब अलग ही था।

मुमुक्षुः- आपके ... गंभीर आशय समझ सकते हैं। .. माताजीका उपकार है।

समाधानः- गुरुदेवने सच्चा मार्ग बताया, उस मार्ग पर चलनेसे (प्राप्त होता है)।

मुमुक्षुः- गुरुदेव... गुरुदेवके मुखसे माताजीका नाम ... गुरुदेवको माताजीकी महिमा


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करनेमें शब्द कम पडे हैं।

समाधानः- स्वानुभूतिका मार्ग बताया वह गुरुदेवने ही बताया है। दूसरा कौन बतानेवाला था? इतने शास्त्रके रहस्य खोले। झाटकियाने सब लिखावटमें लिख लिया। लिखावटमें ले लिया। समझे बिना उसे ठीक पडे वैसा लिख लिया।

समाधानः- आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है। ऐसी बात करते थे। आत्मामें स्वभावको पहचाननेसे उसमेंसे धर्म होता है। धर्म बाहरमें सब मानते हैं कि इतनी क्रिया करके धर्म होता है। ऐसे धर्म होता है। धर्म आत्माका स्वभाव है, उस स्वभावको पीछाने और स्वभावमेंसे ही आत्माका धर्म प्रगट होता है।

यह शरीर तत्त्व जड तत्त्व है, आत्मा चैतन्य तत्त्व है। उस चैतन्यतत्त्वको पहचानो। वह अपूर्व अनुपम तत्त्व है। उसको पहचाननेसे उसमेंसे धर्म होता है। बाकी अनन्त कालमें सब किया। शुभभावसे पुण्यबन्ध होता है। देवलोक होता है, भवका अभाव तो होता नहीं। भवका अभाव तो आत्माको पीछाननेसे शुद्धात्माको पीछाननेसे होता है। शुभभाव बीचमें आते हैं। आते हैं तो पुण्यबन्ध होता है। परन्तु भवका अभाव आत्माकी स्वानुभूति शुद्धात्माको पीछाननेसे होती है।

उसका भेदज्ञान करना कि यह शरीर मैं नहीं हूँ, शुभाशुभ भावसे भिन्न मैं चैतन्यतत्त्व हूँ। चैतन्यमेंसे स्वभाव धर्म और मुक्तिका मार्ग उसमेंसे होता है। सुवर्णके गहने (सुवणसे बनते हैं), लोहेमेंसे लोहा होता है। ऐसे विभावमेंसे तो विभाव होता है। स्वभावमेंसे स्वभाव प्रगट होता है। आत्माको पहचाननेसे उसमेंसे यह ज्ञान, दर्शन, चारित्र सब उसमेंसे प्रगट होता है।

समाधानः- गुरुदेव यहाँ बहुत साल विराजे। अब तो गुरुदेवका भव बदल गया। चतुर्थ काल हो तो यहाँ देव आते थे। अभी पंचमकालमें देवोंका आना मुश्किल है।

मुमुक्षुः- .. ऐसे जीव होते हैं, ऐसा बताना है।

समाधानः- लायकातवाले जीव होते हैं।

मुमुक्षुः- क्योंकि अब तो मेरा आयुष्य पूर्ण होने आया है। १०२ वर्ष चल रहा है। और पण्डितजी कहते हैं कि १०६ है, १०७में आपको छूट्टी लेनी है। ऐसा पण्डितजी कहते हैं।

समाधानः- यहाँ भाई है तो अच्छा है न।

मुमुक्षुः- अरे..! बहुत अच्छा है। .. भाई है तो अच्छा है न। हम सबको आधार रहे। ...

समाधानः- अपनी भावनासे जाना होता है। ऐसे पुण्य बन्धते हैं इसलिये। ऐसे भावसे पुण्य बन्ध हो तो जाना होता है।


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मुमुक्षुः- गुरुदेवके पास तो अपनी भावनासे जाय। वहाँ गुरुदेवको पहचानना कठिन पडे। वहाँ गुरुदेवको पहिचानना कठिन पडे कि यही कानजीस्वामी है। वहाँ तो देवका रूप होगा। अवधिज्ञानका उपयोग रखे... तब मालूम पडे न। ऐसा अवधिज्ञान तो है नहीं। देवमें तो अवधिज्ञान तो होता ही है।

मुमुक्षुः- भले ही देवमें हो, लेकिन देव उसका उपयोग करे ही ऐसा कुछ है? माताजीकी तो बात ही क्या करनी। दो मिनिट तो उपदेश दीजिये।

समाधानः- उपदेश क्या देना? गुरुदेवने कहा है वह आपने हृदयमें ग्रहण किया है, वही करनेका है। दुसरा क्या?

मुमुक्षुः- गुरुदेवने क्या कहा है, उसका संक्षेपमें.. समाधानः- गुरुदेवने ज्ञायक आत्माको पहचाननेको कहा है। ज्ञायक ज्ञायक आत्मा, ज्ञायक आनन्दसे भरा चैतन्यतत्त्व भिन्न है, उसे पहचानना। सबसे भिन्न तत्त्व शाश्वत आत्मा, उसे पीछाननेको कहा है। वह करना है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!