Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 174.

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ट्रेक-१७४ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- .. हम आये थे, सब पूर्वजन्मकी बातें करते थे। आपको आपके पूर्वजन्मकी अनुभूति हो, ऐसे तो हमें कोई मिले ही नहीं। पाँच मिनिट ज्यादा देकर उस पर कोई प्रकाश कर सको तो.. पूर्व जन्म है, विश्वास है।

समाधानः- पूर्वजन्म तो है। यह जीव कहींसे आता तो है। कोई राजा होता है, कोई रंक होता है, कोई राजाके घर जन्म ले, कोई रंकके घर जन्म ले। उसका कोई कारण है। कुदरत ऐसी कोई अन्यायवाली नहीं होती कि किसीका राजाके घर जन्म हो, कोई रंकके घर, कोई रोगी हो, कोई निरोगी हो, ऐसे सब जो फेरफार होते हैं, उसमें साबित होता है कि यह जीव पूर्वमें था और वहाँसे आया है। इसलिये उसके पूर्वकर्मके फेरफारके कारण यह सब फेरफार हैं।

जीव पूर्वजन्ममें अनेक जातके जन्म-मरण करते-करते आया है। वह तो निश्चय है कि वह जन्म-मरण करते-करते आया है। बाकी व्यक्तिगत बात तो क्या कहनी? पूर्वमें जीव था और वहींसे आया है। पूर्व भवमें अनेक भव करते आया है। देवमें- से आये, मनुष्यमें-से आये, अनेक भवमें-से जीव आता है। जैसे उसके भाव हों, पुण्य-पापके परिणाम करे उस अनुसार आता है।

उसमें अभी यह क्षेत्र तो भरतक्षेत्रमें तो अभी थोडा धर्मका (प्रचार हुआ)। हमारे यहाँ गुरुदेव विराजते थे, उनके प्रतापसे इतना धर्मका प्रचार हो रहा है। उन्होंने सब मार्ग बताया है। बाकी महाविदेह क्षेत्र है वहाँ तो हमेशा धर्म चलता है। वहाँ तो साक्षात भगवान विराजते हैं। इस जगतके ऊपर महाविदेह क्षेत्र है, वहाँ साक्षात भगवान विराजते हैं, उनकी निरंतर वाणी छूटती है। वाणी सुनकर कितने ही जीव सम्यग्दर्शन, स्वानुभूति, कोई मुनिदशाको प्राप्त करते हैं।

साक्षात भगवान। एक महाविदेह क्षेत्र है, वहाँ साक्षात भगवान विराजते हैं। केवलज्ञानपने पूर्ण दशामें विराजते हैं। इस भरतक्षेत्रमें तो बहुत मुश्किल हो गया है। सन्त पुरुषोंकी दुर्लभता (हो गयी)। एक गुरुदेव इस पंचमकालमें विराजते थे, कितनोंको उनके कारण मार्ग मिला।

मुमुक्षुः- आप श्रीमद राजचन्द्र पर कुछ प्रकाश डाल सकते हो? क्योंकि उनको


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मैं गुरु मानती हूँ और मुझे उन पर बहुत प्रेम आता है।

समाधानः- हाँ, वे सम्यग्दृष्टि स्वानुभूतिको प्राप्त हुए थे। बचपनसे ही वे वैरागी थे। उनकी विचारशक्ति एकदम तीव्र थी। उनका ज्ञान कैसा था! वे गृहस्थाश्रममें रहते थे फिर भी भिन्न ही रहते थे। स्वानुभूति गृहस्थाश्रममें प्रगट हुयी थी। वे तो भिन्न रहते थे। आत्मरस चखा, हरिरस कहो, हमें कौन पहचान सकेगा? ऐसा सब लिखते हैं। आत्माकी स्वानुभूति उन्हें प्रगट हुयी थी।

मुमुक्षुः- यहाँसे महाविदेह क्षेत्रमें जा सकते हैं?

