Page 217 of 394
PDF/HTML Page 241 of 418
single page version
रसका सेवन, ४ स्त्रीसे संसक्त वस्तु शय्या आदिकका सेवन, ५ स्त्रीके मुख, नेत्र आदिकको
देखना, ६ स्त्रीका सत्कार–पुरस्कार करना, ७ पहिले किये हुए स्त्रीसेवनको याद करना, ८
आगामी स्त्रीसेवनकी अभिलाषा करना, ९ मनवांछित इष्ट विषयोंका सेवन करना ऐसे नव प्रकार
हैं। इनका त्याग करना सो नवभेदरूप ब्रह्मचर्य है अथवा मन–वचन–काय, कृत–कारित–
अनुमोदनासे ब्रह्मचर्यका पालन करना ऐसे भी नव प्रकार हैं। ऐसे करना सो भी भाव शुद्ध
होनेका उपाय है।। ९८।।
से रहित हो उसके आराधना नहीं होती है, उसका फल संसार का भ्रमण है। ऐसा जानकर
भाव शुद्ध करना यह उपदेश है।। ९९।।
होना, ३ पीछे निः श्वास डालना, ४ पीछे ज्वर होना, ५ पीछे दाह होना, ६ पीछे काम की
रुचि होना, ७ पीछे मूर्छा होना, ८ पीछे उन्माद होना, ९ पीछे जीनेका संदेह होना, १० पीके
मरण होना, ऐसे दस प्रकारका अब्रह्म है।
भाव रहिदो य मुणिवर भमइ चिरं दीहसंसारे।। ९९।।
भावरहितश्च मुनिवर! भ्रमति चिरं दीर्घ संसारे।। ९९।।
आराधनाके चतुष्कको पाता है, वह मुनियोंमें प्रधान है और जो भावरहित मुनि है सो बहुत
काल तक दीर्घसंसारमें भ्रमण करता है।
Page 218 of 394
PDF/HTML Page 242 of 418
single page version
दुक्खाइं दव्वसवणा णरतिरियकुदेव जोणीए।। १००।।
दुःखानि द्रव्यश्रमणाः नरतिर्यक्कुदेवयोनौ।। १००।।
जो द्रव्यश्रमण हैं वे तिर्यंच मनुष्य कुदेव योनिमें दुःखोंको पाते हैं।
सम्यग्दर्शन रहित द्रव्यमुनि हैं वे तिर्यंच, मनुष्य, कुदेव योनि पाते हैं। यह भावके विशेष से
फलका विशेष है।। १००।।
पत्तो सि महावसणं तिरियगईए अणप्पवसो।। १०१।।
प्राप्तः असि महाव्यसनं तिर्यग्गतौ अनात्मवशः।। १०१।।
ने द्रव्यमुनि तिर्यंच–मनुज–कुदेवमां दुःखो सहे। १००।
अविशुद्ध भावे दोष छेंताळीस सह ग्रही अशनने,
Page 219 of 394
PDF/HTML Page 243 of 418
single page version
इसके भाव भी शुद्ध नहीं है। उसको उपदेश है कि–––हे मुनि! तुने दोष–सहित अशुद्ध
आहार किया, इसलिये तिर्यंचगति में पहिले भ्रमण किया और कष्ट सहा, इसलिये भाव शुद्ध
करके शुद्ध आहार कर जिससे फिर भ्रमण न करे। छियालीस दोषोंमें सोलह तो उद्गम दोष
हैं, वे आहारके बनने के हैं, ये श्रावक आश्रित हैं। सोलह उत्पादन दोष हैं, ये मुनिके आश्रित
हैं। दस दोष एषणाके हैं, ये आहारके आश्रित है। चार प्रमाणादिक हैं। इनके नाम तथा स्वरूप
‘मूलाचार’, ‘आचारसार’ ग्रंथसे जानिये।। १०१।।
पत्तो सि तिव्वदुक्खं अणाइकालेण तं चिंत।। १०२।।
प्राप्तोऽसि तीव्रदुःखं अनादिकालेन त्वं चिन्तय।। १०२।।
अर्थः––हे जीव! तू दुर्बुद्धि
पाया, उसका चिन्तवन कर – विचार कर।
करे, नहीं तो फिर पूर्ववत् दुःख भोगेगा।। १०२।।
Page 220 of 394
PDF/HTML Page 244 of 418
single page version
असिऊण माणगव्वं भमिओ सि अणंतसंसारे।। १०३।।
