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स्वर्ग – मोक्षके कारण हैं। इनको कभी नहीं ध्याया, इसलिय इनका ध्यान करने का उपदेश
है। ध्यानका स्वरूप ‘एकाग्रचिंतानिरोध’ कहा है; धर्मध्यानमें तो धर्मानुरागका सद्भाव है सो
धर्मके–––मोक्षमार्गके कारणमें रागसहित एकाग्रचिंतानिरोध होता है, इसलिये शुभराग के
निमित्तसे पुण्यबन्ध भी होता है और विशुद्ध भावके निमित्तसे पापकर्म की निर्जरा भी होती है।
शुक्लध्यान में आठवें नौवें दसवें गुणस्थानमें तो अव्यक्त राग है। वहाँ अनुभव अपेक्षा उपयोग
उज्ज्वल है, इसलिये ‘शुक्ल’ नाम रखा है और इससे ऊपर के गुणस्थानों में राग–कषायका
अभाव ही है, इसलिये सर्वथा ही उपयोग उज्ज्वल है, वहाँ शुक्लध्यान युक्त ही है। इतनी और
विशेषता है कि उपयोगके एकाग्रपनारूप ध्यानकी स्थिति अनतर्मुहूर्त्त की कही है। इस अपेक्षा से
तेरहवें–चौदहवें गुणस्थानमेह ध्यानका उपचार है और योगक्रियाके स्थंभनकी अपेक्षा ध्यान कहा
है। यह शुक्लध्यान कर्मकी निर्जरा करके जीवको मोक्ष प्राप्त कराता है, ऐसे ध्यानका उपदेश
जानना।। १२१।।
छिंदंति भावसवणा झाणकुढारेहिं भवरुक्खं।। १२२।।
छिंदन्ति भावश्रमणाः ध्यानकुठारैः भववृक्षम्।। १२२।।
अर्थः––कई द्रव्यलिंगी श्रमण हैं, वे तो इन्द्रियसुखमें व्याकुल हैं, उनके यह धर्म –
शुक्लध्यान नहीं होता। वे तो संसाररूपी वृक्ष को काटने में समर्थ नहीं हैं, और जो भावलिंगी
श्रमण हैं, वे ध्यानरूपी कुल्हाड़ेसे संसाररूपी वृक्षको काटते हैं।
इसी अभिलाष से करते हैं उनके धर्म–शुक्ल ध्यान कैसे हो? अर्थात् नहीं होता है।
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है, अतः परमार्थ सुखका उपाय धर्म–शुक्लध्यान है उसको करके वे संसारका अभाव करते हैं,
इसलिये भावलिंगी होकर ध्यानका अभ्यास करना चाहिये।। १२२।।
तह रायाणिलरहिओ झाणपईयो वि पज्जलइ।। १२३।।
तथा रागानिलरहितः ध्यानप्रदीपः अपि प्रज्वलति।। १२३।।
अर्थः––जैसे दीपक गर्भगृह अर्थात् जहाँ पवनका संचार नहीं है ऐसे मध्यके घरमें पवन
की बाधा रहित निश्चल होकर जलता है [प्रकाश करता है], वैसे ही अंतरंग मनमें रागरूपी
पवनसे रहित ध्यानरूपी दीपक भी जलता है, एकाग्र होकर ठहरता है, आत्मरूपको प्रकाशित
करता है।
विद्यमान है, उनके ध्यानरूपी दीपक कैसे निर्बाध उद्योत करे? अर्थात् न करे, और जिनके यह
रागरूपी पवन बाधा न करे उनके ध्यानरूपी दीपक निश्चल ठहरता है।। १२३।।
णरसुरखेयरमहिए आराहणणायगे वीरे।। १२४।।
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नरसुरखेचरमहितान् आराधनानायकान् वीरान्।। १२४।।
अर्थः–––हे मुने! तू पंच गुरु अर्थात् पंचपरमेष्ठी का ध्यान कर। यहाँ ‘अपि’ शब्द
शुद्धात्म सवरूपके ध्यानको सूचित करता है। पंच परमेष्ठी कैसे हैं? मंगल अर्थात् पाप के
नाशक अथवा सुखदायक और चउशरण अर्थात् चार शरण तथा ‘लोक’ अर्थात् लोक के
प्राणियों से अरहंत, सिद्ध, साधु, केवलीप्रणीत धर्म, ये परिकरित अर्थात् परिवारित हैं––––
