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कु न्द -प्रभा -प्रणयि -कीर्ति -विभूषिताशः
श्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम्
इस पृथ्वी पर किससे वन्द्य नहीं हैं ?
र्बाह्येपि संव्यञ्जयितुं यतीशः
चचार मन्ये चतुरङ्गुलं सः
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कि — वे अन्तरमें तथा बाह्यमें रजसे (अपनी) अत्यन्त अस्पृष्टता व्यक्त करते थे
तो मुनिजन सच्चे मार्गको कैसे जानते ?
शंका नहीं है । वह बात वैसी ही हैं; कल्पना करना नहीं, ना कहना नहीं; मानो तो
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वीतरागचरित्र उपादेय और सरागचारित्र हेय है ....६
चारित्रका स्वरूप .................................७
आत्मा ही चारित्र है .............................८
जीवका शुभ, अशुभ और शुद्धत्व................९
परिणाम वस्तुका स्वभाव है....... ............. १०
शुद्ध और शुभ -अशुभ परिणामका फल ... ११ -१२
सर्वगतपना.... ........................... २३ आत्माको ज्ञानप्रमाण न माननेमें दोष..... ..... २४ ज्ञानकी भाँति आत्माका भी सर्वगतत्त्व...... ... २६ आत्मा और ज्ञानके एकत्व – अन्यत्व..... ....... २७ ज्ञान और ज्ञेयके परस्पर गमनका निषेध..... .. २८ आत्मा पदार्थोंमें प्रवृत्त नहीं होता तथापि
होता है वह शक्तिवैचित्र्य...... .......... २९
शुद्धोपयोग अधिकार शुद्धोपयोगके फलकी प्रशंसा .................... १३ शुद्धोपयोगपरिणत आत्माका स्वरूप .............. १४ शुद्धोपयोगसे होनेवाली शुद्धात्मस्वभावप्राप्ति ...... १५ शुद्धात्मस्वभावप्राप्ति कारकान्तरसे निरपेक्ष...... .. १६ ‘स्वयंभू’के शुद्धात्मस्वभावप्राप्तिका अत्यन्त
उसके दृष्टान्त...... ...................... ३० पदार्थ ज्ञानमें वर्तते हैं — यह व्यक्त करते हैं .... ३१ आत्माकी पदार्थोंके साथ एक दूसरेमें प्रवृत्ति
बिना तथा पररूप परिणमित हुए बिना
सबको देखता – जानता होनेसे उसे
उत्पाद – व्यय
अतीन्द्रियताके कारण शुद्धात्माको
क्षय करते हैं............................. ३३
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द्रव्योंकी भूत – भावि पर्यायें भी तात्कालिक
विचार ................................... ५३
वर्तती हैं ................................. ३७
अविद्यमान पर्यायोंकी कथंचित् विद्यमानता ...... ३८ अविद्यमान पर्यायोंकी ज्ञानप्रत्यक्षता
प्रशंसा...... ............................. ५४
इन्द्रियज्ञानके लिये नष्ट और अनुत्पन्नका जानना
अतीन्द्रिय ज्ञानके लिये जो जो कहा जाता है वह
प्रत्यक्षज्ञानको पारमार्थिक सुखरूप बतलाते हैं ... ५९
केवलज्ञानको भी परिणामके द्वारा खेदका
ज्ञेयार्थपरिणमनक्रिया ज्ञानमेंसे उत्पन्न नहीं होती
ज्ञेयार्थपरिणमनस्वरूप क्रिया और तत्फल कहाँसे
है — इसका खंडन.... ................... ६०
तीर्थंकरोंके पुण्यका विपाक अकिंचित्कर ही है
केवलियोंको ही पारमार्थिक सुख होता है
सबको न जाननेवाला एकको भी नहीं जानता
परोक्षज्ञानवालोंके अपारमार्थिक इन्द्रियसुखका
इन्द्रियाँ है वहाँ तक स्वभावसे ही दुःख है...... ६४ मुक्तात्माके सुखकी प्रसिद्धिके लिये, शरीर
युगपत् प्रवृत्तिके द्वारा ही ज्ञानका सर्वगतत्व ..... ५१ केवलीके ज्ञप्तिक्रियाका सद्भाव होने पर भी
होनेसे विषयोंकी अकिंचित्करता...... .... ६७ आत्माके सुखस्वभावत्वको दृष्टान्त द्वारा दृढ
उपसंहार करते हैं...... .................. ५२
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मोहक्षयके उपायभूत जिनोपदेशकी प्राप्ति होने
स्व – परके विवेककी सिद्धिसे ही मोहका क्षय
पुण्योत्पादक शुभोपयोगकी पापोत्पादक
