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समाधानः- .. आत्मा है ऐसा अन्दर लगे तो पुरुषार्थ हो। उसकी महिमा लगे तो। उसका स्वभाव पहिचाननेका प्रयत्न करना। चारों पहलूसे समझाया है, कहीं किसीको भूल रहे ऐसा नहीं है। लगन लगाने जैसा है।
मुमुक्षुः- .. सहज शुरू हो जाता है?
समाधानः- रुचि बढे, उसका पुरुषार्थ करे, पहचाननेका प्रयत्न करे तो होता है। रुचि बढे तो प्रयत्न हो। अंतरमें ऐसा लगना चाहिये कि कोई अपूर्व वस्तु है। ये सब अपूर्व नहीं है। ये तो अनन्त कालसे बहुत बार मिला है। एक आत्मा नहीं प्राप्त नहीं हुआ। आत्मा अपूर्व है, ऐसी अपूर्वता लगे तो प्रयत्न हो।
गुरुदेव अपूर्वता बताते थे। उनकी वाणीमें आत्मा कोई अपूर्व है ऐसा ही आता था। उसका भेदज्ञान करके आत्माको भिन्न पहचान लेना। आत्मा शाश्वत है। जन्म-मरण करे तो भी आत्मा तो स्वयं शाश्वत है। देह नहीं है, आत्माको जन्म-मरण कुछ नहीं है। आत्मा विभावसे भी भिन्न है। जन्म-मरण कहाँ आत्माको है? आत्मा आनन्दसे भरा है, ज्ञायक स्वरूप है।
मुमुक्षुः- छठ्ठी गाथामें जो ज्ञायकदेव कहा। ज्ञायकदेवको प्राप्त करनेके लिये हमें क्या करना?
समाधानः- उसकी भावना करनी, उसकी लगन करनी, उसकी महिमा करनी। उसको पहचाननेका, स्वभाव ग्रहण करनेका प्रयत्न करना। आत्मा प्रज्ञासे ग्रहण करना, प्रज्ञासे भिन्न करना। प्रज्ञासे करके अंतरमें लीनता करनी, वही गुरुदेवने मार्ग बताया है। आत्मामें एकाग्रता करनी। वह न हो तो तब तक उसकी लगन, उसकी महिमा, उसका अभ्यास, बारंबार चिंतवन, मनन, शास्त्रका चिंतवन करना, मनन करना वह करना।
आत्मा तो शाश्वत आनन्दसे भरा है। उसका विचार करना। गुरुदेवने कोई अपूर्व और अद्भुत मार्ग बताया है और आत्मा अद्भुत स्वरूप है। बारंबार उसका अभ्यास करना। सार वस्तु आत्मा ही है। बाकी सब जगतमें प्राप्त हो गया है, एक आत्मा अपूर्व है, वह नहीं मिला है। उसका प्रयत्न करना। और ऐसे गुरु मिले अपूर्व मार्ग बतानेवाले, इसलिये अपूर्व आत्माको ग्रहण करनेका प्रयत्न करना।
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मुमुक्षुः- .. फिरसे वहीं पहुँच जाते हैं। उसका कोई मार्ग बताईये।
समाधानः- बदल देना, बारंबार बदल देना। बारंबार उपयोग पलटकर गुरुदेवने जो कहा है, उसीका मनन, उसीका चिंतवन, वही करना। आत्मा अपने स्वभावसे शाश्वत रहनेवाला, उसका स्वभाव शाश्वत ध्रुव, उसका उत्पाद-व्यय सब उसमें है। दूसरे परद्रव्यके परद्रव्यमें हैं। उससे भिन्न-न्यारा है। उसे पहचान लेना। संयोग परसे दृष्टि उठाकर अंतरमें दृष्टि करना। अंतरको देखनेकी अंतरचक्षुको प्रगट करना। बाह्य चक्षुसे नहीं दिखेगा।
मुमुक्षुः- .. व्यक्तिको वह करना चाहिये, ऐसा मैं मानता हूँ। परन्तु अन्दरमेंसे स्थिर नहीं हुआ जाता। आप कोई रास्ता बतायेंगे?
समाधानः- आत्माको ग्रहण करके अंतरमें.. गहरी गुफा यानी चैतन्यतत्त्वको पहिचान। उसका स्वभाव पहचानकर अन्दर लीनता करे तो जा सकता है। पुरुषार्थकी मन्दता हो तो जा नहीं सकता। पुरुषार्थकी उग्रता हो तो जा सकता है। आत्माको पीछानना कि आत्मा कौन?
