Niyamsar (Hindi). Shree NiyamsAr; Introduction; NiyamsAr; Avrutti; Param Pujya AdhyAtmamoorti Sadgurudev Shri KAnjiswAmi; Arpan; Shree Sadgurudev Stuti; PrakAshakiy nivedan; UpodghAt; BhagwAn Shree Kundkundacharyana Sambandhma Ullekh; BhagwAn Shree KundkundachArya.

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भगवानश्रीकुन्दकुन्द-कहानजैनशास्त्रमाला पुष्प-९७
नमः परमात्मने
श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत
परमागम
श्री
नियमसार
मूल गाथाएँ, संस्कृत छाया, हिन्दी पद्यानुवाद
श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित संस्कृतटीका
और उसके हिन्दी अनुवाद सहित
गुजराती अनुवादक
पंडितरत्न श्री हिंमतलाल जेठालाल शाह
(बी. एस.सी.)
हिन्दी अनुवादक
श्री मगनलाल जैन
: प्रकाशक :
श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट,
सोनगढ-३६४२५० (सौराष्ट्र)

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प्रथम संस्करण :प्रति ११००वि. सं. २०१७ई. स. १९६०
द्वितीय संस्करण :प्रति १५००वि. सं. २०२२ई. स. १९६६
तृतीय संस्करण :प्रति १५००वि. सं. २०३०ई. स. १९७४
चतुर्थ संस्करण :प्रति २१००वि. सं. २०३३ई. स. १९७७
पंचम संस्करण :प्रति १०००वि. सं. २०४८ई. स. १९९२
षष्ठ संस्करण :प्रति १०००वि. सं. २०६५ई. स. २००९
परमागम श्री नियमसार (हिन्दी)के
स्थायी प्रकाशन पुरस्कर्ता
श्री जडावबेन नानालालभाई जसाणी
हस्ते जयालक्ष्मीबेन आनंदलालभाई जसाणी
निरंजन-विदेहा-सिद्धार्थ; मुंबई
मुद्रक :
स्मृति अॉफ सेट
जैन विद्यार्थी गृह, सोनगढ-364250
Phone : (02846) 244081
मूल्य : रु. ३०=००
इस शास्त्रका लागत मूल्य रु १२०=०० पड़ा है । किन्तु अन्य फु टकर आर्थिक
सहयोगसे इसका विक्रिय मूल्य रु ६०=०० होता है । उनमें श्री कुंदकुंदकहान पारमार्थिक
ट्रस्ट हस्ते स्व. श्री शान्तिलाल रतिलाल शाहकी ओरसे ५०
% आर्थिक सहयोग विशेष
प्राप्त होनेसे इस शास्त्रका विक्रिय-मूल्य मात्र रु ३०=०० रखा गया है ।


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अर्पण
G
जिन्होंने इस पामर पर उपकार किया है, जिनकी प्रेरणा और
कृपासे नियमसारका यह अनुवाद हुआ है, जिन्हें नियमसारके
प्रति पारावार भक्ति है, नियमसारमें गड़े हुए अमूल्य
अध्यात्मनिधानोंको प्रगट करके जो नियमसारकी
अलौकिक प्रभावना कर रहे हैं, नियमसारके
हार्दरू प परम पारिणामिक भावका अनुभव करके
जो निजकल्याण साध रहे हैं और निरन्तर
उसका धारावाही उपदेश देकर भारतके
भव्य जीवोंको कल्याणमार्ग पर ले
जा रहे हैं, उन परमपूज्य परमोपकारी
कल्याणमूर्ति सद्गुरु देव (श्री
कानजीस्वामी) को यह
अनुवाद-पुष्प अत्यन्त
भक्तिभावसे
अर्पण करता
हूँ
अनुवादक
हिंमतलाल जेठालाल शाह

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श्री सद्गुरुदेव-स्तुति
(हरिगीत)
संसारसागर तारवा जिनवाणी छे नौका भली,
ज्ञानी सुकानी मळ्या विना ए नाव पण तारे नहीं;
आ काळमां शुद्धात्मज्ञानी सुकानी बहु बहु दोह्यलो,
मुज पुण्यराशि फळ्यो अहो ! गुरुक् हान तुं नाविक मळ्यो.
(अनुष्टुप)
अहो ! भक्त चिदात्माना, सीमंधर-वीर-कुं दना !
बाह्यांतर विभवो तारा, तारे नाव मुमुक्षुनां.
(शिखरिणी)
सदा द्रष्टि तारी विमळ निज चैतन्य नीरखे,
अने ज्ञप्तिमांही दरव-गुण-पर्याय विलसे;
निजालंबीभावे परिणति स्वरूपे जई भळे,
निमित्तो वहेवारो चिदघन विषे कांई न मळे.
(शार्दूलविक्रीडित)
हैयुं ‘सत सत, ज्ञान ज्ञान’ धबके ने वज्रवाणी छूटे,
जे वज्रे सुमुमुक्षु सत्त्व झळके ; परद्रव्य नातो तूटे;
रागद्वेष रुचे न, जंप न वळे भावेंद्रिमांअंशमां,
टंकोत्कीर्ण अकं प ज्ञान महिमा हृदये रहे सर्वदा.
(वसंततिलका)
नित्ये सुधाझरण चंद्र ! तने नमुं हुं,
क रुणा अकारण समुद्र ! तने नमुं हुं;
हे ज्ञानपोषक सुमेघ ! तने नमुं हुं,
आ दासना जीवनशिल्पी ! तने नमुं हुं.
(स्रग्धरा)
ऊंडी ऊंडी, ऊंडेथी सुखनिधि सतना वायु नित्ये वहंती,
वाणी चिन्मूर्ति ! तारी उर-अनुभवना सूक्ष्म भावे भरेली;
भावो ऊंडा विचारी, अभिनव महिमा चित्तमां लावी लावी,
खोयेलुं रत्न पामुं,
मनरथ मननो; पूरजो शक्तिशाळी !
रचयिता : हिंमतलाल जेठालाल शाह

