Ashtprabhrut (Hindi). Introduction; Edition Information; Thanks and Our Request; Version History; Shree Kanjiswami; Publisher's Note; Shree Kundkund Acharya; Upodghat; Contents.

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। भगवानश्रीकुन्दकुन्द–कहानजैनशास्त्रमाला, पुष्प–१२४
श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव विरचित
अष्टप्राभृतष्
भाषावचनिकार
पंडितवर श्री जयचन्द्रजी छाबड़ा
जयपुर (राजस्थान)
भाषा परिवर्तनकर्ता
पं॰ श्री महेन्द्रकुमारजी जैन, काव्यतीर्थ
मदनगंज–किशनगढ़ (राजस्थान)
प्रकाशक
श्री दिगम्बर जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट,
सोनगढ़ (सौराष्ट्र) पिनः ३६४२५०
प्राप्तिस्थानः
श्री दि॰ जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट,


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छठवीं आवृत्ति
भादों वदि २, वि॰ सं॰ २०५२
२००० प्रति
८२ वीं बहिनश्री–शम्पाबेन–जन्मजयन्ति



















काॉम्प्यूटर टाइप सेटिंगः
मुद्रकः
अरिहंत काॉम्प्यूटर ग्राफिक्स
स्मृति आॉफसेट
सोनगढ़–३६४२५०
सोनगढ़–३६४२५०ः फोन ३८१

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परम पूज्य अध्यात्ममूर्ति सद्गुरूदेव श्री कानजीस्वामी

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Thanks & Our Request
Shree AshtPahud (Hindi) has been typed into electronic form by Atmaarthis in India
and USA whose motivation was to study this great shastra and in the process also
make it available to the whole world.

These Atmaarthis have no desire for recognition and have requested that their
names are not mentioned.

However, AtmaDharma.com wishes to thank these Atmaarthis for their efforts in
making this shastra available to the whole world.
Our request to you:
beautiful work even more accurate.

2) Keep checking the version number of the on-line shastra so that if correctionshave
been made you can replace your copy with the corrected one.



Version History
Version number Date
Changes
003
002
5 February 2009
Corrected typing errors
19 June 2007
Corrected:
a) Formatting errors in
various gathas.
b) Spelling errors
001
31 March 2007
First electronic version

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नमः श्रीपरमागमजिनश्रुतेभ्यः ।
ॐ प्रकाशकीय निवेदन
अध्यात्मश्रुतधर ऋषीश्वर श्रीमद्भग्वत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव द्वारा प्रणीत अध्यात्म रचनाओंमें श्री
समयसार, श्री प्रवचनसार, श्री पंचास्तिकायसंग्रह, श्री नियमसार और श्री अष्टप्राभृत– यह पाँच
परमागम प्रधान हैं। दर्शनप्राभृत, सूत्रप्राभृत, बोधप्राभृत, भाव –प्राभृत, मोक्षप्राभृत, लिंगप्राभृत,
और शीलप्राभृत– यह आठ प्राभृतोंका समुच्चय नाम अष्टप्राभृत है। श्री समयसारादि पाँचों
परमागम हमारे ट्रस्ट द्वारा
(आद्य चार परमागम गुजराती एवं हिन्दी भाषामें तथा पाँचवाँ
अष्टप्राभृत हिन्दी भाषामें) अनेक बार प्रकाशित हो चुके हैं। श्री समयसारादि चारों परमागमोंके
सफल गुजराती गद्यपद्यानुवादक, गहरे आदर्श आत्मार्थी, पंडितरत्न श्री हिम्मतलाल जेठालाल
शाह कृत अष्टप्राभृतके– उक्त चारों परमागमोंके हरिगीत–पद्यानुवादोंके समान–मूलानुगामी,
भाववाही एवं सुमधुर गुजराती पद्यानुवाद सह यह छठवां संकरण अध्यात्मिकविद्याप्रेमी
जिज्ञासुओंके करकमलमें प्रस्तुत करते हुए हमें अतीव अनुभूत होता है।
श्री कुन्दकुन्द–अध्यात्म–भारतीके परम भक्त, अध्यात्मयुगस्रष्टा, परमोपकारी पूज्य
सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीने इस अष्टप्राभृत परमागम पर अनेक बार प्रवचनों द्वारा उसके
गहन रहस्यों का उद्घाटन किया है। वास्तवमें इस शताव्दीमें अध्यात्मरुचि के नवयुगका
प्रर्वतनकर मुुमुुक्षु समाज पर उन्होंनें असाधारण असीम उपकार किया है। इस भौतिक
विषयविलासप्रचुर युगमें, भारतवर्ष एवं विदेषोंमें भी ज्ञान–वैराग्यभीने अध्यात्मतत्त्वके प्रचारका
प्रबल आन्दोलन प्रवर्तमान है वह पूज्य गुरुदेवश्रीके चमत्कारी प्रभावनायोगका ही सुफल है।
अध्यात्मतीर्थ श्री सुवर्णपुरी (सोनगढ़) के श्री महावीर–कुन्दकुन्द दिगम्बरजैन
परमागममन्दिरमें संगमरमर के धवल शिलापटों पर उत्कीर्ण अष्टप्राभृतकी मूल गाथाओं के
आधार पर इस संस्करणको तैयार किया गया है। इसमें मदन गंज निवासी पं श्री
महेन्द्रकुमारजी काव्यतीर्थ द्वारा, सहारनपुरके सेठ श्री जम्बुकुमारजी के शास्त्रभँडारसे प्राप्त
पण्डित श्री जयचन्द्रजी छाबड़ाकृत भाषावचनिकाकी हस्तलिखित प्रतिके आधार से, जो
भाषपरिर्वतन किया गया था वह दिया गया है। एवं पदटिप्पणमें आदरणीय विद्वद्रल श्री
हिम्मतलाल जेठालाल शाह द्वारा रचित गुजराती पद्यानुवाद–जो कि सोनगढ़के श्री कहानगुरु–
धर्मप्रभावनादर्शन
(कुन्दकुन्द–प्रवचनमण्डप) में धवल संगमरमर–शिलापटों पर उत्कीर्ण उक्त
पाँचों परमागमोंमें अनतर्भूत है–नागरी लिपिमें दिया गया है।
इस संस्करणका ‘प्रूफ’ संशोधन श्री मगनलालजी जैन ने तथा काॉम्प्यूटर टाइप–सेटिंग
‘अरिहंत काॉम्प्यूटर ग्राफिक्स’, तथा मुद्रणकार्य ‘स्मृति आॉफसेट’, सोनगढ़ने कर दिया है,
तदर्थ उन दोनों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं।