समाधानः- नहीं जा सकते। महाविदेह क्षेत्र (जानेमें) कितने पर्वत, पहाड बीचमें आते हैं। वर्तमानके जीव जा नहीं सकते।

मुमुक्षुः- इस कालमें नहीं जा सकते।

समाधानः- अभी नहीं। बहुत साल पहले एक आचार्य हुए थे-कुन्दकुन्दाचार्य। जिनके शास्त्र अभी स्वानुभूति प्रगट हो ऐसे उनके शास्त्र हैं। मूल मार्ग बताते हैं। उनके शास्त्र पर गुरुदेवने प्रवचन किये हैं। वे कुन्दकुन्दाचार्य थे वह बहुत साल पहले महाविदेहमें आचार्य गये थे। आचार्यको ध्यानके अन्दर भगवानकी वेदना हुयी कि अरे..! भगवानके दर्शन नहीं है। इसलिये कोई लब्धिसे या कोई देवोंने आकर उन्हें महाविदेह क्षेत्रमें ले गये थे। वहाँ आठ दिन रहे थे। भगवानकी वाणी सुनी, ऐसे कोई महासमर्थ मुनिश्वर हों, वे कुन्दकुन्दाचार्य थे वे जा सके थे। कितने हजार वर्ष पहले। हमने यहाँ सब पढा हुआ है।

समाधानः- .. विभावमें सुख न लगे ... आत्मामें ही सुख लगे। ये विकल्प अर्थात सब विभाव, विकल्प, संकल्प-विकल्प उसमें उसे शान्ति न लगे, उसे दुःख लगे। शान्ति न लगे। ये क्या? ये सब विभाव है वह तो आकुलतारूप और दुःखरूप ही है। दुःख लगे, शान्ति न लगे। शान्ति आत्मामें ही है। ऐसी प्रतीति हो, फिर उसमें उग्रता हो (तो स्वानुभूति होती है)। स्वयंकी रुचि हो इसलिये विभावसे वापस मुड जाता है। यह मुझे दुःख है, दुःख है, ऐसा विकल्प नहीं आये, लेकिन उसमें उसे आकुलता लगे, कहीं शान्ति न लगे। शान्ति आत्मामें है, रुचि आत्माकी ओर जाय। उसमें टिक न सके।

अपनी ओर रुचि जाय इसलिये विकल्प-ओर, विभावकी ओर, सब जातके, उसमें शान्ति तो लगे ही नहीं, अशान्ति लगे। उसका उग्र रूप हो इसलिये उसे ज्यादा लगे, इसलिये आत्माकी ओर ही उसकी परिणति दौडे। आत्माकी ओर दौडे इसलिये विकल्प छूटकर स्वयं स्वरूपमें लीन हो जाय। स्वरूपकी लीनता हो इसलिये विकल्प छूट जाय।

मार्ग तो एक ही है। शुभ परिणाम या कोई विकल्पमें उसे शान्ति या सुख न


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लगे। उसकी प्रतीत नहीं, फिर अस्थिरतामें अमुक प्रकारसे रहे, लेकिन उसकी प्रतीतमें तो ऐसा ही होता है कि यह सुख नहीं है, ये तो आकुलता है। यह मेरा स्वभाव नहीं है। प्रतीत तो ऐसी (होती है)। प्रतीतके साथ अमुक प्रकारसे उसे लगे कि यह सुख नहीं है, आकुलता है।

मुमुक्षुः- यदि ऐसा न हो तो मार्ग मिले, नहीं मिले ऐसा कोई सम्बन्ध है?

