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समाधानः- ... सब वह करनेका है। उसीके लिये यह सब तत्त्वविचार, वांचन, स्वाध्याय एक चैतन्यतत्त्व पहिचाननेके लिये (है)। गुरुदेवने वही कहा है। सबका सार एक ही है कि चैतन्यतत्त्व पहिचानना। उसकी परिणति, उसकी स्वानुभूति प्रगट करनी वही एक, सर्वस्व सार एक है। जीवनकी सफलता उसमें है। उसकी भावना, उसकी महिमा, उसका विचार, उसका निर्णय, उसकी परिणति, जो पुरुषार्थ हो वह उसीके लिये करने जैसा है।
मुमुक्षुः- ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक। उसमें अधोलोकमें जिन मन्दिरकी संख्या ज्यादा है। वहाँ ऐसे परिणाम...?
समाधानः- कुदरती शाश्वत प्रतिमाएँ हैं।
मुमुक्षुः- वहाँ ज्यादा है। .. पाताललोकमें।
समाधानः- असंख्यात जिनमन्दिर हैं। व्यंतरलोक, भवनपति, ज्योतिष उन सबमें शाश्वत जिन मन्दिर हैं। कुदरती शाश्वत हैं। देवलोकके देवोंके निवासमें हैं। अधोलोक यानी जहाँ देव बसते हैं, ज्योतिष, व्यंतर, भवनपति। वैमानिकमें तो हैं ही। वहाँ सब जगह हैं। मनुष्यलोकमें है, सब जगह हैं, शाश्वत प्रतिमाएँ।
मुमुक्षुः- माताजी! आत्माको जो पकडनेका है, वह तो उघाड तो ज्ञानका क्षयोपशम अंश है वह उघाडरूप अंश है, उसीमें पूरा आत्मा पकडमें आता है? उघाड अंशमें ही? दूसरा कोई साधन तो है नहीं। अज्ञानीके पास दूसरा कोई साधन है नहीं।
समाधानः- अंतरकी स्वयंकी जो रुचि है वह स्वयंको ग्रहण करती है। यही करने जैसा है, मैं कैसे आत्माको खोजू? अपनी खोजनेकी भावना है, और अन्दरकी जो महिमा, चटपटी लगे वही अपने ज्ञायकको, वह भले ही क्षयोपशमका अंश है, परन्तु वह आत्माको ग्रहण कर लेता है। वह भले पर्याय है, लेकिन ग्रहण द्रव्यको करना है। द्रव्यको ग्रहण करती है। उसकी दृष्टि पूरे द्रव्य पर जाती है। वह क्षयोपशम भले थोडा हो, लेकिन वह मुख्य प्रयोजनभूत तत्त्वको ग्रहण कर सकता है। उसकी ओर रुचि और लगन हो तो ग्रहण हो सकता है। विभावसे भिन्न होकर चैतन्यको ग्रहण कर लेता है।
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शास्त्रमें आता है न? उतना कल्याण, सत्यार्थ कल्याण एक ही कि जो यह ज्ञानस्वरूप आत्मा है, ज्ञायक आत्मा है। उसमें संतुष्ट हो, उसीमें तृप्त हो, वही करनेका है। उसीमें सब सर्वस्व है। वह ग्रहण होता है। भले पर्याय है, परन्तु अखण्डको ग्रहण कर लेती है।
मुमुक्षुः- जी हाँ, उसमें ताकत है।
समाधानः- उसमें ग्रहण करनेकी ताकत है।
मुमुक्षुः- अंश है लेकिन स्वभावका है।
समाधानः- अपने ज्ञानका अंश है, वह द्रव्यको ग्रहण करता है। उसकी दिशा अपनी ओर जाय, दृष्टि अपनी ओर जाय तो ग्रहण करता है। उपयोग बाहर हो वह ग्रहण नहीं करता। अपने स्वभावकी ओर जाय तो स्वभावको ग्रहण करता है।
मुमुक्षुः- स्वास्थ्य कैसा रहता है? माताजी!
