Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 179.

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ट्रेक-१७९ (audio) (View topics)

समाधानः- .. शुद्धात्माको कैसे पहचाने, ऐसी अंतर दृष्टि, मैं ज्ञायक चैतन्य हूँ, ऐसे निरंतर उसे लगन लगे तो उसे प्रतिक्षण उसका भेदज्ञान अंतरमेंसे प्रगट हो कि यह विकल्प मैं नहीं हूँ, मैं चैतन्य हूँ, चैतन्य हूँ, ऐसी धारा अंतरमेंसे ज्ञानधारा प्रगट हो तो उसका विकल्प टूटकर, स्वानुभूति हो ऐसी अपूर्व दशा (हो), उसे सम्यग्दर्शन कहनेमें आता है। और उसमें लीनता बढते-बढते स्वरूप रमणता हो तब चारित्रदशा (होती है)। वह अंतरमेंसे प्रगट होती है। बाकी शुभभावरूप हो वह पुण्यबन्ध होता है। लेकिन उससे भवका अभाव नहीं होता। ऐसे गुरुदेवकी वाणीमें बारंबार वह आता था। शास्त्रोंमें भी उसी प्रकारसे आता है। अनन्त जन्म-मरण किये लेकिन उसमें बहुत बार....

आत्मा भिन्न और शरीर भिन्न, दोनों भिन्न तत्त्व हैं, उस तत्त्वको पहचानना। संकल्प- विकल्प हो वह आत्माका स्वभाव नहीं है, सब विभावभाव हैं। उससे भिन्न आत्माका स्वभाव पहचानना वह करनेका है। चैतन्यतत्त्वका स्वभाव भिन्न है, उसे पीछानना। उसके लिये तत्त्व विचार, वांचन, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा एक आत्माको पीछाननेके लिये (होते हैं)। ध्येय एक होना चाहिये कि मुझे ज्ञायक आत्मा कैसे पहिचानमें आये? ज्ञायकतासे भरा हुआ है। उसमें आनन्दादि अनन्त गुण हैं, उससे पीछाननेका प्रयत्न करना। उसकी लगन, उसकी महिमा, उसका विचार, वांचन सब करने जैसा है।

गुरुदेवकी वाणीमें तो कोई अपूर्वता आती थी। आत्माकी अपूर्वता बताते थे। अनन्त कालमें बाहरका बहुत किया। क्रियाएँ की, ये किया लेकिन आत्माको पहचाना नहीं आत्मा कोई अपूर्व वस्तु है। एक सम्यग्दर्शन जीवने अनन्त कालमें प्राप्त नहीं किया है और जिनवरस्वामी मिले नहीं। अर्थात स्वयंने पीछाना नहीं है। इसलिये मिले वह नहीं मिलनेके बराबर है। एक सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ है और एक भगवान नहीं मिले हैं। सच्चे देव-गुरु-शास्त्रको जो पीछाने वह स्वयंको पीछाने। स्वयंको पीछाने वह देव-गुरुको पीछानता है। इसलिये चैतन्यको पीछाननेका प्रयत्न करने जैसा है।

आत्मा जाननेवाला तत्त्व है। उसमें सुख, उसमें आनन्द सब है। बाहरमें जो माना है, बाहरमें कुछ नहीं है। बाहरसे आत्मामें आता नहीं। जिसको जो स्वभाव है, उसमेंसे


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प्रगट होता है। ज्ञान ज्ञानमेंसे, आनन्द आनन्द स्वभावमेंसे प्रगट होता है। शुभभाव बीचमें आता है, लेकिन शुभभाव भी पुण्यबन्धका कारण है। शुद्धात्माको पहचाने तो अंतरसे शुद्ध पर्याय प्रगट हो और भवका अभाव हो। जब तक शुद्धात्माको न पीछाने, पूर्णता न हो तब तक शुभभाव आये, परन्तु वह चैतन्यका स्वभाव नहीं है, वह विभावभाव है। इसलिये चैतन्यको भिन्न पीछानना, वही सर्वस्व और वही सारभूत है। उसे पीछानने जैसा है।

मुमुक्षुः- उसके लिये क्या उपाय करना?

