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करके (छिनमांहि) कुछ ही समयमें (अष्टम भू) आठवीं
पृथ्वी–ईषत् प्राग्भार–मोक्षक्षेत्रमें (वसैं) निवास करते हैं; उनको
(वसु कर्म) आठ कर्मोंका (विनसैं) नाश हो जानेसे (सम्यक्त्व
आदिक) सम्यक्त्वादि (सब) समस्त (वसु सुगुण) आठ मुख्य
गुण (लसैं) शोभायमान होते हैं । [ऐसे सिद्ध होनेवाले
मुक्तात्मा ] (संसार खार अपार पारावार) संसाररूपी खारे तथा
अगाध समुद्रको (तरि) पार करके (तीरहिं) किनारे पर (गये)
पहुँच जाते हैं और (अविकार) विकाररहित, (अकल)
शरीररहित, (अरूप) रूपरहित, (शुचि) शुद्ध-निर्दोष (चिद्रूप)
दर्शन-ज्ञान-चेतनास्वरूप तथा (अविनाशी) नित्य-स्थायी (भये)
होते हैं ।
होती है, उनका क्रमशः अभाव होकर वह जीव पूर्ण शुद्धदशाको
प्रगट करता है और उस समय असिद्धत्व नामक अपने
उदयभावका नाश होता है तथा चार अघाति कर्मोंका भी स्वयं
सर्वथा अभाव हो जाता है । सिद्धदशामें सम्यक्त्वादि आठ गुण
(गुणोंकी निर्मल पर्यायें) प्रगट होते हैं । मुख्य आठ गुण
व्यवहारसे कहे हैं; निश्चयसे तो अनन्त गुण (सर्व गुणोंकी पर्यायें)
शुद्ध होते हैं और स्वाभाविक ऊर्ध्वगमनके कारण एक
समयमात्रमें लोकाग्रमें पहुँचकर वहाँ स्थिर रह जाते हैं । ऐसे
जीव संसाररूपी दुःखदायी तथा अगाध समुद्रसे पार हो गये हैं
और वही जीव निर्विकारी, अशरीरी, अमूर्तिक, शुद्ध चैतन्यरूप
तथा अविनाशी होकर सिद्धदशाको प्राप्त हुए हैं
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हुए हैं (तथा) उसीप्रकार (अनन्तानन्त काल) अनन्त-अनन्त काल
(किया) किया है, वे जीव (धनि धन्य हैं) महान धन्यवादके पात्र
हैं और (तिनही) उन्हीं जीवोंने (अनादि) अनादिकालसे चले आ
रहे (पंच प्रकार) पाँच प्रकारके परिवर्तनरूप (भ्रमण)
संसारपरिभ्रमणको (तजि) छोड़कर (वर) उत्तम (सुख) सुख
(लिया) प्राप्त किया है ।
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पर्यायों सहित एक साथ, स्वच्छ दर्पणके दृष्टान्तरूपसे-सर्व प्रकारसे
स्पष्ट ज्ञात होते हैं; (किन्तु ज्ञानमें दर्पणकी भाँति छाया और
आकृति नहीं पड़ती) वे पूर्ण पवित्रतारूप मोक्षदशाको प्राप्त हुए हैं
तथा वह दशा वहाँ विद्यमान अन्य सिद्ध-मुक्त जीवोंकी भाँति
बाधा नहीं आती । यह मनुष्यपर्याय प्राप्त करके जिन जीवोंने यह
शुद्ध चैतन्यकी प्राप्तिरूप कार्य किया है, वे जीव महान धन्यवाद
(प्रशंसा)के पात्र हैं और उन्होंने अनादिकालसे चले आ रहे पंच
परावर्तनरूप संसारके परिभ्रमणका त्याग करके उत्तम सुख-
मोक्षसुख प्राप्त किया है
उसीप्रकार जिन्होंने संसारके कारणोंका सर्वथा नाश कर दिया, वे पुनः
अवतार-जन्म धारण नहीं करते अथवा जिसप्रकार मक्खनसे घी हो
जानेके पश्चात् पुनः मक्खन नहीं बनता; उसीप्रकार आत्माकी सम्पूर्ण
पवित्रतारूप अशरीरी मोक्षदशा [परमात्मपद] प्रगट करनेके पश्चात्
