Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 175.

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ट्रेक-१७५ (audio) (View topics)

... गुणमूर्तिना गुणों तणा स्मरणों हृदयमांही रह्या महिमाभर्या गुरुदेवनी महिमा कथन हुँ शुं करुँ? गुणमूर्तिना गुणों तणा स्मरणों हृदयमांही रह्या। ... थया आ स्वर्णगढने धन्य छे, सदगुरुजी आपना ते आपनो पण धन्य छे। ज्यां वास गुरुजी आपना, मन्दिर, मकानो धन्य छे, गुरुजी बिराज्या आप ज्यां ते आसनो पण धन्य छे। चरणसेवा सांपडे ते जीवनने पण धन्य छे, तुज दर्शने पावन बन्या ते लोकने पण धन्य छे। तुज वाणीथी पावन बन्या ते लोकने पण धन्य छे।

समाधानः- ... उसे खटक रहा करे कि ये सब बाहरका तो जूठा ही है। भले अनुकूल संयोग हो और कोई प्रतिकूल, कोई वैराग्यका प्रसंग बने या कोई अच्छे प्रसंग बने तो भी ये कोई आत्माको सुखरूप नहीं है। ये तो कुछ अलग ही है। अन्दर चैतन्य आत्माकी वस्तु, आत्मा कोई अलग ही है। अन्दर खटक लगनी चाहिये। तो अंतरमेंसे उसे दिन और रात उसीके विचार आते रहे, उसीकी लगन लगे कि इसमें सुख नहीं है, ये सुख नहीं है। सुख आत्मामें ही रहा है। आत्मा कोई अनुपम है, जगतसे भिन्न है, वह आत्मा कैसे प्रगट हो?

मुमुक्षुः- मुझे क्या लगता है कि आत्म साक्षात्कार या आप जो भी कहो, उसमें ऐसी क्या वस्तु है कि जिसके लिये सब प्रवृत्त हो? उसकी कोई झलक न हो और अपने यह कहे कि ये सब असार है, असार है। शास्त्रोंमें या सबने कहा है, उसका मानकर। इसलिये किसी भी प्रकारकी, जो आप कहते हो कि लगन है या यह-वह, एक बार हमें मालूम पडा कि यह हीरा है। तो हमारे हाथमें रहे पत्थर अपनेआप छूट जाय। कोई छोडना नहीं पडे। उसी प्रकार आत्म साक्षात्कार क्या है? उससे क्या मिलता है? वह कैसे? बातें सुनी हैं, कुछ भी अनुभूति न हो तो कैसे मने उसमें प्रवृत्त हो? एक बार यदि उसकी झलक हो जाय तो अपनेआप... उसमें किसीको


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कहना भी नहीं पडे कि आप इसके लिये प्रवृत्त हों। ये बात लंबाती रहती है, बरसों, भव, ऐसा मुझे लगता है।

समाधानः- परन्तु इतना तो स्वयंको लगे न कि ये कुछ सारभूत नहीं लगता। आस्तिक्यतामें स्वयंको उतना लगे कि ये कुछ सार(भूत नहीं है), इसमें कहीं सुख नहीं दिखता है। ये बाहरका चाहे जितना करते हैं संतोष नहीं होता। तृप्ति नहीं होती है। जीव व्यर्थ प्रयत्न करता रहता है कि यहाँसे सुख मिलेगा, यहाँसे सुख मिलेगा, यहाँसे सुख मिलेगा। ऐसे व्यर्थ प्रयत्न करता है। संतोष नहीं होता। संतोष नहीं हो रहा है ये यह बताता है कि सुखस्वरूप वस्तु कोई अंतरमें अलग है। इसलिये संतोष नहीं हो रहा है।

जो संतोषका धाम है, जिसमें तृप्ति होती है और जो सुखका धाम प्रगट होनेके बाद दूसरी कोई इच्छा ही नहीं होती, ऐसी कोई वस्तु अंतरमें रही है। इसलिये बाहरमें कहीं भी संतोष नहीं होता। इसलिये जीव इच्छा करता है कि कुछ दूसरा है। ऐसी इच्छा करता है। लेकिन वह प्रगट कब हो? कि स्वयं पुरुषार्थ करे तब। पहलेसे किसीको झलक नहीं दिखती।