युक्त
प्राप्त हैं तथा देते हैं। इसप्रकार पंच परम गुरुका ध्यान कर।
कहे हैं। इनके सिवाय प्राणीको अन्य शरण या रक्षा करनेवाला कोई भी नहीं है और लोक में
उत्तम भी ये ही हैं। आराधना दर्शन – ज्ञान – चारित्र – तप ये चार हैं, इनके नायक
[स्वामी] भी ये ही हैं, कर्मोंको जीतनेवाले भी ये ही हैं । इसलिये ध्यान करनेवाले के लिये
इनका ध्यान श्रेष्ठ है। शुद्धस्वरूपकी प्राप्ति इनही के ध्यान से होती है, इसलिये यह उपदेश
है।। १२४।।
वाहिजरमरणवेयणडाहविमुक्का सिवा होंति।। १२५।।
व्याधिजरामरणवेदनादाहविमुक्ताः शिवाः भवन्ति।। १२५।।
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‘शिव’ अर्थात् परमनंद सुखरूप होते हैं।
रहित शांतभावरूप होता है, उसकी भावना कर रुचि, श्रद्धा, प्रतीति से पीवे, इससे तनमय हो
तो जरा – मरणरूप दाह – वेदना मिट जाती है और संसार से निर्वृत्त होकर सुखरूप होता
है, इसलिये भव्य जीवोंको यह उपदेश है कि ज्ञानमें लीन होओ।। १२४।।
तह कम्मबीयदड्ढे भवंकुरो भावसवणाणं।। १२६।।
तथा कर्म बीजदग्धे भवांकुरः भावश्रमणानाम्।। १२६।।
नहीं होता है।
होकर धर्म – शुक्लध्यान से कर्मोंका नाश करना योग्य है, यह उपदेश है। कोई सर्वथा एकांती
अन्यथा कहे कि–––कर्म अनादि हैं, उसका अंत भी नहीं है, उसका भी यह निषेध है।
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जानना।। १२६।।
इय णाउं गुणदोसे भावेण संजुदो होइ।। १२७।।
इति ज्ञात्वा गुणदोषान् भावेन च संयुतः भव।। १२७।।
अर्थः––भावश्रमण तो सुखोंको पाता है और द्रव्यश्रमण दुःखोंको पाता है, इस प्रकार
गुण – दोषोंको जानकर हे जीव! तू भावसहित संयमी बन।
है, इसलिये दुःखोंको पाता है। अतः उपदेश करते हैं कि दोनों के गुण – दोष जानकर
भावसहयमी होना योग्य है, यह सब उपदेशका सार है।। १२७।।
प्राप्नुवंति भावश्रमणाः संक्षेपेण जिनैः भणितम्।। १२८।।
अर्थः––जो भाव सहित मुनि हैं वे अभ्युदयसहित तीर्थंकर – गणधर आदि पदवी के
सुखोंको पाते हैं, यह संक्षेप से कहा है।
तुं भावथी संयुक्त था, गुणदोष जाणी ए रीते। १२७।
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भावसहित मुनि होना योग्य है।। १२८।।
भावसहियाण णिच्चं तिविहेण पणट्ठमायाणं।। १२९।।
भावसहितेभ्यः नित्यं त्रिविधेन प्रणष्टमायेभ्यः।। १२९।।
अर्थः–––आचार्य कहते हैं कि जो मुनि सम्यग्दर्शन श्रेष्ठ
परिणाम जिनके ऐसे हैं वे धन्य हैं। उनके लिये हमारा मन–वचन–काय से सदा नमस्कार हो।
मोक्षमार्ग में अनुराग है, उनमें मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति में प्रधानता दिखती है, उनको नमस्कार
करें।। १२९।।
तेहिं विण जाइ मोहं जिण भावण भाविओ धीरो।। १३०।।
जे भावयुत, दृगज्ञानचरणविशुद्ध, माया मुक्त छे। १२९।
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अर्थः–––जिनभावना [सम्यक्त्व भावना] से वासित जीव किंनर, किंपरुष देव;
कल्पवासी देव और विद्याधर, इनसे विक्रियारूप विस्तार की गई अतुल–ऋद्धियोंसे मोहको