सिद्धिके लिये प्रयत्न...... ............... ८९ सब प्रकारके स्वपरके विवेककी सिद्धि
पुण्य और पापकी अविशेषताका निश्चय
जिनोदित अर्थोंके श्रद्धान बिना धर्मलाभ
करते हैं..... ............................ ७७
निश्चल स्थित होते हैं...... .............. ९२
अशेषदुःखक्षयका दृढ निश्चय करके
शुद्धोपयोगमें निवास...... ................ ७८
मोहकी सेना जीतनेका उपाय...... ............ ८०
चिन्तामणि प्राप्त किया होने पर भी, प्रमाद चोर
पदार्थका सम्यक् द्रव्यगुणपर्यायस्वरूप...... ...... ९३ स्वसमय – परसमयकी व्यवस्था निश्चित
विद्यमान है अतः जागृत रहता है ........ ८१ यही एक, भगवन्तोंने स्वयं अनुभव करके प्रगट
स्वरूप – अस्तित्वका कथन ....................... ९६
शुद्धात्मलाभके परिपंथी – मोहका स्वभाव और
तीन प्रकारके मोहको अनिष्ट कार्यका कारण
मोहरागद्वेषको इन चिह्नोंके द्वारा पहिचान कर उत्पन्न
मोहक्षय करनेका उपायान्तर..... ............... ८६
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– उत्पाद – व्यय
परिणामात्मक संसारमें किस कारणसे पुद्गलका
मनुष्यादि – पर्यायात्मक होता है
वह कौनसा स्वरूप है जिसरूप आत्मा
उन (तीनों)को आत्मारूपसे निश्चित
पृथक्त्वका और अत्यत्वका लक्षण...... ...... १०६ अतद्भावको उदाहरण द्वारा स्पष्टतया
सत्ता और द्रव्यका गुण – गुणीपना सिद्ध
द्रव्यके ‘क्रिया’ और ‘भाव’ रूप विशेष ..... १२९
गुणविशेषसे द्रव्यविशेष होता है...... ........ १३०
मूर्त और अमूर्त गुणोंके लक्षण
गुण और गुणीके अनेकत्वका खण्डन..... .... ११० द्रव्यके सत् – उत्पाद और असत्
सत् – उत्पादको अनन्यत्वके द्वारा और असत्
करते हैं.... .................... ११२ – ११३
अमूर्त द्रव्योंके गुण..... ..................... १३३
द्रव्योंका प्रदेशवत्त्व और अप्रदेशवत्त्वरूप
एक ही द्रव्यको अन्यत्व और अन्यत्व
होनेमें अविरोध...... .................. ११४ गर्व विरोधको दूर करनेवाली सप्तभंगी......... ११५ जीवको मनुष्यादि पर्यायें क्रियाका फल होनेसे
विशेष ................................ १३५ प्रदेशी और अप्रदेशी द्रव्य कहाँ रहते हैं...... १३६ प्रदेशवत्त्व और अप्रदेशवत्त्व किस
उनका अन्यत्व प्रकाशित करते हैं..... ११६ मनुष्यादिपर्यायोंमें जीवको स्वभावका पराभव किस
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आकाशके प्रदेशका लक्षण..... --------------- १४०
तिर्यक्प्रचय तथा ऊर्ध्वप्रचय...... ------------- १४१
कालपदार्थका ऊर्ध्वप्रचय निरन्वय है – इस
परद्रव्यके संयोगका जो कारण उसके
विनाशका अभ्यास..... .............. १५९ शरीरादि परद्रव्य प्रति मध्यस्थता प्रगटकरते हैं..१६० शरीर, वाणी और मनका परद्रव्यपना..... .. १६१ आत्माको परद्रव्यत्वका और उसके कर्तृत्वका
बातका खण्डन....---------------------- १४२ सर्व वृत्त्यंशोंमें कालपदार्थ
कालपदार्थका प्रदेशमात्रपना सिद्ध
आत्माको शरीरपनेका अभाव..... .......... १७१
जीवका असाधारण स्वलक्षण................ १७२
अमूर्त आत्माको स्निग्ध – रुक्षत्वका अभाव
ज्ञानज्ञेयविभाग अधिकार आत्माको विभक्त करनेके लिये व्यवहारजीवत्वके
हेतुका विचार..... ................... १४५ प्राण कौन – कौनसे है, सो बतलाते हैं..... . १४६
है ? – ऐसा पूर्वपक्ष..... ............... १७३
भावबन्धका स्वरूप.... ..................... १७५
भावबन्धकी युक्ति और द्रव्यबन्धका स्वरूप . १७६
पुद्गलबन्ध, जीवबन्ध और
पौद्गलिक प्राणोंकी सन्ततिकी प्रवृत्तिका
अन्तरंग हेतु.......................... १५० पौद्गलिक प्राणसन्ततिकी निवृत्तिका
द्रव्यबन्धका हेतु भावबन्ध.... ............... १७८ भावबन्ध ही निश्चयबन्ध है.... ............. १७९ परिणामका द्रव्यबन्धके साधकतम रागसे
