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छठवीं आवृत्ति
काॉम्प्यूटर टाइप सेटिंगः
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and USA whose motivation was to study this great shastra and in the process also
These Atmaarthis have no desire for recognition and have requested that their
names are not mentioned.
However, AtmaDharma.com wishes to thank these Atmaarthis for their efforts in
making this shastra available to the whole world.
2) Keep checking the version number of the on-line shastra so that if correctionshave
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परमागम प्रधान हैं। दर्शनप्राभृत, सूत्रप्राभृत, बोधप्राभृत, भाव –प्राभृत, मोक्षप्राभृत, लिंगप्राभृत,
और शीलप्राभृत– यह आठ प्राभृतोंका समुच्चय नाम अष्टप्राभृत है। श्री समयसारादि पाँचों
परमागम हमारे ट्रस्ट द्वारा
शाह कृत अष्टप्राभृतके– उक्त चारों परमागमोंके हरिगीत–पद्यानुवादोंके समान–मूलानुगामी,
भाववाही एवं सुमधुर गुजराती पद्यानुवाद सह यह छठवां संकरण अध्यात्मिकविद्याप्रेमी
जिज्ञासुओंके करकमलमें प्रस्तुत करते हुए हमें अतीव अनुभूत होता है।
गहन रहस्यों का उद्घाटन किया है। वास्तवमें इस शताव्दीमें अध्यात्मरुचि के नवयुगका
प्रर्वतनकर मुुमुुक्षु समाज पर उन्होंनें असाधारण असीम उपकार किया है। इस भौतिक
विषयविलासप्रचुर युगमें, भारतवर्ष एवं विदेषोंमें भी ज्ञान–वैराग्यभीने अध्यात्मतत्त्वके प्रचारका
प्रबल आन्दोलन प्रवर्तमान है वह पूज्य गुरुदेवश्रीके चमत्कारी प्रभावनायोगका ही सुफल है।
आधार पर इस संस्करणको तैयार किया गया है। इसमें मदन गंज निवासी पं श्री
महेन्द्रकुमारजी काव्यतीर्थ द्वारा, सहारनपुरके सेठ श्री जम्बुकुमारजी के शास्त्रभँडारसे प्राप्त
पण्डित श्री जयचन्द्रजी छाबड़ाकृत भाषावचनिकाकी हस्तलिखित प्रतिके आधार से, जो
भाषपरिर्वतन किया गया था वह दिया गया है। एवं पदटिप्पणमें आदरणीय विद्वद्रल श्री
हिम्मतलाल जेठालाल शाह द्वारा रचित गुजराती पद्यानुवाद–जो कि सोनगढ़के श्री कहानगुरु–
धर्मप्रभावनादर्शन
तदर्थ उन दोनों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं।
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कामना।
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लिंगप्राभृत, और शीलप्राभृत–यह आठ प्राभृतोंका समूह–संसकरण है।
महत्ता प्रसिद्ध करता है, क्योंकि उसमें सर्वज्ञ भगवान् श्री महावीर स्वामी एवं गणधर भगवान्
श्री गौतमस्वामी के पश्चात् अनन्तर ही, उनका मंगल रूप में स्मरण किया गया है। दिगम्बर
जैन साधु स्वयं को भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेवकी परम्परा के कहलाने में अपना गौरव मानते
हैं। भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेवके शास्त्र साक्षात् गणधरदेवके वचन तुल्य ही प्रमाणभूत माने जाते
हैं। उनके उत्तरर्वी ग्रन्थकार आचार्य, मुनि एवं विद्धान् अपने किसी कथन को सिद्ध करने के