अशित्वा मानगर्वे भ्रमितः असि अनंत संसारे।। १०३।।
गाजर आदिक, पुष्प – फूल, पत्र नागरबेल आदिक, इनको आदि लेकर जो भी कोई सचित्त
वस्तु थी उसे मान
है, वनके पुष्प – फलादिक खाकर तपस्या करते हैं,––ऐसे मिथ्यादृष्टि तपस्वी होकर मान
करके खाये तथा गर्व से उद्धत होकर दोष समझा नहीं, स्वच्छंद होकर सर्वभक्षी हुआ। ऐसे
इन कंदादिकको खाकर इस जीवने संसार भ्रमण किया। अब मुनि होकर इनका भक्षण मत
करे, ऐसा उपदेश है। अन्यमतके तपस्वी कंदमूलादिक फल – फूल खाकर अपनेको महंत
मानते हैं, उनका निषेध है।।१०३।।
अविणयणरा सुविहियं तत्तो मुत्तिं न पावंति।। १०४।।
अविनतनराः सुविहितां ततो मुक्तिं न प्राप्नुवंति।। १०४।।
तुं मान–मदथी खाईने भटक्यो अनंत भवार्णवे। १०३।
रे! विनय पांच प्रकारनो तुं पाळ मन–वच–तन वडे;
Page 221 of 394
PDF/HTML Page 245 of 418
single page version
हैं कि––––हाथ जोड़ना, चरणोंमें गिरना, आने पर उठना, सामने जाना और अनुकूल वचन
कहना यह पाँच प्रकार का विनय है अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और इनके धारक पुरुष
इनका विनय करना, ऐसे पाँच प्रकारके विनयको तू मन – वचन –काय तीनों योगोंसे पालन
कर।
निवारण है, इत्यादि विनय के गुण जानने। इसलिये जो सम्यग्दर्शन आदि में महान् है उनका
विनय करो यह उपदेश है और जो विनय बिना जिनमार्गसे भ्रष्ट भये, वस्त्रादिक सहित जो
मोक्षमार्ग मानने लगे उनका निषेध है।। १०४।।
तं कुण जिण भत्ति परं विज्जावच्चं दसवियप्पं।। १०५।।
त्वं कुरू जिन भक्ति परं वैयावृत्यं दशविकल्पम्।। १०५।।
अर्थः––हे महाशय! हे मुने! जिनभक्ति में तत्पर होकर, भक्तिके रागपूर्वक उस दस
भेदरूप वैयावृत्यको सदाकाल तु अपनी शक्तिके अनुसार कर। ‘वैयावृत्य’ के दूसरे दुःख
ये दस मुनि के हैं। इनका वैयावृत्य करते हैं इसलिये दस भेद कहे हैं।। १०५।।
Page 222 of 394
PDF/HTML Page 246 of 418
single page version
तं गरहि गुरुसयासे गारव मायं च मोत्तूण।। १०६।।
तं गर्हं गुरुसकाशे गारवं मायां च मुक्त्वा।। १०६।।
अर्थः––हे मुने! जो कुछ मन–वचन–कायके द्धारा अशुभ भावोंसे प्रतिज्ञा में लगा हो
उसको गुरुके पास अपना गौरव
छिपाना नहीं, जैसा हो वैसा सरलबुद्धिसे गुरुओं के पास कहे तब दोष मिटे यह उपदेश है।
कालके निमित्तसे मुनिपद से भ्रष्ट भये, पीछे गुरुओंके पास प्रायश्चित नहीं लिया, तब विपरीत
होकर अलग सम्प्रदाय बना लिये, ऐसे विपर्यय हुआ।। १०६।।
कम्ममलणासणट्ठं भावेण य णिम्ममा सवणा।। १०७।।
कर्ममलनाशनार्थं भावेन च निर्ममाः श्रमणाः।। १०७।।
दुर्जनने कटुक वचन कहे, आपने सुने, उसको उपशम
कर गर्हणा गुरुनी समीपे गर्व–माया छोडीने। १०६।
दुर्जन तणी निष्ठुर–कटुक वचनोरूपी थप्पड सहे
Page 223 of 394
PDF/HTML Page 247 of 418
single page version
नाश होता है।
कि इसने मुझे दुर्वचन कहे, इसलिये ममत्वके अभावसे दुर्वचन सहते हैं। अतः मुनि होकर
