Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 30.

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ट्रेक-०३० (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- महिमा आनी चाहिये, तो कितनी महिमा आनी चाहिये?

समाधानः- उसे अंतरमेंसे पूरी-पूरी महिमा आनी चाहिये। विभावसे, यह विभाव सर्वस्वरूपसे आदरणीय नहीं है, यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। विभावकी महिमा सर्व प्रकारसे छूटकर आत्माकी महिमा उसे सर्व प्रकारसे आनी चाहिये। फिर उसे बाहरका कितना छूटे वह अलग बात है, लेकिन महिमा तो उसे पूरी होनी चाहिये। कोई भी अंशमें ये कुछ भी बाहरका आदरणीय है या यह ठीक है, ऐसा उसे नहीं लगना चाहिये। अंतरमेंसे सर्व प्रकारसे आत्मा ही सर्वस्व है। किसी भी प्रकारसे किसी भी विभावका कोई अंश भी अच्छा नहीं है और आत्माको सुखरूप नहीं है। कोई भी अंश, ऊच्चसे ऊच्च शुभभाव हो तो भी वह आत्माका स्वरूप नहीं है।

उच्चसे उच्च शुभभावकी महिमा (हो) कि यह मुझे ठीक है, ऐसा अंतरसे, अन्दरसे ऐसी महिमा नहीं होती। सर्व प्रकारसे आत्माकी ही महिमा आनी चाहिये। तो अपनी ओर दृष्टि मुडे और उसे ज्ञायककी परिणति प्रगट हो। फिर स्वयं आत्मामें उतना नहीं रह सके, वह अलग बात है। उस कारणसे अशुभभावसे बचनेके लिये शुभभाव आते हैं। उसे देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आये। जिसे आत्माकी महिमा लगी, इसलिये जिसने आत्मा प्रगट किया ऐसे जिनेन्द्र देव, गुरु साधना करते हैं, इसलिये उसकी महिमा उसे आये। मुझे आत्मा चाहिये, वह जिसने प्रगट किया उनकी महिमा उसे आये। परन्तु वह शुभभाव है। मुझे आदरणीय तो सर्वस्व प्रकारसे आत्मा ही है। उतनी महिमा उसे आत्माकी आनी चाहिये। फिर उसे हो नहीं सके, उसमें टिक नहीं पाये वह अलग बात है। परन्तु महिमा तो पूरी-पूरी, श्रद्धामें तो उसे पूरी-पूरी महिमा आनी चाहिये। श्रद्धा तो पूरी-पूरी आत्माकी ओर आनी चाहिये।

उसे कोई भी प्रकारसे आदरणीय या अनुमोदनीय अथवा यह करने जैसा है, बाहरका इतने अंशमें ठीक है, कोई विभावमें जुडे तो उसकी अनुमोदना (करनी), ऐसे अंतरमें उसे श्रद्धाकी अपेक्षासे नहीं आना चाहिये। श्रद्धामें पूरी-पूरी महिमा आनी चाहिये। फिर आचरणमें वह छूट नहीं सके वह अलग बात है। शुभभावमें खडा रहे। अंतरकी स्वानुभूति प्रगट नहीं कर सके और अन्दर लीनता (नहीं हो सके), सम्यग्दर्शन प्रगट हो तो भी


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उसे आगे जाकर चारित्र नहीं आता, लीनता कम होती है, इसलिये बाहर शुभभावमें खडा रहे। उसकी महिमा भी बाहरसे दिखे, भक्ति भी आये। जिनेन्द्र देवकी भक्ति करता हो, गुरुकी महिमा करता हो, सब करे, परन्तु अन्दरमें परिणतिमें, मेरा आत्मा सर्वस्व है, ऐसी श्रद्धा तो उसे होनी ही चाहिये। जिज्ञासुकी भूमिकामें भी श्रद्धा तो आत्माकी ओर होनी चाहिये। सम्यग्दर्शनमें तो यथार्थ श्रद्धा होती है। पूरी-पूरी श्रद्धा होनी चाहिये। श्रद्धान और स्वरूप महिमामें कुछ फर्क नहीं होना चाहिये।

मुमुक्षुः- विकल्पमें श्रद्धा और निर्विकल्प श्रद्धा, उसमें क्या फर्क है?

