Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 67-98 (Bhav Pahud).

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भावपाहुड][१९७
द्रव्येण सकला नग्नाः नारकतिर्यंचश्च सकलसंघाताः।
परिणामेन अशुद्धाः न भावश्रमणत्वं प्राप्ताः।। ६७।।

अर्थः
––द्रव्यसे बाह्यमें तो सब प्राणी नग्न होते हैं। नारकी जीव और तिर्यंच जीव तो
निरन्तर वस्त्रादिसे रहित नग्न ही रहते हैं। ‘सकलसंघात’ कहनेसे अन्य मनुष्य आदि भी
कारण पाकर नग्न होते हैं तो भी परिणामोंसे अशुद्ध हैं, इसलिये भावश्रमणपनेको प्राप्त नहीं
हुए।

भावार्थः––यदि नग्न रहनेसे ही मुनिलिंग हो तो नारकी तिर्यंच आदि सब जीवसमूह
नग्न रहते हैं वे सब ही मुनि ठहरे, इसलिये मुनिपना तो भाव शुद्ध होनेपर ही होता है। अशुद्ध
भाव होने पर द्रव्य से नग्न भी हो तो भावमुनिपना नहीं पाता है।। ६७।।

आगे इसी अर्थको दृढ़ करनेके लिये केवल नग्नपने की निष्फलता दिखाते हैंः––
णग्गो पावइ दुक्खं णग्गो संसारसायरे भमइ।
णग्गो ण लभते बोहिं जिणभावणवज्जिओ सूदूरं।। ६८।।
नग्नः प्राप्नोति दुःखं नग्नः संसारसागरे भ्रमति।
नग्नः न लभते बोधिं जिनभावनावर्जितः सुचिरं।। ६८।।

अर्थः
––नग्न सदा दुःख पाता है, नग्न सदा संसार–समुद्रमें भ्रमण करता है और नग्न
बोधि अर्थात् सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप स्वानुभवको नहीं पाता है, कैसा है वह नग्न––––
जो जिनभावनासे रहित है।

भावार्थः––‘जिनभावना’ जो सम्यग्दर्शन – भावना उससे रहित जो जीव है वह नग्न
भी रहे तो बोधि जो सम्यग्दर्शन – ज्ञान –चारित्रस्वरूप मोक्षमार्गको नहीं पाता है। इसलिये
संसारसमुद्रमें भ्रमण करता हुआ संसारमें ही दुःखको पाता है तथा वर्तमानमें भी जो पुरुष नग्न
होता है वह दुःखही को पाता है। सुख तो भावमुनि नग्न हों वे ही पाते हैं।। ६८।।

आगे इसी अर्थको दृढ़ करने के लिये कहते हैं–––जो द्रव्यनग्न होकर मुनि कहलावे
उसका अपयश होता हैः–––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
ते नग्न पामे दुःखने, ते नग्न चिर भवमां भमे,
ते नग्न बोधि लहे नहीं, जिनभावना नहि जेहने। ६८।

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१९८] [अष्टपाहुड
अयसाण भायणेण य किं ते णग्गेण पावमलिणेण।
पेसुण्णहासमच्छरमायाबहुलेण सवणेण।। ६९।।
अयशसां भाजनेन च किं ते नग्नेन पापमलिनेन।
पैशून्यहास मत्सरमायाबहुलेन श्रमणेन।। ६९।।

अर्थः
––हे मुने! तेरे ऐसे नग्नपने से तथा मुनिपनेसे क्या साध्य है? कैसा है––पैशून्य
अर्थात् दूसरे का दोष कहनेका स्वभाव, हास्य अर्थात् दूसरेकी हँसी करना, मत्सर अर्थात् अपने
बराबरवालेसे ईर्ष्या रखकर दूसरेको नीचा करनेकी बुद्धि, माया अर्थात् कुटिल परिणाम, ये भाव
उसमें प्रचुरता से पाये जाते हैं, इसलिये पापसे मलिन है और अयश अर्थात् अपकीर्तिका भाजन
है।

भावार्थः––पैशून्य आदि पापोंसे मलिन इसप्रकार नग्नस्वरूप मुनिपने से क्या साध्य है?
उलटा अपकीर्तिका भाजन होकर व्यवहारधर्मकी हँसी करानेवाला होता है, इसलिये भावलिंगी
होना योग्य है।। ६९।।

आगे इसप्रकार भावलिंगी होनेका उपदेश करते हैंः–––
पयडहिं जिणवरलिंगं अब्भिंतरभावदोसपरिसुद्धो।
भावमलेण य जीवो बाहिरसंगम्मि मयलियइ।। ७०।।
प्रकट्य जिनवरलिंगं अभ्यन्तरभावदोषपरिशुद्धः।
भावमलेन च जीवः बाह्यसंगे मलिनयति।। ७०।।

अर्थः
––हे आत्मन् तू अभ्यन्तर भावदोषोंसे अत्यन्त शुद्ध ऐसा जिनवर लिंग अर्थात् बाह्य
निर्गन्थ लिंग प्रगट कर, भावशुद्धिके बिना द्रव्यलिंग बिगड़ जायेगा, क्योंकि भावमलिन जीव
बाह्य परिग्रह में मलिन होता है।

भावार्थः––यदि भाव शुद्धकर द्रव्यलिंग धारणकरे तो भ्रष्ट न हो और भाव मलिन
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
शुं साध्य तारे अयशभाजन पापयुत नग्नत्वथी,
–बहु हास्य–मत्सर–पिशुनता–मायाभर्या श्रमणत्वथी? ६९।

थई शुद्ध आंतर–भाव मळविण, प्रगट कर जिनलिंगने;
जी भावमळथी मलिन बाहिर–संगमां मलिनित बने। ७०।

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भावपाहुड][१९९
होंतो बाह्य परिग्रहकी संगति द्रव्यलिंग भी बिगाड़े, इसलिये प्रधानरूपसे भावलिंगहीका उपदेश
है, विशुद्ध भावोंके बिना बाह्यभेष धारण करना योग्य नहीं है।। ७०।।

आगे कहते हैं कि जो भावरहित नग्न मुनि है वह हास्यका स्थान हैः––
धम्मम्मि णिप्पवासो दोसावासो य उच्छुफुल्लसमो।
णिप्फलणिग्गुणयारो णडसवणो णग्गरूवेण।। ७१।।
धर्मे निप्रवासः दोषावासः च इक्षुपुष्पसमः।
निष्फलनिर्गुणकारः नटश्रमणः नग्नरूपेण।। ७१।।