उसमें कभी अशुद्धता नहीं आती अर्थात् संसारमें पुनः आगमन नहीं
होता ।
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प्रकारके (रत्नत्रय) रत्नत्रयको (धरैं अरु धरेंगे) धारण करते हैं
और करेंगे (ते) वे (शिव) मोक्ष (लहैं) प्राप्त करते हैं और (तिन)
उन जीवोंका (सुयश-जल) सुकीर्तिरूपी जल (जग-मल)
संसाररूपी मैलको (हरैं) नाश करता है ।
(साहस) पुरुषार्थ (ठानि) करके (यह) यह (सिख) शिक्षा-उपदेश
(आदरौ) ग्रहण करो कि (जबलौं) जब तक (रोग जरा) रोग या
वृद्धावस्था (न गहै) न आये (तबलौं) तब तक (झटिति) शीघ्र
(निज हित) आत्माका हित (करौ) कर लेना चाहिये ।
तत्त्वोंका स्वरूप समझकर अपने शुद्ध उपादान-आश्रित
निश्चयरत्नत्रयको ( शुद्धात्माश्रित वीतरागभावस्वरूप मोक्षमार्गको)
धारण करते हैं तथा करेंगे वे जीव पूर्ण पवित्रतारूप मोक्षमार्गको
प्राप्त होते हैं और होंगे । [गुणस्थानके प्रमाणमें शुभराग आता है,
वह व्यवहार-रत्नत्रयका स्वरूप जानना तथा उसे निश्चयसे उपादेय
न मानना, उसका नाम व्यवहार-रत्नत्रयका धारण करना है । ] जो
जीव मोक्षको प्राप्त हुए हैं और होंगे उनका सुकीर्ति रूपी जल कैसा
है?–कि जो सिद्ध परमात्माका यथार्थ स्वरूप समझकर स्वोन्मुख
होनेवाले भव्य जीव हैं, उनके संसार (
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सच्चा पुरुषार्थ करके यह उपदेश अंगीकार करो । जब तक रोग
या वृद्धावस्थाने शरीरको नहीं घेरा है, तब तक शीघ्र वर्तमानमें
ही आत्माका हित कर लो
इसलिये (समामृत) समतारूप अमृतका (सेइये) सेवन करना
चाहिये । (विषय-कषाय) विषय-कषायका (चिर भजे) अनादिकालसे
सेवन किया है, (अब तो) अब तो (त्याग) उसका त्याग करके
(निजपद) आत्मस्वरूपको (बेइये) जानना चाहिये–प्राप्त करना
चाहिये । (पर पदमें) परपदार्थोंमें–परभावोंमें (कहा) क्यों (रच्यो)
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नहीं है । तू (दुख) दुःख (क्यों) किसलिये (सहै) सहन करता है?
(दौल !) हे दौलतराम ! (अब) अब (स्वपद) अपने
आत्मपद–सिद्धपदमें (रचि) लगकर (सुखी) सुखी (होउ) होओ !
(यह) यह (दाव) अवसर (मत चूकौ) न गँवाओ !
रही है; इसलिये जीवोंको निश्चयरत्नत्रयमय समतारूपी अमृतका
पान करना चाहिये, जिससे राग-द्वेष-मोह (अज्ञान)का नाश हो ।
विषय-कषायोंका सेवन विपरीत पुरुषार्थ द्वारा अनादिकालसे कर
रहा है; अब उसका त्याग करके आत्मपद (मोक्ष) प्राप्त करना
चाहिये । तू दुःख किसलिये सहन करता है ? तेरा वास्तविक
स्वरूप अनन्तदर्शन-ज्ञान-सुख और अनन्तवीर्य है, उसमें लीन
होना चाहिये । ऐसा करनेसे ही सच्चा-सुख मोक्ष प्राप्त हो सकता
है; इसलिये हे दौलतराम ! हे जीव ! अब आत्मस्वरूपकी प्राप्ति
कर ! आत्मस्वरूपको पहिचान ! यह उत्तम अवसर बारम्बार प्राप्त
नहीं होता; इसलिये इसे न गँवा । सांसारिक मोहका त्याग करके
मोक्षप्राप्तिका उपाय कर !
