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इस शास्त्रका लागत मूल्य रु. १८३=०० पड़ा है। मुमुक्षुओंकी आर्थिक सहयोगसे इसका विक्रिय मूल्य रु. १००=०० होता है। उनमें श्री घाटकोपर दिगंबर जैन मुमुक्षु मंडल, मुंबईकी ओरसे ५०% आर्थिक सहयोग विशेष प्राप्त होनेसे इस शास्त्रका विक्रिय- मूल्य मात्र रु. ५०=०० रखा गया है।
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ज्ञानी सुकानी मळ्या विना ए नाव पण तारे नहीं;
आ काळमां शुद्धात्मज्ञानी सुकानी बहु बहु दोह्यलो,
मुज पुण्यराशि फळ्यो अहो ! गुरु क् हान तुं नाविक मळ्यो.
बाह्यांतर विभवो तारा, तारे नाव मुमुक्षुनां.
निजालंबीभावे परिणति स्वरूपे जई भळे,
निमित्तो वहेवारो चिदघन विषे कांई न मळे.
जे वज्रे सुमुमुक्षु सत्त्व झळके ; परद्रव्य नातो तूटे;
क रुणा अकारण समुद्र ! तने नमुं हुं;
हे ज्ञानपोषक सुमेघ ! तने नमुं हुं,
आ दासना जीवनशिल्पी ! तने नमुं हुं.
वाणी चिन्मूर्ति ! तारी उर -अनुभवना सूक्ष्म भावे भरेली;
भावो ऊंडा विचारी, अभिनव महिमा चित्तमां लावी लावी,
खोयेलुं रत्न पामुं,
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प्रवर्तमानतीर्थप्रणेता वीतराग सर्वज्ञ भगवान श्री महावीरस्वामीकी ॐकार दिव्यध्वनिसे प्रवाहित और गणधरदेव श्री गौतमस्वामी आदि गुरुपरम्परा द्वारा प्राप्त हुए शुद्धात्मानुभूतिप्रधान अध्यात्मप्रवाहको झेलकर, तथा विदेहक्षेत्रस्थ जीवन्तस्वामी श्री सीमन्धरजिनवरकी प्रत्यक्ष वन्दना एवं देशनाश्रवणसे पुष्ट कर, श्रीमद् भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवने उसे समयसारादि परमागमरूप भाजनोंमें संगृहीत करके अध्यात्मतत्त्वपिपासु जगत पर सातिशय महान उपकार किया है
स्वानुभवप्रधान – अध्यात्मश्रुतलब्धिधर भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव द्वारा प्रणीत प्राभृतरूप प्रभूत श्रुतरचनाओंमें श्री समयसार, श्री प्रवचनसार, श्री पंचास्तिकायसंग्रह, श्री नियमसार और श्री अष्टप्राभृत — यह पाँच परमागम मुख्य हैं । ये पाँचों परमागम श्री कुन्दकुन्दअध्यात्म- भारतीके अनन्य परमोपासक, अध्यात्मयुगप्रवर्तक, परमोपकारी पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीके सत्प्रभावनोदयसे श्री दि० जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट (सोनगढ़) एवं अन्य ट्रस्ट द्वारा गुजराती एवं हिन्दी भाषामें अनेक बार प्रकाशित हो चुके हैं । उनके ही सत्प्रतापसे ये पाँचों ही परमागम, अध्यात्म – अतिशयक्षेत्र श्री सुवर्णपुरी (सोनगढ़)में भगवान महावीरके पचीसवें शताब्दी – समारोहके अवसर पर (वि. सं. २०३०में), विश्वमें अद्वितीय एवं दर्शनीय ऐसे ‘श्री महावीर – कुन्दकुन्द – दिगम्बर – जैन – परमागममंदिर’की भव्य दिवारों पर लगे संगेमर्मरके धवल शिलापट पर (आद्य चार परमागम टीका सहित और अष्टप्राभृतकी मूल गाथा) उत्कीर्ण कराकर चिरंजीवी किये गये हैं । अधुना, परमागम श्री प्रवचनसार एवं श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्यदेवकी ‘तत्त्वप्रदीपिका’ टीकाके गुजराती अनुवादके हिन्दी रूपान्तरका यह छठवाँ संस्करण अध्यात्मतत्त्वप्रेमियोंके हाथमें प्रस्तुत करते हुए श्रुतप्रभावनाका विशेष आनन्द अनुभूत होता है ।
जिनके पुनीत प्रभावनोदयसे श्री कुन्दकुन्द – अध्यात्मभारतीका इस युगमें पुनरभ्युदय हुआ है ऐसे हमारे परमोपकारी पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीकी उपकारमहिमा क्या कही जाये ? उनहीने भगवान श्री महावीरस्वामी द्वारा प्ररूपित एवं तदाम्नायानुवर्ती भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव द्वारा समयसार, प्रवचनसार आदि परमागमोंमें सुसंचित स्वानुभव
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मुद्रित व शुद्धात्मद्रव्यप्रधान अध्यात्मतत्त्वामृतका स्वयं पान करके, इस कलिकालमें अध्यात्मसाधनाके पावन पथका पुनः समुद्योत किया है, तथा रूढिप्रस्त साम्प्रदायिकतामें फँसे हुए जैनजगत पर, द्रव्यदृष्टिप्रधान स्वानुभूतिमूलक वीतराग जैनधर्मको प्रकाशमें लाकर, अनुपम, अद्भुत एवं अनन्त – अनन्त उपकार किये हैं
अध्यात्मविद्याके दाता, पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीने इस प्रवचनसार परमागम पर अनेक बार प्रवचनों द्वारा उसके गहन तात्त्विक रहस्योंका उद्घाटन किया है । इस शताब्दीमें अध्यात्मरुचिका एवं अध्यात्मतत्त्वज्ञानका जो नवयुग प्रवर्त रहा है उसका श्रेय पूज्य गुरुदेवश्रीको ही है ।
