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मुमुक्षुः- .. दिन भी है, इसप्रकार परिवर्तन करनेमें पूज्य गुरुदेवने जो महान वीर्य प्रकट किया होगा, उसमें कौन-कौनसी शक्तिने काम किया होगा, यह आप समझाईये तो गुरुदेवके मंगल द्रव्यके बारेमें हमें कुछ ख्याल आये।
समाधानः- वह तो ऐसा है कि सब सहज आये ऐसा है। मैें कुछ कहुँ, ऐसा कछु नहीं है।
मुमुक्षुः- थोडा-थोडा...
समाधानः- एक तो गुरुदेवका क्या प्रसंग बना वह होता है, बाकी कुछ पूछे तो निकले। गुरुदेवने पहलेसे उन्हें कुछ समय बाद नक्की हो गया था कि यह संप्रदाय अलग है और सबकुछ भिन्न है। इसलिये उन्हें हृदयमें ही ऐसा हो गया था कि ये सब छोडने जैसा है। और नक्की किया था कि (ये छोड देना है)।
पहले तो स्थानकवासी संप्रदायमें बराबर उसकी क्रियायोंका पालन करते थे और बराबर (पालते थे), उसमें थोडा भी फर्क नहीं पडता था। उनके शास्त्रमें जो लिखा हो वैसे ही वे बराबर पालते थे। व्होरनेकी-आहारकी, विहारकी आदि सब क्रियाएँ जो उनके स्थानकवासी शास्त्रोंमें होती है, वैसी ही पालते थे। उसमें जितने कपडे रखना लिखा हो, कैसे विहार करना आदि सब वैसा ही करते थे। उनकी आहरकी क्रियाएँ जैसे शास्त्रमें आता था, उस अनुसार उन्हें थोडा भी फर्क नहीं पडे, इसप्रकार करते थे। दूसरे साधु कितने ही कपडोंका ढेर करे, कितना कुछ करे ऐसा सब गुरुदेव नहीं करते थे।
एक गाँवमें अमुक दिनोंसे ज्यादा नहीं रहना, ऐसा गुरुदेव करते थे। बराबर। स्थानकवासी संप्रदायमें तो मुख्य साधु, महान साधु कहलाते थे। आहार लेने जाय तो कुछ फर्क पडे, कोई युवान मर जाय, कोई पानीको स्पर्श कर ले, उनके लिये बनाया है ऐसा मालूम पडे तो तुरन्त ऐसे वापस मुड जाते थे, मानो बिजलीके चमकारेकी भाँति। दूसरोंको सदमा पहुँचता कि ऐसे महापुरुष हमारे घर पधारे और वापस जा रहे हैं। ऐसी उनकी क्रिया थी। आहार लेने पधारे तब सब काँपते थे कि हमसे कोई भूल न हो जाये। ऐसी सख्त क्रिया थी। और दूसरे साधु थे, ऐसा है, ऐसा है, ऐसा सब (होता था)।
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गुरुदेवको कुछ नहीं था। निस्पृह जैसी उनकी क्रियाएँ स्थानकवासी संप्रदायमें जोरदार थी।
उसमें उन्हें ख्याल आया कि मुनिपना तो कोई अलग ही है, यह मुनिपना नहीं है। यह सब तो (मुनिपना नहीं है)। मुनिपना तो दिगंबरका कुन्दकुन्दाचार्यने कहा वह मुनित्व है, यह नहीं है। इसलिये उन्हें फेरफार करनेका विचार आया कि इसमें रहना और ये सब उनकी क्रियाएँ, अन्दर ये दशा! मुनिकी दशा तो अलग होती है (और) ये सब अलग है। इसलिये उन्हें फेरफार करनेका विचार आया।
मुमुक्षुः- जैसी आज्ञा हो, उस अनुसार ही था और उसमें भी किसी भी प्रकारका..