पर्यायके भेद ............................... १५३ अर्थनिश्चायक अस्तित्वको स्व – परके
उपचार करके कार्यरूपसे बतलाते हैं....१८१
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विभाग............................... १८२ स्वद्रव्यमें प्रवृत्तिका और परद्रव्यमें प्रवृत्तिका
श्रामण्य – इच्छुक पहले क्या
यथाजातरूपधरत्वक बहिरंग – अन्तरंग दो
जाता है ?..... ...................... १८६
लिंग..... ............................. २०५ श्रामण्यकी ‘भवति’ क्रियामें, इतनेसे
अकेला ही आत्मा बन्ध है..... ............ १८८
निश्चय और व्यवहारका अविरोध ............ १८९
अशुद्धनयसे अशुद्ध आत्माकी ही प्राप्ति..... १९०
शुद्धनयसे शुद्धात्माकी ही प्राप्ति.... ......... १९१
ध्रुवत्वके कारण शुद्धात्मा ही उपलब्ध
श्रामण्यकी प्राप्ति.... .................. २०७ सामायिकमें आरूढ़ श्रमण कदाचित्
छेदोपस्थापनाके योग्य.... ............. २०८ आचार्यके भेद..... .......................... २१० छिन्न संयमके प्रतिसंधानकी विधि..... ....... २११ श्रामण्यके छेदके आयतन होनेसे परद्रव्य
मोहग्रंथि टूटनेसे क्या होता है.... .......... १९५
एकाग्रसंचेतनलक्षणध्यान अशुद्धता
श्रामण्यकी परिपूर्णताका आयतन होनेसे
स्वद्रव्यमें ही प्रतिबन्ध कर्तव्य है...... . २१४ मुनिजनको निकटका सूक्ष्मपरद्रव्यप्रतिबन्ध
उपरोक्त प्रश्नका उत्तर...... ............... १९८
शुद्धात्मोपलब्धिलक्षण मोक्षमार्गको निश्चित
छेद क्या है — इसका उपदेश..... ........... २१६
छेदके अन्तरंग – बहिरंग
सर्वथा अन्तरंग छेद निषेध्य है..... .......... २१८ उपधि अन्तरंग छेदकी भाँति त्याज्य है.... ... २१९ उपधिका निषेध वह अन्तरंग छेदका ही
करते हैं..... ........................ १९९ प्रतिज्ञाका निर्वहण करते हुए (आचार्यदेव)
करते हैं..... ........................ २००
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उपदेश..... ........................... २२२
अकिंचित्कर.... ....................... २३९
‘उत्सर्ग ही वस्तुधर्म है, अपवाद नहीं’ ....... २२४
अपवादके विशेष...... ...................... २२५
अनिषिद्ध शरीरमात्र – उपधिके पालनकी
उक्त तीनोंकी युगपत्ताके साथ आत्मज्ञानकी
युगपत्ताको साधते हैं...... ............ २४० उक्त तीनोंकी युगपत्ता तथा आत्मज्ञानकी
लक्षण..... ........................... २४१
युक्ताहारविहारी साक्षात् अनाहारविहारी
श्रमणको युक्ताहारीपनेकी सिद्धि..... ........ २२८ युक्ताहारका विस्तृत स्वरूप..... ............. २२९ उत्सर्ग – अपवादकी मैत्री द्वारा आचरणका
होता.................................. २४३ एकाग्रता वह मोक्षमार्ग है ऐसा निश्चय करते
उत्सर्ग – अपवादके विरोधसे आचरणका
बतलाते हैं...... ...................... २४५ शुभोपयोगी श्रमणका लक्षण.... ............. २४६ शुभोपयोगी श्रमणोंकी प्रवृत्ति..... ........... २४७ शुभोपयोगियोंके ही ऐसी प्रवृत्तियाँ
व्यापार...... .......................... २३२ आगमहीनको मोक्षाख्य कर्मक्षय नहीं होता.... २३३ मोक्षमार्गियोंको आगम ही एक चक्षु..... .... २३४ आगमचक्षुसे सब कुछ दिखाई देता ही है.....२३५ आगमज्ञान, तत्पूर्वक तत्त्वार्थश्रद्धान और
होती हैं............................... २४८ सभी प्रवृत्तियाँ शुभोपयोगियोंके ही
होती हैं............................... २४९ प्रवृत्ति संयमकी विरोधी होनेका निषेध....... २५० प्रवृत्तिके विषयके दो विभाग................. २५१ प्रवृत्तिके कालका विभाग...... .............. २५२ लोकसंभाषणप्रवृत्ति उसके निमित्तके विभाग