समाधानः- गुरुदेवने बहुत प्रभावना की है। अपने तो उनके पास समझे हैं।
मुमुक्षुः- गुरुदेव यहाँ आये कि नहीं? माताजी! आप तो उनके अनन्य भक्त हैं।
समाधानः- वर्तमानमें साक्षात कोई नहीं आ सकता। स्वप्न आये वह तो आते हैं।
मुमुक्षुः- देव हैं, माताजी! आ नहीं सकते?
समाधानः- इस पंचमकालमें देव कहाँ अभी आते हैं? साक्षात देव आते नहीं।
मुमुक्षुः- ये तो उनकी तपोभूमि है न।
समाधानः- आये तो किसीकी देखनेकी शक्ति कहाँ है? देवोंको देखनेकी अभी के मनुष्योंकी शक्ति कहाँ है?
मुमुक्षुः- हम तो आपके लिये कहते हैं।
समाधानः- आनेका विचार आये तो कोई देख सके ऐसा कहाँ है? कोई हिन्दी आकर ऐसा कहते हैं, मानों गुरुदेव प्रवचन देने आते हों, फिर चले जाते हैं, ऐसा लगता है। ऐसा कहते हैं।
मुमुक्षुः- मेरी भावनाका घोटन चल रहा था कि माताजीके पास जाकर ... माँगुंगी।
समाधानः- बडे हो गये हैं। जीवनमें ध्येय तो वही है। गुरुदेवने कहा वह। बाहरका तो सब होता है, सब चलता रहता है। बाकी अन्दर लक्ष्य तो एक चैतन्यका करने जैसा है। जीवनका ध्येय तो वही करनेका है। आत्माको पहिचानना वही करनेका है। भवभ्रमणका अभाव कैसे हो? और शुद्धात्माकी प्राप्ति कैसे हो? वह करनेका है।
मुमुक्षुः- सोनगढमें रहने पर भी प्रवृत्ति इतनी रहती हैं कि उसमें हमें किस प्रकारकी जागृति रखनी?
समाधानः- प्रवृत्ति आत्माको रोक नहीं सकती। अंतरकी परिणति स्वयंको जैसी
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करनी हो वैसी कर सकता है। बाहरगाँव जाय तो इससे भी ज्यादा प्रवृत्ति हो जाय। यहाँ तो इसके सम्बन्धित सब होता है। बाहरगाँव तो दूसरी प्रवृत्ति हो जाती है। यहाँ तो आत्माके संस्कार दृढ कैसे हो, वैसी प्रवृत्ति होती है। इसलिये स्वयं अपने संस्कार दृढ करना वह अपने हाथकी बात है, अपने पुरुषार्थकी बात है। हो सकता है, बाहरके शुभके कार्य हों तो भी अंतरमें हो सकता है। स्वयंको जो पुरुषार्थ करना हो वह हो सकता है।
यहाँकी सब प्रवृत्ति तो शुभकी होती है। बारंबार उसके विचार, उसका घोलन, उसका सिंचन, यहाँ तो सब वही रहता है। इसलिये बारंबार उसीकी दृढता कैसे हो, (वह कर सकता है)। अंतरमें गहरी रुचि प्रगट होकर चैतन्यतत्त्व कैसे पहिचानमें आये? भवका अभाव कैसे हो? आत्माका सुख कैसे प्राप्त हो? स्वानुभूति कैसे हो? वह सब भावना अन्दर करने जैसा है। वह करनेका है।
मुमुक्षुः- करने जैसा तो लगता है, परन्तु अन्दरसे, जैसे भरत चक्रवर्तीके पुत्रोंका पुरुषार्थ कैसे फटा, वैसे हमारा पुरुषार्थ आपकी वाणीसे एकदम जल्दी जागृत हो जाय...?
समाधानः- पुरुषार्थ तो स्वयंको करनेका है। भरत चक्रवर्तीके पुत्रोंकी बात करते हैं। करनेका स्वयंको है। उन्हें पुरुषार्थ ऐसा उग्र हो गया तो हो गया। अपनी उतनी कचास है कि उतनी उग्रता (नहीं है)।
मुमुक्षुः- यहाँ तो बरसोंसे रहते हैं, फिर भी उग्रता होेनेमें क्यों देर लगती है?
