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अनेक कष्टों को सहन करके हम लोगों को अपना शुभ दर्शन
दिया है हम एतदर्थ अत्यन्त आभारी हैं।
है। यानी पहाडों से धिरा हुआ क्षेत्र मुनियों के लिए
निवासस्थान माना जाता है। अलावा इसके एक ऐतिहासिक
घटना भी प्रसिद्ध है। यहाँ से थोडी दूर पर अविडदांगी
नामक एक गाँव है जहाँ पर हिमशीतल राजा राज्य करता
था। इसी राजा की सभा में परमपूज्य श्री अकलंकदेवने बौद्धों
को बाद में हराया था। इस बीच में एक बार मुनिगिरि में
प्रसिद्ध कृष्मांडिनी देवी का दर्शन कर जाने के बाद बाद में
उनकी जीत हुई आदि। जिसकी यादगारी में मन्दिर के पूरब
की दीवार पर श्री अकलंकदेवका चरण चिह्न भी अंकित हैं।
इसका तथ्य अकलंक स्तोत्र के राज्ञः श्रीहिमशीतलस्य
सदसि प्रायो विदग्धात्मनां, बौद्धधानिसकलान् विजित्य
सघट; पादेन विस्पालितः आदि पंक्ति से विदित हो जाता है।
उत्तर भारतीय यात्रिकों के लिये मार्गदर्शक बनेगा। अन्त में
आपसे प्रार्थना है कि इस प्रकार बार–बार पधार कर क्षेत्र का
उद्धार करें।
ता। १४–३–१९५९ आपके आगमन से प्रफुल्लित
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समन्तभद्र, चन्द्रकीर्ति, वामनाचार्य, मल्लिषेणाचार्य, और पुष्पसेनाचार्य आदि
आचार्यों के तथा मठाधीशों का निवास्थान बना हुआ था। यहीं से धर्मप्रचार
तथा महान्ग्रंथों की रचना भी होती थी।
मोक्ष गये है। यह सब से आश्चर्य की बात है कि यहां
मानो यह आप के जैसे पुण्यवानों का शुभागमन का ही सूचक है।
के विजयनगर साम्राज्य चक्रवर्ती के सेनापति और श्री पुष्पसेनाचार्य के शिष्य
मुगल शासन के पहले ही हाथ से चले गये अंग्रेजो के शासनकाल में इसके
लिये
नष्ट–भष्ट होकर अब केवल ६ एकड भूमि ही बची है। यही कारण है यहां कई
धर्मकाय बन्द हो गये है।
सिवाय अन्य धर्मकार्यो को बडी मुश्किल से चलाता आ रहा हूंँ। इसकी
सालाना आमदनी केवल ५५४ रू
नहीं होती।
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भाईयों को इस ओर आकर्षित कर सुरक्षित करेंगे। अलावा इसके आपके
आगमन से यह यात्रास्थल बनेगा इसमें शक नहीं है। क्योंकि करीब सात
शताब्दी से इतनी बडी संख्या में दर्शन करने का उल्लेख इतिहास मैं भी
नहीं मिलता। अतः आप का यह शुभागमन हमारे लिये अहोभाग्य है। ता
१४–३–१९५६
मलकापूर के निवासियों का यह परम सौभाग्य है कि जिस महान
अभिलाषा आज आपके साक्षात्कार से सफल हुई। सरोजिनी जैसे सूर्य को,
मयूरी जैसे मेघ को तथा चकोरी जैसे चन्द्र को देखकर प्रफुल्लित होती है
उसी प्रकार यहां की जनता आपका दर्शन पाकर आनंद विभोर हो रही है।
आपकी आत्मकल्याणकारी अमृतमयी वाणी का हम लोगोने रसास्वादन
किया है जिससे हमारे अंतरंग में आकुलता की कमी होकर शांति लाभ
हुवा है।
तिल मात्र सुखाभास तथा पहाड जैसे अनंत दूःखमय इस संसार की