समाधानः- हाँ। उसमें उसे रुचि लगे, विभावमें अच्छा लगे तो उसे आत्मा- ओरकी रुचि नहीं है और विभावकी रुचि है। ऐसा उसका अर्थ है। जीव अनन्त कालसे कहीं न कहीं अटका है। मुनिपना लिया या कुछ भी किया, तो भी गहराईमें कहीं शुभभावमें रुचि रह जाती है। रुचि कोई शुभमें अटक जाती है। इसलिये अपनी ओर स्वयं जाता नहीं और आत्माकी निर्विकल्प दशाको प्राप्त नहीं कर सकता। वह कहीं पर अटक जाता है। गहराईमें मीठास लगती है इसलिये।

शुभभावमें, शुभके फलमें, कहीं भी अन्दर गहराईमें शुभमें रुक जाता है। उसे रुचि लगती है, उसमें अटकना ठीक लगता है। अपनी ओर जानेकी जो रुचि होनी चाहिये वह होती नहीं। मार्ग तो एक ही है। उसकी ओर रुचि लगनी ही नहीं चाहिये। फिर उग्र या मन्द वह अलग बात है, लेकिन उसकी प्रतीतमें तो ऐसा बल आ जाय कि रुचि न लगे। उसे रुचि अपनी ओर जाय।

मुमुक्षुः- चलते परिणमनमें वेदनमें दुःख लगे?

समाधानः- हाँ, उसे वेदनमें भी दुःख लगता है। प्रतीत ऐसी हुयी है, इसलिये वेदनमें अमुक प्रकारसे तो लगे। कितनी उग्रतासे लगे वह उसके पुरुषार्थकी उग्रता अनुसार (लगता है)। परन्तु अमुक प्रकारसे तो उसे लगता है। प्रतीतके साथ उसे ऐसा बल होता है कि इसमें कहीं सुख नहीं है। ऐसा तो उसे लगता है। जो शान्ति चाहिये वह इसमें कहीं नहीं है। यह सब अशान्त है। अंतरमें तो ऐसी उसे एक जातकी खटक अन्दर हो जाय कि इसमें कहीं शान्ति नहीं है, शान्ति अंतरमें है।

मुमुक्षुः- बात तो सुनते हैं, फिर भी वेदनमें दुःख नहीं लगता है, इसका क्या कारण है?

समाधानः- वेदनमें नहीं लगता है तो अभी अन्दरमें कहीं एकत्वबुद्धि है न इसलिये। एकत्वबुद्धि है इसलिये। यथार्थ प्रतीति हो तो अंतरमें उसे लगे बिना रहे नहीं। परिणति भिन्न पडकर हो तो। उसे ऊपर-ऊपरसे होता है इसीलिये वह, कुछ करुँ, कुछ यह करुँ, आत्मामेंसे कुछ प्रगट हो, ऐसा उसे ऊपर-ऊपरसे तो होता है कि ये कोई सुख नहीं है।

अंतरमेंसे जो होना चाहिये, एकत्वबुद्धि टूटकर अंतरमेंसे नहीं होता है। उसे पकडमें


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नहीं आता है कि इसमें दुःख है, कहाँ कहीं सुख है। कुछ करना तो चाहता है कि कुछ करुँ। यह कोई सुख नहीं है। ऐसा अप्रगटरूपसे तो होता है। ये कोई सुख नहीं है। कहाँ सुख है और कहाँ नहीं है, यह मालूम नहीं। परन्तु यथार्थ प्रतीति हो तो उसे अन्दर लगे बिना रहे नहीं। ये सब दुःख है और सुख अंतरमें है।

मुमुक्षुः- वैसे तो पकडमें ही नहीं आता।

समाधानः- उसे पकडमे नहीं आता। सुख प्राप्त करनेका प्रयत्न करता है। सुख यहाँसे लूँ, यहाँसे लूँ, यहाँसे लूँ। अंतरमें पकडमें नहीं आता, सुख कहाँ है और दुःख कहाँ है।

मुमुक्षुः- प्रथम भेदज्ञान देहादिसे करना या रागादिसे करना?