समाधानः- विकल्परूप श्रद्धामें राग मिश्रित है। राग साथमें है। निर्विकल्प श्रद्धा आत्माका यथार्थ आश्रय है। विकल्प वाली श्रद्धा है वह राग मिश्रित है।

मुमुक्षुः- विकल्प किया उसमें ही राग आ गया न?

समाधानः- विकल्पमेंं राग ही होता है। वह शुभराग है। मेरा आत्मा .. है, अपनी ओर मुडा, राग है। विकल्प है वह राग है। और जिस विकल्पमें द्वेषके विचार आये वह द्वेषका विकल्प। रागके विकल्प हैं, वह सब विकल्प, राग-द्वेषसे भरे जितने विकल्प है, उसमें मन्द हो या तीव्र, लेकिन वह राग और द्वेष (है)। विकल्प यानी उसमें राग साथमें होता है। राग और द्वेष।

मुमुक्षुः- भेदज्ञान होता है वह भी विकल्पमें (ही होता है)?

समाधानः- यथार्थ भेदज्ञान, भेदज्ञानकी सहज परिणति अन्दर होती है। वह सहज परिणति (है)। विकल्प उसमें नीचे होता है। निर्विकल्प स्वानुभूतिकी बात अलग है, लेकिन भेदज्ञानकी धारामें विकल्पकी परिणति, उसे जो एकत्वबुद्धि रूप थी वह नहीं है। भेदज्ञानरूप परिणति है, इसलिये वह गौणरूप है। उसे विकल्पकी ओर आश्रयरूप नहीं है, आश्रय आत्माका है। विकल्प साथमें रहता है। भेदज्ञानकी सहज परिणति है। स्वानुभूतिपूर्वक जो भेदज्ञानकी दशा है, उसमें विकल्पका भेदज्ञान वर्तता है। विकल्प साथमें होता है, लेकिन सहज भेदज्ञान है। सहज परिणति है, विकल्प गौणरूप रहता है। भेदज्ञानकी धारा ऊर्ध्व रहती है। विकल्प गौण रहता है। सभी कायामें आत्मा ही उर्ध्व होता है, दृष्टिमें आत्मा ही नजराता है, विकल्प गौण रहता है। एकत्वबुद्धि जहाँ है, उसकी दृष्टिमें आत्मा ऊर्ध्व नहीं होता, विकल्प-विकल्प होते हैं।

मुमुक्षुः- आपने एक बात कही, केवल आत्माको पहचानकर आत्माका जानपना होना वह पर्याप्त नहीं है। उसके साथ भक्ति और महिमा आये तब ही आत्माकी अनुभूति होती है।

समाधानः- केवल जानपना यानी ऐसा अर्थ है कि रुखा जानपना। ज्ञान करे लेकिन उस जातिका वैराग्य, भक्ति, उतनी महिमा आत्माकी ओर नहीं हो तो मात्र


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जाननेके खातिर जान लिया। इसलिये उसने सच्चा जाना भी नहीं है। अन्दर जानपना यथार्थ किसे कहें? कि उसे अन्दरसे वैराग्य आना चाहिये कि ये विभाव मुझे आदरणीय नहीं है, मेरा आत्मा आदरणीय है। आत्मा ही महिमावंत है, विभाव महिमावंत नहीं है। यहाँकी महिमा आये और विभावकी ओरसे विरक्ति होती है, और जानपना साथमें होता है कि यह ज्ञान है सो मैं हूँ। इसके सिवा दूसरा मैं नहीं हूँ। ज्ञायक है वही मैं हूँ। ज्ञायकसे अतिरिक्त मुझसे भिन्न है। मेरा स्वभाव उससे भिन्न है। ज्ञान तो मुख्य साथमें ही होता है, लेकिन ज्ञानके साथ वैराग्य और महिमा जुडे होने चाहिये। तो ही उसका ज्ञान साधनाकी ओर काम करता है। यदि उसे विभावसे विरक्ति नहीं आती तो साधनाकी ओर उसका ज्ञान कार्य नहीं करता। मात्र जाननेके लिये जान ले तो।