अर्थः
––धर्म अर्थात् अपना स्वभाव तथा दसलक्षणस्वरूपमें जिसका वास नहीं है वह
जीव दोषोंका आवास है अथवा जिसमें दोष रहते हैं वह इक्षुके फूल समान हैं, जिसके न तो
कुछ फल ही लगते हैं और न उनमें गंधादिक गुण ही पाये जाते हैं। इसलिये ऐसा मुनि तो
नग्नरूप करके नटश्रमण अर्थात् नाचने वाले भाँड़के स्वांग के समान हैं।
भावार्थः––जिसके धर्मकी वासना नहीं है उसमें क्रोधादिक दोष ही रहते हैं। यदि वह
दिगम्बर रूप धारण करे तो वह मुनि इक्षुके फूल के समान निर्गुण और निष्फल है, ऐसे मुनिके
मोक्षरूप फल नहीं लगते हैं। सम्यग्ज्ञानादि गुण जिसमें नहीं हैं वह नग्न होने पर भाँड़ जैसा
स्वांग दीखता है। भाँड़ भी नाचे तब श्रृङ्गारादिक करके नाचे तो शोभा पावे, नग्न होकर नाचे
तब हास्य को पावे, वैसे ही केवल द्रव्यनग्न हास्यका स्थान है।। ७१।।

आगे इसी अर्थके समर्थनरूप कहते हैं कि–––––द्रव्यलिंगी बोधि–समाधि जैसी
जिनमार्गमें कही है वैसी नहीं पाता हैः––––
जे रायसंगजुत्ता जिणभावणरहियदव्वणिग्गंथा।
ण लहंति ते समाहिं बोहिं जिणसासणे विमले।। ७२।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ ‘उच्छु’ पाठान्तर ‘इच्छु’
नग्नत्वधर पण धर्ममां नहि वास, दोषावास छे,
ते ईक्षुफूलसमान निष्फळ–निर्गुणी, नटश्रमण छे। ७१।

जे रागयुत जिनभावनाविरहित–दरवनिर्ग्रंथ छे,
पामे न बोधि–समाधिने ते विमळ जिनशासन विषे। ७२।

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२००] [अष्टपाहुड
ये रागसंगयुक्ताः जिनभावनारहितद्रव्यनिर्ग्रंथाः।
न लभंते ते समाधिं बोधिं जिनशासने विमले।। ७२।।

अर्थः
––जो मुनि राग अर्थात् अभ्यंतर परद्रव्यसे प्रीति, वही हुआ संग अर्थात् परिग्रह
उससे युक्त हैं और जिनभावना अर्थात् शुद्धस्वरूपकी भावनासे रहित हैं वे द्रव्यनिर्ग्रंथ हैं तो भी
निर्मल जिनशासन में जो समाधि अर्थात् धर्म–शुक्लध्यान और बोधि अर्थात् सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्रस्वरूप मोक्षमार्ग को नहीं पाते।

भावार्थः––द्रव्यलिंगी अभ्यन्तरका राग नहीं छोड़ता है, परमात्माका ध्यान नहीं करता है,
तब कैसे मोक्षमार्ग पावे तथा कैसे समाधिमरण पावे।। ७२।।

आगे कहते हैं कि पहिले मिथ्यात्व आदिक दोष छोड़कर भावसे नग्न हो, पीछे द्रव्यमुनि
बने यह मार्ग हैः––––
भावेण होइ णग्गो मिच्छत्ताई य दोस चइऊणं।
पच्छा दव्वेण मुणी पयडदि लिंगं जिणाणाए।। ७३।।
भावेन भवति नग्नः मिथ्यात्वादीन् च दोषान् त्यक्त्वा।
पश्चात् द्रव्येणमुनिः प्रकट्यति लिंगं जिनाज्ञया।। ७३।।

अर्थः
––पहिले मिथ्यात्व आदि दोषोंको छोड़कर और भावसे अंतरंग नग्न हो, एकरूप
शुद्धात्माका श्रद्धान – ज्ञान – आचरण करे, पीछे मुनि द्रव्यसे बाह्यलिंग जिन–आज्ञासे प्रकट
करे, यह मार्ग है।

भावार्थः––भाव शुद्ध हुए बिना पहिले ही दिगमबररूप धारण करले तो पीछे भाव बिगडे़
तब भ्रष्ट हो जाय और भ्रष्ट होकर भी मुनि कहलाता रहे तो मार्गकी हँसी करावे, इसलिये
जिन आज्ञा यही है कि भाव शुद्ध करके बाह्य मुनिपना प्रकट करो।।७३।।

आगे कहते हैं कि शुद्ध भाव ही स्वर्ग – मोक्षका कारण है, मलिनभाव संसार का कारण
हैः–––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
मिथ्यात्व आदिक दोष छोडी नग्न भाव थकी बने,
पछी द्रव्यथी मुनिलिंग धारे जीव जिन–आज्ञा वडे। ७३।

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भावपाहुड][२०१
भावो वि दिव्वसिवसुक्खभायणो भाववज्जिओ सवणो।
कम्ममलमलिणचित्तो तिरियालयभायणो पावो।। ७४।।
भावः अपि दिव्यशिवसोख्यभाजनं भाववर्जितः श्रमणः।
कर्ममलमलिनचित्तः तिर्यंगालयभाजनं पापः।। ७४।।

अर्थः
––भाव ही स्वर्ग – मोक्षका कारण है, और भाव रहित श्रमण पापस्वरूप है,
तिर्यंचगतिका स्थान है तथा कर्ममलसे मलिन चित्तवाला है।

भावार्थः––भावसे शुद्ध है वह तो स्वर्ग–मोक्षका पात्र है और भावेस मलिन है वह
तिर्यंचगतिमें निवास करता है।। ७४।।

आगे फिर भावके फलका माहात्म्य कहते हैंः–––
खयरामरमणुयकरंजलिमालाहिं च संथुया विउला।
चक्कहररायलच्छी लब्भइ बोही सुभावेण।। ७५।।
खचरामरमनुज करांजलिमालाभिश्व संस्तुता विपुला।
चक्रधरराजलक्ष्मीः लभ्यते बोधिः सुभावेन।। ७५।।

अर्थः
––सुभाव अर्थात् भले भावसे, मंदकषायरूप विशुद्धभावसे, चक्रवर्ती आदि
राजाओंकी विपुल अर्थात् बड़ी लक्ष्मी पाता है। कैसी है–––खचर
(विद्याधर), अमर (देव)
और मनुज (मनुष्य) इनकी अंजुलिमाला (हाथोंकी अंजुलि) की पंक्तिसे संस्तुत
(नमस्कारपूर्वक स्तुति करने योग्य) है और यह केवल लक्ष्मी ही नहीं पाता है, किन्तु बोधि
(रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग) पाता है।

भावार्थः––विशुद्ध भावोंका यह माहात्म्य है।। ७५।।

आगे भावोंके भेद कहते हैंः–––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
छे भाव दिवशिवसौख्यभाजन; भाववर्जित श्रमण जे
पापी करममळमलिनमन, तिर्यंचगतिनुं पात्र छे। ७४।
नर अमर–विद्याधर वडे संस्तुत करांजलिपंक्तिथी
चक्री–विशाळविभूति बोधि प्राप्त थाय सुभावथी। ७५।

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२०२] [अष्टपाहुड
भावं तिविहपयारं सुहासुहं सुद्धमेव णायव्वं।
असुहं च अट्टरउद्दं सुह धम्मं जिणवरिंदेहिं।। ७६।।
भावः त्रिविधप्रकारः शुभोऽशुभः शुद्ध एव ज्ञातव्यः।
अशुभश्च आर्त्तरौद्रं शुभः धर्म्यं जिनवरेन्द्रैः।। ७६।।