समाधानः- सब आत्मा स्वतंत्र हैं। चतुर्थ कालमें क्षणमें अंतर्मुहूर्तमें केवलज्ञान प्राप्त करते थे, क्षणमें मुनिपना ले ले, क्षणमें सम्यग्दर्शन प्राप्त करते थे। ऐसे सब जीव पुरुषार्थ करते थे। सम्यग्दर्शन क्षणमात्रमें हो जाता था। क्षणमात्रमें वैराग्य आ जाता, केवलज्ञान हो जाता था। भगवानकी मौजूदगी हो तो अनेक जीव एकदम जागृत हो जाते थे। परन्तु इस पंचमकालमें गुरुदेव मिले और इतने संस्कार अन्दर डले वह भी महाभाग्यकी बात है। इस पंचमकालमें यह मिलना भी दुर्लभ है।
मुमुक्षुः- दुनियामें कहीं और जगह है ही नहीं। अपने तो सीमन्धर भगवान मिले और आपका इतना योग मिला।
समाधानः- करनेका तो स्वयंको है। भेदज्ञान करना, क्षण-क्षणमें जागृति रखनी, सब अपने हाथकी बात है। शरीर भिन्न, अन्दर आत्मा भिन्न, विभाव स्वयंका स्वभाव नहीं है। उसमें उसे संतोष नहीं होता, आत्माकी प्राप्ति हो तो संतोष हो। भेदज्ञानकी धारा अन्दरसे प्रगट करनी, वह अपने पुरुषार्थकी बात है। क्षण-क्षणमें एकत्वबुद्धि हो रही है, उसे तोडनी।
प्रथम तो... भरत चक्रवर्तीके पुत्रोंको क्षणमें सम्यग्दर्शन तो हुआ था, परन्तु मुनि
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हो गये। वह बात तो अलग है। अभी तो सम्यग्दर्शन कैसे हो, वह बात है। क्षण- -क्षणमें भेदज्ञानकी तैयारी करनी। क्षण-क्षणमें भेदज्ञान कैसे प्रगट हो? क्षण-क्षणमें स्वयं आत्माको भिन्न करे, ज्ञायककी स्वानुभूति कैसे हो? स्वयंकी बात तो बादमें आती है। वह बात तो दूर है। अभी तो स्वानुभूति हो और स्वानुभूतिमें लीनता, चैतन्यमें लीनता बढते-बढते स्वानुभूतिकी विशेषता हो, वह बात तो उससे दूर है। पहले तो अन्दर भेदज्ञानकी धारा प्रगट हो वह प्रथम करनेका है। परन्तु गुरुदेवने यह मार्ग दर्शाया और उस मार्ग पर चलना हुआ, वह भी महाभाग्यकी बात है।
मुमुक्षुः- समुद्रमेेंसे किनारे पर आ गये, इतना सुन्दर योग हमारे लिये है।
समाधानः- मार्ग तो क्या है, वह गुरुदेवने इतना स्पष्ट करके कहा है कि कहीं रुकना न हो। जगतके जीव कहीं-कहीं रुके हैं। कोई कुछ क्रियामें, कोई इतना शुभभाव कर लिया उसमें धर्म मान लिया, किसीने कुछ (माना)। थोडा-थोडा करे उसमें धर्म मान लेते हैं।
गुरुदेवने तो कहा, एक ज्ञायकके अलावा कुछ (नहीं)। तू एक आत्माको ही ग्रहण कर। हर जगहसे दृष्टि उठाकर एक चैतन्य पर दृष्टि स्थापित कर। गुरुदेवने इतना स्पष्ट मार्ग करके दर्शाया है।
मुमुक्षुः- .. आप भी वैसे ही समझाते हों। आप सर्वांग सहजानन्दकी मूर्ति, जहाँसे देखो वहाँ आनन्द ही आनन्द। ऐसा आनन्द हमें कैसे जल्दी प्रगट हो, ऐसा होता है।
समाधानः- अंतरमें उतनी स्वयंको ज्ञायककी धारा प्रगट होनी चाहिये तो अंतरमेंसे आनन्द प्रगट हो। पहले तो यथार्थ प्रतीति उसकी इतनी दृढ होनी चाहिये, उतनी धारा प्रगट होनी चाहिये तो उसे आनन्द प्रगट हो।
मुमुक्षुः- इतना आनन्दसे भरा है और उसका लक्ष्य करनेमें इतना प्रयत्न और मेहनत करनी पडे?