मुमुक्षुः- सच्चा जानपना ही उसका नाम है कि उसके साथ भक्ति, वैराग्य आदि जुडे हो।

समाधानः- सब जुडा हो तो ही वह सच्चा ज्ञान है। साधनामें ज्ञान काम करे परन्तु उसके साथ वैराग्य और भक्ति जुडी होनी चाहिये। भक्तिमें भी शुभराग देव-गुरु- शास्त्रका, अंतरमें आत्माकी महिमा होनी चाहिये।

मुमुक्षुः- ज्ञायककी भक्ति।

समाधानः- ज्ञायककी भक्ति होनी चाहिये। ज्ञायककी जिसे महिमा आये, ज्ञायककी ही उसे महिमा आती हो। बाहरमें देव-गुरु-शास्त्र जो साधना करके पूर्ण हो गये, उनकी महिमा आती है।

मुमुक्षुः- उसीका नाम ज्ञायककी पहचान और देव-गुरु-शास्त्रकी पहचान ही उसीका नाम कि महिमा सहित ही आये।

समाधानः- महिमा सहित आये तो ही सच्ची पहचान है। मात्र बुद्धिसे पहचाने वह अलग है। अन्दर महिमासे पहचाने तो ही उसने सच्चा पहचाना है।

मुमुक्षुः- ज्ञानीके प्रति भी ऐसा ही होता है कि उनकी सच्ची पहचान तब ही कहें कि सच्ची महिमा उनके प्रति हो।

समाधानः- महिमा भी साथमें ही होनी चाहिये। गुणकी महिमा आनी चाहिये। जो सच्चे मार्ग (पर) साधना प्रगट की है, पूर्ण हुए, उनके गुणकी महिमा आनी चाहिये। तो ही उसने जाना, नहीं तो वह जानपना किस कामका? मात्र जाननेके लिये जानना रह जाता है।

मुमुक्षुः- बहुत अच्छी बात हुयी, पूरी-पूरी महिमा आनी चाहिये। कितनी महिमा आनी चाहिये? कि पूरी-पूरी आनी चाहिये।

समाधानः- उसका अर्थ ऐसा है कि बाहरमें बहुत उल्लास दिखाये, ऐसा अर्थ


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नहीं है। अन्दरसे पूरा आदर आना चाहिये, ज्ञायककी ओर पूरा-पूरा आदर आना चहिये।

मुमुक्षुः- बाहरमें वाणीके साथ अथवा विकल्पके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है।

समाधानः- उसके साथ सम्बन्ध नहीं है। पूरा-पूरा आदर आना चाहिये। इतना आदर बस है, ऐसे उसकी मर्यादा नहीं होती। उसका पूरा-पूरा आदर आये तो ही वह आगे बढ सकता है। पूरा-पूरा आदर नहीं जा सकता। ज्ञायकका पूरा आदर आना चाहिये।

मुमुक्षुः- बहुत अच्छा। माताजी! आपके दो शब्द निकलते हैं कि इतने सुन्दर होते हैं कि आनन्द हो जाता है। इतनी अच्छी बात है।

समाधानः- श्रद्धामें तो पूरा-पूरा आदर आना चाहिये। श्रद्धामें पूरा आदर नहीं आता है तो वह आगे नहीं जा सकता।

मुमुक्षुः- अस्तिसे पूरा आदर और नास्तिसे..