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आत्मार्थी जीव अति बहुमान पूर्वक सद्गुरुगमसे इस परमागमका अभ्यास करके उसके
गहन भावोंका आत्मसात् करें और शास्त्रके तात्पर्यभूत वीतरागभावको प्राप्त करें– यही प्रशस्त
कामना।
भाद्रपद कृष्णा २, वि॰ सं॰ २०५२
साहित्यप्रकाशनसमिति
८२ वीं बहिनश्री–चम्पाबेन–जन्मजयन्ती
श्री दिगम्बर जैन स्वाध्यायमन्दिर ट्रस्ट,
सोनगढ़–३६४२५०
(
सोराष्ट्र
)


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भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव वनमें ताड़ पत्रके ऊपर शास्त्र रचते हुए ।

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नमः सद्गुरवे ।
उपोद्धात

‘अष्टप्राभृत’–सनातन दिगम्बर जैन आम्नायके निर्ग्रन्थ श्रमणोत्तम भगवान् श्री
कुन्दकुन्दाचार्यदेव द्वारा प्रणीत दर्शनप्राभृत, सूत्रप्राभृत, बोधप्राभृत, भाव –प्राभृत, मोक्षप्राभृत,
लिंगप्राभृत, और शीलप्राभृत–यह आठ प्राभृतोंका समूह–संसकरण है।
श्रमणभगवन्त ऋषीश्वर श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव विक्रम संवत्के प्रारम्भमें हो गये हैं।
दिगम्बर जैन परंपरामें भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवका स्थान सर्वोत्कृष्ट है।
मंगलं भगवान वीरो मंगलं गौतमो गणी ।
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलं।।
यह श्लोक प्रत्येक दिगम्बर जैन, शास्त्राध्ययन प्रारम्भ करते समय, मंगलाचरण के रूप
में बोलता है। यह सुप्रसिद्ध ‘मंगल’ का श्लोक भगवान् श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवकी असाधारण
महत्ता प्रसिद्ध करता है, क्योंकि उसमें सर्वज्ञ भगवान् श्री महावीर स्वामी एवं गणधर भगवान्
श्री गौतमस्वामी के पश्चात् अनन्तर ही, उनका मंगल रूप में स्मरण किया गया है। दिगम्बर
जैन साधु स्वयं को भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेवकी परम्परा के कहलाने में अपना गौरव मानते
हैं। भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेवके शास्त्र साक्षात् गणधरदेवके वचन तुल्य ही प्रमाणभूत माने जाते
हैं। उनके उत्तरर्वी ग्रन्थकार आचार्य, मुनि एवं विद्धान् अपने किसी कथन को सिद्ध करने के
लिये कुन्दकुन्दाचार्यदेवके शास्त्रोंका प्रमाण देते हैं और इसलिये वह कथन निर्विवाद ठहरता है।
उनके पश्चात् लिखे गये ग्रन्थोंमें उनके शास्त्रों में से बहुत अवतरण लिये गये हैं। वि॰ सं॰ ६६०
में होने वाले श्री देवसेनाचार्यवर अपने दर्शनसार ग्रन्थ में कहते हैं कि –
जइ पउमणंदिणाह सीमंधरसामिदिव्वणाणेण।
ण विबोहइ तो समणा कह सुमग्गं पयाणंति।।
(महा विदेहक्षेत्रके वर्तमान तीर्थंकरदेव) श्री सीमंधरस्वामीके पाससे (समवसरणमें जाकर)
प्राप्त हुए दिव्य ज्ञानसे श्री पद्यनन्दिनाथने (श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवने) यदि बोध न दिया होता
तो मुनिजन सच्चे मार्ग को कैसे जानते? दूसरा एक उल्लेख कि जिसमें कुन्दकुन्दाचार्यदेवको
‘कलिकालसर्वज्ञ’ कहा गया है, सो इस प्रकार है।–‘पद्यनन्दी, कुन्दकुन्दाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य,
एलाचार्य एवं गृध्रपिच्छाचार्य ये पाँच नाम से विभूषित, चार अंगुल ऊँचाई पर आकाश में गमन
की जिनके ऋद्धि थी, पूर्वविदेहक्षेत्र में जाकर जिन्होंने सीमन्धरभगवानकी वन्दना की थी और
उनके पाससे प्राप्त हुए श्रृतज्ञानसे जिन्होंने भारतवर्षके भव्य जीवोंको प्रतिबोध किया है ऐसे जो
श्री जिनचन्द्रसूरी भट्टारकके पट्ट के आभरणरूप कलिकालसर्वज्ञ
(भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव)
उनके द्वारा रचित इस षट्प्राभृतग्रन्थमें॰॰॰॰मोक्षप्राभृतकी टीका समाप्त हुई।’ भगवान्
कुन्दकुन्दाचार्यदेवकी महत्ता सूचित करनेवाले ऐसे

