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मंडल, मुंबईकी ओरसे ५०
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ज्ञानी सुकानी मळ्या विना ए नाव पण तारे नहीं;
आ काळमां शुद्धात्मज्ञानी सुकानी बहु बहु दोह्यलो,
मुज पुण्यराशि फळ्यो अहो ! गुरु क् हान तुं नाविक मळ्यो.
बाह्यांतर विभवो तारा, तारे नाव मुमुक्षुनां.
निजालंबीभावे परिणति स्वरूपे जई भळे,
निमित्तो वहेवारो चिदघन विषे कांई न मळे.
जे वज्रे सुमुमुक्षु सत्त्व झळके ; परद्रव्य नातो तूटे;
क रुणा अकारण समुद्र ! तने नमुं हुं;
हे ज्ञानपोषक सुमेघ ! तने नमुं हुं,
आ दासना जीवनशिल्पी ! तने नमुं हुं.
वाणी चिन्मूर्ति ! तारी उर -अनुभवना सूक्ष्म भावे भरेली;
भावो ऊंडा विचारी, अभिनव महिमा चित्तमां लावी लावी,
खोयेलुं रत्न पामुं,
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अध्यात्मप्रवाहको झेलकर, तथा विदेहक्षेत्रस्थ जीवन्तस्वामी श्री सीमन्धरजिनवरकी प्रत्यक्ष
वन्दना एवं देशनाश्रवणसे पुष्ट कर, श्रीमद् भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवने उसे समयसारादि
परमागमरूप भाजनोंमें संगृहीत करके अध्यात्मतत्त्वपिपासु जगत पर सातिशय महान उपकार
किया है
श्री अष्टप्राभृत
कानजीस्वामीके सत्प्रभावनोदयसे श्री दि० जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट (सोनगढ़) एवं अन्य
ट्रस्ट द्वारा गुजराती एवं हिन्दी भाषामें अनेक बार प्रकाशित हो चुके हैं
गाथा) उत्कीर्ण कराकर चिरंजीवी किये गये हैं
छठवाँ संस्करण अध्यात्मतत्त्वप्रेमियोंके हाथमें प्रस्तुत करते हुए श्रुतप्रभावनाका विशेष आनन्द
अनुभूत होता है
जाये ? उनहीने भगवान श्री महावीरस्वामी द्वारा प्ररूपित एवं तदाम्नायानुवर्ती
भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव द्वारा समयसार, प्रवचनसार आदि परमागमोंमें सुसंचित स्वानुभव
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अध्यात्मसाधनाके पावन पथका पुनः समुद्योत किया है, तथा रूढिप्रस्त साम्प्रदायिकतामें फँसे
हुए जैनजगत पर, द्रव्यदृष्टिप्रधान स्वानुभूतिमूलक वीतराग जैनधर्मको प्रकाशमें लाकर,
अनुपम, अद्भुत एवं अनन्त
अनेक बार प्रवचनों द्वारा उसके गहन तात्त्विक रहस्योंका उद्घाटन किया है
गुरुदेवश्रीको ही है
भगवती पूज्य बहिनश्री चम्पाबहिनके बड़े भाई अध्यात्मतत्त्वरसिक, विद्वद्रत्न, आदरणीय पं०
श्री हिम्मतलाल जेठालाल शाहने, पूज्य गुरुदेव द्वारा दिये गये शुद्धात्मदर्शी उपदेशामृतबोध
द्वारा शास्त्रोंके गहन भावोंको खोलनेकी सूझ प्राप्त कर, अध्यात्मजिनवाणीकी अगाध भक्तिसे
सरल भाषामें
आत्मार्थी, वैराग्यशाली, शान्त, गम्भीर, निःस्पृह, निरभिमानी एवं विवेकशील सज्जन हैं; तथा
उनमें अध्यात्मरसभरा मधुर कवित्व भी है कि जिसके दर्शन उनके पद्यानुसार एवं अन्य
स्तुतिकाव्योंसे स्पष्टतया होते है
