Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 227.

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ट्रेक-२२७ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- आप जो अस्तित्वका ग्रहण कहते हो कि निज अस्तित्वका ग्रहण करना। और त्रिकाल ज्ञायककी दृष्टि करनी, दोनों एक ही बात है?

समाधानः- दोनों एक ही बात है। एक ज्ञायकमें त्रिकाल आ गया। वर्तमान जिसका अस्तित्व ज्ञायकरूप है, वह उसका त्रिकाल अस्तित्व है। वर्तमान जो सतरूप अखण्ड ज्ञायक है वह तो त्रिकाल अखण्ड ज्ञायक ही है।

मुमुक्षुः- .. उसका कोई सरल उपाय?

समाधानः- वह दृष्टि तो स्वयं अंतरमें-से जागृत हो तो हो। दृष्टि मात्र विकल्प वह तो भावना करे, लगन लगाये। अंतर-से जिसको लगी हो उसकी दृष्टि अंतरमें जाती है। जिसे अंतरमें लगन लगे, बाह्य दृष्टि और बाह्य तन्मयतासे जो थक गया है, जिसे अंतरमें कहीं चैन नहीं पडता। बाह्य दृष्टि और बाह्य उपयोग, बाहरकी आकुलतासे जिसको थकान लगी है और अंतरमें कुछ है, अंतरके अस्तित्वकी जिसे महिमा लगी है। अंतरमें ही सब है, ऐसी जिसको अंतरसे महिमा लगे तो उसकी दृष्टि बदल जाती है। तो वह स्वयं चैतन्यको ग्रहण कर लेता है। जिसे लगे वह ग्रहण किये बिना नहीं रहता। नहीं तो वह ऊपर-ऊपर से विचार करता रहे। बाकी दृष्टि पलटनेके लिये अंतरमें- से लगन लगे तो दृष्टि पलटती है।

मुमुक्षुः- ... तो ज्ञात होगा, ऐसा कह सकते हैं?

समाधानः- परको जानना बन्द करना ऐसा नहीं। एक क्षण विभावमें-से तन्यता छोडकर उसका भेदज्ञान करे तो स्व ज्ञात होगा। जानने ओर नहीं। पर-ओर जो उपयोग (तन्मय हो रहा है, उसे छोडकर), राग और विकल्पकी एकत्वबुद्धि तोडकर स्वमें जा तो स्वका वेदन होगा।

जाननेका तो उपयोग पलटता है। अन्दर जो जाननेका स्वभाव है, उसका नाश नहीं होता। जाननेका स्वभाव है उसका नाश नहीं होता। रागके साथ एकत्वबुद्धि है, उसे क्षणभरके लिये तोड दे। क्षणबर यानी अन्दरमें-से ऐसी प्रज्ञाछैनी द्वारा उसका ऐसा भेदज्ञान कर तो स्वकी स्वानुभूति होगी। एक क्षणभरके लिये। स्वभाव और विभावमें ऐसी तीक्ष्ण प्रज्ञाछैनी द्वारा स्वयं स्वसन्मुख हो जाय, तो स्वका वेदन होगा। उसका


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राग तोडनेका है, उसकी एकत्वबुद्धि तोडनी है। जानना तो, अनेक जातके विकल्प आ गये तो भी अन्दर जो प्रत्यभिज्ञान जाननेका स्वभाव है उसका नाश नहीं होता। वह नाश नहीं होता। राग छूट जाता है।