तदुभयपूर्वक संयतत्वकी युगपत्ताको मोक्षमार्गपना होनेका नियम..... ...... २३६ उक्त तीनोंकी अयुगपत्ताको मोक्षमार्गत्व
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‘लौकिक’ (जन)का लक्षण .................. २६९
सत्संग करने योग्य है..... .................. २७०
फलकी विपरीतता.... ................. २५५ अविपरीत फलका कारण ऐसा जो
‘अविपरीत कारण’की उपासनारूप प्रवृत्ति
मोक्षतत्त्व .................................... २७२
मोक्षतत्त्वका साधनतत्त्व ...................... २७३
मोक्षतत्त्वके साधनतत्त्वका अभिनन्दन.... .... २७४
शास्त्रकी समाप्ति ............................ २७५
श्रमणाभासोंके प्रति समस्त प्रवृत्तियोंका
निषेध..... ........................... २६३ कैसा जीव श्रमणाभास है सो कहते हैं ...... २६४ जो श्रामण्यसे समान है उनका अनुमोदन न
जो श्रामण्यमें अधिक हो उसके प्रति जैसे कि
करनेवालेका विनाश................... २६६
आत्मद्रव्यकी प्राप्तिका प्रकार ................. ५३२
स्वयं श्रामण्यमें अधिक हों तथापि अपनेसे हीन
उसका विनाश..... ................... २६७
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नाथ है
स्वानुभूति प्राप्त होती है
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पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्रीप्रवचनसारनामधेयं, अस्य मूलग्रन्थकर्तारः
श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तारः श्रीगणधरदेवाः प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य
आचार्यश्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवविरचितं, श्रोतारः सावधानतया शृणवन्तु
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[सर्व प्रथम ग्रंथके प्रारंभमें श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवविरचित प्राकृतगाथाबद्ध श्री ‘प्रवचनसार’ नामक शास्त्रकी ‘तत्त्वप्रदीपिका’ नामक संस्कृत टीकाके रचयिता श्री अमृतचंद्राचार्यदेव उपरोक्त श्लोकोंके द्वारा मङ्गलाचरण करते हुए ज्ञानानन्दस्वरूप परमात्माको नमस्कार करते हैं : – ]
अर्थ : — सर्वव्यापी (अर्थात् सबका ज्ञाता -द्रष्टा) एक चैतन्यरूप (मात्र चैतन्य ही) जिसका स्वरूप है और जो स्वानुभवप्रसिद्ध है (अर्थात् शुद्ध आत्मानुभवसे प्रकृष्टतया सिद्ध है ) उस ज्ञानानन्दात्मक (ज्ञान और आनन्दस्वरूप) उत्कृष्ट आत्माको नमस्कार हो ।
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अथ प्रवचनसारव्याख्यायां मध्यमरुचिशिष्यप्रतिबोधनार्थायां मुख्यगौणरूपेणान्तस्तत्त्वबहि- स्तत्त्वप्ररूपणसमर्थायां च प्रथमत एकोत्तरशतगाथाभिर्ज्ञानाधिकारः, तदनन्तरं त्रयोदशाधिक शतगाथाभि- र्दर्शनाधिकारः, ततश्च सप्तनवतिगाथाभिश्चारित्राधिकारश्चेति समुदायेनैकादशाधिकत्रिशतप्रमितसूत्रैः सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररूपेण महाधिकारत्रयं भवति । अथवा टीकाभिप्रायेण तु सम्यग्ज्ञानज्ञेयचारित्रा- धिकारचूलिकारूपेणाधिकारत्रयम् । तत्राधिकारत्रये प्रथमतस्तावज्ज्ञानाभिधानमहाधिकारमध्ये द्वासप्त- तिगाथापर्यन्तं शुद्धोपयोगाधिकारः कथ्यते । तासु द्वासप्ततिगाथासु मध्ये ‘एस सुरासुर --’ इमां गाथामादिं कृत्वा पाठक्रमेण चतुर्दशगाथापर्यन्तं पीठिका, तदनन्तरं सप्तगाथापर्यन्तं सामान्येन सर्वज्ञ- सिद्धिः, तदनन्तरं त्रयस्त्रिंशद्गाथापर्यन्तं ज्ञानप्रपञ्चः, ततश्चाष्टादशगाथापर्यन्तं सुखप्रपञ्चश्चेत्यन्तराधि- कारचतुष्टयेन शुद्धोपयोगाधिकारो भवति । अथ पञ्चविंशतिगाथापर्यन्तं ज्ञानकण्डिकाचतुष्टयप्रति- पादकनामा द्वितीयोऽधिकारश्चेत्यधिकारद्वयेन, तदनन्तरं स्वतन्त्रगाथाचतुष्टयेन चैकोत्तरशतगाथाभिः प्रथममहाधिकारे समुदायपातनिका ज्ञातव्या ।