अर्थः
––जिनवरदेवने भाव तीन प्रकारका कहा है––––१ शुभ, २ अशुभ और ३ शुद्ध।
आर्त्त और रौद्र ये अशुभ ध्यान है तथा धर्मध्यान शुभ है।। ७६।।
सुद्धं सुद्धसहावं अप्पा अप्पम्मि तं च णायव्वं।
इदि जिणवरेहिं भणियं जं सेयं तं समायरह।। ७७।।
शुद्धः शुद्धस्वभावः आत्मा आत्मनि सः च ज्ञातव्यः।
इति जिनवरैः भणितं यः श्रेयान् तं समाचर।। ७७।।

अर्थः
––शुद्ध है वह अपना शुद्धस्वभाव अपने ही में इसप्रकार जिनवरदेवने कहा है, वह
जानकर इनमें जो कल्याणरूप हो उसको अंगीकार करो।

भावार्थः––भगवानने भाव तीन प्रकारके कहे हैं–––१ शुभ, २ अशुभ और ३ शुद्ध।
अशुभ तो आर्त्त व रोद्र ध्यान है वे तो अति मलिन हैं, त्याज्य ही हैं। धर्मध्यान शुभ है,
इसप्रकार यह कथंचित् उपादेय है इससे मंदकषायरूप विशुद्धि भावकी प्राप्ति है। शुद्ध भाव है
वह सर्वथा उपादेय है क्योंकि यह आत्मा का स्वरूप ही है। इसप्रकार हेय जानकर त्याग और
ग्रहण करना चाहिये, इसीलिये ऐसा कहा है कि जो कल्याणकारी हो वह अंगीकार करना यह
जिनदेवका उपदेश है।। ७७।।

आगे कहते हैं कि जिनशासनका इसप्रकार माहात्म्य हैः–––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
शुभ, अशुभ तेमज शुद्ध–त्रण विध भाव जिनप्रज्ञप्त छे;
त्यां ‘अशुभ’
आरत–रौद्र ने ‘शुभ’ धर्म्य छे–भाख्युं जिने। ७६।

आत्मा विशुद्ध स्वभाव आत्म महीं रहे ते ‘शुद्ध’ छे;
–आ जिनवरे भाखेल छे; जे श्रेय, आचर तेहने। ७७।

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भावपाहुड][२०३
पयलियमाणकसाओ पयलियमिच्छत्त मोहसमचित्तो।
पावइ तिहुवणसारं बोही जिणसासणे जीवो।। ७८।।
प्रगलितमानकषायः प्रगलितमिथ्यात्वमोहसमचित्तः।
आप्नोति त्रिभुवनसारं बोधिं जिनशासने जीवः।। ७८।।

अर्थः
––यह जीव ‘प्रगलितमानकषाय’ अर्थात् जिसका मानकषाय प्रकर्षतासे गल गया
है, किसी परद्रव्यसे अहंकाररूप गर्व नहीं करता है और जिसके मिथ्यात्वका उदयरूप मोह भी
नष्ट हो गया है इसीलिये ‘समचित्त’ है, परद्रव्यमें ममकाररूप मिथ्यात्व और इष्ट–अनिष्ट
बुद्धिरूप राग–द्वेष जिसके नहीं है, वह जिनशासनमें तीन भुवनमें सार ऐसी बोधि अर्थात्
रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग को पाता है।

भावार्थः––मिथ्यात्वभाव और कषायभाव का स्वरूप अन्य मतों में यथार्थ नहीं है। यह
कथन इस वीतरागरूप जिनमत में ही है, इसलिये यह जीव मिथ्यात्व कषाय के अभावरूप
मोक्षमार्ग तीनलोक में सार जिनमत के सेवन ही से पाता है, अन्यत्र नहीं है।

आगे कहते हैं कि जिनशासनमें ऐसा मुनि ही तीर्थंकर–प्रकृति बाँधता हैः–––
विसयविरत्तो समणो छद्दसवरकारणाइं भाऊण।
तित्थयरणामकम्मं बंधइ अइरेण कालेण।। ७९।।
विसयविरक्तः श्रमणः षोडशवरकारणानि भावयित्वा।
तीर्थंकरनामकर्म, बध्नाति अचिरेण कालेन।। ७९।।

अर्थः
––जिसका चित्त इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त है ऐसा श्रमण अर्थात् मुनि है यह
सोलहकारण भावनाको भाकर ‘तीर्थंकर’ नाम प्रकृतिको थोड़े ही समयमें बाँध लेता है।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
छे मलितमानकषाय, मोह विनष्ट थई समचित्त छे,
ते जीव त्रिभुवनसार बोधि लहे जिनेश्वरशासने। ७८।

विषये विरत मुनि सोळ उत्तम कारणोने भावीने,
बांधे अचिर काळे करम तीर्थंकरत्व–सुनामने। ७९।

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२०४] [अष्टपाहुड
भावार्थः––यह भावक महात्म्य हे, [सर्वज्ञ वीतराग कथित तत्वज्ञान सहित–स्वसन्मुखता
सहित] विषयोंसे विरक्तभाव होकर सोलहकारण भावनाभावे तो अचिंत्य है महिमा जिसकी ऐसी
तीनलोकसे पूज्य ‘तीर्थंकर’ नाम प्रकृतिको बाँधता है और उसको भोगकर मोक्षको प्राप्त होता
है। ये सोलहकारण भावनाके नाम हैं, १– दर्शनविशुद्धि, २– विनयसंपन्नता, ३–
शीलव्रतेष्वनतिचार, ४– अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, ५– संवेग, ६– शक्तितस्त्याग, ७– शक्तितस्तप,
८–साधुसमाधि, ९– वैयावृत्त्यकरण, १०– अर्हद्भक्ति, ११– आचार्यभक्ति, १२– बहुश्रुतभक्ति,
१३– प्रवचनभक्ति, १४– आवश्यकापरिहाणि, १५– सन्मार्गप्रभावना, १६– प्रवचनवात्सल्य,
इसप्रकार सोलहकारण भावना हैं। इनका स्वरूप तत्त्वार्थसूत्रकी टीकासे जानिये। इनमें
सम्यग्दर्शन प्रधान है, यह न हो और पन्द्रह भावनाका व्यवहार हो तो कार्यकारी नहीं और यह
हो तो पन्द्रह भावना का कार्य यही कर ले, इसप्रकार जानना चाहिये।। ७९।।

आगे भावकी विशुद्धता निमित्त आचरण कहते हैंः–––
बारसविहतवयरणं तेरसकिरियाउ भाव तिविहेण।
धरहि मणमत्तदुरियं णाणंकुसएण मुणिपवर।। ८०।।
द्वादशविधतपश्चरणं त्रयोदश क्रियाः भावय त्रिविधेन।
धर मनोमत्तदुरितं ज्ञानांकुशेन मुनिप्रवर!।। ८०।।