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नमः परमागमश्रीनियमसाराय
प्रकाशकीय निवेदन
(षष्ठ संस्करण)
प्रवर्तमानतीर्थनेता सर्वज्ञवीतराग भगवान श्री महावीरस्वामीकी ॐकारस्वरूप दिव्य
देशनासे प्रवाहित और गणधरदेव श्री गौतमस्वामी आदि गुरुपरम्परा द्वारा प्राप्त
शुद्धात्मानुभूतिप्रधान परमपावन अध्यात्मप्रवाहको झेलकर, तथा जम्बू-पूर्वविदेहक्षेत्रस्थ
जीवन्तस्वामी श्री सीमन्धर जिनवरकी प्रत्यक्ष वन्दना एवं देशनाश्रवणसे पुष्ट कर, उसे
श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवने समयसार, नियमसार आदि परमागमरूप भाजनोंमें संग्रहीत कर
अध्यात्मतत्त्वरसिक जगत पर महान उपकार किया है
अध्यात्मश्रुतलब्धिधर महर्षि श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत जो अनेक रचनाएँ उपलब्ध
हैं उनमें श्री समयसार, श्री प्रवचनसार, श्री पञ्चास्तिकायसंग्रह, श्री नियमसार, श्री
अष्टप्राभृत
ये पाँच परमागम मुख्य हैं ये पाँचों परमागम हमारे द्वारा गुजराती एवं हिन्दी
भाषामें अनेक बार प्रकाशित हो चुके हैं टीकाकार मुनिवर श्री पद्मप्रभमलधारीदेवकी
तात्पर्यवृत्ति टीका सहित ‘नियमसार’के अध्यात्मरसिक विद्वान श्री हिम्मतलाल जेठालाल शाह
कृत गुजराती अनुवादके हिन्दी रूपान्तरका यह षष्ठ संस्करण अध्यात्मविद्याप्रेमी जिज्ञासुओंके
हाथमें प्रस्तुत करते हुए आनन्द अनुभूत होता है
श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवके ‘प्राभृतत्रय’ (समयसार-प्रवचनसार-पञ्चास्तिकायसंग्रह) की
तुलनामें इस ‘नियमसार’ शास्त्रकी बहुत कम प्रसिद्धि थी इसकी बहुमुखी प्रसिद्धिका श्रेय
श्री कुन्दकुन्दभारतीके परमोपासक, अध्यात्मयुगप्रवर्तक, परमोपकारी पूज्य सद्गुरुदेव श्री
कानजीस्वामीको है
प्रथम यह शास्त्र संस्कृत टीका एवं ब्र. श्री शीतलप्रसादजी कृत हिन्दी
अनुवाद सहित प्रकाशित हुआ था उस पर पूज्य गुरुदेवश्रीने वि. सं. १९९९में सोनगढ़में
प्रवचन किये उस समय उनकी तीक्ष्ण गहरी दृष्टिने तन्निहित अति गम्भीर भावोंको परख
लिया....और ऐसा महिमावंत परमागम यदि गुजराती भाषामें अनुवादित होकर शीघ्र प्रकाशित
हो जाये तो जिज्ञासुओंको बहुत लाभ हों ऐसी उनके हृदयमें भावना जगी
प्रशममूर्ति पूज्य

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बहिनश्री चम्पाबहिनके भाई विद्वान् श्री हिम्मतभाईको पूज्य गुरुदेवने नियमसारका गुजराती
गद्यपद्यानुवाद करनेकी कृपाभीनी प्रेरणा दी
अध्यात्मरसिक श्री हिम्मतभाईने पूज्य
गुरुदेवश्रीकी प्रेरणाको झेलकर, समयसार एवं प्रवचनसारकी तरह अल्प समयमें यह अनुवाद
कार्य सुचारुतया सम्पन्न किया
गुजराती अनुवाद प्रकाशित होनेके पश्चात् पूज्य गुरुदेवश्रीने
इस नियमसार परमागमशास्त्र पर अनेक बार प्रवचन दिये और अध्यात्मप्रेमी समाजके समक्ष
उसके परमपारिणामिकभावप्रधान गहन रहस्योंका उद्घाटन किया
इस प्रकार पूज्य गुरुदेवश्री
द्वारा इसकी अधिक प्रसिद्धि हुई वास्तवमें इस शताब्दीमें अध्यात्मरुचिके नवयुगका प्रवर्तन
कर मुमुक्षुसमाज पर पूज्य गुरुदेवने असाधारण महान उपकार किया है
नियमसारके गुजराती अनुवादके गद्यांशका एवं पद्यांशका हिन्दी रूपान्तर अनुक्रमसे
श्री मगनलालजी जैन (सोनगढ़) एवं श्री जुगलकिशोरजी, एम. ए. साहित्यरत्न (कोटा,
राजस्थान)ने संपन्न किया है
एतदर्थ संस्था उन दोनों महानुभावोंका आभार मानती है
तदिरिक्त प्रस्तुत षष्ठ संस्करणका मुद्रण संशोधन ब्र. चंदुभाई झोबाळिया, श्री प्रवीणभाई
साराभाई शाह, ब्र. व्रजलालभाई शाह (वढ़वाण) तथा श्री अनंतराय व्रजलाल शाह
(जलगांव) और सुन्दर मुद्रणकार्य ‘कहान मुद्रणालय’के मालिक श्री ज्ञानचंदजी जैन एवं
उनके सुपुत्र चि० निलयने किया है
तदर्थ उनके प्रति भी संस्था कृतज्ञता व्यक्त करती है
मुमुक्षु जीव सद्गुरुगमसे अति बहुमानपूर्वक इस परमागमका अभ्यास करके उसके
गहन भावोंको आत्मसात् करें और शास्त्रके तात्पर्यभूत परमवीतरागभावको प्राप्त करेंयही
कामना
वि. सं. २०६५
पूज्य बहिनश्रीका ९६वाँ
जन्मोत्सव
दि. ७-८-२००९
साहित्यप्रकाशनसमिति,
श्री दि० जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट,
सोनगढ़३६४२५० (सौराष्ट्र)

