Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 99.

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ट्रेक-९९ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- माताजी! ज्ञानगुणको ऊपर-ऊपरसे पहचानता है, गहराईसे नहीं पहचानता है। तो कृपा करके गहराईसे किस तरह पहचाने?

समाधानः- गहराईसे पहचाननेका स्वयं प्रयत्न करे। यह ज्ञान है वह कोई वस्तुका है। बिना वस्तुके ज्ञानगुण नहीं है। ज्ञान कोई सत पदार्थका गुण है। ऐसा विचार करे तो पहचाने। ज्ञान यानी मात्र जानता है, इस तरह पहचानता है। परको जाने वह जाननेवाला ज्ञानगुण है, इस तरह पहचानता है। परन्तु वह ज्ञान है वह कोई पदार्थका गुण है। पदार्थ बिनाका वह गुण नहीं है। इस तरह अन्दर स्वयं जिज्ञासा लगनी लगाये तो पहचान सके ऐसा है। परन्तु उसकी लगनी ही नहीं लगाता।

मुमुक्षुः- श्रीमदजीने ऐसा कहा है कि, जीवकी उत्पत्ति जीवपदमां जणाय छे, वह कैसे? तो किस अपेक्षासे? बात बराबर कहते हैं। परन्तु जीवकी उत्पत्ति जीवपदमां जणाय छे। देह शोक रोग शोक दुःख मृत्यु, देहनो स्वभाव जीवपदमां जणाय छे, वह तो समझमें आता है। परन्तु जीवकी उत्पत्ति जीवपदमें जणाय छे।

समाधानः- जीवकी उत्पत्ति?

मुमुक्षुः- हाँ, ऐसा शब्दप्रयोग किया है।

समाधानः- अन्दर स्वभाव है, सब जीवमें जाननेमें आता है। परन्तु मूल वस्तुकी उत्पत्ति नहीं (होती)। उसकी पर्यायमें फेरफार हो, वह जीवमें जाननेमें आते हैं। उसकी पर्यायें पलटती हैं, वह जीवमें ज्ञात होती है। वस्तुकी उत्पत्ति तो होती नहीं। उसमें हो तो अपेक्षासे लिखा होगा। पर्यायमें फेरफार होते हैं। वह उसमें जाननेमें आते हैं।

विभाव पर्याय हो रही है, विभावमेंसे स्वभाव हो, स्वभावकी पर्याय होती है, सब जीवमें जाननेमें आती है। उसे जाननेवाला जीव है। द्रव्य-गुण-पर्याय सबको जाननेवाला जीव है। वह स्वयं सब जानता है। स्वयं स्वयंको जानता है, स्वयं पर अन्य पदाथाको जाने। ऐसा उसका ज्ञानगुण कोई असाधारण है। ज्ञान ऐसी अनन्तासे भरा है कि उसमें सब ज्ञात होता है। ज्ञानका स्वभाव ऐसा है।

अनन्त काल गया तो भी उसका ज्ञानस्वभाव तो वैसाका वैसा है। वह जान सके ऐसा है। यह शरीर भिन्न, यह विभाव स्वभाव अपना नहीं है, स्वयं ज्ञायक है। स्वयं


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स्वयंको जान सकता है। उत्पत्ति यानी उसकी पर्यायकी उत्पत्ति। वस्तु तो उत्पन्न नहीं होती।

मुमुक्षुः- सत शब्द है न? सत चित और आनन्द। त्रिकाल टिकनेवाला है, वह कैसे ख्यालमें आये कि यह त्रिकाल तीनों काल टिकनेवाला जीव है?

समाधानः- जो है वह है ही। जो है उसका नाश नहीं होता। ज्ञानगुण है वह किसी जडमेंसे नहीं आता। ज्ञानगुण है कोई वस्तुके आश्रयसे रहा है। जो है, वस्तु है, उसे कोई उत्पन्न नहीं कर सकता। जो ज्ञान ख्यालमें आता है, उसे कोई उत्पन्न नहीं कर सकता है, वह ज्ञान स्वयं है। ज्ञान स्वयं है तो ज्ञान जिसके आश्रयसे रहा है, ऐसा एक पदार्थ होना चाहिये।

वह सत है। सत त्रिकाल टिकनेवाला है। जो है वह तीनों काल है। वह शाश्वत है और पदार्थरूप है। मात्र गुण नहीं, विचार करे तो ज्ञानगुण गंभीरतासे भरा है। उसमें अनन्तता भरी है।