समाधानः- पूरा अनादर और पूरा-पूरा आत्माका-ज्ञायकका आदर। उसके सिवा उसे कुछ भी अन्दर रुचता नहीं, कुछ पोसाता नहीं। सर्व प्रकारसे मुझे ज्ञायक ही सर्वस्व है। ऐसा उसे श्रद्धामें आना चाहिये।

मुमुक्षुः- तब अनुभूति होती है, तब आत्मा प्राप्त होता है।

समाधानः- हाँ, तब प्राप्त होता है। श्रद्धाकी अपेक्षासे नौ-नौ कोटिसे विभावको तिलांजलि दी। सर्व प्रकारसे नौ-नौ कोटिसे आत्माका श्रद्धामें आदर होता है। तो ही वह आगे बढता है। चारित्रका अलग और श्रद्धाका... सर्व प्रकारसे आदर यानी उसमें कोटि आ गयी। शास्त्रमें वह भाषा नहीं आती है, लेकिन सर्व प्रकारसे आदर यानी उसका अर्थ यह हुआ कि श्रद्धामें ज्ञायक और आचरणमें ज्ञायक। मुझे हर जगह ज्ञायक ही चाहिये। सर्व प्रकारसे मुझे ज्ञायक चाहिये। शास्त्रमें वह कोटि नहीं आती है, आचरणमें ही आती है।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- ज्ञायक, सबमें ज्ञायक।

मुमुक्षुः- .. तो ज्ञान, विचार करुं तो ज्ञान..

समाधानः- हाँ, सबमें ज्ञायक। सर्व प्रकारसे, आदरमें सर्व प्रकारसे ज्ञायक।

मुमुक्षुः- उत्पाद-व्यय और ध्रुवका स्वरूप नहीं मानकर, मैं अनन्त गुणस्वरूप परमानन्दी ध्रुव हूँ, ऐसी श्रद्धा और दृष्टि करे तो..

समाधानः- नहीं माने तो फर्क है, माने नहीं तो।

मुमुक्षुः- अनन्त गुणस्वरूप माने तो?

समाधानः- अनन्त गुण स्वरूप माने, लेकिन पर्याय उत्पाद-व्ययको माने नहीं


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तो उसकी दृष्टिमें फर्क है। ज्ञानमें तो मानना चाहिये न। दृष्टिमें एक ध्रुव आता है, परन्तु उसके ज्ञानमें सब होना चाहिये। वैसी दृष्टि बराबर नहीं है। दृष्टि उसे कहते हैं कि दृष्टि भले द्रव्यको स्वीकारे, परन्तु उसके ज्ञानमें सब होना चाहिये। दृष्टिमें एक ध्रुव पर दृष्टि रखे कि मैं चैतन्यतत्त्व अनादिअनन्त हूँ, उसका अस्तित्व ग्रहण किया। परन्तु उत्पाद-व्यय आदि सब उसके ज्ञानमें आना चाहिये। मात्र इतना स्वीकारे कि मैं परमात्मा हूँ और पर्याय कुछ भी नहीं है, ऐसा ज्ञानमें भी यदि नहीं स्वीकारे तो दृष्टि भी यथार्थ नहीं है। दृष्टि और ज्ञान दोनों साथमें ही रहते हैं। दोनों साथमें हैं। एकदूसरेको साथ देने वाले हैं। उसमें एकान्त हो जाये तो-तो दृष्टि भी जूठी हो जाती है। दृष्टि और ज्ञान साथमें ही रहना चाहिये।

ज्ञान-सम्यकज्ञान और सम्यग्दृष्टि दोनों साथमें रहने चाहिये। ज्ञानमें सबका स्वीकार आये और दृष्टि तो एक पर थँभाकर स्थिर रखता है। इसलिये दृष्टिमें वह गौण होता है। लेकिन वह है ही नहीं और उसे निकाल दे तो दृष्टि सम्यक नहीं होती। वह है ही नहीं, ज्ञानमें भी नहीं है, ऐसा निषेध करे तो उसे दृष्टि सम्यक नहीं है। ज्ञानमें तो साथमें रहना ही चाहिये। दृष्टि और ज्ञान दोनों साथमें ही रहते हैं।

मुमुक्षुः- उत्पाद-व्यय-ध्रुवका ज्ञान दृष्टिको मदद करते हैं?