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नमः सद्गुरुवे
उपोद्घात
[गुजराती उपोद्घातका हिन्दी रूपान्तर]
भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत यह ‘नियमसार’ नामक शास्त्र ‘द्वितीय श्रुतस्कंध’ के
सर्वोत्कृष्ट आगमोंमेंसे एक है
‘द्वितीय श्रुतस्कंध’की उत्पत्ति किस प्रकार हुई उसे हम पट्टावलियोंके आधार पर प्रथम
संक्षेपमें देखें :
आजसे २४७७ वर्ष पूर्व इस भरतक्षेत्रको पुण्यभूमिमें जगत्पूज्य परमभट्टारक भगवान
श्री महावीरस्वामी मोक्षमार्गका प्रकाश करनेके लिए समस्त पदार्थोंका स्वरूप अपनी सातिशय
दिव्यध्वनि द्वारा प्रगट कर रहे थे
उनके निर्वाणके पश्चात् पाँच श्रुतकेवली हुए, जिनमें अन्तिम
श्रुतकेवली श्री भद्रबाहुस्वामी थे वहाँ तक तो द्वादशांगशास्त्रकी प्ररूपणासे निश्चयव्यवहारात्मक
मोक्षमार्ग यथार्थ प्रवर्तमान रहा तत्पश्चात् कालदोषके कारण क्रमशः अंगोंके ज्ञानकी व्युच्छित्ति
होती गई इसप्रकार अपार ज्ञानसिन्धुका अधिकांश विच्छिन्न होनेके पश्चात् द्वितीय
भद्रबाहुस्वामी आचार्यकी परिपाटीमें दो समर्थ मुनि हुएएकका नाम श्री धरसेन आचार्य और
दूसरेका नाम श्री गुणधर आचार्य उनसे प्राप्त हुए ज्ञानके द्वारा उनकी परम्परामें होनेवाले
आचार्योंने शास्त्रोंकी रचना की और वीर भगवानके उपदेशका प्रवाह अच्छिन्न रखा
श्री धरसेन आचार्यको आग्रायणीपूर्वके पंचम वस्तु-अधिकारके महाकर्मप्रकृति नामक
चतुर्थ प्राभृतका ज्ञान था उस ज्ञानामृतमेंसे क्रमानुसार आगे होनेवाले आचार्यों द्वारा
षट्खंडागम, धवल, महाधवल, जयधवल, गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणासार आदि शास्त्रोंकी
रचना हुई
इसप्रकार प्रथम श्रुतस्कंधकी उत्पत्ति है उसमें जीव और कर्मके संयोगसे हुई
आत्माकी संसारपर्यायकागुणस्थान, मार्गणा आदिकावर्णन है; पर्यायार्थिकनयको प्रधान
रखकर कथन किया गया है इस नयको अशुद्ध-द्रव्यार्थिक भी कहते हैं और अध्यात्मभाषामें
अशुद्धनिश्चयनय अथवा व्यवहार कहा जाता है

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श्री गुणधर आचार्यको ज्ञानप्रवादपूर्वके दशवें तृतीय प्राभृतका ज्ञान था उस ज्ञानमेंसे
तत्पश्चात् होनेवाले आचार्योंने क्रमशः सिद्धान्तोंकी रचना की इस प्रकार सर्वज्ञ भगवान
महावीरसे चला आ रहा ज्ञान आचार्योंकी परम्परासे भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवको प्राप्त हुआ
उन्होंने पंचास्तिकायसंग्रह, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार, अष्टपाहुड़ आदि शास्त्र रचे; और
इस प्रकार द्वितीय श्रुतस्कंधकी उत्पत्ति हुई
उसमें ज्ञानको प्रधान करके शुद्धद्रव्यार्थिक नयसे
कथन है, आत्माके शुद्ध स्वरूपका वर्णन है
भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव विक्रम संवत्के प्रारंभमें हो गये हैं दिगम्बर जैन परम्परामें
भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवका स्थान सर्वोत्कृष्ट है ‘मंगलं भगवान वीरो मंगलं गौतमो गणी
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ।।-इस पवित्र श्लोकको प्रत्येक दिगंबर जैन
धर्मानुयायी शास्त्र-पठनसे पूर्व मंगलाचरणके रूपमें बोलता है इससे सिद्ध होता है कि
सर्वज्ञभगवान श्री महावीरस्वामी और गणधर भगवान श्री गौतमस्वामीके पश्चात् तुरन्त ही भगवान
कुन्दकुन्दाचार्यका स्थान आता है
दिगंबर जैन साधु अपनेको कुन्दकुन्दाचार्यकी परम्पराका
कहलानेमें गौरवका अनुभव करते हैं भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवके शास्त्र साक्षात्
गणधरदेवके वचनों जितने ही प्रमाणभूत माने जाते हैं उनके पश्चात् होनेवाले ग्रंथकार आचार्य
अपने किसी कथनको सिद्ध करनेके लिए कुन्दकुन्दाचार्यदेवके शास्त्रोंका प्रमाण देते हैं जिससे
वह कथन निर्विवाद सिद्ध होता है
उनके पश्चात् लिखे गये ग्रन्थोंमें उनके शास्त्रोंमेंसे
अनेकानेक अवतरण लिए गये हैं वास्तवमें भगवान कुन्दकुन्दाचार्यने अपने परमागमोंमें
तीर्थंकरदेवों द्वारा प्ररूपित उत्तमोत्तम सिद्धान्तोंकी सुरक्षा की है और मोक्षमार्गको स्थिर रखा
है
वि० सम्वत् ९९०में श्री देवसेनाचार्य हो गये हैं, वे अपने दर्शनसार नामक ग्रन्थ कहते
हैं कि ‘‘विदेहक्षेत्रके वर्तमान तीर्थंकर श्री सीमन्धरस्वामीके समवसरणमें जाकर श्री
पद्मनन्दिनाथने (-कुन्दकुन्दाचार्यदेवने) स्वयं प्राप्त किये हुए ज्ञान द्वारा बोध न दिया होता तो
मुनिजन सच्चे मार्गको कैसे जानते ?’’ हम दूसरा भी एक उल्लेख देखें, जिसमें
कुन्दकुन्दाचार्यदेवको कलिकालसर्वज्ञ कहा गया है :
‘‘पद्मनन्दी, कुन्दकुन्दाचार्य,
वक्रग्रीवाचार्य, एलाचार्य, गृध्रपिच्छाचार्य’’इन पाँच नामोंसे विभूषित, चार अंगुल उपर
आकाशमें गमन करनेकी जिन्हें ऋद्धि थी, जिन्होंने पूर्वविदेहमें जाकर सीमन्धर भगवानकी
वन्दना की थी और उनसे प्राप्त हुए श्रुतज्ञान द्वारा जिन्होंने भारतवर्षके भव्य जीवोंको प्रतिबोध
दिया है ऐसे श्री जिनचन्द्रसूरिभट्टारकके पट्टके आभरणरूप कलिकालसर्वज्ञ (भगवान
कुन्दकुन्दाचार्यदेव) उनके रचे हुए इस षट्प्राभृत ग्रथमें....सूरीश्वर श्री श्रुतसागर द्वारा रचित
१ मूल श्लोकके लिए देखिये पृष्ठ१६