पूज्य गुरुदेवश्रीके पुनीत प्रतापसे ही मुमुक्षुजगतको जैन अध्यात्मश्रुतके अनेक परमागमरत्न अपनी मातृभाषामें प्राप्त हुए हैं । श्री प्रवचनसारका गुजराती अनुवाद (जिसका यह हिन्दी रूपान्तर है) भी, श्री समयसारके गुजराती गद्यपद्यानुवादकी भाँति, प्रशममूर्ति भगवती पूज्य बहिनश्री चम्पाबहिनके बड़े भाई अध्यात्मतत्त्वरसिक, विद्वद्रत्न, आदरणीय पं० श्री हिम्मतलाल जेठालाल शाहने, पूज्य गुरुदेव द्वारा दिये गये शुद्धात्मदर्शी उपदेशामृतबोध द्वारा शास्त्रोंके गहन भावोंको खोलनेकी सूझ प्राप्त कर, अध्यात्मजिनवाणीकी अगाध भक्तिसे सरल भाषामें — आबालवृद्धग्राह्य, रोचक एवं सुन्दर ढंगसे — कर दिया है । सम्माननीय अनुवादक महानुभाव अध्यात्मरसिक विद्वान होनेके अतिरिक्त तत्त्वविचारक, गम्भीर आदर्श आत्मार्थी, वैराग्यशाली, शान्त, गम्भीर, निःस्पृह, निरभिमानी एवं विवेकशील सज्जन हैं; तथा उनमें अध्यात्मरसभरा मधुर कवित्व भी है कि जिसके दर्शन उनके पद्यानुसार एवं अन्य स्तुतिकाव्योंसे स्पष्टतया होते है । वे बहुत वर्षों तक पूज्य गुरुदेवके समागममें रहे हैं, और पूज्य गुरुदेवके अध्यात्मप्रवचनोंके श्रवण एवं स्वयंके गहन मनन द्वारा उन्होंने अपनी आत्मार्थिताकी बहुत पुष्टि की है । तत्त्वार्थके मूल रहस्यों पर उनका मनन अति गहन है । शास्त्रकार एवं टीकाकार उभय आचार्यभगवन्तोंके हृदयके गहन भावोंकी गम्भीरताको यथावत् सुरक्षित रखकर उन्होंने यह शब्दशः गुजराती अनुवाद किया है; तदुपरान्त मूल गाथासूत्रोंका भावपूर्ण मधुर गुजराती पद्यानुवाद भी (हरिगीत छन्दमें) उन्होंने किया है, जो इस अनुवादकी अतीव अधिकता लाता है और स्वाध्यायप्रेमियोंको बहुत ही उपयोगी होता है । तदुपरान्त जहाँ आवश्यकता लगी वहाँ भावार्थ द्वारा या पदटिप्पण द्वारा भी उन्होंने अति सुन्दर स्पष्टता की है ।
इस प्रकार भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवके समयसारादि उत्तमोत्तम परमागमोंके अनुवादका परम सौभाग्य, पूज्य गुरुदेवश्री एवं पूज्य बहिनश्रीकी परम कृपासे, आदरणीय श्री
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हिम्मतभाईको सम्प्राप्त हुआ एतदर्थ वे सचमुच अभिनन्दनीय हैं । पूज्य गुरुदेवश्रीकी कल्याणी प्रेरणा झेलकर अत्यन्त परिश्रमपूर्वक ऐसा सुन्दर भाववाही अनुवाद कर देनेके बदलेमें संस्था एवं समग्र अध्यात्मजिज्ञासु समाज उनका जितना उपकार माने वह कम है । यह अनुवाद अमूल्य है, क्योंकि कुन्दकुन्दभारती एवं गुरुदेवके प्रति मात्र परम भक्तिसे प्रेरित होकर अपनी अध्यात्मरसिकता द्वारा किये गये इस अनुवादका मूल्य कैस आंका जाये ? प्रवचनसारके इस अनुवादरूप महान कार्यके बदलेमें संस्था द्वारा, कुछ कीमती भेटकी स्वीकृतिके लिये, उनको आग्रहपूर्ण अनुरोध किया गया था तब उन्होंने वैराग्यपूर्वक नम्रभावसे ऐसा प्रत्युत्तर दिया था कि ‘‘मेरा आत्मा इस संसारपरिभ्रमणसे छूटे इतना ही पर्याप्त है, दूसरा मुझे कुछ बदला नहीं चाहिये’’ । उनकी यह निस्पृहता भी अत्यन्त प्रशंसनीय है । उपोद्घातमें भी अपनी भावना व्यक्त करते हुए वे लिखते हैं कि — ‘‘यह अनुवाद मैंने श्री प्रवचनसार प्रति भक्तिसे और पूज्य गुरुदेवश्रीकी प्रेरणासे प्रेरित होकर, निज कल्याणके लिये, भवभयसे डरते डरते किया है’’ ।
श्री प्रवचनसार शास्त्रके दूसरे संस्करणके अवसर पर पूज्य गुरुदेवश्रीके अन्तेवासी ब्रह्मचारी श्री चन्दूलालभाई खीमचन्द झोबालिया द्वारा, हस्तलिखित प्रतियोंके आधारसे संशोधित श्री जयसेनाचार्यदेवकृत ‘तात्पर्यवृत्ति’ संस्कृत टीका भी इस हिन्दी संस्करणमें जोड दी है । हिन्दी संस्करणके लिये गुजराती अनुवादका हिन्दी रूपान्तर पं० परमेष्ठीदासजी जैन न्यायतीर्थ (ललितपुर)ने किया है, तदर्थ उनके प्रति उपकृतभाव तथा इस संस्करणके सुन्दर मुद्रणके लिये ‘किताबघर’ राजकोटके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं ।
इस शास्त्रमें आचार्यभगवन्तोंने कहे हुए अध्यात्ममन्त्रको गहराईसे समझकर, भव्य जीव शुद्धोपयोगधर्मको प्राप्त करो — यही हार्दिक कामना । भादों कृष्णा २, वि. सं. २०४९, ‘७९वीं बहिनश्री – चम्बाबेन – जन्मजयन्ती’साहित्यप्रकाशनसमिति
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इस ग्रंथ प्रवचनसारका अगला संस्करण समाप्त हो जानेसे मुमुक्षुओंकी मांगको ध्यानमें रखकर यह नवीन सातवां संस्करण प्रकाशित किया जा रहा है। इस संस्करणमें अगले संस्करणकी क्षतियोंको सुधारनेका यथायोग्य प्रयत्न किया गया है।
प्रवचनसारमें बताये हुए भावोंको पूज्य गुरुदेवश्रीने जिस प्रकार खोला है उस प्रकार यथार्थ समझकर, अन्तरमें उसका परिणमन करके अतीन्द्रिय ज्ञानकी प्राप्ति द्वारा अतीन्द्रिय आनन्दको सब जीव आस्वादन करे यह अंतरीक भावना सह.....
