Chha Dhala (Hindi). Gatha: 13: mokShadashaka varan,14: ratnatrayak phal aur Atmahitme pravruttika upadesh,15: antim shikh,16: granth rachanAkA kAl aur usame AdhAr (Dhal 6); Chhathavee dhalka saransh; Chhathavee dhalka bhed-sangrah; Chhathavee dhalka lakshan sangrah; Antar pradarshan; Chhathavee dhalki prashnavalee; Adhyatma Atishaykshetra Songadh (District : Bhavnagar) Pincode : 364250.

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(शेष) शेष चार (अघाति विधि) अघातिया कर्मोंका (घाति) नाश
करके (छिनमांहि) कुछ ही समयमें (अष्टम भू) आठवीं
पृथ्वी–ईषत् प्राग्भार–मोक्षक्षेत्रमें (वसैं) निवास करते हैं; उनको
(वसु कर्म) आठ कर्मोंका (विनसैं) नाश हो जानेसे (सम्यक्त्व
आदिक) सम्यक्त्वादि (सब) समस्त (वसु सुगुण) आठ मुख्य
गुण (लसैं) शोभायमान होते हैं । [ऐसे सिद्ध होनेवाले
मुक्तात्मा ] (संसार खार अपार पारावार) संसाररूपी खारे तथा
अगाध समुद्रको (तरि) पार करके (तीरहिं) किनारे पर (गये)
पहुँच जाते हैं और (अविकार) विकाररहित, (अकल)
शरीररहित, (अरूप) रूपरहित, (शुचि) शुद्ध-निर्दोष (चिद्रूप)
दर्शन-ज्ञान-चेतनास्वरूप तथा (अविनाशी) नित्य-स्थायी (भये)
होते हैं ।
भावार्थ :अरिहन्त दशा अथवा केवलज्ञान प्राप्त
करनेके पश्चात् उस जीवको भी जिन गुणोंकी पर्यायोंमें अशुद्धता
होती है, उनका क्रमशः अभाव होकर वह जीव पूर्ण शुद्धदशाको
प्रगट करता है और उस समय असिद्धत्व नामक अपने
उदयभावका नाश होता है तथा चार अघाति कर्मोंका भी स्वयं
सर्वथा अभाव हो जाता है । सिद्धदशामें सम्यक्त्वादि आठ गुण
(गुणोंकी निर्मल पर्यायें) प्रगट होते हैं । मुख्य आठ गुण
व्यवहारसे कहे हैं; निश्चयसे तो अनन्त गुण (सर्व गुणोंकी पर्यायें)
शुद्ध होते हैं और स्वाभाविक ऊर्ध्वगमनके कारण एक
समयमात्रमें लोकाग्रमें पहुँचकर वहाँ स्थिर रह जाते हैं । ऐसे
जीव संसाररूपी दुःखदायी तथा अगाध समुद्रसे पार हो गये हैं
और वही जीव निर्विकारी, अशरीरी, अमूर्तिक, शुद्ध चैतन्यरूप
तथा अविनाशी होकर सिद्धदशाको प्राप्त हुए हैं
।।१२।।

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मोक्षदशाका वर्णन
निजमांहिं लोक-अलोक गुण - परजाय प्रतिबिम्बित थये
रहि हैं अनन्तानन्त काल, यथा तथा शिव परिणये ।।
धनि धन्य हैं जे जीव, नरभव पाय यह कारज किया
तिनही अनादि भ्रमण पंचप्रकार तजि, वर सुख लिया ।।१३।।
अन्वयार्थ :(निजमांहि) उन सिद्धभगवानके आत्मामें
(लोक-अलोक) लोक तथा अलोकके (गुण, परजाय) गुण और
पर्यायें (प्रतिबिम्बित थये) झलकने लगते हैं अर्थात् ज्ञात होने लगते
हैं; वे (यथा) जिसप्रकार (शिव) मोक्षरूपसे (परिणये) परिणमित
हुए हैं (तथा) उसीप्रकार (अनन्तानन्त काल) अनन्त-अनन्त काल
तक (रहिहैं) रहेंगे ।
(जे) जिन (जीव) जीवोंने (नरभव पाय) पुरुष पर्याय प्राप्त
करके (यह) यह मुनिपद आदिकी प्राप्तिरूप (कारज) कार्य
(किया) किया है, वे जीव (धनि धन्य हैं) महान धन्यवादके पात्र
हैं और (तिनही) उन्हीं जीवोंने (अनादि) अनादिकालसे चले आ
रहे (पंच प्रकार) पाँच प्रकारके परिवर्तनरूप (भ्रमण)
संसारपरिभ्रमणको (तजि) छोड़कर (वर) उत्तम (सुख) सुख
(लिया) प्राप्त किया है ।