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मोक्षप्राभृतकी टीका समाप्त हुईै ’’ ऐसा षट्प्राभृतकी श्रृतसागरसूरिकृत टीकाके अंतमें लिखा
है भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवकी महत्ता बतलानेवाले ऐसे अनेकानेक उल्लेख जैन साहित्यमें
मिलते हैं; शिलालेख भी अनेक हैं इस प्रकार हमने देखा कि सनातन जैन सम्प्रदायमें
कलिकालसर्वज्ञ भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवका स्थान अद्वितीय है
भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवके रचे हुए अनेक शास्त्र हैं, जिनमें से कुछ वर्तमानमें
विद्यमान है त्रिलोकनाथ सर्वज्ञदेवके मुखसे प्रवाहित श्रृतामृतकी सरितामेंसे भरे हुए वे
अमृतभाजन आज भी अनेक आत्मार्थियोंको आत्मजीवन प्रदान करते हैं उनके
पंचास्तिकायसंग्रह, प्रवचनसार, समयसार और नियमसार नामक उत्तमोत्तम परमागमोंमें हजारों
शास्त्रोंका सार आ जाता है
भगवान कुन्दकुन्दाचार्यके पश्चात् लिखे गये अनेक ग्रन्थोंके बीज
इन परमागमोंमें विद्यमान हैं ऐसा सूक्ष्म दृष्टिसे अध्ययन करने पर ज्ञात होता है श्री
पंचास्तिकायसंग्रहमें छह द्रव्य और नव तत्त्वोंके स्वरूपका कथन संक्षेपमें किया गया है श्री
प्रवचनसारमें उसके नामके अनुसार जिनप्रवचनका सार संग्रहीत है और उसे ज्ञानतत्त्व, ज्ञेयतत्त्व
तथा चरणानुयोगके तीन अधिकारोंमें विभाजित किया है
श्री समयसार इस भरतक्षेत्रका
सर्वोत्कृष्ट परमागम है उसमें नवतत्त्वोंका शुद्धनयकी दृष्टिसे निरूपण करके जीवका शुद्ध
स्वरूप सर्व ओरसेआगम, युक्ति, अनुभव एवं परम्परासेअति विस्तारपूर्वक समझाया है
श्री नियमसारमें मोक्षमार्गका स्पष्ट सत्यार्थ निरूपण है जिस प्रकार समयसारमें शुद्धनयसे
नवतत्त्वोंका निरूपण किया है, उसी प्रकार नियमसारमें मुख्यतः शुद्धनयसे जीव, अजीव,
शुद्धभाव, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना, प्रायश्चित्त, समाधि, भक्ति, आवश्यक, शुद्धोपयोग
आदिका वर्णन है
श्री नियमसार भरतक्षेत्रके उत्तमोत्तम शास्त्रोंमेंसे एक होने पर भी
प्राभृतत्रयकी तुलनामें उसकी प्रसिद्धि अत्यन्त अल्प है ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीने वि० सम्वत्
१९७२ में हिन्दी नियमसारकी भूमिकामें ठीक ही लिखा है कि‘‘आज तक श्री
कुन्दकुन्दाचार्यके पंचास्तिकायसंग्रह, प्रवचनसार और समयसारयह तीन रत्न ही अधिक
प्रसिद्ध हैं खेदकी बात है कि उन्हीं जैसा बल्कि कुछ अंशोंमें उनसे भी विशेष जो
नियमसाररत्न है, उसकी प्रसिद्धि इतनी अल्प है कि कोई कोई तो उसका नाम भी नहीं
जानते
’’
यह नियमसार परमागम मुख्यतः मोक्षमार्गके निरुपचार निरूपणका अनुपम ग्रंथ है
‘‘नियम’’ अर्थात् जो अवश्य करने योग्य हो, अर्थात् रत्नत्रय ‘‘नियमसार’’ अर्थात् नियमका
सार अर्थात् शुद्ध रत्नत्रय उस शुद्ध रत्नत्रयकी प्राप्ति परमात्मतत्त्वके आश्रयसे ही होती है
१ शिलालेखोंके लिए देखिये पृष्ठ-१६