हो रहा है; इसलिये अपने यथार्थ पुरुषार्थसे ही सुखी हो सकता
है । ऐसा नियम होनेसे जड़कर्मके उदयसे या किसी परके कारण
दुःखी हो रहा है अथवा परके द्वारा जीवको लाभ-हानि होते हैं
–ऐसा मानना उचित नहीं है
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३ (अक्षय तृतीया)के दिन इस छहढाला ग्रन्थकी रचना की है ।
मेरी अल्पबुद्धि तथा प्रमादवश उसमें कहीं शब्दकी या अर्थकी भूल
रह गई हो तो बुद्धिमान उसे सुधारकर पढ़ें, ताकि जीव संसार-
समुद्रको पार करनेमें शक्तिमान हो ।
है, अपने आत्मामें, आत्माके लिये, आत्मा द्वारा, अपने आत्माका
ही अनुभव होने लगता है, वहाँ नय, प्रमाण, निक्षेप, गुण-गुणी,
ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय, ध्यान-ध्याता-ध्येय, कर्ता-कर्म और क्रिया आदि
जिस प्रकार तीक्ष्ण शस्त्रोंके प्रहारको रोकनेवाली ढाल होती है,
उसीप्रकार जीवको अहितकारी शत्रु–मिथ्यात्व, रागादि, आस्रवों-
का तथा अज्ञानांधकारको रोकनेके लिये ढालके समान यह छह
प्रकरण है; इसलिये इस ग्रन्थका नाम छहढाला रखा गया है
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रत्नत्रय द्वारा शुद्ध चैतन्यका ही अनुभव होने लगता है, उसे
स्वरूपाचरणचारित्र कहते हैं । यह स्वरूपाचरणचारित्र चौथे
गुणस्थानसे प्रारम्भ होकर मुनिदशामें अधिक उच्च होता है ।
तत्पश्चात् शुक्लध्यान द्वारा चार घातिकर्मोंका नाश होने पर वह
जीव केवलज्ञान प्राप्त करके १८ दोष रहित श्री अरिहन्तपद प्राप्त
करता है; फि र शेष चार अघातिकर्मोंका भी नाश करके क्षणमात्रमें
मोक्ष प्राप्त कर लेता है; उस आत्मामें अनन्तकाल तक अनन्त
चतुष्टयका (अनन्तज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्यका) एक-सा अनुभव होता
रहता है; फि र उसे पंचपरावर्तनरूप संसारमें नहीं भटकना पड़ता;
वह कभी अवतार धारण नहीं करता; सदैव अक्षय-अनन्त सुखका
अनुभव करता है; अखण्डित ज्ञान-आनन्दरूप अनन्तगुणोंमें निश्चल
रहता है; उसे मोक्षस्वरूप कहते हैं ।
जीव मिथ्यात्व, कषाय और विषयोंका सेवन तो अनादिकालसे
करता आया है; किन्तु उससे उसे किंचित् शान्ति प्राप्त नहीं हुई ।
शान्तिका एकमात्र कारण तो मोक्षमार्ग है; उसमें उस जीवने कभी
तत्परतापूर्वक प्रवृत्ति नहीं की; इसलिये अब भी यदि शान्तिकी
(आत्महितकी) इच्छा हो तो आलस्यको छोड़कर, (आत्माका)
कर्तव्य समझकर; रोग और वृद्धावस्थादि आनेसे पूर्व ही मोक्षमार्गमें
प्रवृत्त हो जाना चाहिये; क्योंकि यह पुरुषपर्याय, सत्समागम आदि
सुयोग बारम्बार प्राप्त नहीं होते; इसलिये उन्हें व्यर्थ न गँवाकर
अवश्य ही आत्महित साध लेना चाहिये ।
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देखना वह ज्ञान-दर्शनगुणका उपयोग है– यह बात यहाँ
नहीं है ।)
क्रिया सम्बन्धी ४–ऐसे कुल ४६ दोष हैं ।
तेरह प्रकारका चारित्र–पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति ।
धर्म–उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग,
उत्तम संज्ञा है; इसलिये निश्चयसम्यक्दर्शनपूर्वक
वीतरागभावनाके ही वे दस प्रकार हैं । ]
रत्नत्रय–निश्चय और व्यवहार अथवा मुख्य और उपचार–ऐसे दो
