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ट्रस्ट हस्ते स्व. श्री शान्तिलाल रतिलाल शाहकी ओरसे ५०
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ज्ञानी सुकानी मळ्या विना ए नाव पण तारे नहीं;
आ काळमां शुद्धात्मज्ञानी सुकानी बहु बहु दोह्यलो,
मुज पुण्यराशि फळ्यो अहो ! गुरुक् हान तुं नाविक मळ्यो.
बाह्यांतर विभवो तारा, तारे नाव मुमुक्षुनां.
निजालंबीभावे परिणति स्वरूपे जई भळे,
निमित्तो वहेवारो चिदघन विषे कांई न मळे.
जे वज्रे सुमुमुक्षु सत्त्व झळके ; परद्रव्य नातो तूटे;
क रुणा अकारण समुद्र ! तने नमुं हुं;
हे ज्ञानपोषक सुमेघ ! तने नमुं हुं,
आ दासना जीवनशिल्पी ! तने नमुं हुं.
वाणी चिन्मूर्ति ! तारी उर-अनुभवना सूक्ष्म भावे भरेली;
भावो ऊंडा विचारी, अभिनव महिमा चित्तमां लावी लावी,
खोयेलुं रत्न पामुं,
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शुद्धात्मानुभूतिप्रधान परमपावन अध्यात्मप्रवाहको झेलकर, तथा जम्बू-पूर्वविदेहक्षेत्रस्थ
जीवन्तस्वामी श्री सीमन्धर जिनवरकी प्रत्यक्ष वन्दना एवं देशनाश्रवणसे पुष्ट कर, उसे
श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवने समयसार, नियमसार आदि परमागमरूप भाजनोंमें संग्रहीत कर
अध्यात्मतत्त्वरसिक जगत पर महान उपकार किया है
अष्टप्राभृत
कृत गुजराती अनुवादके हिन्दी रूपान्तरका यह षष्ठ संस्करण अध्यात्मविद्याप्रेमी जिज्ञासुओंके
हाथमें प्रस्तुत करते हुए आनन्द अनुभूत होता है
कानजीस्वामीको है
हो जाये तो जिज्ञासुओंको बहुत लाभ हों ऐसी उनके हृदयमें भावना जगी
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गद्यपद्यानुवाद करनेकी कृपाभीनी प्रेरणा दी
कार्य सुचारुतया सम्पन्न किया
उसके परमपारिणामिकभावप्रधान गहन रहस्योंका उद्घाटन किया
राजस्थान)ने संपन्न किया है
साराभाई शाह, ब्र. व्रजलालभाई शाह (वढ़वाण) तथा श्री अनंतराय व्रजलाल शाह
(जलगांव) और सुन्दर मुद्रणकार्य ‘कहान मुद्रणालय’के मालिक श्री ज्ञानचंदजी जैन एवं
उनके सुपुत्र चि० निलयने किया है
पूज्य बहिनश्रीका ९६वाँ
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दिव्यध्वनि द्वारा प्रगट कर रहे थे
रचना हुई
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इस प्रकार द्वितीय श्रुतस्कंधकी उत्पत्ति हुई
कुन्दकुन्दाचार्यका स्थान आता है
वह कथन निर्विवाद सिद्ध होता है
है
पद्मनन्दिनाथने (-कुन्दकुन्दाचार्यदेवने) स्वयं प्राप्त किये हुए ज्ञान द्वारा बोध न दिया होता तो
मुनिजन सच्चे मार्गको कैसे जानते ?’’ हम दूसरा भी एक उल्लेख देखें, जिसमें
कुन्दकुन्दाचार्यदेवको कलिकालसर्वज्ञ कहा गया है :
वन्दना की थी और उनसे प्राप्त हुए श्रुतज्ञान द्वारा जिन्होंने भारतवर्षके भव्य जीवोंको प्रतिबोध
दिया है ऐसे श्री जिनचन्द्रसूरिभट्टारकके पट्टके आभरणरूप कलिकालसर्वज्ञ (भगवान
कुन्दकुन्दाचार्यदेव) उनके रचे हुए इस षट्प्राभृत ग्रथमें....सूरीश्वर श्री श्रुतसागर द्वारा रचित
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शास्त्रोंका सार आ जाता है
तथा चरणानुयोगके तीन अधिकारोंमें विभाजित किया है
शुद्धभाव, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना, प्रायश्चित्त, समाधि, भक्ति, आवश्यक, शुद्धोपयोग
आदिका वर्णन है
जानते
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एक क्षणमात्र भी नहीं की और इसलिए सुख प्राप्तिके उसके सर्व हापटें
उसका सार इस प्रकार है :
करने पर जीवको देशचारित्र, सकलचारित्र आदि दशाएँ प्रगट होती है और पूर्ण आश्रय होने
पर केवलज्ञान तथा सिद्धत्व प्राप्त करके जीव सर्वथा कृतार्थ होता है
प्रत्याख्यान, आलोचना, प्रायश्चित्त, सामायिक, भक्ति, आवश्यक, समिति, गुप्ति, संयम, तप,
संवर, निर्जरा, धर्म
देता है
भाव उसे मात्र परिभ्रमणका ही कारण हुए हैं क्योंकि परमात्मतत्त्वके आश्रय बिना आत्माका
स्वभावपरिणमन अंशतः भी न होनेसे उसी मोक्षमार्गकी प्राप्ति अंशमात्र भी नहीं होती
प्रति उन्मुखता, परमात्मतत्त्वकी उपलब्धि, परमात्मतत्त्वकी भावना, परमात्मतत्त्वका ध्यान आदि शब्दोंसे कहा