महावीर निर्वाणोत्सव दीपावली ता. २६ -१० -२०११
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एनी कुं दकुं द गूंथे माळ रे,
जेमां सार -समय शिरताज रे,
गूंथ्युं प्रवचनसार रे,
गूंथ्यो समयनो सार रे,
जिनजीनो ॐकारनाद रे,
वंदुं ए ॐकारनाद रे,
मारा ध्याने हजो जिनवाण रे,
वाजो मने दिनरात रे,
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भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत यह ‘प्रवचनसार’ नामका शास्त्र ‘द्वितीय श्रुतस्कंध’के सर्वोत्कृष्ट आगमोंमेंसे एक है।
‘द्वितीय श्रुतस्कंध’की उत्पत्ति केसे हुई, उसका हम पट्टावलिओंके आधारसे संक्षेपमें अवलोकन करें : –
आज से २४७४ वर्ष पूर्व इस भरतक्षेत्रकी पुण्यभूमिमें जगत्पूज्य परम भट्टारक भगवान श्री महावीरस्वामी मोक्षमार्गका प्रकाश करनेके लिये समस्त पदार्थोंका स्वरूप अपनी सातिशय दिव्यध्वनिके द्वारा प्रगट कर रहे थे। उनके निर्वाणके पश्चात् पाँच श्रुतकेवली हुए, जिनमेंसे अन्तिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहुस्वामी थे। वहाँ तक तो द्वादशांगशास्त्रके प्ररूपणासे निश्चय -व्यवहारात्मक मोक्षमार्ग यथार्थरूपमें प्रवर्तता रहा। तत्पश्चात् कालदोषसे क्रमशः अंगोंके ज्ञानकी व्युच्छित्ति होती गई और इसप्रकार अपार ज्ञानसिंधुका बहुभाग विच्छिन्न होनेके बाद दूसरे भद्रबाहुस्वामी आचार्यकी परिपाटी (परम्परा)में दो महा समर्थ मुनि हुए। उनमेंसे — एकका नाम श्री धरसेन आचार्य तथा दूसरोंका नाम श्री गुणधर आचार्य था। उनसे प्राप्त ज्ञानके द्वारा उनकी परम्परामें होनेवाले आचार्योंने शास्त्रोंकी रचना की और श्री वीर भगवानके उपदेशका प्रवाह चालू रखा।
श्री धरसेनाचार्यको आग्रायणीपूर्वके पंचम वस्तुअधिकारके ‘महाकर्मप्रकृति’ नामक चौथे प्राभृतका ज्ञान था। उस ज्ञानामृतमेंसे क्रमशः उनके बादके आचार्यों द्वारा ष्टखंडागम, धवल, महाधवल, गोम्म्टसार, लब्धिसार, क्षपणासार आदि शास्त्रोंकी रचना हुई। इसप्रकार प्रथम श्रुतस्कंधकी उत्पत्ति हुई। उसमें जीव और कर्मके संयोगसे होनेवाली आत्माकी संसारपर्यायका — गुणस्थान, मार्गणास्थान आदिका — वर्णन है, पर्यायार्थिकनयको प्रधान करके कथन है। इस नयको अशुद्धद्रव्यार्थिक भी कहते हैं और अध्यात्मभाषासे अशुद्ध -निश्चयनय अथवा व्यवहार कहते हैं।
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श्री गुणधर आचार्यको ज्ञानप्रवादपूर्वकी दशम वस्तुअधिकारके तृतीय प्राभृतका ज्ञान था। उस ज्ञानमेंसे बादके आचार्योंने क्रमशः सिद्धान्त -रचना की। इसप्रकार सर्वज्ञ भगवान् महावीरसे चला आनेवाला ज्ञान आचार्यपरम्परासे भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवको प्राप्त हुआ। उन्होंने पंचास्तिकायसंग्रह, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार, अष्टपाहुड़ आदि शास्त्रोंकी रचना की। इस प्रकार द्वितीय श्रुतस्कंधकी उत्पत्ति हुई। उसमें ज्ञानको प्रधान करके शुद्धद्रव्यार्थिक नयसे कथन है, आत्माके शुद्धस्वरूपका वर्णन है।
भगवान् श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव विक्रम संवत्के प्रारम्भमें हो गये हैं। दिगम्बर जैन परम्परामें भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेवका स्थान सर्वोत्कृष्ट है।
— यह श्लोक प्रत्येक दिगम्बर जैन, शास्त्रस्वाध्यायके प्रारम्भमें मंगलाचरणके रूपमें बोलते हैं। इससे सिद्ध होता है कि सर्वज्ञ भगवान् श्री महावीरस्वामी और गणधर भगवान श्री गौतमस्वामीके पश्चात् तुरत ही भगवान कुन्दकुन्दाचार्यका स्थान आता है। दिगम्बर जैन साधु अपनेको कुन्दकुन्दाचार्यकी परम्पराका कहलानेमें गौरव मानते हैं। भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवके शास्त्र साक्षात् गणधरदेवके वचन जितने ही प्रमाणभूत माने जाते हैं। उनके बाद होनेवाले ग्रन्थकार आचार्य अपने किसी कथनको सिद्ध करनेके लिये कुन्दकुन्दाचार्यदेवके शास्त्रोंका प्रमाण देते हैं जिससे यह कथन निर्विवाद सिद्ध हो जाता है। उनके बाद लिखे गये ग्रन्थोंमें उनके शास्त्रोंमेंसे अनेकानेक बहुतसे अवतरण लिये गए हैं। वास्तवमें भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवने अपने परमागमोंमें तीर्थंकरदेवोंके द्वारा प्ररूपित उत्तमोत्तम सिद्धांतोंको सुरक्षित कर रखा है, और मोक्षमार्गको स्थिर रखा है। विक्रम संवत् ६६०में होनेवाले श्री देवसेनाचार्यवर अपने दर्शनसार नामके ग्रन्थमें कहते हैं कि —