पहले भेदज्ञान करे कि ये शरीर भिन्न और आत्मा भिन्न। विभावस्वभाव अपना नहीं है। ऐसे भेदज्ञान करे। चैतन्यतत्त्वको पहले न्यारा-भिन्न पहचाने कि मैं चैतन्यतत्त्व भिन्न हूँ। मैं ज्ञायक स्वभाव, आनन्द स्वभावसे भरा हुआ एक तत्त्व हूँ। उस तत्त्वको बराबर अंतरमेंसे ग्रहण करके फिर उसमें लीनता करे तो उसमें जा सकता है। पहले अमुक प्रकारसे जा सकता है, क्योंकि अमुक प्रकारकी पहले एकत्वबुद्धि टूटती है। भेदज्ञान होता है कि मैं भिन्न हूँ और यह विभावस्वभाव भिन्न है। उसका भेदज्ञान करके उसमें एकाग्रता करे, ध्यान करे तो उसमें उसे शान्ति और आनन्द प्राप्त होता है। परन्तु जब तक अमुक प्रकारसे अस्थिरता हो तो वह बाहर आता है। परन्तु बारंबार-बारंबार उसमें जानेका अभ्यास करे तो जा सकता है। पुरुषार्थ करे।
पहले आत्माका अस्तित्व ग्रहण करे। तो उसमें स्थिर हो। अस्तित्व ग्रहण किये बिना स्थिर कहाँ होगा? इसलिये पहले अपना अस्तित्व ग्रहण करे कि मैं यह चैतन्य ज्ञायकतत्त्व सो मैं हूँ। इस प्रकार उसका अस्तित्व बराबर ग्रहण हो तो उसमें स्थिरता हो, तो उसमें ध्यान हो।
मुमुक्षुः- दूसरी एक बात यह है कि दर्शन, ज्ञान, चारित्र ये तीन वस्तु मोक्षका मार्ग है। दर्शन और ज्ञान। तो वांचन, सत्समागम और उस प्रकारसे आत्माको प्राप्त कर सकते हैं। बाह्य रीतसे अर्थात मैं ऐसा कहता हूँ कि आगमके वांचनसे, शास्त्रोंके वांचनसे और सत्पुरुषोंके समागमसे वह हो सकता है। और चारित्र है.. अपने यहाँ मुझे ऐसा लगा है कि चारित्र पर कम वजन दिया जाता है।
समाधानः- यथार्थ सम्यग्दर्शन और ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है। चारित्र यानी बाहरकी
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मात्र क्रियाएँ बहुत बार की है। क्रिया करी, सब त्याग किया, छोड दिया ऐसा जीवने अनेक बार किया। और मुनि बनकर जंगलमें रहा। परन्तु यदि आत्माका ज्ञान नहीं हुआ है तो ऐसी क्रिया करके, शुभभाव करके देवलोक प्राप्त हुआ, बहुत मिला परन्तु भवका अभाव नहीं हुआ।
अतः गुरुदेवने ऐसा मार्ग बताते थे कि तू यथार्थ अपूर्व आत्मा है, उसे पहचान। उसको पहचानकर अन्दर जो चारित्र प्रगट होगा वह यथार्थ अंतरमेंसे होगा। बाह्य क्रिया और बाह्य चारित्र तूने अनन्त बार किया है। और करके नौंवी ग्रैवेयक गया है, देवलोकमें। परन्तु भवका अभाव या आत्माकी प्राप्ति, सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ। इसलिये तू आत्माको पीछान। अंतरमें सम्यग्दर्शन और ज्ञान भी बाहरसे नहीं आता है। उसके समझनेके लिये देव-गुरु-शास्त्रका सान्निध्य होते हैं, उसके निमित्त होते हैं, परन्तु करना तो स्वयंको पडता है। मात्र बाहरका ज्ञान वह कोई ज्ञान नहीं है, वह तो विशेष जाननेके लिये, शास्त्रज्ञान आत्माको पीछाननेके लिये बीचमें वह शास्त्रज्ञान होता है।