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भावार्थ :सिद्ध भगवानके आत्मामें केवलज्ञान द्वारा लोक
और अलोक (समस्त पदार्थ) अपने-अपने गुण और तीनोंकालकी
पर्यायों सहित एक साथ, स्वच्छ दर्पणके दृष्टान्तरूपसे-सर्व प्रकारसे
स्पष्ट ज्ञात होते हैं; (किन्तु ज्ञानमें दर्पणकी भाँति छाया और
आकृति नहीं पड़ती) वे पूर्ण पवित्रतारूप मोक्षदशाको प्राप्त हुए हैं
तथा वह दशा वहाँ विद्यमान अन्य सिद्ध-मुक्त जीवोंकी भाँति
अनन्तानन्त काल तक रहेगी अर्थात् अपरिमित काल व्यतीत हो
जाये; तथापि उनकी अखण्ड ज्ञायकता-शान्ति आदिमें किंचित्
बाधा नहीं आती । यह मनुष्यपर्याय प्राप्त करके जिन जीवोंने यह
शुद्ध चैतन्यकी प्राप्तिरूप कार्य किया है, वे जीव महान धन्यवाद
(प्रशंसा)के पात्र हैं और उन्होंने अनादिकालसे चले आ रहे पंच
परावर्तनरूप संसारके परिभ्रमणका त्याग करके उत्तम सुख-
मोक्षसुख प्राप्त किया है
।।१३।।
रत्नत्रयका फल और आत्महितमें प्रवृत्तिका उपदेश
मुख्योपचार दु भेद यों बड़भागि रत्नत्रय धरैं
अरु धरेंगे ते शिव लहैं, तिन सुयश-जल जग-मल हरैं ।।
जिसप्रकार बीजको यदि जला दिया जाये तो वह उगता नहीं है;
उसीप्रकार जिन्होंने संसारके कारणोंका सर्वथा नाश कर दिया, वे पुनः
अवतार-जन्म धारण नहीं करते अथवा जिसप्रकार मक्खनसे घी हो
जानेके पश्चात् पुनः मक्खन नहीं बनता; उसीप्रकार आत्माकी सम्पूर्ण
पवित्रतारूप अशरीरी मोक्षदशा [परमात्मपद] प्रगट करनेके पश्चात्
उसमें कभी अशुद्धता नहीं आती अर्थात् संसारमें पुनः आगमन नहीं
होता ।

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इमि जानि, आलस हानि, साहस ठानि, यह सिख आदरौ
जबलौं न रोग जरा गहै, तबलौं झटिति निज हित करौ ।।१४।।
अन्वयार्थ :(बढ़भागि) जो महा पुरुषार्थी जीव (यों)
इसप्रकार (मुख्योपचार) निश्चय और व्यवहार (दुभेद) ऐसे दो
प्रकारके (रत्नत्रय) रत्नत्रयको (धरैं अरु धरेंगे) धारण करते हैं
और करेंगे (ते) वे (शिव) मोक्ष (लहैं) प्राप्त करते हैं और (तिन)
उन जीवोंका (सुयश-जल) सुकीर्तिरूपी जल (जग-मल)
संसाररूपी मैलको (हरैं) नाश करता है ।
(इमि) ऐसा (जानि)
जानकर (आलस) प्रमाद [स्वरूपमें असावधानी ] (हानि) छोड़कर
(साहस) पुरुषार्थ (ठानि) करके (यह) यह (सिख) शिक्षा-उपदेश
(आदरौ) ग्रहण करो कि (जबलौं) जब तक (रोग जरा) रोग या
वृद्धावस्था (न गहै) न आये (तबलौं) तब तक (झटिति) शीघ्र
(निज हित) आत्माका हित (करौ) कर लेना चाहिये ।
भावार्थ :जो सत्पुरुषार्थी जीव सर्वज्ञ-वीतरागी कथित
निश्चय और व्यवहाररत्नत्रयका स्वरूप जानकर, उपादेय तथा हेय
तत्त्वोंका स्वरूप समझकर अपने शुद्ध उपादान-आश्रित
निश्चयरत्नत्रयको ( शुद्धात्माश्रित वीतरागभावस्वरूप मोक्षमार्गको)
धारण करते हैं तथा करेंगे वे जीव पूर्ण पवित्रतारूप मोक्षमार्गको
प्राप्त होते हैं और होंगे । [गुणस्थानके प्रमाणमें शुभराग आता है,
वह व्यवहार-रत्नत्रयका स्वरूप जानना तथा उसे निश्चयसे उपादेय
न मानना, उसका नाम व्यवहार-रत्नत्रयका धारण करना है । ] जो
जीव मोक्षको प्राप्त हुए हैं और होंगे उनका सुकीर्ति रूपी जल कैसा
है?–कि जो सिद्ध परमात्माका यथार्थ स्वरूप समझकर स्वोन्मुख
होनेवाले भव्य जीव हैं, उनके संसार (
मलिनभाव) रूपी मलको

