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ः प्राप्तिस्थानः श्री दिगम्बर जैन स्वाघ्यायमन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ – ३६४२५० [सौराष्ट्र]
मुद्रकः ज्ञानचन्द जैन, कहान मुद्रणालय, सोनगढ – ३६४२५० [सौराष्ट्र]
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अत्यन्त भक्तिभाव
गुजराती अनुवादकः हिम्मतलाल जेठालाल शाह
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ज्ञानी सुकानी मळया बिना ए नाव पण तारे नहीं;
आ काळमां शुद्धात्मज्ञानी सुकानी बहु बहु दोह्यलो,
मुज पुण्यराशि फळयो अहो! गुरु क्हान तुं नाविक मळयो।
बाह्यांतर विभवो तारा, तारे नाव मुमुक्षुनां।
अने ज्ञप्तिमांही दरव–गुण–पर्याय विलसे;
निजालंबीभावे परिणति स्वरूपे जई भळे,
निमित्तो वहेवारो चिदघन विषे कांई न मळे।
जे वज्रे सुमुमुक्षु सत्त्व झळके; परद्रव्य नातो तूटे;
–रागद्वेष रुचे न, जंप न वळे भावेंद्रिमां–अंशमां,
टंकोत्कीर्ण अकंप ज्ञान महिमा हृदये रहे सर्वदा।
करुणा अकारण समुद्र! तने नमुं हुं;
हे ज्ञानपोषक सुमेघ! तने नमुं हुं,
आ दासना जीवनशिल्पी! तने नमुं हुं।
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तीर्थनायक भगवान श्री महावीरस्वामीकी दिव्यध्वनीसे प्रवाहित और श्री गौतम गणधर आदि गुरु परम्परा द्वारा प्राप्त हुए परमपावन आध्यात्मप्रवाहको झेलकर तथा विदेहक्षेत्रस्थ श्री सिमन्धर जिनवरकी साक्षात वन्दना एवं देशना श्रवणसे पुष्टकर, उसे भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवने समयसारादि परमागमरूप भाजनमें संग्रहित कर आध्यात्मतत्चप्रेमी जगत पर महान उपकार किया है।
आध्यात्मश्रुतप्रणेता ऋषिश्चर श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव द्वारा प्रणीत रचनाओंमें श्री समयसार, श्री प्रवचनसार, श्री पंचास्तिकायसंग्रह, श्री नियमसार और श्री अष्टप्राभृत – ये पाँच परमागम मुख्य हैं। ये पाचों परमागम हमारे ट्रस्ट द्वारा गुजराती एवं हिन्दी भाषामें अनेक बार प्रसिद्ध हो चुके हैं। टीकाकार श्रीमद्–अमृतचन्द्राचार्यदेवकी ‘समयव्याख्या’ नामक टीका सहित ‘पंचास्तिकायसंग्रह’ के श्री हिम्मतलाल जेठालाल शाह कृत गुजराती अनुवादके हिन्दी रूपान्तरका यह पंचम संस्करण आध्यात्मविद्याप्रेमी जिज्ञासुओंके हाथमें प्रस्तुत करते हुए आनन्द अनुभूत होता है।
श्री कुन्दकुन्दभारतीके अनन्य परम भक्त, आध्यात्मयुगप्रवर्तक, परमोपकारी पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीने इस परमागम शास्त्र पर अनेक बार प्रवचनों द्वारा उसके गहन रहस्योंका उद्घाटन किया है। वास्तवमें इस शताद्बीमें आध्यात्मरुचिके नवयुगका प्रवर्तन कर मुुमुुक्षुसमाज पर उन्होंने असाधारण महान उपकार किया है। इस भौतिक विषम युगमें, भारतवर्ष एवं विदेशोंमें भी, आध्यात्मके प्रचारका जो आन्दोलन प्रवर्तता है वह पूज्य गुरुदेवश्रीके चमत्कारी प्रभावनायोगका ही सुन्दर फल है।
पूज्य गुरुदेवश्रीके पुनीत प्रतापसे ही जैन आध्यात्मश्रुतके अनेक परमागमरत्न मुमुक्षुजगतको प्राप्त हुए हैं। यह संस्करण जिसका हिन्दी रूपान्तर है वह [पंचास्तिकायसंग्रह परमागमका] गुजराती गद्यपद्यानुवाद भी, श्री समयसार आदिके गुजराती गद्यपद्यानुवादकी भाँति, प्रशममूर्ति पूज्य बहिनश्री चम्पाबेनके भाई आध्यात्मतत्त्वरसिक, विद्वद्वर, आदरणीय पं० श्री हिम्मतलाल जेठालाल शाहने, पूज्य गुरुदेव द्वारा दिये गये शुद्धात्मदर्शी उपदेशामृतबोध द्वारा शास्त्रोंके गहन भावोंको खोलनेकी सूझ प्राप्त कर, आध्यात्म– जिनवाणीकी अगाध भक्तिसे सरल भाषामें – आबालवृद्धग्राह्य, रोचक एवं सुन्दर ढंगसे – कर दिया है। अनुवादक महानुभव आध्यात्मरसिक विद्वान होनेके अतिरिक्त गम्भीर, वैराग्यशाली, शान्त एवं विवेकशील सज्जन है, तथा उनमें आध्यात्मरस स्यन्दी मधुर कवित्व भी है। वे बहुत वर्षो तक पूज्य गुरुदेवके समागममें रहे हैं, और पूज्य गुरुदेवके आध्यात्मप्रवचनोंके गहन मनन द्वारा उन्होंने अपनी आत्मार्थिता की बहुत पुष्टि की है। तत्त्चार्थके मूल रहस्यों पर उनका मनन अति गहन है। शास्त्रकार एवं टीकाकार आचार्यभगवन्तोंके हृदयके गहन भावोंकी गम्भीरताको यथावत् सुरक्षित रखकर उन्होंने यह शद्बशः गुजराती अनुवाद किया है; तदुपरान्त मूल गाथासुत्रोंका भावपूर्ण मधुर गुजराती पद्यानुवाद भी (हरिगीतछन्दमें) उन्होंने किया है, जो इस अनुवादकी मधुरता में अतीव अधिकता लाता है और स्वाध्याय प्रेमियोंको बहुतही
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उपयोगी होता है। तदुपरान्त जहाँ आवश्यकता लगी वहाँ भावार्थ द्वारा या पदटिप्पण द्वारा भी उन्होंने स्पष्टता की है।