समाधानः- उपाय, बस एक ही अंतरमें लगन उसीकी लगानी, उसीकी महिमा। बाहरकी लगन कम करनी। वह एक ही करने जैसा है। जीवनमें सर्वस्व वही है। उसकी श्रद्धा, उसकी प्रतीति गृहस्थाश्रममें हो सकता है। अंतर पहचाननेका प्रयत्न (करना)। उसका भेदज्ञान, उसे भिन्न पीछानना, वह सब हो सकता है।

फिर, विशेष जब भिन्नता हो, भेदज्ञानकी धारा प्रगट हो, स्वानुभूति हो, मुनिदशा तो बादमें आती है। ये तो उसे गृहस्थाश्रममें भेदज्ञान, सच्ची प्रतीति (होती है)। गृहस्थाश्रममें हो तो अंतर दृष्टि करके स्वयं अंतरमेंसे भिन्न कर सकता है। लेकिन उसकी लगन, उतनी रुचि, उतना विचार, अंतरमें मंथन करके निर्णय करे पहचाननेका तो होता है।

जैसे शक्करका स्वभाव मीठास, पानीका स्वभाव ठण्डा है, स्फटिक स्वभावसे निर्मल है। वैसे आत्मा स्वभावसे निर्मल ही है। लेकिन उसे अनादिसे विभावभावकी भ्रान्ति हुयी है कि मैं मलिन हो गया, विभावका प्रवेश हो गया है। आत्मा स्वभावसे निर्मल अनादिअनन्त है। अनन्त भव हो गये फिर भी वह स्वभाव तत्त्व तो ज्योंका त्यों है। इसलिये वह तत्त्व वर्तमानमें ऐसा है और त्रिकाल वैसा है। इसलिये उसे प्रयत्न करके पहचान लेना। वही जीवनका सर्वस्व है। उसीके लिये, उसे पीछाननेका प्रयत्न करना।

मुमुक्षुः- आपके जो भी उदगार यहाँ निकले हैं, बहुत सुन्दर हैं। आपने जो... बिना नहीं चलेगा। आप कितना अच्छा बोले।

समाधानः- नहीं चलेगा। स्वयं आत्माकी साधना करे उसमें देव-गुरु-शास्त्रको साथमें रखता है। अंतरका स्वभाव प्रगट हो उसमें देव-गुरु-शास्त्र साथमें होते ही हैं। कोई बार बोला होगा इसलिये लिख लिया होगा।

मुमुक्षुः- बहुत सुन्दर आ गया है। चैतन्यके बिना नहीं चलेगा।

समाधानः- वैसे देव-गुरुके बिना भी नहीं चलेगा।

मुमुक्षुः- सब लिया है। शास्त्र लिया, फिर अपना श्रुतका चिंतवन, सब बोल आपने लिये हैं।

समाधानः- बोले हों, वह लिख ले।


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मुमुक्षुः- आप तो महान हैं।

समाधानः- हमारे स्वयंवरमें आप पधारना। ऐसे देव-गुरु-शास्त्र आप पधारना। प्रवचनसारमें आता है।

मुमुक्षुः- हाँ, आपने लिखा है। बोले थे वह इसमें लिखा है।

समाधानः- साधना करने निकले वहाँ भावना तो ऐसी ही होती है न। देव- गुरु-शास्त्र साथमें हों। अभ्यास करनेसे प्रगट होता है। छोटीपीपरका गुरुदेव कहते थे न, घीसनेसे उसका स्वभाव प्रगट होता है। वैसे बारंबार ज्ञायकका अभ्यास करनेसे उसका स्वभाव प्रगट होता है।

मुमुक्षुः- विचारधारामेें बारंबार लेना?

समाधानः- बारंबार। अंतरमें, वास्तवमें तो अंतरसे ग्रहण करे तब हो ऐसा है। फिर भी जब तक नहीं होता तब तक विचारधारामें आता है।

मुमुक्षुः- अंतरमें अर्थात माताजी कैसे?

समाधानः- उसका स्वभाव पहचानकर ग्रहण करना कि यह ज्ञायक स्वभाव सो मैं हूँ और यह विभाव सो मैं नहीं हूँ। ऐसे स्वभावमेंसे पहचानना। उसके अस्तित्वमेंसे पीछाने।

मुमुक्षुः- हाँ जी। अस्तित्व तो वर्तमान पर्याय जो ख्यालमेंं आती है..