अर्थः
––हे मुनिवर! मुनियोंमें श्रेष्ठ! तू बारह प्रकार के तपका आचरण कर और तेरह
प्रकार की क्रिया मन–वचन–कायसे भा और ज्ञानरूप अंकुशसे मनरूप मतवाले हाथीको अपने
वश में रख।

भावार्थः––यह मनरूप हाथी बहुत मदोन्मत है, वह तपश्चरण क्रियादिकसहित ज्ञानरूप
अंकुश ही से वश में होता है, इसलिये यह उपदेश देते हैं, अन्यप्रकारसे वशमें नहीं होता है।
ये बारह तपों के नाम हैं १– अनशन, २– अवमौदर्य, ३– वृत्तिपरिसंख्यान, ४– रसपरित्याग,
५–विविक्तशय्यासन, ६– कायक्लेश ये तो छह प्रकार के बाह्य तप हैं, और १– प्रायश्चित, २–
विनय, ३– वैयावृत्त, ४–स्वाध्याय ५–व्युत्सर्ग ६– ध्यान ये छह प्रकार के अभ्यंतर तप हैं,
इनका स्वरूप तत्त्वार्थसूत्रकी टीकासे जानना चाहिये।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
तुं भाव बार–प्रकार तप ने तेर किरिया त्रणविधे,
वश राख मन–गज मत्तने मुनिप्रवर! ज्ञानांकुश वडे। ८०।

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भावपाहुड][२०५
तेरह क्रिया इसप्रकार हैं–––पँच परमेष्ठी को नमस्कार ये पाँच क्रिया, छह आवश्यक क्रिया,
निषिधिक्रिया और आसिकाक्रिया। इसप्रकार भाव शुद्ध होनेके कारण कहे।।८०।।

आगे द्रव्य – भावरूप सामान्यरूपसे जिनलिंगका स्वरूप कहते हैंः–––
पंचविहचेलचायं खिदिसयण दुविहसंजमं भिक्खू।
भावं भावियपुव्वं जिणलिंगं णिम्मलं सुद्धं।। ८१।।
पंचविधचेलत्यागं क्षितिशयनं द्विविध संयमं भिक्षु।
भावभावयित्वा पूर्वं जिनलिंगं निर्मलं शुद्धम्।। ८१।।

अर्थः
––निर्मल शुद्ध जिनलिंग इसप्रकार है––––जहाँ पाँच प्रकार के वस्त्र का त्याग
है, भूमि पर शयन है, दो प्रकार का संयम है, भिक्षा भोजन है, भावितपूर्व अर्थात् पहिले शुद्ध
आत्मा का स्वरूप परद्रव्य से भिन्न सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रमयी हुआ, उसे बारम्बार भावना से
अनुभव किया इसप्रकार जिसमें भाव है, ऐसा निर्मल अर्थात् बाह्यमलरहित शुद्ध अर्थात्
अन्तर्मलरहित जिनलिंग है।

भावार्थः––यहाँ लिंग द्रव्य–भावसे दो प्रकारका है। द्रव्य तो बाह्य त्याग अपेक्षा है
जिसमें पाँच प्रकारके वस्त्रका त्याग है, वे पाँच प्रकार ऐसे हैं––––१– अंडज अर्थात् रेशम से
बना, २– बोंडुज अर्थात् कपास से बना, ३– रोमज अर्थात् ऊन से बना, ४– बल्कलज अर्थात्
वृक्ष की छाल से बना, ५– चर्मज अर्थात् मृग आदिकके चर्मसे बना, इसप्रकार पाँच प्रकार
कहे। इसप्रकार नहीं जानना कि इनके सिवाय और वस्त्र ग्राह्य हैं – ये तो उपलक्षण मात्र कहें
हैं, इसलिये सबही वस्त्रमात्र का त्याग जानना।

भूमि पर सोना, बैठना इसमें काष्ठ – तृण भी गिन लेना। इन्द्रिय और मन को वश में
करना, छहकाय जीवोंकी रक्षा करना–––इसप्रकार दो प्रकारका संयम है।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ निषिधिका–––जिनमंदिर में प्रवेश करते ही गृहस्थ या व्यंतरादिदेव कोई उपसिथत है–––ऐसा मानकर आज्ञार्थ ‘निःसही’ शब्द
तीन बार बोलने में आता है, अथवा सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रमें स्थिर रहना ‘निःसही’ है।
२ धर्मस्थान से बाहर निकलते समय विनयसह त्रियादि की आज्ञा मांगने के अर्थ में ‘आसिका’ शब्द बोले, अथवा पापक्रिया से
मनमोड़ना ‘आसिका’ है।
भूशयन, भिक्षा, द्विविध संयम, पंचविध–पटत्याग छे,
छे भाव भावित पूर्व, ते जिनलिंग निर्मळ शुद्ध छे। ८१।

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२०६] [अष्टपाहुड
भिक्षा–भोजन करना जिसमें कृत, कारित, अनुमोदना का दोष न लगे – छयालिस दोष टले,
–बत्तीस अंतराय टले ऐसी विधिके अनुसार आहार करे। इसप्रकार तो बाह्यलिंग है और पहिले
कहा वैसे हो व ‘भावलिंग’ है, इसप्रकार दो प्रकारका शुद्ध जिनलिंग कहा है, अन्य प्रकार
श्वेताम्बरादिक कहते हैह वह जिनलिंग नहीं है।। ८१।।

आगे जिनधर्म की महिमा कहते हैंः––––
जह रयणाणं पवरं वज्जं जह तरुगणाण गोसीरं।
तह धम्माणं पवरं जिणधम्मं भाविभवमहणं।। ८२।।
यथा रत्नानां प्रवरं वज्रं यथा तरुगणानां गोशीरम्।
तथा धर्माणां प्रवरं जिनधर्मं भाविभवमथनम्।। ८२।।

अर्थः
––जैसे रत्नों में प्रवर
(श्रेष्ठ) उत्तम वज्र (हीरा) है और जैसे तरुगण (बड़े वृक्ष)
में गोसीर (बावन चन्दन) है, वैसे ही धर्मोंमें उत्तम भाविभवमथन (आगामी संसार का मथन
करने वाला) जिनधर्म है, इससे मोक्ष होता है।

भावार्थः––‘धर्म’ ऐसा सामान्य नाम तो लोक में प्रसिद्ध है और लोक अनेक प्रकार से
क्रियाकांडादिकको धर्म जानकर सेवन करता है, परन्तु परीक्षा करने पर मोक्षकी प्राप्ति
करानेवाला जिनधर्म ही है, अन्य सब संसार के कारण है। वे क्रियाकांडादिक संसार ही में
रखते हैं , कदाचित् संसार के भोगोंकी प्राप्ति कराते हैं तो भी फिर भोगों में लीन होता है,
तब एकेन्द्रियादि पर्याय पाता है तथा नरक को पाता है। ऐसे अन्य धर्म नाममात्र हैं, इसलिये
उत्तम जिनधर्म ही जानना।। ८२।।

