प्रश्नः– व्यवहारनय परको उपदेश करनेमें ही कार्यकारी है या स्वयंका भी प्रयोजन साधता है?
उत्तरः– स्वयं भी जब तक निश्चयनयसे प्ररूपति वस्तुको नहीं जानता तबतक व्यवहारमार्ग द्वारा
वस्तुका निश्चय करता है। इसलिये नीचली दशामें स्वयंको भी व्यवहारनय कार्यकारी है। परन्तु व्यवहारको उपचारमात्र मानकर उसके द्वारा वस्तुका श्रद्धान बराबर किया जावे तो वह कार्यकारी हो, और यदि निश्चयकी भाँति व्यवहार भी सत्यभूत मानकर ‘वस्तु ऐसी ही है’ ऐसा श्रद्धान किया जावे तो वह उल्टा अकार्यकारी हो जाये। यही पुरुषार्थसिद्धयुपायमें कहा हैः–
अबुधस्य बोधनांर्थ मुनीश्वरा देशयन्त्तत्यभूतार्थम्। व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति।। माणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीतसिंहस्य। व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य।।
अर्थः– मुनिराज, अज्ञानीको समझानेके लिये असत्यार्थ जो व्यवहारनय उसको उपदेश देते हैं।
जो केवळ व्यवहारको ही समझाता है, उसे तो उपदेश ही देना योग्य नहीं है। जिस प्रकार जो सच्चे सिंहको न समझता उसे तो बिलाव ही सिंह है, उसी प्रकार जो निश्चयको नहीं समझता उसके तो व्यवहार ही निश्चयपनेको प्राप्त होता है।
अब, निश्चय–व्यवहार दोनों नयोंके आभासका अवलम्बन लेते हैं ऐसे मिथ्याद्रष्टियोंका
निरूपण करते हैंः––
कोई ऐसा मानते हैं कि जिनमतमें निश्चय और व्यवहार दो नय कहे हैं इसलिये हमें उन
दोनोंका अंगीकार करना चाहिये। ऐसा विचारकर, जिस प्रकार केवळनिश्चयभासके अवलिम्बयोंका कथन किया था तदनुसार तो वे निश्चयका अंगीकार करते हैं और जिस प्रकार केवलव्यवहाराभासके अवलिम्बयोंका कथन किया था तदनुसार व्यवहारका अंगीकार करते हैं। यद्यपि इस प्रकार अंगीकार करनेमें दोनों नयोंमें विरोध है, तथापि करें क्या? दोनों नयोंका सच्चा स्वरूप तो भासित हुआ नहीं है और जिनमतमें दो नय कहे हैं उनमेंसे किसीको छोड़ा भी नहीं जाता। इसलिये भ्रमपूर्वक दोनों नयोकां साधन साधते हैं। उन जीवोंको भी मिथ्याद्रष्टि जानना।
अब उनकी प्रवृत्तिकी विशेषता दर्शाते हैंः–
अंतरंगमें स्वयंको तो निर्धार करके यथावत् निश्चय–व्यवहार मोक्षमार्गको पहिचाना नहीं है