इदानीं प्रथमपातनिकाभिप्रायेण प्रथमतः पीठिकाव्याख्यानं क्रियते, तत्र पञ्चस्थलानि भवन्ति; तेष्वादौ नमस्कारमुख्यत्वेन गाथापञ्चकं, तदनन्तरं चारित्रसूचनमुख्यत्वेन ‘संपज्जइ णिव्वाणं’ इति प्रभृति गाथात्रयमथ शुभाशुभशुद्धोपयोगत्रयसूचनमुख्यत्वेन ‘जीवो परिणमदि’ इत्यादिगाथासूत्रद्वयमथ तत्फलकथनमुख्यतया ‘धम्मेण परिणदप्पा’ इति प्रभृति सूत्रद्वयम् । अथ शुद्धोपयोगध्यातुः पुरुषस्य प्रोत्साहनार्थं शुद्धोपयोगफलदर्शनार्थं च प्रथमगाथा, शुद्धोपयोगिपुरुषलक्षणकथनेन द्वितीया चेति ‘अइसयमादसमुत्थं’ इत्यादि गाथाद्वयम् । एवं पीठिकाभिधानप्रथमान्तराधिकारे स्थलपञ्चकेन चतुर्दशगाथाभिस्समुदायपातनिका । तद्यथा —
[अब अनेकान्तमय ज्ञानकी मंगलके लिये श्लोक द्वारा स्तुति करते हैं :] अर्थ : — जो महामोहरूपी अंधकारसमूहको लीलामात्रमें नष्ट करता है और जगतके स्वरूपको प्रकाशित करता है ऐसा अनेकांतमय तेज सदा जयवंत है ।
[ अब श्री अमृतचंद्राचार्यदेव श्लोक द्वारा अनेकांतमय जिनप्रवचनके सारभूत इस ‘प्रवचनसार’ शास्त्रकी टीका करनेकी प्रतिज्ञा करते हैं :]
अर्थ : — परमानन्दरूपी सुधारसके पिपासु भव्य जीवोंके हितार्थ, तत्त्वको (वस्तुस्वरूपको) प्रगट करनेवाली प्रवचनसारकी यह टीका रची जा रही है ।
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अथ खलु कश्चिदासन्नसंसारपारावारपारः समुन्मीलितसातिशयविवेकज्योतिरस्तमित- समस्तैकांतवादाविद्याभिनिवेशः पारमेश्वरीमनेकान्तवादविद्यामुपगम्य मुक्तसमस्तपक्षपरिग्रह- तयात्यंतमध्यस्थो भूत्वा सकलपुरुषार्थसारतया नितान्तमात्मनो हिततमां भगवत्पंचपरमेष्ठि- प्रसादोपजन्यां परमार्थसत्यां मोक्षलक्ष्मीमक्षयामुपादेयत्वेन निश्चिन्वन् प्रवर्तमानतीर्थनायक- पुरःसरान् भगवतः पंचपरमेष्ठिनः प्रणमनवंदनोपजनितनमस्करणेन संभाव्य सर्वारंभेण मोक्षमार्गं संप्रतिपद्यमानः प्रतिजानीते —
अथ कश्चिदासन्नभव्यः शिवकुमारनामा स्वसंवित्तिसमुत्पन्नपरमानन्दैकलक्षणसुखामृतविपरीत- चतुर्गतिसंसारदुःखभयभीतः, समुत्पन्नपरमभेदविज्ञानप्रकाशातिशयः, समस्तदुर्नयैकान्तनिराकृतदुराग्रहः, परित्यक्तसमस्तशत्रुमित्रादिपक्षपातेनात्यन्तमध्यस्थो भूत्वा धर्मार्थकामेभ्यः सारभूतामत्यन्तात्महिताम- विनश्वरां पंचपरमेष्ठिप्रसादोत्पन्नां मुक्तिश्रियमुपादेयत्वेन स्वीकुर्वाणः, श्रीवर्धमानस्वामितीर्थकरपरमदेव- प्रमुखान् भगवतः पंचपरमेष्ठिनो द्रव्यभावनमस्काराभ्यां प्रणम्य परमचारित्रमाश्रयामीति प्रतिज्ञां करोति –
[इसप्रकार मंगलाचरण और टीका रचनेकी प्रतिज्ञा करके, भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेव- विरचित प्रवचनसारकी पहली पाँच गाथाओंके प्रारम्भमें श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव उन गाथाओंकी उत्थानिका करते हैं ।]
अब, जिनके संसार समुद्रका किनारा निकट है, सातिशय (उत्तम) विवेकज्योति प्रगट हो गई है (अर्थात् परम भेदविज्ञानका प्रकाश उत्पन्न हो गया है) तथा समस्त एकांतवादरूप अविद्याका १अभिनिवेश अस्त हो गया है ऐसे कोई (आसन्नभव्य महात्माश्रीमद्- भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य), पारमेश्वरी (परमेश्वर जिनेन्द्रदेवकी) अनेकान्तवादविद्याको प्राप्त करके, समस्त पक्षका परिग्रह (शत्रुमित्रादिका समस्त पक्षपात) त्याग देनेसे अत्यन्त मध्यस्थ होकर, २सर्व पुरुषार्थमें सारभूत होनेसे आत्माके लिये अत्यन्त ३हिततम भगवन्त पंचपरमेष्ठीके ४प्रसादसे उत्पन्न होने योग्य, परमार्थसत्य (पारमार्थिक रीतिसे सत्य), अक्षय (अविनाशी) मोक्षलक्ष्मीको ५उपादेयरूपसे निश्चित करते हुए प्रवर्तमान तीर्थके नायक (श्री महावीरस्वामी) पूर्वक भगवंत पंचपरमेष्ठीको ६प्रणमन और वन्दनसे होनेवाले नमस्कारके द्वारा सन्मान करके सर्वारम्भसे (उद्यमसे) मोक्षमार्गका आश्रय करते हुए प्रतिज्ञा करते हैं । १. अभिनिवेश=अभिप्राय; निश्चय; आग्रह । २. पुरुषार्थ=धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुष -अर्थोमें (पुरुष -प्रयोजनों में) मोक्ष ही सारभूत श्रेष्ठ