इस प्रकार भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवके समयसारादि उत्तमोत्तम परमागमोंके अनुवादका परम सौभाग्य अदरणीय श्री हिम्मतभाईको मिला है तदर्थ वे वास्तवमें अभिनन्दनीय हैं। पूज्य गुरुदेवश्रीकी प्रेरणा झेलकर अत्यन्त परिश्रमपूर्वक ऐसा सुन्दर अनुवाद कर देनेके बदलेमें संस्था उनका जितना उपकार माने उतना कम है। यह अनुवाद अमूल्य है, क्योंकि मात्र, कुन्दकुन्दभारती एवं गुरुदेवके प्रति परम भक्तिसे प्रेरित होकर अपनी आध्यात्मरसिकता द्वारा किये गये इस अनुवादका मुल्य कैसे आँका जाये? इस अनुवादके महान कार्यके बदलेमें उनको अभिनन्दनके रूपमें कुछ कीमती भेंट देनेकी संस्थाको अतीव उत्कंठा थी, और उसे स्वीकार करनेके लिये उनको बारम्बार आग्रहयुक्त अनुरोधभी किया गया था, परन्तु उन्होंने उसे स्वीकार करनेके लिये स्पष्ट इनकार कर दिया था। उनकी यह निस्पृहता भी अत्यंन्त प्रशंसनीय है। पहले प्रवचनसारके अनुवादके समय जब उनको भेंटकी स्वीकृतिके लिये अनुरोध किया गया था तब उन्होंने वैराग्यपूर्वक ऐसा प्रत्युत्तर दिया था कि ‘‘मेरा आत्मा इस संसार परिभ्रमणसे छूटे इतना ही पर्याप्त, ––दूसरा मुझे कुछ बदला नहीं चाहिये’’। उपोद्घातमें भी अपनी भावना व्यक्त करते हुए वे लिखते हैं किः ‘‘ यह अनुवाद मैने श्रीपंचास्तिकायसंग्रह प्रति भक्तिसे और पूज्य गुरुदेवकी प्रेरणासे प्रेरित होकर, निज कल्याणके लिये, भवभयसे डरते डरते किया है’’।
इस शास्त्रकी मूल गाथा एवं उसकी संस्कृत टीकाके संशोधनके लिये ‘श्री दिगम्बर जैन शास्त्रभंडार’ ईडर, तथा ‘भांडारकर ओरिएन्टल रीसर्च इन्स्टिट्यूट’ पूनाकी ओरसे हमें पांडुलेख मिले थे, तदर्थ उन दोनों संस्थाओंके प्रति भी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। श्री मगनालालजी जैनने श्री पंचास्तिकायसंग्रह के गुजराती अनुवाद के गद्यांश का हन्दी रूपान्तर, ब्र० श्री चन्दूलालभाईने प्रस्तुत संस्करण का ‘प्रूफ’ संशोधन तथा ‘कहान मुद्रणालय’ के मालिक श्री ज्ञानचन्दजी जैनने उत्साहपूर्वक इस संस्करण का सुन्दर मुद्रण कर दया है, तदर्थ उनके प्रति भी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। मुमुक्षु जीव अति बहुमानपूर्वक सद्गुरुगम से इस परमागम का अभ्यास करके उसके गहन भावोंको आत्मसात् करें और शास्त्रके तात्पर्यभूत वीतरागभावको प्राप्त करें–––यही भावना। पोष वदी ८, वि॰ सं॰ २०४६
‘श्री कुन्दकुन्द–आचार्यपददिन’
(
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कुन्द–प्रभा–प्रणयि–कीर्ति–विभूषिताशः ।
यश्चारु–चारण–कराम्बुजचञ्चरीक–
श्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम् ।।
अर्थः–– कुन्दपुष्पकी प्रभाको धारण करनेवाली जिनकी कीर्ति द्वारा दिशायें विभूषित हुई हैं, जो चारणोंके –– चारणऋद्धिधारी महामुनियोंके –सुन्दर हस्तकमलोंके भ्रमर थे और जिन पवित्रात्माने भरतक्षेत्रमें श्रुतकी प्रतिष्ठा की है, वे विभु कुन्दकुन्द इस पृथ्वीपर किसके द्वारा वंद्य नहीं हैं?
र्बाह्येपि संव्यञ्जयितुं यतीशः ।
रजःपदं भूमितलं विहाय
चचार मन्ये चतुरंगुलं सः ।।
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अर्थः–– यतीश्वर [श्री कुन्दकुन्दस्वामी] रजःस्थानको–भूमितलको–– छोड़कर चार अंगुल ऊपर आकाशमें चलते थे उससे मैं ऐसा समझता हूँ कि वे अंतरंगमें तथा बाह्यमें रजसे अपना अत्यन्त अस्पृष्टपना व्यक्त करते थे। [–अंतरंगमें रागादिक मलसे और बाह्यमें धूलसे अस्पृष्ट थे।]
ण विबोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति।।
अर्थः–– [महाविदेहक्षेत्रके वर्तमान तीर्थंकरदेव] श्री सीमन्धरस्वामीसे प्राप्त दिव्य ज्ञानके द्वारा श्री पद्मनन्दीनाथ [कुन्दकुन्दाचार्यदेव] ने बोध न दिया होता तो मुनिजन सच्चेमार्गको कैसे जानते?
हे कुन्दकुन्दादि आचार्य ! आपके वचन भी स्वरूपानुसन्धानमें इस पामरको परम उपकारभूत हुए हैं। इसलिये मैं आपको अतिशय भक्तिसे नमस्कार करता हूँ।
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श्रुतस्कंध’ के सर्वोत्कृष्ट आगमोंमेंसे एक है।
‘द्वितीय श्रुतस्कंध’ की उत्पत्ति किस प्रकार हुई, यह हम पट्टावलियोंके आधारसे संक्षेपमें देखेः––
आजसे २४८३ वर्ष पूर्व इस भरतक्षेत्रकी पुण्यभूमिमें जगतपूज्य परमभट्टारक भगवान श्री महावीरस्वामी मोक्षमार्गका प्रकाश करनेके लिये समस्त पदार्थोंका स्वरूप अपनी सातिशय दिव्यध्वनि द्वारा प्रगट कर रहे थे। उनके निर्वाणके पश्चात् पाँच श्रुतकेवली हुए, जिनमें अन्तिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहुस्वामी थे। वहाँ तक तो द्वादशांगशास्त्रकी प्ररूपणासे निश्चयव्यवहारात्मक मोक्षमार्ग यथार्थ– रूपमें प्रवर्तमान रहा। तत्पश्चात् कालदोषसे क्रमशः अंगोके ज्ञानकी व्युच्छित्ति होती गई। इस प्रकार अपार ज्ञानसिंधुका बहुभाग विच्छेदको प्राप्त होनेके पश्चात् दूसरे भद्रबाहुस्वामी आचार्यकी परिपाटीमें दो समर्थ मुनिवर हुए– एक श्री धरसेनाचार्य और दूसरे श्री गुणधराचार्य। उनसे प्राप्त ज्ञानके द्वारा उनकी परंपरामें होनेवाले आचार्योने शास्त्रोंकी रचना की और वीर भगवानके उपदेशका प्रवाह अच्छिन्न रखा।
श्री धरसेनाचार्यने आग्रायणीपूर्वके पंचम वस्तु अधिकारके महाकर्मप्रकृति नामक चतुर्थ प्राभृतका ज्ञान था। उस ज्ञानामृतसे क्रमशः उनके बाद होनेवाले आचार्योंने षट्खंडागम, धवल, महाधवल, जयधवल, गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणासार आदि शास्त्रोंकी रचना की। इस प्रकार प्रथम श्रुतस्कंधकी उत्पत्ति हुई। उसमें मुख्यतः जीव और कर्मके संयोगसे उत्पन्न होनेवाली आत्माकी संसारपर्यायका –गुणस्थान, मार्गणास्थान आदिका –वर्णन है, पर्यायार्थिक नयको प्रधान करके कथन है। इस नयको अशुद्धद्रव्यार्थिक भी कहते है और अध्यात्मभाषामें अशुद्धनिश्चयनय अथवा व्यवहार कहा जाता है।