परन्तु जिन–आज्ञा मानकर निश्चय–व्यवहाररूप दो प्रकारके मोक्षमार्ग मानते हैं। अब मोक्षमार्ग तो कहीं दो हैं नहीं, मोक्षमार्गका निरूपण दो प्रकारसे है। जहाँं सच्चे मोक्षमार्गको मोक्षमार्ग निरूपण किया है वह निश्चयमोक्षमार्ग है, और जहाँंं मोक्षमार्ग तो है नहीं किन्तु मोक्षमार्गका निमित्त हैे अथवा सहचारी है, उसे उपचारसे मोक्षमार्ग कहें वह व्यवहारमोक्षमार्ग है; क्योंकि निश्चय–व्यवहारका सर्वत्र ऐसा ही लक्षण है। सच्चा निरूपण सो निश्चय, उपचार निरूपण सो व्यवहार। इसलिये निरूपणकी अपेक्षासे दो प्रकासे मोक्षमार्ग जानना। परंतु एक निश्चयमोक्षमार्ग है तथा एक व्यवहारमोक्षमार्ग है इस प्रकार दो मोक्षमार्ग मानना मिथ्या है।
पुनश्च, वे निश्चय–व्यवहार दोनोंको उपादेय मानते हैं। वह भी भ्रम है, क्योंकि निश्चय और
मूल गाथाओं एवं समयव्याख्या नामक टीकाके गुजराती अनुवादका
हिन्दी रूपान्तर
[प्रथम, ग्रन्थके आदिमें श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत प्राकृतगाथाबद्ध इस ‘पंचास्तिकायसंग्रह’ नामक शास्त्रकी ‘समयव्याख्या’ नामक संस्कृत टीका रचनेवाले आचार्य श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव श्लोक द्वारा मंगलके हेतु परमात्माको नमस्कार करते हैंः––
[श्लोकार्थः––] सहज आनन्द एवं सहज चैतन्यप्रकाशमय होनेसे जो अति महान है तथा
अनेकान्तमें स्थित जिसकी महिमा है, उस परमात्माको नमस्कार हो। [१]
१ ़ ‘स्यात्’ पद जिनदेवकी सिद्धान्तपद्धतिका जीवन है। [स्यात् = कथंचित; किसी अपेक्षासे; किसी प्रकारसे।]
२ ़ दुर्निवार = निवारण करना कठिन; टालना कठिन।
३ ़ प्रत्येक वस्तु नित्यत्व, अनित्यत्व आदि अनेक अन्तमय [धर्ममय] है। वस्तुकी सर्वथा नित्यता तथा सर्वथा
अनित्यता माननेमें पूर्ण विरोध आनेपर भी, कथंचित [अर्थात् द्रव्य–अपेक्षासे] नित्यता और कथंचित [अर्थात् पर्याय– अपेक्षासे] अनित्यता माननेमें किंचित विरोध नहींं आता–ऐसा जिनवाणी स्पष्ट समझाती है। इसप्रकार जिनभगवानकी वाणी स्याद्वाद द्वारा [अपेक्षा–कथनसे] वस्तुका परम यथार्थ निरूपण करके, नित्यत्व– अनित्यत्वादि धर्मोंमें [तथा उन–उन धर्मोंको बतलानेवाले नयोंमें] अविरोध [सुमेल] अबाधितरूपसे सिद्ध करती है और उन धर्मोंके बिना वस्तुकी निष्पत्ति ही नहीं हो सकती ऐसा निर्बाधरूपसे स्थापित करती है।
४ ़ समयव्याख्या = समयकी व्याख्या; पंचास्तिकायकी व्याख्या; द्रव्यकी व्याख्या; पदार्थकी व्याख्या। [व्याख्या = व्याख्यान; स्पष्ट कथन; विवरण; स्पष्टीकरण।]
[श्लोकार्थः–] यहाँ प्रथम सुत्रकर्ताने मूल पदार्थोंका पंचास्तिकाय एवें षड्द्रव्यके प्रकारसे
प्ररूपण किया है [अर्थात् इस शास्त्रके प्रथम अधिकारमें श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवने विश्वके मूल पदार्थोंका पाँच अस्तिकाय और छह द्रव्यकी पद्धतिसे निरूपण किया है]। [४]