मुमुक्षुः- जो परिभ्रमण हो रहा है वह एकत्वबुद्धिके कारण है।

समाधानः- एकत्वबुद्धिके कारण है, जाननेके कारण नहीं। एकत्वबुद्धिके कारण परिभ्रमण खडा है। केवलज्ञानी लोकालोक जानते हैं। जानना रागका कारण नहीं होता। वीतराग दशा, भेदज्ञान करे, एकत्वबुद्धि तोड दे। वह तो उपयोग वहाँ जाता है, रागके साथ एकत्व (है), इसलिये तू अन्यको जाननेके बजाय स्वको जान, ऐसा कहनेमें आता है। परन्तु जाननेका स्वभाव तोड दे, ऐसा नहीं कहना है। उसमें रागमिश्रित उपयोग है, उस उपयोगको बदल दे। ऐसा। ज्ञेय-ओरकी एकत्वबुद्धिको तोड दे। तेरी जाननेकी दिशा स्वसन्मुख कर दे। ऐसा कहना है। इसलिये राग टूट जाता है। तेरे उपयोगकी दिशा बदल दे, ऐसा कहना है।

मुमुक्षुः- जहाँ स्वको अपनेरूप जाना तो उसका समस्त ज्ञान सम्यकज्ञान नाम प्राप्त करता है।

समाधानः- हाँ, सम्यकज्ञान नाम प्राप्त करता है।

मुमुक्षुः- और उसके पहले जबतक परमें एकत्वबुद्धि है, तबतक मिथ्याज्ञान नाम प्राप्त होता है।

समाधानः- मिथ्याज्ञान नाम प्राप्त होता है। दिशा पूरी पलट गयी न। पूरी दिशा, पर सन्मुख दिशा (थी, वह) स्व सन्मुख जाननेकी दिशा हो गयी, उसका समस्त ज्ञान सम्यक रूप हो गया। उसके समस्त अभिप्राय पलट गये। (पहले) जानता था उसमें अभिप्रायमें भूल होती थी। जहाँ सम्यक भेदज्ञान हुआ तो ज्ञानकी दिशा पलट गयी। उसका पूरा ज्ञान सम्यक रूप परिणमित हो गया। भेदज्ञान रूप ज्ञान परिणमित हुआ इसलिये उसकी जाननेमें कहीं भूल नहीं होती। उसके पहले एकत्वबुद्धि थी, दिशा अलग थी इसलिये जाननेमें भूल होती थी।

समाधानः- .. द्रव्यके षटकारक और एक द्रव्य और दूसरे द्रव्यके षटकारक वह षटकारक एवं पर्यायके षटकारक, वह षटकारक एकसमान नहीं होते। वह षटकारकमें फर्क होता है। पर्याय तो क्षणिक है, द्रव्य तो त्रिकाल है। पर्याय स्वतंत्र होने पर भी पर्यायके षटकारक और द्रव्यके षटकारकमें अंतर है। पर्यायको द्रव्यका आश्रय तो रहता है। स्वतंत्र होने पर भी उस पर्यायको द्रव्यका आश्रय होता है। जितना द्रव्य स्वतंत्र, उतनी ही पर्याय स्वतंत्र कहनेमें आये तो वह पर्याय नहीं रहती, वह द्रव्य हो जाय। इसलिये पर्यायको द्रव्यका आश्रय है। इसलिये उसके षटकारक और द्रव्यके षटकारकमें


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मुमुक्षुः- पर्याय स्वयं स्वतंत्रपने द्रव्यका आश्रय लेती हुयी प्रगट होती है। आप जो कहते हो कि उसे द्रव्यका आश्रय है। पर्याय प्रगट होती है स्वतंत्र, परन्तु वह द्रव्यका आश्रय लेती हुयी, अपने षटकारकसे परिणमती है। आपने जो कहा बराबर है। ऐसे ही है।

समाधानः- द्रव्यके आश्रयसे प्रगट होती है, स्वतंत्र। कारण द्रव्य त्रिकाल है और पर्याय क्षणिक है।

मुमुक्षुः- और परका आश्रय लेती हुयी प्रगट होती है, तबतक दशामें आस्रव, बन्ध है और जब ज्ञायकका आश्रय लेती हुयी प्रगट होती है, तब संवर, निर्जरा, मोक्ष प्रगट होते हैं।