जन्मांतरों से अकुलाई हुई इस आत्मा को शाश्वत शांति का मार्ग मिले।
आपने अपनी विलक्षण सूक्ष्मं द्रष्टि से ज्ञानसागर का मंथन किया जिसके
फलस्वरूप आत्मतत्त्व का नवनीत आपने प्राप्त किया। इस उच्चतम तत्त्व के
रहस्य को आपने लोककल्याण हेतु सब पर प्रगट किया तथा आत्मधर्म के
नेता बन आत्मार्थी जनों का पथ प्रदर्शन किया है। इस प्रकार आपने
अध्यात्मवादियों की श्रेणीमें आदरणीय स्थान प्राप्त किया है। विज्ञान के
चरम उत्कर्ष के इस युगमें आपने जो चमत्कार दिखाया है वह महान है,
क्योंकि वह चमत्कार किसी भौतिक पदार्थ का नहीं, किन्तु आत्मा
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कोटि कोटि आत्माएं, आपसे प्रकाश एवं पथ–प्रदर्शन प्राप्त कर अपना
जीवन सफल कर रही हैं।
की है। अपनी तरुणाई का उपयोग आपने स्वाध्याय तप की सिद्धि में
लगाया तथा श्रीमद् कुंदकुंद स्वामी इत्यादि आचार्यों द्वारा प्रणीत अनुपम
ग्रंथरत्न समयसार, प्रवचनसार आदि महान ग्रंथो का अध्ययन कर
अंर्तद्रष्टि प्राप्त की है। आप पर अनेक उपसर्ग आये परंतु आपके द्रढ संकल्प
को उससे कोई आंच न आई तथा आप अग्रसर ही रहे। आपके साधना
स्थल सोनगढ में जिस वीतरागप्रणीत निर्गंथ मार्ग पर द्रढ श्रद्धा रख आप
रत्नत्रय की जो आराधना कर रहे हैं उससे सारे सौराष्ट्र में जैन धर्म की
अभूतपूर्व प्रभावना हुई है। आपके ही कारण सोनगढ आज तीर्थस्थल बन
गया है। आपके असीम साहस तथा एकनिष्ठ द्रढता से अनेकों को प्रेरणा
मिली तथा उन्होंने आपके इस क्रातिमें जीवनदान दिये है।
मोह और ममता के पंकमे निमग्न मानवसमूह का हित बाह्य
अतिशय प्रभावक आध्यात्मिक प्रवचनों द्वारा आप जिस कौशल से सरल
भाषा में चिर गूढ आत्मतत्त्व का शुद्ध स्वाभाविक चित्र श्रोताओं पर
प्रकट करते हैं उससे मानव को आत्मदर्शन की प्रेरणा मिलती है। जहां
जहां आपका प्रवचन होता है वहां अध्यात्मवाद का सूर्य प्रकट होता है
जिससे सारे विकल्पों के अंधकार का नाश होकर जनता में आत्मज्ञान
की पिपासा जागृत होती है। आपके प्रवचन जैन साहित्य की अनमोल
निधि है जो आत्मार्थी जनों के लिए सदैव मार्गदर्शक बने रहेगे। आपके
द्वारा की गई भारतीय संस्कृति एवं आत्मधर्म की महान सेवा भारत के
धार्मिक इतिहास में चिरस्मरणीय रहेगी।
सम्मान पत्र के द्वारा समर्पित करते हैं। हम श्री १००८ जिनेश्वर भगवान
से प्रार्थना करते हैं कि आप चिरायुं हो एवं आपके आत्मज्ञान का शुभ
संदेश संसार के कोने कोने में सूर्यप्रकाश के भांति फैले यही हमारी
कामना है।
दिनांक ३०–३–५९ जैन समाज, मलकापुर
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धन्य है यह आजका शुभ दिन, हमारा बहुत बडा सौभाग्य हैं कि,
आत्माको पवित्र बनाया।
आपने अनेक पदभ्रष्ट जीवोंको सुकल्याण के मार्ग पर लाया हैं और