[श्लोकार्थः–] पश्चात् [दूसरे अधिकारमें], जीव और अजीव– इन दो की पर्यायोंरूप नव
पदार्थोंकी–कि जिनके मार्ग अर्थात् कार्य भिन्न–भिन्न प्रकारके हैं उनकी–व्यवस्था प्रतिपादित की है। [५]
इस शास्त्रके कर्ता श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव हैं। उनके दूसरे नाम पद्मनंदी, वक्रग्रीवाचार्य,
एलाचार्य और गृद्धपिच्छाचार्य हैं। श्री जयसेनाचार्यदेव इस शास्त्रकी तात्पर्यवृत्ति नामक टीका प्रारम्भ करते हुए लिखते हैं किः–– ‘अब श्री कुमारनंदी–सिद्धांतिदेवके शिष्य श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवने– जिनके दूसरे नाम पद्मनंदी आदि थे उन्होंने – प्रसिद्धकथान्यायसे पूर्वविदेहमें जाकर वीतराग– सर्वज्ञ सीमंधरस्वामी तीर्थंकरपरमदेवके दर्शन करके, उनके मुखकमलसे नीकली हुई दिव्य वाणीके श्रवणसे अवधारित पदार्थ द्वारा शुद्धात्मतत्त्वादि सारभूत अर्थ ग्रहण करके, वहाँसे लौटकर अंतःतत्त्व एवं बहिःतत्त्वके गौण–मुख्य प्रतिपादनके हेतु अथवा शिवकुमारमहाराजादि संक्षेपरुचि शिष्योंके प्रतिबोधनार्थ रचे हुए पंचास्तिकायप्राभृतशास्त्रका यथाक्रमसे अधिकारशुद्धिपूर्वक तात्पर्यार्थरूप व्याख्यान किया जाता है।
अब [श्रीमद्भगत्वकुन्दकुन्दाचार्यदेवविरचित] गाथासूत्रका अवतरण किया जाता हैः–––
गाथा १
अन्वयार्थः– [इन्द्रशतवन्दितेभ्यः] जो सो इन्द्रोंसे वन्दित हैं, [त्रिभुवनहितमधुरविशदवाक्येभ्यः]
तीन लोकको हितकर, मधुर एवं विशद [निर्मल, स्पष्ट] जिनकी वाणी है, [अन्तातीतगुणेभ्यः] [चैतन्यके अनन्त विलासस्वरूप] अनन्त गुण जिनको वर्तता है और [जितभवेभ्यः] जिन्होंने भव पर विजय प्राप्त की है, [जिनेभ्यः] उन जिनोंको [नमः] नमस्कार हो।
टीकाः– यहाँ [इस गाथामें] ‘जिनोंको नमस्कार हो’ ऐसा कहकर शास्त्रके आदिमें जिनको
१। मलको अर्थात पापको गाले––नष्ट करे वह मंगल है, अथवा सुखको प्राप्त करे––लाये वह मंगल हैे।
२। भवनवासी देवोंके ४० इन्द्र, व्यन्तर देवोंके ३२, कल्पवासी देवोंके र४, ज्योतिष्क देवोंके २, मनुष्योंका १ और तिर्यंचोंका १– इसप्रकार कुल १०० इन्द्र अनादि प्रवाहरूपसें चले आरहे हैं ।