आठों कर्मोंका स्वयं सर्वथा नाश हो जाता है और गुण
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हैं; जैसे कि–अनन्तदर्शन-ज्ञान-सम्यक्त्व-सुख, अनन्तवीर्य,
अटल अवगाहना, अमूर्तिक (सूक्ष्मत्व) और अगुरुलघुत्व ।
–यह आठ मुख्य गुण व्यवहारसे कहे हैं, निश्चयसे तो
प्रत्येक सिद्धके अनन्त गुण समझना चाहिये ।
अनुमोदना करना ] से दो [मन, वचन ] योग द्वारा पाँच
इन्द्रियाँ [कर्ण, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्श ] से चार
संज्ञा [आहार, भय, मैथुन, परिग्रह ] सहित द्रव्यसे सेवन
और भावसे सेवन ३×३×२×५×४×२=७२०–ऐसे भेद
हुए ।
[मन, वचन, कायारूप ] योग द्वारा, पाँच [कर्ण, चक्षु, घ्राण,
रसना, स्पर्शरूप ] इन्द्रियोंसे, चार [आहार, भय, मैथुन,
परिग्रह ] संज्ञा सहित द्रव्यसे और भावसे, सोलह
[अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरणीय, प्रत्याख्यानावरणीय ]
और संज्वलन–इन चार प्रकारसे क्रोध, मान, माया,
लोभ–ऐसे प्रत्येक ] प्रकारसे सेवन ३×३×३×५×४
×२×१६=१७२८० भेद हुए ।
है; उसे निर्मल स्वभाव अथवा शील कहते हैं ।
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निक्षेप–नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव–ये चार हैं ।
प्रमाण–प्रत्यक्ष और परोक्ष ।
निस्तरंग चैतन्यरूपसे शोभित होना ।
रस स्वादत सुख ऊपजै, अनुभव याको नाम ।।
कायगुप्ति–कायाकी ओर उपयोग न जाकर आत्मामें ही लीनता ।
गुप्ति–मन, वचन, कायाकी ओर उपयोगकी प्रवृत्तिको भली-भाँति
गुप्ति है ।
इच्छाओंका निरोध होकर शुद्धता बढ़ती है, वह तप है,
अन्य बारह भेद तो व्यवहार (उपचार) तपके हैं ।
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परिषहजय–दुःखके कारण मिलनेसे दुःखी न हो तथा सुखके
जाननेवाला ही रहे–वही सच्चा परिषहजय है ।
(जीव) भाता है, वह (जीव) प्रतिक्रमण है ।
बहिरंग तप–दूसरे देख सकें ऐसे पर-पदार्थोंसे सम्बन्धित
महाव्रत–निश्चयरत्नत्रयपूर्वक तीनों योग (मन, वचन, काय) तथा
सर्वथा त्याग ।
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शुक्लध्यान–अत्यन्त निर्मल, वीतरागता पूर्ण ध्यान ।
शुद्ध उपयोग–शुभ-अशुभ राग-द्वेषादिसे रहित आत्माकी चारित्र-
स्वरूपाचरणचारित्र–आत्म–स्वरूपमें एकाग्रतापूर्वक रमणता
परिग्रह, प्रमाण, प्रमाद, प्रतिक्रमण, बहिरंग तप, भावहिंसा,
अहिंसा, महाव्रत, पंच महाव्रत, रत्नत्रय, शुद्धात्म अनुभव,
शुद्ध उपयोग, शुक्लध्यान, समिति और समितियोंके लक्षण
बतलाओ ।
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रत्नत्रय, शील, शेष गुण, समिति, साधुगुण और सिद्धगुणके
भेद कहो ।
उपकरण और ज्ञानका उपकरण–आदिके नाम बतलाओ ।
कारण बतलाओ ।
होनेवाले गुणोंका विभाग, ग्रन्थ-रचनाका काल, जीवकी
नित्यता तथा अमूर्तिकपना, परिषह-जयका फल, रागरूपी
अग्निकी शान्तिका उपाय, शुद्ध आत्मा, शुद्ध उपयोगका
विचार और दशा, सकलचारित्र, सिद्धोंकी आयु, निवासस्थान
और समय तथा स्वरूपाचरणचारित्रादिका वर्णन करो ।
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दिगम्बर जैन मुनिको घड़ी, चटाई (आसन) या चश्मा आदि
रखनेका विधि या निषेध–आदि बातोंका स्पष्टीकरण करो ।