श्री गुणधराचार्यको ज्ञानप्रवादपूर्वके दशम वस्तुके तृतीय प्राभृतका ज्ञान था। उस ज्ञानमेंसे उनके पश्चात् होनेवाले आचार्योंने क्रमशः सिद्धान्त–रचना की। इस प्रकार सर्वज्ञ भगवान महावीरसे चले आनेवाला ज्ञान आचार्य – परम्परा द्वारा भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवको प्राप्त हुआ। उन्होंने पंचास्तिकायसंग्रह, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार, अष्टपाहुड़ आदि शास्त्रोंकी रचना की। इस प्रकार द्वितीय श्रुतस्कंधकी उत्पत्ति हुई। उसमें मुख्यतया ज्ञानकी प्रधानतापूर्वक शुद्धद्रव्यार्थिक नयसे कथन है, आत्माके शुद्ध स्वरूपका वर्णन है।
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भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव विक्रम संवतके प्रारम्भमे हुए हैं। दिगम्बर जैन परम्परामें भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवका स्थान सर्वोत्कृष्ट है। ‘मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी। मंगलं कुंदकुंदार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलंम्।।’– यह श्लोक प्रत्येक दिगम्बर जैन शास्त्रपठनके प्रारम्भमें मंगलाचरणरूपसे बोलता है। इससे सिद्ध होता है कि सर्वज्ञ भगवान श्री महावीरस्वामी और गणधर भगवान श्री गौतमस्वामीके पश्चात् तुर्त ही भगवान कुंदकुंदाचार्यका स्थान आता है। दिगम्बर जैन साधु अपनेको कुंदकुंदाचार्यकी परम्पराका कहलानेमें गौरव मानते हैं। भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवके शास्त्र साक्षात् गणधरदेवके वचनों जितने ही प्रमाणभूत माने जाते हैं। उनके पश्चात् होनेवाले ग्रंथकार आचार्य अपने किसी कथनको सिद्ध करनेके लिये कुंदकुंदाचार्यदेवके शास्त्रोंका प्रमाण देते हैं जिससे वह कथन निर्विवाद सिद्ध हो जाता है। उनके पश्चात् लिखे गये ग्रंथोंमें उनके शास्त्रोंमेंसे बहुत अवतरण लिए गये हैं। वास्तवमें भगवान कुंदकुंदाचार्यने अपने परमागमोंमें तीर्थंकरदेवों द्वारा प्ररूपित उत्तमोत्तम सिद्धांतोंको सुरक्षित करके मोक्षमार्गको स्थिर रखा है। वि० सं० ९९० में होनेवाले श्री देवसेनाचार्यवर अपने दर्शनसार नामक ग्रंथमें कहते हैं कि ‘‘विदेहक्षेत्रके वर्तमान तीर्थंकर श्री सीमंधरस्वामीके समवसरणमें जाकर श्री पद्मनन्दिनाथ (कुंदकुंदाचार्यदेव) ने स्वयं प्राप्त किये हुए ज्ञान द्वारा बोध न दिया होता तो मुनिजन सच्चे मार्गको कैसे जानते?’’ हम एक दूसरा उल्लेख भी देखे, जिसमें कुंदकुंदाचार्यदेवको कलिकालसर्वज्ञ कहा गया हैः ‘‘पद्मनन्दि, कुंदकुंदाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य, एलाचार्य, गृध्रपिच्छाचार्य – इन पाँच नामोंसे विभूषित, जिन्हें चार अंगुल ऊपर आकाशमें गमन करनेकी ऋद्धि प्राप्त थी, जिन्होंने पूर्व विदेहमें जाकर सीमंधरभगवानकी वंदना की थी और उनसे प्राप्त हुए श्रुतज्ञानके द्वारा जिन्होंने भारतवर्षके भव्य जीवोंको प्रतिबोधित किया है ऐसे जो जिनचन्द्रसुरिभट्टारकके पट्टके आभरणरूप कलिकालसर्वज्ञ (भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव) उनके द्वारा रचे गये इस षट्प्राभृत ग्रन्थमें॰॰॰॰ सूरीश्वर श्री श्रुतसागर रचित मोक्षप्राभृतकी टीका समाप्त हुई।’’ ऐसा षट्प्राभृतकी श्री श्रुतसागरसूरिकृत टीकाके अंतमें लिखा है। १ भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवकी महत्ता दरशानेवाले ऐसे अनेकानेक उल्लेख जैन साहित्यमें मिलते हैं; शिलालेख२ भी अनेक हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि सनातन जैन सम्प्रदायमें कलिकालसर्वज्ञ भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवका स्थान अद्वितीय है। ----------------------------------------------------- मूल श्लोकके लिये देखिये आगे ‘भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेव सम्बन्धी उल्लेख’। १ भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवके विदेह गमन सम्बन्धी एक उल्लेख (लगभग विक्रम संवत् की तेरहवीं शताब्दीमें होनेवाले) श्री जयसेनाचार्यने भी किया है। उस उल्लेखके लिये इस शास्त्रके तीसरे पृष्ठका पदटिप्पण देखे। २ शिलालेखोंके लिये देखिये आगे ‘भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेव सम्बन्धी उल्लेख’।
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भगवान कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा रचित अनेक शास्त्र हैं, जिनमेंसे कुछ वर्तमानमें विद्यमान हैं। त्रिलोकनाथ सर्वज्ञदेवके मुखसे प्रवाहित श्रुतामृत सरितामेंसे भर लिये गये अमृतभाजन आज भी अनेक आत्मार्थियोंको आत्मजीवन प्रदान कर रहे हैं। उनके समयसार, प्रवचनसार, नियमसार और पंचास्तिकायसंग्रह नामक उत्तमोत्तम परमागमोंमें हजारों शास्त्रोंका सार आजाता है। भगवान कुन्दकुन्दाचार्यके पश्चात् लिखे गये अनेक ग्रंथोंके बीज इन परमागमोंमें विद्यमान हैं ऐसा सूक्ष्म द्रष्टिसे अभ्यास करने पर ज्ञात होता है। श्री समयसार इस भरतक्षेत्रका सर्वोत्कृष्ट परमागम है। उसमें नव तत्त्वोंका शुद्धनयकी द्रष्टिसे निरूपण करके जीवका शुद्ध स्वरूप सर्व प्रकारसे–आगम, युक्ति, अनुभव और परम्परासे–अति विस्तारपूर्वक समझाया है। श्री प्रवचनसारमें उसके नामानुसार जिनप्रवचनका सार संगृहित किया है तथा उसे ज्ञानतत्त्व, ज्ञेयतत्त्व और चरणानुयोगके तीन अधिकारोंमें विभाजित कर दिया है। श्री नियमसारमें मोक्षमार्गका स्पष्ट सत्यार्थ निरूपण है। जिस प्रकार समयसारमें शुद्धनयसे नव तत्त्वोंंका निरूपण किया है उसी प्रकार नियमसारमें मुख्यतः शुद्धनयसे जीव, अजीव, शुद्धभाव, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना, प्रायश्चित, समाधि, भक्ति, आवश्यक, शुद्धोपयोग आदिका वर्णन है। श्री पंचास्तिकायसंग्रहमें काल सहित पाँच अस्तिकायोंका (अर्थात् छह द्रव्योंका) और नव पदार्थपूर्वक मोक्षमार्गका निरूपण है।