समाधानः- संवर, निर्जरा, मोक्ष (प्रगट होते हैं)। परके आश्रय-से तो आस्रव होता है। निज शुद्धात्माके आश्रयसे शुद्ध पर्याय प्रगट हो तो संवर, निर्जरा है।

समाधानः- ... भीतरमें-से उसको-ज्ञायकदेवको ग्रहण करना। अनन्त गुणकी मूर्ति दिव्यमूर्ति चैतन्यदेव। उसको पहचानता है वह, जिनेन्द्र देव, गुरु सबको पीछानता है। जो भगवानके द्रव्य-गुण-पर्यायको पीछानता है, वह अपने द्रव्य-गुण-पर्यायको (पीछानता है)।

मुमुक्षुः- भगवानके द्रव्य-गुण-पर्यायकी पहचानमें तो अपने द्रव्य-गुण-पर्यायकी पहचान होवे तो वापस वही ... लग जायगी, स्वानुभकी। अनन्त बार भगवानके दर्शन करने गये, समवसरणमें गये, साक्षात सर्वज्ञदेवका भी किया, लेकिन अंतर दृष्टि और अनुभव बिना दर्शन नहीं हुआ।

समाधानः- अंतरमें भगवानका द्रव्य क्या है? क्या करता है? स्वानुभूति भगवानने वीतराग दशा प्रगट की, उसे पहचाना नहीं और बाहरसे दर्शन किया, इसलिये... जो यथार्थ पीछान करे तो अपने द्रव्य-गुण-पर्यायकी पीछान लेता है।

मुमुक्षुः- भगवानका तो परद्रव्य, गुण, पर्याय उनकी पहचान करनेमें तो उपयोगकी तो परसन्मुखता रहती है। फिर अपनी पहचानके लिये तो वापस स्वसन्मुखताका जोर हो।

समाधानः- दृष्टि तो अपने पर देनी है। परन्तु निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। इसलिये शास्त्रमें ऐसा कहा है। निमित्त और उपादानका सम्बन्ध है। भगवान तरफलक्ष्य


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करे अपनी ओर जाता है तो भगवान-ओरका लक्ष्य छूट जाता है और स्वसन्मुखता हो जाती है। भगवान-ओरका राग छूट जाय और अपनी ओर अपनी श्रद्धा हो तब अपनेको (पहचानता है)। राग तो वीतराग दशा हो तबतक रहता है, परन्तु भेदज्ञान होता है। भगवानकी ओर यह राग (जाता है, वह) और मैं भिन्न हूँ, ऐसा भेदज्ञान हो जाता है। उसका भेदज्ञान हो जाता है।

मुमुक्षुः- केवली भगवानको तो प्रत्यक्ष आत्माके प्रदेश वगैरह अनुभवमें जाननेमें .. आदि प्रत्यक्ष लगते हैं। उनको तो केवलज्ञान हो जानेसे ... लेकिन अपने तो स्वानुभवके कालमें आत्माके प्रदेश आदिका प्रत्यक्षरूप (नहीं होता)।

समाधानः- भगवानको केवलज्ञान है, इसलिये प्रत्यक्ष जानते हैं। प्रदेश और सब द्रव्य, गुण, पर्यायको प्रत्यक्ष जानते हैं। लोकालोक सबको प्रत्यक्ष (जानते हैं)। स्वानुभवके कालमें और वेदन प्रत्यक्ष है। अपना स्वानुभव प्रत्यक्ष है। प्रदेश उसको प्रत्यक्ष नहीं होते हैं। अनुभव प्रत्यक्ष है न। अपना आनन्द और स्वानुभूति प्रत्यक्ष है।

मुमुक्षुः- स्वानुभवको आपने प्रत्यक्ष फरमाया तो...