प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि सम्यदृष्टि जीव कैसा है? धीर है, दृढ़बुद्धि है अर्थात् निःशंकित
अंग का धारक है।
जाणंतो पस्संतो चिंतंतो मोक्ख मुणिधवलो।। १३१।।
जानन् पश्यन् चिंतयन् मोक्षं मुनिधवलः।। १३१।।
अर्थः––सम्यग्दृष्टि जीव पूर्वोक्त प्रकारकी भी ऋद्धि को नहीं चाहता है तो मुनिधवल
अर्थात् मुनिप्रधान है वह अन्य जो मनुष्य देवोंके सुख – भोगादिक जिनमें अल्प सार है उनमें
क्या मोहको प्राप्त हो? कैसा है मुनिधवल? मोक्ष को जानता है, उसही की तरफ दृष्टि है,
उसही का चिन्तन करता है।
मनुष्य, देवोंके भोगादिकका सुख उनमें वांछा कैसे करे? अर्थात् नहीं करे।। १३१।।
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इन्दिय बलं ण वियलइ ताव तुमं कुणहि अप्पहियं।। १३२।।
इन्द्रियबलं न विगलति तावत् त्वं कुरु आत्महितम्।। १३२।।
अर्थः––हे मुने! जब तक तेरे जरा
करलो।
तपश्चरणादिक तथा ज्ञानाभ्यास और स्वरूपका अनुभवादि कार्य कैसे करे? इसलिये यह
उपदेश है कि जब तक सामर्थ्य है तब तक अपना हितरूप कार्य कर लो।। १३२।।
कुरु दय परिहर मुणिवर भावि अपुव्वं महासत्तं
अर्थः––हे मुनिवर! तू छहकाय के जीवों पर दया कर और छह अनायतों को
२ मुद्रित संस्कृत प्रति में ‘षट्जीवषटयतनानां’ एक पद किया है।
छ अनायतन तज, कर दया षट्जीवनी
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जीवों में व्यापक
दयाकर। अनादि ही से आप्त, आगम, पदार्थका और इनकी सेवा करनेवालों का सवरूप जाना
नहीं, इसलिये अनाप्त आदि छह अनायतन जो मोक्षमार्ग के स्थान नहीं हैं उनको अच्छे
समझकर सेवन किया, अतः यह उपदेश है कि अनायतन का परिहार कर। जीवके स्वरूप के
उपदेशक ये दोनों ही तूने पहिले जाने नहीं, न भावना की, इसलिये अब भावना कर,
इसप्रकार उपदेश है।। १३३।।
भोयसुहकारणट्ठं कदो य तिविहेण सयल जीवाणं।। १३४।।
भोगसुखकारणार्थं कृतश्च त्रिविधेन सकलजीवानां।। १३४।।
भोगाभिलाष छोड़, यह उपदेश है।। १३४।।
––––––––––––––
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उप्पजंत मरंतो पत्तो सि णिरंतरं दुक्खं।। १३५।।
उत्पद्यमानः क्षियमाणः प्राप्तोऽसि निरंतरं दुःखम्।। १३५।।
अर्थः––हे मुने! हे महायश! तूने प्राणियों के घात से चौरासी लाख योनियों के मध्य में
उत्पन्न होते हुए ओर मरते हुए निरंतर दुःख पाया।
उत्पत्ति – मरणरूप संसार होता है। इसप्रकार जन्म – मरण के दुःख सहता है, इसलिये
जीवोंकी दया का उपदेश है।। १३५।।
कल्लाणसुहणिमित्तं परंपरा तिविहसुद्धीए।। १३६।।
कल्याणसुखनिमित्तं परंपरया त्रिविध शुद्धया।। १३६।।
अर्थः––हे मुने! जीवों को और प्राणीभूत सत्त्वों को अपना परंपरा से कल्याण और सुख
होने के लिये मन, वचन, काय की शुद्धता से अभयदान दे।
अपने समान जानकर अभयदान देने का उपदेश है। इससे शुभ प्रकृतियों का बंध होने से
अभ्युदयका सुख होता है,
उत्पत्तिनां ने मरणनां दुःखो निरंतर तें लह्यां। १३५।