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अनेकानेक उल्लेख जैनसाहित्यमें उपलब्ध हैं। इससे सुप्रसिद्ध होता है कि सनातन दिगम्बर
जैन आम्नायमें कलिकालसर्वज्ञ भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेवका स्थान अद्वितीय है।
भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेव द्वारा रचित अनेक शास्त्र हैं, उनमेंसे कतिपय अधुना उप्लब्ध
हैं। त्रिलोकनाथ सर्वज्ञदेवके श्रीमुखसे प्रवाहित श्रुतामृत की सरितामेंसे भरे गये वे अमृतभाजन
अभी भी अनेक आत्मार्थीयोंको आत्मजीवन समर्पित करते हैं। उनके समयसार, प्रवचनसार और
पंचास्तिकाय संग्रह नामक तीन उत्तमोत्तम शास्त्र ‘प्राभृतत्रय’ कहे जाते हैं। यह प्राभृतत्रय एवं
नियमसार तथा अष्टप्राभृत–यह पांच परमागमों में हजारों शास्त्रोंका सार आ जाता है। भगवान्
श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव के पश्चात् लिखे गये अनेक ग्रन्थों के बीज इन परमागमोंमें निहित हैं
ऐसा सूक्ष्म दृष्टि से अभ्यास करने पर ज्ञात होता है।
यह प्रकृत परमागम आठ प्राभृतोंका समुच्चय होने से वह ‘अष्टप्राभृत’ अभिधान से
सुप्रसिद्ध है। उसमें प्रत्येक प्राभृतकी गाथासंख्या एवं उसका विषयनिर्देश निम्न प्रकार है।–
‘दर्शनप्राभृत’ में गाथा संख्या ३६ हैं। ‘धर्म का मूल दर्शन
(सम्यग्दर्शन) है–’ ‘दंसणमूलो
धम्मो’–इस रहस्यगम्भीर महासूत्र से प्रारम्भ करके सम्यग्दर्शन की परम महिमा का इस
प्राभृतशास्त्र में वर्णन किया गया है।
‘सूत्रप्राभृत’ में २७ गाथा हैं। इस प्राभृत में, जिनसूत्रानुसार आचारण जीवको हित रूप है
और जिनसूत्रविरुद्ध आचारण अहितरूप है–यह संक्षेपमें बताया गया है, तथा जिनसूत्रकथित
मुनिलिंगादि तीन लिंगोंका संक्षिप्त निरूपण है।
‘चारित्रपाभृत’ में ४५ गाथा हैं। उसमें, सम्यक्त्वचरणचारित्र और संयमचरणचारित्र के रूपमें
चारित्रका वर्णन है। संयमचरणका देशसंयमचरण और सकलसंयमचरण–इस प्रकार दो भेदसे
वर्णन करते हुए, श्रावकके बारह व्रत और मुनिराजके पंचेन्द्रियसंवर, पांच महाव्रत, प्रत्येक
महाव्रतकी पाँच–पाँच भावना, पाँच समिति इत्यादिका निर्देश किया गया है।
‘बोधप्राभृत’ में ६२ गाथा हैं। आयतन, चैत्यगृह, जिनप्रतिमा, दर्शन, जिनबिम्ब, जिनमुद्रा,
ज्ञान, देव, तीर्थ, अर्हन्त और प्रव्रज्या–इन ग्यारह विषयोंका इस प्राभृतमें संक्षिप्त कथन है।
‘भावश्रमण हैं सो आयतन हैं, चैत्यगृह हैं, जिनप्रतिमा हैं’–ऐसे वर्णन विशेषात्मक एक विशिष्ट
प्रकार से आयतनादि कतिपय विषयोंका इसमें
(जिनोक्त) विशिष्ट निरूपण है। जिनोपदिष्ट
प्रव्रज्याका सम्यक् वर्णन १७ गाथाओंके द्वारा अति सुन्दर किया गया है।
–––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
–––
जासके मुखारविन्दतें प्रकाश भासवृन्द, स्यादवाद जैन वैन इन्दु कुन्दकुन्दसे।
तासके अभ्यासतें विकाश भेदज्ञान होत, मूढ़ सो लखे नहीं कुबुद्धि कुन्दकुन्दसे।।
देत हैं अशीस शीस नाय इन्दु चन्द जाहि, मोह–मार–खण्ड मारतंड कुन्दकुन्दसे।
विशुद्धिबुद्धिवृद्धिदा प्रसिद्ध ऋद्धि सिद्धिदा हुए न, हैं, न होंहिंगे, मुनिंद कुन्दकुन्दसे।।
–कविवर वृन्दावनदासजी

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‘भावप्राभृत’ में १६५ गाथा हैं। अनादिकालसे चतुर्गतिमें परिभ्रमण करते हुए, जीव जो अनन्त
दुःख सहन कर रहा है उसका हृदयस्पर्शी वर्णन इस प्राभृत में किया गया है; और उन दुःखोंसे
छूटनेके लिये शुद्ध भावरूप परिणमन कर भावलिङ्गी मुनि दशा प्रगट किये बिना अन्य कोई
उपाय नहीं है ऐसा विशदतासे वर्णन किया है। उसके लिये
(दुःखों से छूटने के लिये)
शुद्धभावशून्य द्रव्यमुनिलिङ्ग अकार्यकारी है यह स्पष्टतया बताया गया है। यह प्राभृत अति वैराग्य
प्रेरक और भाववाही है एवं शुद्धभाव प्रगट करने वाले सम्यक् पुरुषार्थके प्रति जीव को सचेत
करने वाला है ।
‘मोक्षप्राभृत’ में १०६ गाथा हैं। इस प्राभृत में मोक्षका–परमात्मपदका–अति संक्षेपमें निर्देश
करके, पश्चात् वह
(–मोक्ष) प्राप्त करनेका उपाय क्या है उसका वर्णन मुख्यतया किया गया
है। स्वद्रव्यरत जीव मुक्ता होता है–यह, इस प्राभृतका केन्द्रवर्ती सिद्धान्त है।
‘लिंगप्राभृत’ में २२ गाथा हैं। जो जीव मुनिका बाह्यलिंग धारण करके अति भ्रष्टाचारीरूपसे
आचरण करता है, उसका अति निकृष्टपना एवं निन्द्यपना इस प्राभृत में बताया है।
‘शीलप्राभृत’ में ४० गाथा हैं। ज्ञान विना
(सम्यग्ज्ञान विना) जो कभी नहीं होता ऐसे
शीलके (–स्त्शीलके) तत्वज्ञानगम्भीर सुमधुर गुणगान इस प्राभृत में जिनकथन अनुसार गाये
गये हैं।
–इस प्रकार भगवन् श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत ‘अष्टप्राभृत’ परमागमका संक्षिप्त
विषय परिचय है।
अहो! जयवंत वर्तो वे सातिशयप्रतिभासम्पन्न भगवान् श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव कि जिन्होंने
महातत्त्वोंसे भरे हुए इन परमागमोंकी असाधारण रचना करके भव्य जीवों पर महान उपकार
किया है। वस्तुतः इस काल में यह परमागम शास्त्र मुुमुुक्षु भव्य जीवों को परम आधार हैं। ऐसे
दुःषम काल में भी ऐसे अद्भुत अनन्य–शरणभूत शास्त्र–तीर्थंकर देवके मुखारविन्दसे विनिर्गत
अमृत–विद्यमान हैं वह हमारा महान भाग्य है। पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामी के शब्दों में
कहें तो–
‘भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव के यह पाँचों ही परमागम आगमों के भी आगम हैं; लाखों
शास्त्रोंका निचोड़ इनमें भरा हुआ है, जैन शासनका यह स्तम्भ है; साधककी यह कामधेनु हैं,
कल्पवृक्ष हैं। चौदहपूर्वोंका रहस्य इनमें समाविष्ट है। इनकी प्रत्येक गाथा छठवें–सातवें
गुणस्थानमें झूलते हुए महामुनि के आत्म अनुभव में से निकली हुई है। इन
परमागमोंके प्रणेता भगवन् श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव महाविदेहक्षेत्रमें सर्वज्ञ वीतराग श्री सीमन्धर–
भगवानके समवशरणमें गये थे और वे वहाँ आठ दिन रहें थे सो बात यथातथ है, अक्षरशः
सत्य है, प्रमाणसिद्ध है, उसमें लेशमात्र भी शंकाको स्थान नहीं है। उन परमोपकारी
आचार्यभगवानके रचे हुए इन परमागमोंमें श्री तीर्थंकरदेवके निरक्षर ऊँकार दिव्यध्वनिसे निकला
हुुआ ही उपदेश है।’