लेकिन जिन महापुरुषोंने प्रगट किया है, वे उसे बताते हैं कि तू ये कर और हम उसका अनुभव करके तुझे कहते हैं कि उसकी स्वानुभूति होती है, साक्षात्कार होता है, आत्मा सुखका धाम है। उसका विश्वास करता है। उसका विश्वास तो करना चाहिये। माँ-बाप उसे बताये तो उसका पुत्र जैसे विश्वास करता है कि इस रास्ते पर चल। वैसे वे बताते हैं तो अपनी बुद्धिसे थोडा तो विचार करे। दुकान पर कोई माल लेना हो तो वह आदमी पूरी दुकान नहीं दिखाता। लेकिन उसके अमुक लक्षण परसे पहिचाने कि इसकी दुकान अच्छी लगती है। ऐसे लक्षणसे पहिचाने।

ऐसे लक्षणसे पहिचान लेना चाहिये। पहलेसे सब (दिखाई नहीं देता)। जो महापुरुष हों वे उनकी स्वानुभूति बाहर नहीं दिखाते। परन्तु उसके लक्षण बताते हैं। उस लक्षणसे विचार करना। क्योंकि स्वयंको सुख चाहिये, उतनी तैयारी तो चाहिये कि बाहर कहीं सुख नहीं है, संतोष नहीं है। मुझे कुछ दूसरा चाहिये। उतनी जिज्ञासा तो होनी चाहिये। फिर बताये उसका विश्वास करके, स्वयं उस मार्ग पर पुरुषार्थ करना चाहिये, तो प्रगट हो। इस तरह झलक नहीं है तो विश्वाससे (आगे बढे)। सब विश्वास नहीं, लेकिन बुद्धिसे विचार करे, परीक्षा करे कि, नहीं, यह वस्तु सच्ची है।

मुमुक्षुः- लेकिन उस विश्वासमें तो कितनी बार भटक जाते हैं। किसी भी गुरुके पीछे बरसों निकल जाय, फिर लगे कि ये बराबर नहीं है, ये बराबर नहीं। ऐसे तो एक प्रकारका भटकना ही हो जाता है। और हालत ऐसी त्रिशंकु जैसी हो जाती है।


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क्योंकि जो सामने है उसकी मजा नहीं ले सकते, उसकी मजा नहीं ले सकते। आत्माकी तो कोई झलक नहीं है। इसलिये हालत दूसरे संसारी मनुष्य है, उससे भी बदतर है। और कुछ ज्यादा ही अकूलाहट होने लगती है।

समाधानः- सच्चे गुरु मिले हो और सच्ची प्रतीति हुयी हो तो उसकी प्रतीति दृढ ही रहती है। सच्चे देव-गुरु-शास्त्र जिसे मिले, अंतरसे सत्य ग्रहण हो तो उसे विश्वास ही रहता है कि इसी रास्तेसे साक्षात्कार होगा, दूसरा कोई रास्ता नहीं है। मेरे पुरुषार्थकी मन्दता है, मैं नहीं कर सकता हूँ। लेकिन उसकी रुचि उसीमें रहती है। इसी मार्ग पर जानेका है, दूसरा कोई मार्ग नहीं है। रुचि बाहरसे मन्द पडकर उसे हूँफ आ जाती है कि यही मार्ग है।

सच्चे गुरु मिले और अंतरसे विश्वास न आये, ऐसा तो बन ही नहीं सकता। इसलिये अभी भी विश्वास नहीं आता है तो स्वयंने पहिचाना नहीं है और सच्चे गुरु भी स्वयंको नहीं मिले हैं या स्वयंने अन्दरसे विश्वास नहीं किया है। स्वयंको विश्वास आना चाहिये। सच्चे गुरु मिले और विश्वास न आये ऐसा बने नहीं। स्वयं परीक्षा करके स्वीकार करे तो उसे भटकना न पडे। निश्चित हो जाय। क्योंकि आत्मामें उतनी शक्ति है निर्णय करनेकी कि, बस, यही मार्ग सत्य है। बुद्धिसे नक्की कर सकता है। गुरु कहे उसे बराबर नक्की कर सकता है।