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हरनेका निमित्त है । ऐसा जानकर प्रमादको छोड़कर साहस अर्थात्
सच्चा पुरुषार्थ करके यह उपदेश अंगीकार करो । जब तक रोग
या वृद्धावस्थाने शरीरको नहीं घेरा है, तब तक शीघ्र वर्तमानमें
ही आत्माका हित कर लो
।।१४।।
अन्तिम सीख
यह राग-आग दहै सदा, तातैं समामृत सेइये
चिर भजे विषय-कषाय अब तो, त्याग निजपद बेइये ।।
कहा रच्यो पर पदमें, न तेरो पद यहै, क्यों दुख सहै
अब ‘‘दौल’’ ! होउ सुखी स्वपद-रचि, दाव मत चूकौ यहै ।।१५।।
अन्वयार्थ :(यह) यह (राग-आग) रागरूपी अग्नि
(सदा) अनादिकालसे निरन्तर जीवको (दहै) जला रही है, (तातैं)
इसलिये (समामृत) समतारूप अमृतका (सेइये) सेवन करना
चाहिये । (विषय-कषाय) विषय-कषायका (चिर भजे) अनादिकालसे
सेवन किया है, (अब तो) अब तो (त्याग) उसका त्याग करके
(निजपद) आत्मस्वरूपको (बेइये) जानना चाहिये–प्राप्त करना
चाहिये । (पर पदमें) परपदार्थोंमें–परभावोंमें (कहा) क्यों (रच्यो)

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आसक्त-सन्तुष्ट हो रहा है? (यहै) यह (पद) पद (तेरो) तेरा (न)
नहीं है । तू (दुख) दुःख (क्यों) किसलिये (सहै) सहन करता है?
(दौल !) हे दौलतराम ! (अब) अब (स्वपद) अपने
आत्मपद–सिद्धपदमें (रचि) लगकर (सुखी) सुखी (होउ) होओ !
(यह) यह (दाव) अवसर (मत चूकौ) न गँवाओ !
भावार्थ :यह राग (मोह, अज्ञान) रूपी अग्नि
अनादिकालसे निरन्तर संसारी जीवोंको जला रही है-दुःखी कर
रही है; इसलिये जीवोंको निश्चयरत्नत्रयमय समतारूपी अमृतका
पान करना चाहिये, जिससे राग-द्वेष-मोह (अज्ञान)का नाश हो ।
विषय-कषायोंका सेवन विपरीत पुरुषार्थ द्वारा अनादिकालसे कर
रहा है; अब उसका त्याग करके आत्मपद (मोक्ष) प्राप्त करना
चाहिये । तू दुःख किसलिये सहन करता है ? तेरा वास्तविक
स्वरूप अनन्तदर्शन-ज्ञान-सुख और अनन्तवीर्य है, उसमें लीन
होना चाहिये । ऐसा करनेसे ही सच्चा-सुख मोक्ष प्राप्त हो सकता
है; इसलिये हे दौलतराम ! हे जीव ! अब आत्मस्वरूपकी प्राप्ति
कर ! आत्मस्वरूपको पहिचान ! यह उत्तम अवसर बारम्बार प्राप्त
नहीं होता; इसलिये इसे न गँवा । सांसारिक मोहका त्याग करके
मोक्षप्राप्तिका उपाय कर !
यहाँ विशेष यह समझना कि–जीव अनादिकालसे
मिथ्यात्वरूपी अग्नि तथा राग-द्वेषरूप अपने अपराधसे ही दुःखी
हो रहा है; इसलिये अपने यथार्थ पुरुषार्थसे ही सुखी हो सकता
है । ऐसा नियम होनेसे जड़कर्मके उदयसे या किसी परके कारण
दुःखी हो रहा है अथवा परके द्वारा जीवको लाभ-हानि होते हैं
–ऐसा मानना उचित नहीं है
।।१५।।