‘जिनकी वाणी अर्थात दिव्यध्वनि तीन लोकको –ऊर्ध्व–अधो–मध्य लोकवर्ती समस्त जीवसमुहको– निर्बाध विशुद्ध आत्मतत्त्वकी उपलब्धिका उपाय कहनेवाली होनेसे हितकर है, परमार्थरसिक जनोंके मनको हरनेवाली होनेसे मधुर है और समस्त शंकादि दोषोंके स्थान दूर कर देनेसे विशद [निर्मल, स्पष्ट] है’ ––– ऐसा कहकर [जिनदेव] समस्त वस्तुके यथार्थ स्वरूपके उपदेशक होनेसे विचारवंत बुद्धिमान पुरुषोंके बहुमानके योग्य हैं [अर्थात् जिनका उपदेश विचारवंत बुद्धिमान पुरुषोंको बहुमानपूर्वक विचारना चाहिये ऐसे हैं] ऐसा कहा। ‘अनन्त–क्षेत्रसे अन्त रहित और कालसे अन्त रहित–––परमचैतन्यशक्तिके विलासस्वरूप गुण जिनको वर्तता है’ ऐसा कहकर [जिनोंको] परम अदभुत ज्ञानातिशय प्रगट होनेके कारण ज्ञानातिशयको प्राप्त योगन्द्रोंसे भी वंद्य है ऐसा कहा। ‘भव अर्थात् संसार पर जिन्होंने विजय प्राप्त की है’ ऐसा कहकर कृतकृत्यपना प्रगट हो जानेसे वे ही [जिन ही] अन्य अकृतकृत्य जीवोंको शरणभूत हैं ऐसा उपदेश दिया।– ऐसा सर्व पदोंका तात्पर्य है।
भावार्थः– यहाँ जिनभगवन्तोंके चार विशेषणोंका वर्णन करके उन्हें भावनमस्कार किया है। [१]
प्रथम तो, जिनभगवन्त सौ इन्द्रोंसे वंद्य हैं। ऐसे असाधारण नमस्कारके योग्य अन्य कोई नहीं है, क्योंकि देवों तथा असुरोंमें युद्ध होता है इसलिए [देवाधिदेव जिनभगवानके अतिरिक्त] अन्य कोई भी देव सौ इन्द्रोंसे वन्दित नहीं है। [२] दूसरे, जिनभगवानकी वाणी तीनलोकको शुद्ध आत्मस्वरूपकी प्राप्तिका उपाय दर्शाती है इसलिए हितकर है; वीतराग निर्विकल्प समाधिसे उत्पन्न सहज –अपूर्व परमानन्दरूप पारमार्थिक सुखरसास्वादके रसिक जनोंके मनको हरती है इसलिए [अर्थात् परम समरसीभावके रसिक जीवोंको मुदित करती है इसलिए] मधुर है;
शुद्ध जीवास्तिकायादि सात तत्त्व, नव पदार्थ, छह द्रव्य और पाँच अस्तिकायका संशय–विमोह– विभ्रम रहित निरूपण क्रती है इसलिए अथवा पूर्वापरविरोधादि दोष रहित होनेसे अथवा युगपद् सर्व जीवोंको अपनी–अपनी भाषामें स्पष्ट अर्थका प्रतिपादन करती है इसलिए विशद–स्पष्ट– व्यक्त है। इसप्रकार जिनभगवानकी वाणी ही प्रमाणभूत है; एकान्तरूप अपौरुषेय वचन या विचित्र कथारूप कल्पित पुराणवचन प्रमाणभूत नहीं है। [३] तीसरे, अनन्त द्रव्य–क्षेत्र–काल–भावका जाननेवाला अनन्त केवलज्ञानगुण जिनभगवन्तोंको वर्तता है। इसप्रकार बुद्धि आदि सात ऋद्धियाँ तथा मतिज्ञानादि चतुर्विध ज्ञानसे सम्पन्न गणधरदेवादि योगन्द्रोंसे भी वे वंद्य हैं। [४] चौथे, पाँच प्रकारके संसारको जिनभगवन्तोंने जीता है। इसप्रकार कृतकृत्यपनेके कारण वे ही अन्य अकृतकृत्य जीवोंको शरणभूत है, दूसरा कोई नहीं।–इसप्रकार चार विशेषणोंसे युक्त जिनभगवन्तोंको ग्रंथके आदिमें
भावनमस्कार करके मंगल किया।
प्रश्नः– जो शास्त्र स्वयं ही मंगल हैं, उसका मंगल किसलिए किया जाता है?