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अन्तमें, –यह अष्टप्राभृत परमागम भव्य जीवोंको जिनदेव द्वारा प्ररूपित आत्म शान्तिका
मार्ग बताता है। जब तक इस परमागमके परम गम्भीर और सूक्ष्म भाव यथार्थतया हृदयगत न
हो तब तक दिनरात वही मन्थन, वही पुरुषार्थ कर्तव्य है। इस परमागम का जो कोई भव्य
जीव आदर सह अभ्यास करेगा, श्रवण करेगा, पठन करेगा, प्रसिद्ध करेगा, वह अविनाशी
स्वरूपमय, अनेक प्रकारकी विचित्रतावाले, केवल एक ज्ञानात्मक भावको उपलब्ध कर अग्र
पदमें मुक्तिश्री का वरण करेगा।
(‘पंच परमागम’ के उपोद्धात से संकलित।)
वैशाख शुक्ला २, वि॰ सं॰ २०५२साहित्यप्रकाशनसमिति,
१०६ वीं कहानगुरु जन्मजयन्तीश्री दि॰ जैन स्वाध्यायमन्दिर ट्रस्ट
सोनगढ़–३६४२५० (सौराष्ट्र)

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विषय–सूची
विषय
पृष्ठ
१॰ दर्शनपाहुड
भाषाकार कृत मंगलाचरण, देष भाषा लिखने की प्रतिज्ञा
भाषा वचनिका बनानेका प्रयोजन तथा लघुताके साथ प्रतिज्ञा व मंगल
कुन्दकुन्दस्वामि कृत भगवान को नमस्कार, तथा दर्शनमार्ग लिखने की सूचना
धर्म की जड़ सम्यग्दर्शन है, उसके बिना वन्दन की पात्रता भी नहीं
भाषावचनिका कृत दर्शन तथा धर्मका स्वरूप
दर्शन के भेद तथा भेदोंका विवेचन
५–६
दर्शन के उद्बोधक चिन्ह
सम्यक्त्वके आठ गुण, और आठ गुणोंका प्रशमादि चिन्होंमें अन्तर्भाव
सुदेव–गुरु तथा सम्यक्त्वके आठ अंग
१०–१३
सम्यग्दर्शनके बिना बाह्य चारित्र मोक्ष का कारण नहीं
१४
सम्यक्त्वके बिना ज्ञान तथा तप भी कार्यकारी नहीं
१६
सम्यक्त्वके बिना सर्व ही निष्फल है तथा उसके सद्भावमें सर्व ही सफल है
१६
कर्मरज नाशक सम्यग्दर्शनकी शक्ति जल–प्रवाहके समान है
१७
जो दर्शनादित्रयमें भ्रष्ट हैं वे कैसे हैं
१७
भ्रष्ट पुरुष ही आप भ्रष्ट होकर धर्मधारकोंके निंदक होते हैं
१८
जो जिनदर्शनके भ्रष्ट हैं वे मुलेस ही भ्रष्ट हैं और वे सिद्धोंको भी प्राप्त नहीं कर सकते
१९
जिनदर्शन ही मोक्षमार्गका प्रधान साधक रूप मूल है
१९
दर्शन भ्रष्ट होकर भी दर्शन धारकोंसे अपनी विनय चाहते हैं वे दुर्गतिके पात्र हैं
२०
लज्जादिके भयसे दर्शन भ्रष्टका विनय करे वह भी उसीके समान
(
भ्रष्ट
)
हैं
२१
दर्शनकी
(
मतकी
)
मूर्ति कहाँ पर कैसे है
२२
कल्याण अकल्याणका निश्चयायक सम्यग्दर्शन ही है
२३
कल्याण अकल्याण के जानने का फल
२३
जिन वचन ही सम्यक्त्वके कारण होने से दुःख के नाशक हैं
२४
जिनागमोक्त दर्शन
(
मत
)
के भेषोंका वर्णन
२५
सम्यग्दृष्टिका लक्षण
२५
निश्चय व्यवहार भेदात्मक सम्यक्त्व का स्वरूप
२६
रत्नत्रयमें भी मोक्षसोपानकी प्रथम श्रेणी
(
पेड़ि
)
सम्यग्दर्शन ही है अतएव श्रेष्ठ रत्न है
तथा धारण करने योग्य है
२७
विशेष न हो सके तो जिनोक्त पदार्थ श्रद्धान ही करना चाहिये क्योंकि वह जिनोक्त
सम्यक्त्व है
२७
जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय, इन पंचात्मकतारूप हैं वे वंदना योग्य हैं तथा
गुणधारकोंके गुणानुवाद रूप हैं
२८
यथाजात दिगम्बर स्वरूपको देखकर मत्सर भावसे जो विनयादि नहीं करता है वह
मिथ्यादृष्टि है
२९
वंदन नहीं करने योग्य कौन है?
३०
वंदना करने योग्य कौन ?
३१