निश्चय तो अंतरमें आत्माको पहचाने, अंतरमें आत्माको भिन्न करके सम्यग्दर्शन (प्रगट करे)। मैं यह चैतन्य हूँ, यह मैं नहीं हूँ, ऐसे स्वयं भेदज्ञान करे, उसका ज्ञान करे। अंतरमें आत्माको पहचाने वह ज्ञान और आत्माकी स्वानुभूति हो वह दर्शन। ऐसे दर्शन और ज्ञान अनन्त कालमें प्राप्त नहीं हुए। इसलिये उसकी मुख्यता रखकर दर्शन, ज्ञान अंतरमेंसे कैसे प्राप्त हो, वह यदि अंतरमेंसे प्राप्त हो वह अपूर्व वस्तु है, तो उसमें चारित्र यथार्थ आता है। और वह चारित्र उसे अंतरमें सहज पुरुषार्थसे ऐसे प्राप्त होता है कि अंतरमें स्वानुभूति ऐसी प्राप्त हो कि क्षण-क्षणमें अंतरमें चला जाय, बाहर रुकना भी उसे मुश्किल हो जाय। फिर उसे गृहस्थाश्रम भी सुहाता नहीं, इसलिये वह मुनि बनकर चला जाता है। इस प्रकार अंतरमें स्वानुभूतिमें बारंबार झुलते-झुलते ऐसी चारित्रदशा प्राप्त होती है। और वही वास्तविक चारित्र है।
वर्तमानमें जो बातें करते हैं, आत्मा कोई अपूर्व है, उसकी प्राप्ति कैसे हो उसकी बातें चलती है। क्योंकि चारित्रदशा बाहरसे क्रियाका त्याग तो अनेक बार हुआ है। परन्तु अंतरमें जो अपूर्वता आत्माकी लगनी चाहिये वह लगी नहीं। इसलिये दर्शन, ज्ञानको मुख्यता की, उसका कारण यह है कि उससे भवका अभाव होता है। फिक्षर चारित्र जो आता है वह यथार्थ चारित्र आता है। मात्र बाहरका चारित्र अनन्त कालमें बहुत बार किया है।
और ये जो दर्शन और ज्ञान है, उसके साथ अमुक जातका चारित्र स्वरूपाचरण तो आता है। जिसे अंतरमें आत्मा रुचे उसे बाहरका रुचता नहीं। उसे अंतरमेंसे विरक्ति आ जाती है। बाहरका सब कार्य करे तो उसका मर्यादित होता है। उसके कषाय आदि
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सब बाहरका मर्यादित हो जाता है। वह एकत्वबुद्धि तन्यमतासे वह नहीं करता है, उसका रस, रुचि टूट जाता है। उसे आत्माकी ही रुचि लगती है कि ये कुछकरने जैसा नहीं है। उसे उपादेय नहीं लगता है। आत्माको ही अंगीकार करना, ऐसी उसकी अंतरकी रुचि बदल जाती है।
इसलिये पहले मुख्य सम्यग्दर्शन आत्माकी स्वानुभूति हो तो उसमें यथार्थ चारित्र आता है। और वह चारित्र, सच्चा मुनिपना और सच्चा केवलज्ञान उसमेंसे प्रगट होता है। बाह्य क्रिया तो बहुत बार की है। अनन्त कालमें ऐसे वेष धारण कर लिया। अभी देखो तो त्याग लेकर बहुत लोग नीकल पडते हैं। परन्तु अंतरमें आत्माको पहचाने बिना मात्र बाह्य क्रिया, मात्र शास्त्रसे बोले। अभी जो बोलते हैं, आत्मा कैसे प्राप्त हो? उसकी सब बातें चलती हैं। और शास्त्रकी वह बातें करता है। अंतरमें करना (है)। क्योंकि सम्यग्दर्शन प्राप्त करना वह भी दुर्लभ है। इसलिये उसका पुरुषार्थ करनेके लिये उसकी भावना, उसका पुरुषार्थ, उसकी लगन और अंतरमें सब उसे निःसार लगे। सारभूत आत्मा है। रुचि पलट जाती है।
अंतरमेंसे उसे त्याग हो जाता है। अंतरका त्याग। फिर बाहरका त्याग आते-आते वह तो उसका जैसा पुरुषार्थ हो, वैसा हो। सम्यग्दर्शन जिसे प्राप्त हो, उसमें किसीको तुरन्त चारित्र आ जाय, किसीको देर लगे। कोई चक्रवर्ती गृहस्थाश्रममें हो उसे बाहरसे चारित्र न हो तो चारित्र आनेमें देर लगे। परन्तु अंतरमेंसे भिन्न ही होते हैं। फिर चारित्र आये तब छोडकर चले जाते हैं। अंतरमेंसे स्वानुभूतिकी दशा ऐसी प्राप्त हो जाय कि सब छूट जाता है। ऐसा होता है। और वह सच्चा मुनिपना है।
ऐसा तो चक्रवर्ती छोडकर चले जाते हैं, तीर्थंकर छोडकर चले जाते हैं। परन्तु वह अंतरका चारित्र आता है कि जिससे भवका अभाव होता है। बाह्य त्यागसे तो क्या? ऐसे शुभभाव तो बहुत बार किया है और पुण्यबन्ध हुआ और देवलोकमें गया। उससे भवका अभाव नहीं होता। इसलिये गुरुदेवने मुख्य मार्ग बताया है कि भवका अभाव कैसे हो?
