Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 219.

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ट्रेक-२१९ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- सोनगढ पूरा दिन आये-जाय, यहाँ रहते हों इसलिये सबका आना होता है कि चलिये, एक महिना, दो महिना जिसको जैसी अनुकूलता हो, सब रहने आ जाते थे।

मुमुक्षुः- ... मुमुक्षुः- हाँ, कोई-कोई आता ही है। आखिरमें समयसारकी गाथा सुनते थे। पण्डितजीने रचना की है, ये उपोदघात आदि, अपूर्व बात भरी है। ऐसा बोलते थे। गुजरातीमें भाव... समयसारजीका पद्यानुवाद.. बहुत अच्छा लगता था।

मुमुक्षुः- ... बारंबार पद्यानुवाद बोलते थे। इतना अच्छा लगता था। ... पण्डितजीके लिये कितना अहोभाव। ज्योत्सना आयी तो पूछा, बापूजी! मेरे ससुरको कुछ कहना है? बहुत रोने लगे। बुधवारको। शनिवारको देह छोड दिया। बहुत रोये।

समाधानः- उन्होंने बहुत वर्ष लाभ लिया, आप सबको संस्कार दिये। करना यह एक ही है। गुरुदेवने कहा उस मार्ग पर जाना है। संसारका स्वरूप ऐसा ही है। मनुष्यभव प्राप्त करके अंतर जो आत्माके संस्कार पडे वह लाभरूप है। कितने जन्म- मरण करते-करते गुरुदेवका मिले और यह भेदज्ञान करनेका मार्ग बताया। वह करना है।

ये शरीर भिन्न और आत्मा भिन्न है। आत्मा तो शाश्वत है। उसके जैसे भाव हो, उस अनुसार आत्मा तो जाता है और शरीर पडा रहता है। प्रत्यक्ष दिखता है। शरीर भिन्न और आत्मा भिन्न। भेदज्ञान प्रथम ही कर लेने जैसा है। विकल्प भी आत्माका स्वभाव नहीं है। आत्माको पहचान लेने जैसा है।

ऐसे कितने जन्म-मरण किये। स्वयंने किसीको छोड दिया और किसीने (स्वयंको छोड दिया)। शुद्धतासे भरा आत्मा है। एक परमाणुमात्र भी अपना नहीं है। एक रजकण भी अपना होता नहीं और हुआ नहीं। एक रजकणका भी स्वयं स्वामी नहीं है और वह अपना नहीं है। उससे अत्यंत भिन्न आत्मा है। एक परमाणुमात्र भी अपना नहीं है।

"कुछ अन्य वो मेरा तनिक परमाणुमात्र नहीं अरे!' परमाणुमात्र अपना नहीं है। स्वयं उससे अत्यंत भिन्न है, उसे पहचान लेने जैसा है। अनन्त कालमें बहुत रिश्ते और सम्बन्ध बनाया, लेकिन वह सब पूरे हो जाते हैं। आत्मा स्वयं जो अनन्त गुणसे


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भरा, उसका रिश्ता और उसका सम्बन्ध शाश्वत रहता है।

अनन्त कालमें सब प्राप्त हुआ। गुरुदेव कहते थे न, एक सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ है। जीवनमें उसीके संस्कार पडे और उसका कुछ पुरुषार्थ हो तो वह अपूर्व है। कहते हैं न, जिनवर नहीं मिले हैं और सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ है। जिनवर मिले तो स्वयंने पहचाना नहीं। और सम्यग्दर्शन तो प्राप्त नहीं हुआ है। गुरुदेवने मार्ग बताया। और इस पंचमकालमें गुरुदेव मिले और सम्यग्दर्शनका मार्ग बताया तो उसी मार्ग पर जाने जैसा है।

"मैं एक शुद्ध सदा अरूपी, ज्ञानदृग हूँ यथार्थसे'। मैं एक स्वरूप शुद्ध और अरूपी आत्मा ज्ञान-दर्शनसे भरा हूँ। कोई अन्य परमाणुमात्र मेरा नहीं है। एक परमाणुमात्र अपना नहीं है। ऐसा गुरुदेव कहते थे, ऐसा भेदज्ञान करने जैसा है।