उत्तरः– भक्तिके हेतुसे मंगलका भी मंगल किया जाता है। सूर्यकी दीपकसे , महासागरकी
जलसे, वागीश्वरीकी [सरस्वती] की वाणीसे और मंगलकी मंगलसे अर्चना की जाती है ।। १।।
अन्वयार्थः–[श्रमणमुखोद्गतार्थे] श्रमणके मुखसे निकले हुए अर्थमय [–सर्वज्ञ महामुनिके
मुखसे कहे गये पदार्थोंका कथन करनेवाले], [चतुर्गतिनिवारणं] चार गतिका निवारण करनेवाले और [सनिर्वाणम्] निर्वाण सहित [–निर्वाणके कारणभूत] – [इमं समयं] ऐसे इस समयको [शिरसा प्रणम्य] शिरसा नमन करके [एषवक्ष्यामि] मैं उसका कथन करता हूँ; [श्रृणुत] वह श्रवण करो।
टीकाः–समय अर्थात आगम; उसे प्रणाम करके स्वयं उसका कथन करेंगे ऐसी यहाँ
[श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवने] प्रतिज्ञा की है। वह [समय] प्रणाम करने एवं कथन करने योग्य है, क्योंकि वह आप्त द्वारा उपदिष्ट होनेसे सफल है। वहाँ, उसका आप्त द्वारा उपदिष्टपना इसलिए
है कि जिससे वह ‘श्रमणके मुखसे निकला हुआ अर्थमय’ है। ‘श्रमण’ अर्थात् महाश्रमण– सर्वज्ञवीतरागदेव; और ‘अर्थ’ अर्थात् अनेक शब्दोंके सम्बन्धसे कहा जानेवाला, वस्तुरूपसे एक ऐसा पदार्थ। पुनश्च उसकी [–समयकी] सफलता इसलिए है कि जिससे वह समय
आप्त = विश्वासपात्र; प्रमाणभूत; यथार्थ वक्ता। [सर्वज्ञदेव समस्त विश्वको प्रति समय संपूर्णरूपसे जान रहे हैं और वे वीतराग [मोहरागद्वेषरहित] होनेके कारण उन्हें असत्य कहनेका लेशमात्र प्रयोजन नहीं रहा है; इसलिए वीतराग–सर्वज्ञदेव सचमुच आप्त हैं। ऐसे आप्त द्वारा आगम उपदिष्ट होनेसे वह [आगम] सफल हैं।]
[१] ‘नारकत्व’ तिर्यचत्व, मनुष्यत्व तथा देवत्वस्वरूप चार गतियोंका निवारण’ करने के
कारण और [२] शुद्धात्मतत्त्वकी उपलब्धिरूप ‘निर्वाणका परम्परासे कारण’ होनेके कारण [१] परतंत्रतानिवृति जिसका लक्षण है और [२] स्वतंत्रताप्राप्ति जिसका लक्षण है –– ऐसे १फल
सहित है।
भावार्थः– वीतरागसर्वज्ञ महाश्रमणके मुखसे नीकले हुए शब्दसमयको कोई आसन्नभव्य पुरुष
सुनकर, उस शब्दसमयके वाच्यभूत पंचास्तिकायस्वरूप अर्थ समयको जानता है और उसमें आजाने वाले शुद्धजीवास्तिकायस्वरूप अर्थमें [पदार्थमें] वीतराग निर्विकल्प समाधि द्वारा स्थित रहकर चार गतिका निवारण करके, निर्वाण प्राप्त करके, स्वात्मोत्पन्न, अनाकुलतालक्षण, अनन्त सुखको प्राप्त करता है। इस कारणसे द्रव्यागमरूप शब्दसमय नमस्कार करने तथा व्याख्यान करने योग्य है।।२।।
गाथा ३
अन्वयार्थः– [पंचानां समवादः] पाँच अस्तिकायका समभावपूर्वक निरूपण [वा] अथवा [समवायः]
उनका समवाय [–पंचास्तिकायका सम्यक् बोध अथवा समूह] [समयः] वह समय है [इति] ऐसा [जिनोत्तमैः प्रज्ञप्तम्] जिनवरोंने कहा है। [सः च एव लोकः भवति] वही लोक है। [–पाँच अस्तिकायके समूह जितना ही लोक है।]; [ततः] उससे आगे [अमितः अलोकः] अमाप अलोक [खम्] आकाशस्वरूप है।
टीकाः– यहाँ [इस गाथामें शब्दरूपसे, ज्ञानरूपसे और अर्थरूपसे [–शब्दसमय, ज्ञानसमय