आगे शिष्य पूछता है कि जिनधर्म को उत्तम कहा, तो धर्मका क्या स्वरूप है? उसका
स्वरूप कहते हैं कि ‘धर्म’ इसप्रकार हैः–––––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
रत्नो विषे ज्यम श्रेष्ठ हीरक, तरूगणे गोशीर्ष छे,
जिनधर्म भाविभवमथन त्यम श्रेष्ठ छे धर्मो विषे। ८२।

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भावपाहुड][२०७
पूयादिसु वयसहियं पुण्णं हि जिणेहिं सासणे भणियं।
मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो।। ८३।।
पूजादिषु व्रतसहितं पुण्यं हि जिनैः शासने भणितम्।
मोहक्षोभविहीनः परिणामः आत्मनः धर्मः।। ८३।।

अर्थः
––जिनशासन में जिनेन्द्र देवने इसप्रकार कहा है कि–––पूजा आदिक में और
व्रत सहित होना है वह तो ‘पुण्य’ ही है तथा मोह के क्षोभ से रहित जो आत्माका परिणाम
वह ‘धर्म’ है।

भावार्थः––लौकिक जन तथा अन्यमती कई कहते हैं कि पूजा आदिक शुभ क्रियाओं में
और व्रतक्रिया सहित है वह जिनधर्म है, परन्तु ऐसा नहीं है। जिनमत में जिनभगवान ने
इसप्रकार कहा है कि ––– पूजादिक में और व्रत सहित होना है वह तो ‘पुण्य’ है, इसमें
पूजा और आदि शब्द से भक्ति, वंदना, वैयावृत्य आदिक समझना, यह तो देव – गुरु –
शास्त्र के लिये होता है ओर उपवास आदिक व्रत हैं वह शुभ क्रिया है, इनमें आत्मा का राग
सहित शुभ परिणाम है उससे पुण्यकर्म होता है इसलिये इनको पुण्य कहते हैं। इसका फल
स्वर्गादिक भोगों की प्राप्ति है।

मोहके क्षोभसे रहित आत्माके परिणाम धर्म समझिये। मिथ्यात्व तो अतत्त्वार्थ श्रद्धान है,
क्रोध – मान – अरति – शोक – भय – जुगुप्सा ये छह द्वेषप्रकृति हैं और माया, लोभ,
हास्य, रति ये चार तथा पुरुष, सत्री, नपुंसक ये तीन विकार, ऐसी सात प्रकृति रागरूप हैं।
इनके निमित्त से आत्मा का ज्ञान–दर्शनस्वभाव विकारसहित, क्षोभरूप चलाचल, व्याकुल होता
है इसलिये इन विकारों से रहित हो तब शुद्धदर्शनज्ञानरूप निश्चय हो वह आत्मा का ‘धर्म’
है। इस धर्म से आत्माके आगामी कर्म का आस्रव रुककर संवर होता है और पहिले बँधे हुए
कर्मों की निर्जरा होती है। संपूर्ण निर्जरा हो जाय तब मोक्ष होता है तथा एकदेश मोह के क्षोभ
की हानि होती है इसलिये शुभ परिणामोंको भी उपचार से धर्म कहते हैं और जो केवल शुभ
परिणाम ही को धर्म मानकर संतुष्ट हैं उनकी धर्मकी प्राप्ति नहीं है, यह जिनमतका उपदेश
है।। ८३।।

आगे कहते हैं कि जो ‘पुण्य’ ही को ‘धर्म’ जानकर श्रद्धान करता है उसके केवल
भोग का निमित्त है, कर्मक्षय का निमित्त नहीं हैः–––––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
पूजादिमां व्रतमां जिनोए पुण्य भाख्युं शासने;
छे धर्म भाख्यो मोहक्षोभविहीन निज परिणामने। ८३।

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२०८] [अष्टपाहुड
सद्दहृदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो वि फासेदि।
पुण्णं भोयणिमित्तं ण हु सो कम्मक्खयणिमित्तं।। ८४।।
श्रद्धाति च प्रत्येति च रोचते च तथा पुनरपि स्पृशति।
पुण्यं भोगनिमित्तं न हि तत् कर्मक्षयनिमित्तम्।। ८४।।

अर्थः
––जो पुरुष पुण्य को धर्म जानकर धद्धान करते हैं, प्रतीत करते हैं, रूचि करते
हैं और स्पर्श करते हैं उनके ‘पुण्य’ भोगका निमित्त है। इससे स्वर्गादिक भोग पाता है और
वह पुण्य कर्म के क्षय का निमित्त नहीं होता है, यह पगट जानना चाहिये।

भावार्थः––शुभ क्रियारूप पुण्यको धर्म जानकर इसका श्रद्धान, ज्ञान, आचरण करता है
उसके पुण्य कर्मका बंध होता है, उससे स्वर्गादिके भोगोंकी प्राप्ति होती है और उससे कर्मका
क्षय रूप संवर, निर्जरा, मोक्ष नहीं होता है।। ८४।।

आगे कहते हैं कि ––– जो आत्मा का स्वभावरूप धर्म है वह ही मोक्षका कारण है
ऐसा नियम हैः––––
अप्पा अप्पम्मि रओ रायादिसु सयलदोसपरिचत्तो।
संसारतरणहेदू धम्मो त्ति जिणेहिं णिद्दिट्ठं।। ८५।।
आत्मा आत्मनि रतः रागदिषु सकलदोषपरित्यक्तः।
संसारतरणहेतुः धर्म इति जिनैः निर्दिष्टम्।। ८५।।

अर्थः
––यदि आत्मा रागादिक समस्त दोषोंसे रहित होकर आत्मा ही में रत हो जाय तो
ऐसे धर्म को जिनेश्वरदेव ने संसारसमुद्र से तरने का कारण कहा है।

भावार्थः––जो पहिले कहा था कि मोहके क्षोभसे रहित आत्माका परिणाम है सो धर्म
है, सो ऐसा धर्म ही संसार से पार के मोक्षका कारण भगवानने कहा है, यह नियम है।। ८५।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
परतीत, रुचि, श्रद्धान ने स्पर्शन करे छे पुण्यनुं
ते भोग केरूं निमित्त छे, न निमित्त कर्मक्षय तणुं। ८४।

रागादि दोष समस्त छोडी आतमा निजरत रहे
भवतरणकारण धर्म छे ते–एम जिनदेवो कहे। ८५।

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भावपाहुड][२०९
आगे इसी अर्थ को दृढ़ करने के लिये कहते हैं कि––– जो आत्मा के लिये इष्ट नहीं
करता है और समस्त पुण्यका आचरण करता है तो भी सिद्धि को नहीं पाता हैः––
अह पुण अप्पा णिच्छदि पुण्णाई करेदि णिरवसेसाइं।
तह विण पावदि सिद्धिं संसारत्थो पुणो भणिदो।। ८६।।
अथ पुनः आत्मानं नेच्छति पुण्यानि करोति निरवशेषानि।
तथापि न प्राप्नोति सिद्धिं संसारस्थः पुनः भणितः।। ८६।।

अर्थः
––अथवा जो पुरुष आत्माका इष्ट नहीं करता है, उसका स्वरूप नहीं जानता है,
अंगीकार नहीं करता है और सब प्रकारके समस्त पुण्यको करता है, तो भी सिद्धि
(मोक्ष) को
नहीं पाता है किन्तु वह पुरुष संसार ही में भ्रमण करता है।