‘‘विदेहक्षेत्रके वर्तमान तीर्थंकर श्री सीमंधरस्वामीके समवसरणमें जाकर श्री पद्मनंदिनाथने (श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवने) स्वयं प्राप्त किये गए ज्ञानके द्वारा बोध न दिया होता तो मुनिजन सच्चे मार्गको कैसे जानते ?’’ एक दूसरा उल्लेख देखिये, जिसमें कुन्दकुन्दाचार्यदेवको ‘कलिकालसर्वज्ञ’ कहा गया है। षट्प्राभृतकी श्री श्रुतसागरसूरिकृत
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टीकाके अंतमें लिखा है कि — ‘‘पद्मनंदी, कुन्दकुन्दाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य, ऐलाचार्य, गृध्रपिच्छाचार्य, — इन पाँच नामोंसे युक्त तथा जिन्हें चार अंगुल ऊ पर आकाशमें चलनेकी ऋद्धि प्राप्त थी, और जिन्होंने पूर्वविदेहमें जाकर सीमंधरभगवानकी वंदना की थी तथा उनके पाससे प्राप्त श्रुतज्ञानके द्वारा जिन्होंने भारतवर्षके भव्य जीवोंको प्रतिबोधित किया है, उन श्री जिनचन्द्रसूरिभट्टारकके पट्टके आभरणरूप कलिकालसर्वज्ञ (भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव)के द्वारा रचित इस षट्प्राभृत ग्रन्थमें........सूरीश्वर श्री श्रुतसागर द्वारा रचित मोक्षप्राभृतकी टीका समाप्त हुई।’’ भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेवकी महत्ता बतानेवाले ऐसे अनेकानेक उल्लेख जैन साहित्यमें मिलते हैं; कई ❃शिलालेखोंमें भी उल्लेख पाया जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सनातन जैन (दिगम्बर) संप्रदायमें कलिकालसर्वज्ञ भगवान् कुंदकुंदाचार्यका अद्वितीय स्थान है।
भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव द्वारा रचित अनेक शास्त्र हैं जिनमेंसे थोडेसे वर्तमानमें विद्यमान है। त्रिलोकीनाथ सर्वज्ञदेवके मुखसे प्रवाहित श्रुतामृतकी सरितामेंसे भर लिए गए वह अमृतभाजन वर्तमानमें भी अनेक आत्मार्थियोंको आत्मजीवन प्रदान करते हैं। उनके समयसार, पंचास्तिकाय और प्रवचनसार नामक तीन उत्तमोत्तम शास्त्र ‘प्राभृतत्रय’ कहलाते हैं। इन तीन परमागमोंमें हजारों शास्त्रोंका सार आ जाता है। भगवान कुंदकुंदाचार्यके बाद लिखे गए अनेक ग्रंथोंके बीज इन तीन परमागमोंमें विद्यमान हैं, — ऐसा सूक्ष्मदृष्टिसे अभ्यास करने पर स्पष्ट ज्ञात होता है। श्री समयसार इस भरतक्षेत्रका सर्वोत्कृष्ट परमागम है। उसमें नव तत्त्वोंका शुद्धनयकी दृष्टिसे निरूपण करके जीवका शुद्ध स्वरूप सर्व प्रकारसे – आगम, युक्ति, अनुभव और परम्परासे — अति विस्तारपूर्वक समझाया है। पंचास्तिकायमें छह द्रव्यों और नव तत्त्वोंका स्वरूप संक्षेपमें कहा गया है। प्रवचनसारमें उसके नामानुसार जिनप्रवचनका सार संगृहीत किया गया है। जैसे समयसारमें मुख्यतया दर्शनप्रधान निरूपण है उसीप्रकार प्रवचनसारमें मुख्यतया ज्ञानप्रधान कथन है।
श्री प्रवचनसारके प्रारम्भमें ही शास्त्रकर्ताने वीतरागचारित्रके लिए अपनी तीव्र आकांक्षा व्यक्त की है । बार – बार भीतर ही भीतर (अंतरमें) डुबकी लगाते हुए आचार्यदेव निरन्तर भीतर ही समाए रहना चाहते हैं । किन्तु जब तक उस दशाको नहीं पहुँचा जाता तब तक अंतर अनुभवसे छूटकर बार – बार बाहर भी आना हो जाता है । इस दशामें जिन अमूल्य वचन मौक्तिकोंकी माला गूँथ गई वह यह प्रवचनसार परमागम है । सम्पूर्ण परमागममें वीतरागचारित्रकी तीव्राकांक्षाकी मुख्य ध्वनि गूंज रही है । ❃ शिलालेखके लिए देखे पृष्ठ १९