तात्विक पुरुष -अर्थ है । ३. हिततम=उत्कृष्ट हितस्वरूप । ४. प्रसाद=प्रसन्नता, कृपा । ५. उपादेय=ग्रहण करने योग्य, (मोक्षलक्ष्मी हिततम, यथार्थ और अविनाशी होनेसे उपादेय है ।) ६. प्रणमन=देहसे नमस्कार करना । वन्दन=वचनसे स्तुति करना । नमस्कारमें प्रणमन और वन्दन दोनोंका
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पणमामीत्यादिपदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते — पणमामि प्रणमामि । स कः । कर्ता एस एषोऽहं ग्रन्थकरणोद्यतमनाः स्वसंवेदनप्रत्यक्षः । कं । वड्ढमाणं अवसमन्तादृद्धं वृद्धं मानं प्रमाणं ज्ञानं यस्य स भवति वर्धमानः, ‘अवाप्योरलोपः’ इति लक्षणेन भवत्यकारलोपोऽवशब्दस्यात्र, तं रत्नत्रयात्मकप्रवर्तमानधर्मतीर्थोपदेशकं श्रीवर्धमानतीर्थकरपरमदेवम् । क्व प्रणमामि । प्रथमत एव । किंविशिष्टं । सुरासुरमणुसिंदवंदिदं त्रिभुवनाराध्यानन्तज्ञानादिगुणाधारपदाधिष्ठितत्वात्तत्पदाभिलाषिभिस्त्रि- भुवनाधीशैः सम्यगाराध्यपादारविन्दत्वाच्च सुरासुरमनुष्येन्द्रवन्दितम् । पुनरपि किंविशिष्टं । धोदघाइ-
वळी शेष तीर्थंकर अने सौ सिद्ध शुद्धास्तित्वने.
मुनि ज्ञान-
ते सर्वने साथे तथा प्रत्येकने प्रत्येकने, वंदुं वळी हुं मनुष्यक्षेत्रे वर्तता अर्हंतने. ३. अर्हंतने, श्री सिद्धनेय नमस्करण करी ए रीते, गणधर अने अध्यापकोने, सर्वसाधुसमूहने. ४.
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कम्ममलं परमसमाधिसमुत्पन्नरागादिमलरहितपारमार्थिकसुखामृतरूपनिर्मलनीरप्रक्षालितघातिकर्ममल- त्वादन्येषां पापमलप्रक्षालनहेतुत्वाच्च धौतघातिकर्ममलम् । पुनश्च किंलक्षणम् । तित्थं दृष्टश्रुतानुभूत- विषयसुखाभिलाषरूपनीरप्रवेशरहितेन परमसमाधिपोतेनोत्तीर्णसंसारसमुद्रत्वात् अन्येषां तरणोपाय- भूतत्वाच्च तीर्थम् । पुनश्च किंरूपम् । धम्मस्स कत्तारं निरुपरागात्मतत्त्वपरिणतिरूपनिश्चयधर्मस्योपादान-
अन्वयार्थ : — [एषः ] यह मैं [सुरासुरमनुष्येन्द्रवंदितं ] जो १सुरेन्द्रों, २असुरेन्द्रों और ३नरेन्द्रोंसे वन्दित हैं तथा जिन्होंने [धौतघातिकर्ममलं ] घाति कर्ममलको धो डाला है ऐसे [तीर्थं ] तीर्थरूप और [धर्मस्य कर्तारं ] धर्मके कर्ता [वर्धमानं ] श्री वर्धमानस्वामीको [प्रणमामि ] नमस्कार करता हूँ ।।१।।
[पुनः ] और [विशुद्धसद्भावान् ] विशुद्ध ४सत्तावाले [शेषान् तीर्थकरान् ] शेष तीर्थंकरोंको [ससर्वसिद्धान् ] सर्व सिद्धभगवन्तोंके साथ ही, [च ] और [ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारान् ] ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचार युक्त [श्रमणान् ] ५श्रमणोंको नमस्कार करता हूँ ।।२।।
[तान् तान् सर्वान् ] उन उन सबको [च ] तथा [मानुषे क्षेत्रे वर्तमानान् ] मनुष्य क्षेत्रमें विद्यमान [अर्हतः ] अरहन्तोंको [समकं समकं ] साथ ही साथ — समुदायरूपसे और [प्रत्येकं एव प्रत्येकं ] प्रत्येक प्रत्येकको — व्यक्तिगत [वंदे ] वन्दना करता हूँ ।।३।। १ . सुरेन्द्र = ऊर्ध्वलोकवासी देवोंके इन्द्र । २. असुरेन्द्र = अधोलोकवासी देवोंके इन्द्र । ३. नरेन्द्र = (मध्यलोकवासी) मनुष्योंके अधिपति, राजा । ४. सत्ता=अस्तित्व । ५. श्रमण = आचार्य, उपाध्याय और साधु ।
तसु शुद्धदर्शनज्ञान मुख्य पवित्र आश्रम पामीने, प्राप्ति करूं हुं साम्यनी, जेनाथी शिवप्राप्ति बने. ५.