भावार्थः––आत्मिक धर्म धारण किये बिना सब प्रकारके पुण्य का आचरण करे तो भी
मोक्ष नहीं होता है, संसार ही में रहता है। कदाचित् स्वर्गादिक भोग पावे तो वहाँ भोगों में
आसक्त होकर रहे, वहाँ से चय एकेन्द्रियादिक होकर संसार ही में भ्रमण करता है।। ८६।।

आगे, इस कारणसे आत्मा ही का श्रद्धान करो, प्रयत्नपूर्वक जानो, मोक्ष प्राप्त करो,
ऐसा उपदेश करते हैंः––––
एएण कारणेण य तं अप्पा सद्दहेह तिविहेण।
जेण य लहेह मोक्खं तं जाणिज्जह पयत्तेण।। ८७।।
एतेन कारणेन च तं आत्मानं श्रद्धत्त त्रिविधेन।
येन च लभध्वं मोक्षं तं जानीत प्रयत्नेन।। ८७।।

अर्थः
––पहिले कहा था कि आत्मा का धर्म तो मोक्ष है, उसी कारण से कहते हैं
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
पण आत्मने इच्छया विना पुण्यो अशेष करे भले,
तोपण लहे नहि सिद्धिने, भवमां भमे–आगम कहे। ८६।

आ कारणे ते आत्मनी त्रिविधे तमे श्रद्धा करो,
ते आत्मने जाणो प्रयत्ने, मुक्तिने जेथी वरो। ८७।

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२१०] [अष्टपाहुड
कि––––हे भव्यजीवों! तुम उस आत्मा को प्रयत्नपूर्वक सब प्रकार के उद्यम करके यथार्थ
जानो, उस आत्मा का श्रद्धान करो, प्रतीति करो, आचरण करो। मन–वचन–काय से ऐसे करो
जिससे मोक्ष पावो।

भावार्थः––जिसको जानने और श्रद्धान करने से मोक्ष हो उसीको जानना और श्रद्धान
करना मोक्ष प्राप्ति कराता है, इसलिये आत्माको जानने का कार्य सब प्रकारके उद्यम पूर्वक
करना चाहिये, इसी से मोक्ष की प्राप्ति होती है, इसलिये भव्यजीवों को यही उपदेश है।।
८७।।

आगे कहते हैं कि बाह्य–––हिंसादिक क्रिया के बिना ही अशुद्ध भावसे तंदुल मत्स्यतुल्य
जीव भी सातवें नरक को गया, तब अन्य बड़े जीवों की क्या कथा?
मच्छो वि सालिसित्थो असुद्धभावो गओ महाणरयं।
इय णाउं अप्पाणं भावह जिणभावणं णिच्चं।। ८८।।
मत्स्यः अपि शालिसिक्थः अशुद्धभावः गतः महानरकम्।
इति ज्ञात्वा आत्मानं भावय जिनभावनां नित्यम्।। ८८।।

अर्थः
––हे भव्यजीव! तू देख, शालसिक्थ
(तन्दुल नामका मत्स्य) वह भी अशुद्ध
भावस्वरूप होता हुआ महानरक (सातवें नरक) में गया, इसलिये तुझे उपदेश देते हैं कि
अपनी आत्मा को जानने के लिये निरंतर जिनभावना कर।

भावार्थः––अशुद्धभाव के महात्म्य से तन्दुल मत्स्य जैसा अल्पजीव भी सातवें नरक को
गया, तो अन्य बड़े जीव क्यों न नरक जावें? इसलिये भाव शुद्ध करने का उपदेश है। भाव
शुद्ध होने पर अपने और दूसरे के स्वरूप का जानना होता है। अपने और दूसरे के स्वरूप का
ज्ञान जिनदेव की आज्ञा की भावना निरन्तर भाने से होता है, इसलिये जिनदेव की आज्ञा की
भावना निरन्तर करना योग्य है।

तन्दुल मत्स्य की कथा ऐसे है––––काकन्दीपुरी का राजा सूरसेन था वह मांसभक्षीहो
गया। अत्यन्त लोलुपी, मांस भक्षणका अभिप्राय रखता था। उसके ‘पितृप्रिय’ नामका रसोईदार
था। वह अनेक जीवों का मांस निरन्तर भक्षण करता था। उसको सर्प डस गया तो मरकर
स्वयंभूरमण समुद्र में महामत्स्य हो गया।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
अविशुद्ध भावे मत्स्य तंदुल पण गयो महा नरकमां,
तेथी निजात्मा जाणी नित्य तुं भाव रे! जिनभावना। ८८।

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भावपाहुड][२११

राजा सूरसेन भी मर कर वहाँ ही उसी महामत्स्य के कान में तंदुल मत्स्य हो गया।

वहाँ महामत्स्य मुखमें अनेक जीव आवें, बाहर निकल जावें, तब तंदुल मत्स्य
उनको देखकर विचार करे कि यह महामत्स्य अभागा है जो मुँह में आये हुए जीवों को खाता
नहीं है। यदि मेरा शरीर इतना बड़ा होता तो इस समुद्र के सब जीवों को खा जाता। ऐसे
भावोंके पापसे जीवों को खाये बिना ही सातवें नरकमें गया और महामत्स्य तो खानेवाला था
सो वह तो नरक में जाय ही जाय।

इसलिये अशुद्धभाव सहित बाह्य पाप करना तो नरक का कारण है ही, परन्तु बाह्य
हिंसादिक पापके किये बिना केवल अशुद्धभाव भी उसीके समान है, इसलिये भावोंमें अशुभ
ध्यान छोड़कर शुभ ध्यान करना योग्य है। यहाँ ऐसा भी जानना कि पहिले राज पाया था सो
पहिले पुण्य किया था उसका फल था,पीछे कुभाव हुए तब नरक गया इसलिये आत्मज्ञान के
बिना केवल पुण्य ही मोक्ष का साधन नहीं है।। ८८।।

आगे कहते हैं कि भावरहित के बाह्य परिग्रहका त्यागादि सब निष्प्रयोजन हैः–––
बाहिरसंगच्चाओ गिरिसरिदरिकंदराइ आवासो।
सयलो णाणज्झयणो णिरत्थओ भावरहियाणं।। ८९।।
बाह्यसंगत्यागः गिरिसरिद्दरीकंदरादौ आवासः।
सकलं ज्ञानाध्ययनं निरर्थकं भावरहितानाम्र्।। ८९।।

अर्थः
––जो पुरुष भाव रहित हैं, शुद्ध आत्माकी भावनासे रहित हैं और बाह्य आचरणसे
सन्तुष्ट हैं, उनके बाह्य परिग्रहका त्याग है वह निरर्थक है। गिरि
(पर्वत), दरी (पर्वत की
गुफा), सरित् (नदी के पास), कंदर (पर्वत के जल से चिरा हुआ स्थान) इत्यादि स्थानोंमें
आवास (रहना) निरर्थक है। ध्यान करना, आसन द्वारा मन को रोकना अध्ययन (पढ़ना) ––
––ये सब निरर्थक हैं।