मुमुक्षुः- एक ज्ञानगुणकी डोरीसे सब पकडमें आता है।

समाधानः- सब पकडमें आये ऐसा है। हाँ। ज्ञान है वह सत है। सत है, उसे कोई उत्पन्न नहीं कर सकता। चैतन्यस्वरूप है। ज्ञान चेतनतासे भरा है। ज्ञान जड नहीं है, ज्ञान चैतन्यस्वरूप है। ज्ञान ज्योतिस्वरूप चमत्कारयुक्त है, ज्ञान दिव्यस्वरूप है। ऐसी दिव्यतासे भरा है जो ज्ञान है वह स्वयंसिद्ध है। ज्ञान है, वह ज्ञान कोई पदार्थरूप है, पदार्थका स्वरूप है वह ज्ञान है।

मुमुक्षुः- स्वयंसिद्ध है।

समाधानः- स्वयंसिद्ध है। वह अनादिअनन्त है। किसीने उसे उत्पन्न नहीं किया है, कोई जडमेंसे ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। अथवा किसीसे ज्ञानका ज्ञान नहीं होता। वह स्वयंसिद्ध है। ज्ञान है वह अनन्तासे भरा दिव्यस्वरूप है। चैतन्य स्वयं दिव्यमूर्ति है। उसका ज्ञान भी दिव्यस्वरूप है।

मुमुक्षुः- एक आनन्दगुण बाकी रहता है। आनन्दका कैसा आभास होता है? कि ऐसा दिव्य ज्ञान है तो साथमें आनन्द भी होना ही चाहिये।

समाधानः- ज्ञानमें जो दिव्यता भरी है, ऐसा आनन्दगुण.. बाहरमें विचार करे तो जड पदार्थमेंसे, जडमेंसे आनन्द नहीं आता है। कहीं भी आनन्द लेने जाय तो आनन्द (मिलता नहीं)। वह तो थक जाता है, आनन्द लेने जानेमें। अपनी कल्पनासे आरोप करता है। चलनेमें, फिरनेमें मान-बडप्पन कहीं भी आनन्द लेने जाता है। खानेमें- पीनेमें सबमें थक जाता है। कल्पनासे सुख मानता है। अपने विचार कहीं और चलते हो तो चलनेमें, फिरनेमें, मान, बडप्पनमें कहीं उसे आनन्द नहीं आता। शोकमें बैठा


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हो तो। वह कोई आनन्द (नहीं है)।

लेकिन आनन्दकी झंखना करता है, आनन्दको जो इच्छता है, वह स्वयं ही आनन्दस्वरूप है, इसलिये आनन्दकी इच्छा करता है। जड इच्छता नहीं। जो स्वयं इच्छा करता है, वह स्वयं ही आनन्दस्वरूप है कि जिसे अन्दरसे ऐसी भावना होती है कि मुझे आनन्द चाहिये। ऐसी भावना है वह रागरूप हो जाती है। लेकिन ऐसी जो अंतरमेंसे (इच्छा होती है), ऐसी परिणतिमें ऐसा होता है कि मुझे आनन्द चाहिये। अन्दरसे जो उसे आनन्दकी भावना उत्पन्न होती है, वह स्वयं आनन्दस्वरूप है इसीलिये उसकी भावना उत्पन्न होती है।

मुमुक्षुः- वैसे तो ऐसा ख्याल आता है कि सुबहसे शाम तक एक भी आनन्दका किरण दिखायी नहीं देता। ऐसा तो ख्याल आता है।

समाधानः- आनन्द कहीं दिखायी नहीं देता। मिथ्या प्रयत्न करता है। परन्तु आनन्दके बिना उसे चलता नहीं। कहीं भी, कोई भी कल्पना करके मान लेता है।

मुमुक्षुः- चाहिये आनन्द।

समाधानः- चाहिये आनन्द। आनन्द नहीं हो तो भी कल्पनासे संतुष्ट होता है। अतः आनन्द उसका स्वयंका ही गुण है कि जहाँ-तहाँ कल्पना करता है। आनन्द बिना उसे चलता नहीं। जहाँ-तहाँ कल्पना करनेवाला वह स्वयं दिव्यमूर्ति दिव्य आनन्दसे भरा है, कोई अनुपम आनन्दसे भरा है कि जो बाहर कल्पना कर रहा है। अनन्त शक्तिओंसे भरा ऐसा चैतन्यदेव है। उसकी दिव्यता प्रगट करनेके लिये स्वयं ऐसी कोई अपूर्व भावना और अपूर्व रस एवं जिज्ञासा प्रगट करे तो वह उसे दिव्यता प्रगट करे।