तुं भूत–प्राणी–सत्त्व–जीवने त्रिविध शुद्धि वडे मुनि,
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सत्तट्ठी अण्णाणी वेणइया होंति बत्तीसा।। १३७।।
सप्तषष्टिरज्ञानिनां वैनयिकानां भवति द्वात्रिशत्।। १३७।।
अर्थः–––एकसौ अस्सी क्रियावादी हैं, चौरासी अक्रियावादियों के भेद हैं, अज्ञानी
सड़सठ भेदरूप हैं और विनयवादी बत्तीस हैं।
निश्चय करके उसका श्रद्धान नहीं किया है––ऐसे अन्यवादियोंने वस्तुका एक धर्म ग्रहण करके
उसका पक्षपात किया कि हमने इसप्रकार माना है, वह ‘ऐसे ही है, अन्य प्रकार नहीं है।’
इसप्रकार विधि–निषेध करके एक–एक धर्मके पक्षपाती हो गये, उनके ये संक्षेप से तीनसौ
त्रेसठ भेद हो गये हैं।
करना, विषाद करना, द्वेष करना, जीना, मरना इत्यादिक क्रियायें हैं; इनको जीवादिक पदार्थों
के देख कर किसी ने किसी क्रियाका पक्ष किया है और किसी ने किसी क्रिया का पक्ष किया
है। ऐसे परम्परा क्रियाविवाद से भेद हुए हैं, इनके संक्षेप एकसौ अस्सी भेद निरूपण किये हैं,
विस्तार करने पर बहुत हो जाते हैं।
कई
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कहते हैं भोगता नहीं है, कई कहते हैं उत्पन्न नहीं होता है, कई कहते हैं नष्ट नहीं होता है,
कई कहते हैं गमन नहीं करता है और कई कहते हैं ठहरता नहीं है–––इत्यादि क्रिया के
अभाव से पक्षपात से सर्वथा एकान्ती होते हैं। इनके संक्षेपसे चौरासी भेद हैं।
कई
यह कौन जाने? कई कहते हैं जीव अनित्य है यह कौन जाने? इत्यादि संशय–विपर्यय–
अनध्यवसायरूप होकर विवाद करते है। इनके संक्षेपसे सड़सठ भेद हैं। कई विनयवादी हैं,
उनमें से कई कहते हैं देवादिकके विनय से सिद्धि है, कई कहते हैं गुरुके विनय से सिद्धि है,
कई कहते हैं माताके विनय से सिद्धि है, कई कहते हैं कि पिता के विनय से सिद्धि है, कई
कहते हैं कि राजा के विनय से सिद्धि है, कई कहते हैं कि सेवक के विनय से सिद्धि है,
इत्यादि विवाद करते हैं। इनके संक्षेप से बत्तीस भेद हैं। इसप्रकार सर्वथा एकान्तवादियोंके
तीनसौत्रेसठ भेद संक्षेप से हैं, विस्तार करने पर बहुत हो जाते हैं, इनमें कई ईश्वरवादी हैं,
कई कालवादी हैं, कई स्वभाववादी हैं, कई विनयवादी हैं, कई आत्मवादी हैं। इनका स्वरूप
गोम्मटसारादि ग्रन्थोंसे जानना, ऐसे मिथ्यात्व के भेद हैं।। १३७।।
गुडदुद्धं पि पिता ण पण्णया णिव्विसा होंति।। १३८।।
गुडदुग्धमपि पिबंतः न पन्नगाः निर्विषाः भवंति।। १३८।।
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जिनधर्म मिथ्यात्व को मिटाने वाला है, उसका भले प्रकार स्वरूप सुनकर भी जिसका
मिथ्यात्वस्वरूप भाव नहीं बदलता है वह वस्तुका स्वरूप है, किसी का नहीं किया हुआ है।
यहाँ, उपदेश – अपेक्षा इसप्रकार जानना कि जो अभव्यरूप प्रकृति तो सर्वज्ञ गम्य है, तो भी
अभव्य की प्रकृति के समान अपनी प्रकृति न रखना, मिथ्यात्व को छोड़ना यह उपदेश है।।
१३८।।
धम्मं जिणपण्णत्तं अभव्वजीवो ण रोचेदि।। १३९।।