समाधानः- परोक्ष कहनेमें आता है। केवलज्ञानकी अपेक्षासे परोक्ष (कहनेमें आता है)। क्योंकि मति-श्रुत है वह परोक्ष है। इसलिये परोक्ष कहनेमें आता है। परन्तु स्वानुभूति है वह प्रत्यक्ष है। अपने वेदन हुआ वह प्रत्यक्ष है। तो अपेक्षासे प्रत्यक्ष कहनेमें आता है, उसको परोक्ष भी कहनेमें आता है। मति-श्रुत तो मनका अवलम्बन रहता है इसलिये परोक्ष कहनेमें आता है। परन्तु परोक्ष ऐसा नहीं है कि कुछ जाननेमें नहीं आता। वेदन तो प्रत्यक्ष है।

मुमुक्षुः- कोई एक दृष्टान्त।

समाधानः- मिशरी खाता है तो उसका स्वाद अपनेको आता है, वह स्वाद कहीं ऐसा नहीं है कि परोक्ष है, कोई अनुमान नहीं करता है। मिशरीका स्वाद है वह स्वाद तो प्रत्यक्ष है। अन्धेको मिशरी खिलाओ तो कैसा आकार है? कैसा वर्ण है? वह नहीं जानता। परन्तु जो स्वाद होता है वह स्वाद तो प्रत्यक्ष होता है। अन्धेको मिशरी (खिलायी) वह स्वाद तो प्रत्यक्ष होता है।

ऐसे स्वानुभूतिमें असंख्यात प्रदेश गिनतीमें नहीं आते। परन्तु उसका जो वेदन होता है वह तो प्रत्यक्ष होता है। जैसे अन्धेको मिशरी (खिलायी)। तो स्वाद, शक्करकी मीठास है वह तो उसे प्रत्यक्ष होती है। वैसे स्वानुभूतिके कालमें आनन्द और उसके अनन्त गुण-पर्यायका वेदन (होता है), वह वेदन प्रत्यक्ष होता है।

मुमुक्षुः- कल आपश्रीने फरमाया था कि जैसे विकल्पोंको जान लेता है, वैसे ही अरूपी ज्ञानको ज्ञान जान लेता है। कैसे?


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समाधानः- विकल्प भी जाननेमें आता है कि विकल्प आया, विकल्प आया, विकल्प आया। वैसे ज्ञान भी जाननेमें आता है। अरूपी है तो भी जाननेमें आता है कि यह ज्ञान.. ज्ञान.. ज्ञान है। अरूपी होवे तो भी ज्ञान जाननेमें आता है।

... प्रत्यक्ष कर लिया है। उनको द्रव्य-गुण-पर्याय, असंख्यात प्रदेश सब प्रत्यक्ष ज्ञान (गोचर) है। इसलिये उनकी वाणी निमित्त होती है। अपनेको तो उपादान-से होता है। उपादान अपना और भगवानकी वाणी निमित्त होती है। लक्ष्य अपनेको देना है। बाहर लक्ष्य करे कि भगवान ऐसे हैं, ऐसे हैं तो स्वसन्मुख दृष्टि नहीं होती। परन्तु भगवान है वैसा मैं हूँ, ऐसे दृष्टि अंतर्मुख करे तो स्वानुभूति होती है। स्वानुभूति, केवलज्ञान जैसा नहीं है कि केवलज्ञान सब प्रत्यक्ष जानता है, ऐसा। परन्तु उसका वेदन और आनन्द और उसके अनन्त गुण आदि वेदनमें आता है वह प्रत्यक्ष है। देखनेमें नहीं आता है कि ऐसे असंख्य प्रदेश है।

मुमुक्षुः- इतना दुर्लभ क्यों पड रहा है? आपके निकटमें, गुरुदेवश्रीके पासमें हम सब भाई-बहन बहुत समयसे (रहते हैं)।