भगवानने दिव्य स्वरूप प्रगट किया, पूर्ण केवलज्ञान मोक्ष हो गया। दिव्यतायुक्त अपना स्वरूप ही है। यदि वह स्वयं ऐसी भावना प्रगट करे तो वह प्रगट हुए बिना रहता भी नहीं। प्रतीत आनी चाहिये। सम्यग्दर्शन प्रगट करे तो उसकी शुरूआत होती है, उसकी दिव्य स्वानुभूतिकी। आगे बढनेपर वह विशेष बढता जाता है। पूर्ण आनन्द प्रगट हो जाता है। स्वानुभूतिमें एक अंश, आंशिक आनन्द उसे प्रगट होता है। जैसा सिद्ध भगवानका आनन्द होता है, वैसा ही आनन्द उसे प्रगट होता है। ऐसा अनुपम आनन्द कि वह वाणीसे कह नहीं सकते। क्योंकि जो बाहर कल्पना कर रहा है, वही स्वयं आनन्दस्वरूप है।

अन्दरसे जो उसे भावना उत्पन्न होती रहती है, वह आनन्द बिना रह नहीं सकता। कितनी ही बाह शुष्क आनन्द मानता है। उसे दुःख ही है, सुख तो है ही नहीं। कल्पना करता है।

मुमुक्षुः- विचार करे तो ख्याल आवे..


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समाधानः- विचार करे। आकुलतामें सुख मान लेता है। प्रवृत्ति करने जाता है। उसे ऐसा होता है, मुझे यहाँसे आनन्द मिलेगा। प्रत्येक प्रवृत्तिओंमें थक जाता है। बाह्य कोई भी प्रवृत्ति करनी, उसका स्वभाव ही नहीं। अन्य पदार्थका कर्तृत्व मानना, उसमें वह कुछ कर नहीं सकता है और थक जाता है। तो भी उसमें वह आनन्द मान रहा है।

अन्दर स्थिर हो जाना और निवृत्त हो जाना, अन्दरसे आनन्द प्रगट होता है, ऐसा ही उसका स्वभाव है। फिर उसे ऐसा होता है कि मुझे अंतरमेंसे कोई शान्ति प्राप्त हो जाय। अन्दर शान्तिकी इच्छा करनेवाला स्वयं ही शान्तिस्वरूप है। ज्ञायकके आश्रयसे वहाँ जानता है कि यह मैं जाननेवाला है। उसमें ही सबकुछ है ऐसा लगता है। उतना उसे विश्वास आना चाहिये।

जीव शान्तिकी इच्छासे जो वापस मुडे तो आत्माकी ओर भी ऐसे ही मुडता है कि मुझे शान्ति कहाँ मिले? मुझे आनन्द कहाँ मिले? इस हेतुसे स्वभावकी ओर मुडता है। लेकिन उसे विश्वास आता है तो मुडता है। शान्ति कहीं नहीं है, तो फिर कोई अन्य तत्त्वमें भरी है। जडमें नहीं है। चेतन ही उसकी इच्छा कर रहा है। चेतन ही इच्छता है, इसलिये चेतनमें भरी है।

वह स्वयं आनन्दस्वरूप ही है। जैसे स्वयं दिव्यस्वरूप है, स्वयं अनन्त दिव्य ज्ञानसे भरा है। एक समयमें उसे ज्ञानकी परिणति प्रगट होती है। ऐसा स्वयं आनन्दस्वरूप है। ऐसा स्वयं अनन्त दिव्य शक्तियोँसे भरा है। बारंबार उसकी श्रद्धा करे, उसकी प्रतीत करे, उसमें लीनता करे तो वह प्रगट होता है। जबतक न हो तबतक उसका रटन करे, बारंबार उसका विचार करे, बारंबार दृढता करे। वह आता है न? मेरे ज्ञानमें, मेरे ध्यानमें, सबमें... हैडे वसो मारा ध्यानमां जिनवाणी मारा हृदयमां। चैतन्यदेव बसे। मेरा हैडे हजो, मारा ध्याने हजो, मारा भावे हजो।