याद आये परन्तु संसारका स्वरूप ऐसा है। बारंबार आत्माका स्मरण करने जैसा है। देव-गुरु-शास्त्र और आत्मा हृदयमें रखने जैसा है। जीव जन्मता अकेला है, मरता अकेला है, सुख-दुःखका वेदन करनेवाला अकेला है और चार गतिमें भ्रमण करनेवाला अकेला और मोक्ष जाय तो भी अकेला ही है। पुरुषार्थ करके, स्वयं अकेला ही स्वतंत्रपने पुरुषार्थ करके स्वानुभूति प्रगट करनेवाला (है)। शुभाशुभ परिणाम करके जन्म-मरण करनेवाला अकेला है। ऐसी अंतरमें एकत्व भावना करने जैसी है। बाकी सब सम्बन्ध और रिश्ता संसारमें बहुत किये, मानों सब सम्बन्ध ऐसा ही रहेगा, परन्तु वह सब शाश्वत नहीं है। शाश्वत एक आत्मा है। ऐसा सब सम्बन्ध अनन्त कालमें बहुत किये और बहुत बिछड जाते हैं।

समाधानः- .. ज्ञान तो अमर्यादित है। ज्ञानको कोई मर्यादा नहीं है कि ज्ञान इतना ही जाने। ज्ञान उसीका नाम कहते हैं कि जो ज्ञान असाधारण गुण है। ज्ञान पूर्ण जानता है। स्वयं अपनेको जानने पर, पर ज्ञात हो जाता है। उसमें सहज ज्ञात हो जाता है।

ज्ञेयमें एकत्वबुद्धि तोडनेको कहा जाता है, परन्तु उसका जाननेका स्वभाव चला नहीं जाता। एकत्वबुद्धि तोडकर तू तेरे आत्माको जान। परन्तु उसमें उसका जाननेका स्वभाव चला नहीं जाता। रागसे एकत्वबुद्धि तोडनी है। रागके साथ, ज्ञेयके साथ एकत्वबुद्धि (है)। भेदज्ञान करके मैं ज्ञायक हूँ (ऐसा अभ्यास करना है)। उसका जाननेका स्वभाव है, उस स्वभावका कहीं नाश नहीं होता है। उसमें ज्ञात हो जाता है। ज्ञानकी मर्यादा नहीं होती, ज्ञान पूर्ण जानता है। स्वयं अपनमें स्व-ओर उपयोग कर। छद्मस्थ है उसका उपयोग एक बारमें एकको जानता है। छद्मस्थका क्रमसर उपयोग (चलता है)। अपनी ओर उपयोग होता है तो पर-ओर उपयोग नहीं है, इसलिये ज्ञात नहीं होता है। बाकी


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उसके स्वभावका नाश नहीं होता है। केवलज्ञान, वीतरागी ज्ञान होता है उसमें पूर्ण ज्ञात हो जाता है। उसका स्वभाव जाननेका है।

मुमुक्षुः- छद्मस्थको निर्विकल्पताके समय पर ज्ञात नहीं होता है। वह तो उसका क्रमसर उपयोग है, इसलिये एक बारमें एक ज्ञात होता है, दूसरा ज्ञात नहीं होता है। अतः जाननेका स्वभाव नाश नहीं होता है। जाननेका स्वभाव नाश नहीं हो जाता। उसका उपयोग स्वकी ओर है, इसलिये दूसरा ज्ञात नहीं होता है। स्वयं अपने स्वरूपमें लीन है इसलिये ज्ञात नहीं होता है। अपूर्ण ज्ञान है इसलिये क्रमसर (जानता है)। छद्मस्थका ज्ञान क्षयोपशम ज्ञान है। एक बारमें एक ज्ञात होता है। परिणतिमें तो जो प्रत्यभिज्ञान है, अनन्त काल व्यतीत हुआ वह प्रत्यभिज्ञान, वह ज्ञान तो उसमें पडा है। बचपनसे बडा होता है, अनेक प्रकारका ज्ञान उसमें लब्धरूपसे होता है। उसे उपयोगरूप नहीं होता। परन्तु वह सब तो उसमें होता है। जाननेका नाश नहीं होता है। उसे याद आये तो सब याद कर सकता है। उसमें राग तोडनेको कहा जाता है। उसमें कहीं ज्ञानका नाश नहीं होता है।