समाधानः- भगवानकी जो आज्ञा है उस आज्ञा अनुसार बराबर पालन करना। ऐसे उन्होंने अंतर वैराग्यसे दीक्षा ली थी, इसलिये वे बराबर वैसा ही पालते थे और महात्मा कहलाते थे। महान कहलाते थे। फिर उन्हें ऐसा लगा कि यह जूठा है। परन्तु उनकी ख्याति इतनी थी कि इस संप्रदायको धक्का पहुँचेगा। इसलिये बहुत विचार किया। एक साथ बोल नहीं पाती हूँ, थोडी देर बाद बोलती हूँ।
... स्थानकवासी संप्रदायका बन्धन न हो, शांत.. सोनगढमें कोई नहीं था, स्थानकवासीका ऐसा कोई जोर नहीं था, इसलिये यहाँ उन्होंने पसंद किया। यहाँ हरगोविंदभाई आदि थे, यहाँ हीराभाईके बंगलेमें सब नक्की किया। लेकिन छोडनेके बाद बहुत विरोध हुआ। विरोधी अखबार बहुत निकले थे। सब भक्तोंको पूछते कि ये सब छोडना है। सबको बहुत प्रेम था, गुरुदेव आपको जो किया, वह बराबर है। कितने तो ऐसा ही कहते थे। फिर तो सब लोग मुडने लगे।
मुमुक्षुः- खासकर जो समझदार वर्ग था, वह सब..
समाधानः- समझकर ही किया होगा, ऐसा जिनके हृदयमें गुरुदेवका स्थान हो गया था, वे सबकुछ आत्मार्थके लिये ही करने वाले हैं, उनका ज्ञान कोई अलग है, ऐसा सब मानते थे। वे सब मुडने लगे। पहले तो खास नहीं आये। बहुत विरोधी अखबर आये न इसलिये। कुछ लोग (ऐसा कहते थे), गुरुदेव! आप जहाँ जाओगे वहाँ हम आयेंगे। आप जो कहते हो, सब कबूल है। कितने ही भाई, कितने ही बहनें सब तैयार थे। यहाँ जोरावरनगरमें बहुत लोगोंको गुरुदेव पूछते थे। वढवाणके दासभाई, मगनभाई सबको कहते थे। पहले तो यहाँ जोरावरनगरमें करना था, लेकिन वहाँ चारों ओर स्थानकवासी (रहते थे), सुरेन्द्रनगरमें स्थानकवासी, वढवाणमें स्थानकवासी, बीचमें जोरावरनगर था। वह छोटा था, लेकिन बीचमें रहनेसे तो विरोध होगा, इसलिये यहाँ नक्की किया।
श्रीमदके आश्रम वाले कहते थे कि हमारे आश्रममें पधारिये। लेकिन गुरुदेव कहते
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थे कि मैं वैसे नहीं रह पाऊँगा। मैं तो कुन्दकुन्दाचार्यका मार्ग प्रवर्तन करुँगा, ऐसे नहीं रह पाऊँगा। वनेचंद सेठ वांकानेरके थे, उन्होंने कहा, हमारे आश्रममें-श्रीमदके आश्रममें (रहीए)। मात्र श्रीमदका ही नहीं, मैं तो कुन्दकुन्दाचार्यका मार्ग प्रकाशित कर सकता हूँ। बहुत विचार करनेके बाद गुरुदेवने छोडा। कितने ही भक्त तो मानते थे कि गुरुदेव जो कहते हैं वह बराबर है। कुछ बहनें, कुछ भाईओं।
पहले यहाँ सोनगढमें तो बहुत लोग नहीं थे। हमेशा रहने वाले बहुत थोडे थे। इसलिये हीराभाईके बंगलेमें (नक्की किया)। हजारोंकी जनसंख्याके बीच व्याख्यान देते थे। कहते थे, यहाँ तो अपने आत्माका करना है। बीच वाला होल था, उसमें पढते थे। एक लाईन भाईओंकी, एक लाईन बहनोंकी। बहनोंकी कुछ डेढ लाईन होती थी। उतने लोग शुरूआतमें थे। फिर धीरे-धीरे बढने लगे। प्रथम चातुर्मासमें ही बोटादसे बहुत लोग आये। फिर धीरे-धीरे बढते गये। फिर हमेशा रहने वाले तो कम थे। उस कमरेमें..
मुमुक्षुः- धीरे-धीरे बोलिये, लगातार मत बोलिये।
समाधानः- फिर लोग बढे तो हीराभाईके दालानमें पढते थे। उतनें समा जाते थे। उतनेमें गुरुदेव कहते थे, यहाँ शांति है। वहाँ सब शास्त्र बहुत पढते थे। लेकिन स्थानकवासीके अखबारमें तो बहुत आता था। मुहपत्तिका परिवर्तन किया, स्थानकवासी संप्रदाय छोडा, कितना कुछ अखबर तो आता ही रहता था।
मुमुक्षुः- गुरुदेव चारित्राश्रममें रहे थे?