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ग्रन्थ-रचनाका काल और उसमें आधार
इक नव वसु इक वर्षकी, तीज शुक्ल वैशाख
करयो तत्त्व-उपदेश यह, लखि बुधजनकी भाख ।।
लघु-धी तथा प्रमादतैं, शब्द अर्थकी भूल
सुधी सुधार पढ़ो सदा, जो पावो भव-कूल ।।१६।।
भावार्थ :पण्डित बुधजनकृत छहढालाके कथनका
आधार लेकर मैंने (दौलतरामने) विक्रम संवत् १८९१ वैशाख शुक्ल
३ (अक्षय तृतीया)के दिन इस छहढाला ग्रन्थकी रचना की है ।
मेरी अल्पबुद्धि तथा प्रमादवश उसमें कहीं शब्दकी या अर्थकी भूल
रह गई हो तो बुद्धिमान उसे सुधारकर पढ़ें, ताकि जीव संसार-
समुद्रको पार करनेमें शक्तिमान हो ।
छठवीं ढालका सारांश
जिस चारित्रके होनेसे समस्त परपदार्थोंसे वृत्ति हट जाती
है, वर्णादि तथा रागादिसे चैतन्यभावको पृथक् कर लिया जाता
है, अपने आत्मामें, आत्माके लिये, आत्मा द्वारा, अपने आत्माका
ही अनुभव होने लगता है, वहाँ नय, प्रमाण, निक्षेप, गुण-गुणी,
ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय, ध्यान-ध्याता-ध्येय, कर्ता-कर्म और क्रिया आदि
इस ग्रन्थमें छह प्रकारके छन्द और छह प्रकरण हैं, इसलिये तथा
जिस प्रकार तीक्ष्ण शस्त्रोंके प्रहारको रोकनेवाली ढाल होती है,
उसीप्रकार जीवको अहितकारी शत्रु–मिथ्यात्व, रागादि, आस्रवों-
का तथा अज्ञानांधकारको रोकनेके लिये ढालके समान यह छह
प्रकरण है; इसलिये इस ग्रन्थका नाम छहढाला रखा गया है

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भेदोंका किंचित् विकल्प नहीं रहता; शुद्ध उपयोगरूप अभेद
रत्नत्रय द्वारा शुद्ध चैतन्यका ही अनुभव होने लगता है, उसे
स्वरूपाचरणचारित्र कहते हैं । यह स्वरूपाचरणचारित्र चौथे
गुणस्थानसे प्रारम्भ होकर मुनिदशामें अधिक उच्च होता है ।
तत्पश्चात् शुक्लध्यान द्वारा चार घातिकर्मोंका नाश होने पर वह
जीव केवलज्ञान प्राप्त करके १८ दोष रहित श्री अरिहन्तपद प्राप्त
करता है; फि र शेष चार अघातिकर्मोंका भी नाश करके क्षणमात्रमें
मोक्ष प्राप्त कर लेता है; उस आत्मामें अनन्तकाल तक अनन्त
चतुष्टयका (अनन्तज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्यका) एक-सा अनुभव होता
रहता है; फि र उसे पंचपरावर्तनरूप संसारमें नहीं भटकना पड़ता;
वह कभी अवतार धारण नहीं करता; सदैव अक्षय-अनन्त सुखका
अनुभव करता है; अखण्डित ज्ञान-आनन्दरूप अनन्तगुणोंमें निश्चल
रहता है; उसे मोक्षस्वरूप कहते हैं ।
जो जीव मोक्षकी प्राप्तिके लिये इस रत्नत्रयको धारण करते
हैं और करेंगे, उन्हें अवश्य ही मोक्षकी प्राप्ति होगी । प्रत्येक संसारी
जीव मिथ्यात्व, कषाय और विषयोंका सेवन तो अनादिकालसे
करता आया है; किन्तु उससे उसे किंचित् शान्ति प्राप्त नहीं हुई ।
शान्तिका एकमात्र कारण तो मोक्षमार्ग है; उसमें उस जीवने कभी
तत्परतापूर्वक प्रवृत्ति नहीं की; इसलिये अब भी यदि शान्तिकी
(आत्महितकी) इच्छा हो तो आलस्यको छोड़कर, (आत्माका)
कर्तव्य समझकर; रोग और वृद्धावस्थादि आनेसे पूर्व ही मोक्षमार्गमें
प्रवृत्त हो जाना चाहिये; क्योंकि यह पुरुषपर्याय, सत्समागम आदि
सुयोग बारम्बार प्राप्त नहीं होते; इसलिये उन्हें व्यर्थ न गँवाकर
अवश्य ही आत्महित साध लेना चाहिये ।