समाधानः- सच्चा भेदज्ञान तो अंतरमेंसे जो रागादिसे होता है वह सच्चा भेदज्ञान है। परन्तु उसमें क्रममें ऐसा आये कि पहले शरीरसे भेदज्ञान और बादमें रागादिसे भेदज्ञान। लेकिन वह दोनों एकसाथ ही होता है। वास्तविक भेदज्ञान उसीका नाम कि रागादिसे भेदज्ञान हो। इस शरीरसे भेदज्ञान हो वह तो स्थूल है, अन्दर रागादिसे हो वही वास्तवमें सच्चा भेदज्ञान है।

लेकिन अभी स्थूलतासे भी नहीं हुआ तो रागादिसे कहाँ-से होगा? इसलिये पहले स्थूलतासे करवाते हैं। यह शरीर तो उसे दिखता है, शरीरके साथ एकत्वबुद्धि है कि शरीर मैं हूँ। शरीरके साथ एकमेक हो रहा है। शरीरसे तो मैं भिन्न हूँ। यह तो जड है। वह तो कुछ जानता नहीं, इसलिये पहले उससे भिन्न पडे।

मुमुक्षुः- विचारमें लेना आसान पडे।

समाधानः- विचारमें लेता है। शरीरसे भिन्न पडता है, बादमें रागादिसे भिन्नता करता है।

मुमुक्षुः- माताजी! रागादिसे भिन्न पडनेका प्रयोग क्या? क्योंकि अनुभव हुआ नहीं है, तो अनुभव कैसे हो? वह कैसा स्वादवाला है, राग तो आकुलतारूप है, उसका तो ख्याल आता है, परन्तु वह तो कभी स्वादमें आया नहीं। तो उन दोनोंकी सन्धि कैसे (मालूम पडे)?

समाधानः- उसके ज्ञानस्वभावको पहिचानना। ज्ञानस्वभाव तो ख्यालमें आये ऐसा है। ज्ञानस्वभाव है वह शान्तिसे भरा हुआ, ज्ञानानन्द स्वभाव है उसे लक्ष्यमें लेना। आनन्दका अनुभव भले नहीं है, परन्तु उसे प्रतीतमें लेना। विचार करके प्रतीतमें आये ऐसा है वह आत्मा। ज्ञानस्वभावसे प्रतीतमें लेने जैसा है।

गुरुदेव बताते हैं, शास्त्रमें आता है। उसके अमुक लक्षणसे पहिचानमें आता है। ज्ञानस्वभाव लक्षणसे पहिचाने। लक्षणसे लक्ष्यमें आये ऐसा है कि ये रागादि है और


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यह उसका जाननेवाला लक्ष्यमें आये ऐसा है। राग रागको जानता नहीं, जाननेवाला अन्दर भिन्न है। भिन्न जाननेवाला है वह शाश्वत है। भिन्न जाननेवाला है वह शाश्वत है। रागकी सब पर्यायें चली जाती हैं और जाननेवाला ज्योंका त्यों ही खडा रहता है। ज्योंका त्यों खडे रहनेवाला है वह मैं हूँ।

बचपनसे लेकर अभी तक सब रागादि चले गये और जाननेवाला खडा है। जो जाननेवाला खडा है वह मैं हूँ। जाननेवालेको भिन्न करे। जो-जो राग, विकल्प आये उसे क्षण-क्षणमें भिन्न करे। उतना उसका प्रयत्न हो, भेदज्ञानका अभ्यास उग्र करे तो क्षण-क्षणमें भिन्न करनेका अभ्यास हो। बुद्धिसे एक बार भिन्न किया और फिर ऐसे ही रह जाय तो अभी उसके अभ्यासकी क्षति है। क्षण-क्षणमें भिन्न करे, उसका अभ्यास वैसे ही मौजूद रखे तो उसे फिर सहज दशा होनेका अवसर आये। पहले तो ज्ञानसे प्रतीतमें आता है।

समाधानः- .. यहाँ गुरुदेव विराजे वह कुछ अलग (ही था)। बाहरगाँवसे कोई आये तो ऐसा कहते हैं कि गुरुदेव मानों साक्षात आकर वाणी बरसाते हो ऐसा लगता है। आँख बन्द करके बैठे हो तो ऐसा लगता है।