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निगोदसे लेकर सिद्ध तककी सर्व अवस्थाओंमेंअशुभ, शुभ या शुद्ध विशेषोंमेंविद्यमान
जो नित्य निरंजन टंकोत्कीर्ण शाश्वत एकरूप शुद्धद्रव्यसामान्य वह परमात्मतत्त्व है वही शुद्ध
अन्तःतत्त्व, कारण परमात्मा, परमपारिणामिकभाव आदि नामोंसे कहा जाता है इस
परमात्मतत्त्वकी उपलब्धि अनादि कालसे अनंतानंत दुःखोंका अनुभव करनेवाले हुए जीवोंने
एक क्षणमात्र भी नहीं की और इसलिए सुख प्राप्तिके उसके सर्व हापटें
प्रयत्न (द्रव्यलिंगी
मुनिके व्यवहार रत्नत्रय सहित) सर्वथा व्यर्थ गये हैं इसलिये इस परमागमका एकमात्र उद्देश्य
जीवोंको परमात्मतत्त्वकी उपलब्धि अथवा आश्रय करवाना है शास्त्रकार आचार्य भगवानने
और टीकाकार मुनिवरने इस परमागमके प्रत्येक पृष्ठमें जो अनुभवसिद्ध परम सत्य कहा है
उसका सार इस प्रकार है :
हे जगत्के जीवो ! तुम्हारे सुखका एकमात्र उपाय परमात्मतत्त्वका
आश्रय है सम्यग्दर्शनसे लेकर सिद्ध तककी सर्व भूमिकाएँ उसमें समा जाती हैं;
परमात्मतत्त्वका जघन्य आश्रय सो सम्यग्दर्शन है; वह आश्रय मध्यम कोटिकी उग्रता धारण
करने पर जीवको देशचारित्र, सकलचारित्र आदि दशाएँ प्रगट होती है और पूर्ण आश्रय होने
पर केवलज्ञान तथा सिद्धत्व प्राप्त करके जीव सर्वथा कृतार्थ होता है
इसप्रकार परमात्मतत्त्वका
आश्रय ही सम्यग्दर्शन है, वही सम्यग्ज्ञान है, वही सम्यक्चारित्र है; वही सत्यार्थ प्रतिक्रमण,
प्रत्याख्यान, आलोचना, प्रायश्चित्त, सामायिक, भक्ति, आवश्यक, समिति, गुप्ति, संयम, तप,
संवर, निर्जरा, धर्म
शुक्लध्यान आदि सब कुछ है ऐसा एक भी मोक्षके कारणरूप भाव
नहीं है जो परमात्मतत्त्वके आश्रयसे अन्य हो परमात्मतत्त्वके आश्रयसे अन्य ऐसे भावोंको
व्यवहारप्रतिक्रमण, व्यवहारप्रत्याख्यान आदि शुभ विकल्परूप भावोंकोमोक्षमार्ग कहा जाता
है वह तो मात्र उपचारसे कहा जाता है परमात्मतत्त्वके मध्यम कोटिके अपरिपक्व आश्रयके
समय उस अपरिपक्वताके कारण साथसाथ जो अशुद्धिरूप अंश विद्यमान होता है वह
अशुद्धिरूप अंश ही व्यवहारप्रतिक्रमणादि अनेकानेक शुभ विकल्पात्मक भावोंरूपसे दिखाई
देता है
वह अशुद्धिअंश वास्तवमें मोक्षमार्ग कैसे हो सकता है ? वह तो सचमुच मोक्षमार्गसे
विरुद्ध भाव ही है, बन्धभाव ही हैऐसा तुम समझो और द्रव्यलिंगी मुनिको जो प्रतिक्रमण,
प्रत्याख्यानादि शुभभाव होते हैं वे भाव तो प्रत्येक जीव अनन्त बार कर चुका है, किन्तु वे
भाव उसे मात्र परिभ्रमणका ही कारण हुए हैं क्योंकि परमात्मतत्त्वके आश्रय बिना आत्माका
स्वभावपरिणमन अंशतः भी न होनेसे उसी मोक्षमार्गकी प्राप्ति अंशमात्र भी नहीं होती
सर्व
मैं ध्रुव शुद्ध आत्मद्रव्यसामान्य हूँ’’ऐसी सानुभव श्रद्धापरिणतिसे लेकर परिपूर्ण लीनता तककी किसी भी
परिणतिको परमात्मतत्त्वका आश्रय, परमात्मतत्त्वका आलम्बन, परमात्मतत्त्वके प्रति झुकाव, परमात्मतत्त्वके
प्रति उन्मुखता, परमात्मतत्त्वकी उपलब्धि, परमात्मतत्त्वकी भावना, परमात्मतत्त्वका ध्यान आदि शब्दोंसे कहा
जाता है

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जिनेन्द्रोंकी दिव्यध्वनिका संक्षेप और हमारे स्वसंवेदनका सार यह है किभयंकर संसार
रोगकी एकमात्र औषधि परमात्मतत्त्वका आश्रय ही है जब तक जीवकी दृष्टि ध्रुव अचल
परमात्मतत्त्व पर न पड़कर क्षणिक भावों पर रहती है तब तक अनन्त उपायोंसे भी उसकी
कृतक औपाधिक हिलोरें
शुभाशुभ विकल्पशान्त नहीं होतीं, किन्तु जहाँ उस दृष्टिको
परमात्मतत्त्वरूप ध्रुव आलम्बन हाथ लगता है वहाँ उसी क्षण वह जीव (दृष्टिअपेक्षासे)
कृतकृत्यताका अनुभव करता है, (दृष्टिअपेक्षासे) विधिनिषेध विलयको प्राप्त होते हैं, अपूर्व
समरसभावका वेदन होता है, निज स्वभावभावरूप परिणमनका प्रारम्भ होता है और कृतक
औपाधिक हिलोरें क्रमशः शान्त होती जाती हैं
इस निरंजन निज परमात्मतत्त्वके आश्रयरूप
मार्गसे ही सर्व मुमुक्षु भूत कालमें पंचमगतिको प्राप्त हुए हैं, वर्तमानमें हो रहे हैं और
भविष्यकालमें होंगे
यह परमात्मतत्त्व सर्व तत्त्वोंमें एक सार है, त्रिकालनिरावरण,
नित्यानन्दएकस्वरूप है, स्वभावअनन्त चतुष्टयसे सनाथ है, सुखसागरका ज्वार है,
क्लेशोदधिका किनारा है, चारित्रका मूल है, मुक्तिका कारण है सर्व भूमिकाके साधकोंको
वही एक उपादेय है हे भव्य जीवों ! इस परमात्मतत्त्वका आश्रय करके तुम शुद्ध रत्नत्रय
प्रगट करो इतना न कर सको तो सम्यग्दर्शन तो अवश्य ही करो वह दशा भी अभूतपूर्व
तथा अलौकिक है
इस प्रकार इस परम पवित्र शास्त्रमें मुख्यतः परमात्मतत्त्व और उसके आश्रयसे प्रगट
होनेवाली पर्यायोंका वर्णन होने पर भी, साथ-साथ द्रव्यगुणपर्याय, छह द्रव्य, पाँच भाव,
व्यवहार-निश्चयनय, व्यवहारचारित्र, सम्यग्दर्शन प्राप्तिमें प्रथम तो अन्य सम्यगदृष्टि जीवकी
देशना ही निमित्त होती है (
मिथ्यादृष्टि जीवकी नहीं) ऐसा अबाधित नियम, पंच परमेष्ठीका
स्वरूप, केवलज्ञान-केवलदर्शन केवलीका इच्छारहितपना आदि अनेक विषयोंका संक्षिप्त
निरूपण भी किया गया है
इसप्रकार उपरोक्त प्रयोजनभूत विषयोंको प्रकाशित करता हुआ
यह शास्त्र वस्तुस्वरूपका यथार्थ निर्णय करके परमात्मतत्त्वको प्राप्त करनेकी इच्छा रखनेवाले
जीवको महान उपकारी है
अंतःतत्त्वरूप अमृतसागर पर दृष्टि लगाकर ज्ञानानंदकी तरंगें
उछालनेवाले हुए महा मस्त मुनिवरोंके अन्तर्वेदनमेंसे निकले हुए भावोंसे भरा हुआ यह परमागम
नन्दनवन समान आह्लादकारी है
मुनिवरोंके हृदयकमलमें विराजमान अन्तःतत्त्वरूप
अमृतसागर परसे तथा शुद्धपर्यायोंरूप अमृतझरने परसे बहता हुआ श्रुतरूप शीतल समीर मानों
कि अमृत-सीकरोंसे मुमुक्षुओंके चित्तको परम शीतलीभूत करता है
ऐसा शांतरस परम
आध्यात्मिक शास्त्र आज भी विद्यमान है और परमपूज्य गुरुदेव द्वारा उसकी अगाध
आध्यात्मिक गहराईयाँ प्रगट होती जा रही हैं यह हमारा महान सौभाग्य है
पूज्य गुरुदेवको
श्री नियमसारके प्रति अपार भक्ति है
वे कहते हैं‘‘परम पारिणामिकभावको प्रकाशित