समाधानः- वह पर्याय है, परन्तु मूल द्रव्यको पहचानकर। पर्याय है, लेकिन उसमें पहचाननेका आत्माको है। पर्याय जो दिखती है, क्षणमात्र मैं नहीं हूँ, मैं तो शाश्वत हूँ। जो ज्ञानकी पर्याय दिखती है उस पर्याय जितना ही मैं नहीं हूँ, परन्तु मैं तो शाश्वत हूँ। इस प्रकार स्वयंको अंतरमेंसे ग्रहण करे। निश्चय करे तो स्वयं अंतरमें सूक्ष्म होकर ग्रहण कर सकता है। अपना स्वभाव है इसलिये।

मुमुक्षुः- ऐसा होता है कि देव-गुरु-शास्त्र, वांचन, विचार आदि बहुत प्रिय लगता है, उसके सिवा कुछ रुचता नहीं। फिर भी आगे नहीं चलता है। ऐसा रहा करता है। उसके सिवा तो कहीं सुहाता नहीं ऐसा हो जाता है। पूरे दिनमें यदि कुछ स्वाध्याय नहीं हुआ हो तो ऐसा होता है आज कुछ नहीं हुआ, अपने कुछ बाकी रह गया, ऐसा लगे। परन्तु फिर आगे कुछ चलता नहीं।

समाधानः- आगे नहीं बढे तब तक एक ध्येय आत्माका (रखना)। उसका अभ्यास करते रहना, न हो तबतक। अभ्यास हो तो अंतरमें उसे आगे बढनेका अवकाश है।

मुमुक्षुः- विकल्प मैं नहीं हूँ, ऐसे...?

समाधानः- विकल्प आये, लेकिन वह मेरा स्वभाव नहीं है। पहले उसका अभ्यास कर सकता है। बाकी सच्चा भेदज्ञान तो उसे सहज पहचानकर प्रतीत हो तो होता


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है। यथार्थ भेदज्ञान तो (तब होता है)। तब तक उसका अभ्यास करे। विकल्प भी मेरा स्वभाव नहीं है। मैं तो निर्विकल्प तत्त्व चैतन्य हूँ। परन्तु वह उसे यथार्थ ग्रहण न हो तब तक अभ्यास द्वारा होता है।

(गुरुदेवने) यथार्थ बता दिया है। किसीको कहीं भूल पड जाय ऐसा नहीं है। पुरुषार्थ तो स्वयंको करना है। यह पर्याय है, यह द्रव्य है, यह शुभभाव है, यह तेरा स्वभाव नहीं है। तू क्षणिक पर्याय जितना नहीं है। तेरे अनन्त गुणोंसे (भरपूर है)। गुणका भेद पडे ऐसे भेदवाला तेरा स्वभाव नहीं है। तू अखण्ड है। तेरेमें गुण हैं, लेकिन उस भेद पर दृष्टि (करके) उसमें रुकनेसे भी चैतन्यका मूल स्वभाव है वह ग्रहण नहीं होता है। ज्ञानमें सब ज्ञान करे, परन्तु दृष्टि तो एक अखण्ड पर रखनी।

गुरुदेवने अनेक प्रकारसे स्पष्ट करके मार्ग बताया है, कहीं भूल पडे ऐसा नहीं है। पुरुषार्थ स्वयंको करना है। जिन्हें गुरुदेवकी वाणी नहीं मिली है, उन सबकी दृष्टि तो कहाँ बाहर क्रियामें पडी होती है। गुरुदेव तो द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप, उसके सूक्ष्म भाव बता दिये हैं।

मुमुक्षुः- गुरुदेवश्रीका महान उपकार है। गुरुदेवका, आपका अनन्त-अनन्त उपकार है।

समाधानः- गुरुदेव दिशा बतायी, नहीं तो लोग कहाँ पडे थे। स्वानुभूति तो बादमें होती है। पहले तो स्वभाव ग्रहण होता है। स्वानुभूतिका आनन्द तो निर्विकल्प तत्त्व जो प्रगट हो वह बादमें होता है। पहले तो उसे ग्रहण यथार्थ होता है, प्रतीत यथार्थ होता है, उसका ज्ञान हो, बादमें उसकी लीनता ज्यादा हो तो उसे स्वानुभूति होती है। इसलिये पहले तो यथार्थ ग्रहण-अंतरमेंसे ग्रहण करे।

मुमुक्षुः- ग्रहण तो ज्ञानसे करना न?

समाधानः- ज्ञानसे ग्रहण करना। प्रज्ञाथी भिन्न करना और प्रज्ञासे ग्रहण करना। ज्ञानसे ग्रहण होता है। कर्ता-परपदार्थका मैं कर सकता हूँ और पर मेरा कर सकता है। गुरुदेवने (बताया कि), तू ज्ञाता है, ये कर्तृत्व तेरेमें नहीं है। तू परका कर नहीं सकता। तू ज्ञाता-दृष्टा उदासीन ज्ञाता है। ऐसा स्वभाव स्वयंका अंतरमेंसे पहचाने तो उसे यथार्थ भेदज्ञान हो।

मुमुक्षुः- अंतरमेंसे पहचाने।

समाधानः- अंतरमेंसे पीछाने।

मुमुक्षुः- अंतरमेंसे पीछाननेके लिये रुचि बढानी?