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ऐसे इस परम पवित्र शास्त्रमें तीन श्रुतस्कन्ध हैं । प्रथम श्रुतस्कन्धका नाम ‘ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन’ है । अनादिकालसे परोन्मुख जीवोंको कभी ऐसी श्रद्धा नहीं हुई कि ‘मैं ज्ञानस्वभाव हूँ और मेरा सुख मुझमें ही है’ । इसीलिए उसकी परमुखापेक्षी – परोन्मुखवृत्ति कभी नहीं टलती । ऐसे दीन दुखी जीवों पर आचार्यदेवने करुणा करके इस अधिकारमें जीवका ज्ञानानन्दस्वभाव विस्तारपूर्वक समझाया है; उसीप्रकार केवलीके ज्ञान और सुख प्राप्त करनेकी प्रचुर उत्कृष्ट भावना बहाई है । ‘‘क्षायिक ज्ञान ही उपादेय है, क्षायोपशमिकज्ञानवाले तो कर्मभारको ही भोगते हैं; प्रत्यक्षज्ञान ही एकान्तिक सुख है, परोक्षज्ञान तो अत्यंत आकुल है; केवलीका अतीन्द्रिय सुख ही सुख है, इन्द्रियजनित सुख तो दुःख ही है; सिद्ध भगवान स्वयमेव ज्ञान, सुख और देव हैं, घातिकर्म रहित भगवानका सुख सुनकर भी जिन्हें उनके प्रति श्रद्धा नहीं होती वे अभव्य (दूरभव्य) हैं’’ यों अनेकानेक प्रकारसे आचार्यदेवने केवलज्ञान और अतींद्रिय, परिपूर्ण सुखके लिये पुकार की है । केवलीके ज्ञान और आनन्दके लिए आचार्यदेवने ऐसी भाव भरी धुन मचाई है कि जिसे सुनकर – पढ़कर सहज ही ऐसा लगने लगता है कि विदेहवासी सीमंधर भगवानके और केवली भगवन्तोंके झुण्डमेंसे भरतक्षेत्रमें आकर तत्काल ही कदाचित् आचार्यदेवने यह अधिकार रचकर अपनी हृदयोर्मियाँ व्यक्त की हों। इस प्रकार ज्ञान और सुखका अनुपम निरूपण करके इस अधिकारमें आचार्यदेवने मुमुक्षुओंको अतीन्द्रिय ज्ञान और सुखकी रुचि तथा श्रद्धा कराई है, और अन्तिम गाथाओंमें मोह – राग – द्वेषको निर्मूल करनेका जिनोक्त यथार्थ उपाय संक्षेपमें बताया है ।
द्वितीय श्रुतस्कन्धका नाम ‘ज्ञेयतत्त्व – प्रज्ञापन’ है । अनादिकालसे परिभ्रमण करता हुआ जीव सब कुछ कर चुका है, किन्तु उसने स्व – परका भेदविज्ञान कभी नहीं किया । उसे कभी ऐसी सानुभव श्रद्धा नहीं हुई कि ‘बंध मार्गमें तथा मोक्षमार्गमें जीव अकेला ही कर्ता, कर्म, करण और कर्मफल बनता है, उसका परके साथ कभी भी कुछ भी सम्बन्ध नहीं है’। इसलिए हजारों मिथ्या उपाय करने पर भी वह दुःख मुक्त नहीं होता । इस श्रुतस्कन्धमें आचार्यदेवने दुःखकी जड़ छेदनेका साधन – भेदविज्ञान – समझाया है । ‘जगतका प्रत्येक सत् अर्थात् प्रत्येक द्रव्य उत्पाद – व्यय – ध्रौव्यके अतिरिक्त या गुण – पर्याय समूहके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है । सत् कहो, द्रव्य कहो, उत्पाद – व्यय – ध्रौव्य कहो या गुणपर्यायपिण्ड कहो, – यह सब एक ही है’ यह त्रिकालज्ञ जिनेन्द्रभगवानके द्वारा साक्षात् दृष्ट वस्तुस्वरूपका मूलभूत सिद्धान्त है । वीतरागविज्ञानका यह मूलभूत सिद्धान्त प्रारम्भकी बहुतसी गाथाओंमें अत्यधिक सुन्दर रीतिसे, किसी लोकोत्तर वैज्ञानिक ढंगसे
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समझाया गया है । उसमें द्रव्यसामान्यका स्वरूप जिस अलौकिक शैलीसे सिद्ध किया है उसका ध्यान पाठकोंको यह भाग स्वयं ही समझपूर्वक पढ़े बिना आना अशक्य है ।
वास्तवमें प्रवचनसारमें वर्णित यह द्रव्यसामान्य निरूपण अत्यन्त अबाध्य और परम प्रतीतिकर है । इस प्रकार द्रव्यसामान्यकी ज्ञानरूपी सुदृढ़ भूमिका रचकर, द्रव्य विशेषका असाधारण वर्णन, प्राणादिसे जीवकी भिन्नता, जीव देहादिका – कर्ता, कारयिता, अनुमोदक नहीं है – यह वास्तविकता, जीवको पुद्गलपिण्डका अकर्तृत्व, निश्चयबंधका स्वरूप, शुद्धात्माकी उपलब्धिका फल, एकाग्र संचेतनलक्षण ध्यान इत्यादि अनेक विषय अति स्पष्टतया समझाए गए हैं । इन सबमें स्व – परका भेदविज्ञान ही स्पष्ट तैरता दिखाई दे रहा है । सम्पूर्ण अधिकार में वीतराग प्रणीत द्रव्यानुयोगका सत्त्व खूब ठूंस ठूंस कर भरा है, जिनशासनके मौलिक सिद्धान्तोंको अबाध्ययुक्तिसे सिद्ध किया है । यह अधिकार जिनशासनके स्तम्भ समान है । इसका गहराईसे अभ्यास करनेवाले मध्यस्थ सुपात्र जीवको ऐसी प्रतीति हुये