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छठवीं ढालका भेद-संग्रह
अंतरंग तपके नाम :–प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय,
व्युत्सर्ग और ध्यान ।
उपयोग–शुद्ध उपयोग, शुभ उपयोग और अशुभ उपयोग–ऐसे तीन
उपयोग हैं । यह चारित्रगुणकी अवस्थाएँ हैं । (जानना-
देखना वह ज्ञान-दर्शनगुणका उपयोग है– यह बात यहाँ
नहीं है ।)
छियालीस दोष–दाताके आश्रित १६ उद्गम दोष, पात्रके आश्रित
१६ उत्पादन दोष तथा आहार सम्बन्धी १० और भोजन
क्रिया सम्बन्धी ४–ऐसे कुल ४६ दोष हैं ।
तीन रत्न–सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ।
तेरह प्रकारका चारित्र–पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति ।
धर्म–उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग,
आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य–ऐसे दस प्रकार हैं । [दसों धर्मोंको
उत्तम संज्ञा है; इसलिये निश्चयसम्यक्दर्शनपूर्वक
वीतरागभावनाके ही वे दस प्रकार हैं । ]
मुनिकी क्रिया– (मुनिके गुण) –मूलगुण २८ हैं ।
रत्नत्रय–निश्चय और व्यवहार अथवा मुख्य और उपचार–ऐसे दो
प्रकार हैं ।
सिद्ध परमात्माके गुण–सर्व गुणोंमें सम्पूर्ण शुद्धता प्रगट होने पर
सर्व प्रकारसे अशुद्ध पर्यायोंका नाश होनेसे, ज्ञानावरणादि
आठों कर्मोंका स्वयं सर्वथा नाश हो जाता है और गुण

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प्रगट नहीं होते; किन्तु गुणोंकी निर्मल पर्यायें प्रगट होती
हैं; जैसे कि–अनन्तदर्शन-ज्ञान-सम्यक्त्व-सुख, अनन्तवीर्य,
अटल अवगाहना, अमूर्तिक (सूक्ष्मत्व) और अगुरुलघुत्व ।
–यह आठ मुख्य गुण व्यवहारसे कहे हैं, निश्चयसे तो
प्रत्येक सिद्धके अनन्त गुण समझना चाहिये ।
शील–अचेतन स्त्री–तीन [कठोर स्पर्श, कोमल स्पर्श, चित्रपट ]
प्रकारकी, उसके साथ तीन करण [करना, कराना और
अनुमोदना करना ] से दो [मन, वचन ] योग द्वारा पाँच
इन्द्रियाँ [कर्ण, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्श ] से चार
संज्ञा [आहार, भय, मैथुन, परिग्रह ] सहित द्रव्यसे सेवन
और भावसे सेवन ३×३×२×५×४×२=७२०–ऐसे भेद
हुए ।
चेतन स्त्री–[देवी, मनुष्य, तिर्यंच ] तीन प्रकारकी, उनके साथ तीन
करण [करना, कराना और अनुमोदना करना ] से तीन
[मन, वचन, कायारूप ] योग द्वारा, पाँच [कर्ण, चक्षु, घ्राण,
रसना, स्पर्शरूप ] इन्द्रियोंसे, चार [आहार, भय, मैथुन,
परिग्रह ] संज्ञा सहित द्रव्यसे और भावसे, सोलह
[अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरणीय, प्रत्याख्यानावरणीय ]
और संज्वलन–इन चार प्रकारसे क्रोध, मान, माया,
लोभ–ऐसे प्रत्येक ] प्रकारसे सेवन ३×३×३×५×४
×२×१६=१७२८० भेद हुए ।
प्रथम ७२० और दूसरे १७२८० भेद मिलकर=१८०००
भेद मैथुन-कर्मके दोषरूप भेद हैं; उनका अभाव सो शील
है; उसे निर्मल स्वभाव अथवा शील कहते हैं ।