समाधानः- चारित्राश्रममें नहीं रहे हैं। वहाँ नहीं रहे। वहाँ तो गुरुदेवको निमंत्रण दे, ऐसा कोई महावीर जयंति आदिका प्रसंग हो तो उस वक्त गुरुदेवको निमंत्रण दे कि वहाँ पधारे, इसलिये गुरुदेव वहाँ जाते थे। बाकी वहाँ रहे नहीं है। उनका कोई भक्ति आदिका कार्यक्रम होता था, तब निमंत्रण देते थे। इसलिये गुरुदेव वहाँ जाते थे। बाकी वहाँ रहे नहीं।
मुमुक्षुः- वहाँ प्रवचन देते थे?
समाधानः- गुरुकुलमें। .. कि हजारोंकी जनसंख्यामें जो सिंह दहाडता था, वह सोनगढके छोटे एकान्त स्थानमें बैठे-बैठे स्वाध्याय करते थे।
मुमुक्षुः- अंतरकी कितनी निस्पृहता! बाहरमें इतना सन्मान हो, लेकिन मुझे मेरे आत्माका करना है, इस एक ही (ध्येय) पर पूरा..
समाधानः- पूरा फेरफार कर दिया। बाहर कुछ और अन्दर कुछ, ऐसा नहीं। छोड दिया।
मुमुक्षुः- स्थानकवासी वाले कहते थे कि, आप वह शास्त्र पढिये।
समाधानः- हाँ, स्थानकवासी वालोंने बहुत कहा, उनको राजकोटमें मालूम पडा,
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प्राणजीवन मास्तरने कहा, यहाँ हमारे संप्रदायमें रहीये। आपको जो पढना हो वह पढिये। आपको बंगला देते हैं, आप उसमें रहीए। गुरुदेव कहते, नहीं, मुझे नहीं चाहिये। हमारे स्थानकवासी संप्रदायको धक्का लगता है कि, यह गलत है। आपको जो करना है वह करीये। मुझे ऐसा नहीं करना। (किसीकी) निंदा नहीं, राग नहीं।
फिर तो शुरूआतमें कितने ही समय तक गुरुदेवने विहार नहीं किया। फिर विहार करे तो विरोध (करे)। पहले एक बार विरोध नहीं, लेकिन (संवत) १९९९की सालमें तो बहुत विरोध हुआ। हरएक गाँवमें गुरुदेवके भक्त आ जाते थे, जहाँ स्वागत होने वाला हो। चारों ओरसे आ जाते थे। उतना विरोध। एक पुनमचंदजी महाराज थे, वह साथ-साथ रहते थे और गुरुदेव। गुरुदेव जहाँ आहार लेने जाये, वहाँ दूसरी गलीमें वे आहार लेने जाये। गुरुदेवके साथ भक्तोंका झुंड और स्वागतमें एक ओर उनका स्वागत और एक ओर ये स्वागत। उतना विरोध था। परंतु गुरुदेवका तो ऊँचा ही था। उनके स्वागतमें बहुत लोग आते थे। आहार लेने पधारे उस समय भी उतने ही लोग। उनके साथ खास कोई नहीं था, परन्तु प्रत्येक गाँवमें आते थे, जहाँ गुरुदेव जाए वहाँ आते थे। साथ-साथ व्याख्यान रखे। लेकिन स्थानकवासीका विरोध मर्यादित था। मर्यादा छोडकर विरोध नहीं किया।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! गुरुदेवका द्रव्य तीर्थंकर द्रव्य है, ऐसा उसी समय आपको भनक लग गयी थी? ख्याल आ गया था?