... पुरुषार्थपूर्वकका क्रमबद्ध होता है। क्रमबद्ध हो, जो होनेवाला है वह हो, परन्तु अन्दर जो अपने भाव बदलना, भावना करनी, पुरुषार्थ करना, भेदज्ञान करना, सम्यग्दर्शन (प्रगट करना), वह सब पुरुषार्थपूर्वक क्रमबद्ध होता है। क्रमबद्ध यानी जैसे होनेवाला है वैसे होगा, ऐसे नहीं। पुरुषार्थ साथमें होता है, क्रमबद्धके साथ पुरुषार्थ, स्वभाव, काल आदि सब हो, उसके साथ पुरुषार्थ होता है। वह क्रमबद्ध पुरुषार्थपूर्वक होता है। जिसे पुरुषार्थ लक्ष्यमें नहीं है, उसका क्रमबद्ध ऐसा ही होता है। और जिसे पुरुषार्थ अन्दर रुचता है उसीका क्रमबद्ध मोक्ष-ओरका होता है। मुक्ति ओरका क्रमबद्ध उसीका होता है कि जिसे अन्दर पुरुषार्थ रुचता है। जिसे पुरुषार्थकी ओर लक्ष्य नहीं है, उसे संसार-ओरका क्रमबद्ध है। परन्तु जिसने उसकी दृष्टि की कि आत्मा ज्ञायक है। ऐसी पुरुषार्थपूर्वककी जिसकी दृष्टि है, उसीका क्रमबद्ध (यथार्थ है)। पुरुषार्थपूर्वकका क्रमबद्ध, वह क्रमबद्ध सच्चा है।

मुमुक्षुः- साथमें पुरुषार्थ करना पडे।

समाधानः- हाँ, पुरुषार्थ तो साथमें ही होता है। क्रमबद्धके साथ पुरुषार्थ होता है। पुरुषार्थपूर्वक क्रमबद्ध होता है। सब भाव साथमें होते हैं। उसे अमुक प्रकारका क्षयोपशम होता है, उसे स्वभाव आदि पाँच लब्धियाँ आती हैं न? उसमें साथमें पुरुषार्थ होता है। देशनालब्धि होती है। अन्दरसे गुरुदेवकी देशना ग्रहण हो, पुरुषार्थ, स्वभाव आदि सब साथमें होता है। विशुद्धिलब्धि। लब्धि हो उसमें पुरुषार्थ साथमें है। अकेला


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क्रमबद्ध नहीं है। क्रमबद्धके साथ पुरुषार्थ होता है। .. क्रमबद्ध है, परन्तु अन्दर अपने भाव पलटना, उसमें साथमें पुरुषार्थ होता है।

मुमुक्षुः- बाहरमें कुछ भी हुआ हो, अन्दर समाधान हो जाय कि जिस काल नुकसान होनेवाला था या जो होनेवाला था वह हो गया।

समाधानः- जो होनेवाला हो वह होता है।

मुमुक्षुः- अब पुनः क्रोध करके नये कर्म बाँधना, उसके बजाय...

समाधानः- जो होता है क्रमबद्ध होता है।

मुमुक्षुः- ध्यान यानी चिंतवन। खास तो यह पूछना था कि ध्यान कैसे करना? बार-बार वही प्रश्न आकर खडा रहता है। जितना विकल्पोंसे दूर होना चाहिये, उतना हुआ नहीं जाता। इतने विकल्प आते हैं, जैसा हमारा जीवन है उस अनुसार। पूरी प्रोसेस एकदम शान्तिसे.. ऐसा कहें कि क्रमसे आगे बढ सके वैसे। धीरे-धीरे करके हम अन्दर ऊतर सके। और रास्ता वही है, ये तो ख्यालमें है कि ध्यानके सिवा छूटकारा नहीं है।