समाधानः- पुरुषार्थ अपनेको करना पडता है। अनादिका अभ्यास है और बाहर उपयोग जाता है। दिशा पलट देनी है। दिशा पलटनी है। अपना स्वभाव है इसलिये सुलभ है। परन्तु अनादिका अभ्यास है इसलिये बाहर दौडता है। बार-बार दौडता है, अंतरमें नहीं जाता है। इसलिये दुर्लभ हो रहा है। ऐसे-ऐसे चक्कर खाता है। अपनी ओर नहीं जाता है, इसलिये दुर्लभ हो जाता है।

स्वभाव है इसलिये सुलभ है। जिसको होता है उसको अंतर्मुहूर्तमं होता है, नहीं होता है उसको काल लगता है। भगवानके समवसरणमें अंतर्मुहूर्तमें केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है, कोई मुनि बन जाता है, किसीको सम्यग्दर्शन होता है। ऐसा अंतर्मुहूर्तमें भी होता है। किसीको अभ्यास करने-से होता है। यह तो पंचमकाल है। इसलिये दुर्लभता देखनेमें आती है। परन्तु स्वभाव है अपना तो पुरुषार्थ करने-से हो सकता है।

मुमुक्षुः- प्रश्न लिया है राजमलजी पाण्डे साहबने कि केवली भगवानके ज्ञानमें- नोंधमें कौन जीव कब मोक्ष जायगा। और ऐसा भी आया कि ढाई पुदगल परावर्तन काल जिसका शेष रह जायगा, उसके बाद वह सम्यग्दर्शन प्राप्त करेगा। तो फिर ऊधर जोर क्यों दिया गया? इधर स्वभाव पर पुरुषार्थका जोर होगा तो स्वानुभव होगा।

समाधानः- भगवानके ज्ञानमें, भगवानके केवलज्ञानका स्वभावको बताते हैं कि भगवानके ज्ञानमें सब है। कब, कौन-सा जीव मोक्ष जायगा। भगवान तो सब जानते हैं। भगवानके केवलज्ञानकी बात कही है कि केवलज्ञानमें तो सब आ गया है। परन्तु भगवानने ऐसा जाना है कि यह जीव पुरुषार्थ करने-से मोक्ष जायगा। बिन पुरुषार्थ-


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से मोक्ष जायगा ऐसा भगवानके ज्ञानमें नहीं आया है। भगवानके ज्ञानमें ऐसा आया है कि यह जीव इतने कालके बाद पुरुषार्थ करेगा और मोक्ष जायगा। पुरुषार्थ करेगा, आत्माकी स्वानुभूति करेगा और वीतरागता, मुनिदशा प्रगट करेगा और मोक्ष जायगा। पुरुषार्थ करने-से मोक्ष जायगा, ऐसा भगवानके ज्ञानमें आया है। बिन पुरुषार्थ-से मोक्ष जायगा ऐसा भगवानके ज्ञानमें नहीं आया है।

मुमुक्षुः- भगवानकी वाणी सुनते हैं और ऐसा जाननेमें आता है तो फिर अंतरमें- से यह तो नक्की हो जाता है कि हमारा जीव, केवली भगवानने निर्वाण होनेका और सम्यग्दर्शन होनेका समय देख लिया है, उस समय जरूर हमारा पुरुषार्थ स्वभावके सन्मुख होगा, होगा और होगा। तो फिर विश्वास आता है कि हम ऐसे शरणमें आ गये हैं, पूज्य माताजी अनुभूति देवीके, तो ऐसी बात सुननेको मिल रही है तो ये भी कोई उपादान हमारा जागृत है।

समाधानः- विश्वास आता है, लेकिन पुरुषार्थ तो अपनेको करना पडता है। जिसको अपूर्व रुचि होती है उसकी मुक्ति होती है। गुरुदेव कहते थे कि तत्प्रति प्रीति चित्तेन वार्ता पि ही श्रुताः। अंतर प्रीतिसे वार्ता भी सुनी, अंतर अपूर्वतासे (सुनी) तो भावि निर्वाण भाजनम। अपनी कैसी परिणति है वह स्वयं जान सकता है कि कैसे मेरी परिणति होती है, मुझे कैसी अपूर्वता लगती है, मेरी कैसी रुचि है, अपने आप अपना निर्णय कर सकता है कि मैं पुरुषार्थ करुँगा, ऐसा करुँगा।