समाधानः- उस वक्त तो.. जबतक ख्यालमें नहीं था, तबतक कुछ नहीं। गुरुदेव बाहर नहीं बोलते थे कि, मुझे हृदयमें ऐसा आता है कि मैं तीर्थंकर होने वाला हूँ। गुरुदेव भी नहीं बोलते थे। गुरुदेव संप्रदायमें थे। और यहाँ हीराभाईके बंगलेमें आकर स्वयं बाहर कुछ नहीं बोलते थे। मुझे कुछ मालूम नहीं था कि गुरुदेव ऐसा कुछ कहते हैं। और मुझे स्वयंको ऐसा लगता था कि कोई महापुरुष है। ऐसा होता था, लेकिन यह तीर्थंकर द्रव्य है, ऐसा उस वक्त नहीं आया था। लेकिन आत्मामें लीनता करते हैं, ऐसा लगता था कि गुरुदेवको कहीं देखा है। ऐसा होता था। गुरुदेव तीर्थंकर होने वाले हैं, ऐसा नहीं आया था। गुरुदेवको कहीं देखा है, ऐसा होता था।
सुरत थे तब हिंमतभाईको कहती थी, मैंने गुरुदेवको कहीं देखा है। कहाँ देखा है, कुछ मालूम नहीं था। तीर्थंकरका नहीं आया था। वह तो जब अन्दर आया तब एकदम आया, ये तीर्थंकर होने वाले हैं। ऐसा एकदम कैसे आये? ये तो महापुरुष हैं, ऐसा लगता था। समवसरण आदि, स्थानकवासीमें समवसरण कैसा मानते हैं? तीन गढ मानते हैैं, ऐसा सब मानते हैं। उस वक्त शुरूआतमें तो तत्त्वके शास्त्र पढते थे। कोई पुराण आदि नहीं पढा था। समवसरणमें ऐसे वृक्ष होते हैं या ऐसा होता है,
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ऐसा कुछ पढ नहीं था। वह सब तो अन्दरसे आया है।
(संवत) १९९३-९४में तो शास्त्र ही पढते थे। समयसार, प्रवचनसार आदि पढते थे। पुराण उस वक्त नहीं पढे थे, बादमें सब पढे। गुरुदेव तीर्थंकर होने वाले हैं, ऐसा गुरुदेव कहते भी नहीं थे। मुझे आया तब मैंने गुरुदेवको कहा। मुझे ऐसा लगता था कि मैं गुरुदेवको कहती हूँ तो गुरुदेवको क्या लगेगा? मुझे कुछ मालूम नहीं था कि गुरुदेव मानते हैं। मुझे मालूम नहीं था।
मुमुक्षुः- बादमें गुरुदेवने स्पष्ट किया कि मुझे..
समाधानः- बादमें स्पष्ट कहा, गुरुदेव स्वयंका हृदय कहते हैं, मुझे कुछ मालूम नहीं था। गुरुदेव तो विचार करके माने, मुझे ऐसा कहते-कहते डर लगता था कि गुरुदेव क्या कहेंगे, आप मुझे ये क्या कहते हो? गुरुदेव मान लेंगे, ऐसा नहीं था। गुरुदेवको तो अंतरसे आया था इसलिये गुरुदेवको तो एकदम प्रमोद हुआ।
मुमुक्षुः- उनको आभास होता था, उसकी दृढता हो गयी, जब आपने बात की तब।
समाधानः- बहुत समयसे, मैं तीर्थंकर हूँ, (ऐसा लगता है)।
मुमुक्षुः- उस वक्त ही साथमें समवसरणकी रचना आदिका ख्याल आया?
समाधानः- सब साथमें आया। बहुत कहती नहीं हूँ, थोडा कहा है।
मुमुक्षुः- आजका मंगल दिन है। आपके मुखसे जितना सुनना मिलता है, वह सब आश्चर्यकारी लगता है।
समाधानः- गुरुदेव तीर्थंकर होने वाले हैं, उसका मुझे स्वयंको आश्चर्य लगा कि मुझे ये क्या आया? मुझे भी मालूम नहीं था।
मुमुक्षुः- गुरुदेवको कैसा प्रमोद आया होगा।
समाधानः- तीर्थंकर भगवानका नाम आये ... उनका स्वयंका हृदय बोलता था। प्रवचनमें आ जाये, त्रिलोकीनाथने टीका लगाया, ऐसा बोलते थे। ये तो महाभाग्यकी बात है, ऐसा बोलते थे। त्रिलोकीनाथने टीका लगाया, इससे विशेष क्या चाहिये? गुरुदेवको प्रमोद आ गया था।
मुमुक्षुः- हम लोगोंको सुननेसे कितना प्रमोद आता है। आपने कहा इसलिये गुरुदेवको लगा, त्रिलोकीनाथने टीका लगाया।
समाधानः- वह तो अस्पष्ट बोलते थे, किसीको समझमें आये ऐसे नहीं बोलते थे। गुरुदेव जाहिर नहीं करते थे।
मुमुक्षुः- आपने जो ख्याल आया, इसलिये ऐसा लगा कि ऐसा भाव हुआ। मुमुक्षुः- गुरुदेवके दीक्षा लेनेके बाद दो साल बाद कुछ प्रतिभास हुआ था?
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समाधानः- उनको स्वप्न आया था। ऐसा कहते थे, इस क्षेत्रका शरीर नहीं, शरीर अलग (था), ऐसा कहते थे। राजकुमारका। स्पष्ट स्वप्न आया था। राजकुमारका वेष था और मैं राजकुमार हूँ।
मुमुक्षुः- वहाँ राजकुमार थे, इसलिये मुद्रा भी ...