मुमुक्षुः- बहिनश्री! गुरुदेव, आप कदाचित आप दो ही व्यक्ति ऐसी हैं कि जिन्होंने कुछ सिद्धि की है। तो वर्तमानमें जितने भी लोग इस विषयको मानते हैं, उसमेंसे दूसरे लोगोंको असर होनी चाहिये। लोहेमेंसे पारसमणि होना चाहिये। उस दृष्टिसे अपने विचार करे तो अभी जो असर हुयी है, उस विषयमें आपके क्या विचार हैं? इसकी असर, विचारणा,... धर्म है वह विचारणा है, और यह विचारणा जो महाराज साहबने की है, उसकी असर अन्दर ऊतरकर समाजमें देखें तो कोई खास विशेष हुयी हो ऐसा आपको लगता है? क्योंकि... मिलते होंगे।
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समाधानः- गुरुदेव तो मार्ग बताये। जो साधना करते हैं वह मार्ग बताते हैं। उसमें जिसकी जितनी योग्यता हो उस अनुसार असर होती है। दूसरा कोई तीरे या न तीरे, सच्चा मार्ग... गुरुदेव जैसे जागे वे मार्ग बताये। दूसरोंको असर होनी, वह उसकी योग्यता आधारित है। बहुत जीव ऐसे हैं, जिसकी रुचि तो पलट जाती है। जो रुचि पलट जाती है, जो मान्यता पलट जाती है, अकेली क्रियामें धर्म मानते थे, उसमेंसे धर्म कोई अलग है, ऐसी रुचि तो बहुत लोगोंकी पलट जाती है। बाकी आचरण कैसा हो, वह (योग्यता पर निर्भर करता है)। परन्तु अंतर रुचि पलट जाय ऐसे तो बहुत जीव होते हैं।
मुमुक्षुः- ये जो जैनीझम है, उसमें इतनी तरहके हैं, कि हम जो युवा वर्ग है, हमें बहुत बार समझमें नहीं आता है। क्योंकि इतने गूट हो गये हैं कि हम युवा वर्गको समझमें नहीं आता है।
समाधानः- (जैनदर्शन) भिन्न-भिन्न नहीं है, गूट हो तो भी। बाहरके गूटको एक ओर रख दो। अंतरमें भेदज्ञान करके आत्माको पहचानना वह एक ही मार्ग है। गुरुदेवने वह कहा है और शास्त्रमें वह आता है। अन्दरमें स्वानुभूति करके आत्माको भिन्न जानना, भेदज्ञान करके उसमें लीनता करनी, उसमें प्रतीत करनी वही मुक्तिका मार्ग है। दूसरा कोई मुक्तिका मार्ग नहीं है। उसमें बीचमें सच्चे देव-गुरु-शास्त्र शुभ परिणाममें होते हैं। अन्दर शुद्धात्मा-आत्माको भिन्न पीछानना। उसकी प्रतीत, उसकी लीनता, उसकी स्वानुभूति कैसे हो, उसका प्रयत्न करना, वह एक ही मार्ग है, दूसरा कोई मार्ग नहीं है।
मुमुक्षुः- लेकिन जैनिझममें क्यों सब एक नहीं सकते? क्योंकि जब तक हम एक नहीं होंगे, तब तक एक प्रकारसे सोसायटीमें असर तो होती ही है न। हम सोसोयटीके तौर पर, हम सब बनिये कहलायें, जैन कहलायें, जैनोंका एक पंथ हो जाय तो हमारे देशको फायदा होगा। .. उसमें तो कोई शंका है ही नहीं। परन्तु साथ-साथ सोसायटीमें जो लोग रहते हैं, उनका कुछ फायदा होना चाहिये न। हम लोग ही जैनमें गूट बनायेंगे और कहेंगे कि...