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एष स्वसंवेदनप्रत्यक्षदर्शनज्ञानसामान्यात्माहं सुरासुरमनुष्येन्द्रवंदितत्वात्त्रिलोकैकगुरुं, धौतघातिकर्ममलत्वाज्जगदनुग्रहसमर्थानंतशक्तिपारमैश्वर्यं, योगिनां तीर्थत्वात्तारणसमर्थं, धर्मकर्तृ- त्वाच्छुद्धस्वरूपवृत्तिविधातारं, प्रवर्तमानतीर्थनायकत्वेन प्रथमत एव परमभट्टारकमहादेवाधिदेव- परमेश्वरपरमपूज्यसुगृहीतनामश्रीवर्धमानदेवं प्रणमामि ।।१।। तदनु विशुद्धसद्भावत्वादुपात्त- कारणत्वात् अन्येषामुत्तमक्षमादिबहुविधधर्मोपदेशकत्वाच्च धर्मस्य कर्तारम् । इति क्रियाकारकसम्बन्धः । एवमन्तिमतीर्थकरनमस्कारमुख्यत्वेन गाथा गता ।।१।। तदनन्तरं प्रणमामि । कान् । सेसे पुण तित्थयरे ससव्वसिद्धे शेषतीर्थकरान्, पुनः ससर्वसिद्धान् वृषभादिपार्श्वपर्यन्तान् शुद्धात्मोपलब्धिलक्षणसर्वसिद्ध- सहितानेतान् सर्वानपि । कथंभूतान् । विसुद्धसब्भावे निर्मलात्मोपलब्धिबलेन विश्लेषिताखिलावरण- त्वात्केवलज्ञानदर्शनस्वभावत्वाच्च विशुद्धसद्भावान् । समणे य श्रमणशब्दवाच्यानाचार्योपाध्यायसाधूंश्च । किंलक्षणान् । णाणदंसणचरित्ततववीरियायारे सर्वविशुद्धद्रव्यगुणपर्यायात्मके चिद्वस्तुनि यासौ रागादि-
[अर्हद्भयः ] इसप्रकार अरहन्तोंको [सिद्धेभ्यः ] सिद्धोंको [तथा गणधरेभ्यः ] आचार्योंको [अध्यापकवर्गेभ्यः ] उपाध्यायवर्गको [च एवं ] और [सर्वेभ्यः साधुभ्यः ] सर्व साधुओंको [नमः कृत्वा ] नमस्कार करके [तेषां ] उनके [विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधानाश्रमं ] १विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधान आश्रमको [समासाद्य ] प्राप्त करके [साम्यं उपसंपद्ये ] मैं २साम्यको प्राप्त करता हूँ [यतः ] जिससे [निर्वाण संप्राप्तिः ] निर्वाणकी प्राप्ति होती है ।।४ -५।।
टीका : — यह ३स्वसंवेदनप्रत्यक्ष ४दर्शनज्ञानसामान्यस्वरूप मैं, जो सुरेन्द्रों, असुरेन्द्रों और नरेन्द्रोंके द्वारा वन्दित होनेसे तीन लोकके एक (अनन्य सर्वोत्कृष्ट) गुरु हैं, जिनमें घातिकर्ममलके धो डालनेसे जगत पर अनुग्रह करनेमें समर्थ अनन्तशक्तिरूप परमेश्वरता है, जो तीर्थताके कारण योगियोंको तारनेमें समर्थ हैं, धर्मके कर्ता होनेसे जो शुद्ध स्वरूपपरिणतिके कर्ता हैं, उन परम भट्टारक, महादेवाधिदेव, परमेश्वर, परमपूज्य, जिनका नामग्रहण भी अच्छा है ऐसे श्री वर्धमानदेवको प्रवर्तमान तीर्थकी नायकताके कारण प्रथम ही, प्रणाम करता हूँ ।।१।। १. विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधान = विशुद्ध दर्शन और ज्ञान जिसमें प्रधान (मुख्य) हैं, ऐसे । २. साम्य = समता, समभाव । ३. स्वसंवेदनप्रत्यक्ष = स्वानुभवसे प्रत्यक्ष (दर्शनज्ञानसामान्य स्वानुभवसे प्रत्यक्ष है) । ४. दर्शनज्ञानसामान्यस्वरूप = दर्शनज्ञानसामान्य अर्थात् चेतना जिसका स्वरूप है ऐसा ।