समाधानः- मुझे यह भी मालूम नहीं था कि गुरुदेवको स्वप्न आया है, ये मुझे नहीं मालूम नहीं था। सब गुरुदेवने बादमें कहा।
मुमुक्षुः- मेल खा गया। वहाँ राजकुमार थे तो वहाँ भी मुद्रा प्रतिभाशाली होगी न?
समाधानः- वह तो वैसी ही होगी न। गुरुदेव तीर्थंकरका द्रव्य, राजकुमार और ऊपरसे तीर्थंकरका द्रव्य, इसलिये प्रतापशाली ही होगी न। जल्दी स्वीकारे नहीं। स्वयं तो कितना विचार करके तत्त्वका निर्णय करते थे, मार्गका कितना विचार करके उन्होंने निर्णय किया। कोई कहे इसलिये मान जाये ऐसे नहीं थे। स्वयंको अंतरसे लगे तो माने।
मुमुक्षुः- गुरुदेवकी प्रकृतिमें वह बात नहीं थी कि किसीका मान ले।
समाधानः- मान ले ऐसे थे ही नहीं। कितने निस्पृह थे, किसीका माने क्या? अंतरसे आये तो ही माने।
मुमुक्षुः- आपने भी कब कहा, कि आपको भी जब पक्का भरोसा होनेके बाद ही आपने कहा।
समाधानः- कितना पक्का हो तो ही बाहरमें बोल सकते हैं। गुरुदेवके पास कहना वह कोई जैसी-तैसी बात नहीं थी।
मुमुक्षुः- और यह भी कोई साधारण बात नहीं थी। बोले तो भी ऐसा लगे ये क्या बोलते हैं?
समाधानः- गुरुदेवको कहूँ कैसे? गुरुदेव कहीं ऐसा कहेंगे कि, आप बहुत महिमा करते हो। ऐसा कहेंगे तो? ऐसा होता था। गुरुदेवको कहना वह तो... कितनी उतनी शक्ति और महापुरुष। बोलते समय ऐसा लगे कि गुरुदेवको कहना यानी क्या! कितना पक्का हो तभी कह सकते हैं।
मुमुक्षुः- बात अटल हो तो ही आप करो न, नहीं तो आप नहीं करते।
समाधानः- अन्दर पक्का हो तो ही बोल सकते हैं, नहीं तो बोले ही नहीं।
मुमुक्षुः- आपकी प्रकृति तो एकदम नहीं बोलनेकी प्रकृति है।
समाधानः- जो भी हो, अपने आत्माके प्रयोजनसे यहाँ आये हो तो बिना विचार किये क्या बोलना?
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मुमुक्षुः- समय आ गया है, वह डायरी प्रकाशित करो तो अच्छा।
समाधानः- सब संक्षेपमें कह दिया।
मुमुक्षुः- अब तो समय आ गया है। आपने कहा था न, द्रव्य-क्षेत्र-काल- भाव देखकर करेंगे।
समाधानः- काल क्या है? माहोल कैसा हो गया है?
मुमुक्षुः- यहाँका माहोल तो बहुत अच्छा हो गया है। सब शान्त हो जाता है।
समाधानः- गुरुदेवने जाहिर कर दिया है। जो-जो कहने जैसा था, वह सब गुरुदेव सबको कहते ही थे।
मुमुक्षुः- गुरुदेव ऐसा फरमाते थे कि मेरी थोडी-थोडी बात करे और उनकी कोई बात नहीं करते, ऐसा गुरुदेव कहते थे।
समाधानः- अपने लिये क्या कहना? अपने तो गुरुदेवकी प्रभावना... गुरुदेव महापुरुष हैं, उनको कहनी रहती है, मैं क्या बोलूँ?
मुमुक्षुः- वहाँ समवसरणमें मुनिओंका समूह हो और ऐसी भावना हो, भाते हो, ऐसा होता है... ऐसा कुछ।
मुमुक्षुः- गुरुदेव यह कहते थे कि जो कहते हैं, वह तो बहुत थोडा कहते हैं, अन्दर तो बहुत है।
समाधानः- पोंइन्ट-पोंइन्ट गुरुदेव कहते थे। .. तब समवसरणमें पधारे थे। समवसरण होता है.. आदि।
मुमुक्षुः- नारणभाई गुरुदेवको एक बार सुबह कहते थे, कि हम लोग मुनिओंके साथ, कुन्दकुन्दाचार्यके साथ चर्चा करते थे। उस वक्त हम चारों ओर खडे थे।
समाधानः- कुन्दकुन्दाचार्य पधारे...