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विषय
पृष्ठ
मोक्षमें कारण क्या है?
३३
गुणोंमें उत्तरोत्तर श्रेष्ठपना
३३
ज्ञानादि गुणचतुष्ककी प्राप्ति में ही निस्संदेह जीव सिद्ध है
३४
सुरासुरवंद्य अमूल्य रत्न सम्यग्दर्शन ही हे
३४
सम्यक्दर्शन का महात्म्य
३५
स्थावर प्रतिमा अथवा केवल ज्ञानस्थ अवस्था
३६
जंगम प्रतिमा अथवा कर्म देहादि नाशके अनन्तर निवारण प्राप्ति
३७
२॰ सूत्र पाहुड
सूत्रस्थ प्रमाणीकता तथा उपादेयता
३९
भव्य
(
त्व
)
फल प्राप्तिमें ही सूत्र मार्ग की उपादेयता
४०
देशभाषाकानिर्दिष्ट अन्य ग्रन्थानुसार आचार्य परम्परा
४०
द्वादशांग तथा अंग बाह्य श्रुत का वर्णन
४१–४५
दृष्टांत द्वारा भवनाशकसूत्रज्ञानप्राप्तिका वर्णन
४६
सूत्रस्थ पदार्थोंका वर्णन और उसका जाननेवाला सम्यग्दृष्टि
४७
व्यवहार परमार्थ भेदद्वयरूप सूत्रका ज्ञाता मलका नाश कर सुख को पाता है
४८
टीका द्वारा निश्चय व्यवहार नयवर्णित व्यवहार परमार्थसूत्र का कथन
४९–५२
सूत्रके अर्थ व पदसे भ्रष्ट है वह मिथ्यादृष्टि है
५२
हरिहरतुल्य भी जो जिन सूत्रसे विमुख हैं उसकी सिद्धि नहीं
५३
उत्कृष्ट शक्तिधारक संघनायक मुनि भी यदि जिनसूत्रसे विमुख हैं तो वह मिथ्यादृष्टि
ही है
५४
जिनसूत्रमें प्रतिपादित ऐसा मोक्षमार्ग अन्य अमार्ग
५४
सर्वारंभ परिग्रहसे विरक्त हुआ जिनसूत्रकथित संयमधारक सुरासुरादिकर वंदनीक है
५५
अनेक शक्तिसहित परीषहों से जीतनेवाले ही कर्मका क्षय तथा निर्जरा करते हैं वे वंदन
करने योग्य हैं
५६
इच्छाकार करने योग्य कौन?
५६
इच्छाकार योग्य श्रावकका स्वरूप
५७
अन्य अनेक धर्माचरण होनेपर भी इच्छाकारके अर्थसे अज्ञ है उसको भी सिद्धि नहीं
५७
इच्छाकार विषयक दृढ़ उपदेश
५८
जिनसूत्रके जाननेवाले मुनियोंका वर्णन
५८
यथाजातरूपतामें अल्पपरिग्रह ग्रहणसे भी क्या दोष होता है उसका कथन
५९
जिनसूत्रोक्त मुनि अवस्था परिग्रह रहित ही है परिग्रहसत्ता में निंद्य है
६१
प्रथम वेष मुनि का है तथा जिन प्रवचन में ऐसे मुनि वंदना योग्य हैं
६२
दूसरा उत्कृष्ट वेष श्रावकका है
६२
तीसरा वेष स्त्रीका है
६३
वस्त्र धारकों के मोक्ष नहीं, चाहे वह तीर्थंकर भी क्यों न हो, मोक्ष नग्न [दिगम्बर]
अवस्था में ही है
६४
स्त्रियोंके नग्न दिगम्बर दीक्षा के अवरोधक कारण
६४

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विषय
पृष्ठ
स्त्रियोंके ध्यान की सिद्धि भी नहीं
६५
जिन सूत्रोक्त मार्गानुगामी ग्राह्यपदार्थों में से भी अल्प प्रमाण ग्रहण करते हैं तथा जो
सर्व इच्छाओंसे रहित हैं वे सर्व दुःख रहित हैं
६६
३॰ चारित्रपाहुड
नमस्कृति तथा चारित्र पाहुड लिखने की प्रतिज्ञा
६८
सम्यग्दर्शनादित्रयका अर्थ
७०
ज्ञानादिभावत्रयकी शुद्धिके अर्थ दो प्रकार का चारित्र
७०
चारित्रके सम्यक्त्व–चरण संयम–चरण भेद
७१
सम्यक्त्व–चरण के शंकादिमलों के त्याग निमित्त उपदेश
७१
अष्ट अंगोंके नाम
७४
निःशंकित आदि अष्टगुणविशुद्ध जिनसम्यक्त्वका आचरण सम्यक्त्व चरण चारित्र है
और वह मोक्ष के स्थान के लिये है
७५
सम्यक्त्वचरण चारित्रसे भ्रष्ट संयम चरणधारी भी मोक्षको नहीं प्राप्त करता
७६
सम्यक्त्वचरण के चिह्न
७६
सम्यक्त्व त्याग के चिह्न तथा कुदर्शनोंके नाम
७८
उत्साह भावनादि होने पर सम्यक्त्वका त्याग नहीं हो सकता है
७९
मिथ्यात्वादित्रय त्यागने का उपदेश
७९
मिथ्यामार्ग में प्रवर्तानेवाले दोष
८०
चारित्र दोष को मार्जन करने वाले गुण
८१
मोह रहित दर्शनादित्रय मोक्षके कारण हैं
८२
संक्षेपतासे सम्यक्त्वका महात्म्य, गुणश्रेणी निर्जरा सम्यक्त्वचरण चारित्र
८३
संयम चरण के भेद और भेदों का संक्षेपता से वर्णन
८४
सागारसंयम चरणके ११ स्थान अर्थात् ग्यारह प्रतिमा
८४
सागार संयम चरण का कथन
८४
पंच अणुव्रतका स्वरूप
८६
तीन गुणव्रतका स्वरूप
८७
शिक्षाव्रत के चार भेद
८८
यतिधर्मप्रतिपादनकी प्रतिज्ञा
८८
यतिधर्म की सामग्री
८९
पंचेन्द्रियसंवरणका स्वरूप
८९
पांच व्रतों का स्वरूप
९०
पंचव्रतोंको महाव्रत संज्ञा किस कारण से है
९०
अहिंसाव्रत की पांच भावना
९१
सत्यव्रत की पांच भावना
९२
अचौर्यव्रत की भावना
९२
ब्रह्मचर्य की भावना
९३
अपरिग्रह महाव्रत की पांच भावना
९४