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करनेवाला श्री नियमसार परमागम और उसकी टीका की रचनाछठवें सातवें गुणस्थानमें
झूलते हुए महा समर्थ मुनिवरों द्वारा द्रव्यके साथे पर्यायकी एकता साधते-साधते हो गई है
जैसे शास्त्र और टीका रचे गये हैं वैसा ही स्वसंवेदन वे स्वयं कर रहे थे परम पारिणामिक
भावके अन्तरअनुभवको ही उन्होंने शास्त्रमें उतारा हैप्रत्येक अक्षर शाश्वत, टंकोत्कीर्ण,
परमसत्य, निरपेक्ष कारणशुद्धपर्याय, स्वरूपप्रत्यक्ष सहजज्ञान आदि विषयोंका निरूपण करके
तो मुनिवरोंने अध्यात्मकी अनुभवगम्य अत्यंतात्यंत सूक्ष्म और गहन बातको इस शास्त्रमें स्पष्ट
किया है
सर्वोत्कृष्ट परमागम श्री समयसारमें भी इन विषयोंका इतने स्पष्टरूपसे निरूपण नहीं
है अहो ! जिस प्रकार कोई पराक्रमी कहा जानेवाला पुरुष वनमें जाकर सिंहनीका दूध दुह
लाता है, उसी प्रकार आत्मपराक्रमी महामुनिवरोंने वनमें बैठे-बैठे अन्तरका अमृत दुहा है
सर्वसंगपरित्यागी निर्ग्रंथोंने वनमें रहकर सिद्ध भगवन्तोंसे बातें की हैं और अनन्त सिद्ध भगवन्त
किस प्रकार सिद्धिको प्राप्त हुए हैं उसका इतिहास इसमें भर दिया है
इस शास्त्रमें भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवकी प्राकृत गाथाओं पर तात्पर्यवृत्ति नामक
संस्कृत टीका लिखनेवाले मुनिवर श्री पद्मप्रभमलधारिदेव हैं वे श्री वीरनन्दि सिद्धांतचक्रवर्तीके
शिष्य हैं और विक्रम की तेरहवीं शताब्दीमें हो गये हैं, ऐसा शिलालेख आदि साधनों द्वारा
संशोधन-कर्त्ताओंका अनुमान है
‘‘परमागमरूपी मकरंद जिनके मुखसे झरता है और पाँच
इन्द्रियोंके फै लाव रहित देहमात्र परिग्रह जिनके था’’ ऐसे निर्ग्रन्थ मुनिवर श्री पद्मप्रभदेवने
भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवके हृदयमें भरे हुए परम गहन आध्यात्मिक भावोंको अपने
अर्न्तवेदनके साथ मिलाकर इस टीकामें स्पष्टरूपसे प्रगट किया है
इस टीकामें आनेवाले
कलशरूप काव्य अत्यन्त मधुर है और अध्यात्ममस्ती तथा भक्तिरससे भरपूर हैं
अध्यात्मकविके रूपमें श्री पद्मप्रभमलधारिदेवका स्थान जैन साहित्यमें अति उच्च है टीकाकार
मुनिराजने गद्य तथा पद्यरूपमें परम पारिणामिक भावका तो खूब-खूब गान किया है संपूर्ण
टीका मानों परम पारिणामिक भावका और तदाश्रित मुनिदशाका एक महाकाव्य हो इसप्रकार
मुमुक्षु हृदयोंको मुदित करती है
परम पारिणामिकभाव, सहज सुखमय मुनिदशा और सिद्ध
जीवोंकी परमानन्दपरिणतिके प्रति भक्तिसे मुनिवरका चित्त मानों उमड़ पड़ता है और उस
उल्लासको व्यक्त करनेके लिये उनके शब्द अत्यंत अल्प होनेसे उनके मुखसे अनेक
प्रसंगोचित्त उपमा-अलंकार प्रवाहित हुए हैं
अन्य अनेक उपमाओंकी भाँतिमुक्ति दीक्षा
आदिको बारम्बार स्त्रीको उपमा भी लेशमात्र संकोच बिना निःसंकोचरूपसे दी गई है वह
आत्मलीन महामुनिवरके ब्रह्मचर्यका अतिशय बल सूचित करती है
संसार दावानलके समान
है और सिद्धदशा तथा मुनिदशापरम सहजानन्दमय हैऐसे भावके धारावाही वातावरण
सम्पूर्ण टीकामें ब्रह्मनिष्ठ मुनिवरने अलौकिक रीतिसे उत्पन्न किया है और स्पष्टरूपसे दर्शाया