इस पंचास्तिकायसंग्रह परमागमको प्रारम्भ करते हुए शास्त्रकर्ताने इसे ‘सर्वज्ञ महामुनिके मुखसे कहे गये पदार्थोंका प्रतिपादक, चतुर्गतिनाशक और निर्वाणका कारण’ कहा है। इसमें कहे गये वस्तुतत्त्वका सार इस प्रकार हैः–
विश्व अर्थात अनादि–अनंत स्वयंसिद्ध सत् ऐसी अनंतानन्त वस्तुओंका समुदाय। उसमेंकी प्रत्येक वस्तु अनुत्पन्न एवं अविनाशी है। प्रत्येक वस्तुमें अनंत शक्तियाँ अथवा गुण हैं, जो त्रैकालिक नित्य है। प्रत्येक वस्तु प्रतिक्षण अपनेमें अपना कार्य करती होने पर भी अर्थात् नवीन दशाऐं– अवस्थायें–पर्यायें धारण करती हैं तथापि वे पर्यायें ऐसी मर्यादामें रहकर होती हैं कि वस्तु अपनी जातिको नहीं छोड़ती अर्थात् उसकी शक्तियोंमेंसे एक भी कम–अधिक नहीं होती। वस्तुओंकी [– द्रव्योंकी] भिन्नभिन्न शक्तियोंकी अपेक्षासे उनकी [–द्रव्योंकी] छह जातियाँ हैः जीवद्रव्य, पुद्गलद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य। जिसमें सदा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सुख आदि अनंत गुण [–शक्तियाँ] हो वह जीवद्रव्य है; जिसमें सदा वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि अनंत गुण हो वह पुद्गलद्रव्य है; शेष चार द्रव्योंके विशिष्ट गुण अनुक्रमसे गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, अवगाहहेतुत्व तथा वर्तनाहेतुत्व हैे। इन छह द्रव्योंमेंसे प्रथम पाँच द्रव्य सत् होनेसे तथा शक्ति अथवा व्यक्ति– अपेक्षासे विशाल क्षेत्रवाले होनेसे ‘अस्तिकाय’ है; कालद्रव्य ‘अस्ति’ है ‘काय’ नहीं है। जिनेन्द्रके ज्ञानदर्पणमें झलकते हुए यह सर्व द्रव्य – अनंत जीवद्रव्य, अनन्तानन्त पुद्गलद्रव्य, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य, तथा असंख्य कालद्रव्य,–स्वयं परिपूर्ण हैं और अन्य द्रव्योंसे बिलकुल स्वतंत्र हैं; वे परमार्थतः कभी एक दूसरेसे मिलते नहीं हैं, भिन्न ही रहते हैं। देव, मनुष्य, तिर्यंञ्च, नारक, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, आदि जीवोंमें जीव–पुद्गल मानो मिल गये हों ऐसा लगता हैं किन्तु वास्तवमें ऐसा नहीं है। वे बिलकुल पृथक हैं। सर्व जीव अनन्त ज्ञानसुखकी निधि है तथापि, पर द्वारा उन्हें कुछ सुखदुःख नहीं होता तथापि, संसारी अज्ञानी जीव अनादि कालसे स्वतः अज्ञानपर्यायरूप परिणमित होकर अपने ज्ञानानंदस्वभावको, परिपूर्णताको, स्वातंक्र्यको एवं
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अस्तित्वको भी भूल रहा है और पर पदार्थोंको सुखदुःखका कारण मानकर उनके प्रति रागद्वेष करता रहता है; जीवके ऐसे भावोंके निमित्तसे पुद्गल स्वतः ज्ञानावरणादिकर्मपर्यायरूप परिणमित होकर जीवके साथ संयोगमें आते हैं और इसलिये अनादि कालसे जीवको पौद्गलिक देहका संयोग होता रहता है। परंतु जीव और देहके संयोगमें भी जीव और पुद्गल बिलकुल पृथक् हैं तथा उनके कार्य भी एक दूसरेसे बिलकुल भिन्न एवं निरपेक्ष हैं–– ऐसा जिनेंद्रोंने देखा है, सम्यग्ज्ञानियोने जाना है और अनुमानगम्य भी है। जीव केवल भ्रांतिके कारण ही देहकी दशासे तथा इष्ट–अनिष्ट पर पदार्थोंसे अपने को सुखी दुःखी मानता है। वास्तवमें अपने सुखगुणकी विकारी पर्यायरूप परिणमित होकर वह अनादि कालसे दुःखी हो रहा है।
जीव द्रव्य–गुणसे सदा शुद्ध होने पर भी, वह पर्याय–अपेक्षासे शुभाशुभभावरूपमें, आंशिकशुद्धिरूपमें, शुद्धिकी वृद्धिरूपमें तथा पूर्णशुद्धिरूपमें परिणमित होता है और उन भावोंके निमित्तसे शुभाशुभ पुद्गलकर्मोंका आस्रवण एवं बंधन तथा उनका रुकना, खिरना और सर्वथा छूटना होता है। इन भावोंको समझानेके लिये जिनेन्द्रभगवंतोअने नव पदार्थोहका उपदेश दिया है। इन नव पदार्थोंको सम्यक्रूपसे समझनेपर, जीवको क्या हितरूप है, क्या अहितरूप है, शाश्वत परम हित प्रगट करनेके लिये जीवको क्या करना चाहिये, पर पदार्थोंके साथ अपना क्या सम्बन्ध है–इत्यादि बाते यथार्थरूपसे समझमें आती है और अपना सुख अपनेमें ही जानकर, अपनी सर्व पर्यायोमें भी ज्ञानानंदस्वभावी निज जीवद्रव्यसामान्य सदा एकरूप जानकर, ते अनादि–अप्राप्त ऐसे कल्याणबीज सम्यग्दर्शनको तथा सम्यग्ज्ञानको प्राप्त करता है। उनकी प्राप्ति होनेपर जीव अपनेको द्रव्य–अपेक्षासे कृतकृत्य मानता है और उस कृतकृत्य द्रव्यका परिपूर्ण आश्रय करनेसे ही शाश्वत सुखकी प्राप्ति– मोक्ष–होती है ऐसा समझता है।
सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होने पर जीवको शुद्धात्मद्रव्यका जो अल्प आलम्बन थयुं हो जाता है उससे वृद्धि होने पर क्रमशः देशविरत श्रावकत्व एवं मुनित्व प्राप्त होता है। श्रावकको तथा मुनिको शुद्धात्मद्रव्यके मध्यम आलम्बनरूप आंशिक शुद्धि होती है वह कर्मोंके अटकने खिरनेमें निमित्त होती है और जो अशुद्धिरूप अंश होता है वह श्रावकके देशव्रतादिरूपसे तथा मुनिके महाव्रतादिरूपसे देखाई देता है, जो कर्मबंधका निमित्त होता है। अनुक्रमसे वह जीव ज्ञानानंदस्वभावी शुद्धात्मद्रव्यका अति उग्ररूपसे अवलंबन करके, सर्व विकल्पोंसे छूटकर, सर्व रागद्वेष रहित होकर, केवलज्ञानको प्राप्त करके, आयुष्य पूर्ण होने पर देहादिसंयोगसे विमुक्त होकर, सदाकाल परिपूर्ण ज्ञानदर्शनरूपसे और अतीन्द्रिय अनन्त अव्याबाध आनंदरूपसे रहता है।
–यह, भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवने पंचास्तिकायसंग्रह शास्त्रमें परम करुणाबुद्धि–पूर्वक प्रसिद्ध किये गये वस्तुतत्त्वका संक्षिप्त सार है। इसमें जो रीत बतलाई है उसके अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार जीव अनादिकालीन भंयकर दुःखसे छूट नहीं सकता। जब तक जीव वस्तुस्वरूपको नहीं समझ पाता तब तक अन्य लाख प्रयत्नोंसे भी मोक्षका उपाय उसके हाथ नहीं लागता। इसलिये इस शास्त्रमें सर्व प्रथम पंचास्तिकाय और नव पदार्थका स्वरूप समझाया गया है जिससे कि जीव वस्तुस्वरूपको समझकर मोक्षमार्गके मूलभूत सम्यग्दर्शनको प्राप्त हो।
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अस्तिकायों और पदार्थोंके निरूपणके पश्चात शास्त्रमें मोक्षमार्गसूचक चूलिका है। यह अन्तिम अधिकार, शास्त्ररूपी मंदिर पर रत्नकलश भाँति शोभा देता है। अध्यात्मरसिक आत्मार्थी जीवोंका यह अति प्रिय अधिकार है। इस अधिकारका रसास्वादन करते हुए मानों उन्हें तृप्ति ही नहीं होती। इसमें मुख्यतः वीतराग चारित्रका–स्वसमयका–शुद्धमुनिदशाका–पारमार्थिक मोक्षमार्गका भाववाही मधुर प्रतिपादन है, तथा मुनिको सराग चारित्रकी दशामें आंशिक शुद्धिके साथ साथ कैसे शुभ भावोंका सुमेल अवश्य होता ही है उसका भी स्पष्ट निर्देश है। जिनके हृदयमें वीतरागताकी भावना का मंथन होता रहता है ऐसे शास्त्रकार और टीकाकार मुनींद्रोंने इस अधिकारमें मानों शांत वीतराग रसकी सरिता प्रवाहित की है। धीर गम्भीर गतिसे बहती हुई उस शांतरसकी अध्यात्मगंगामें स्नान करनेसे तत्त्वजिज्ञासु भावुक जीव शीतलताभीभूत होते हैं और उनका हृदय शांत–शांत होकर मुनियोंकी आत्मानुभवमूलक सहजशुद्ध उदासीन दशाके प्रति बहुमानपूर्वक नमित हो जाता है। इस अधिकार पर मनन करनेसे सुपात्र मुमुक्षु जीवों को समझमें आता है कि ‘शुद्धात्मद्रव्यके आश्रयसे सहज दशाका अंश प्रगट किये बिना मोक्षके उपायका अंश भी प्राप्त नहीं होता।
कानजीस्वामी) को अपार भक्ति है। वे अनेकों बार कहते है कि –‘‘श्री समयसार, नियमसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकायसंग्रह आदि शास्त्रोकी प्रत्येक गाथामें दिव्यध्वनिका संदेश है। इन गाथाओंमें इतनी अपार गहराई है कि उसे मापते हुए अपनी ही शक्तिका माप निकल आता है। इन सारगंभीर शास्त्रोंके रचयिता परम कृपालु अचार्यभगवानकी कोई परम अलौकिक सामर्थ्य है। परम अद्भूत सातिशय अंतर्बाह्य योगोंके बिना इन शास्त्रोंकी रचना शकय नहीं है। इन शास्त्रोंकी वाणी तरते हुए पुरुषकी वाणी है ऐसा हम स्पष्टजानते हैं। इनकी प्रत्येक गाथा छठ्ठे–सातवें गुणस्थानमें झुलनेवाले महामुनीके आत्मानुभवमेंसे प्रगट हुई है। इन शास्त्रोंके रचयिता भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव महाविदेहक्षेत्रमें सर्वज्ञ वीतराग श्री सीमंधरभगवानके समवसरणमें गये थे और वे वहाँ आठ दिन तक रहे थे यह बात यथातथ्य है, अक्षरशः सत्य है, प्रमाणसिद्ध है। उन परमोपकारी आचार्यभगवान द्वारा रचे गये समयसारादि शास्त्रोंमें तीर्थंकरदेवकी ऊँ कारध्वनिमेंसे नीकला हुआ उपदेश है।’’
इस शास्त्रमें भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवकी प्राकृत गाथाओं पर समयआख्या नामक संस्कृत टीकाके लेखक (लगभग विक्रम संवतकी १० वीं शताद्बीमें हो गये) श्री अमृतचंद्राचार्यदेव है। जिस– प्रकार इस शास्त्रके मूल कर्ता अलौकिक पुरुष हैं उसी प्रकार उसके टीकाकार भी महासमर्थ आचार्य हैं; उन्होंने समयसारकी तथा प्रवचनसारकी टीका भी लिखी है और तत्त्वार्थसार, पुरुषार्थसिद्धयुपाय आदि स्वतंत्र ग्रंथ भी रचे हैं। उनकी टीकाओं जैसी टीका अभी तक अन्य किसी जैन ग्रंथकी नहीं लिखी गयी है। उनकी टीकाऐं पढ़नेवाले उनकी अध्यात्मरसिकता, आत्मानुभव, प्रखर विद्वत्ता, वस्तुस्वरूपकी न्यायसे सिद्ध करनेकी असाधारण शक्ति, जिनशासनका सातिशय अगाध ज्ञान, निश्चय–व्यवहारका संधिबद्ध निरूपण करनेकी विरल शक्ति एवं उत्तम काव्यशक्तिकी सम्पूणर प्रतीति हो जाती है। अति संक्षेपमें गंभीर रहस्य भर देनेकी उनकी शक्ति विद्वानोंको आश्चर्यचकित कर देती है। उनकी दैवी टीकाऐं श्रुतकेवलीके वचन समान हैं। जिस प्रकार मूल शास्त्रकारनके शास्त्र अनुभव– युक्ति आदि समस्त समृद्धिसे समृद्ध हैं उसी प्रकार टीकाकारकी टीकाऐं भी उन–उन सर्व समृद्धियोंसे विभूषित हैं। शासनमान्य भगवान कुदकुन्दाचार्यदेने इस कलिकालमें जगद्गुरु तीर्थंकरदेव जैसा कार्य किया है और श्री अमृतचंद्राचार्यदेने व–मानों वे कुन्दकुन्दभगवानके हृदयमें प्रविष्ट हो गये हों