समाधानः- अनादिका अभ्यास बाहर चला गया है। अन्य रुचिमें अटका है, बाह्य रुचिमें, इसलिये प्रयत्न नहीं चलता है। नहीं तो अपना स्वभाव है। वह कोई दुर्लभ है। स्वभाव अपना है और बाहर भटका रहता है, इसलिये दुर्लभ हो गया है। बाहर विभावमें दौडा करता है अनादिसे, इसलिये उसे अंतरमें आना मुश्किल पडता है।
मुमुक्षुः- है सरल, फिर भी मुश्किल।
समाधानः- हाँ, मुश्किल (है)। है सहज और सुलभ है। एक बार स्वयं अपनी ओर जाय तो सहज है। फिर उसे भवभ्रमण टूटकर शुद्धात्माकी ओर ही उसकी परिणति
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सहज झुकती जाती है। लेकिन उसे प्रथम भूमिका विकट है। विभावमेंसे स्वभावमें आना उसे दुर्लभ हो पडा है। स्वभाव प्रगट होनेके बाद स्वभावमेंसे स्वभाव प्रगट होता है। पुरुषार्थ उसी ओर उसका मुडता जाता है।
समाधानः- .. जिसने जन्म धारण किया उसे आयुष्य पूरा होता है और देह ू छूट जाता है। लेकिन ऐसे गुरु मिले, उसका संस्कार लेकर जाय तो वह जीव सफल है। जीवनमें देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा और ज्ञायक आत्माको पहिचाननेका अभ्यास करना वही करने जैसा है। बाकी अनन्त जन्म-मरण किये उसमें ऐसा मार्ग बतानेवाले गुरु इस पंचमकालमें मिले।
आत्मा भिन्न है। अंतरमें स्वानुभूति हो, आत्माका आनन्द कोई अलग है, यह सब बतानेवाले गुरु मिले। उसी मार्ग पर चलने जैसा है। सत्य तो यह है। (अनन्त) जन्म-मरण किये, उसमें मनुष्यजन्म कैसे सफल हो? आत्माको अन्दरसे भिन्न करके भेदज्ञान करके उसका अभ्यास करे, वह करने जैसा है। मांजीको तो बहुत वषाका (परिचय है)। .. हो तो सही वक्तमें काम आता है।
मुमुक्षुः- आपकी तबियत?
समाधानः- ठीक है, पहलेसे ठीक है। .. उसमें इस पंचमकालमें गुरुदेव मिले। गुरुदेवने कोई मार्ग बताया। वह मार्ग अंतरमें है। बाहरमें (नहीं है)। अंतरमें मार्ग है। जिसे मोक्ष प्राप्त करना हो तो अंतरमेंसे मिलता है। बाहरसे नहीं मिलता। इसलिये अन्दर जो ज्ञायक स्वभाव है, आत्मा ज्ञायक है उसे पहिचाननेका प्रयत्न करना। उसके लिये विचार, वांचन, शास्त्र अभ्यास, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा वह सब एक आत्माको पहिचाननेके लिये है।
अनन्त कालसे बहुत जन्म-मरण हुए। उसमें जीवने सच्चा धर्म क्या, वह नहीं पहचाना है। यह सच्चा धर्म गुरुदेवने बताया। वह जीवनमें करना है। वह कैसे पहिचानमें आये? उसका अभ्यास बारंबार, बारंबार उसकी रुचि, अभ्यास, विचार, शास्त्र अभ्यास सब करनेका है। अन्दर विकल्प हो वह अपना स्वभाव नहीं है। जैसे सिद्ध भगवान हैं, वैसा आत्माका स्वरूप है।
जैसे सिद्ध भगवान हैं, अकेले चैतन्य आत्मस्वभावमें विराजते हैं, वैसा स्वभाव स्वयंको कैसे प्रगट हो? ऐसी महिमा, ऐसी रुचि अंतरमें करने जैसी है। आत्मा अन्दरसे भिन्न पडकर अपनी निर्विकल्प स्वानुभूतिको कैसे प्राप्त करे, वह प्रगट करने जैसा है। अपना स्वभाव अपनेमें-से प्रगट होता है, बाहरसे कहींसे नहीं आता। अंतरमें-से ही स्वयं ही स्वयंको खोज लेना है और वही जीवनमें करना है। सचमूच तो वह करनेका है।
... अन्दरसे रुचि रखनी है और बाह्य साधन,.. क्षेत्र कितना दूर... ये तो जोरावरनगर
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है न? उनका व्याख्यान.. उनकी वाणी...