समाधानः- परन्तु पहले तो भेदज्ञान होना चाहिये न। भेदज्ञान हो, यथार्थ भेदज्ञान हो बादमें यथार्थ ध्यान हो। एकाग्रता कब हो? कि मूल वस्तुको पकडे, ग्रहण करे कि मैं जाननेवाला ज्ञायक हूँ, मैं चैतन्यद्रव्य ज्ञायक हूँ, उसका अस्तित्व अंतरसे ग्रहण करे। ऊपर-ऊपरसे बुद्धिसे ग्रहण करे, लेकिन अन्दर उसकी परिणतिमेंसे ग्रहण करना चाहिये, उसका अस्तित्व ग्रहण करे। उसकी श्रद्धा बराबर यथार्थ अंतरसे हो तो उसमें एकाग्र हो। मूल वस्तुको ग्रहण किये बिना चित्त कहाँ स्थिर होगा? चित्त तो विकल्प.. विकल्प...

वस्तु जो स्थिर स्वरूप ज्ञायक स्वरूप वस्तु है उसे ग्रहण करे तो उसमें स्थिर हो, तो स्थिर हो। पहले मैं चैतन्यवस्तु-एक पदार्थ हूँ। जैसे ये सब पदार्थ दिखते हैं, वैसे चैतन्य भी एक पदार्थ है। उसमें अनन्त गुण और अनन्त शक्तियाँ भरी हैं, ऐसा चैतन्यपदार्थ है। उस पदार्थको पहले ग्रहण करे तो उसमें ध्यान हो। इसलिये प्रथम भेदज्ञान करे, ज्ञान करे।

शरीरके साथ एकत्वबुद्धि हो रही है। शरीर सो मैं और मैं सो शरीर। विकल्प सो मैं और मैं सो विकल्प। उसमें भिन्न कौन है? उस भिन्नका अस्तित्व कहीं दिखाई नहीं देता। अतः भिन्न अस्तित्वको पहले ग्रहण करना चाहिये। उसकी बुद्धिमें यथार्थ ग्रहण करे तो यथार्थ ध्यान हो। इसलिये पहले भेदज्ञान करनेकी जरूरत है कि क्षण- क्षणमें जो विकल्प आते हैं, वह विकल्प मेरा स्वरूप नहीं है। मेरा स्वरूप तो जाननेवाला, अन्दर जो जाननेवालाका अस्तित्व है वह मैं हूँ। उस जाननेवालाका अस्तित्व ग्रहण


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करनेके बाद उसमें ध्यान हो।

उसकी यथार्थ रुचि हो तो वह ग्रहण होता है। रुचि बाहर हो, बाहरकी महिमा लगे (तो ध्यान हो नहीं सकता)। अन्दर चैतन्यमें महिमा लगे कि चैतन्य ही सर्वस्व है। और कुछ सारभूत नहीं है। ऐसे अन्दर यथार्थ ग्रहण करे तो ही उसमें ध्यान हो। वस्तुका स्वरूप ही ऐसा है।

पानी स्वयं स्वभावसे निर्मल है। उसे कीचडके कारण मलिनता हुई। उसमें औषधि डाले तो उसकी निर्मलता भिन्न पडे और वह कीचड भिन्न पड जाय। वैसे स्वभावसे आत्मा निर्मल है। अनादिसे एक पदार्थ (है)। जो पदार्थ हो वह पदार्थ कहीं स्वयं स्वभावसे मलिन नहीं होता। लेकिन उसमें मलिनता कीचडके कारण अर्थात विभावके कारण आयी है।

वैसे उसकी दृष्टि यथार्थ (करनी चाहिये)। जैसे औषधिसे पानी निर्मल होता है, वैसे स्वयं ज्ञानरूप औषधि द्वारा अपना स्वभाव जो निर्मल है, उसे निर्मलताको ग्रहण करे तो उसमेंसे निर्मलता प्रगट हो। उसे भेदज्ञान करना चाहिये। पहले यथार्थ ज्ञान करे तो यथार्थ ध्यान हो।

मुमुक्षुः- भेदज्ञान करना चाहिये, परन्तु भेदज्ञान करना कैसे?