लिये कुन्दकुन्दाचार्यदेवके शास्त्रोंका प्रमाण देते हैं और इसलिये वह कथन निर्विवाद ठहरता है।
उनके पश्चात् लिखे गये ग्रन्थोंमें उनके शास्त्रों में से बहुत अवतरण लिये गये हैं। वि॰ सं॰ ६६०
में होने वाले श्री देवसेनाचार्यवर अपने दर्शनसार ग्रन्थ में कहते हैं कि –
‘कलिकालसर्वज्ञ’ कहा गया है, सो इस प्रकार है।–‘पद्यनन्दी, कुन्दकुन्दाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य,
एलाचार्य एवं गृध्रपिच्छाचार्य ये पाँच नाम से विभूषित, चार अंगुल ऊँचाई पर आकाश में गमन
की जिनके ऋद्धि थी, पूर्वविदेहक्षेत्र में जाकर जिन्होंने सीमन्धरभगवानकी वन्दना की थी और
उनके पाससे प्राप्त हुए श्रृतज्ञानसे जिन्होंने भारतवर्षके भव्य जीवोंको प्रतिबोध किया है ऐसे जो
श्री जिनचन्द्रसूरी भट्टारकके पट्ट के आभरणरूप कलिकालसर्वज्ञ
कुन्दकुन्दाचार्यदेवकी महत्ता सूचित करनेवाले ऐसे
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अभी भी अनेक आत्मार्थीयोंको आत्मजीवन समर्पित करते हैं। उनके समयसार, प्रवचनसार और
पंचास्तिकाय संग्रह नामक तीन उत्तमोत्तम शास्त्र ‘प्राभृतत्रय’ कहे जाते हैं। यह प्राभृतत्रय एवं
नियमसार तथा अष्टप्राभृत–यह पांच परमागमों में हजारों शास्त्रोंका सार आ जाता है। भगवान्
श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव के पश्चात् लिखे गये अनेक ग्रन्थों के बीज इन परमागमोंमें निहित हैं
ऐसा सूक्ष्म दृष्टि से अभ्यास करने पर ज्ञात होता है।
‘दर्शनप्राभृत’ में गाथा संख्या ३६ हैं। ‘धर्म का मूल दर्शन
प्राभृतशास्त्र में वर्णन किया गया है।
‘सूत्रप्राभृत’ में २७ गाथा हैं। इस प्राभृत में, जिनसूत्रानुसार आचारण जीवको हित रूप है
और जिनसूत्रविरुद्ध आचारण अहितरूप है–यह संक्षेपमें बताया गया है, तथा जिनसूत्रकथित
मुनिलिंगादि तीन लिंगोंका संक्षिप्त निरूपण है।
‘चारित्रपाभृत’ में ४५ गाथा हैं। उसमें, सम्यक्त्वचरणचारित्र और संयमचरणचारित्र के रूपमें
चारित्रका वर्णन है। संयमचरणका देशसंयमचरण और सकलसंयमचरण–इस प्रकार दो भेदसे
वर्णन करते हुए, श्रावकके बारह व्रत और मुनिराजके पंचेन्द्रियसंवर, पांच महाव्रत, प्रत्येक
महाव्रतकी पाँच–पाँच भावना, पाँच समिति इत्यादिका निर्देश किया गया है।
‘बोधप्राभृत’ में ६२ गाथा हैं। आयतन, चैत्यगृह, जिनप्रतिमा, दर्शन, जिनबिम्ब, जिनमुद्रा,
ज्ञान, देव, तीर्थ, अर्हन्त और प्रव्रज्या–इन ग्यारह विषयोंका इस प्राभृतमें संक्षिप्त कथन है।
‘भावश्रमण हैं सो आयतन हैं, चैत्यगृह हैं, जिनप्रतिमा हैं’–ऐसे वर्णन विशेषात्मक एक विशिष्ट
प्रकार से आयतनादि कतिपय विषयोंका इसमें
–––
तासके अभ्यासतें विकाश भेदज्ञान होत, मूढ़ सो लखे नहीं कुबुद्धि कुन्दकुन्दसे।।
देत हैं अशीस शीस नाय इन्दु चन्द जाहि, मोह–मार–खण्ड मारतंड कुन्दकुन्दसे।
विशुद्धिबुद्धिवृद्धिदा प्रसिद्ध ऋद्धि सिद्धिदा हुए न, हैं, न होंहिंगे, मुनिंद कुन्दकुन्दसे।।