और अर्थसमय]– ऐसे तीन प्रकारसे ‘समय’ शब्दका अर्थ कहा है तथा लोक–अलोकरूप विभाग कहा है।
वहाँ, [१] ‘सम’ अर्थात् मध्यस्थ यानी जो रागद्वेषसे विकृत नहीं हुआ; ‘वाद’ अर्थात् वर्ण
[अक्षर], पद [शब्द] और वाक्यके समूहवाला पाठ। पाँच अस्तिकायका ‘समवाद’ अर्थात मध्यस्थ [–रागद्वेषसे विकृत नहीं हुआ] पाठ [–मौखिक या शास्त्रारूढ़ निरूपण] वह शब्दसमय है, अर्थात् शब्दागम वह शब्दसमय है। [२] मिथ्यादर्शनके उदयका नाश होने पर, उस पंचास्तिकायका ही
सम्यक् अवाय अर्थात् सम्यक् ज्ञान वह ज्ञानसमय है, अर्थात् ज्ञानागम वह ज्ञानसमय है। [३]
कथनके निमित्तसे ज्ञात हुए उस पंचास्तिकायका ही वस्तुरूपसे समवाय अर्थात् समूह वह अर्थसमय
है, अर्थात् सर्वपदार्थसमूह वह अर्थसमय है। उसमें यहाँ ज्ञान समयकी प्रसिद्धिके हेतु शब्दसमयके सम्बन्धसे अर्थसमयका कथन [श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव] करना चाहते हैं।
कालद्वव्यको–– कि जो द्रव्य होने पर भी अस्तिकाय नहीं है उसे ––विवक्षामें गौण करके ‘पंचास्तिकायका समवाय वह समय है।’ ऐसा कहा है; इसलिये ‘छह द्रव्यका समवाय वह समय है’ ऐसे कथनके भावके साथ इस कथनके भावका विरोध नहीं समझना चाहिये, मात्र विवक्षाभेद है ऐसा समझना चाहिये। और इसी प्रकार अन्य स्थान पर भी विवक्षा समझकर अविरुद्ध अर्थ समझ लेना चाहिये]
अब, उसी अर्थसमयका, १लोक और अलोकके भेदके कारण द्विविधपना है। वही पंचास्तिकायसमूह
जितना है, उतना लोक है। उससे आगे अमाप अर्थात अनन्त अलोक है। वह अलोक अभावमात्र नहीं है किन्तु पंचास्तिकायसमूह जितना क्षेत्र छोड़ कर शेष अनन्त क्षेत्रवाला आकाश है [अर्थात अलोक शून्यरूप नहीं है किन्ंतु शुद्ध आकाशद्रव्यरूप है।। ३।।
टीकाः– यहाँ [इस गाथामें] पाँच अस्तिकायोंकी विशेषसंज्ञा, सामान्य विशेष–अस्तित्व तथा
कायत्व कहा है।
वहाँ जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश–यह उनकी विशेषसंज्ञाएँ अन्वर्थ जानना।
वे उत्पाद–व्यय–ध्रौव्यमयी सामान्यविशेषसत्तामें नियत– व्यवस्थित[निश्चित विद्यमान] होनेसे
उनके सामान्यविशेष–अस्तित्व भी है ऐसा निश्चित करना चाहिये। वे अस्तित्वमें नियत होने पर भी [जिसप्रकार बर्तनमें रहनेवाला घी बर्तनसे अन्यमय है उसीप्रकार] अस्तित्वसे अन्यमय नहीं है; क्योंकि वे सदैव अपनेसे निष्पन्न [अर्थात् अपनेसे सत्] होनेके कारण [अस्तित्वसे] अनन्यमय है [जिसप्रकार अग्नि उष्णतासे अनन्यमय है उसीप्रकार]। ‘अस्तित्वसे अनन्यमय’ होने पर भी उनका ‘अस्तित्वमें नियतपना’ नयप्रयोगसे है। भगवानने दो नय कहे है – द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। वहाँ कथन एक नयके आधीन नहीं होता किन्तु उन दोनों नयोंके आधीन होता है। इसलिये वे पर्यायार्थिक कथनसे जो अपनेसे कथंचित् भिन्न भी है ऐसे अस्तित्वमें व्यवस्थित [निश्चित स्थित] हैं और द्रव्यार्थिक कथनसे स्वयमेव सत् [–विद्यमान] होनेके कारण अस्तित्वसे अनन्यमय हैं।