किसी पर क्रोध नहीं करना यह उपदेश है। लौकिक में भी जो बड़े पुरुष हैं वे दुर्वचन सुनकर
क्रोध नहीं करते हैं, तब मुनिको सहना उचित ही है। जो क्रोध करते हैं वे कहनेके तपस्वी हैं,
सच्चे तपस्वी नहीं हैं।। १०७।।
खेवर अमरणराणं पसंसणीओ धुवं होइ।। १०८।।
खेचरामरनराणां प्रशंसनीयं ध्रुवं भवति।। १०८।।
अर्थः––जो मुनिप्रवर
निश्चय से होता है।
ही हैं और उनके सब पापोंका क्षय होता ही है, इसलिये क्षमा करना योग्य है–––ऐसा उपदेश
है। क्रोधी सबके निंदा करने योग्य होता है, इसलिये क्रोधका छोड़ना श्रेष्ठ है।। १०८।।
Page 224 of 394
PDF/HTML Page 248 of 418
single page version
दीक्षाकाल आदिककी भावना कर।
चिरसंचियकोहसिहिं वरखमसलिलेण सिंचेह।। १०९।।
चिरसंचित क्रोध शिखिनं वर क्षमासलिलेन सिंच।। १०९।।
अर्थः––हे क्षमागुण मुने! [जिसके क्षमागुण है ऐसे मुनिका संबोधन है] इति अर्थात्
पूर्वोत्त प्रकार क्षमागुण को जान और सब जीवों पर मन–वचन–काय से क्षमा कर तथा बहुत
कालसे संचित क्रोधरूपीाग्निको शमारूप जलसे सींच अर्थात् शमन कर।
और क्षमा गुण सब गुणोंमें प्रधान है। इसलिये यह उपदेश है कि क्रोध को छोड़कर क्षमा ग्रहण
करना।। १०९।।
उत्तम बोहिणिमित्तं असारसाराणि मुणिऊण।। ११०।।
उत्तमबोधिनिमित्तं असारसाराणि ज्ञात्वा।। ११०।।
जानना।
उत्तम क्षमा जळ सींच तुं चिरकाळना क्रोधाग्निने। १०९।
सुविशुद्धदर्शनधरपणे वरबोधि केरा हेतुए
Page 225 of 394
PDF/HTML Page 249 of 418
single page version
उत्तमबोधि जिससे केवलज्ञान उत्पन्न होता है, उसके लिये दीक्षाकालादिक की निरन्तर भावना
करना योग्य है, ऐसा उपदेश है ।। ११०।।
वैराग्य संपत्तिको, किसी दुःखके अवसर पर प्रगट हुई उदासीनताकी भावनाको, किसी उपदेश
तथा तत्त्वविचारके धन्य अवसर पर जगी पवित्र अंतःभावनाको स्मरणमें रखना, निरन्तर
स्वसन्मुखज्ञातापन को धीरज अर्थ स्मरणमें रखना, भूलना नहीं।
बाहिरलिंगमकज्जं होइ फुडं भावरहियाणं।। १११।।
बाह्यलिंगमकार्यं भवति स्फुटं भावरहितानाम्।। १११।।
अर्थः––हे मुनिवर! तू अभ्यंतरलिंगी शुद्धि अर्थात् शुद्धताको प्राप्त होकर चार प्रकारके
बाह्यलिंगका सेवन कर, क्योंकि जो भावरहित होते हैं उनके प्रगटपने बाह्यलिंग अकार्य है
अर्थात् कार्यकारी नहीं है।
हैं, इसलिये यह उपदेश है–––पहिले भावकी शुद्धता करके द्रव्यलिंग धारण करो। यह
द्रव्यलिंग चार प्रकारका कहा है, उसकी सूचना इसप्रकार है–––१ मस्तकके, २ दाढ़ीके और ३
मूछोंके केशोंका लोच करना, तीन चिन्ह तो ये और चौथा नीचे के केश रखना; अथवा १ वस्त्र
का त्याग, २ केशोंका लोच करना, ३ शरीरका स्नानादिसे संस्कार न करना, ४ प्रतिलेखन
मयूरपिच्छिका रखना, ऐसे भी चार प्रकारका बाह्यलिंग कहा है। ऐसे सब बाह्य वस्त्रादिकसे
रहित नग्न रहना, ऐसा नग्नरूप भावविशुद्धि बिना हँसी का स्थान है और कुछ उत्तम फल भी
नहीं है।। १११।।
Page 226 of 394
PDF/HTML Page 250 of 418