बिना नहीं रहती कि ‘जैन दर्शन ही वस्तुदर्शन है’ । विषयका प्रतिपादन इतना प्रौढ़, अगाध गहराईयुक्त, मर्मस्पर्शी और चमत्कृतिमय है कि वह मुमुक्षुके उपयोगको तीक्ष्ण बनाकर श्रुतरत्नाकरकी गम्भीर गहराईमें ले जाता है । किसी उच्चकोटिके मुमुक्षुको निजस्वभावरत्नकी प्राप्ति कराता है, और यदि कोई सामान्य मुमुक्षु वहाँ तक न पहुँच सके तो उसके हृदयमें भी इतनी महिमा तो अवश्य ही घर कर लेती है कि ‘श्रुतरत्नाकर अद्भुत और अपार है’ । ग्रन्थकार श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव और टीकाकार श्री अमृतचन्द्राचार्यदेवके हृदयसे प्रवाहित श्रुतगंगाने तीर्थंकरके और श्रुतकेवलियोंके विरहको भुला दिया है ।
तीसरे श्रुतस्कन्धका नाम ‘चरणानुयोगसूचक चूलिका’ है । शुभोपयोगी मुनिको अंतरंग दशाके अनुरूप किस प्रकारका शुभोपयोग वर्तता है और साथ ही साथ सहजतया बाहरकी कैसी क्रियामें स्वयं वर्तना होती हैं, वह इसमें जिनेन्द्र कथनानुसार समझाया गया है । दीक्षा ग्रहण करनेकी जिनोक्त विधि, अंतरंग सहज दशाके अनुरूप बहिरंगयथाजात -रूपत्व, अट्ठाईस मूलगुण, अंतरंग – बहिरंग छेद, उपधिनिषेध, उत्सर्ग – अपवाद, युक्ताहार विहार, एकाग्रतारूप मोक्षमार्ग, मुनिका अन्य मुनियोंके प्रतिका व्यवहार आदि अनेक विषय इसमें युक्ति सहित समझाये गये हैं । ग्रंथकार और टीकाकार आचार्ययुगलने चरणानुयोग जैसे विषयको भी आत्मद्रव्यको मुख्य करके शुद्धद्रव्यावलम्बी अंतरंग दशाके साथ उन – उन क्रियाओंका या शुभभावोंका संबंध दर्शाते हुए निश्चय – व्यवहारकी संधिपूर्वक ऐसा चमत्कारपूर्ण वर्णन किया है कि आचरणप्रज्ञापन जैसे अधिकारमें भी जैसे कोई शांतझरनेसे झरता हुआ अध्यात्मगीत गाया जा रहा हो, — ऐसा ही लगता रहता है । आत्मद्रव्यको मुख्य करके, ऐसा सयुक्तिक ऐसा
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प्रमाणभूत, साद्यन्त, शान्तरसनिर्झरता चरणानुयोगका प्रतिपादन अन्य किसी शास्त्रमें नहीं है । हृदयमें भरे हुए अनुभवामृतमें ओतप्रोत होकर निकलती हुई दोनों आचार्यदेवोंकी वाणीमें कोई ऐसा चमत्कार है कि वह जिस जिस विषयको स्पर्श करती है उस उस विषयको परम रसमय, शीतल – शीतल और सुधास्यंदी बना देती है ।
इस प्रकार तीन श्रुतस्कन्धोंमें विभाजित यह परम पवित्र परमागम मुमुक्षुओंको यथार्थ वस्तुस्वरूपके समझनेमें महानिमित्तभूत है । इस शास्त्रमें जिनशासनके अनेक मुख्य मुख्य सिद्धान्तोंके बीज विद्यमान हैं । इस शास्त्रमें प्रत्येक पदार्थकी स्वतन्त्रताकी घोषणा की गई है तथा दिव्यध्वनिके द्वारा विनिर्गत अनेक प्रयोजनभूत सिद्धान्तोंका दोहन है । परमपूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामी अनेक बार कहते है कि — ‘श्री समयसार, प्रवचनसार, नियमसार आदि शास्त्रोंकी गाथा – गाथामें दिव्यध्वनिका संदेश है । इन गाथाओंमें इतनी अपार गहराई है कि उसका माप करनेमें अपनी ही शक्तिका माप होजाता है । यह सागरगम्भीर शास्त्रोंके रचयिता परमकृपालु आचार्यभगवानका कोई परम अलौकिक सामर्थ्य है । परम अद्भुत सातिशय अन्तर्बाह्य योगोंके बिना इन शास्त्रोंका रचा जाना शक्य नहीं है । इन शास्त्रोंकी वाणी तैरते हुए पुरुषकी वाणी है यह स्पष्ट प्रतीत होता है । इनकी प्रत्येक गाथा छठवें – सातवें गुणस्थानमें झूलनेवाले महामुनिके आत्मानुभवसे निकली हुई है । इन शास्त्रोंके कर्ता भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव महाविदेहक्षेत्रमें सर्वज्ञ वीतराग भी सीमंधर भगवानके समवसरणमें गये थे, और वहाँ वे आठ दिन रहे थे यह बात यथातथ्य है, अक्षरशः सत्य है, प्रमाणसिद्ध है । उन परमोपकारी आचार्यदेवके द्वारा रचित समयसार, प्रवचनसार आदि शास्त्रोंमें तीर्थंकरदेवकी ॐकारध्वनिमेंसे ही निकला हुआ उपदेश है ।’
भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवकृत इस शास्त्रकी प्राकृत गाथाओंकी ‘तत्त्वदीपिका’ नामक संस्कृत टीका श्री अमृतचन्द्राचार्य (जो कि लगभग विक्रम संवत्की १०वीं शताब्दीमें हो गये हैं)ने रची है । जैसे इस शास्त्रके मूल कर्ता अलौकिक पुरुष हैं वैसे ही इसके टीकाकार भी महासमर्थ आचार्य हैं । उन्होंने समयसार तथा पंचास्तिकायकी टीका भी लिखी है और तत्त्वार्थसार, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय आदि स्वतन्त्र ग्रन्थोंकी भी रचना की है । उन जैसी टीकायें अभी तक अन्य जैनशास्त्रकी नहीं हुई है । उनकी टीकाओंके पाठकोंको उनकी अध्यात्मरसिकता, आत्मानुभव, प्रखर विद्वत्ता, वस्तुस्वरूपको न्यायपूर्वक सिद्ध करनेकी असाधारण शक्ति, जिनशासनका अत्यन्त गम्भीर ज्ञान, निश्चय – व्यवहारका संधिबद्ध निरूपण करनेकी विरल शक्ति और उत्तम काव्यशक्तिका पूरा पता लग जाता है । गम्भीर रहस्योंको अत्यन्त संक्षेपमें भर देनेकी उनकी शक्ति विद्वानोंको आश्चर्यचकित कर देती है । उनकी दैवी
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टीकायें श्रुतकेवलीके वचनों जैसी हैं । जैसे मूल शास्त्रकारके शास्त्र अनुभव – युक्ति आदि समस्त समृद्धियोंसे समृद्ध हैं वैसे ही टीकाकारकी टीकायें भी उन उन सर्व समृद्धियोंसे विभूषित हैं । शासनमान्य भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेवने मानो कि वे कुंदकुंदभगवान्के हृदयमें पैठ गये हों इसप्रकारसे उनके गंभीर आशयोंको यथार्थतया व्यक्त करके उनके गणधर जैसा कार्य किया है । श्री अमृतचंद्राचार्यदेव द्वारा रचित काव्य भी अध्यात्मरस और आत्मानुभवकी मस्तीसे भरपूर हैं । श्री समयसारकी टीकामें आनेवाले काव्यों (कलशों)ने श्री पद्मप्रभदेव जैसे समर्थ मुनिवरों पर गहरी छाप जमाई है, और आज भी तत्त्वज्ञान तथा अध्यात्मरससे भरे हुए वे मधुर कलश अध्यात्मरसिकोंके हदयके तारको झनझना डालते हैं । अध्यात्मकविके रूपमें श्री अमृतचन्द्राचार्यदेवका स्थान अद्वितीय है ।
प्रवचनसारमें भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवने २७५ गाथाओंकी रचना प्राकृतमें की है । उसपर श्री अमृतचन्द्राचार्यने तत्त्वदीपिका नामक तथा श्री जयसेनाचार्यने तात्पर्यवृत्ति नामक संस्कृत टीकाकी रचना की है । श्री पांडे हेमराजजीने तत्त्वदीपिकाका भावार्थ हिन्दीमें लिखा है, जिसका नाम ‘बालावबोधभाषाटीका’ रखा है । विक्रम संवत् १९६९में श्री परमश्रुतप्रभावक मण्डल द्वारा प्रकाशित हिन्दी प्रवचनसारमें मूल गाथायें, दोनों संस्कृत टीकायें, और श्री हेमराजजीकृत हिन्दी बालावबोधभाषाटीका मुद्रित हुई है । अब इस प्रकाशित गुजराती प्रवचनसारमें मूल गाथायें, उनका गुजराती पद्यानुवाद, संस्कृत तत्त्वदीपिका टीका और उन गाथा व टीकाका अक्षरशः गुजराती अनुवाद प्रगट किया गया है । जहाँ कुछ विशेष स्पष्टीकरण करनेकी आवश्यकता प्रतीत हुई है वहाँ कोष्ठकमें अथवा ‘भावार्थ’में या फू टनोटमें स्पष्टता की गई है । उस स्पष्टता करनेमें बहुत सी जगह श्री जयसेनाचार्यकी ‘तात्पर्यवृत्ति’ अत्यन्त उपयोगी हुई है और कही कहीं श्री हेमराजजीकृत बालावबोधभाषाटीकाका भी आधार लिया है । श्री परमश्रुतप्रभावक मण्डल द्वारा प्रकाशित प्रवचनसारमें मुद्रित संस्कृत टीकाको हस्तलिखित प्रतियोंसे मिलान करने पर उसमें कहीं कहीं जो अल्प अशुद्धियाँ मालूम हुई वे इसमें ठीक कर ली गई हैं ।
यह अनुवाद करनेका महाभाग्य मुझे प्राप्त हुआ, जो कि मेरे लिये अत्यन्त हर्षका कारण है । परमपूज्य अध्यात्ममूर्ति सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीके आश्रयमें इस गहन शास्त्रका अनुवाद हुआ है । अनुवाद करनेकी सम्पूर्ण शक्ति मुझे पूज्यपाद सद्गुरुदेवसे ही प्राप्त हुई है । परमोपकारी सद्गुरुदेवके पवित्र जीवनके प्रत्यक्ष परिचयके बिना और उनके आध्यात्मिक उपदेशके बिना इस पामरको जिनवाणीके प्रति लेशमात्र भी भक्ति या श्रद्धा कहाँसे प्रगट होती, भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव और उनके शास्त्रोंकी रंचमात्र महिमा कहाँसे