मुमुक्षुः- अनुभूतिको विषय बनानेके लिये .. वेदनमें सुख आता है, ऐसा आत्मा भी ज्ञानमें आता है? ऐसा प्रश्न रह जाता है कि पर्याय जो है, भावमन है, वह स्थानविशेष- से ही आत्माको पकडता है या सर्वांग जो पूरे आत्म प्रदेशोंमें पर्याय व्याप्त है, तो पर्याय पूरा सर्वांग आत्माको पकडती है या स्थानविशेष-से पर्याय पकडती है?

समाधानः- यहाँ तो मन है न, इसलिये ऐसा कहते हैं कि यहाँ-से पकडता है। परन्तु वह पकडती तो है द्रव्यको न, अखण्ड द्रव्यको पकडती है, ग्रहण करती है। अखण्डको ग्रहण करती है। जहाँ-से पकडे वहाँ-से पकडना तो अपनेको है न।

मुमुक्षुः- ज्ञानपर्याय सर्वांग है न। असंख्य प्रदेशमें ज्ञानपर्याय भी है। ज्ञानपर्याय सर्वांगसे आत्माको ज्ञानमें पकडती है या भावमन स्थानविशेष-से ही पकडती है?

समाधानः- भावमन आया तो उसमें सब आ जाता है। भावमन मुख्य रहा तो उसमें सर्वांग आ जाता है। वह मुख्य रहता है तो एक तरफ-से नहीं पकडनेमें आता है, एक तरफ-से पकडनेमें आता है ऐसा नहीं होता। भावमन तो निमित्त बनता है और वहाँ-से ग्रहण करे तो सर्वांग पकडता है अपने आत्माको।

मुमुक्षुः- उसमें ऐसा कहना है इनका कि जैसे आँख-से देखते हैं तो किसी


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पुरुषको देखना हो तो आँख-से ही देखेंगे, यहाँ-से नहीं देख सकते न। ऐसा। ... करता है, किसी पुरुषको देखना हो, वस्तुको देखना हो तो आँखका प्रदेश खुला हुआ है तो वहाँ-से वह उस पुरुषको देख सकता है। उसी प्रकार जब आत्माको ग्रहण करने जाते हैं तो इधर तो वह भावमन है नहीं, इधर है नहीं, इधर है नहीं। जहाँ जिसका स्थान है, उस स्थान-से ही ग्रहण करता है या सर्व प्रदेशोंसे वह ग्रहण करता है?

समाधानः- भावमन तो निमित्त है। ज्ञानसे ग्रहण करना है न। ज्ञानसे ग्रहण करना है। तो ज्ञान तो सर्वांग होता है। ... इसलिये वहाँ-से कहनेमें आता है। भावमन निमित्त बनता है। परन्तु ग्रहण तो सर्वांग-से होता है। ज्ञान-से ग्रहण करना है। मन-से ग्रहण करना है (उसमें) मन तो निमित्त होता है। आँख है वह तो... भावमनके निमित्तमें ज्ञान-से ग्रहण करना है। ज्ञान तो सर्वांग-से ग्रहण करता है। निमित्त भावमन बनता है, परन्तु ग्रहण सर्वांग-से होता है।

मुमुक्षुः- पर्याय सर्वांग ग्रहण करके आत्माको पकडती होगी? सर्वांग आत्मा है तो सर्वांग ज्ञानपर्याय भी है। ज्ञानपर्याय वहीं के वहीं आत्माको स्वीकार करती है? पूरी पर्याय समुच्चय आत्माको वहीं के वहीं स्वीकार करती होगी?