मुमुक्षुः- वचनामृतमें एक बोलमें आता है कि ज्ञानीकी दृष्टि सतत द्रव्य सामान्य पर रहती है। सतत भेदविज्ञानकी धारा चलती है। भेदविज्ञानकी धारा चले और ज्ञानीकी दृष्टि द्रव्य सामान्य पर एक कालमें रहे। दो बात एकसाथ बने? द्रव्य सामान्य पर ज्ञानीकी दृष्टि रहती है और उस कालमें भेदविज्ञानकी धारा सतत लिखा है, सतत चलती है। ये दो बात...

मुमुक्षुः- दोनों एक समयमें बन सकता है? द्रव्य पर दृष्टि रहनी और भेदज्ञानकी धारा सतत रहनी, दोनों एकसाथ होता है।

समाधानः- एकसाथ हो सकता है। दृष्टि और ज्ञान दोनों एकसाथ रहते हैं। सामान्य स्वभाव पर दृष्टि रहती है और भेदज्ञानकी धारा रहती है। दोनों साथमें रहते हैं। ज्ञान और दृष्टि दोनों एकसाथ कार्य करते हैं। दृष्टि स्व पर जमी है और स्वको जानता और यह मैं नहीं हूँ, ऐसा भी जानता है।

मैं चैतन्य ज्ञायक हूँ और यह विभाव सो मैं नहीं हूँ। यह स्वभाव सो मैं, और विभाव सो मैं नहीं हूँ। ऐसी ज्ञातृत्व धारा चालू रहती है। और दृष्टि, मैं अखण्ड शाश्वत द्रव्य हूँ, ऐसी दृष्टि भी रहती है। दृष्टि और ज्ञान दोनों साथमें रहते हैं। दृष्टि और ज्ञान साथमें रहनेमें कोई विरोध नहीं है। दोनों साथमें रहते हैं, एकसाथ

मुमुक्षुः- भेदविज्ञान तो विकल्प है। तो विकल्प है और निर्विकल्प रहे?

समाधानः- नहीं, निर्विकल्प और विकल्पकी बात नहीं है। दृष्टि तो सविकल्पमें भी रहती है और दृष्टि निर्विकल्पमें भी रहती है। दृष्टि निर्विकल्प स्वानुभूतिके समय


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ही हो और बाहर आये तब न हो, ऐसा नहीं है। दृष्टि तो बाहर उपयोग हो तो भी चैतन्य पर दृष्टि स्थापित ही रहती है। दृष्टि कहीं अन्दर स्वानुभूतिके कालमें दृष्टि हो और बाहर आये तब दृष्टि न हो, ऐसा नहीं है। दृष्टि तो उसका उपयोग बाहर है तो भी दृष्टि तो स्वभावकी ओर होती ही है। दृष्टि और ज्ञान दोनों होते हैं।

दृष्टि निर्विकल्पके समय हो और बाहर आये तब विकल्पकी धारा हो, ऐसा नहीं है। दृष्टि स्वभावकी ओर रहती है और ज्ञान भी स्वभावकी ओर रहता है। यह मैं हूँ और यह मैं हूँ, ये दोनों बात साथमें होती है। और दृष्टि भी रहती है। सविकल्पमें भी रहती है। निर्विकल्पमें तो दृष्टि ज्योंकी त्यों रहती है। विकल्प-ओरसे उपयोग छूट जाता है, निर्विकल्प स्वानुभूतिके (कालमें)। विकल्प-ओर उपयोग (नहीं है), विकल्प छूट जाता है। बाहर आये तो विकल्प है तो भी दृष्टि रहती है। विकल्प न हो तो भी दृष्टि रहती है। बाहर तो विकल्पके साथ दृष्टि और ज्ञान दोनों है। और स्वानुभूतिमें भी दृष्टि और ज्ञान दोनों है, परन्तु विकल्प-ओर उपयोग नहीं है। विकल्प छूट गया है।

मुमुक्षुः- आता है कि समस्त ज्ञानियोंका अभिप्राय द्रव्य सामान्यको लक्ष्यमें लो, द्रव्य सामान्य पर दृष्टि करो, ऐसा लिखा है। समस्त ज्ञानियोंका कहनेका यह मंतव्य है कि द्रव्य सामान्यको लक्ष्यमें लो। द्रव्य सामान्यको लक्षगत करनेका जो भाव है वह विकल्प है, ऐसा लगता है। करो, करनेका भाव तो विकल्प है। अनुभवका आनन्द ऐसे करनेमें कैसे आवे?