धर्म जिनप्रज्ञप्तं अभव्यजीवः न रोचयति।। १३९।।
अर्थः––दुर्मत जो सर्वथा एकान्त मत, उनसे प्ररूपित अन्यमत, वे ही हुए दोष उनके
द्वारा अपनी दुर्बुद्धि से
अभव्यजीव को तो सर्वज्ञ जानते हैं, परन्तु ये अभव्य जीवके चिन्ह हैं, इनसे परीक्षा द्वारा जाना
जाता है।। १३९।।
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कुच्छियतवं कुणंतो कुच्छियगइभायणो होइ।। १४०।।
कुत्सिततपः कुर्वन् कुत्सितगति भाजनं भवति।। १४०।।
अर्थः––आचार्य कहते हैं कि जो कुत्सित
भक्ति करता है और मिथ्या अज्ञानतप करता है, वह दुर्गति ही पाता है, यह उपदेश है।।
१४०।।
भमिओ अणाइकालं संसारे धीर चिंतेहि।। १४१।।
भ्रमितः अनादिकालं संसारे धीर! चिन्तय।। १४१।।
भ्रमण करता है, सो हे धीर मुनि! अब ऐसे कुवादियों की संगति भी मत कर, यह उपदेश है।।
१४१।।
कुत्सित करे तप, तेह कुत्सित गति तणुं भाजन बने। १४०।
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रुंभहि मणु जिणमग्गे असप्पलावेण किं बहुणा।। १४२।।
रुन्द्धि मनः जिनमार्गे असत्प्रलापेन किं बहुना।। १४२।।
मनको रोक
उनका मार्ग छोड़कर जिनमार्ग में मनको रोको, अन्यत्र न जाने दो। यहाँ इतना और विशेष
जानना कि––कालदोष से इस पंचमकाल में अनेक पक्षपातसे मन–मतांतर हो गये हैं, उनको
भी मिथ्या जानकर उनका प्रसंग न करो। सर्वथा एकान्तका पक्षपात छोड़कर अनेकान्तरूप
जिनवचन की शरण लो।। १४२।।
शवः लोके अपूज्यः लोकोत्तरे चलशवः।। १४३।।
सबओ लोयअपुज्जो लोउत्तरयम्मि चलसबओ।। १४३।।
अर्थः––लोकमें जीवरहित शरीरको ‘शव’ कहते हैं, ‘मृतक’ या ‘मुरदा’ कहते हैं, वैसे
ही सम्यग्दर्शन रहित पुरुष ‘चलता हुआ मृतक’ है।
जिनमार्गमां मन रोक; बहु प्रलपन निरर्थथी शुं भला? १४२।
जीवमुक्त शब कहेवाय‘चल शब’ जाण दर्शनमुक्तने;
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‘दर्शनरहित चलता हुआ मुरदा’ लोकोत्तर जो मुनि – सम्यग्दृष्टि उनमें अपूज्य है, वे उसको
वंदनादि नहीं करते हैं। मुनिभेष धारण करता है तो भी उसे संघके बाहर रखते हैं अथवा
परलोकमें निंद्यगति पाकर अपूज्य होता है।
भावार्थः––सम्यग्दर्शन बिना पुरुष मृतकतुल्य है।। १४३।।
अहिओ तह सम्मत्तो रिसिसावयदुविहधम्माणं।। १४४।।
अधिकः तथा सम्यक्त्वं ऋषिश्रावकद्विविध धर्माणाम्।। १४४।।
फिर
२ मुद्रित संस्कृत प्रति में ‘जिणभत्तीपवयणो’ ऐसा एक पद रूप पद है, जिसकी संस्कृत ‘जिनभक्तिप्रवचन’ है। यह
पाठ यतिभंग सा मालूम होता है।
नागेन्द्र शोभे फेणमणिमाणिकय किरणे चमकतो,
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तथा विमलदर्शनधरः जिनभक्तिः प्रवचने जीवः।। १४५।।
अर्थः––जैसे फणिराज
शोभा पाता है।
भाविय
भावतं तपोव्रतविमलं जिनलिंगं दर्शन विशुद्धम्।। १४६।।
अर्थः––जैसे निर्मल आकाश मंडल में तारोंके समूह सहित चन्द्रमाका बिंब शोभा पाता
है, वैसे ही जिनशासन में दर्शनसे विशुद्ध और भावित किये हुए तप तथा व्रतोंसे निर्मल
जिनलिंग है सो शोभा पाता है।