गुरुदेव, हमको अब भव नहीं करना है। अब आपकी वाणी द्वारा हमें
सादिअनंत सुमंगल प्रभात स्थापित हुई है। धन्य हैं आजका समय। इस
समय की स्मृति हमारे जीवन में अमर रहेगी।
आपके सुबह के मांगलिक प्रवचन–से ही मंगलका यथार्थ अर्थ मालूम
विकारी भाव ही हमें दुःखित करते हैं। सब परद्रव्य के कर्तृत्व का हमारा
व्यर्थ अभिमान नष्ट हो चुका हैं।
कुंदकुंदाचार्यदेव पाश्चत् १००० वर्ष के बाद अमृतचन्द्राचार्यदेवने
वर्ष के बाद समयसारजी आदि सत्शास्त्रो का मंथन करके सुलभ वाणीसे
हमको ज्ञानामृत पिलाया।
आपकी वाणी इस भूतल पर अजर और अमर बने, यही हमारी
ता १–४–१९५९
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आपका स्वागत करते हुवे श्री परमपूज्य देवाधिदेव श्री १००८ श्री
विभाग की जनता को अतीव हर्ष होता है।
आपकी अध्यात्म प्रविणता सारे संसार को ज्ञात हैं। आपने इस
मार्ग सुगम और सुबोध करा दिया है, आपका प्रवचन सुनकर मूढ दृष्टि भी
सम्यग्दृष्टि बनता है, एसी आप की ख्याति है, अध्यात्मदृष्टि की
जैनागमानुसार व्यक्तिविकास और मानवसंस्कृति के लिये एकमेव साधन
हैं। इसी साधन की साधना आप निश्चल दृष्टि से और अविरत कर रहे हैं।
इस लिये सारा संसार आपका उपकृत हैं। ऐसे परमोपयोगी ज्ञानकी
उपासना स्वयं करके श्री जिनश्रुतिका प्रसार करनेमें आपके प्रयत्न
सराहनीय हैं, आप जिनश्रुति के ज्ञानधर हो आपके रूपमें आज हम स्वामी
कुंदकुंदाचार्य का ज्ञान और व्यक्तित्वका अनुभव कर रहे हैं। आपका दर्शन
हमारे लिये सौभाग्य की बात हैं।
आपका प्रभावशाली व्यक्तित्व का सारा समाज आज अनुभव कर
किया और जिनश्रुतिका सम्यक् प्रकाश कराके अनेक जिन ग्रंथो का सुबोध
संपादन अनेक भाषाओंमें किया। आपके उपदेशसे प्रभावित होकर अनेक
ज्ञानवान व्यक्तिओंने भी हजारों की संख्यामें दिगंबरी आम्नाय की उपासना
ग्रहण कर ली हैं। आपके ही प्रेरणासे तत्त्वार्थसूत्र–मोक्षशास्त्र, समयसार
आदि ग्रंथोकी अधिक सुगम और सुबोध टीकाओंके साथ सामान्यजनों को
भी उपलब्ध हुवे है। जैनागमानुसार अध्यात्म क्षेत्रमें आपका कार्य और
धारणा जागती ज्योत है। आप अध्यात्म के महान कर्मवीर हो।
दिगंबर जैन तीर्थ यात्रा संघ के साथ स्वामीजीने श्री अतिशय क्षेत्र
यह संस्थान और इस विभाग की जनता आपकी कृतज्ञ हैं।
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इस स्वर्णीम वेला में मलकापूर शहर के प्रांगण में आपश्री का
है। सूर्योदय से जैसे कमल विकसित हो जाता है उसी प्रकार हमारा
अंतःस्थल विकसित हो रहा हैं। जिस महान विभूति के दर्शनो के पुण्य
वेला की प्रतीक्षा हम महिलाये समयाधिक से कर रही थी, इस दिव्य मूर्ति
के दर्शन आपश्री की अन्तर प्रेरणा से होनेवाले इस दक्षिण की शुभयात्रा
प्रसंग से हमे प्राप्त हुए, साथ ही अनेक भव्य बन्धु बहिनों का वात्सल्य भी