समाधानः- उसे पहले तो यथार्थ रुचि होनी चाहिये, तो भेदज्ञान हो। उसीमें चला जाता है, अनन्त कालसे विकल्पमें ही चला जाता है। परन्तु उसकी रुचि यथार्थ हो तो भेदज्ञान हो। उसका ज्ञान यथार्थ करना चाहिये। मैं कौन (हूँ)? वस्तु आत्मा अनादिअनन्त (है)। मैं कौन हूँ, मेरा क्या स्वभाव है, उसका स्वभाव क्या है, उसमें जो अनेक जातकी अवस्थाएँ होती हैं, वह क्या है? उसे यथार्थ समझना चाहिये। उसकी रुचि यथार्थ होनी चाहिये। ऐसी लगन लगे अंतरमेंसे तो भेदज्ञान हो। रात और दिन उसे आत्माके अलावा कहीं चैन न पडे। मेरा आत्मा मुझे कैसे प्रगट हो? मुझे स्वानुभूति- आत्माका साक्षात्कार कैसे हो? ऐसी लगन अन्दरसे लगे तो भेदज्ञान हो। उसकी लगन लगनी चाहिये।

फिर तो स्वभावमेंसे स्वभाव प्रगट होता है। ये जो विकल्प हैं वह तो सब विभाव है। विभावमेंसे स्वभाव नहीं आता है, स्वभावमेंसे स्वभाव आता है। जैसे लोहेमेंसे लोहा ही हो और सुवर्णमेंसे सुवर्ण ही हो। वैसे चैतन्यस्वभावमेंसे स्वभाव प्रगट हो। ये विभावमेंसे तो विभाव ही प्रगट होता है। इसलिये अपना स्वभाव ग्रहण कर लेना। ऐसी रुचि प्रगट करनी चाहिये।

पहले ऐसी रुचि करे, उसका भेदज्ञान करे क्षण-क्षणमें कि यह मैं नहीं हूँ, मेरा चैतन्यस्वरूप भिन्न है। ऐसे बारंबार करे तो उसमें एकाग्रता होती है। नहीं तो समझे


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बिनाका ध्यान तो यथार्थ जमता ही नहीं। विकल्प (होने लगे)।

मुमुक्षुः- नींद आ जाती है। ध्यान करने बैठे तो नींद आ जाती है। फिर कोई जगाये तब उठते हैं। सच्ची बात है।

समाधानः- समझ बिनाका ध्यान ऐसा (ही होता है)। स्वयंको पहिचाना नहीं है, स्थिर कहाँ होना? विकल्प कम करने जाय तो शून्यता जैसा हो जाय। शून्यतामें निद्रा जैसा हो जाय। क्योंकि अपना पदार्थ ग्रहण नहीं किया है। पदार्थ जो जागृतस्वरूप आत्मा है उसे ग्रहण करे तो उसमें ध्यान हो न। तो उसमें कुछ सुख दिखे, उसमें कुछ ज्ञान दिखे, उसमें कुछ अपूर्वता दिखे तो उसमें वह स्थिर रहे। कुछ दिखाई न दे और विकल्प करने जाय तो क्या हो? उसे नींद आ जाती है। इसलिये पहले यथार्थ भेदज्ञान करना कि ये मैं भिन्न (हूँ)। पदार्थको जाननेका प्रयत्न करना।

बाहरसे करनेसे कुछ नहीं होता। अंतरसे करनेसे ही होता है। अंतरमेंसे अपनी रुचि पलटनी चाहिये और उसे खोजनेका प्रयत्न करे। उसके लिये शास्त्रमें क्या कहते हैं? गुरु क्या कहते हैं? वह सब बारंबार विचारना। गुरुका आशय क्या है? वह सब विचारना चाहिये।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!