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तक धारण किये रहता है, फि र उसको छोड़कर अन्य शरीर धारण करता है। इसलिये
शरीर-सम्बन्धकी अपेक्षा जन्मादिक हैं। जीव जन्मादि रहित नित्य ही है तथापि मोही जीवको
अतीत-अनागतका विचार नहीं है; इसलिए प्राप्त पर्यायमात्र ही अपनी स्थिति मानकर पर्याय
सम्बन्धी कार्योंमें ही तत्पर हो रहा है।
धारण करता है। इस जातिकर्मके उदयको और मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमको निमित्त-
नैमित्तिकपना जानना। जैसा क्षयोपशम हो वैसी जाति प्राप्त करता है।
शरीरमें अंगोपांगादिकके योग्य स्थान प्रमाणसहित होते हैं। इसीसे स्पर्शन, रसना आदि द्रव्य-
इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं तथा हृदयस्थानमें आठ पंखुरियोंके फू ले हुए कमलके आकार द्रव्यमन
होता है। तथा उस शरीरमें ही आकारादिकका विशेष होना, वर्णादिकका विशेष होना और
स्थूल-सूक्ष्मत्वादिका होना इत्यादि कार्य उत्पन्न होते हैं; सो वे शरीररूप परिणमित परमाणु इस
प्रकार परिणमित होते हैं।
जैसे आहारका ग्रहण करे और निहारको निकाले तभी जीना होता है; उसी प्रकार बाह्य पवनको
ग्रहण करे और अभ्यंतर पवनको निकाले तभी जीवितव्य रहता है। इसलिये श्वासोच्छ्वास
जीवितव्यका कारण है। इस शरीरमें जिस प्रकार हाड़-मांसादिक हैं उसी प्रकार पवन जानना।
तथा जैसे हस्तादिकसे कार्य करते हैं वैसे ही पवनसे ही कार्य करते हैं। मुँहमें जो ग्रास
रखा उसे पवनसे निगलते हैं, मलादिक पवनसे बाहर निकालते हैं, वैसे ही अन्य जानना।
तथा नाड़ी, वायुरोग, वायगोला इत्यादिको पवनरूप शरीरके अंग जानना।
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अनक्षर शब्दरूप परिणमित होते हैं।
हो सकते हैं, दोनोंमेंसे एक बैठा रहे तो गमनादिक नहीं हो सकते, तथा दोनोंमें एक बलवान
हो तो दूसरेको भी घसीट ले जाये। उसी प्रकार आत्माके और शरीरादिकरूप पुद्गलके
एकक्षेत्रावगाहरूप बंधान है; वहाँ आत्मा हलन-चलनादि करना चाहे और पुद्गल उस शक्तिसे
रहित हुआ हलन-चलन न करे अथवा पुद्गलमें तो शक्ति पाई जाती है, परन्तु आत्माकी
इच्छा न हो तो हलन-चलनादि नहीं हो सकते। तथा इनमें पुद्गल बलवान होकर हलन-
चलन करे तो उसके साथ बिना इच्छाके भी आत्मा हलन-चलन करता है। इस प्रकार हलन-
चलनादि क्रिया होती है। तथा इसके अपयश आदि बाह्य निमित्त बनते हैं।
इस प्रकार इस अनादि संसारमें घाति-अघातिकर्मोंके उदयके अनुसार आत्माके अवस्था
करने पर ऐसा ही प्रतिभासित होता है। यदि ऐसा है तो तू यह मान कि
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जो बहुविधि भवदुखनिकौ, करिहै सत्ता नाश
हैं, इसलिये संसारसे मुक्त होनेका उपाय करते हैं।
तथा उसकी अवस्थाका वर्णन करके, संसारीको संसार-रोगका निश्चय कराके, अब उसका उपाय
करनेकी रुचि कराते हैं।
है, इसलिये दुःख दूर नहीं होता, तब तड़प-तड़पकर परवश हुआ उन दुःखोंको सहता है।
उसे वैद्य दुःखका मूलकारण बतलाये, दुःखका स्वरूप बतलाये, उन उपायोंको झूठा बतलाये,
तब सच्चे उपाय करनेकी रुचि होती है। उसी प्रकार संसारी संसारसे दुःखी हो रहा है,
परन्तु उसका मूलकारण नहीं जानता, तथा सच्चे उपाय नहीं जानता और दुःख सहा भी नहीं