भावार्थः––बाह्य क्रियाका फल आत्नज्ञान सहित हो तो सफल हो, अन्याय सब निरर्थक
है। पुण्यका फल हो तो भी संसारका ही कारण है, मोक्षफल नहीं है।। ८९।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
रे! बाह्यपरिग्रहत्याग, पर्वत–कंदरादिनिवासने
ज्ञानाध्ययन सघळुं निरर्थक भावविरहित श्रमणने। ८९।

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२१२] [अष्टपाहुड
आगे उपदेश करते हैं कि भावशुद्धि के लिये इन्द्रियादिक को वश करो, भावशुद्धिके
बिना बाह्य भेषका आडम्बर मत करोः–––
भंजसु इन्दियसेणं भंजसु मणमक्कडं पयत्तेण।
मा जणरंजणकरणं बाहिरवयवेस तं कुणसु।। ९०।।
भंग्धि इन्द्रियसेनां भंग्धि मनोमर्कटं प्रयत्नेन।
मा जनरंजनकरणं बहिर्व्रतवेष त्वंकार्षीः।। ९०।।

अर्थः
––हे मुने! तू इन्द्रियोंकी सेना है उसका भंजन कर, विषयोंमें मत रम, मनरूप
बंदर को प्रयत्नपूर्वक बड़ा उद्यम करके भंजन कर, वशीभूत कर और बाह्यव्रत का भेष लोकमें
रंजन करने वाला मत धारण कर।

भावार्थः––बाह्य मुनिका भेष लोकका रंजन करने वाला है, इसलिये यह उपदेश है;
लोकरंजन से कुछ परमार्थ सिद्धि नहीं है, इसलिये इन्द्रिय और मनको वश में करने के लिये
बाह्य यत्न करे तो श्रेष्ठ है। इन्द्रिय और मन को वश में किये बिना केवल लोकरंजनमात्र भेष
धारण करने से कुछ परमार्थ सिद्धि नहीं है।। ९०।।

आगे फिर उपदेश कहते हैंः––
णवणोकसायवग्गं मिच्छत्तं चयसु भावसुद्धाए।
चेइयपवयणगुरुणं करेहि भत्तिं जिणाणाए।। ९१।।
नवनोकषायवर्गं मिथ्यात्वं त्यज भावशुद्ध्या।
चैत्यप्रवचनगुरुणां कुरु भक्तिं जिनाज्ञया।। ९१।।

अर्थः
––हे मुने! तू नव जो हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद,
पुरुषवेद, नपुंसकवेद–––––ये नो कषायवर्ग तथ मिथ्यात्व इनको भावशुद्धि द्वारा छोड़ और
निआज्ञा से चैत्य, प्रवचन, गुरु इनकी भक्ति कर।। ९१।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
तुं इन्द्रिसेना तोड मनमर्कट तुं वश कर यत्नथी,
नहि कर तुं जनरंजनकरण बहिरंग–व्रतवेशी बनी। ९०।

मिथ्यात्व ने नव नोकषाय तुं छोड भावविशुद्धिथी;
कर भक्ति जिन–आज्ञानुसार तुं चैत्य–प्रवचन–गुरु तणी। ९१।

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भावपाहुड][२१३
शिवधामवासी सिद्ध थाय–त्रिलोकना चूडामणि। ९३।
आगे फिर कहते हैंः––
तित्थयर भासियत्थं गणहरदेवेहिं गंथियं सम्मं।
भावहि अणुदिणु अतुलं विसुद्ध भावेण सुयणाणं।। ९२।।
तीर्थंकरभाषितार्थं गणधरदेवैः ग्रथितं सम्यक्।
भावय अनुदिनं अतुलं विशुद्धभावेन श्रुतज्ञानम्।। ९२।।

अर्थः
––हे मुने! तू जिस श्रुतज्ञानको तीर्थंकर भगवानने कहा और गणधर देवोंने गूंथा
अर्थात् शास्त्ररूप रचना की उसकी सम्यक् प्रकार भाव शुद्ध कर निरन्तर भावना कर। कैसा है
वह श्रुतज्ञान? अतुल है, इसके बराबर अन्य मतका कहा हुआ श्रुतज्ञान नहीं है।। ९२।।

ऐसा करने से क्या होता है्र सो कहते हैंः–––
पीऊण णाणसलिलं णिम्महतिसडाहसोसउम्मुक्का।
होंति सिवालयवासी तिहुवणचूडामणी सिद्धा।। ९३।।
पीत्वा ज्ञानसलिलं निर्मथ्यतृषादाहशोषोन्मुक्ता।
भवंति शिवालयवासिनः त्रिभुवन चूडामणयः सिद्धाः।। ९३।।

अर्थः
––पूर्वोक्त प्रकार भाव शुद्ध करने पर ज्ञानरूप जलको पीकर सिद्ध होते हैं। कैसे
हैं सिद्ध? निर्मथ्य अर्थात् मथा न जावे ऐसे तृषादाह शोष से रहित हैं, इस प्रकार सिद्ध होते
है; ज्ञानरूप जल पीने का यह फल है। सिद्ध शिवालय अर्थात् मुक्तिरूप महलमें रहनेवाले हैं,
लोकके शिखर पर जिनका वास है। इसीलिये कैसे हैं? तीन भुवनके चुड़ामणि हैं, मुकुटमणि हैं
तथा तीन भुवन में ऐसा सुख नहीं है, ऐसे परमानंद अविनाशी सुखको वे भोगते हैं। इसप्रकार
वे तीन भुवन के मुकुटमणि हैं।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ पाठान्तरः– पाऊण। २ पाठान्तरः– प्राप्य।
तीर्थेशभाषित–अर्थमय, गणधर सुविरचित जेह छे,
प्रतिदिन तुं भाव विशुद्धभावे ते अतुल श्रुतज्ञानने। ९२।
जीव ज्ञानजळ पी, तीव्रतृष्णादाहशोष थकी छूटी,

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२१४] [अष्टपाहुड
आगे भाव शुद्धि के लिये फिर उपदेश करते हैंः–––
भावार्थः––शुद्ध भाव करके ज्ञानरूप जल पीने पर तृषादाह शोष मिट जाता है,
इसलिये ऐसे कहा है कि परमानन्दरूप सिद्ध होते हैं।। ९३।।
दस दस दो सुपरीसह सहहि मुणी सयलकाल काएण।
सुत्तेण अप्पमत्तो संजमघादं पमोत्तूण।। ९४।।
तह साहू वि ण भिज्जइ उवसग्गपरीसहेहिंतो।। ९५।।
दश दश द्वौ सुपरीषहान् सहस्व मुने! सकलकालं कायेन।
सूत्रेण अप्रमत्तः संयमघातं प्रमुच्य।। ९४।।