समाधानः- उपदेश ऐसा आवे न। उपदेश ऐसा आता है, यह करो, ऐसे पुरुषार्थ करो, ऐसे साधकदशा करो, ऐसे दृष्टि करो, ऐसे निर्विकल्प स्वानुभूति करो। उपदेशमें क्या होता है? उपदेशमें तो करो ऐसा आता है। कहनेका तात्पर्य यह है कि निर्विकल्प स्वानुभूतिमें विकल्प टूट जाता है, तो सहज परिणति होती है। ऐसे तू बराबर ज्ञान करके सहजरूप परिणमित हो जा। ऐसा कहते हैं। करो-करो, पुरुषार्थ प्रेरक वाक्य तो ऐसा ही होता है न। पुरुषार्थकी प्रेरणा (देते हैं)। उपदेशमें क्या होता है?

ऐसे विकल्प तोड दे, स्वरूप-ओर उपयोग कर, स्वरूप-ओर दृष्टि कर, ऐसे पुरुषार्थकी बात आवे। पुरुषार्थके बिना कैसे होता है? करो-करो यानी विकल्प तो साथमें होता है, परन्तु कहनेका आशय ग्रहण करना कि, तू सहजपने अंतरमें परिणम जा। विकल्प तो साथमें (होता है)। कर्तृत्व-वह करनेका तो बीचमें आता है। मैं ऐसा करुँ, मैं ऐसा करुँ, मैं ज्ञानकी ओर उपयोग करुँ, मैं ज्ञाता हूँ, करनेकी बुद्धि बीचमें आये, परन्तु तू सहजरूपसे परिणमित हो जा, ऐसा कहनेका आशय है। ऐसे आशय ग्रहण कर लेना। कहनेमें तो ऐसा ही आये कि तू ऐसा कर। स्वयंको भावनामें ऐसा आये


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कि मैं स्वरूपकी ओर दृष्टि करुँ, ऐसा करुँ, भावनामें ऐसा आये। परन्तु सहज दशा है, मैं सहजरूप कैसे परिणमित हो जाऊँ? भावना ऐसी होती है, परन्तु बीचमें पुरुषार्थ करुँ-करुँ ऐसा विकल्प तो बीचमें आये बिना रहता ही नहीं। विकल्प तो बीचमें आता ही है। सहज पर दृष्टि करनी। मैं कैसे सहजरूप परिणमित हो जाऊँ? सहज दशा कैसे प्रगट हो? ऐसे। बीचमें आता है। ऐसे ही सहज नहीं हो जाता।

ऐसी भावना आये बिना (नहीं रहती) कि मैं ऐसे भावना करुँ, मैं दृष्टि प्रगट करुँ, चारित्रदशा प्रगट करुँ। ऐसे भावना आये बिना कहीं सहज नहीं हो जाता। सहजको और पुरुषार्थ एवं भावनाके साथ सम्बन्ध है। दोनों साथमें होते हैं। करुँ-करुँके विकल्पके साथ सहज पर परिणति करके सहजरूपसे परिणम जाता है। सहजके साथ सम्बन्ध है।

मुमुक्षुः- जब अंतर्मुख होनेका प्रयत्न करते हैं तो विकल्प पकडमें आता है, फिर आगे कुछ नहीं चलता है। तब क्या करना?