मुमुक्षुः- उनकी वाणी बहुत अच्छी लगती थी।
समाधानः- उनकी वाणी कोई अलग ही थी। आत्माको बतानेवाली वाणी थी। वाणी तो चैतन्यका स्वरूप बताती थी। अंतरमेंसे कुछ अलग ही कहते थे। वे बोले उतनेमें तो लोग थँभ जाते थे। करनेका वही है। आत्मो कोई अलग ही पदार्थ है। गुरुदेवने बताया है।
पदार्थ कोई अपूर्व है। जगतमें सब जाना वह सब निष्फल है। प्रयोजनभूत एक आत्मा है। जगतमें सारभूत हो तो एक आत्मा ही सारभूत है। देवलोकका भव भी अनन्त बार मिला। परन्तु एक चैतन्य पदार्थ जीवने जाना नहीं। वह यथार्थ प्रयोजनभूत है। उसका विचार करने जैसा है, वह पढने जैसा है, वह सब करने जैसा है। उसकी महिमा करने जैसी है।
... करके उसका अभ्यास किया। गुरुदेवने कहा वह किया तो वह कुछ जीवनमें सफल है। बाकी सब तो जगतमें चलते रहता है। एक देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, तत्त्वका विचार, वांचन, ज्ञायक कैसे पहिचानमें आये, वह सब। उसका भेदज्ञान वह सब करनेका प्रयास करे तो कुछ तो जीवनमें (सफलता है), यथार्थ तो बादमें प्रगट होता है। परन्तु पहले उसकी रुचि और अभ्यास करे तो भी सफल है।
मुमुक्षुः- .. कैसे करना?
समाधानः- प्रथम तो ऐसा है कि ज्ञान यथार्थ करना पडे। मार्गको यथार्थरूपसे पहिचानना पडे। तो साक्षात्कार हो। जो वस्तुका स्वभाव है, उस स्वभावको यदि बराबर पहिचाने तो उस स्वभावमेंसे आत्माकी जो निर्मलताकी प्राप्ति हो वह स्वभावको पहिचानकर होती है। ऐसे ही, स्वभावको पहिचाने बिना ऐसे ही ध्यान करे तो ध्यान कहाँ करना और कहाँ खडा रहना? इसलिये सर्व प्रथम स्वभावको पहिचानना कि आत्मा कौन है? उसका स्वभाव क्या है? ये बाहर शरीर तो परद्रव्य है। अन्दर विभाव, विकल्प होते हैं, वह विकल्प भी आत्माका स्वभाव नहीं है। आत्माका स्वभाव, जैसे सिद्ध भगवान हैं ऐसा आत्माका स्वभाव है। इसलिये स्वभावको पहिचानना।
आत्मा जाननेवाला ज्ञायक है। जो ज्ञान है उसीमेंसे ज्ञान प्रगट होता है। जिसका जो स्वभाव हो, उसमेंसे प्रगट होता है। विभावमेंसे स्वभाव नहीं आता, स्वभावमेंसे स्वभाव आता है। इसलिये स्वभावको पहिचानना। इसलिये स्वभावको पहिचानना। ज्ञानस्वरूप आत्मा है उसे बराबर पहिचानना। वह द्रव्य कौन है? उसके गुण क्या है? उसकी पर्याय क्या है? पहले यथार्थ ज्ञान करना। उसका प्रयोजनभूत ज्ञान तो पहले करना पडे। भले ज्यादा शास्त्र न जाने, लेकिन मूल वस्तु-द्रव्य क्या है? मैं कौन हूँ? मेरा
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क्या स्वभाव है? उसको पहिचानना। उसे पहिचानकर उसकी यथार्थ प्रतीत करनी। उसकी यथार्थ श्रद्धा (करनी)। ऐसी श्रद्धा हो कि ब्रह्माण फिरे तो भी उसकी श्रद्धा न फिरे, उतनी दृढ श्रद्धा होनी चाहिये। फिर उसमें लीनता करे तो साक्षात्कार हो। तो विकल्प टूटे और तो उसे निर्विकल्प दशा, साक्षात्कार हो।
अन्दर आत्मामें अपूर्व आनन्द भरा है। आत्मा अनुपम स्वरूप है। परन्तु उसे पहिचाने और उसमें लीनता करे तो हो। यथार्थ ज्ञानके बिना यथार्थ ध्यान हो नहीं सकता। इसलिये पहले यथार्थ ज्ञान करके फिर उसका ध्यान होता है।
मुमुक्षुः- यथार्थ ज्ञान कैसे प्राप्त करना?