यहाँ गुरुदेव विराजते थे। उनकी वाणीमें ऐसा धोध बरसता था, ऐसी अपूर्वता था कि सामनेवालेको नक्की हो जाय कि यही मार्ग है। बुद्धिसे विचार करे तो अन्दर निर्णय हो ही जाय। सच्चा मार्ग मिले और नक्की न हो, ऐसा बनता ही नहीं। सच्चे गुरु मिले तो अन्दरसे स्वयंको विश्वास आ जाता है, हूँफ आ जाती है। फिर भटकने जैसा लगे ही नहीं। उसे हूँफ आ जाय। फिर भले पुरुषार्थ मन्द हो, पुरुषार्थ न कर सके, लेकिन उसकी रुचि पूरी पलट जाती है। आत्मा भिन्न है, भले ही मुझे पकडमें नहीं आता, लेकिन मार्ग तो यही सत्य है। भेदज्ञानके मार्ग पर ही जाना है। अंतरमें ही मार्ग है। ऐसा अंतरमेंसे उसे विश्वास आ जाय। सच्चे गुरु मिले और स्वयं नक्की करे तो कहीं भटकना रहता ही नहीं।

मुमुक्षुः- महाविदेह क्षेत्र जहाँ कुन्दकुन्दस्वामी गये थे, उसे ब्रह्माण्डमें कहाँ रखना? वैज्ञानिक दृष्टिकोणसे देखें तो उसकी कहीं तो असर दिखाई दे। महाविदेह क्षेत्र कहाँ है? बराबर न? जिसे अवकाशमें हम जाते हैं तो... जैसे अमेरिका जाते हैं, ओस्स्ट्रेलिया जाते हैं, अवकाशमें हम लोग चन्द्र तक गये हैं।

समाधानः- किस जगह है, ऐसा न? दूर है। यहाँसे जा सके ऐसा नहीं है।

मुमुक्षुः- ब्रह्माण्डमें कहाँ?


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समाधानः- ब्रह्माण्डमें इस पृथ्वी पर है। अभी जो पृथ्वीका गोला कहते हैं, ऐसा नहीं है। शास्त्रमें वह पृथ्वी (ऐसे नहीं है)। यह जम्बू द्वीप है। उस द्वीपमें एक महाविदेह क्षेत्र है, एक भरत क्षेत्र है, एक ऐरावत क्षेत्र है। उसमें महाविदेह क्षेत्र और भरत क्षेत्रके बीच थोडे दूसरे क्षेत्र-जुगलियाका क्षेत्र है। ऐसे क्षेत्र हैं। बीचमें बडे-बडे पर्वत हैं। हिमवन्त, हरिवत, रमकवत ऐसे बडे-बडे पर्वत हैं। उसके बाद महाविदेह क्षेत्र है। बीचमें मेरु पर्वत है। उसके बाद महाविदेह क्षेत्र आता है।

मुमुक्षुः- जैसे ये रोकेट अवकाशमें जाता है, तो वह क्षेत्र तो हमे दिखता है न?