single page version
भमिओ संसारवणे अणाइकालं अणप्पवसो।। ११२।।
भ्रमितः संसारवने अनादिकालं अनात्मवशः।। ११२।।
अर्थः––हे मुने! तूने आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, इन चार संज्ञाओंसे मोहित होकर
अनादिकालसे पराधीन होकर संसाररूप वनमें भ्रमण किया।
रहती है, यह जन्मान्तर से चली जाती है, जन्म लेते ही तत्काल प्रगट होती है। इसी के
निमित्त से कर्मोंका बंध कर संसारवन में भ्रमण करता है, इसलिये मुनियोंको यह उपदेश है कि
अब इन संज्ञाओंका अभाव करो।। ११२।।
पालहि भावविशुद्धो पूयालाहं ण ईहंतो।। ११३।।
पालय भावविशुद्धः पूजा लाभं न ईहमानः।। ११३।।
अर्थः––हे मुनिवर! तू भावसे विशुद्ध होकर पूजा–लाभादिकको नहीं चाहते हुए,
बाह्यशयन, आतापन, वृक्षमूलयोग धारण करना, इत्यादि उत्तरगुणोंका पालन कर।
तुं परवशे भटकयो अनादि काळथी भवकानने। ११२।
तरूमूल, आतापन, बहिः शयनादि उत्तरगुणने
Page 227 of 394
PDF/HTML Page 251 of 418
single page version
पर गिरने के बाद एकत्र होकर शरीर पर गिरें। इसमें कुछ प्रासुक का भी संकल्प है और बाधा
बहुत है, इनको आदि लेकर यह उत्तर गुण है, इनका पालन भी भावशुद्धि करके करना।
भावशुद्धि बिना करे तो तत्काल बिगड़े और फल कुछ नहीं है, इसलिये भाव शुद्ध करके करने
का उपदेश है। ऐसा न जानना कि इनको बाह्यमें करने का निषेध करते हैं। इनको भी करना
और भाव भी शुद्ध करना यह आशय है। केवल पूजा – लाभादि के लिये, अपना बड़प्पन
दिखाने के लिये करे तो कुछ फल
तियरणसुद्धो अप्पं अणाइणिहणं तिवग्गहरं।। ११४।।
त्रिकरणशुद्धः आत्मानं अनादिनिधनं त्रिवर्गहरम्।। ११४।।
अर्थः––हे मुने! तू प्रथम जो जीवतत्त्व उसका चिन्तन कर, द्वितीय अजीवतत्त्वका
चिन्तन कर, तृतीय आस्रवतत्त्व का चिन्तन कर, चतुर्थ बन्धतत्त्वका चिन्तन कर, पँचम
संवरतत्त्वका चिन्तन कर और त्रिकरण अर्थात् मन–वचन–काय, कृत–कारित–अनुमोदना से
शुद्ध होकर आत्मस्वरूपका चिन्तन कर; जो आत्मा अनादिनिधन है और त्रिवर्ग अर्थात् धर्म,
अर्थ तथा काम इनको हरनेवाला है।
दूसरा
Page 228 of 394
PDF/HTML Page 252 of 418
single page version
अपने ज्ञाता रहना]।
चौथा
प्रकार होकर बँधता है, वे स्वभाव–प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप चारप्रकार होकर
बँधते हैं, वे मेरे विभाव तथा पुद्गल कर्म सब हेय हैं, संसार के कारण हैं, मुझे रागद्वेष
मोहरूप नहीं होना है, इसप्रकार भावना करना।
पाँचवाँ
कर्मजनित भ्रमण मिटता है।
‘निर्जरातत्त्व’ हुआ और सब कर्मोंका अभाव होना यह ‘मोक्षतत्त्व’ हुआ।
त्रिवर्ग से भिन्न चौथा पुरुषार्थ ‘मोक्ष’ है वह होता है। यह आत्मा ज्ञान–दर्शनमयी चेतनास्वरूप
अनादिनिधन है, इसका आदि भी नहीं और निधन
और करने वाले को भला जानना–––ऐसे त्रिकरण शुद्ध करके भावना करना। माया–निदान
शल्य नहीं रखना, ख्याति, लाभ, पूजाका आशय न रखना। इसप्रकार से तत्त्व की भावना