जाता; तब अपनेको भासित हो वही उपाय करता है, इसलिये दुःख दूर नहीं होता, तब
तड़प-तड़पकर परवश हुआ उन दुःखोंको सहता है। उसे यहाँ दुःखका मूलकारण बतलाते
हैं, दुःखका स्वरूप बतलाते हैं और उन उपायोंको झूठे बतलायें तो सच्चे उपाय करनेकी
रुचि हो। इसलिये यह वर्णन यहाँ करते हैं।
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अज्ञान हो रहा है, उससे यथार्थ वस्तुस्वरूपका जानना नहीं होता, अन्यथा जानना होता है।
तथा चारित्रमोहके उदयसे हुआ कषायभाव उसका नाम असंयम है, उससे जैसे वस्तुस्वरूप
है वैसा नहीं प्रवर्तता, अन्यथा प्रवृत्ति होती है।
स्व मानता है। तथा आत्माका ज्ञान-दर्शनादि स्वभाव है उसके द्वारा किंचित् जानना-देखना
होता है; और कर्मोपाधिसे हुए क्रोधादिकभाव उनरूप परिणाम पाये जाते हैं; तथा शरीरका
स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण स्वभाव है वह प्रगट है और स्थूल-कृषादिक होना तथा स्पर्शादिकका
पलटना इत्यादि अनेक अवस्थायें होती हैं;
ऐसी मान्यतासे इन्द्रियोंमें प्रीति पायी जाती है।
है। जैसे कुत्ता ही चबाता है, उससे अपना लोहू निकले उसका स्वाद लेकर ऐसा मानता
है कि यह हयिोंका स्वाद है। उसी प्रकार यह जीव विषयोंको जानता है, उससे अपना
ज्ञान प्रवर्तता है, उसका स्वाद लेकर ऐसा मानता है कि यह विषयका स्वाद है। सो विषयमें
तो स्वाद है नहीं। स्वयं ही इच्छा की थी, उसे स्वयं ही जानकर स्वयं ही आनन्द मान
लिया; परन्तु मैं अनादि-अनन्त ज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ
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पदार्थका स्पर्श किया) शास्त्र जाना, मुझे यह जानना;
विषयोंकी इच्छा पायी जाती है।
परन्तु शक्ति इतनी ही है कि इन्द्रियोंके सन्मुख आनेवाले वर्तमान स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण,
शब्द; उनमेंसे किसीको किंचित् मात्र ग्रहण करे तथा स्मरणादिकसे मन द्वारा किंचित् जाने,
सो भी बाह्य अनेक कारण मिलने पर सिद्ध हो। इसलिए इच्छा कभी पूर्ण नहीं होती।
ऐसी इच्छा तो केवलज्ञान होने पर सम्पूर्ण हो।
हो रहा है। ऐसा दुःखी हो रहा है कि किसी एक विषयके ग्रहणके अर्थ अपने मरणको
भी नहीं गिनता है। जैसे हाथीको कपटकी हथिनीका शरीर स्पर्श करनेकी, मच्छको बंसीमें
लगा हुआ मांसका स्वाद लेनेकी, भ्रमरको कमल-सुगन्ध सूंघनेकी, पतंगेको दीपकका वर्ण देखनेकी
और हरिणको राग सुननेकी इच्छा ऐसी होती है कि तत्काल मरना भासित हो तथापि मरणको
नहीं गिनते। विषयोंका ग्रहण करने पर उसके मरण होता था, विषयसेवन नहीं करने पर
इन्द्रियों की पीड़ा अधिक भासित होती है। इन इन्द्रियोंकी पीड़ासे पीड़ितरूप सर्व जीव
निर्विचार होकर जैसे कोई दुःखी पर्वतसे गिर पड़े वैसे ही विषयोंमें छलाँग लगाते हैं। नाना
कष्टसे धन उत्पन्न करते हैं, उसे विषयके अर्थ खोते हैं। तथा विषयोंके अर्थ जहाँ मरण
होना जानते हैं वहाँ भी जाते हैं। नरकादिके कारण जो हिंसादिक कार्य उन्हें करते हैं तथा
क्रोधादि कषायोंको उत्पन्न करते हैं।
जैसे खाज-रोगसे पीड़ित हुआ पुरुष आसक्त होकर खुजाता है, पीड़ा न हो तो किसलिये
खुजाये; उसी प्रकार इन्द्रियरोगसे पीड़ित हुए इन्द्रादिक आसक्त होकर विषय सेवन करते हैं।
पीड़ा न हो तो किसलिये विषय सेवन करें?