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है कि मुनियोंकी व्रत, नियम, तप, ब्रह्मचर्य, त्याग, परिषहजय इत्यादिरूप कोई भी परिणति
हठपूर्वक, खेदयुक्त, कष्टप्रद या नरकादिके भयमूलक नहीं होती, किन्तु अन्तरंग आत्मिक
वेदनसे होनेवाली परम परितृप्तिके कारण निरन्तर सहजानन्दमय होती है
कि जिस सहजानंदके
पास संसारियोंके कनककामिनीजनित कल्पित सुख केवल उपहासपात्र और घोर दुःखमय
भासित होते हैं
सचमुच मूर्तिमंत मुनिपरिणति समान यह टीका मोक्षमार्गमें विचरनेवाले
मुनिवरोंकी सहजानन्दमय परिणतिका तादृश चित्रण करती है इस कालमें ऐसी यथार्थ
आनंदनिर्भर मोक्षमार्गकी प्रकाशक टीका मुमुक्षुओंको अर्पित करके टीकाकार मुनिवरने महान
उपकार किया है
श्री नियमसारमें भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवने १८७ गाथाएँ प्राकृतमें रची हैं, उन पर श्री
पद्मप्रभमलधारिदेवने तात्पर्यवृत्ति नामक संस्कृत टीका लिखी है ब्रह्मचारी श्री शीतलप्रसादजीने
मूल गाथाओंका तथा टीकाका हिन्दी अनुवाद किया है वि० सम्वत् १९७२में श्री
जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालयकी ओरसे प्रकाशित हिन्दी नियमसारमें मूल गाथाएँ, संस्कृत टीका
तथा ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी कृत हिन्दी अनुवाद प्रगट हुए थे
अब श्री जैन स्वाध्यायमंदिर
ट्रस्ट, सोनगढ़ (सौराष्ट्र)से यह ग्रन्थ गुजरातीमें प्रकाशित हुआ है जिसमें मूल गाथाएँ, उनका
गुजराती पद्यानुवाद, संस्कृत टीका और उस गाथा-टीकाके अक्षरशः गुजराती अनुवादका
समावेश होता है
जहाँ, विशेष स्पष्टताकी आवश्यकता थी वहाँ‘कौन्स’में अथवा ‘फू टनोट’
(टिप्पणी) द्वारा स्पष्टता की गई है श्री जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय द्वारा प्रकाशित नियमसारमें
छपी हुई संस्कृत टीकामें जो अशुद्धियाँ थीं उनमेंसे अनेक अशुद्धियाँ हस्तलिखित प्रतियोंके
आधार पर सुधार ली गई हैं
अब भी इसमें कहीं-कहीं अशुद्ध पाठ हो ऐसा लगता है, किन्तु
हमें जो तीन हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं उनमें शुद्ध पाठ न मिलनेके कारण उन अशुद्धियोंको
नहीं सुधारा जा सका है
अशुद्ध पाठोंका अनुवाद करनेमें बड़ी सावधानी रखी गई है और
पूर्वापर कथन तथा न्यायके साथ जो अधिकसे अधिक संगत हो ऐसा उन पाठोंका अनुवाद
किया है
यह अनुवाद करनेका महान सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ वह मेरे लिये हर्षका कारण है
परम पूज्य सद्गुरुदेवके आश्रयमें इस गहन शास्त्रका अनुवाद हुआ है परमोपकारी
सद्गुरुदेवके पवित्र जीवनके प्रत्यक्ष परिचय बिना तथा उनके आध्यात्मिक उपदेश बिना इस
पामरको जिनवाणीके प्रति लेशमात्र भक्ति या श्रद्धा कहाँसे प्रगट होती, भगवान
कुन्दकुन्दाचार्यदेव और उनके शास्त्रोंकी लेश भी महिमा कहाँसे आती तथा उन शास्त्रोंका अर्थ
खोलनेकी लेश भी शक्ति कहाँसे प्राप्त होती ? इस प्रकार अनुवादकी समस्त शक्तिका मूल
श्री सद्गुरुदेव ही होनेसे वास्तवमें तो सद्गुरुदेवकी अमृतवाणीका स्रोत ही
उनके द्वारा प्राप्त

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हुआ अमूल्य उपदेश हीयथाकाल इस अनुवादके रूपमें परिणमित हुआ है जिनके द्वारा
सिंचित शक्तिसे तथा जिनकी उष्मासे मैंने इस गहनशास्त्रको अनूदित करनेका साहस किया
था और जिनकी कृपासे वह निर्विघ्न समाप्त हुआ है उन पूज्य परमोपकारी सद्गुरुदेव (श्री
कानजीस्वामी)के चरणारविन्दमें अत्यंत भक्तिभावसे वंदन करता हूँ
परमपूज्य बहिन श्री चम्पाबहिन प्रति भी इस अनुवादकी पूर्णाहूति करते हुए,
उपकारवशताकी उग्र भावनाका अनुभव हो रहा है जिनके पवित्र जीवन और बोध इस
पामरको श्री नियमसारके प्रति, नियमसारके महान् कर्त्ताके प्रति और नियमसारमें उपदेशित
वीतरागविज्ञानके प्रति बहुमानवृद्धिके विशिष्ट निमित्त हुए हैं, ऐसी उन परमपूज्य बहिनश्रीके
चरणकमलमें यह हृदय नमन करता है
इस अनुवादमें अनेक सज्जनोंने हार्दिक सहायता की है माननीय श्री वकील
रामजीभाई माणेकचंद दोशीने अपने व्यस्त धार्मिक व्यवसायोंमेंसे समय निकालकर सम्पूर्ण
अनुवादका सूक्ष्मतासे अवलोकन करके यथोचित सूचनाएँ दी हैं और अनुवादमें आनेवाली
छोटी
बड़ी कठिनाइयोंका अपने विशाल शास्त्रज्ञानसे निराकरण कर दिया है भाई श्री
खीमचंद जेठालाल सेठने भी अनुवादका अधिकांश बड़ी तत्परतासे जांच लिया है और अपने
संस्कृत भाषाके तथा शास्त्रज्ञानके आधार पर उपयोगी सूचनाएँ दी हैं
बालब्रह्मचारी भाई श्री
चन्दुलाल खीमचंद झोबालियाने भी सम्पूर्ण अनुवाद अति सूक्ष्मतासे देखकर बड़ी उपयोगी
सूचनाएँ दी हैं; हस्तलिखित प्रतियोंके आधारसे संस्कृत टीका सुधार दी है; शुद्धिपत्र,
अनुक्रमणिका, गाथासूची, कलशसूची आदि तैयार किये हैं
तथा प्रूफ संशोधन किया है;
इस प्रकार उन्होंने बड़े परिश्रम और सावधानीपूर्वक सर्वतोमुखी सहायता दी है किशनगढ़-
निवासी श्री पं० महेन्द्रकुमारजी पाटनीने संस्कृत टीकामें आनेवाले श्लोकोंके छन्दोंके नाम
लिख भेजे हैं
इन सब महानुभावोंका मैं अन्तःकरणपूर्वक आभार मानता हूँ इनकी हार्दिक
सहायताके बिना इस अनुवादमें अनेक न्यूनताएँ रह जातीं इनके अतिरिक्त अन्य जिन-जिन
भाईयोंने इस कार्यमें सहायता दी है उन सभीका मैं ऋणी हूँ
यह अनुवाद मैंने नियमसारके प्रति अपनी भक्तिसे तथा गुरुदेवकी प्रेरणासे प्रेरित
होकर, निजकल्याणके हेतु, भवभयसे डरते-डरते किया है अनुवाद करते हुए मैंने इस बातकी
यथाशक्ति सावधानी रखी है कि शास्त्रके मूल आशयोंमें कहीं फे रफार न हो जाये तथापि
अल्पज्ञताके कारण किंचित् भी आशय-परिवर्तन हुआ हो अथवा कोई त्रुटयाँ रह गई हों तो
उसके लिये मैं शास्त्रकार श्री कुन्दकुन्दाचार्यभगवान, टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारिदेव,
परमकृपालु श्री सद्गुरुदेव और मुमुक्षु पाठकोंसे हार्दिक क्षमायाचना करता हूँ
यह अनुवाद भव्य जीवोंको शाश्वत परमानन्दकी प्राप्ति कराये, ऐसी हार्दिक भावना है