करने से भाव शुद्ध होते हैं।
Page 229 of 394
PDF/HTML Page 253 of 418
single page version
का चिन्तन नहीं करता है तब तक जरा और मरणसे रहित मोक्षस्थानको नहीं पाता है।
है, इसका शरीर है वह तो पुद्गल तत्त्वकी पर्याय है, यह हावभाव चेष्टा करती है, वह इस
जीव के विकार हुआ है यह आस्रवतत्त्व है और बाह्य चेष्टा पुद्गल की है, इस विकार से इस
स्त्री की आत्मा के कर्म का बन्ध होता है। यह विकार इसके न हो तो ‘आस्रव’ ‘बन्ध’ न हों।
कदाचित् मैं भी इसको देखकर विकाररूप परिणमन करूँ तो मेरे भी ‘आस्रव’ ‘बन्ध’ हों।
इसलिये मुझे विकाररूप न होना यह ‘संवर’ तत्त्व है। बन सके तो कुछ उपदेश देकर इसका
विकार दूर करूँ [ऐसा विकल्प राग है] वह राग भी करने योग्य नहीं है––––स्वसन्मुख
ज्ञातापने में धैर्य रखना योग्य है। इसप्रकार तत्त्वकी भावना से अपना भाव अशुद्ध नहीं होता है,
इसलिये जो दृष्टिगोचर पदार्थ हों उनमें इसप्रकार तत्त्वकी भावना रखना, यह तत्त्व की भावना
का उपदेश है।।११४।।
ताव ण पावइ जीवो श्ररमरणविवज्जियं ठाणं।। ११५।।
तावन्न प्राप्नोति जीवः जरामरणविवर्जितं स्थानम्।। ११५।।
परमेष्ठी का स्वरूप, उसका चिन्तन जब तक इस आत्माके न हो तब तक संसार से निवृत्त
होना नहीं है, इसलिये तत्त्वकी भावना और शुद्धस्वरूपके ध्यानका उपाय निरन्तर रखना यह
उपदेश है।। ११५।।
Page 230 of 394
PDF/HTML Page 254 of 418
single page version
परिणामादो बंधो मुक्खो जिणसासणे दिट्ठो।। ११६।।
परिणामाद्बंधः मोक्षः जिनशासने द्रष्टः।। ११६।।
अर्थः––पाप–पुण्य, बंध–मोक्ष का कारण परिणाम ही को कहा है। जीवके मिथ्यात्व,
विषय–कषाय, अशुभलेश्यारूप तीव्र परिणाम होते हैं, उनसे तो पापास्रवका बंध होता है।
परमेष्ठी की भक्ति, जीवों पर दया इत्यादिक मंदकषाय शुभलेश्यारूप परिणाम होते हैं, इससे
पुण्यास्रवका बंध होता है। शुद्धपरिणामरहित विभावरूप परिणाम से बंध होता है। शुद्धभावके
सन्मुख रहना, उसके अनुकूल शुभ परिणाम रखना, अशुभ परिणाम सर्वथा दूर करना, यह
उपदेश है।। ११६।।
बंधइ असुहं कम्मं जिणवयणपरम्मुहो जीवो।। ११७।।
बध्नति अशुभं कर्मं जिनवचनपराङ्मुखः जीवः।। ११७।।
अर्थः––मिथ्यात्व, कषाय, असंयम और योग जिनमें अशुभलेश्या पाई जाती है
इसप्रकारके भावोंसे यह जीव जिनवचनसे पराङमुख होता है––––अशुभकर्मको बाँधता है वह
पाप ही बाँधता है।
Page 231 of 394
PDF/HTML Page 255 of 418
single page version
ओर जीवोंकी विराधना सहित भाव है। ‘योग’ मन–वचन–कायके निमित्त से आत्मप्रदेशों का
चलना है। ये भाव जब तीव्र कषाय सहित कृष्ण, नील, कपोत अशुभ लेश्यारूप हों तब इस
जीव के पापकर्म का बंध होता है। पापबंध करनेवाला जीव कैसा है? उसके जिनवचन की
श्रद्धा नहीं है। इस विशेषण का आशय यह है कि अन्यमत के श्रद्धानी के जो कदाचित्
शुभलेश्या के निमित्त से पुण्यका भी बंध हो तो उसको पाप ही में गिनते हैं। जो जिनआज्ञा में