ऐसे शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्र और अन्दर चैतन्यदेव, मेरे हृदयमें, मेरे भावमें, मेरे ध्यानमें बसो। सम्यग्दर्शन हुआ तो उसमें तो उसने ग्रहण ही कर लिया। उसे (ऐसे) ग्रहण करता है कि उसकी दृष्टिकी डोर वहाँसे छूटती नहीं। दृष्टिकी डोर जो उसने बान्धी और स्वानुभूति प्रगट हुयी कि बस, पूर्णता प्रगट करके छूटता जाता है।

मुमुक्षुः- एक बार ऐसा अनुभव हो, इसलिये बाह्य वस्तुका आश्चर्य छूट जाय।

समाधानः- आश्चर्य छूट जाता है। पहले उसे भावना होती है। बाहरसे आश्चर्य छूटकर अन्दर जाता है कि अन्दर कुछ अलग है, अंतरमें है, बाहर नहीं है। ऐसा प्राप्त होने पूर्व विश्वास आ जाता है। विश्वास आता है। आकुलता दिखती है। कहीं शान्ति नहीं है। सब ओरसे थकान लगती है, इच्छा अनुसार कुछ होता नहीं, भावना


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कुछ होती है और बनता कुछ है। अंततः आकुलतासे थक जाता है। विचार करके अंतरमें जाता है। अंतरमें ही शान्ति है, कहीं और नहीं है। भले आनन्द उसे अनुभवमें नहीं आ रहा है, लेकिन वह नक्की करता है कि आनन्द यहीं है, कहीं और जगह नहीं है।

मुमुक्षुः- ऐसा विश्वास...?

समाधानः- ऐसा उसका विश्वास पहले आना चाहिये।

मुमुक्षुः- गुरुदेव कहते हैं, तू परमात्मा है, परमात्मा है, ऐसा विश्वास ला।

समाधानः- जितने परमात्माके गुण हैं, परमात्मामें (हैं), ऐसे ही तुझमें है। अनन्त गुणोंसे भरा, अनन्त गुणोंसे गूँथा हुआ तू परमात्मा है। कोई दिव्य देवस्वरूप, तू स्वयं दिव्यस्वरूप है।

मुमुक्षुः- पुरुषार्थ उत्पन्न करनेके लिये भी इसी तरह, इसी सिद्धान्तसे...?

समाधानः- तू स्वयं ही है। सर्वसर्व तू ही है। बस, उसकी श्रद्धा कर, उसका विश्वास ला। उसका ज्ञान कर, उसका विचार कर। उस ओर बारंबार झुक, परका आश्चर्य छोड दे, तेरा आश्चर्य ला। बस, वही है। बारंबार वही करनेका है।

.. आगे बढनेके लिये शास्त्र स्वाध्याय (करे)। शास्त्रमें क्या मार्ग आता है (यह जानना)। गुरुदेवने बहुत प्रवचन किये हैं। उसमें अत्यंत स्पष्ट करके मार्ग बताया है। इसलिये उसका विचार करना, उसका वांचन करना, स्वाध्याय करना। अंतरमें उसकी लगनी लगानी, जिज्ञासा करनी, आत्मा कैसे समझमें आये उसके लिये (प्रयत्न करना)। आत्मा जाननेवाला ज्ञायक है, यह शाश्वत तत्त्व अनादिअनन्त है। उसका कभी नाश नहीं होता। स्वयंसिद्ध आत्मा है। उसे पहचाननेके लिये प्रयत्न करना। यह शरीर जड कुछ जानता नहीं। अन्दर विभाव होते हैं, वह भी आकुलता है। अपना स्वभाव नहीं है। उससे भिन्न आत्माको जानना। भिन्न जाननेके लिये प्रयत्न करना। उसके लिये आत्माका स्वरूप क्या, द्रव्य-गुण-पर्यायका क्या स्वरूप है, पुदगलका क्या स्वरूप है, उसका विचार करके सूक्ष्म दृष्टिसे उसे पढना।

वस्तु असल स्वरूपमें कैसे कही जाती है, उसकी पर्यायसे क्या कहते हैं, उसकी प्रत्येक अपेक्षाएँ समझकर यथार्थ समझना। उसकी लगनी लगानी। वस्तु द्रव्य स्वभावसे तू निर्मल है। उसमें अशुद्धताने प्रवेश नहीं किया है। तो फिर यह विभाव कैसा? यह दुःख कैसा? आकुलता किसकी है? इसलिये आत्मामें विभाव परिणति हो रही है, अपने पुरुषार्थकी मन्दतासे और स्वयं भ्रान्ति करके-यह शरीर सो मैं, मैं सो शरीर, यह विभाव, राग-द्वेष आदिसे भिन्न आत्माको जानता नहीं है और प्रत्येक शुभाशुभ विकल्पके अन्दर एकत्व हो रहा है। उससे भी इस आत्माका स्वरूप भिन्न है। परन्तु