मिला, यह हमारे परम सौभाग्य का विषय हैं। अतः इस मंगलमयी
वातावरण में आपश्री को हमारे बीच पाकर हम श्रद्धाके सुमन समर्पित करते
हुए कृतकृत्य हो रही हैं।
इस भौतिक युग की मिथ्या जगमगाहट से अपनी वृत्ति को
प्रकाश व प्रसार में लगाई, पूर्व संस्कारो से युक्त होने के कारण
सत्पुरुष की आत्महितकारिणि वाणी के श्रवण का योग होते ही आपका
अन्तरात्मा सत् पथ पर आरुढ होकर दिनो–दिन जिनशासन की
प्रभावना के रूप में परिणित हुवा। आपश्रीने अपने जीवन को सम्यक्
श्रद्धान ज्ञान आचरण से आभूषित कर जो आत्मिक लाभ प्राप्त किया,
उस दिव्य लाभ को प्रत्येक आत्महितार्थी भी प्राप्त होवे, एतदर्थ शुभ
भावों के उत्थान के कारण समय समय पर तीर्थयात्रासंघ के रूप में
सम्पूर्ण भारतवासियों को पूज्य स्वामीजी के आत्मदिग्दर्शक दिव्य
संदेश के श्रवण का अवसर दिया एवं स्थान–स्थान पर अनेकानेक
धार्मिक महोत्सवों को भाव सहित करवायें। सौराष्ट्र प्रांत में आज जो
दिगम्बर जैन धर्म की पताकायें फहरा रही है व व्यक्ति–व्यक्ति के हाथ में
कल्याणकारी प्रवचनों को पुस्तक रूप में पहुँचायें इत्यादि युगान्तरकारी
कर्तव्यों को आपश्रीने महान कुशलता से संचालन किया व कर रही है
तथा भविष्य में इसी प्रकार करती रहेगी। अतः आपश्री के सत्पुरुषार्थ
की हम बहिने शतवार प्रशंसा करती है।
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की क्षमता, रोम रोम में वैराग्य एवं परमवात्सल्यतादि गुणों सें अलंकृत हैं।
आपश्री के सदूज्ञान–वैराग्यरूपी विशाल वृक्ष की शीतल छाया में कई बहिने
आत्महितार्थ अखन्ड अंसिधारावृत से अपने जीवन को भूषितकर सत् पथ
में विचरण करती हुई निवास कर रही हैं। आपश्री का आश्रय पाकर उनके
ज्ञानवैराग्यरूपी कुसुमों की ज्योति कषाय व विषयान्धर को आच्छादित
करती हुई खिल रही हैं। शील–सन्तोष–संयमादि निधियों से युक्त
श्राविकाशीरोमणियों को प्राप्त कर आज महिला समाज गौरव को प्राप्त हो
रही हैं।
बनाया। अनादिकालीन अविधा तथा स्वरूप के अनूभ्यास से परमार्थ मार्ग
को भूल शुभ भावों को ही वास्तविक पथ मानने की मिथ्याभ्रान्ति जो हमारे
अन्तरमें चली आरही थी उसका निराकरण–विनाश आपश्री के संगम से
होकर परमार्थ पथ में आज हमारा निष्कंटक गमन प्रारम्भ हुआ। अतः हे
धर्ममाताओं! हमारे बाह्माभ्यन्तर शुद्धि में जो प्रकाश मिला व मिलेगा उसके
लिये हम आपश्री की चिरऋणी रहेगी।
दीर्धायु होवे एवं अहिंसा धर्म की ध्वजा सारे विश्व में फहराने हेतु योग
देकर हम मलकापूर की मुमुक्षु बहिनों को उपकृत करें।
दिनांक ३१–३–१९५९
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શાંતિનાથ ભગવાનના ૧૬ ફૂટ ઊંચા ભવ્ય પ્રતિમા શાંત
મુદ્રાવંત બિરાજે છે, તેના પૂજન–ભક્તિ બાદ રામટેક
તીર્થમાં પૂ. ગુરુદેવનું પ્રવચન.