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नय–निश्चय और व्यवहार ।
निक्षेप–नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव–ये चार हैं ।
प्रमाण–प्रत्यक्ष और परोक्ष ।
छठवीं ढालका लक्षण-संग्रह
अंतरंग तप–शुभाशुभ इच्छाओंके निरोधपूर्वक आत्मामें निर्मल
ज्ञान-आनंदके अनुभवसे अखण्डित प्रतापवन्त रहना;
निस्तरंग चैतन्यरूपसे शोभित होना ।
अनुभव–स्वोन्मुख हुए ज्ञान और सुखका रसास्वादन ।
वस्तु विचारत ध्यावतैं, मन पावे विश्राम ।
रस स्वादत सुख ऊपजै, अनुभव याको नाम ।।
आवश्यक–मुनियोंको अवश्य करने योग्य स्ववश शुद्ध आचरण ।
कायगुप्ति–कायाकी ओर उपयोग न जाकर आत्मामें ही लीनता ।
गुप्ति–मन, वचन, कायाकी ओर उपयोगकी प्रवृत्तिको भली-भाँति
आत्मभानपूर्वक रोकना अर्थात् आत्मामें ही लीनता होना सो
गुप्ति है ।
तप–स्वरूपविश्रान्त, निस्तरंगरूपसे निज शुद्धतामें प्रतापवन्त
होना–शोभायमान होना सो तप है । उसमें जितनी शुभाशुभ
इच्छाओंका निरोध होकर शुद्धता बढ़ती है, वह तप है,
अन्य बारह भेद तो व्यवहार (उपचार) तपके हैं ।
ध्यान–सर्व विकल्पोंको छोड़कर अपने ज्ञानको लक्षमें स्थिर करना
सो ध्यान है ।

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नय–वस्तुके एक अंशको मुख्य करके जाने वह नय है और वह
उपयोगात्मक है । सम्यक् श्रुतज्ञानप्रमाणका अंश वह नय है ।
निक्षेप–न्ायज्ञान द्वारा बाधारहितरूपसे प्रसंगवशात् पदार्थमें
नामादिकी स्थापना करना सो निक्षेप है ।
परिग्रह–परवस्तुमें ममताभाव (मोह अथवा ममत्व) ।
परिषहजय–दुःखके कारण मिलनेसे दुःखी न हो तथा सुखके
कारण मिलनेसे सुखी न हो; किन्तु ज्ञातारूपसे उस ज्ञेयका
जाननेवाला ही रहे–वही सच्चा परिषहजय है ।
प्रतिक्रमण–मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान एवं मिथ्याचारित्रको निरवशेष-
रूपसे छोड़कर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्रको
(जीव) भाता है, वह (जीव) प्रतिक्रमण है ।
(नियमसार गाथा-९१)
प्रमाण–स्व-पर वस्तुका निश्चय करनेवाला सम्यग्ज्ञान ।
बहिरंग तप–दूसरे देख सकें ऐसे पर-पदार्थोंसे सम्बन्धित
इच्छानिरोध ।
मनोगुप्ति–मनकी ओर उपयोग न जाकर आत्मामें ही लीनता ।
महाव्रत–निश्चयरत्नत्रयपूर्वक तीनों योग (मन, वचन, काय) तथा
करने-कराने-अनुमोदनके भेद सहित हिंसादि पाँच पापोंका
सर्वथा त्याग ।
जैन साधु (मुनि)को हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और
परिग्रह–इन पाँचों पापोंका सर्वथा त्याग होता है ।
रत्नत्रय–निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ।