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वह पर्यायमें है सही। सर्वथा एकान्त शुद्ध हो तो-तो पुरुषार्थ करना नहीं रहता है। पर्याय अपेक्षासे उसमें अशुद्धता है और द्रव्यदृष्टिसे उसमें शुद्धता है।

जैसे स्फटिक स्वभावसे निर्मल है। मूल स्फटिक स्वभावसे निर्मल है। उसमें लाल- पीले फूलके संयोगसे वह लाल दिखा, पीला दिखे परन्तु निमित्त (कारण है)। परन्तु वह परिणमन स्वयंका हो रहा है, वह परिणमन स्वयंका है। लेकिन स्वभावसे निर्मल है। वह दोनों अपेक्षाएँ समझकर मूल असल स्वरूपको समझना। कारण, जीवने अनादि कालसे विभावमें शुभभाव बहुत किये, पुण्यबन्ध हुआ, देवलोकमें गया, परन्तु निज स्वरूप पहचाना नहीं। देवलोकमें भी गया। ऐसे सख्त शुभभाव किये कि जिससे (देवलोक मिला), परन्तु आत्माको पहचाना नहीं।

अनन्त कालमें स्वयं द्रव्यलिंगी मुनि बनकर नव ग्रैवेयक उपजायो-ग्रैवेयकमें गया। बाहरसे ऐसी सख्त क्रियाएँ पाली, जो क्रियाएँ शास्त्रमें आती उस अनुसार (पालन किया)। अभी तो वैसा दिखायी नहीं देता। शास्त्रमें आता है उस अनुसार पालन किया। परन्तु शुभभावसे पुण्यबन्ध हुआ। परन्तु इन सबसे भिन्न मैं आत्मा, उसे पहचाना नहीं। इसलिये आत्माको पहचाननेका प्रयत्न करना। लेकिन बीचमें उसे (यह सब) आता है। जो शुभभाव पुण्यबन्धका कारण है, इसलिये वह बीचमें नहीं आते हैं, ऐसा नहीं है। यदि शुभभाव छूटे तो अशुभमें जाय, तो पापबन्धका कारण (होता है)। परन्तु अशुभभावसे बचनेके लिये बीचमें शुभभाव देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आये और आत्माको पहचाननेका... मूल वस्तु-आत्माकी रुचि होनी चाहिये। अनन्त कालसे शुभभावमें अटक गया है। लेकिन उससे भिन्न आत्मा है, उसे पहचानता नहीं है। लेकिन बीचमें शुभभाव आये बिना नहीं रहते।

शुद्धात्मा कैसे पहचानूँ? उसका प्रयत्न (करना चाहिये)। यह दोनों अपेक्षाएँ समझनी। द्रव्य किस अपेक्षासे है और पर्यायमें क्या होता है? मूल असल स्वरूपसे शुद्धता है और पर्यायमें अशुद्धता है। पुनः एकान्त शुद्ध होकर शुष्कता न आ जाय, उसका ध्यान रखना। अपना हृदय भीगा हुआ रहना चाहिये कि अनन्त कालसे रखडा। इस जीवको अन्दर दुःख किसका है? अंतरमें विभावसे विरक्ति-वैराग्य आना चाहिये। ज्ञान, उसे यथार्थ समझनेका रास्ता और समझनेके लिये यथार्थ प्रयत्न, उसका ज्ञान यथार्थ करे, उसे वैराग्य- विरक्ति आनी चाहिये। उसकी महिमा आनी चाहिये। चैतन्य स्वरूप कोई अदभुत है। उसकी महिमा, उसकी महिमा आये और देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आनी चाहिये। उसकी पहचान करवानेवाले देव हैं, गुरु हैं, शास्त्र है। सब उसकी पहचान करवानेवाले हैं।

उसमें साक्षात चैतन्यमूति्ि गुरुदेवने जो मार्ग बताया, जो साधनाका मार्ग बताया उस पर उसे अपूर्व महिमा आये बिना नहीं रहती। अपने स्वभावकी महिमा, देव-गुरु-शास्त्रकी