વગર ચાર ગતિમાં ફસાયેલા જીવોને આત્મબોધ કરાવવા માટે તેમણે આ શાસ્ત્રમાં શુદ્ધ આત્માનું સ્વરૂપ
બતાવ્યું છે. નિશ્ચય–વ્યવહાર બાબતમાં તેઓ કહે છે કે અબુધ–અજ્ઞાની પ્રાણીઓને આત્માનું સ્વરૂપ
સમજાવવા માટે વિકલ્પ ઊઠતાં હું વ્યવહારદ્વારા તેનો ઉપદેશ કરી, અર્થાત્ ઉપદેશમાં તો વ્યવહારથી–
ભેદથી કથન આવશે. પરંતુ નિશ્ચયસ્વરૂપના આશ્રયે જ કર્મનો ક્ષય થાય છે, એટલે નિશ્ચયસ્વરૂપનું
અવલંબન જ અમારે બતાવવું છે, વ્યવહારથી કથન આવે તેમાં પણ વ્યવહારનું અવલંબન કરાવવાનો
અમારો આશય નથી, અમારો આશય તો શુદ્ધ નયનું અવલંબન કરાવીને શુદ્ધાત્માનો અનુભવ કરાવવાનું
છે કેમકે તેના જ આશ્રયે કર્મક્ષય થાય છે. કર્મનો ક્ષય કહો કે આત્મશાંતિની પ્રાપ્તિ કહો, તે શુદ્ધાત્માના
આશ્રયે જ થાય છે.
‘શાંતિનાથ ભગવાન છે; તેના આશ્રયે અપૂર્વ શાંતિનું વેદન થાય છે. પોતાના આત્મા સિવાય બીજા કોઈ
ભગવાન (સિદ્ધ–ભગવાન કે અરિહંત ભગવાન) કાંઈ જીવને દર્શન દેવા અહીં આવતા નથી. કેમકે
સિદ્ધભગવાન તો શરીરરહિત થઈ ગયા, ને અરિહંત ભગવાન તો અત્યારે વિદેહક્ષેત્રે બિરાજે છે, એટલે
તે ભગવંતો અહીં દર્શન દેવા આવતા નથી, પણ તેમના જેવો જે પોતાનો ચૈતન્યસ્વભાવ છે તેનું ભાન
(સમ્યગ્ દર્શન) કરીને અને તેની સાધના કરીને આ આત્મા પોતે પરમાત્મા બનીને સિદ્ધાલયમાં જાય
છે. આત્માની આવી પ્રભુતા આચાર્ય દેવ ઓળખાવે છે કે હે જીવો! તમારામાં તમારી પ્રભુતા રહેલી છે;
પણ તેની સાવધાની (વિશ્વાસ ને એકાગ્રતા) વગર જીવ સંસારમાં ભ્રમણ કરીને દુઃખી થઈ રહ્યો છે.
અંતરમાં શુદ્ધ નયવડે આત્માના શુદ્ધસ્વરૂપને પ્રતીતમાં લેતાં આત્મશાંતિ પ્રાપ્ત થાય છે. બહારમાં
શાંતિનાથ ભગવાનના દર્શન–પૂજન–ભક્તિ વગેરેનો ભાવ આવે, ધર્માત્માને પણ એવો ભાવ આવે, પણ
તે શુભભાવ છે, તેની મર્યાદા પુણ્યબંધન કરાવવા પૂરતી જ છે, મોક્ષની પ્રાપ્તિ કરાવવી તે તેની મર્યાદાની
બહાર છે, અર્થાત્ તે શુભરાગવડે મોક્ષ કે આત્મશાંતિ થતી નથી. આત્મશાંતિ અને મુક્તિ તો શુદ્ધનયવડે
અંતર્મુખ થઈને શુદ્ધાત્માનો અનુભવ કરવાથી જ થાય છે.