समाधानः- पर्याय सर्वांग आत्माको ग्रहण करती है।

मुमुक्षुः- भावमन निमित्तमात्र है।

समाधानः- भावमन निमित्त बनता है। इसलिये कहनेमें आता है कि मन-से होता है। ऐसा कहनेमें आता है। शास्त्रमें भी आता है। थोडा ग्रहण हुआ, इधर-से हुआ, इधर-से नहीं हुआ। इधर-से एकत्वबुद्धि हो रही है और इधर-से ग्रहण हो गया है, ऐसा नहीं। भावमन निमित्त बनता है, परन्तु ग्रहण सर्वांग होता है।

मुमुक्षुः- आत्माके प्रदेशोंमें आनन्दकी .. देता है, उस अपेक्षासे उसको घटा सकते हैं। लेकिन निमित्तकी अपेक्षा तो भावमन ही निमित्त पडता है। उसी दरवाजेके माध्यम- से अन्दर ज्ञानकी पर्याय स्वसन्मुख अन्दरमें जाकर सर्वांगमें आनन्द देती है। उस अपेक्षासे। लेकिन यहाँ-से भी जान लेता होगा, यहाँ-से भी जानता होगा। नहीं, असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक तो स्वानुभूति करनेकी योग्यता ही नहीं खुली है, माताजी! इसलिये मैंने कहा।

समाधानः- भावमन निमित्त होता है। ... ग्रहण उससे होता है। मनके द्वारा होता है, भावमन-मनके निमित्तके द्वारा अपनेको भीतरमें जाता है। मन निमित्त होता है।

समाधानः- ... स्वरूप पहचानना। आत्मा क्या है? उसका क्या स्वरूप है? शरीर भिन्न है, आत्मा भिन्न है। भीतरमें आत्मा ज्ञानस्वभाव ज्ञायक है, उसको पहचानना। विकल्प भी आत्माका स्वभाव नहीं है। उससे भेदज्ञान करना। भेदज्ञानके लिये बारंबार आत्माक रटन करना। शास्त्र स्वाध्याय, विचार, चिंतवन, जन्म-मरण करते-करते शुभभाव


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बहुत किये, पुण्यबन्ध हुआ, देवलोक हुआ लेकिन आत्माका भवका अभाव नहीं हुआ, मुक्ति नहीं हुयी। मुक्ति तो भीतरमें है। भीतरमें-से स्वानुभूति होती है, बाहर-से होता नहीं। पुण्यबन्ध होता है, देवलोक होता है। भवका अभाव नहीं होता। भवका अभाव तो आत्माको पहचानने-से होता है। इसलिये उसको पीछानना चाहिये।

अनुभवके पहले मैं कौन हूँ? मेरा क्या स्वभाव है? उसकी लगन लगनी चाहिये। उसकी महिमा होनी चाहिये। सबकुछ आत्मामें है, सर्वस्व आत्मामें है। बाहरमें कुछ नहीं है। बाहरमें सुख नहीं है, बाहरमें-से कुछ आता नहीं है। सुख, ज्ञान सब आत्माके स्वभावमें है। जो जिसमें होवे उसमें-से निकलता है, उसमें-से प्रगट होता है। जिसका जो स्वभाव हो उसमें दृष्टि दे तो निकलता है।

छोटीपीपर है उसको घिसते-घिसते, गुरुदेव कहते थे, चरपराई प्रगट होती है। वैसे आत्माका स्वभाव पहचाने तो स्वभावमें-से ज्ञान, आनन्द सब आत्मामें-से प्रगट होता है। बाहर-से नहीं आता है। अंतरमें-से आता है। पहले उसका भेदज्ञान करना। उसका बारंबार अभ्यास करना। बादमें विकल्प तोडकरके स्वभावमें स्वानुभूति होती है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!