१४६।।
२ इस गाथाका चतुर्थ पाद यतिभंग है। इसकी जगह ‘जिनलिगं दंसणेम सुविसुद्धं’ होना ठीक जाँचता है।
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सारं गुणरयणाणं सोवाणं पढम मोक्खस्स।। १४७।।
सारं गुणरत्नानां सोपानं प्रथमं मोक्षस्य।। १४७।।
अर्थः––हे मुने! तू ‘इति’ अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार सम्यक्त्वके गुण और मिथ्यात्वके
दोषोंको जानकर सम्यक्त्वरूपी रत्नको भावपूर्वक धारण कर। यह गुणरूपी रत्नोंमें सार है और
मोक्षरूपी मंदिरका प्रथम सोपान है अर्थात् चढ़ने के लिये पहिली सीढ़ी है।
प्रतीति करे उसके होता है। इसलिये अब यह जीवपदार्थ कैसा है उसका स्वरूप कहते हैंः––
–
दंसणणाणुवओगो
दर्शनज्ञानोपयोगः निर्दिष्टः जिनवरेन्द्रैः।। १४८।।
कर्ता तथा भोक्ता, अनादि–अनंत, देहप्रमाण ने,
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सर्वज्ञदेव वीतराग ने कहा है।
शुद्धभावों का कर्ता है।
२
तक ‘मूर्तिक’ भी कहते हैं।
‘भोक्ता’ विशेषणसे बौद्धमती क्षणिक मानकर कहता है कि कर्म को करने वाला तो ओर है
तथा भोगने वाला ओर है, इसका निषेध है। जो जीव कर्म करता है उसका फल वही जीव
भोगता है, इस कथन से बौद्धमती के कहने का निषेध है। ‘अमूर्तिक’ कहने से मीमांसक
आदि इसे शरीर सहित मूर्तिक ही मानते हैं, उनका निषेध है। ‘शरीरप्रमाण’ कहने से
नैयायिक, वैशेषिक, वेदान्ती आदि सर्वथा, सर्वव्यापक मानते हैं उनका निषेध है।
‘अनादिनिधन’ कहनेसे बौद्धमती सर्वथा क्षणस्थायी मानता है , उसका निषेध है।
‘दर्शनज्ञानउपयोगमयी’ कहने से सांख्यमती
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अनुभव में आता है और उसमें अज्ञानके निमित्त से इष्ट– अनिष्ट बुद्धिरूप राग–द्वेष–मोह
भावके द्वारा ज्ञान– दर्शनमें कलुषतारूप सुख–दुःखादिक भाव अनुभवमें आते हैं। यह जीव
निजभावनारूप सम्यग्दर्शनको प्राप्त होता है तब ज्ञान – दर्शन – सुख –वीर्यके घातक कर्मोंका
नाश करता है, ऐसा दिखाते हैंः–––
और जीवके सर्वथा भेद मानते हैं, बौद्धमतका विशेष ‘विज्ञानाद्वैतवादी’ ज्ञानमात्र ही मानता है
और वेदांती ज्ञानका कुछ निरूपण ही नहीं करता है, इन सबका निषेध है।
जीव नाम कैसे होता? इसलिये अजीव का स्वरूप क्या है, वैसा ही उसका श्रद्धान आगम
अनुसार करना। इसप्रकार अजीव पदार्थ का स्वरूप जानकर और दोनोंके संयोग से अन्य
आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष इन भावों की प्रवृत्ति होती है। इनका आगम के अनुसार
स्वरूप जानकर श्रद्धान करने से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है, इसप्रकार जानना चाहिये।।
१४८।।
णिट्ठवइ भविय जीवो सम्मं जिणभावणाजुत्तो।। १४९।।
निष्ठापयति भव्यजीवाः सम्यक् जिनभावनायुक्तः।। १४९।।
अर्थः––सम्यक्प्रकार जिनभावनासे युक्त भव्यजीव है वह ज्ञानावरण, दर्शनावरण,
मोहनीय, अन्तराय इन चार घातिया कर्मोंका निष्ठानपन करता है अर्थात् सम्पूर्ण अभाव करता
है।