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विषय
पृष्ठ
संयमशुद्धिकी कारण पंच समिति
९४
ज्ञानका लक्षण तथा आत्मा ही ज्ञान स्वरूप है
९५
मोक्षमार्गस्वरूप ज्ञानी का लक्षण
९६
परमश्रद्धापूर्वक रत्नत्रयका ज्ञाता ही मोक्षका भागी है
९६
निश्चय चारित्ररूप ज्ञानके धारक सिद्ध होते हैं
९७
इष्ट–अनिष्टके साधक गुणदोषका ज्ञान ज्ञानसे ही होता है सम्यग्ज्ञान सहित चारित्रका
धारक शीघ्र ही अनुपम सुखको प्राप्त होता है
९८
संक्षेपता से चारित्रका कथन
९९
चारित्र पाहुडकी भावना का फल तथा भावना का उपदेश
९९
४॰ बोधपाहुड
आचार्यकी स्तुति और ग्रन्थ करने की प्रतिज्ञा
१०१
आयतन आदि ११ स्थलोंके नाम
१०२
आयतनत्रयका लक्षण
१०३
टीकाकारकृत आयतनका अर्थ तथा इनसे विपरीत अन्यमत–स्वीकृतका निषेध
१०४
चैत्यगृहका कथन
१०५
जंगमथावर रूप जिनप्रतिमाका निरूपण
१०७
दर्शनका स्वरूप
१०९
जिनबिम्बका निरूपण
१११
जिनमुद्राका स्वरूप
११२
ज्ञानका निरूपण
११३
दृष्टान्त द्वारा ज्ञानका दृढ़ीकरण
११४
विनयसंयुक्तज्ञानीके मोक्ष की प्राप्ति होती है
११४
मतिज्ञानादि द्वारा मोक्षलक्ष्य सिद्धिमें बाण आदि दृष्टान्तका कथन
११५
देवका स्वरूप
११६
धर्म, दीक्षा और देवका स्वरूप
११६
तीर्थका स्वरूप
११७
अरहंतका स्वरूप
११८
नामकी प्रधानतासे गुणों द्वारा अरहंतका कथन
१२०
दोषोंके अभाव द्वारा ज्ञानमूर्ति अरहंतका कथन
१२१
गुणस्थानादि पंच प्रकारसे अरहंतकी स्थापना पंच प्रकार है
१२२
गुणस्थानस्थापनासे अरहंतका निरूपण
१२२
मार्गणा द्वारा अरहंतका निरूपण
१२३
पर्याप्तिद्वारा अरहंतका कथन
१२४
प्राणों द्वारा अरहंतका कथन
१२५
जीव स्थान द्वारा अरहंतका निरूपण
१२५
द्रव्यकी प्रधानतासे अरहंतका निरूपण
१२६
भावकी प्रधानता से अरहंतका निरूपण
१२७




विषय
पृष्ठ

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अरहंत के भावका विशेष विवेचन
१२८
प्रवज्या
(
दीक्षा
)
कैसे स्थान पर निर्वाहित होती है तथा उसका धारक पात्र कैसा होता
है?
१३१
सम्यक्त्व सहित चारित्र धारक स्त्री शुद्ध है पाप रहित है
६५
दीक्षाका अंतरंग स्वरूप तथा दीक्षा विषय विशेष कथन
१३२–१३६
दिक्षा का बाह्यस्वरूप, तथा विशेष कथन
१३६
प्रवज्याका संक्षिप्त कथन
१३७–१४२
बोधपाहुड
(
षट्जीवहितकर
)
का संक्षिप्त कथन
१४२
सर्वज्ञ प्रणीत तथा पूर्वाचार्यपरंपरागत–अर्थका प्रतिपादन
१४२–१४६
भद्रबाहुश्रुतकेवलीके शिष्यने किया है ऐसा कथन
१४६
श्रुतकेवली भद्रबाहुकी स्तुति
१४७
५॰ भावपाहुड
जिनसिद्धसाधुवंदन तथा भावपाहुड कहने की सूचना
१४९
द्रव्यभावरूपलिंगमें गुण दोषोंका उत्पादक भावलिंग ही परमार्थ है
१५०
बाह्यपरिग्रहका त्याग भी अंतरंग परिग्रहके त्यागमें ही सफल है
१५२
करोडों भव तप करने पर भी भावके बिना सिद्धि नहीं
१५२
भावके बिना
(
अशुद्ध परिणतिमें
)
बाह्य त्याग कार्यकारी नहीं
१५३
मोक्षमार्ग में प्रधानभाव ही है, अन्य अनेक लिंग धारने से सिद्धि नही
१५४
अनादि काल से अनंतानंत संसार में भावरहित बाह्यलिंग अनंतबार छोडे़ तथा ग्रहण
किये हैं
१५४
भावके बिना सांसारिक अनेक दुखोंको प्राप्त हुआ है, इसलिये जिनोक्त भावना की
भावना करो
१५५
नरकगति के दुःखोंका वर्णन
१५५
तिर्यंच गति के दुःखोंका वर्णन
१५६
मनुष्य गति के दुःखोंका वर्णन
१५७
देचगति के दुःखोंका वर्णन
१५७
द्रव्यलिंगी कंदर्पी आदि पांच अशुभ भावनाके निमित्तसे नीच देव होता है
१५८
कुभावनारूप भाव कारणोंसे अनेकबार अनंतकाल पार्श्वस्थ भावना भाकर दुःखी हुआ
१५९
हीन देव होकर महर्द्धिक देवोंकी विभूति देखकर मानसिक दुःख हुआ
१५९
मदमत्त अशुभभावनायुक्त अनेक बार कुदेव हुआ
१६०
गर्भजन्य दुःखोंका वर्णन
१६१
जन्म धारणकर अनंतानंत बार इतनी माताओंका दूध पीया कि जिसकी तुलना समुद्र
जल से भी अधिक है
१६१
अनंतबार मरण से माताओंके अश्रुओंकी तुलना समुद्र जल से अधिक है
१६२
अनंत जन्म के नख तथा केशोंकी राशि भी मेरू से अधिक है
१६२
जल थल आदि अनेक तीन भुवनके स्थानोंमें बहुत बार निवास किया
१६३
जगतके समस्त पुद्गलोंको अनन्तबार भोगा तो भी तृप्ति नहीं हुई
१६३