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जो जीव इस परमेश्वर परमागममें कहे हुए भावोंको हृदयंगम करेंगे वे अवश्य ही सुखधाम
कारण परमात्माका निर्णय और अनुभव करके, उसमें परिपूर्ण लीनता पाकर, शाश्वत
परमानन्ददशाको प्राप्त करेंगे
जबतक वे भाव हृदयंगत न हों तब तक आत्मानुभवी महात्माके
आश्रय-पूर्वक तत्सबन्धी सूक्ष्म विचार, गहरा अन्तर्शोधन कर्त्तव्य है जबतक परद्रव्योंसे अपना
सर्वथा भिन्नत्व भासित न हो और अपनी क्षणिक पर्यायोंसे दृष्टि हटकर एकरूप
कारणपरमात्माका दर्शन न हो तबतक चैन लेना योग्य नहीं है
यही परमानन्दप्राप्तिका उपाय
है टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभदेवके शब्दोंमें इस परमपवित्र परमागमके फलका वर्णन
करके यह उपोद्घात पूर्ण करता हूँ :‘‘जो निर्वाणसुन्दरीसे उत्पन्न होनेवाले, परम
वीतरागात्मक, निराबाध, निरन्तर एवं अनंग परमानन्दका देनेवाला है, जो निरतिशय नित्यशुद्ध,
निरंजन निज कारणपरमात्माकी भावनाका कारण है, जो समस्त नयोंके समूहसे सुशोभित है,
जो पंचमगतिके हेतुभूत है तथा जो पाँच इन्द्रियोंके विस्तार रहित देहमात्र
परिग्रहधारी द्वारा रचित
हैऐसे इस भागवत शास्त्रको जो निश्चयनय और व्यवहारनयके अविरोधसे जानते हैं, वे
महापुरुषसमस्त अध्यात्मशास्त्रोंके हृदयको जाननेवाले और परमानन्दरूप वीतरागसुखके
अभिलाषीबाह्यअभ्यंतर चौवीस परिग्रहोंके प्रपंचका परित्याग करके, त्रिकालनिरुपाधि
स्वरूपमें लीन निज कारणपरमात्माके स्वरूपके श्रद्धानज्ञानआचरणात्मक भेदोपचार
कल्पनासे निरपेक्ष ऐसे स्वस्थ रत्नत्रयमें परायण वर्तते हुए, शब्दब्रह्मके फलरूप शाश्वत सुखके
भोक्ता होते हैं
श्रावण कृष्णा प्रतिपदा,
विक्रम सम्वत् २००७
हिम्मतलाल जेठालाल शाह

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भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवके सम्बन्धमें
उल्लेख
वन्द्यो विभुर्भ्भुवि न कै रिह कौण्डकुन्दः
कु न्द-प्रभा-प्रणयि-कीर्ति-विभूषिताशः
यश्चारु-चारण-कराम्बुजचञ्चरीक -
श्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम्
।।
[चन्द्रगिरि पर्वतका शिलालेख ]
अर्थ :कुन्दपुष्पकी प्रभा धारण करनेवाली जिनकी कीर्ति द्वारा दिशाएँ
विभूषित हुई हैं, जो चारणोंकेचारणऋद्धिधारी महामुनियोंकेसुन्दर
हस्तकमलोंके भ्रमर थे और जिन पवित्रात्माने भरतक्षेत्रमें श्रुतकी प्रतिष्ठा की है,
वे विभु कुन्दकुन्द इस पृथ्वी पर किससे वन्द्य नहीं हैं ?
........कोण्डकु न्दो यतीन्द्रः ।।
रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्त-
र्बाह्येपि संव्यञ्जयितुं यतीशः
रजःपदं भूमितलं विहाय
चचार मन्ये चतुरङ्गुलं सः
।।
[विंध्यगिरिशिलालेख ]
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अर्थ :यतीश्वर (श्री कुन्दकुन्दस्वामी) रजःस्थानकोभूमितलको
छोड़कर चार अंगुल ऊ पर आकाशमें गमन करते थे उसके द्वारा मैं ऐसा समझता
हूँ कि
वे अन्तरमें तथा बाह्यमें रजसे (अपनी) अत्यन्त अस्पृष्टता व्यक्त करते
थे (अन्तरमें वे रागादिक मलसे अस्पृष्ट थे और बाह्यमें धूलसे अस्पृष्ट थे)
जइ पउमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण
ण विबोहइ तो समणा क हं सुमग्गं पयाणंति ।।
[दर्शनसार]
अर्थ :(महाविदेहक्षेत्रके वर्तमान तीर्थंकरदेव) श्री सीमन्धरस्वामीसे
प्राप्त हुए दिव्य ज्ञान द्वारा श्री पद्मनन्दिनाथने (श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवने) बोध न दिया
होता तो मुनिजन सच्चे मार्गको कैसे जानते ?
हे कुन्दकुन्दादि आचार्यों ! आपके वचन भी स्वरूपानुसन्धानमें इस
पामरको परम उपकारभूत हुए हैं उसके लिये मैं आपको अत्यन्त भक्तिपूर्वक
नमस्कार करता हूँ
[श्रीमद् राजचन्द्र ]]
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