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दुःख सहन कर रहा है उसका हृदयस्पर्शी वर्णन इस प्राभृत में किया गया है; और उन दुःखोंसे
छूटनेके लिये शुद्ध भावरूप परिणमन कर भावलिङ्गी मुनि दशा प्रगट किये बिना अन्य कोई
उपाय नहीं है ऐसा विशदतासे वर्णन किया है। उसके लिये
प्रेरक और भाववाही है एवं शुद्धभाव प्रगट करने वाले सम्यक् पुरुषार्थके प्रति जीव को सचेत
करने वाला है ।
‘मोक्षप्राभृत’ में १०६ गाथा हैं। इस प्राभृत में मोक्षका–परमात्मपदका–अति संक्षेपमें निर्देश
करके, पश्चात् वह
‘लिंगप्राभृत’ में २२ गाथा हैं। जो जीव मुनिका बाह्यलिंग धारण करके अति भ्रष्टाचारीरूपसे
आचरण करता है, उसका अति निकृष्टपना एवं निन्द्यपना इस प्राभृत में बताया है।
‘शीलप्राभृत’ में ४० गाथा हैं। ज्ञान विना
किया है। वस्तुतः इस काल में यह परमागम शास्त्र मुुमुुक्षु भव्य जीवों को परम आधार हैं। ऐसे
दुःषम काल में भी ऐसे अद्भुत अनन्य–शरणभूत शास्त्र–तीर्थंकर देवके मुखारविन्दसे विनिर्गत
अमृत–विद्यमान हैं वह हमारा महान भाग्य है। पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामी के शब्दों में
कहें तो–
कल्पवृक्ष हैं। चौदहपूर्वोंका रहस्य इनमें समाविष्ट है। इनकी प्रत्येक गाथा छठवें–सातवें
गुणस्थानमें झूलते हुए महामुनि के आत्म अनुभव में से निकली हुई है। इन
भगवानके समवशरणमें गये थे और वे वहाँ आठ दिन रहें थे सो बात यथातथ है, अक्षरशः
सत्य है, प्रमाणसिद्ध है, उसमें लेशमात्र भी शंकाको स्थान नहीं है। उन परमोपकारी
आचार्यभगवानके रचे हुए इन परमागमोंमें श्री तीर्थंकरदेवके निरक्षर ऊँकार दिव्यध्वनिसे निकला
हुुआ ही उपदेश है।’
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हो तब तक दिनरात वही मन्थन, वही पुरुषार्थ कर्तव्य है। इस परमागम का जो कोई भव्य
जीव आदर सह अभ्यास करेगा, श्रवण करेगा, पठन करेगा, प्रसिद्ध करेगा, वह अविनाशी
स्वरूपमय, अनेक प्रकारकी विचित्रतावाले, केवल एक ज्ञानात्मक भावको उपलब्ध कर अग्र
पदमें मुक्तिश्री का वरण करेगा।
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सम्यक्त्व है
गुणधारकोंके गुणानुवाद रूप हैं
मिथ्यादृष्टि है
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ही है
करने योग्य हैं
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सर्व इच्छाओंसे रहित हैं वे सर्व दुःख रहित हैं
और वह मोक्ष के स्थान के लिये है
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धारक शीघ्र ही अनुपम सुखको प्राप्त होता है
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किये हैं
भावना करो
जल से भी अधिक है
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प्राप्त नहीं हुआ। भावलिंग के बिना बाह्य जिनलिंग प्राप्तिमें भी अनंतकाल दुःख सहे
कथा
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उदाहरण–तंदुल मत्स्यकी कथा
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प्राप्त करता है
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