प्रवर्तता है उसके कदाचित् पाप भी बंधे तो वह पुण्य जीवों की ही पंक्ति में गिना जाता है,
मिथ्यादृष्टिको पापी जीवों में माना है और सम्यग्दृष्टिको पुण्यवान् जीवोंमें माना जाता है।
इसप्रकार पापबंधके कारण कहे।। ११७।।
दुविहपयारं बंधइ संखेपेणेव वज्जरियं।। ११८।।
द्विविधप्रकारं बध्नाति संक्षेपेणैव कथितम्।। ११८।।
अर्थः–– उस पूर्वोक्त जिनवचनका श्रद्धानी मिथ्यात्व रहित सम्यग्दृष्टि जीव शुभकर्मको
बाँधता है जिसने कि––––भावों में विशुद्धि प्राप्त है। ऐसे दोनों प्रकार के जीव शुभाशुभ कर्म
को बाँधते हैं, यह संक्षेप से जिनभगवान् ने कहा है।
है, क्योंकि इसके सम्यक्त्वके महात्म्यसे ऐसे उज्ज्वल भाव हैं जिनसे मिथ्यात्वके साथ बँधने
वाली पापप्रकृतियोंका अभाव है। कदाचित् किंचित् कोई पापप्रकृति बँधती है तो उसका अनुभाग
मंद होता है,
Page 232 of 394
PDF/HTML Page 256 of 418
single page version
–इसप्रकार शुभ–अशुभ कर्म के बंधका संक्षेप से विधान सर्वज्ञदेवने कहा है, वह जानना
चाहिये।। ११८।।
डहिऊण इण्हिं पयडमि अणंतणाणाइगुणचित्तां।। ११९।।
दग्ध्वा इदानीं प्रकटयामि अनन्तज्ञानादिगुण चेतनां।। ११९।।
अर्थः––हे मुनिवर! तू ऐसी भावना कर कि मैं ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से वेष्ठित हूँ,
इसलिये इनको भस्म करके अनन्तज्ञानादि गुण जिनस्वरूप चेतनाको प्रगट करूँ।
भावना करने का उपदेश है। कर्मों का अभाव शुद्धस्वरूप के ध्यान से होता है, उसी के करने
का उपदेश है।
केवलदर्शनावरण से अनन्तदर्शन आच्छादित है, मोहनीय से अनन्तसुख प्रगट नहीं होता है और
अंतराय से अनन्तवीर्य प्रगट नहीं होता है, इसलिये इनका नाश करो। चार अघाति कर्म हैं
इनसे अव्याबाध, अगुरुलघु, सूक्ष्मता और अवगाहना ये गुण
अघातिकर्मों का स्वयमेव अभाव हो जाता है, इसप्रकार जानना चाहिये।। ११६।।
Page 233 of 394
PDF/HTML Page 257 of 418
single page version
भावहि अणुदिणु णिहिलं असप्प लावेण किं बहुणा।। १२०।।
भावय अनुदिनं निखिलं असत्प्रलापेन किं बहुना।। १२०।।
अर्थः––शील अठारह हजार भेदरूप है और उत्तरगुण चौरासी लाख हैं। आचार्य कहते
हैं कि हे मुने! बहुत झूठे प्रलापरूप निरर्थक वचनोंसे क्या? इन शीलोंको और उत्तरगुणों को
सबको तू निरन्तर भा, इनकी भावना – चिन्तन – अभ्यास निरन्तर रख, जैसे इनकी प्राप्ति
हो वैसे ही कर।
चेतनापरिणाम है और विभावपरिणाम कर्म के निमित्त से हैं। ये प्रधानरूप से तो मोहकर्म के
निमित्त से हुए हैं। संक्षेप से मिथ्यात्व रागद्वेष हैं, इनके विस्तार से अनेक भेद हैं। अन्य कर्मों
के उदय से विभाव होते हैं उनमें पौरुष प्रधान नहीं हैं, इसलिये उपदेश–अपेक्षा वे गौण हैं;
इसप्रकार ये शील और उत्तरगुण स्वभाव–विभाव परिणति के भेद से भेदरूप करके कहे हैं।
कारित, अनुमोदना से न करना। इनको आपसमें गुणा करने से नौ भेेद होते हैं। आहार, भय,