समाधानः- .. स्वयं अपना कर सकता है। बाहरका होना, नहीं होना वह (अपने हाथकी बात नहीं है)। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र हैं। कोई द्रव्यको बदलना अपने हाथकी बात नहीं है। बडे महापुरुष हों, वे भी उपदेश देकर चले जाते हैं। किसीको बदलना अपने हाथकी बात नहीं है।
गुरुदेवने सबको उपदेश दिया। उनके उपदेशका ऐसा निमित्त कि कितनोंका उपादान बदल गया। दूसरेको कोई बदल सके, वह किसीके हाथकी बात नहीं है। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र हैं। कोई समाजको हम बदल सके, वह कोई हाथकी बात नहीं है। वह तो
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स्वतंत्र है। कैसे बदलना वह कोई द्रव्य किसीको कुछ कर नहीं सकता। मात्र स्वयं भाव करे। उसे उपदेश देकर छूट जाय, बाकी उसे बदल सके, किसीका नहीं कर सकता। स्वयं अपना कर सकता है। महा तीर्थंकर हो गये, वे उपदेश देते हैं। बाकी प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्ररूपसे बदलते हैं। किसीको बदल नहीं सकते। कुछ बाहरका करना वह किसीके हाथकी बात नहीं है।
मुमुक्षुः- .. अशुद्ध है, ऐसा कहनेमें आता है। अनादिसे यानी उसकी शुरूआत नहीं है, तबसे वह अशुद्ध है। .. कोई कालमें, किसी परिस्थितिमें वह अशुद्ध हुयी और वह अशुद्ध हो गया है, उसे अपने प्रयत्न करे...
समाधानः- अनादिसे अशुद्ध है। द्रव्य शुद्ध है, परन्तु पर्यायमें अशुद्धता है। यदि शुद्ध हो और बादमें अशुद्ध हो, ऐसा नहीं होता। जो शुद्ध वस्तु हो वह अशुद्ध कैसे हो? द्रव्यसे शुद्ध है, परन्तु पर्यायमें अशुद्धता है। यदि शुद्ध हो और बादमें अशुद्ध हो तो फिर शुद्ध होकर अशुद्ध बन जाय, ऐसे ही शुद्ध और अशुद्ध चलता रहे।? मुक्ति होनेके बाद कभी अशुद्ध होता ही नहीं। अनादिका अशुद्ध। जैसे सुवर्ण, अनादि कालसे जैसे सुवर्ण और पाषाण दोनों खानमें इकट्ठे होते हैं। बादमें उसे ताप देनेसे भिन्न पड जाते हैं।
ऐसे जीव द्रव्यसे शुद्ध है, परन्तु पर्यायमें जो अशुद्धता है वह अनादिसे है। परन्तु उसका पुरुषार्थ करनेसे आत्माकी शुद्ध पर्याय प्रगट होती है। पुदगल वस्तु भी वैसे सुवर्ण और पाषाण इकट्ठे होते हैं तो उसे ताप देते-देते भिन्न हो जाते हैं।
वैसे आत्मा और कर्म अनादिसे साथमें हैं। उसमें जीवको पर्यायमें अशुद्धता हुयी है। परन्तु पुरुषार्थका ताप देनेसे वह शुद्ध पर्यायरूप (परिणमता है)। फिर शुद्ध सुवर्ण बन जाय फिर कभी पाषाणमें मिश्रित नहीं हो जाता। शुद्ध हो जानेके बाद, मुक्त होनेके बाद पुनः संसार नहीं होता।
मक्खन ऊपर जाय, फिर उसका घी बने तो फिरसे घीका मक्खन नहीं बनता। वैसे सुवर्ण और पाषाण एकसाथ है, वैसे जीव और कर्म अनादिसे साथमें ही हैं और जीवकी पर्यायमें अशुद्धता है। द्रव्य-वस्तु, मूल वस्तुमें अशुद्धताका प्रवेश नहीं हुआ है। तो-तो शुद्ध होवे ही नहीं। द्रव्य मूलमें अशुद्धता नहीं है, परन्तु पर्यायमें-उसकी अवस्थामें अशुद्धता है।
मुमुक्षुः- और वह अनादिसे है।
समाधानः- हाँ, अनादिसे है।
मुमुक्षुः- अनादिसे हो तो फिर पर्याय भी...
समाधानः- (पर्यायमें) अशुद्धता है, वस्तुमें नहीं है। पर्याय है इसलिये पलट सकती
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है, बदल सकती है। सुवर्ण जो अशुद्ध है, लेकिन उसे ताप देेनेसे सुवर्ण शुद्ध होता है। वैसे पुरुषार्थ करनेसे आत्मामें शुद्ध पर्याय प्रगट होती है।
मुमुक्षुः- इसलिये दूसरे धर्मसे यह एक अलग बात है।
समाधानः- हाँ, अलग बात है।
मुमुक्षुः- कि आत्मा ही, वेद धर्म गिनता है कि आत्मा ही है और अनादि है, अनन्त है, ऐसा गिनते हैं। परन्तु पर्याय...
समाधानः- पुरुषार्थ करके स्वानुभूति प्रगट हो और केवलज्ञान हो, बादमें अशुद्धता होती ही नहीं। ऐसा वस्तुका स्वभाव ही है।