समाधानः- .. दृष्टिसे देख सकते हैं। ये क्षेत्र स्थूल है। जिसके हृदयमें आर्यता नहीं है, जो अनार्यवृत्ति है, वह ऐसे महान क्षेत्रोंको देख नहीं सकते। जहाँ भगवान विराजते हैं... जो अनार्यवृत्ति है, जो हिंसामें पडे हैं, आर्यवृत्ति नहीं है। उसे यह चर्मचक्षुसे दिखाई नहीं देता। जिसकी अंतरदृष्टि निर्मल होती है, वही देख सकता है।

मुमुक्षुः- बहिन सब होता है, लेकिन यह वृत्ति है न वह बन्दर जैसी है। बैठती ही नहीं। पाँच मिनिट बैठे और नीचे टेलिफोन आ गया, भागे। आप जैसा कहते हो न कि पुरुषार्थ (करना)। पुरुषार्थ करने भी बैठते हैं। लेकिन बीचमें ऐसा कुछ आ जाता है कि वृत्ति नहीं टिकती, स्थिरता नहीं रहती, दृष्टि नहीं टिकती। ऐसे स्थलमें आये तो ऐसा लगे कि घरमें बच्चे क्या करते होंगे? विचार करनेका प्रश्न ही नहीं है, फिर भी ऐसा विचार आ जाता है। पुरुषार्थ करने पर भी यह वृत्ति है वह बहुत परेशान करती है। उसका कोई रास्ता?

समाधानः- अनादिका राग पडा है। स्वयंको रागका अभ्यास हो गया है। अन्दर सब राग, द्वेषके संस्कार पडे हैं। गाढ हो गये हैं। उसमें मुंबईका जीवन और उसमें उतनी प्रवृत्ति, धमाल, उसमें कहीं शान्ति नहीं। और उतना राग और अन्दर सब एकत्वबुद्धि, रागके संस्कार इतने दृढ हो गये हैं। उसमें यह संस्कार इतने दृढ हो तो वह कम हो। यह संस्कार।

विचार करना, देवका, गुरुका ऐसे सब संस्कार जीवनमें हो तो वह दूसरे संस्कार कम हो जाय। बार-बार भगवानका स्मरण हो, मन्दिरका स्मरण हो, शास्त्र याद आये, गुरु यास आये, ऐसे संस्कार हो। आत्मा याद आये ऐसे संस्कार हो उसे वह दूसरे संस्कार कम हो जाते हैं। इसी संस्कारमें रचापचा है इसलिये वही संस्कार आते रहते हैं।

यहाँ देखो तो यहाँ सबके जीवनमें टेप, गुरु, मन्दिर और आत्माके विकल्प। यह संस्कार एकदम भिन्न और वह संस्कार एकदम भिन्न। इसलिये वह संस्कार दृढ हो गये हैं और उसमें स्वयंको बलपूर्वक पुरुषार्थ करना, उन सबके बीच रहकर पुरुषार्थ करना,


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जीवकी उतनी शक्ति-उपादान नहीं है। कोई करे तो पुरुषार्थसे कर सके। बाकी साधारण जीव तो सत्संगमें रहे, सच्चे अच्छे माहोलमें रहे तो उसे पुरुषार्थ करना सहज-सहज होता है। मन्द पुरुषार्थी हो तो उसे उग्रता करनी पडती है। ऐसे संयोंगोंके बीच अत्यंत उग्रता करे तो स्वयं दृढ रह सकता है। अपने पुरुषार्थकी क्षति है। जहाँ होता है वहाँ पुरुषार्थसे होता है। लेकिन सत्संग हो उसमें फर्क पडता है। पुरुषार्थका बल होना चाहिये न। पुरुषार्थका बल हो तो हो सकता है।

जो सच्चा मुक्तिका मार्ग दर्शाते हो, सच्चे देव-गुरु.. जो देव अंतरमें केवलज्ञान प्राप्त करके कुछ विकल्प नहीं है और पूर्ण निर्मलता प्रगट की वह देव है। जिसे किसी जातका राग या कोई विकल्प नहीं है। आत्मामें समा गये, बस। समा गये और अपने अनन्त गुणोंको प्रगट किये, वे देव हैं। और ऐसे आत्माकी जो बारंबार स्वानुभूति कर रहे हैं, वे गुरु हैं और ऐसा मार्ग बताये वह गुरु है।

मुमुक्षुः- आज हम ऋषभदादाको मिलकर आये, तो उनको मिलनेसे हमारा मोक्ष हो सकता है?

समाधानः- मिलकर आये ऐसा नहीं..