समाधानः- आगे पकडमें न आये तो आगे पकडनेका प्रयत्न करना। और क्या? अन्दर गहराईमें ऊतरना। विकल्प बीचमें आये, लेकिन अन्दर गहराईमें स्वभाव क्या है, उस स्वभावको ग्रहण करना।

मैं सहज ज्ञाता स्वभाव, सहज ज्ञायक हूँ। सहजको ग्रहण कर लेना। विकल्प तो बीचमें आते ही रहते हैं। जबतक सहज प्रगट नहीं हुआ है, तबतक विकल्प बीचमें आते हैं। सहज स्वभावको ग्रहण करनेका प्रयत्न करना कि मैं सहज स्वभाव ज्ञायक हूँ। उस पर दृष्टि परिणति प्रगट करनेका प्रयत्न करना। (निर्विकल्प) दशा प्रगट करुँ, सम्यग्दर्शन प्रगट करुँ, दृष्टि प्रगट करुँ, ऐसे करना ही आये न। पुरुषार्थमें तो करनेकी बुद्धिके सिवा क्या है?

अन्दर सहज प्रगट करनी है, (ऐसा) स्वयं उसका ध्येय रखना। विकल्प भावनाको और सहज परिणतिको सम्बन्ध है। बीचमें आये बिना नहीं रहता। मैं ज्ञायक कौन हूँ? ऐसे ग्रहण कर लेना। विकल्प तो विकल्पकी दशामें है, इसलिये विकल्प-विकल्प बीचमें दिखे, परन्तु स्वभावको ग्रहण करना।

समाधानः- .. पुरुषार्थ होना चाहिये। करना स्वयंको है। अनादिसे विभावमें दौड जाता है। विभावके संस्कार अनादिके है। ये सब आकुलताके, शरीरके, धनके, कुटुम्बके, विकल्पके, रागके, द्वेषके संस्कार अनादिसे है। उस संस्कारको पलटकर स्वयं आत्मा- ओरकी रुचिके संस्कार करना, वह अपने पुरुषार्थकी बात है। मैं आत्मा हूँ, यह मेरा स्वभाव नहीं है, मैं ज्ञायक हूँ, ऐसे स्वयं महिमासे (पुरुषार्थ करे)। ऐसे रुखा-रुखा नहीं, सिर्फ बोलनेमात्र नहीं। अन्दरसे उसे महिमा लगनी चाहिये। ज्ञायकमें ही सब है, आत्मामें सब है, आत्मामें आनन्द है, आत्मामें सुख है। ऐसी महिमापूर्वक स्वयं अपने


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संस्कार बदले। वह संस्कार जैसे अनादिके पडे हैं वैसे, मैं चैतन्य हूँ, मैं यह नहीं हूँ, ऐसे स्वयं बारंबार उस संस्कारको दृढ करे तो उस जातके संस्कार उसे प्रगट होते हैं।

एक जिनेन्द्र देव, एक गुरु और एक शास्त्र, वही उसे सर्वोत्कृष्ट लगे। उनके सिवा मुझे कुछ नहीं चाहिये। संसार पर-से उसे ममत्व (कम हो जता है)। संसारमें हो तो ममत्व कम हो जाय। सर्वोत्कृष्ट जगतमें हो तो एक जिनेन्द्र भगवान, एक गुरु, जो आत्माका स्वरूप दर्शाते हैं ऐसे गुरु और शास्त्र, जो आत्मस्वरूपका मार्ग बताये। जिस शास्त्रमें गहरीसे गहरी बातें हो, आत्माको मुक्तिका मार्ग मिले ऐसे शास्त्र। जगतमें सर्वोत्कृष्ट हों तो वह है, अन्य सबकी महिमा उसे छूट जाय। जगतमें अन्य कुछ सर्वोत्कृष्ट या आश्चर्यकारी नहीं है। एक आश्चर्यकारी जिनेन्द्र देव, गुरु और शास्त्र है। अन्दर एक आत्मा आश्चर्यकारी है, आत्माका स्वभाव आश्चर्यकारी है और देव-गुरु-शास्त्र आश्चर्यकारी हैं। दूसरा कुछ भी जगतमें (आश्चर्यकारी) नहीं है। अन्य सब महत्ता और महिमा उसे छूट जाय। उसे हर जगह धर्म, देव-गुरु और शास्त्रकी मुख्यता रहे, उसे आत्माकी मुख्यता रहे। उसे संसारकी सब गौणता हो जाती है। ऐसी रुचि उसे अन्दरसे होनी चाहिये।

मुमुक्षुः- यह सब बराबर लगता है, गुरुदेवकी महिमा (आती है), फिर भी रागके परिणाम छूटते नहीं है।

समाधानः- अनादिके संस्कार है न, उसे बदलते रहना।

मुमुक्षुः- बारंबार अभ्यास करना?