समाधानः- यथार्थ ज्ञान, जो महापुरुष, सत्पुरुष कहते हैं वह मार्ग क्या है? मार्ग दर्शाते हैं। सत्पुरुषोंकी वाणी सुननी। उसमें क्या रहस्य भरा है, उसका विचार करना। तो यथार्थ ज्ञान हो। शास्त्रोंमें क्या आता है? गुरुदेव विराजते थे। उनके कोई अपूर्व वाक्य, अपूर्व आत्माका स्वरूप बताते थे। उसका विचार करना। पहले वस्तु क्या है, उसका विचार करना। तत्त्व चिंतवन करना, आत्माकी महिमा करनी। बाहरकी महिमा कम हो जाय और अंतर आत्माकी यदि महिमा आये तो उस ओर जीवका झुकाव होता है। बाहर कहीं-कहीं अटक जाय तो वैसे आत्म साक्षात्कार हो नहीं सकता।
अंतर आत्माकी रुचि लगे, उसीकी लगन लगे, बारंबार उसीका मनन, उसकी लगन, उसका विचार (करे) तो आत्म साक्षात्कार हो। क्षण-क्षणमें यह मेरा स्वरूप नहीं है, मैं तो ज्ञायक हूँ। मैं तो चैतन्य हूँ। ऐसे बारंबार उसकी परिणति होनी चाहिये, बारंबार। जो सत्पुरुष कहते हैं, उसका बारंबार विचार करना।
मुमुक्षुः- क्योंकि हमारी भगवत गीतामें कहा है कि आत्मा ... घात नहीं होता। आत्मा शरीर नहीं है, मन नहीं है, बुद्धि नहीं है। भिन्न-भिन्न नेति.. नेति करके जो समझाया है, ऐसे आत्मके स्वरूप पर्यंत पहुँच सकते हैं?
समाधानः- पहुँच सकता है, आत्माके स्वरूप तक पहुँच सकता है। परन्तु पहले उसका विचार करे, यथार्थ निर्णय करे, बादमें उसमें उसकी यथार्थ एकाग्रता (होती है)।
मुमुक्षुः- वांचनसे निर्णय हो सकता है?
समाधानः- वांचनके साथ विचार करना।
मुमुक्षुः- स्वयं विचार करना?
समाधानः- हाँ, स्वयं विचार करना। जब तक स्वयं यथार्थ समझे नहीं, तब तक सत्पुरुष क्या कहते हैं, उसका वांचन करे। परन्तु विचार स्वयंको करना है। निर्णय स्वयंको करना पडता है। स्वयं यथार्थ निर्णय करना कि स्वभावमेंसे ही स्वभाव प्रगट होता है। जो जिसका स्वभाव है, उसीमेंसे वह प्रगट होता है। उसका जैसा बीज हो
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उसमेंसे वृक्ष होता है। जिस जातका बीज, वैसा वृक्ष होता है। आमके बीजमें-से आमका वृक्ष होता है। अँकुडेके बीजमेंसे अँकुडा ही होता है। वैसे आत्माका स्वभाव ऐसा है, उस स्वभावमें ज्ञान-वैराग्यका सींचन करनेसे, उसमें एकाग्रता करनेसे उसमेंसे जो गुण हैं, वह प्रगट होते हैं। आत्माका स्वरूप उसमेंसे परिणमित होता है-उसमेंसे प्रगट होता है।