मुमुक्षुः- उनके दर्शन कर आये, तो उनको माननेसे मोक्ष हो सकता है?

समाधानः- उनके आत्माको पहिचाननेसे मोक्ष होता है। मात्र बाह्य दर्शनसे शुभभाव हुआ या पुण्य बन्धे, पुण्य बन्धे, लेकिन उससे आत्माकी पहिचान नहीं होती। लेकिन उनका आत्मा क्या करता था? उन्होंने क्या प्रगट किया? वह आप समझो तो मोक्ष हो। उनका द्रव्य क्या? उनके गुण क्या? उन्होंने क्या प्रगट किया? उन्होंने कैसा पुरुषार्थ किया? वे किस मार्ग पर चले? वह आप समझो तो हो सकता है। मात्र बाहरसे दर्शन करे तो शुभभाव हो।

मुमुक्षुः- इसमें तो मिलान करनेको कहते हैं। अपने आत्माके साथ भगवानके आत्माका मिलान करना है।

समाधानः- मिलान करनेको कहते हैं। जैसा भगवानका आत्मा है, वैसा मेरा आत्मा है। ऐसे पहिचाने तो मोक्ष हो। भगवानने क्या किया? मेरा वैसा ही स्वभाव है। जैसा भगवानका स्वभाव है, वैसा ही मेरा स्वभाव है। जो भगवानको पहिचाने वह अपने आत्माको अवश्य पहिचानता है। लेकिन भगवानको यथार्थ पहिचाने तो। जो स्वयंको पहिचाने वह भगवानको अवश्य पहिचानता है।

पंचमकालके अन्दर यहाँ गुरुदेव विराजते थे। उन्होंने इतना मार्ग स्पष्ट कर दिया है, सबको अंतरदृष्टि दे दी है कि अंतरमें ही मुक्तिका मार्ग है। चारों ओरसे मोक्ष इतना खुल्ला-स्पष्ट कर दिया है। कितने ही लोग क्रियामें पडे थे कि क्रियासे धर्म होता


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है। अंतरमेंसे मोक्ष होता है। गुरुदेवने यहाँ विराजकर इतना स्पष्ट कर दिया है। किसीको कोई शंका न रहे। सब सुननेवालेको इतना संतोष है कि इसी मार्गसे मोक्ष होगा। सब लोग उसीकी रुचि और अभ्यास (करते हैं)। फिर पुरुषार्थ मन्द हो वह एक अलग बात है। बाकी उतना विश्वास और उतना संतोष है कि इसी मार्गसे मोक्ष होगा। सरलाबहिन पीछेसे आयी है तो भी उनको इतना विश्वास बैठता है।

मुमुक्षुः- मैंने सबको वही कहा। गुरुदेवके सिवा अब किसीको सुननेकी मेरी तैयारी नहीं है।

मुमुक्षुः- शहरी जीवनमें ... वह मार्ग दैनिक जीवनमें एकदम व्यस्त रहकर भी कैसे उसके समीप रहना, उसके लिये इतना धर्मलाभ दिया। तो कुछ नियमके तौर पर आप कुछ कह सकते हो कि इतने नियम पालन करना, जिससे निरंतर सान्निध्यमें रह सके। आत्म निरीक्षणकी जो हमारी झँखना है, उसके समीप आ सके।

समाधानः- उसका नियम, स्वयं अंतरमें रुचि बढाये तो हो। वहाँ कोई सत्संग हो तो सत्संगमें सुनने जाय। सच्ची वाणी मिलती हो वह सुने। साधर्मीका संग करे। शास्त्र अभ्यास करे तो स्वयं अपनेआप तो समझता नहीं है। वहाँ कुछ सुननेको मिले वहाँ सुने, विचार करे, रुचि करे, बहारका रस कम करे, ऐसा सब करे। ऐसे संयोग हो उसमें, करना कुछ अलग है, ऐसी खटक रखे, ऐसा सब करे तो हो। स्वयंको उतनी लगन लगनी चाहिये तो हो।

मुमुक्षुः- आप तीन-चार बार "खटक' शब्द बोले, वह खटक क्या है? खटक लगनी चाहिये, खटक क्या है?