मैथुन और परिग्रह ये चार संज्ञा हैं, इनसे परद्रव्य का संसर्ग होता है उसका न होना, ऐसे नौ
भेदोंका चार संज्ञाओं से गुणा करने पर छत्तीस होते हैं। पाँच इन्द्रियोंके निमित्त से विषयों का
संसर्ग होता है, उनकी प्रवृत्ति के अभाव रूप पाँच इन्द्रियों से छत्तीस को गुणा करने पर
एकसौ अस्सी होते हैं। पृथ्वी, अप, तेज, वायु, प्रत्येक, साधारण ये तो एकेन्द्रिय और दो
इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चौ इन्द्रिय, पंचेन्द्रिय ऐसे दश भेदरूप जीवोंका संसर्ग, इनकी हिंसारूप
प्रवर्तन से परिणाम विभावरूप होते हैं सो न करना, ऐसे एकसौ अस्सी भेदोंको दस से गुणा
करने पर अठारहसौ होते हैं।
Page 234 of 394
PDF/HTML Page 258 of 418
single page version
अभावरूप दसलक्षण धर्म है, उनसे गुणा करने से अठारह हजार होते हैं। ऐसे परद्रव्य के
संसर्गरूप कुशील के अभावरूप शीलके अठारह हजार भेद हैं। इनके पालने से परम ब्रह्मचर्य
होता है, ब्रह्म
अठारह होते हैं। पाँच इन्द्रियोंसे गुणा करने पर नब्बे होते हैं। द्रव्य–भावसे गुणा करने पर
एकसौ अस्सी होते हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों से गुणा करने पर सातसो
बीस होते हैं। चेतन स्त्री देवी, मनुष्यिणी, तिर्यंचणी ऐसे तीन, इन तीनों को मन, वचन,
कायसे गुणा करने पर नौ होते हैं। इनको कृत, कारित, अनुमोदना से गुणा करने पर सत्ताईस
होते हैं। इनको पाँच इन्द्रियों से गुणा करने पर एकसौ पैंतीस होते हैं। इनको द्रव्य और भाव
इन दो से गुणा करने पर दो सौ सत्तर होते हैं। इनको चार संज्ञासे गुणा करने पर एक
हजार अस्सी होते हैं। इनको अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन,
क्रोध, मान, माया, लोभ इन सोलह कषायोंसे गुणा करने पर सत्रह हजार दो सौ अस्सी होते
हैं। ऐसे अचेतन स्त्रीके सातसौ बीस मिलाने पर १अठारह हजार होते हैं। ऐसे स्त्रीके संसर्ग
संज्ञा है।
–––
Page 235 of 394
PDF/HTML Page 259 of 418
single page version
हिंसा, २ अनृत, ३ स्तेय, ४ मैथुन, ५ परिग्रह, ६ क्रोध, ७ मान, ८ माया, ९ लोभ, १०
भय, ११ जुगुप्सा, १२ अरति, १३ शोक, १४ मनोदुष्टत्व, १५ वचनदुष्टत्व, १६
कायदुष्टत्व, १७ मिथ्यात्व, १८ प्रमाद, १९ पैशून्य, २० अज्ञान, २१ इन्द्रियका अनुग्रह ऐसे
इक्कीस दोष हैं। इनको अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार इन चारों से गुणा करने पर
चौरासी होते हैं। पृथ्वी – अप् – तेज – वायु प्रत्येक साधारण ये स्थावर ऐकेन्द्रिय जीव छह
और विकल तीन, पंचेन्द्रिय एक ऐसे जीवोंके दस भेद, इनका परस्पर आरम्भ से घात होता है
इनको परस्पर गुणा करने पर सौ
नाम ये हैं १ स्त्रीसंसर्ग, २ पुष्टरसभोजन, ३ गंधमालयका ग्रहण, ४ सुन्दर शयनासनका ग्रहण,
५ भूषणका मंडन, गीतवादित्रका प्रसंग, ७ धनका संप्रयोजन, ८ कुशीलका संसर्ग, ९