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इस प्रकार –– उनके गंभीर आशयोंको यथार्थरूपसे व्यक्त करके उनके गणधर जैसा कार्य किया है। श्री अमृतचंद्राचार्यदेवके रचे हुए काव्य भी अध्यात्मरस एवं आत्मानुभवकी मस्तीसे भरपूर है। श्री समयसारकी टीकामें आनेवाले काव्योंं (–कलशों) ने श्री पद्मप्रभमलधारीदेव जैसे समर्थ मुनिवरों पर गहरा प्रभाव डाला है और आज भी वेे तत्त्वज्ञान एवं अध्यात्मरससे भरपूर मधुर कलश अध्यात्मरसिकोंके हृद्तंत्रीको झंकृत कर देते हैं। अध्यात्मकविके रूपमेंश्री अमृतचंद्राचार्यदेवका स्थान अद्वितीय है।
पंचास्तिकायसंग्रहमें भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवने १७३ गाथाओंकी रचना प्राकृतमें की है। उस पर श्री अमृतचंद्राचार्यदेवने समयव्याख्या नामकी तथा श्री जयसेनाचार्यदेवने तात्पर्यवृत्ति नामकी संस्कृत टीका लिखी है। श्री पांडे हेमराजजीने समयव्याख्याका भावार्थ (प्राचीन) हिंदीमें लिखा है और उस भावार्थका नाम बालावबोधभाषाटीका रखा है। विक्रम संवत् १९७२ में श्री परमश्रुतप्रभावक मंडल द्वारा प्रकाशित हिंदी पंचास्तिकायमें मूल गाथाऐं, दोनों संस्कृत टीकाऐं और श्री हेमराजजीकृत बालावबोधभाषाटीका (श्री पन्नालालजी बाकलीवाल द्वारा प्रचलित हिंदी भाषाके परिवर्तित स्वरूपमें) दी गई है। इसके पश्चात् प्रकाशित होनेवाली गुजराती पंचास्तिकायसंग्रहमें मूल गाथाऐं, उनका गुजराती पद्यानुवाद, संस्कृत समयव्याख्या टीका और उस गाथा–टीकाका अक्षरशः गुजराती अनुवाद प्रकाशित किया गया है, जिसका यह हिन्दी अनुवाद है। जहाँ विशेष स्पष्टता करने की आवश्यकता दिखाई दी वहाँ ‘कौंस’ में अथवा ‘भावार्थ’ में अथवा पदटिप्पणमें स्पष्टता की है। उस स्पष्टतामें अनेक स्थानोंपर श्री जयसेनाचार्यदेवकृत तात्पर्यवृत्ति अतिशय उपयोगी हुई है; कुछ स्थानोंपर तो तात्पर्यवृत्तिके किसी किसी भागका अक्षरशः अनुवाद ही ‘भावार्थ’ अथवा टिप्पणी रूपमें किया है। श्री हेमराजजीकृत बालावबोधभाषाटीकाका आधार भी किसी स्थानपर लिया है। श्री परमश्रुतप्रभावक मंडल द्वारा प्रकाशित पंचास्तिकायमें छपीहुई संस्कृत टीकाका हस्तलिखित प्रतियोंके साथ मिलान करनेपर उसमें कहीं अल्प अशुद्धियाँ दिखाई दी वे इसमें सुधारली गई हैं।
इस शास्त्रका गुजराती अनुवाद करनेका महाभाग्य मुझे प्राप्त हुआ वह अत्यंत हर्षका कारण है। परम पूज्य सद्गुरुदेवके आश्रयमें इस गहन शास्त्रका अनुवाद हुआ है। अनुवाद करनेकी समस्त शक्ति मुझे पूज्यपाद सद्गुरुदेवसे ही प्राप्त हुई है। परमोपकारी सद्गुरुदेवके पवित्र जीवनके प्रत्यक्ष परिचय बिना तथा उनके आध्यात्मिक उपदेशके बिना इस पामरको जिनवाणीके प्रति लेश भी भक्ति या श्रद्धा कहाँसे प्रगट होती? भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव और उनके शास्त्रोंकी लेश भी महिमा कहाँसे आती और उन शास्त्रोका अर्थ समझनेकी लेश भी शक्ति कहाँसे प्राप्त होती? इस प्रकार अनुवादकी समस्त शक्तिका मूल श्री सद्गुरुदेव ही होनेसे वास्तवमें तो सद्गुरुदेवकी अमृतवाणीका स्त्रोत ही ––उनके द्वारा प्राप्त अनमोल उपदेश ही–यथासमय इस अनुवादरूपमें परिणमित हुआ है। जिनके शक्तिसिंचन तथा छत्रछायासे मैने इस गहन शास्त्रका अनुवादका साहस किया था और जिनकी कृपासे वह निर्विध्न समाप्त हुआ है उन परमपूज्य परमोपकारी सद्गुरुदेव (श्री कानजीस्वामी) के चरणारविंदमें अत्यंत भक्तिभावपूर्वक वंदन करता हूँ।
परम पूज्य बेनश्री चंपाबेनके तथा परम पूज्य बेन शान्ताबेनके प्रति भी, इस अनुवादकी पूर्णाहुति करते हुए, उपकारवशताकी उग्र वृत्तिका अनुभव होता है। जिनके पवित्र जीवन और बोध,
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इस पामरको श्री पंचास्तिकायसंग्रह प्रति, पंचास्तिकायसंग्रहके महान कर्ता प्रति एवं पंचास्तिकायसंग्रहमें उपदेशित वीतरागविज्ञानके प्रति बहुमान वृद्धिके विशिष्ट निमित्त हुए हैं, ऐसी परम पूज्य बहिनश्रीके चरणकममें यह हृदय नमन करता है।
इस अनुवादमें, आदरणीय वकील श्रीरामजीभाई माणेकचंद दोशी तथा बालब्रह्मचारी भाईश्री चंदुलाल खीमचंद झोबालियाकी हार्दिक सहायता है। आदरणीय श्री रामजीभाईने अपने व्यस्त धार्मिक व्यवसायोंमेंसे समय निकालकर समस्त अनुवादकी सुक्ष्मतासे जाँचकी है, यथोचित सूचनायें दी है और अनुवादमें आनेवाली छोटी–बड़ी कठिनाईयोंका अपने विशाल शास्त्रज्ञानसे निराकरण किया है। उनकी सूचनाएँ मेरे लिये अति उपयोगी सिद्ध हुई है। ब्रम्हचारी भाईश्री चंदुलालभाईने समस्त अनुवादको अति सूक्ष्मतासे जाँचकर उपयोगी सूचनाऐं दी है, बहुत परीश्रमपूर्वक हस्तलिखित प्रतियोंके आधारसे संस्कृत टीका सुधारी है, अनुक्रमणिका, गाथासूची, शुद्धिपत्र आदि तैयार किये हैं, तथा अत्यंत सावधानीसे ‘प्रूफ’ संशोधन किया है––इस प्रकार अति परिश्रम एवं सावधानीपूर्वक सर्वतोमुखी सहायता की हैे। दोनों सज्जनोंकी सहायताके लिये मैं उनका अंतःकरणपूर्वक आभार मानता हूँ। उनकी हार्दिक सहायताके बिना इस अनुवादमें अनेक त्रुटियाँ रह जाती। जिन– जिन टीकाओं तथा शास्त्रोंका मैने आधार लिया है उन सबके रचयिताओंका भी मैं ऋणी हूँ।