समाधानः- उसे अन्दरसे खटकना चाहिये कि मैं यह जो करता हूँ वह बराबर नहीं है। अन्दर खटकता है। अन्दर लीन नहीं हो जाता। अन्दर खटक लगनी चाहिये कि अरे..! ये सब अलग है और मुझे करनेका कुछ अलग है। मैं इसमें फँस न जाऊँ। मुझे करनेका कुछ अलग है, ऐसी खटक अंतरसे लगनी चाहिये।

मुमुक्षुः- .. बादमें मनमें ज्यादा विकल्प आते हैं। आप जिस सत्संगमें रहते हो, हमें उसके लिये भी प्रयास करना पडता है। यहाँ हम सत्संगके लिये हम सब तेरह जन यहाँ आये हैं, तो क्या है कि, उतना करनेमें भी हमें बहुत परिश्रम पडता है। लेकिन हमें मालूम है कि हम कुछ खोज रहे हैं। सबके मनमें एक ही भावना है। इसलिये ऐसा होता है कि आप जैसे किसीको मिलते हैं तो ऐसा लगता है कि ऐसे कोई नियम मिले कि जिससे हम दैनिक जीवनमें, रोजके रुटिनमें रहकर कहींसे रोज, आप जो कहते हो कि बाहरसे अलिप्त रहकर हम हमारे अन्दर समीप आ सके।

समाधानः- सब इकट्ठा होते हो वह ठीक है, बाकी रोज उठकर कुछ विचार


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करना, कुछ वांचन करना, कुछ समझमें आये ऐसा, कुछ चिंतवन करना। आत्मा भिन्न है, यह शरीर मैं नहीं हूँ, ये विकल्प आकुलतारूप है। कुछ चिंतवन करना, रोज कुछ वांचन करना। वह सब रोजका नियम कर लेना। वहाँ रोज बाहर जाना बहुत मुश्किल पडे, लेकिन स्वयंको अपने लिये कुछ नियम रखना। पढनेका, विचार करनेका, चिंतवन करनेका ऐसे सब नियम रखना चाहिये। यहाँ तो बरसोंसे गुरुदेवके सान्निध्यमें रहकर अंतरमें...।

समाधानः- .. व्यक्तिगत क्या कहना? वह तो सहज दशा.. (स्वानुभव होनेसे पहलेकी) दशा विकट होती है। आत्माको जाननेके बादवाली दशा तो सहज होती है। श्रीमदमें आता है, "समझ पीछे सब सरल है, बिन समझे मुश्किल'।

मुमुक्षुः- आपके पूर्वजन्मका हमें कुछ (बताईये), जिससे हमें खरी तमन्ना लगे।

समाधानः- पूर्वजन्मका व्यक्तिगत क्या कहना?

मुमुक्षुः- महाविदेह क्षेत्रकी थोडी बात करीये। जिसमें उनको रस आये। कोई जाकर आया है, उनके दर्शन हमें हुए।

समाधानः- महाविदेह क्षेत्र जगत पर है। वहाँ भगवान साक्षात विराजते हैं। वहाँ मुनिओंका समूह विराजता है। वहाँ सब भगवानकी वाणी छूटती है। भगवानका समवसरण है, रत्नका समवसरण है। भगवान वीतराग है। उनकी ध्वनि छूटती रहती है। सब मुनिओंका समूह, सब देव, सब हजारों श्रावक लाभ लेते हैं। यहाँ मनुष्यसे वह क्षेत्र अलग है। एकदम क्षणमात्रमें सब पलट जाते हैं, आत्म स्वरूपको प्राप्त करते हैं, भगवानकी वाणी सुनकर। यहाँका देह,.. वह क्षेत्र कुछ अलग ही है। एक क्षणमें सब आत्माका स्वरूप प्राप्त कर लेते हैं। भगवानकी वाणी मूसलाधार बरसती है।

मुमुक्षुः- आपको अभी दिखाई देता है?