जाता है
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कृतक औपाधिक हिलोरें
औपाधिक हिलोरें क्रमशः शान्त होती जाती हैं
भविष्यकालमें होंगे
व्यवहार-निश्चयनय, व्यवहारचारित्र, सम्यग्दर्शन प्राप्तिमें प्रथम तो अन्य सम्यगदृष्टि जीवकी
देशना ही निमित्त होती है (
निरूपण भी किया गया है
जीवको महान उपकारी है
नन्दनवन समान आह्लादकारी है
कि अमृत-सीकरोंसे मुमुक्षुओंके चित्तको परम शीतलीभूत करता है
आध्यात्मिक गहराईयाँ प्रगट होती जा रही हैं यह हमारा महान सौभाग्य है
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तो मुनिवरोंने अध्यात्मकी अनुभवगम्य अत्यंतात्यंत सूक्ष्म और गहन बातको इस शास्त्रमें स्पष्ट
किया है
किस प्रकार सिद्धिको प्राप्त हुए हैं उसका इतिहास इसमें भर दिया है
संशोधन-कर्त्ताओंका अनुमान है
भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवके हृदयमें भरे हुए परम गहन आध्यात्मिक भावोंको अपने
अर्न्तवेदनके साथ मिलाकर इस टीकामें स्पष्टरूपसे प्रगट किया है
मुमुक्षु हृदयोंको मुदित करती है
उल्लासको व्यक्त करनेके लिये उनके शब्द अत्यंत अल्प होनेसे उनके मुखसे अनेक
प्रसंगोचित्त उपमा-अलंकार प्रवाहित हुए हैं
आत्मलीन महामुनिवरके ब्रह्मचर्यका अतिशय बल सूचित करती है
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हठपूर्वक, खेदयुक्त, कष्टप्रद या नरकादिके भयमूलक नहीं होती, किन्तु अन्तरंग आत्मिक
वेदनसे होनेवाली परम परितृप्तिके कारण निरन्तर सहजानन्दमय होती है
भासित होते हैं
उपकार किया है
तथा ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी कृत हिन्दी अनुवाद प्रगट हुए थे
गुजराती पद्यानुवाद, संस्कृत टीका और उस गाथा-टीकाके अक्षरशः गुजराती अनुवादका
समावेश होता है
आधार पर सुधार ली गई हैं
नहीं सुधारा जा सका है
किया है
पामरको जिनवाणीके प्रति लेशमात्र भक्ति या श्रद्धा कहाँसे प्रगट होती, भगवान
कुन्दकुन्दाचार्यदेव और उनके शास्त्रोंकी लेश भी महिमा कहाँसे आती तथा उन शास्त्रोंका अर्थ
खोलनेकी लेश भी शक्ति कहाँसे प्राप्त होती ? इस प्रकार अनुवादकी समस्त शक्तिका मूल
श्री सद्गुरुदेव ही होनेसे वास्तवमें तो सद्गुरुदेवकी अमृतवाणीका स्रोत ही
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था और जिनकी कृपासे वह निर्विघ्न समाप्त हुआ है उन पूज्य परमोपकारी सद्गुरुदेव (श्री
कानजीस्वामी)के चरणारविन्दमें अत्यंत भक्तिभावसे वंदन करता हूँ
वीतरागविज्ञानके प्रति बहुमानवृद्धिके विशिष्ट निमित्त हुए हैं, ऐसी उन परमपूज्य बहिनश्रीके
चरणकमलमें यह हृदय नमन करता है
अनुवादका सूक्ष्मतासे अवलोकन करके यथोचित सूचनाएँ दी हैं और अनुवादमें आनेवाली
छोटी
संस्कृत भाषाके तथा शास्त्रज्ञानके आधार पर उपयोगी सूचनाएँ दी हैं
सूचनाएँ दी हैं; हस्तलिखित प्रतियोंके आधारसे संस्कृत टीका सुधार दी है; शुद्धिपत्र,
अनुक्रमणिका, गाथासूची, कलशसूची आदि तैयार किये हैं
लिख भेजे हैं
उसके लिये मैं शास्त्रकार श्री कुन्दकुन्दाचार्यभगवान, टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारिदेव,
परमकृपालु श्री सद्गुरुदेव और मुमुक्षु पाठकोंसे हार्दिक क्षमायाचना करता हूँ
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कारण परमात्माका निर्णय और अनुभव करके, उसमें परिपूर्ण लीनता पाकर, शाश्वत
परमानन्ददशाको प्राप्त करेंगे
कारणपरमात्माका दर्शन न हो तबतक चैन लेना योग्य नहीं है
निरंजन निज कारणपरमात्माकी भावनाका कारण है, जो समस्त नयोंके समूहसे सुशोभित है,
जो पंचमगतिके हेतुभूत है तथा जो पाँच इन्द्रियोंके विस्तार रहित देहमात्र
भोक्ता होते हैं
विक्रम सम्वत् २००७
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कु न्द-प्रभा-प्रणयि-कीर्ति-विभूषिताशः
श्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम्
वे विभु कुन्दकुन्द इस पृथ्वी पर किससे वन्द्य नहीं हैं ?
र्बाह्येपि संव्यञ्जयितुं यतीशः
चचार मन्ये चतुरङ्गुलं सः
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हूँ कि
होता तो मुनिजन सच्चे मार्गको कैसे जानते ?