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आती, तथा उन शास्त्रोंका अर्थ ढूंढ निकालनेकी लेशमात्र शक्ति कहाँसे आती ? — इसप्रकार अनुवादकी समस्त शक्तिका मूल श्री सद्गुरुदेव ही होनेसे वास्तवमें तो सद्गुरुदेवकी अमृतवाणीका प्रवाह ही — उनसे प्राप्त अमूल्य उपदेश ही — यथासमय इस अनुवादके रूपमें परिणत हुआ है । जिनके द्वारा सिंचित शक्तिसे और जिनका पीठपर बल होनेसे इस गहन शास्त्रके अनुवाद करनेका मैंने साहस किया और जिनकी कृपासे वह निर्विघ्न समाप्त हुआ उन परमपूज्य परमोपकारी सद्गुरुदेव (श्री कानजीस्वामी)के चरणारविन्दमें अति भक्तिभावसे मैं वन्दना करता हूँ ।
परमपूज्य बहेनश्री चम्पाबेनके प्रति भी, इस अनुवादकी पूर्णाहुति करते हुये, उपकारवशताकी उग्र भावनाका अनुभव हो रहा है । जिनके पवित्र जीवन और बोध इस पामरको श्री प्रवचनसारके प्रति, प्रवचनसारके महान् कर्ताके प्रति और प्रवचनसारमें उपदिष्ट वीतरागविज्ञानके प्रति बहुमानवृद्धिका विशिष्ट निमित्त हुए हैं — ऐसी उन परमपूज्य बहिनश्रीके चरणकमलमें यह हृदय नमन करता है ।
इस अनुवादमें अनेक भाइयोंसे हार्दिक सहायता मिली है । माननीय श्री वकील रामजीभाई माणेकचन्द दोशीने अपने भरपूर धार्मिक व्यवसायोंमेंसे समय निकालकर सारा अनुवाद बारीकीसे जाँच लिया है, यथोचित सलाह दी है और अनुवादमें आनेवाली छोटी – बड़ी कठिनाइयोंका अपने विशाल शास्त्रज्ञानसे हल किया है । भाईश्री खीमचन्द जेठालाल शेठने भी पूरा अनुवाद सावधानीपूर्वक जांचा है और अपने संस्कृत भाषाके तथा शास्त्रीय ज्ञानके आधारके उपयोगी सूचनायें दी हैं । ब्रह्मचारी भाईश्री चन्दूलाल खीमचन्द झोबालियाने हस्तलिखित प्रतियोंके आधारसे संस्कृत टीकामें सुधार किया है, अनुवादका कितना ही भाग जांचा है, शुद्धिपत्र, अनुक्रमणिका और गाथासूची तैयार की है, तथा प्रूफ संशोधनका कार्य किया है — इस प्रकार विधविध सहायता की है । इन सब भाइयोंका मैं अन्तःकरणपूर्वक आभार मानता हूँ । उनकी सहृदय सहायताके बिना अनुवादमें अनेक त्रूटियाँ रह जातीं । इनके अतिरिक्त अन्य जिन – जिन भाइयोंकी इसमें सहायता मिली है मैं उन सबका ऋणी हूँ ।
मैंने यह अनुवाद प्रवचनसारके प्रति भक्तिसे और गुरुदेवकी प्रेरणासे प्रेरित होकर निज कल्याणके हेतु, भवभयसे डरते – डरते किया है । अनुवाद करते हुये शास्त्रके मूल आशयमें कोई अन्तर न पड़ने पाये, इस ओर मैंने पूरी – पूरी सावधानी रखी है; तथापि अल्पज्ञताके कारण उसमें कहीं कोई आशय बदल गया हो या कोई भूल रह गई हो तो उसके लिये मैं शास्त्रकार श्री कुन्दकुन्दाचार्यभगवान, टीकाकार श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव और मुमुक्षु पाठकोंसे अंतःकरणपूर्वक क्षमायाचना करता हूँ ।
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मेरी आंतरिक भावना है कि यह अनुवाद भव्य जीवोंको जिनकथित वस्तुविज्ञानका निर्णय कराकर, अतीन्द्रिय ज्ञान और सुखकी श्रद्धा कराकर, प्रत्येक द्रव्यका संपूर्ण स्वातंत्र्य समझाकर, द्रव्यसामान्यमें लीन होनेरूप शाश्वत सुखका पंथ दिखाये । ‘परमानन्दरूपी सुधारसके पिपासु भव्य जीवोंके हितार्थ’ श्री अमृतचन्द्राचार्यदेवने इस महाशास्त्रकी व्याख्या की है । जो जीव इसमें कथित परमकल्याणकारी भावोंको हृदयगत करेंगे वे अवश्य परमानन्दरूपी सुधारसके भाजन होंगे । जब तक ये भाव हृदयगत न हों तब तक निश – दिन यही भावना, यही विचार, यही मंथन और यही पुरुषार्थ कर्तव्य है । यही परमानन्दप्राप्तिका उपाय है । श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव द्वारा तत्त्वदीपिकाकी पूर्णाहुति करते हुये भावित भावनाको भाकर यह उपोद्घात पूर्ण करता हूँ — ‘‘आनन्दामृतके पूरसे परिपूर्ण प्रवाहित कैवल्यसरितामें जो निमग्न है, जगत्को देखनेके लिये समर्थ महाज्ञानलक्ष्मी जिसमें मुख्य है, जो उत्तम रत्नके किरणोंके समान स्पष्ट है और जो इष्ट है — ऐसे प्रकाशमान स्वतत्त्वको जीव स्यात्कारलक्षणसे लक्षित जिनेन्द्रशासनके वश प्राप्त हों ।’’ श्रुतपंचमी, वि० सं० २००४