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पाकोत्तीर्णजात्यकार्तस्वरस्थानीयशुद्धदर्शनज्ञानस्वभावान् शेषानतीततीर्थनायकान्, सर्वान् सिद्धांश्च, ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारयुक्तत्वात्संभावितपरमशुद्धोपयोगभूमिकानाचार्योपाध्याय- साधुत्वविशिष्टान् श्रमणांश्च प्रणमामि ।।२।। तदन्वेतानेव पंचपरमेष्ठिनस्तत्तद्वयक्तिव्यापिनः सर्वानेव सांप्रतमेतत्क्षेत्रसंभवतीर्थकरासंभवान्महाविदेहभूमिसंभवत्वे सति मनुष्यक्षेत्रप्रवर्तिभि- स्तीर्थनायकैः सह वर्तमानकालं गोचरीकृत्य युगपद्युगपत्प्रत्येकं प्रत्येकं च मोक्षलक्ष्मीस्वयं- वरायमाणपरमनैर्ग्रन्थ्यदीक्षाक्षणोचितमंगलाचारभूतकृतिकर्मशास्त्रोपदिष्टवन्दनाभिधानेन सम्भाव- विकल्परहितनिश्चलचित्तवृत्तिस्तदन्तर्भूतेन व्यवहारपञ्चाचारसहकारिकारणोत्पन्नेन निश्चयपञ्चाचारेण परिणतत्वात् सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारोपेतानिति । एवं शेषत्रयोविंशतितीर्थकरनमस्कार- मुख्यत्वेन गाथा गता ।।२।। अथ ते ते सव्वे तांस्तान्पूर्वोक्तानेव पञ्चपरमेष्ठिनः सर्वान् वंदामि य वन्दे, अहं कर्ता । कथं । समगं समगं समुदायवन्दनापेक्षया युगपद्युगपत् । पुनरपि कथं । पत्तेगमेव पत्तेगं प्रत्येकवन्दनापेक्षया प्रत्येकं प्रत्येकम् । न केवलमेतान् वन्दे । अरहंते अर्हतः । किंविशिष्टान् । वट्टंते माणुसे खेत्ते वर्तमानान् । क्व । मानुषे क्षेत्रे । तथा हि ---साम्प्रतमत्र भरतक्षेत्रे तीर्थकराभावात् पञ्च-
तत्पश्चात् जो विशुद्ध सत्तावान् होनेसे तापसे उत्तीर्ण हुए (अन्तिम ताव दिये हुए अग्निमेंसे बाहर निकले हुए) उत्तम सुवर्णके समान शुद्धदर्शनज्ञानस्वभावको प्राप्त हुए हैं, ऐसे शेष १अतीत तीर्थंकरोंको और सर्वसिद्धोंको तथा ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचारयुक्त होनेसे जिन्होंने परम शुद्ध उपयोगभूमिकाको प्राप्त किया है, ऐसे श्रमणोंको — जो कि आचार्यत्व, उपाध्यायत्व और साधुत्वरूप विशेषोंसे विशिष्ट ( – भेदयुक्त) हैं उन्हें — नमस्कार करता हूँ ।।२।।
तत्पश्चात् इन्हीं पंचपरमेष्ठियोंको, उस -उस व्यक्तिमें (पर्यायमें) व्याप्त होनेवाले सभीको, वर्तमानमें इस क्षेत्रमें उत्पन्न तीर्थंकरोंका अभाव होनेसे और महाविदेहक्षेत्रमें उनका सद्भाव होनेसे मनुष्यक्षेत्रमें प्रवर्तमान तीर्थनायकयुक्त वर्तमानकालगोचर करके, ( – महाविदेहक्षेत्रमें वर्तमान श्री सीमंधरादि तीर्थंकरोंकी भाँति मानों सभी पंच परमेष्ठी भगवान वर्तमानकालमें ही विद्यमान हों, इसप्रकार अत्यन्त भक्तिके कारण भावना भाकर – चिंतवन करके उन्हें) युगपद् युगपद् अर्थात् समुदायरूपसे और प्रत्येक प्रत्येकको अर्थात् व्यक्तिगतरूपसे २संभावना करता हूँ । किस प्रकारसे संभावना करता हूँ ? मोक्षलक्ष्मीके स्वयंवर समान जो परम निर्ग्रन्थताकी दीक्षाका उत्सव (-आनन्दमय प्रसंग) है उसके उचित मंगलाचरणभूत जो ३कृतिकर्मशास्त्रोपदिष्ट वन्दनोच्चार (कृतिकर्मशास्त्रमें उपदेशे हुए स्तुतिवचन)के द्वारा सम्भावना करता हूँ ।।३।। १. अतीत = गत, होगये, भूतकालीन । २. संभावना = संभावना करना, सन्मान करना, आराधन करना । ३. कृतिकर्म = अंगबाह्य १४ प्रकीर्णकोंमें छट्ठा प्रकीर्णक कृतिकर्म है जिसमें नित्यनैमित्तिक क्रियाका वर्णन है ।