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ગુરુનો આશય ભેદમાં અટકાવવાનો નથી તેમજ જિજ્ઞાસુ શિષ્ય પણ તે ભેદના વિકલ્પમાં અટકતો નથી,
પણ ભેદથી ખસીને અભેદ સ્વભાવને પકડવાનો પ્રયત્ન કરે છે. આવા જિજ્ઞાસુને શુદ્ધ આત્માની શાંતિનું
અપૂર્વ વેદન થાય છે.
શાંતિસ્વભાવથી ભરેલો પરમાત્મા છે. ભાઈ, તને તારું પરમાત્મસ્વરૂપ સંતો દેખાડે છે. તારી શાંતિ તારામાં
ભરેલી છે, તે ક્યાંય બહારથી નથી આવતી, તેમજ બહિર્મુખ વિકલ્પોમાંથી પણ શાંતિ નથી આવતી; રાગથી પાર
થઈને ચૈતન્યસ્વરૂપમાં અંતર્મુખતાથી જ પોતાની અતીન્દ્રિય શાંતિ વેદનમાં આવે છે.
દેહને પ્રાપ્ત હોય તે આત્મા–એમ ન કહ્યું, રાગને પ્રાપ્ત હોય તે આત્મા–એમ પણ ન કહ્યું, કેમકે તે
આત્માનું ખરૂં સ્વરૂપ નથી; આત્માનું ખરૂં સ્વરૂપ તો દર્શન–જ્ઞાન–ચારિત્ર છે, તે સ્વરૂપ સાથે આત્મા
ત્રણે કાળે એકમેક છે. આવી આત્માનીવાત સાંભળતાં વેંત જ તે સમજવા માટે ટગટગ જોઈ રહે છે
અર્થાત્ જ્ઞાનને અંતરમાં વાળવાનો પ્રયત્ન કરે છે. અહો! આ કાંઈક મારા અપૂર્વ હિતની વાત મને
સંભળાવે છે–એમ તેનો મહિમા લાવે છે, ન સમજાયું તેથી કંટાળો નથી લાવતો પણ તેનો મહિમા લાવીને
સમજવાનો ગરજુ થઈને અંદર પ્રયત્ન કરે છે. સંતો જે ભાવ કહેવા માંગે છે તેને ધીરજથી
તીવ્રજિજ્ઞાસાથી અનુસરવા માંગે છે. અહા! આ ચૈતન્યસ્વરૂપ આત્માની વાતમાં કોઈ અપૂર્વ શાંતિની
ઝાંખી થાય છે, સંતો મને મારી અપૂર્વશાંતિનો ઉપાય બતાય છે–એમ અતિશય બહુમાન લાવીને જ્ઞાન–
નજરને (મતિ, શ્રુતજ્ઞાનને) અંતરમાં વાળીને શુદ્ધ નયવડે ટગટગપણે ચૈતન્યસ્વરૂપને નીહાળે છે. આ
દર્શન મોહનો ક્ષય કરીને અપૂર્વ ચૈતન્યશાંતિ પ્રાપ્ત કરવાનો ઉપાય છે. શાંતિનાથ ભગવાન પણ આ જ
રીતે આત્માની પૂર્ણ શાંતિને પામ્યા, ને શાંતિ માટે તેમણે આ જ માર્ગ જગતને ઉપદેશ્યો...માટે જેઓ
આત્મશાંતિને ચાહતા હોય એવા મુમુક્ષુઓ શુદ્ધ નયવડે આ માર્ગને અનુસરો.