यह अनुवाद मैने पंचास्तिकायसंग्रहके प्रति भक्ति एवं गुरुदेवकी प्रेरणासे प्रेरित होकर, निजकल्याणके हेतु , भवभयसे डरते डरते किया है । अनुवाद करते समय इस बातकी मैने सावधानी रखी है कि शास्त्रके मूल आशयोंमें कोई परिवर्तन न हो जाये। तथापि अल्पज्ञताके कारण इसमें कही आशय–परिवर्तनथयो हुआ हो या भूलो रह गई हो तो उसके लिये मैं शास्त्रकार श्री कुन्दकुन्दाचार्य–भगवान, टीकाकार श्री अमृतचंद्राचार्यदेव, परमकृपालु श्री सद्गुरुदेव एवं मुमुक्षु पाठकोंसे हार्दिक क्षमा याचना करता हूँ ।
जिनेन्द्रशासनका संक्षेपमें प्रतिपादन करनेवाले इस पवित्र शास्त्रका अध्ययन करके यदि जीव इसके आशयोंको भलीभाँति समझले तो वह अवश्यही चार गतिके अनंत दुःखोनका नाश करके निर्वाणको प्राप्त हो। इसके आशयको सम्यक् प्रकारसे समझनेके लिये निम्नोक्त बातोंको लक्षमें रखना आवश्यक हैः– इस शास्त्रमें कतिपय कथन स्वाश्रित निश्चयनयके हैं (–जो स्वका परसे पृथक्रूप निरूपण करते हैं) और कतिपय कथन पराश्रित व्यवहारनयके हैं (–जो स्वका परके साथ मिश्रितरूपसे निरूपण करते हैं); तथा कतिपय कथन अभिन्नसाध्यसाधन–भावाश्रित निश्चयनयके हैं और कतिपय भिन्नसाध्यसाधनभावश्रित व्यवहारनयके हैं। वहाँ निश्चयकथनोंका तो सीधा ही अर्थ करना चहिये और व्यवहारकथनोंका अभूतार्थ समझकर उनका सच्चा आशय क्या है वह निकालना चाहिये। यदि ऐसा न किया जायगा तो विपरीत समझ होनेसे महा अनर्थ होगा। ‘प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। वह अपने ही गुणपर्यायोंको तथा उत्पादव्ययध्रौव्यको करता है। परद्रव्यका वह ग्रहण– त्याग नहीं कर सकता तथा परद्रव्य वास्तवमें उसे कुछ लाभ–हानि या सहाय नहीं कर सकता । ––जीवकी शुद्ध पर्याय संवर–निर्जरा–मोक्षके कारणभूत है और अशुद्ध पर्याय आस्रव–बंधके कारणभूत है।’– ऐसे मूलभूत सिद्धांतोंको कहीं बाधा न पहुँचे इस प्रकार सदैव शास्त्रके कथनोंका अर्थ करना चाहिये। पुनश्च इस शास्त्रमें कुछ परमप्रयोजनभूत भावोंका निरूपण अति संक्षेपमें ही किया गया है
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इसलिये, यदि इस शास्त्रके अभ्यासकी पूर्ति समयसार, नियमसार, प्रवचनसार आदि अन्य शास्त्रोके अभ्यास द्वारा की जावे तो मुमुक्षुओंको इस शास्त्रके आशय समझनेमें विशेष सुगमता होगी। आचार्यभगवानने सम्यग्ज्ञानकी प्रसिद्धिके हेतुसे तथा मार्गकी प्रभावनाके हेतुसे यह पंचास्तिकायसंग्रह शास्त्र कहा है। हम इसका अध्ययन करके, सर्व द्रव्योंकी स्वतंत्रता समझकरके, नव पदार्थोको यथार्थ समझ करके, चैतन्यगुणमय जीवद्रव्यसामान्यका आश्रय करके, सम्यग्दर्शन–सम्यग्ज्ञान प्रगटा करके, मार्गको प्राप्त करके, भवभ्रमणके दुःखोंका अन्त प्राप्त करें यही भावना है। श्री अमृतचंद्राचार्यदेवने पंचास्तिकायसंग्रहके सम्यक् अवबोधके फलका निम्नोक्त शब्दोमें वर्णन किया हैः–‘जो पुरुष वास्तवमें वस्तुत्त्वका कथन करनेवाले इस ‘पंचास्तिकायसंग्रह’ को अर्थतः अर्थीरूपसे जानकर, इसीमें कहे हुए जीवास्तिकायमें अंतर्गत अपनेको (निज आत्माको) स्वरूपसे अत्यंत विशुद्ध चैतन्यस्वभाववान निश्चित करके, परस्पर कार्यकारणभूत ऐसे अनादि रागद्वेषपरिणाम एवं कर्मबंधकी परंपरासे जिसमें स्वरूपविकार आरोपित है ऐसा अपनेकोे (निज आत्माको) उस काल अनुभवमें आता अवलोक कर, उस समय विवेकज्योति प्रगट होनेसे (अर्थात् अत्यंत विशुद्ध चैतन्यस्वभावका तथा विकारका भेदज्ञान उस काल ही प्रगट प्रवर्तमान होने से) कर्मबंधकी परंपराको प्रवर्तन कराने वाली रागद्वेषपरिणतिको छोड़ता है, वह पुरुष, सचमुच जिसका स्नेह जीर्ण होता जाता है ऐसा, जघन्य स्नेहगुणके संमुख वर्तत परमाणुकी भाँति भावी बंधसे पराङ्मुख वर्तता हुआ, पूर्व बंधसे छूटता हुआ, अग्नितप्त जलकी दुःस्थिति समान जो दुःख उससे परिमुक्त होता है।’ कार्तिक कृष्णा ४, हिंमतलाल जठालाल शाह वि॰ सं॰ २०१३ सोनगढ़ (सौराष्ट्र)
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व्यवहार का श्रद्धान छोड़कर निश्चयका श्रद्धान करना योग्य है। व्यवहारनय स्वद्रव्य और परद्रव्यको तथा उनके भावोंको तथा कारण–कार्यादि को किसीको किसीमें मिलाकर निरूपण करता है, अतः ऐसे ही श्रद्धान से मिथ्यात्व है; इसलिये उसका त्याग करना। तथा निश्चयनय उन्हींो यथावत् निरूपण करता है, किसी को किसी में नहीं मिलाता, अतः ऐसे ही श्रद्धानसे सम्यक्त्व होता है, इसलिये उसका श्रद्धान करना। प्रश्नः––––यदि ऐसा है, तो जिनमार्ग में दोनों नयों को ग्रहण करना कहा है––––वह किस प्र्रकार कहा है? उत्तरः––––जिनमार्ग में कहीं तो निश्चयनयकी मुख्यतासे व्याख्यान है, उसे तो ‘सत्यार्थ ऐसा ही है’ ––––ऐसा जानना; तथा कहीं व्यवहारनयकी मुख्यतासे व्याख्यान है, उसे ‘ऐसा नहीं, निमित्तादिकी अपेक्षासे उपचार किया है’ ऐसा जानना। इस प्रकार जाननेका नाम ही दोनों नयोंका ग्रहण है। परन्तु दोनों नयोंके व्याख्यानको समान सत्यार्थ जानकर ‘ऐसा भी है और ऐसा भी है ’ ऐसा भ्रमरूप प्रवर्तनेसे तो दोनों नयोंका ग्रहण करना नहीं कहा है।
प्रश्नः– यदि व्यवहारनय असत्यार्थ है, तो उसका उपदेश जिनमार्गमें किसलिये दिया? एक निश्चयनयका ही निरूपण करना था?