आत्मार्थिताकी बहुत पुष्टि की है
यथावत् सुरक्षित रखकर उन्होंने यह शब्दशः गुजराती अनुवाद किया है; तदुपरान्त मूल
गाथासूत्रोंका भावपूर्ण मधुर गुजराती पद्यानुवाद भी (हरिगीत छन्दमें) उन्होंने किया है, जो
इस अनुवादकी अतीव अधिकता लाता है और स्वाध्यायप्रेमियोंको बहुत ही उपयोगी होता
है
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एवं समग्र अध्यात्मजिज्ञासु समाज उनका जितना उपकार माने वह कम है
अध्यात्मरसिकता द्वारा किये गये इस अनुवादका मूल्य कैस आंका जाये ? प्रवचनसारके इस
अनुवादरूप महान कार्यके बदलेमें संस्था द्वारा, कुछ कीमती भेटकी स्वीकृतिके लिये,
उनको आग्रहपूर्ण अनुरोध किया गया था तब उन्होंने वैराग्यपूर्वक नम्रभावसे ऐसा प्रत्युत्तर
दिया था कि ‘‘मेरा आत्मा इस संसारपरिभ्रमणसे छूटे इतना ही पर्याप्त है, दूसरा मुझे कुछ
बदला नहीं चाहिये’’
किया है’’
संशोधित श्री जयसेनाचार्यदेवकृत ‘तात्पर्यवृत्ति’ संस्कृत टीका भी इस हिन्दी संस्करणमें जोड
दी है
मुद्रणके लिये ‘किताबघर’ राजकोटके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं
‘७९वीं बहिनश्री
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संस्करणकी क्षतियोंको सुधारनेका यथायोग्य प्रयत्न किया गया है।
आनन्दको सब जीव आस्वादन करे यह अंतरीक भावना सह.....
दीपावली
ता. २६ -१० -२०११
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एनी कुं दकुं द गूंथे माळ रे,
जेमां सार -समय शिरताज रे,
गूंथ्युं प्रवचनसार रे,
गूंथ्यो समयनो सार रे,
जिनजीनो ॐकारनाद रे,
वंदुं ए ॐकारनाद रे,
मारा ध्याने हजो जिनवाण रे,
वाजो मने दिनरात रे,
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अपनी सातिशय दिव्यध्वनिके द्वारा प्रगट कर रहे थे
ज्ञानसिंधुका बहुभाग विच्छिन्न होनेके बाद दूसरे भद्रबाहुस्वामी आचार्यकी परिपाटी
(परम्परा)में दो महा समर्थ मुनि हुए
हुई
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प्राप्त हुआ
आता है
निर्विवाद सिद्ध हो जाता है
स्थिर रखा है
होता तो मुनिजन सच्चे मार्गको कैसे जानते ?’’ एक दूसरा उल्लेख देखिये, जिसमें
कुन्दकुन्दाचार्यदेवको ‘कलिकालसर्वज्ञ’ कहा गया है
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उनके पाससे प्राप्त श्रुतज्ञानके द्वारा जिन्होंने भारतवर्षके भव्य जीवोंको प्रतिबोधित किया
है, उन श्री जिनचन्द्रसूरिभट्टारकके पट्टके आभरणरूप कलिकालसर्वज्ञ (भगवान
कुन्दकुन्दाचार्यदेव)के द्वारा रचित इस षट्प्राभृत ग्रन्थमें........सूरीश्वर श्री श्रुतसागर द्वारा
रचित मोक्षप्राभृतकी टीका समाप्त हुई
हैं
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प्राप्त करनेकी प्रचुर उत्कृष्ट भावना बहाई है
परोक्षज्ञान तो अत्यंत आकुल है; केवलीका अतीन्द्रिय सुख ही सुख है, इन्द्रियजनित सुख