अर्थः
––हे मुने! तू दस दस दो अर्थात् बाईस जो सुपरीषह अर्थात्ातिशय कर सहने
योग्य को सूत्रेण अर्थात् जैसे जिनवचनमें कहे हैं उसी रीति से निःप्रमादी होकर संयमका घात
दूरकर और अपनी कायसे सदाकाल निरंतर सहन कर।
भवार्थः––जैसे संयम न बिगड़े और प्रमादका निवारण हो वैसे निरन्तर मुनि क्षुधा, तृषा
आदिक बाईस परीषह सहन करे। इनको सहन करनेका प्रयोजन सूत्रमें ऐसा कहा है कि–––
इनके सहन करने से कर्म की निर्जरा होती है और संयम के मार्ग से छूटना नहीं होता है,
परिणाम दृढ़ होते हैं।। ९४।।

आगे कहते हैं कि–––जो परीषह सहनेमें दृढ़ होता है वह उपसर्ग आने पर भी दृढ़
रहता है, च्युत नहीं होता, उसका दृष्टांत कहते हैंः––––
जह पत्थरो ण भिज्जइ परिट्ठिओ दीहकालमुदएण
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ ‘मुदकेण’ पाठान्तर ‘मुदएण’।
बावीश परिषह सर्व काळ सहो मुने! काया वडे,
अप्रमत्त रही, सूत्रानुसार, निवारी संयमघातने। ९४।

पथ्थर रह्यो चिर पाणीमां भेदाय नहि पाणी वडे,
त्यम साधु पण भेदाय नहि उपसर्ग ने परीषह वडे। ९५।

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भावपाहुड][२१५
भावार्थः––पाषाण ऐसा कठोर होता है कि यदि वह जलमें बहुत समय तक रहे तो भी
उसमें जल प्रवेश नहीं करता है, वैसे ही साधुके परिणाम भी ऐसे दृढ़ होते हैं कि––उपसर्ग –
परीषह आने पर भी संयमके परिणाम से च्युत नहीं होता है और पहिले कहा जो संयम का
घात जैसे न हो वैसे परीषह सहे। यदि कदाचित् संयमका घात होता जाने तो जैसे घात न हो
वैसे करे।। ९५।।
आगे फिर भाव शुद्ध रखने को ज्ञानका अभ्यास करते हैंः–––
यथा प्रस्तरः न भिद्यते परिस्थितः दीर्घकाल मुदकेन।
तथा साधुरपि न भिद्यते उपसर्ग परीषहेभ्यः।। ९५।।

अर्थः
––जैसे पाषाण जलमें बहुत कालतक रहने पर भी भेदको प्राप्त नहीं होता है वैसे
ही साधु उपसर्ग – परीषहोंसे नहीं भिदता है।

आगे, परीषह आने पर भाव शुद्ध रहे ऐसा उपाय कहते हैंः––
भावहि अणुवेक्खाओ अवरे पणवीसभावणा भावि।
भावरहिएण किं पुण बाहिरलिंगेण कायव्वं।। ९६।।
भावय अनुप्रेक्षाः अपराः पंचविंशतिभावनाः भावय।
भावरहितेन किं पुनः बाह्यलिंगेन कर्त्तव्यम्।। ९६।।
अर्थः––हे मुने! तू अनुप्रेक्षा अर्थात् अनित्य आदि बारह अनुप्रेक्षा हैं उनकी भावना कर
और अपर अर्थात् अन्य पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावना कही है उनकी भावना कर, भावरहित
जो बाह्यलिंग है उससे क्या कर्त्तव्य है? अर्थात् कुछ भी नहीं।

भावार्थः––कष्ट आने पर बारह अनुप्रेक्षाओंका चिन्तन करना योग्य है। इनके नाम ये
हैं–––१ अनित्य, २ अशरण, ३ संसार, ४ एकत्व, ५ अन्यत्व, ६ अशुचित्व, ७ आस्रव, ८
संवर, ९ निर्जरा, १० लोक, ११ बोधिदुर्लभ, १२ धर्म––––इनका और पच्चत्स भावनाओंका
भाना बड़ा उपाय है। इनका बारम्बार विन्तन करने से कष्ट में परिणाम बिगड़ते नहीं हैं,
इसलिये यह उपदेश है।। ९६।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
तुं भाव द्वादश भावना, वळी भावना पच्चीशने;
शुं छे प्रयोजन भावविरहित बाह्यलिंग थकी अरे! ९६।

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२१६] [अष्टपाहुड
सव्वविरओ वि भावहि णव य पयत्थाइं सत्त तच्चाइं।
जीवसमासाइं मुणी चउदसगुणठाणणामाइं।। ९७।।
सर्व वरितः अपि भावय नव पदार्थान् सप्त तत्त्वानि।
जीवसमासान् मुने! चतुर्दशगुणस्थाननामानि।। ९७।।

अर्थः––हे मुने! तू सब परिग्रहादिकसे विरक्त हो गया है, महाव्रत सहित है तो भी
भाव विशुद्धिके लिये नव पदार्थ, सप्त तत्त्व, चौदह जीवसमास, चौदह गुणस्थान इनके नाम
लक्षण भेदइत्यादिकों की भावना कर।
भावार्थः––पदार्थों के स्वरूपका चिन्तन करना भावशुद्धिका बड़ा उपाय है इसलिये यह
उपदेश है। इनका नाम स्वरूप अन्य ग्रंथोंसे जानना।। ९७।।

आगे भाव शुद्धिके लिये अन्य उपाय कहते हैंः––––
णवविहबंभं पयडहि अब्बंभं दसविहं णमोत्तूण।
मेहूणसण्णासत्तो भमिओ सि भवण्णवे भीमे।। ९८।।
नवविधब्रह्मचर्यं प्रकट्य अब्रह्म दशविधं प्रमुच्य।
मैथुनसंज्ञासक्तः भ्रमितोऽसि भवार्णवे भीमे।। ९८।।

अर्थः
––हे जीव! तू पहिले दस प्रकारका अब्रह्म है उसको छोड़कर नव प्रकारका
ब्रह्मचर्य है उसको प्रगटकर, भावोंमें प्रत्यक्ष कर। यह उपदेश इसलिये दिया है कि तू मैथूनसंज्ञा
जो कामसेवनकी अभिलाषा उसमें आसक्त होकर अशुद्ध भावोंसे इस भीम
(भयानक)
संसाररूपी समुद्र में भ्रमण करता रहा।

भावार्थः––यह प्राणी मैथुनसंज्ञा में आसक्त होकर गृहस्थपना आदिक अनेक उपायोंसे
स्त्रीसेवनादिक अशुद्धभावोंसे अशुभ कार्यों में प्रवर्तता है, उससे इस भयानक संसारसमुद्र में
भ्रमण करता है, इसलिये यह उपदेश है कि–––दस प्रकारके अब्रह्मको छोड़कर नव प्रकारके
ब्रह्मचर्यको अंगीकार करो।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
पूरणविरत पण भाव तुं नव अर्थ, तत्त्वो सातने,
मुनि! भाव जीवसमासने, गुणस्थान भाव तुं चौदने। ९७।

अब्रह्म दशविध टाळी तुं प्रगटाव नवविध ब्रह्मने;
रे! मिथुनसंज्ञासक्त तें कर्युं भ्रमण भीम भवार्णवे। ९८।