समाधानः- रुचि बढाये। लगन, रुचि।

मुमुक्षुः- आप बोले होंगे वह आत्मधर्ममें आया है। तेरी कहाँ भावना है? ऐसी


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रुचि हो तो हो न।

समाधानः- भावना रुचि हो तो होती है। धून हो तब एकसाथ सब बोलनेमें आ जाता है।

मुमुक्षुः- लेकिन बहुत अच्छा बोले हैं। दोनोंको सन्धि-आत्माकी और देव-शास्त्र- गुरुकी आखिर तककी सन्धि। रुचि, भावनाकी बात साथमें ली थी।

समाधानः- भेदज्ञानकी धारा प्रगट करनी। मार्ग तो एक ही है। मार्ग एक ही है। पुरुषार्थ स्वयंको करना है। कैसे हो? पुरुषार्थ कैसे करना?

मुुमुक्षुः- मार्गमें कैसे चलना, ऐसा हो जाता है। अनादिका अनजाना मार्ग। ये मार्ग कहाँ था? गुरुदेवश्रीने बताया।

समाधानः- कहीं नहीं था। उपवास करके धर्म माने, बस, ऐसा था।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- हाँ, ऐसा था। संप्रदायका... एकदम स्पष्ट। क्रिया तो कहाँ, शुभभाव भी तेरा स्वभाव नहीं है और द्रव्य-गुण-पर्यायमें भी तू अटकना मत, ऐसा कहते हैं। विकल्पमें मत अटक। तेरे मूल अस्तित्वको ग्रहण कर। ज्ञान सबका कर, परन्तु दृष्टि तो एक चैतन्य पर कर। मुश्किल है।

मुमुक्षुः- कुछ मुश्किल नहीं है।

समाधानः- .. अलग था। गुरुदेवके साथ जाना कुछ अलग था।

मुमुक्षुः- आप कैसा स्वागत करवाते थे। ऐसी महिमा किसीको नहीं आती, ऐसा लगता है। उनके स्वास्थ्यके सामने देखा है कभी?

समाधानः- कभी नहीं देखा। मूसलाधार बरसात बरसायी है।

मुमुक्षुः- हर गाँवमें जिनालय होते थे और करो यहाँ धर्मध्यान।

समाधानः- सब गाँवमें विहार किया।

मुमुक्षुः- काल लंबा हो जाय तब कभी-कभी धैर्य खत्म हो जाता है। माताजी! कभी निराशा भी हो जाती है। फिरसे आपके वचनके अवलम्बनसे बल आये। ऐसा हो कि माताजी जो कहते हैं वही करने जैसा है। अपनी भावनाकी कचास है।

समाधानः- अन्दर ज्ञायक आत्माका अभ्यास करना। वहाँ रहकर, दूसरा क्या हो? वांचन, विचार, लगन लगानी। ये छबलबहिन तंबोलीकी बहुत प्रतिकूलता थी। यहाँ कुछ खास नहीं है। .. आते नहीं है।

... स्वयंको करना है। मार्ग तो गुरुदेवने बहुत स्पष्ट किया है। कहीं किसीकी भूल रहे ऐसा नहीं है। .. ऐसा नहीं है। गुरुदेवने एकदम स्पष्ट किया है।

मुमुक्षुः- किसीको कोई जगह...


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समाधानः- परिणति भिन्न पडे। भिन्न नहीं करता है, साथमें एकत्व रहता है।

मुमुक्षुः- एकत्व तोडनेके लिये स्वभावका अवलम्बन?