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विषय
पृष्ठ
तीन भुवन संबन्धी समस्त जल पिया तो भी प्यास शांत न हुई
१६४
अनंत भव सागरमें अनेक शरीर धारण किये जिनका कि प्रमाण भी नहीं
१६४
विषादि द्वारा मरण कर अनेकबार अपमृत्युजन्य तीव्र दुःख पाये
१६५
निगोद के दुःखोंका वर्णन
१६६
क्षुद्र भवोंका कथन
१६७
रत्नत्रय धारण करनेका उपदेश
१६८
रत्नत्रयका सामान्य लक्षण
१६८
जन्ममरण नाशक सुमरण का उपदेश
१६९
टीकाकर वर्णित १७ सुमरणोंसे भेद तथा सर्व लक्षण
१६९–१७२
द्रव्य श्रमण का त्रिलोकी में ऐसा कोई भी परमाणुमात्र क्षेत्र नहीं जहाँ की जन्म मरण को
प्राप्त नहीं हुआ। भावलिंग के बिना बाह्य जिनलिंग प्राप्तिमें भी अनंतकाल दुःख सहे
१७२
पुद्गलकी प्रधानतासे भ्रमण
१७४
क्षेत्रकी प्रधानतासे भ्रमण और शरीरके राग प्रमाणकी अपेक्षासे दुःखका वर्णन
१७४
अपवित्र गर्भ–निवासकी अपेक्षा दुःख का वर्णन
१७६
बाल्य अवस्था संबंधी वर्णन
१७७
शरीरसम्बन्धी अशुत्विका विचार
१७७
कुटुम्बसे छूटना वास्तविक छूटना नहीं, किन्तु भावसे छूटना ही वास्तविक छूटना है
१७८
मुनि बाहुबलीजी के समान भावशुद्धिके बिना बहुत काल पर्यंत सिद्धि नहीं हुई
१७९
मुनि पिंगलका उदाहरण तथा टीकाकार वर्णित कथा
१७९
वशिष्ट मुनिका उदाहरण और कथा
१८१
भावके बिना चौरासी योनियोंमें भ्रमण
१८२
बाहु मुनिका दृष्टांत और कथा
१८४
द्वीपायन मुनिका उदाहरण और कथा
१८५
भावशुद्धिकी सिद्धिमें शिवकुमार मुनिका दृष्टांत तथा कथा
१८६
भावशुद्धि बिना विद्वत्ता भी कार्यकारी नहीं उसमें उदाहरण अभव्यसेन मुनि
१८७
विद्वत्ता बिना भी भावशुद्धि कार्यकारिणी है उसका दृष्टांत शिवभूती तथा शिवभूतीकी
कथा
१८७
नग्नत्वकी सार्थकता भावसे ही है
१८८
भावके बिना कोरा नग्नत्व कार्यकारी नहीं
१८९
भावलिंग का लक्षण
१८९
भावलिंगी के परिणामोंका वर्णन
१९०
मोक्षकी इच्छामें भावशुद्ध आत्मा का चिंतवन
१९२
आत्म–चिंतवन भी निजभाव सहित कार्यकारी है
१९२
सर्वज्ञ प्रतिपादित जीवका स्वरूप
९९३
जिसने जीवका अस्तित्व अंगीकार किया है उसीके सिद्धि है
१९४
जीवका स्वरूप वचनगम्य न होनेपर भी अनुभवगम्य है
१९४
पंचप्रकार ज्ञानभी भावनाका फल है
१९५

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विषय
पृष्ठ
भाव बिना पठन श्रवण कार्यकारी नहीं
१९६
बाह्य नग्नपने से ही सिद्धि हो, तो तिर्यंच आदि सभी नग्न हैं
१९६
भाव बिना केवल नग्नपना निष्फल ही है
१९७
पाप मलिन कोरा नग्न मुनि अपयश का ही पात्र है
१९८
भावलिंगी होनेका उपदेश
१९८
भावरहित कोरा नग्न मुनि निर्गुण निष्फल
१९९
जिनोक्त समाधि बोधी द्रव्यलिंगी के नहीं
१९९
भावलिंग धारण कर द्रव्यलिंग धारण करना ही मार्ग है
२००
शुद्धभाव मोक्षका कारण अशुद्धभाव संसार का कारण
२०१
भावके फलका महात्म्य
२०१
भावोंके भेद और उनके लक्षण
२०२
जिनशासन का महात्म्य
२०३
दर्शनविशुद्धि आदि भावशुद्धि तीर्थंकर प्रकृति के भी कारण हैं
२०३
विशुद्धि निमित्त आचरणका उपदेश
२०४
जिनलिंग का स्वरूप
२०५
जिनधर्म की महिमा
२०६
प्रवृत्ति निवृत्तिरूप धर्मका कथन, पुण्य धर्म नहीं है, धर्म क्या है?
२०७
पुण्य प्रधानताकर भोगका निमित्त है। कर्मक्षय का नहीं
२०८
मोक्षका कारण आत्मीक स्वभावरूप धर्म ही है
२०८
आत्मीक शुद्ध परिणति के बिना अन्य समस्त पुण्य परिणति सिद्धि से रहित हैं
२०९
आत्मस्वरूपका श्रद्धान तथा ज्ञान मोक्षका साधक है ऐसा उपदेश
२०९
बाह्य हिंसादि क्रिया बिना सिर्फ अशुद्ध भाव भी सप्तम नरक का कारण है उसमें
उदाहरण–तंदुल मत्स्यकी कथा
२१०
भाव बिना बाह्य परिग्रहका त्याग निष्फल है
२११
भाव शुद्धि निमित्तक उपदेश
२१२
भाव शुद्धिका फल
२१३
भाव शुद्धिके निमित्त परिषहों के जीतने का उपदेश
२१४
परीषह विजेता उपसर्गों से विचलित नहीं होता उसमें दृष्टांत
२१४
भावशुद्धि निमित्त भावनाओं का उपदेश
२१५
भावशुद्धि में ज्ञानाभ्यास का उपदेश
२१६
भावशुद्धिके निमित्त ब्रह्मचर्य के आरम्भका कथन
२१६
भावसहित चार आराधनाको प्राप्त करता है, भावसहित संसार में भ्रमण करता है
२१७
भाव तथा द्रव्यके फल का विशेष
२१८
अशुद्ध भाव से ही दोष दुषित आहार किया, फिर उसी से दुर्गतिके दुःख सहे
२१८
सचित्त त्याग का उपदेश
२१९
पंचप्रकार विनय पालन का उपदेश
२२०
वैयावृत्य का उपदेश
२२१