આત્માને અનુસરો....તે શુદ્ધ નયના અવલંબન વડે જ કર્મક્ષય થાય છે. કોઈ વ્યવહારની રુચિવાળા જીવોને
શુદ્ધ નયના આશ્રયની આ વાત ન રુચે તો મને મુમુક્ષુ જાણીને ક્ષમા કરજો...કેમકે હું તો મુમુક્ષુ (મોક્ષનો જ
અભિલાષી) છું તેથી જેનાથી મોક્ષ થાય તે જ વાત મારા ઉપદેશમાં આવશે. અમને રાગની રુચિ નથી તો
રાગના અવલંબનનો ઉપદેશ અમારી વાણીમાં કેમ આવે? પદ્મનંદીમાં બ્રહ્મચર્યનો ખૂબ ઉપદેશ આપીને
છેવટે વિષયના લોલુપી જીવો ઉપર કટાક્ષ કરતાં કહે છે કે હે વિષયાંધ પ્રાણીઓ, વિષયોના તીવ્ર પ્રેમને
લીધે તમને જો આ બ્રહ્મચર્યનો ઉપદેશ ન રુચે તો મને મુનિ જાણીને ક્ષમા કરજો...કેમ કે હું મુનિ છું,
વિષયોથી પાર ચૈતન્યના આનંદને સાધનાર મુનિની વાણીમાં તો બ્રહ્મચર્યનો ને વીતરાગતાનો જ ઉપદેશ
હોય; વિષય–કષાયના સેવનનો ઉપદેશ વીતરાગની વાણીમાં કેમ હોય! અરે મૂઢ પ્રાણીઓ! બાહ્ય
વિષયોમાં સુખની કલ્પના તે તો મોટી ભ્રમણા છે; બાહ્ય વિષયો સ્વપ્નમાં પણ શાંતિ આપવા સમર્થ નથી.
બાહ્ય વિષયોના અવલંબનવડે કે રાગાદિ બાહ્ય વૃત્તિઓવડે કદી ચૈતન્યશાંતિનું વેદન થતું નથી.
ચૈતન્યશાંતિનું વેદન તો શુદ્ધનયદ્વારા અંતર્મુખ થવાથી જ થાય છે. આ જ ધર્મ છે, આ જ શાંતિનો રાહ છે,
ને આ જ શાંતિનાથ ભગવાનની ખરી યાત્રા છે.
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અમારા ચિદાનંદ સ્વભાવનો જ આધાર છે....આ વન કે
સિંહ–વાઘની ગર્જનાઓ તે કોઈ સંયોગ અમને અમારા
નીચે ધરતી, ભલે કોઈ સગાંસંબંધી ન હો, છતાં અમે
અશરણ નથી, અંતરમાં અમારો ચિદાનંદ સ્વભાવ જ
આ જંગલમાં અમે અશરણ થઈ ગયા–એમ નથી; જગત
આખું અમારા માટે અશરણ છે, અમારો આત્મા જ અમારું
“હે સેનાપતિ! મારા રામને કહેજે કે લોકાપવાદના
લોકો જિનધર્મની પણ નિંદા કરે તો તે નિંદાના ભયથી
કરજો....મુનિઓ અને આર્જિકાઓને ભક્તિપૂર્વક
આહારદાન દેજો.....” જુઓ આવા વનવાસ પ્રસંગે પણ
છે..... ધર્મના આધારભૂત સ્વભાવ અંતરમાં દેખ્યો છે તે
સ્વભાવના આશ્રયે ઉમળકો આવ્યો છે....અહો! ભલે
ો છે તે આધારને હું નથી છોડતી......અને મારા રામને
કહેજો કે તે પણ ધર્મને ન છોડે....લોકોપવાદની ખાતર મને
શોભા છે; પરંતુ સાથે સંબંધથી અશુદ્ધતારૂપે તેમાં તેની
શોભા નથી. માટે હે જીવ! પરથી અત્યંત ભીન્નપણું જાણીને,
કર. જ્ઞાયકસ્વભાવમાં એકતા કરીને જે સમ્યગ્દર્શન–જ્ઞાન–
ચારિત્ર પ્રગટયા તેના વડે જ તારા આત્માની શોભા છે.