समाधानः- स्वभावका अवलम्बन अंतरमेंसे ले तो हो। जितनी ज्ञायककी महिमा आनी चाहिये, उतनी आती नहीं। अंतरमें ही सर्वस्व सारभूत है। उसीमें सबकुछ है। उतनी अंतरसे लगन लगे तो पुरुषार्थ क्षति है (वह दूर होकर) अंतरमें जाय। करनेका एक ही है। परिणति भिन्न करके भेदज्ञान करना।

मुमुक्षुः- माताजी! विचार ऐसा आता है कि अनेक ज्ञानी हो गये और उनको इस प्रकार उनके ज्ञानमें महिमा आयी और.. हमें उस प्रकारकी महिमा क्यों नहीं आती है? जितनी स्वरूपकी अगाधता अथवा गंभीरता है, उतनी स्वरूपकी गंभीरता ज्ञानमें आनी चाहिये अथवा महिमा आनी चाहिये, ऐसी सविकल्प दशामें महिमा क्यों नहीं आती कि जिससे परिणति अन्दर नहीं जाती? प्रयत्नमें तो जैसी हमारी समझ है उस प्रकारका प्रयत्न तो चालू ही है। कम-बेसी प्रमाणमें होता है। परन्तु रस कहीं और है ऐसा तो दिखता नहीं। फिर भी अटकता है यह भी ख्यालमें आता है। फिर भी एकान्त उसीमें रस पडा है,.. वह भी ख्यालमें आता है कि यह भूल है, दोष है। इतना भी ख्यालमें आता है। पुरुषार्थ करनेकी गंभीरता भी समझमें आती है। और उस तरह पुरुषार्थ करनेका प्रयत्न भी चलता है। फिर भी महिमा, ज्ञायककी महिमा जो आप कहते हो, जिस प्रकारसे अंतरसे आनी चाहिये, ऐसी महिमा, ऐसा लगता है कि उस प्रकारसे नहीं है। सविकल्प दशामें ऐसी कोई महिमा आ जाती होगी कि अनुभव हो तब ही वास्तवमें महिमा आये?

समाधानः- उसकी महिमा सविकल्पतामें भी आती तो है, नहीं तो वह अंतरमें जाय कैसे? महिमा आये। भले यथार्थ महिमा उसे जो अनुभवमें आये वह तो कोई अलग आती है। परन्तु पहले उसे आती है कि ये विभाव कोई महिमारूप नहीं है। स्वभाव ही महिमारूप है। ऐसी अन्दरसे दृढ प्रतीति तो पहले उसे आये तो ही स्वभावकी ओर झुकता है। ऐसी प्रतीति तो अंतरमेंसे आनी चाहिये। महिमा तो उसे (पहले) आती है। परन्तु वह नहीं आती है इसलिये रुक जाता है। उसकी मन्दता हो जाती है। परन्तु महिमा पहले भी आता तो है। परन्तु वह महिमा तो अलग है, स्वभावकी परिणति। अनुभव दशामें आये (वह)।

मुमुक्षुः- कल पण्डितजीने एक बात कही, अन्दरसे धार प्रगट हो और जितना उसका फोर्स ख्यालमें आये, अगाधता ख्यालमें आये, वह अनुभव होनेके बाद वह दोनों बात बहुत सुन्दर प्रकारसे (समझायी कि), आंशिक प्रगट होनेसे परिपूर्णताका ख्याल उस वक्त तो आ सकता है। क्योंकि वह प्रकार ही ऐसा होता है कि सर्वांगसे वह आनन्द


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प्रगट होता है और उसका जोश भी उस प्रकारका होता है। ये दोनों बात उस प्रकारसे समझायी थी। तो कैसे, अभी तो आप कहते हो वैसे अन्दरसे समझमें तो बराबर है कि यही करने जैसा है, यह करनेसे सुख होगा, उसका प्रयत्न भी कम-बेसी प्रमाणमें चलता है। हो सकता है कि पुरुषार्थ कम हो। परन्तु कभी-कभी ऐसी उलझन हो जाती है कि इतना प्रयत्न करते हैं (फिर भी प्राप्त क्यों नहीं होता)?

समाधानः- उसकी महिमा अन्दर कैसी है, वह तो उसे स्वानुभूतिके अंश परसे पूर्णता कितनी उसका ख्याल आये। ये तो सविकल्पतामें निर्णय करता है। परन्तु उसमें उसके पुरुषार्थ क्षति है इसलिये जा नहीं सकता। पुरुषार्थकी मन्दता है। जिसमें पडा है अनादिके अभ्यासमें, उसीमें पडा है। उसमेंसे भिन्न नहीं पडता। थोडा ज्यादा पुरुषार्थ करे, परन्तु जितना चाहिये उतना पुरुषार्थ नहीं करता है, इसलिये भिन्न नहीं पड सकता है।