समाधानः- दोनों एकसाथ एकदूसरेको परस्पर मदद करते हैं। एक जगह जोर देता है कि अनादि वस्तु है। फिर उसका स्वरूप क्या है? स्वरूप जानना वह ज्ञानका कार्य है। ज्ञानका स्वभाव ऐसा है कि सब जाने। और दृष्टिका वह कार्य है कि एक पर दृष्टि स्थिर करता है, अस्तित्वको ग्रहण करती है। दृष्टिका विषय ही ऐसा है कि उसमें भेद नहीं आते। उसका स्वरूप ही ऐसा है। यदि अकेली दृष्टि हो और ज्ञान साथ नहीं हो तो उसे साधकदशा होती नहीं। और मात्र जानता रहे और दृष्टि एक पर स्थिर नहीं करे तो वह साधकदशा नहीं होती। दृष्टि भले मुख्य रहती है, लेकिन यदि ज्ञान साथमें नहीं हो तो भी साधकदशा नहीं होती। और ज्ञान हो परन्तु दृष्टि स्थिर नहीं करे, अस्तित्व पर जोर नहीं दे तो भी साधक दशा नहीं आती। दोनों साथ (होते हैं)।

मुमुक्षुः- ऐसे तो दोनोंमें विरोध है, दृष्टिका अभेद विषय है और ज्ञानका भेद विषय है।

समाधानः- परस्पर विरोध नहीं है। एकदूसरे-एकदूसरेको साथ देने वाले हैं। ज्ञानमें सब आता है। ज्ञानमें सिर्फ भेद नहीं आता है। ज्ञानमें अभेद और भेद दोनों आते हैं। ज्ञानमें दोनों आते हैं, दृष्टिमें एक आता है। ज्ञानमें दोनों आते हैं। लेकिन दृष्टि एक जगह स्थिर रहती है। एकको ग्रहण करके एक पर जोर देती है, एक मुख्य रहनेसे


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उसे साधक दशा सधती है। ज्ञानमें दोनों पहलू आये तो साधक दशा है, एकान्त हो जाये तो भी साधक दशा सधती नहीं।

पर्यायमें कुछ नहीं है, विभाव नहीं है, कुछ नहीं है ऐसा माने, एकान्त ऐसा माने तो साधक दशामें कुछ करना ही नहीं रहता। यदि एकान्त माने तो कुछ करना नहीं रहता।

मुमुक्षुः- ज्ञानमें अभेद आये यानी क्या?

समाधानः- ज्ञान एक अभेद एक द्रव्यको स्वीकारता है और ज्ञान पर्यायको भी स्वीकारता है, दोनोंको स्वीकारता है। ज्ञान अकेली पर्यायको स्वीकारता है, ऐसा नहीं है। ज्ञान अभेदको भी स्वीकारता है और ज्ञान भेदको भी स्वीकारता है। ज्ञान सब स्वीकार करता है।

मुमुक्षुः- अभेदको ज्ञान स्वीकारता है वह दृष्टिका विषय अभेद है, वह द्रव्य?

समाधानः- हाँ, दृष्टिका विषय अभेद है, उसका ज्ञान स्वीकार करता है। दृष्टि जो स्वीकारती है, वही ज्ञान स्वीकारता है। ज्ञान उसे अलग नहीं स्वीकारता। केवलज्ञान प्रगट हो, मुनिदशा प्रगट हो, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र सब प्रगट होता है, सब पर्याय प्रगट होती है और वह सब पूजनीय कहनेमेें आता है। सब पूजनीय है। सादखदशा या पूर्ण केवलज्ञान हो, सिद्धदशा हो, वह सब पर्यायमें प्रगट होता है, वह सब पूजनीय है। दृष्टि एकको ग्रहण करती है। एक पर जोर आये तो ही साधकदशा सधती है।