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विषय
पृष्ठ
लगे हुए दोषोंको गुरुके सन्मुख प्रकाशित करने का उपदेश
२२२
क्षमा का उपदेश
२२२
क्षमाका फल
२२३
क्षमा के द्वारा पूर्व संचित क्रोधके नाशका उपदेश
२२४
दीक्षाकाल आदि की भावना का उपदेश
२२४
भावशुद्धिपूर्वक ही चार प्रकार का बाह्य लिंग कार्यकारी है
२२५
भाव बिना आहारादि चार संज्ञाके परवश होकर अनादिकाल संसार भ्रमण होता है
२२६
भावशुद्धिपूर्वक बाह्य उत्तर गुणोंकी प्रवृत्तिका उपदेश
२२६
तत्त्व की भावना का उपदेश
२२७
तत्त्व भावना बिना मोक्ष नहीं
२२९
पापपुण्यरूप बंध तथा मोक्षका कारण भाव ही है
२३०
पाप बंध के कारणों का कथन
२३०
पुण्य बंध के कारणों का कथन
२३१
भावना सामान्यका कथन
२३२
उत्तर भेद सहित शीलव्रत भानेका उपदेश
२३३
टीकाकर द्वारा वर्णित शीलके अठारह हजार भेद तथा चौरासीलाख उत्तर गुणों का
वर्णन, गुणस्थानों की परिपाटी
२३३–२३६
धर्मध्यान शुक्लध्यानके धारण तथा आर्त्तरौद्रके त्याग का उपदेश
२३६
भवनाशक ध्यान भावश्रमण के ही है
२३७
ध्यान स्थिति में दृष्टांत
२३८
पंचगुरुके ध्यावने का उपदेश
२३८
ज्ञानपूर्वक भावना मोक्षका कारण
२३९
भावलिंगी के संसार परिभ्रमण का अभाव होता है
२४०
भाव धारण करनेका उपदेश तथा भावलिंगी उत्तमोत्तम पद तथा उत्तमोत्तम सुख को
प्राप्त करता है
२४१
भावश्रमण को नमस्कार
२४२
देवादि ऋद्धि भी भावश्रमण को मोहित नहीं करतीं तो फिर अन्य संसार के सुख क्या
मोहित कर सकते हैं
२४२
जब तक जरारोगादि का आक्रमण न हो तब तक आत्मकल्याण करो
२४४
अहिंसा धर्मका उपदेश
२४४
चार प्रकार के मिथ्यात्वियोंके भेदोंका वर्णन
२४६
अभव्य विषयक कथन
२४८
मिथ्यात्व दुर्गति का निमित्त है
२५०
तीन सौ त्रैसठ प्रकारके पाखंडियोंके मत को छुड़ानेका और जिनमत में प्रवृत्त करने का
उपदेश है
२५१
सम्यग्दर्शनके बिना जीव चलते हुए मुर्दे के समान है, अपूज्य है
२५२
सम्यक्त्व की उत्कृष्टता
२५२

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विषय
पृष्ठ
सम्यग्दर्शन सहित लिंग की प्रशंसा
२५३
दर्शन रत्नके धारण करने का आदेश
२५४
असाधारण धर्मों द्वारा जीवका विशेष वर्णन
२५४–२५६
जिनभावना–परिणत जीव घातिकर्मका नाश करता है
२५६
घातिकर्म का नाश अनंत चतुष्टय का कारण है
२५७
कर्म रहित आत्मा ही परमात्मा है, उसके कुछ एक नाम
२५८
देवसे उत्तम बोधि की प्रार्थना
२५९
जो भक्ति भावसे अरहंतको नमस्कार करते हैं वे शीघ्र ही संसार बेलिका नाश करते हैं
२६०
जलस्थित कमलपत्रके समान सम्यग्दृष्टि विषयकषायों से अलिप्त हैं
२६०
भावलिंगी विशिष्ट द्रव्यलिंगी मुनि कोरा द्रव्य लिंगी है और श्रावक से भी नीचा है
२६१
धीर वीर कौन?
२६२
धन्य कौन?
२६२
मुनि महिमा का वर्णन
२६३
मुनि सामर्थ्य का वर्णन
२६३
मूलोत्तर–गुण–सहित मुनि जिनमत आकाशमें तारागण सहित पूर्ण चंद्र समान है
२६४
विशुद्ध भाव के धारक ही तीर्थंकर चक्री आदि के पद तथा सुख प्राप्त करते हैं
२६५
विशुद्ध भाव धारक ही मोक्ष सुख को प्राप्त होते हैं
२६५
शुद्धभाव निमित्त आचार्य कृत सिद्ध परमेष्ठी की प्रार्थना
२६६
चार पुरुषार्थ तथा अन्य व्यापार सर्व भाव में ही परिस्थिति हैं, ऐसा संक्षिप्त वर्णन
२६७
भाव प्राभृत के पढ़ने सुनने मनन करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है ऐसा उपदेश तथा
पं॰ जयचंदजी कृत ग्रन्थ का देश भाषा में सार
२६७–२७०
६॰ मोक्षपाहुड
मंगल निमित्त देव को नमस्कार
२७१
देव नमस्कृति पूर्वक मोक्ष पाहुड लिखने की प्रतिज्ञा
२७२
परमात्मा के ज्ञाता योगी को मोक्ष प्राप्ति
२७२
आत्मा के तीन भेद
२७३
आत्मत्रयका स्वरूप
२७४
परमात्माका विशेष स्वरूप
२७४
बहिरात्मा को छोड़कर परमात्मा को ध्याने का उपदेश
२७५
बहिरात्मा का विशेष कथन
२७६
मोक्ष की प्राप्ति किसके है
२७८
बंधमोक्षके कारण का कथन
२७९
कैसा हुआ मुनि कर्म का नाश करता है
२७९
कैसा हुआ कर्म का बंध करता है
२८०
सुगति और दुर्गति के कारण
२८१
परद्रव्य का कथन
२८१
स्वद्रव्यका कथन
२८२