समाधानः- हाँ, बारंबार अभ्यास करना।

मुमुक्षुः- मुनिओंको इतना उपसर्ग पडता है तो उन्हें अन्दरसे विकल्प ही नहीं आता है कि मुझे इतना दुःख (हो रहा है)? गजसुकुमालके मस्तक पर अग्नि जलाई, तो उन्हें विकल्प भी नहीं उत्पन्न होता?

समाधानः- उन्हें अन्दर भेदज्ञान प्रगट हो गया है। भेदज्ञानके साथ चारित्रकी दशा (प्रगट हुयी है)। उन्हें, मैं ज्ञायक भिन्न और जो विकल्प आता है कि इस शरीरमें दुःख है, उस रागके विकल्पसे उन्होंने आत्माको भिन्न जाना है। और वे अंतर्मुहूर्त- अंतर्मुहूर्तमें स्वरूपमें लीन होते हैं। ज्ञानमें जान लिया कि शरीरमें उपसर्ग (हो रहा है) और यह शरीर जल रहा है। ऐसा सहज रागका विकल्प आये वहाँ आत्माको भिन्न कर देते हैं कि मेरा आत्मा भिन्न है, यह विकल्प आता है वह भी मुझसे भिन्न है। ये शरीरमें जो होता है वह होता है, मेरे आत्मामें नहीं होता है। ऐसी परिणति उनको दृढ है। और वे क्षण-क्षणमें स्वरूपमें डूबकी लगाते हैं। स्वरूपमें आनन्दमें लीन होते हैं, इसलिये बाहरसे उनका उपयोग छूट जाता है और अंतरमें लीन हो जाते हैं। अतः बाहर-से उपसर्ग आया, परन्तु वे अंतरमें (लीन हो जाते हैं)। बाहर उपयोग आवे


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तो जान लेते हैं कि ये शरीर जल रहा है।

और (उनको) सम्यग्दर्शन तो है, लेकिन उससे भी आगे बढ गये हैं। चारित्र दशा है। जो गृहस्थाश्रममें सम्यग्दर्शन हुआ है, उन्हें भेदज्ञान तो हुआ है, आत्माको तो भिन्न जाना है-न्यारा जानते हैं। उन्हें गृहस्थाश्रममें कोई भी रोग आये तो आत्मा भिन्न है ऐसा जानते हैं। परन्तु अल्प अस्थिरता है, उन्हें रागके और दूसरे विकल्प आते हैं, यह ठीक नहीं है, ऐसी अस्थिरता हो तो भी आत्मामें शान्ति रखते हैं। विकल्प आये, अमुक अस्थिरता हो तो भी शान्ति रखते हैं।

और मुनि तो उससे भी आगे बढ गये हैं। मुनि तो चारित्रदशामें अन्दर क्षण- क्षणमें स्वरूपमें लीन होते हैं। और गृहस्थाश्रममें कोई बार लीन हो, बाकी उन्हें भेदज्ञानकी धाराकी लीनता है। भेदज्ञानकी धाराकी लीनता चालू है। इसलिये वे भी भिन्न हैं, परन्तु ु मुनि तो विशेष आगे हैं। अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें स्वरूपमें चले जाते हैं। इसलिये इस उपसर्गमें उन्हें पुरुषार्थ विशेष वृद्धिगत हो गया। गजसुकुमालको अन्दर लीनता होते-होते ऐसे लीन हो गये कि बाहर ही नहीं आये, केवलज्ञान प्रगट किया। केवलज्ञान प्रगट हो गया तो इस शरीरमें क्या होता उसका ख्याल भी नहीं है।

मुमुक्षुः- उपसर्ग था तभी केवलज्ञान हुआ?