..चारों ओर विचार करता रहे, लेकिन एक वस्तु पर स्थिर नहीं होता है तो आगे नहीं जा सकता। विचार चारों ओर करे। विचार, जाननेमें सब आता है। यहाँसे भावनगर जाना हो तो किस रास्ते पर आता है, यह नक्की कर लिया। वहाँ स्थिर होकर उस मार्ग पर चलने लगे। लेकिन ज्ञानमें सबका ख्याल रहता है। बीचमें क्या- क्या आता है और कैसे जाना, कहाँ जाना वह सब ज्ञानमें ख्यालमें रहता है। लेकिन एक बातको यदि स्थिर नहीं करे कि यहीं जाना है, एक पर स्थिर नहीं होता है तो आगे नहीं जा सकता। द्रव्य यही है और इसी द्रव्यको साधना है। यह द्रव्य जो अनादिअनन्त वस्तु है, उसकी पर्यायमें विभाव होता है। एक वस्तु शुद्धात्मा उसे ही साधना है। वहाँ एक पर दृष्टिको-प्रतीतको स्थिर करे और यदि आगे बढे तो जा सकता है। लेकिन ज्ञानमें उसे सब ख्याल (होता है), बीचमें क्या-क्या आता है, क्या विभाव, क्या स्वभाव सबका ख्याल रखकर दृष्टिके जोरमें आगे जाता है। दोनों साथमें होना चाहिये, नहीं तो मार्ग सधता नहीं।

मुमुक्षुः- उसे ही दृष्टि मुख्य करती है।

समाधानः- उसे दृष्टि स्थिर करती है कि ज्ञानमें यह जाना, फिर दृष्टि-प्रतीतमें


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स्थिर करे कि यही वस्तु है, उस पर स्थिर होकर, दृष्टिको उस पर थँभाकर आगे जाता है। वस्तु यह है, उस पर दृष्टिका जोर आता है। इसलिये उसमें बाकी सब गौण होता है। चारों ओर नजर करता रहे तो (नहीं होता)। एक ध्येय बान्धे, यह दृष्टि। एक द्रव्यको ग्रहण किया, फिर उसमें क्या-क्या है और आगे जाना है, यह ज्ञान जानता है। दोनों साथमें होने चाहिये।

दृष्टिको मुख्य इसलिये कहनेमें आती है कि ज्ञान जाने, परन्तु एक वस्तुको स्थिर नहीं करे, प्रतीतमें दृढता नहीं लाये कि यह एक वस्तु है, उसकी साधना करु और उस पर दृष्टि स्थिर नहीं हो तो आगे नहीं जा सकता। इसलिये दृष्टि मुख्य है। लेकिन ज्ञानमें यह सब जाने नहीं कि वस्तु क्या, उसकी पर्याय क्या, विभाव क्या, उसका स्वभाव क्या, साधकदशा क्या, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र क्या, उसे जाने नहीं तो आगे नहीं जा सकता। दृष्टि स्थिर हो गयी इसलिये अब ऐसे ही चला जायेगा। ऐसे चला नहीं जाता।

मार्गको चारों ओरसे जाने बिना चल नहीं सकता। निषेध करे, ऐसे आगे जा नहीं सकता। मैं तो एक अनादिअनन्त शुद्धात्मा हूँ, उसमें कुछ हुआ ही नहीं, अब कुछ नहीं करना है। ऐसे आगे नहीं जा सकता। ज्ञान विभावका विवेक, स्वभाव- विभावका (विवेक) न करे तो आगे नहीं जा सकता।

मुुमुक्षुः- दृष्टिको समर्थन है? समाधानः- हाँ, समर्थन देता है। दृष्टिका बल बढता है। दृष्टिके बलसे आगे बढा जाता है और ज्ञान सम्यक हो वह सबको समर्थन देता है और आगे बढा जाता है।

.. करना ही नहीं रहता, ऐसा उसका अर्थ हो जाता है। कुछ है ही नहीं आत्मामें, फिर क्या करना? पर्याय ही नहीं है, तो फिर क्या करना रहा? कुछ भी नहीं करना है। प्रतीतको दृढ किये बिना आगे नहीं जा सकता। ज्ञानमें जानता रहे कि उत्पाद- व्यय ऐसे हैं, आत्मा ऐसा है, शुद्ध ऐसा है, अशुद्ध ऐसा है, विभाव ऐसा और स्वभाव ऐसा, द्रव्य शुद्ध आदि सब विचार करे, परन्तु एक वस्तु ज्ञायकको ग्रहण करके उस पर दृष्टि स्थिर करे, प्रतीत दृढ करके यदि....

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!
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