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महिमा (आनी चाहिये)। जगतमें सब निःसार है। एक आत्मा सर्वोत्कृष्ट है, महिमाका भण्डार है। और दूसरा, शुभभावोंमें देव-गुरु-शास्त्र होने चाहिये। जगतमें सर्वोत्कृष्ट हों तो जिनेन्द्र देव हैं। गुरु सर्वोत्कृष्ट हैं, जो साधना करते हैं और शास्त्रोंमें उसका वर्णन आता है। इसलिये जगतमें वह सब सर्वोत्कृष्ट है। इसलिये यह करने जैसा है, अंतरमें ज्ञायकको पहचानकर। उसकी पहचान कैसे हो? उसके लिये शास्त्र स्वाध्याय, विचार, वांचन आदि सब (होना चाहिये)। अन्दरसे हृदय भीगा हुआ रखना। भवका अभाव कैसे हो, यह अंतरमें होना चाहिये।

मुमुक्षुः- चैतन्यकी महिमा बढानेके लिये क्या करना?

समाधानः- चैतन्य क्या वस्तु है? उसमें क्या भरा है? उसके गुण कोई अपूर्व हैं। गुरुदेव उसकी महिमा बताते थे। प्रवचनोंमें क्या आता है? शास्त्रोंमें क्या आता है? विचार करके नक्की करे। चैतन्य पदार्थ जगतमें कोई अपूर्व है। जगतमें उसके जैसे कोई वस्तु नहीं है। उसका आनन्द अपूर्व है, उसका ज्ञान अपूर्व है, सब अपूर्व है।

जो किसी अन्य साधन बिना अंतरमेंसे जो ज्ञान प्रगट होता है, जो अनन्त महिमासे भरा ज्ञायक-ज्ञान है, उसके स्वरूपको जगतकी कोई महिमा लागू नहीं पडती। ऐसा अनुपम है, उसे कोई उपमा लागू नहीं पडती। ऐसा अनुपम पदार्थ है। शास्त्रमें उसका बहुत वर्णन आता है। उसमेंसे विचार करे। आचार्य क्या कहते हैं? आचार्य वस्तुकी महिमा कर रहे हैं, उसका विचार करे। गुरुदेव महिमा करते हैं। तू आत्मा है, तू भगवान है। उसे पहचान। जो गुरुदेव कहते थे, वह अंतरसे कहते थे। इसलिये अंतरमें वह कोई अपूर्व पदार्थ है।

मुमुक्षुः- पूज्य गुरुदेव भी बारंबार कहते हैं, तू सुखका सागर है। आनन्दकी निधि हो, अतीन्द्रिय सुखका भण्डार है। तो अभी सुखकी प्राप्तिके लिये...?

समाधानः- स्वयं प्रयत्न करे तो होता है। पहले श्रद्धा करे। यथार्थ वस्तु तो यही है। फिर प्रयत्न भले धीरे-धीरे हो। परन्तु श्रद्धा तो बराबर करना। श्रद्धामें थोडा भी फर्क मत करना। श्रद्धामें थोडा भी फेरफार मत करना। श्रद्धा यथार्थ करना। तो फिर धीरे हो.. शास्त्रमें आता है, हो सके तो ध्यानमय प्रतिक्रमण करना। न बन सके तो श्रद्धा बराबर करना। परन्तु उसके लिये कोई ईधर-ऊधरके मार्ग पर मत जाना। दूसरी जगह कहीं मार्ग नहीं है। मार्ग आत्माका कोई अलग है। अन्दर सम्यग्दर्शन, स्वानुभूति होती है तब सम्यग्दर्शन कहनेमें आता है। नव तत्त्वकी श्रद्धा मात्र विकल्पसे कर ले, तो वह सम्यग्दर्शन नहीं है।

सम्यग्दर्शन अन्दर आत्मामें प्रगट होता है। और सम्यग्दर्शन होनेके बाद विशेष-विशेष आत्मामें जमता जाय, आगे बढे तब मुनिदशा आती है। अंतरमें मुनिदशा कोई अलग


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है। छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें झुले। अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें आत्मामें लीन होते हैं। बाहर आये तब द्रव्य-गुण-पर्यायके विचार आये। दूसरा सब तो मुनिराजको छूट गया है, सहजरूपसे। उन्हें बोझ नहीं लगता है, उपाधि नहीं लगती है। सहजरूपसे। वह दशा कोई अलग होती है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!
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