उत्तरः– ऐसा ही तर्क श्री समयसारमें किया है; वहाँ यह उत्तर दिया हैः–
तह ववहारेण विणा परमत्थुवएसणमसक्कं।।
अर्थः– जिस प्रकार अनार्यको –म्लेच्छको म्लेच्छभाषाके बिना अर्थ ग्रहण कराना शक्य नहीं है, उसी प्रकार व्यवहारके बिना परमार्थका उपदेश अशक्य है। इसलिये व्यवहारका उपदेश हैे।
तथा इसी सूत्रकी व्याख्यामें ऐसा कहा है कि – व्यवहारनयो नानुसर्तव्यः’ अर्थात् निश्चयको अंगीकार करानेके लियेे व्यवहार द्वारा उपदेश दिया जाता है, परन्तु व्यवहारनय है वह अंगीकार करने योग्य नहीं है।
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प्रश्नः– [१] व्यवहारके बिना निश्चयका उपदेश नहीं होता – वह किस प्रकार? तथा [२] व्यवहारनयको अंगीकार नहीं करना चाहिये – वह किस प्रकार?
उत्तरः– [१] निश्चयनयसे तो आत्मा परद्रव्यसे भिन्न, स्वभावोंसे अभिन्न स्वयंसिद्ध वस्तु है। उसे जो न पहिचानेे, उनसेे ऐसा ही कहते रहे तो वे नहीं समझेंगे। इसलिये उन्हें समझानेके लिये व्यवहारनयसे शरीरादिक परद्रव्योंकी सापेक्षता द्वारा नर–नारक–पृथ्वीकायादिरूप जीवके भेद किये, तब ‘मनुष्य जीव है,’ नारकी जीव है’ इत्यादि प्रकारसे उन्हें जीवकी पहिचान हुई; अथवा अभेद वस्तुमें भेद उत्पन्न करके ज्ञान–दर्शनादि गुणपर्यायरूप जीवके भेद किये, तब ‘जाननेवाला जीव है,’ ‘देखनेवाला जीव है’ इत्यादि प्रकारसे उन्हेंं जीवकी पहिचान हुई। और निश्चयसे तो वीतरागभाव मोक्षमार्ग है; किन्तु उसे जो नहीं जानते, उनसेे ऐसा ही कहते रहें तो वे नहीं समझेंगे ; इसलिये उन्हें समझानेके लिये, व्यवहारनयसे तत्त्वार्थश्रद्धान ज्ञानपूर्वक परद्रव्यका निमित्त मिटानेकी सापेक्षता द्वारा व्रत–शील–संयमादिरूप वीतरागभावके विशेष दर्शाये, तब उन्हें वीतरागभावकी पहिचान हुई। इसी प्रकार, अन्यत्र भी व्यवहार बिना निश्चयका उपदेश न होना समझना।
[२] यहाँ व्यवहारसे नर–नारकादि पर्यायको ही जीव कहा। इसलिये कहीं उस पर्यायको ही जीव न मान लेना। पर्याय तो जीव–पुद्गलके संयोगरूप है। वहाँ निश्चयसे जीवद्रव्य प्रथक है; उसीको जीव मानना। जीवके संयोगसे शरीरादिकको भी जीव कहा वह कथनमात्र ही है। परमार्थसे शरीरादिक जीव नहीं होते। ऐसा ही श्रद्धान करना। डूसरभ, अभेद आत्मामें ज्ञान–दर्शनादि भेद किये इसलिये कहीं उन्हें भेदरूप ही न मान लेना; भेद तो समझानेके लिये है। निश्चयसे आत्मा अभेद ही है; उसीको जीववस्तु मानना। संज्ञा–संख्यादि भेद कहे वे कथनमात्र ही है ; परमाथसे वे पृथक– पृथक नहीं हैं। ऐसा ही श्रद्धान करना। पुनश्च, परद्रव्यका निमित्त मिटानेकी अपेक्षासे व्रत– शील–संयमादिकको मोक्षमार्ग कहा इसलिये कहीं उन्हींको मोक्षमार्ग न मान लेना; क्योंकि परद्रव्यके ग्रहण–त्याग आत्माको हो तो आत्मा परद्रव्यका कर्ता–हर्ता हो जाये, किन्तु कोई द्रव्य किसी द्रव्यके आधीन नहीं हैं। आत्मा तो अपने भाव जो रागादिक है उन्हें छोड़कर वीतरागी होता है, इसलिये निश्चयसे वीतरागभाव ही मोक्षमार्ग है। वीतरागभावोंको और व्रतादिकको कदाचित् कार्यकारणपना है इसलिये व्रतादिकको मोक्षमार्ग कहा किन्तु वह कथनमात्र ही है। परमार्थसे बाह्यक्रिया मोक्षमार्ग नहीं है। ऐसा ही श्रद्धान करना। इसी प्रकार, अन्यत्र भी व्यवहारनयको अंगीकार न करनेका समझ लेना।