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वचनगुप्ति–बोलनेकी इच्छाको रोकना अर्थात् आत्मामें लीनता ।
शुक्लध्यान–अत्यन्त निर्मल, वीतरागता पूर्ण ध्यान ।
शुद्ध उपयोग–शुभ-अशुभ राग-द्वेषादिसे रहित आत्माकी चारित्र-
परिणति ।
समिति–प्रमादरहित यत्नाचारसहित सम्यक् प्रवृत्ति ।
स्वरूपाचरणचारित्र–आत्म–स्वरूपमें एकाग्रतापूर्वक रमणता
लीनता ।
अन्तर-प्रदर्शन
१. ‘‘नय’’ तो ज्ञाता अर्थात् जाननेवाला है और ‘‘निक्षेप’’ ज्ञेय
अर्थात् ज्ञानमें ज्ञात होने योग्य है ।
२. प्रमाण तो वस्तुके सामान्य-विशेष समस्त भागोंको जानता है;
किन्तु नय वस्तुके एक भागको मुख्य रखकर जानता है ।
३. शुभ उपयोग तो बन्धका अथवा संसारका कारण है; किन्तु
शुद्ध उपयोग निर्जरा और मोक्षका कारण है ।
प्रश्नावली
१. अंतरंग तप, अनुभव, आवश्यक, गुप्ति, गुप्तियाँ, तप,
द्रव्यहिंसा, अहिंसा, ध्यानस्थ मुनि, नय, निश्चय, आत्मचारित्र,
परिग्रह, प्रमाण, प्रमाद, प्रतिक्रमण, बहिरंग तप, भावहिंसा,
अहिंसा, महाव्रत, पंच महाव्रत, रत्नत्रय, शुद्धात्म अनुभव,
शुद्ध उपयोग, शुक्लध्यान, समिति और समितियोंके लक्षण
बतलाओ ।

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२. अघातिया, आवश्यक, उपयोग, कायगुप्ति, छियालीस दोष,
तप, धर्म, परिग्रह, प्रमाद, प्रमाण, मुनिक्रिया, महाव्रत,
रत्नत्रय, शील, शेष गुण, समिति, साधुगुण और सिद्धगुणके
भेद कहो ।
३. नय और निक्षेपमें, प्रमाण और नयमें, ज्ञान और आत्मामें, शुभ
उपयोग और शुद्ध उपयोगमें अन्तर बतलाओ ।
४. आठवीं पृथ्वी, ग्रन्थ, ग्रन्थकार, ग्रन्थ-छन्द, ग्रन्थ-प्रकरण,
सर्वोत्तम तप, सर्वोत्तम धर्म, संयमका उपकरण, शुचिका
उपकरण और ज्ञानका उपकरण–आदिके नाम बतलाओ ।
५. ध्यानस्थ मुनि, सम्यग्ज्ञान और सिद्धका सुख आदिके दृष्टान्त
बतालाओ ।
६. छह ढालोंके नाम, मुनिके पींछी आदिका अपरिग्रहपना,
रत्नत्रयके नाम, श्रावक को नग्नताका अभाव आदिके सिफ र्
कारण बतलाओ ।
७. अरिहन्त दशाका समय, अन्तिम उपदेश, आत्मस्थिरताके
समयका सुख, केशलोंचका समय, कर्मनाशसे उत्पन्न
होनेवाले गुणोंका विभाग, ग्रन्थ-रचनाका काल, जीवकी
नित्यता तथा अमूर्तिकपना, परिषह-जयका फल, रागरूपी
अग्निकी शान्तिका उपाय, शुद्ध आत्मा, शुद्ध उपयोगका
विचार और दशा, सकलचारित्र, सिद्धोंकी आयु, निवासस्थान
और समय तथा स्वरूपाचरणचारित्रादिका वर्णन करो ।
८. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, देशचारित्र,
सकलचारित्र, चार गति, स्वरूपाचरणचारित्र, बारह व्रत,

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बारह भावना, मिथ्यात्व और मोक्षादि विषयों पर लेख लिखो ।
९. दिगम्बर जैन मुनिका भोजन, समता, विहार, नग्नतासे हानि-
लाभ; दिगम्बर जैन मुनिको रात्रिगमनका विधि या निषेध,
दिगम्बर जैन मुनिको घड़ी, चटाई (आसन) या चश्मा आदि
रखनेका विधि या निषेध–आदि बातोंका स्पष्टीकरण करो ।
१०. अमुक शब्द, चरण और छन्दका अर्थ या भावार्थ कहो ।
छठवीं ढालका सारांश बतलाओ ।
इति कविवर पण्डित दौलतराम विरचित
छहढालाके गुजराती–अनुवादका हिन्दी-अनुवाद
समाप्त