समाधानः- जो अंतरमें होता है वही कहनेमें आता है।

मुमुक्षुः- बहिनश्री तो साक्षात दर्शन करते होंगे, प्रतिक्षण।

समाधानः- जो बात स्पष्ट हो वही कहनेमें आती है। वह स्पष्ट ही है।

मुमुक्षुः- आपकी जगह वहाँ... पूर्व भवकी बात। देवकुमार आदि सब सुना... हमें कहते हैं, इसलिये हमको रस आता है। फिर पूरी बात पूछना चाहती है।

समाधानः- वह सब.. विश्वास करना, बाकी जैसा है वैसा ही है, यथार्थ है। गुरुदेव पूर्व भवमें राजकुमार थे, तीर्थंकर होनेवाले हैं, वह सब बात यथार्थ है।

मुमुक्षुः- पूरा समवसरणका जो स्वरूप है, उसमें कमलके ऊपर ही सीमंधर भगवान विराजते हैं?

समाधानः- हाँ, भगवान कमलके ऊपर विराजते हैं। अंतरीक्ष विराजते हैं।

मुमुक्षुः- तो फिर जो कमल होता है, वह कमल कैसा होता है? यहाँ जैसा


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सादा कमल होता है वैसा होता है?

समाधानः- भगवान विराजे ऐसा बडा कमल होता है। सहस्त्रदल कमल। भगवानके पास सब रत्नका ही होता है। दिखे सच्चा, लेकिन होता है सब रत्नका भगवानके पास। सिंहासन, कमल आदि सब अतंरीक्ष, भगवान उससे ऊपर (रहकर) उसे स्पर्श भी नहीं करते, उस प्रकार निराधार रहते हैं। परन्तु कमलासन हो वैसे भगवान सिंहासन पर विराजते हैं।

मुमुक्षुः- और ॐ ध्वनि जो छूटती है, वह तो मुझे ऐसा लगता है कि ये तो बन्द होता है, परन्तु अन्दरसे...

समाधानः- होंठ हिलकर जो शब्द निकले ऐसे नहीं, ॐ ध्वनि निकलती है।

मुमुक्षुः- होंठ नहीं हिलते?

समाधानः- होंठ नहीं हिलते।

मुमुक्षुः- और नेत्र?

समाधानः- नेत्र नासाग्र (होते हैं), बन्द नहीं। जैसे प्रतिमाजीके नेत्र हैं, वैसे भगवानके नेत्र होते हैं।

मुमुक्षुः- आसपास कुछ नहीं, भगवान एक ही। और चारों ओर, यहाँ जो समवसरणकी रचना की है वैसा?

समाधानः- चारों ओर समवसरणकी रचना है। बीचमें भगवान विराजते हैं, पीठिका पर। भगवान कमलमें। ऐसे।

मुमुक्षुः- ऐसे अनेक समवसरण हैं या एक ही है? समाधानः- सीमंधर भगवान महाविदेह क्षेत्र विराजते हैं, ऐसे बीस भगवान विराजते हैं। मुमुक्षुः- वह सब महाविदेह क्षेत्रमें या..? समाधानः- नहीं, ऐसे पाँच महाविदेह क्षेत्र हैं। पाँच महाविदेह क्षेत्रमें भिन्न-भिन्न खण्ड हैं। उसमें पुष्कलावती विजयमें सीमंधर भगवान विराजते हैं। और दूसरे-दूसरे क्षेत्रमें अन्य-अन्य विजय है, उसमें ऐसे बीस विजयमें, यहाँ जैसे भरतखण्ड है, वैसे वहाँ उसे विजय कहते हैं, ऐसे खण्ड हैं, उसके अन्दर ऐसे बीस खण्डके अन्दर बीस भगवान विराजते हैं। ऐसे पाँच महाविदेह क्षेत्र हैं। साक्षात भगवान विराजते हैं, महाविदेह क्षेत्रमें।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!