अनादिके अभ्यासमें उसी प्रवाहमें बह जाता है। उस प्रवाहको पीछे नहीं मोडता। मोडे तो अमुक प्रकारसे मोडता है। सर्व प्रकारसे मोडना चाहिये वैसे नहीं मोडता। भले एक अंशरूपमें लेकिन प्रतीतिमें तो उसे सर्व प्रकारसे, सर्वस्वरूपसे मोडना चाहिये। चारित्रका एक बाकी रहे, परन्तु प्रतीतिमें उतनी पूर्ण श्रद्धा, उतनी प्रतितका जोर होता है कि यह द्रव्य वस्तु अखण्ड पूर्ण वह मैं हूँ और वही सर्वस्वरूपसे आदरणीय है। सर्व प्रकारसे वही आदरणीय है। सब करके उसीमें लीनता करने जैसी है और वही करने जैसा है। सर्वस्व प्रकारसे उतनी प्रतीतिका जोर पहले उसे उतनी दृढता आवे तो वापस मुडे। उस प्रवाहमें ऐसी ही बह जाता है।

मुमुक्षुः- पहले अशुभमें ज्यादा बहना होता था, अब शुभमें ऐसा लगता है कि शुभमें कहीं न कहीं अटकता है।

समाधानः- हाँ, कहीं न कहीं प्रवाहमें बह जाता है। फिर शुभ रहता है, अमुक अस्थिरता होती है, परन्तु उसकी प्रतीतिमें तो सर्व प्रकारसे सर्वांशसे यही करने जैसा है, ऐसी पूर्ण प्रतीतिमें दृढता (आ जानी चाहिये)। प्रतीतिकी परिणति तो एकदम अपनी ओर दृष्टिका जोर पहले आये तो उसका अनादिका प्रवाह वापस मुडे। प्रवाहका पूरा बल स्वभावकी ओर मुड जाय। फिर थोडा खडा रहे वह अलग बात है। प्रवाह अनादिका है, वह पूरा प्रवाह स्वभावकी ओर उसकी दृष्टिकी दिशा पूरी बदल जाय। बाहर देखता है उसके बजाय देखनेकी दिशा चैतन्यकी ओर चली जाती है। दृष्टिको चैतन्य पर स्थापित कर देता है।

मुमुक्षुः- विभावभावसेे मैं भिन्न हूँ और स्वभावकी महिमा...

समाधानः- दोनों एकसाथ ही होता है। स्वभावकी महिमा और इससे भिन्न हूँ।


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स्वभावका अवलम्बन ले और विभावसे भिन्न हूँ। स्वभावका अस्तित्व ग्रहण करे और इससे मैं भिन्न हूँ। अस्तित्व ग्रहण करे वहाँसे भेद करता है। अस्तित्व ग्रहण करे उसमें स्वयंकी महिमा समा जाती है। अखण्ड ज्ञायक मैं हूँ, उस ज्ञायकका अस्तित्व ग्रहण करे, विभावसे भिन्न (हो जाता है)।

खण्ड-खण्डरूप जो पर्याय दिखती है उतना भी मैं नहीं हूँ, मैं तो अखण्ड ज्ञायक हूँ। ऐसे अस्तित्वको ग्रहण करे। उसकी महिमा, उसका अस्तित्व, उसे ग्रहण करे तो विभावसे भिन्न पडे। स्वयंको ग्रहण करे और विभावसे भिन्न पडता है। भिन्न होनेके बाद दृष्टिके बलसे प्रतिक्षण भिन्न पडता रहता है। विभाव आये तो भी क्षण-क्षणमें, क्षण-क्षणमें भिन्न पडता है। अनादिका एकत्वबुद्धिका प्रवाह है उस प्रवाहमें बह जाता है। विचारसे नक्की करे कि मैं भिन्न हूँ, ये मेरा अस्तित्व इससे भिन्न है, ऐसा विचारसे (नक्की करे), ऐसा विचार करता रहे, परन्तु कार्यके अन्दर उसकी परिणतिका प्रवाह एकत्वमें चला जाता है। वह कार्य नहीं करता है।

कार्य जो स्वभावकी ओर जाना चाहिये, दृष्टिका बल, वह नहीं जाता है। प्रवाहमें बह जाता है। विचारसे चाहे जितना नक्की करे, फिर भी प्रवाह ज्योंका त्यों चलता है। वह मन्द, कभी उग्र-तीव्र ऐसा करता रहता है, लेकिन स्वभावकी ओर जोरसे जो दृष्टि जानी चाहिये वह जाती नहीं। स्वभावका अस्तित्व बलपूर्वक महिमापूर्वक ग्रहण करे तो विभावसे भिन्न पड जाता है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!