राजसेवा, १० रात्रिसंचरण ये ‘शील – विराधना’ है। इनके आलोचना के दस दोष हैं––
गुरुओं के पास लगे हुए दोषोंकी आलोचना करे सो सरल होकर न करे कुछ शल्य रखें,
उसके दस भेद किये हैं, इनके गुणा करने पर आठ लाख चालीस हजार होते हैं। आलोचना
को आदि देकर प्रायश्चित्तके दस भेद हैं इनसे गुणा करने पर चौरासी लाख होते हैं। सो सब
दोषोंके भेद हैं, इनके अभाव से गुण होते हैं। इनकी भावना रखें, चिन्तन और अभ्यास रखें,
इनकी सम्पूर्ण प्राप्ति होने का उपाय रखें; इसप्रकार इसकी भावना का उपदेश है।
इतना और जानना कि गुणस्थान चौदह कहें हैं, उस परिपाटीसे गुण दोषों का विचार है।
मिथ्यात्व सासादन मिश्र इन तीनोंमें से तो विभाव परिणति ही है, इनमें तो गुण का विचार ही
नहीं है। अविरत, देशविरत आदिमें शीलगुणका ऐकदेश आता है। अविरतमें मिथ्यात्व
अनन्तानुबन्धी कषाय के अभावरूप गुणका एकदेश सम्यक्त्व और तीव्र रागद्वेषका अभावरूप गुण
आता है और देशविरत में कुछ व्रतका एकदेश आता है। प्रमत्तमें महाव्रत सामायिक चारित्र का
एकदेश आता है क्योंकि पापसंबन्धी रागद्वेष तो वहाँ नहीं है, परन्तु धर्मसंबन्धी राग है और
‘सामायिक’ रागद्वेष के अभाव का नाम है, इसलिये सामायिक का एकदेश ही कहा है। यहाँ
स्वरूपके संमुख होनेमें क्रियाकांडके सम्बन्ध से प्रमाद है, इसलिये ‘प्रमत्त’ नाम दिया है।
Page 236 of 394
PDF/HTML Page 260 of 418
single page version
इसलिये यहाँ भी सामायिक का एकदेश ही कहा है। अपूर्वकरण–अनिवृत्तिकरण में राग व्यक्त
नहीं है, अव्यक्तकषायका सद्भाव है, इसलिये सामायिक चारित्र की पूर्णता कही।
सूक्ष्मसांपरायमें अव्यक्त कषाय भी सूक्ष्म रह गई, इसलिये इसका नाम ‘सूक्ष्मसांपराय’ रखा।
उपशांतमोह क्षीणमोहमें कषायका अभाव ही है, इसलिये जैसा आत्माका मोह विकाररहित शुद्धि
स्वरूप था उसका अनुभव हुआ, इसलिये ‘यथाख्यातचरित्र’ नाम रखा। ऐसे मोहकर्मके
अभावकी अपेक्षा तो यहाँ ही उत्तर गुणोंकी पूर्णता कही जाती है, परन्तु आत्माका स्वरूप
अनन्तज्ञानादि स्वरूप है सो घातिकर्मके नाश होने पर आनन्तज्ञानादि प्रगट होते हैं तब
‘सयोगकेवली’ कहते हैं। इसमें भी कुछ योगोंकी प्रवृत्ति है, इसलिये ‘अयोगकेवली’ चौदहवाँ
गुणस्थान है। इसमें योगों की प्रवृत्ति मिट कर आत्मा अवस्थित हो जाती है तब चौरासी लाख
उत्तरगुणोंकी पूर्णता कही जाती है। ऐसे गुणस्थानोंकी अपेक्षा उत्तरगुणोंकी प्रवृत्ति विचारने योग्य
है। ये बाह्य अपेक्षा भेद हैं, अंतरंग अपेक्षा विचार करें तो संख्यात, असंख्यात, अनन्तभेद होते
हैं, इसप्रकार जानना चाहिये।। १२०।।
रुद्दट्ट झाइयाइं इमेण जीवेण चिरकालं।। १२१।।
रौद्रार्त्ते ध्याते अनेन जीवेन चिरकालम्।। १२१।।
अर्थः–– हे मुनि! तू आर्त्त – रौद्र ध्यानको छोड़ और धर्म – शुक्लध्यान है उन्हें ही
कर, क्योंकि रौद्र और आर्त्तध्यान तो इस जीवने अनादिकालसे बहुत समय तक किये हैं।