समाधानः- उपसर्ग था, बाहरसे शरील जल रहा था, परन्तु अन्दर केवलज्ञान हो गया। और आत्मा अन्दर एकदम केवलज्ञान होकर आत्मा मोक्षमें चला गया। उतनी लीनता प्रगट हो गयी।

मुमुक्षुः- मुनिको इतनी पुण्य प्रकृतिका उदय है, इतना..?

समाधानः- पुण्य प्रकृति नहीं, पुरुषार्थ।

मुमुक्षुः- पुरुषार्थ, तो भी उनको इतना उपसर्ग आता है?

समाधानः- पूर्वके जो उदय हो वह उदय आये बिना नहीं रहता। मुनि हो तो मुनिओंको भी उदय आते हैं, परन्तु वे शान्ति रखते हैं। अन्दरमें उन्होंने ऐसा पुरुषार्थ प्रगट किया कि केवलज्ञान प्रगट किया। मुनि शान्ति (रखते हैं)। उन्हें एक भव हो तो देवलोकमें जाते हैं। गजसुकुमालने तो केवलज्ञान प्रगट किया। ऐसे लीन हो गये कि ये शरीर जल रहा है, वह भी ध्यान नहीं रहा। आत्मामें ऐसे डूब गये कि केवलज्ञान हो गया।

मुमुक्षुः- उग्र पुरुषार्थ।

समाधानः- उतना उग्र पुरुषार्थ। उतना पुरुषार्थ हो सकता है।

मुमुक्षुः- विचार यह आता है कि मुनि इतने बढ गये हैं, चारित्रदशा इतनी है, फिर भी उपसर्ग आता है, पूर्व भवके ..


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समाधानः- पूर्व भवके उदय तो आते हैं। चतुर्थ कालमें भी आते थे। ऋषभदेव भगवान जैसे तीर्थंकर..

मुमुक्षुः- उनके पुरुषार्थसे कर्म जल जाये, ऐसा कुछ?

समाधानः- पुरुषार्थसे अन्दर कर्म जल जाते हैं। परन्तु बाहरमें कुछ एक छूट जाते हैं, परन्तु कुछ नहीं छूटे तो उदयमें आते हैं। कुछ एक जो बाहरके कर्म होते हैं शरीरके आधीन रोगके, कोई बाह्य उपसर्गका, कोई सिंह-बाघका, कोई मनुष्य उपसर्ग करे, ऐसे कोई कर्म हो तो कुछ एक छूट जाते हैं और कुछ नहीं भी छूटते हैं। और अन्दरमें राग-द्वेष छूटकर वीतराग दशा प्रगट करनी वह अपने हाथकी बात है। राग-द्वेषके जो उदय आये उसे तोडकर स्वयं वीतराग दशा करे। परन्तु बाहरसे जो उपसर्ग आते हैं, वह किसीको पलट जाते हैं, किसीको नहीं भी पलटता है।

तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव भगवान सर्वोत्कृष्ट भगवान, तीन लोकके नाथ, जिनकी इन्द्र आकर पूजा करते थे, उनके जन्म समय मेरु पर्वत पर ले गये। जब उन्होंने दीक्षा ली, तब उनको बारह महिना आहर नहीं मिला है। वे आहार लेने जाते थे, तो कोई आहार (देनेकी) विधि नहीं जानता था। कोई हीरा, मोती, माणक लेकर आते हैं, तो वापस चले जाते हैं। ऐसा उदय उनको भी था। बारह महिने तक था। तो स्वरूपमें लीन हो जाते हैं। फिर बाहर आये, योग्य दिखाई न दे, आहारका योग न हो तो जंगलमें वापस आकर आत्मामें लीन (हो जाते हैं)।

मुमुक्षुः- फिर विकल्प भी नहीं आता। समाधानः- फिर विकल्प नहीं आता। स्वरूपमें लीन हो जाते हैं। फिर वापस विकल्प आये तो नगरमें जाते हैं, कैसा योग बनता है? जुगलिया जानते नहीं है। बस, हीरा-मोती लेकर आते हैं। आखिरमें श्रेयांसकुमारने आहार दिया।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!