तो दुःख ही है; सिद्ध भगवान स्वयमेव ज्ञान, सुख और देव हैं, घातिकर्म रहित भगवानका
सुख सुनकर भी जिन्हें उनके प्रति श्रद्धा नहीं होती वे अभव्य (दूरभव्य) हैं’’ यों
अनेकानेक प्रकारसे आचार्यदेवने केवलज्ञान और अतींद्रिय, परिपूर्ण सुखके लिये पुकार की
है
अधिकार रचकर अपनी हृदयोर्मियाँ व्यक्त की हों
तथा श्रद्धा कराई है, और अन्तिम गाथाओंमें मोह
ही कर्ता, कर्म, करण और कर्मफल बनता है, उसका परके साथ कभी भी कुछ भी
सम्बन्ध नहीं है’
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गए हैं
सिद्धान्तोंको अबाध्ययुक्तिसे सिद्ध किया है
कि ‘जैन दर्शन ही वस्तुदर्शन है’
ले जाता है
कर लेती है कि ‘श्रुतरत्नाकर अद्भुत और अपार है’
विरहको भुला दिया है
कैसी क्रियामें स्वयं वर्तना होती हैं, वह इसमें जिनेन्द्र कथनानुसार समझाया गया है
मूलगुण, अंतरंग
समझाये गये हैं
जा रहा हो,
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ऐसा चमत्कार है कि वह जिस जिस विषयको स्पर्श करती है उस उस विषयको परम रसमय,
शीतल
और वहाँ वे आठ दिन रहे थे यह बात यथातथ्य है, अक्षरशः सत्य है, प्रमाणसिद्ध है
ॐकारध्वनिमेंसे ही निकला हुआ उपदेश है
हो गये हैं)ने रची है
असाधारण शक्ति, जिनशासनका अत्यन्त गम्भीर ज्ञान, निश्चय
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विभूषित हैं
कार्य किया है
भरे हुए वे मधुर कलश अध्यात्मरसिकोंके हदयके तारको झनझना डालते हैं
संस्कृत टीकाकी रचना की है
टीकायें, और श्री हेमराजजीकृत हिन्दी बालावबोधभाषाटीका मुद्रित हुई है
टीका और उन गाथा व टीकाका अक्षरशः गुजराती अनुवाद प्रगट किया गया है
फू टनोटमें स्पष्टता की गई है
बालावबोधभाषाटीकाका भी आधार लिया है
जो अल्प अशुद्धियाँ मालूम हुई वे इसमें ठीक कर ली गई हैं
कहाँसे प्रगट होती, भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव और उनके शास्त्रोंकी रंचमात्र महिमा कहाँसे
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अमृतवाणीका प्रवाह ही
उन परमपूज्य परमोपकारी सद्गुरुदेव (श्री कानजीस्वामी)के चरणारविन्दमें अति भक्तिभावसे
मैं वन्दना करता हूँ
वीतरागविज्ञानके प्रति बहुमानवृद्धिका विशिष्ट निमित्त हुए हैं
अनुवाद बारीकीसे जाँच लिया है, यथोचित सलाह दी है और अनुवादमें आनेवाली छोटी
ज्ञानके आधारके उपयोगी सूचनायें दी हैं
जांचा है, शुद्धिपत्र, अनुक्रमणिका और गाथासूची तैयार की है, तथा प्रूफ संशोधनका कार्य
किया है
मैं शास्त्रकार श्री कुन्दकुन्दाचार्यभगवान, टीकाकार श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव और मुमुक्षु
पाठकोंसे अंतःकरणपूर्वक क्षमायाचना करता हूँ
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समझाकर, द्रव्यसामान्यमें लीन होनेरूप शाश्वत सुखका पंथ दिखाये
की है
मुख्य है, जो उत्तम रत्नके किरणोंके समान स्पष्ट है और जो इष्ट है