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इन्द्रियोंको प्रबल करता है और ऐसा ही जानता है कि इन्द्रियोंके प्रबल रहनेसे मेरे विषय-ग्रहणकी
शक्ति विशेष होती है। तथा वहाँ अनेक बाह्य कारण चाहिए उनका निमित्त मिलाता है।
भोजनादिकका, पुष्पादिकका, मन्दिर-आभूषणादिकका तथा गान-वादित्रादिकका संयोग मिलानेके
अर्थ बहुत खेदखिन्न होता है।
भी मंद होता जाता है, इसलिए उन विषयोंको अपने आधीन रखनेका उपाय करता है और
शीघ्र-शीघ्र उनका ग्रहण किया करता है। तथा इन्द्रियोंके तो एक कालमें एक विषयका ही
ग्रहण होता है, किन्तु यह बहुत ग्रहण करना चाहता है, इसलिये आकुलित होकर शीघ्र-
शीघ्र एक विषयको छोड़कर अन्यको ग्रहण करता है, तथा उसे छोड़कर अन्यको ग्रहण करता
है
उदय अनुसार ऐसी ही विधि मिल जाये तो इन्द्रियोंको प्रबल करनेसे कहीं विषय-ग्रहणकी
शक्ति बढ़ती नहीं है; वह शक्ति तो ज्ञान-दर्शन बढ़ाने पर बढ़ती है सो यह कर्मके क्षयोपशमके
आधीन है। किसीका शरीर पुष्ट है उसके ऐसी शक्ति कम देखी जाती है, किसीका शरीर
दुर्बल है उसके अधिक देखी जाती है। इसलिए भोजनादि द्वारा इन्द्रियाँ पुष्ट करनेसे कुछ
सिद्धि है नहीं। कषायादि घटनेसे कर्मका क्षयोपशम होने पर ज्ञान-दर्शन बढ़े तब विषयग्रहणकी
शक्ति बढ़ती है।
विषयोंको अपने आधीन रखकर शीघ्र-शीघ्र ग्रहण करता है, किन्तु वे आधीन रहते नहीं हैं।
वे भिन्न द्रव्य तो अपने आधीन परिणमित होते हैं या कर्मोदयके आधीन हैं। ऐसे कर्मका
बन्ध यथायोग्य शुभभाव होने पर होता है और पश्चात् उदय आता है वह प्रत्यक्ष देखते
हैं। अनेक उपाय करने पर भी कर्मके निमित्त बिना सामग्री नहीं मिलती।
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जिसे सर्वके ग्रहणकी इच्छा है उसे एक विषयका ग्रहण होने पर क्या इच्छा मिटती है?
इच्छा मिटे बिना सुख नहीं होता, इसलिए यह उपाय झूठा है।
जाये तो हम सुख मानें। परन्तु जब तक जिस विषयका ग्रहण नहीं होता तब तक तो
उसकी इच्छा रहती है और जिस समय उसका ग्रहण हुआ उसी समय अन्य विषय-ग्रहणकी
इच्छा होती देखी जाती है, तो यह सुख मानना कैसे है? जैसे कोई महा क्षुधावान रंक
उसको एक अन्नका कण मिला उसका भक्षण करके चैन माने; उसी प्रकार यह महा तृष्णावान
उसको एक विषयका निमित्त मिला उसका ग्रहण करके सुख मानता है, परमार्थसे सुख है
नहीं।
ग्रहण एकत्रित होता जाये तो इच्छा पूर्ण हो जाये, परन्तु जब दूसरा विषय ग्रहण करता
है तब पूर्वमें जो विषय ग्रहण किया था उसका जानना नहीं रहता, तो कैसे इच्छा पूर्ण
हो? इच्छा पूर्ण हुए बिना आकुलता मिटती नहीं है और आकुलता मिटे बिना सुख कैसे
कहा जाय?
सुखका कारण नहीं है, इसलिये दुःख ही है। यही प्रवचनसारमें कहा है
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तो सच्चा उपाय क्या है? जब इच्छा तो दूर हो जाये और सर्व विषयोंका युगपत्
ग्रहण केवलज्ञान होने पर हो। इनका उपाय सम्यग्दर्शनादिक है और वही सच्चा उपाय
जानना।
दुःखका कारण कहा है; परमार्थसे क्षयोपशम भी दुःखका कारण नहीं है। जो मोहसे विषय-
ग्रहणकी इच्छा है, वही दुःखका कारण जानना।
आकुलता ही रहती है।
वह फाड़ता है, कभी जोड़ता है, कभी खोंसता है, कभी नया पहिनाता है
वह महा खेदखिन्न होता है। उसी प्रकार इस जीवको कर्मोदयने शरीर-सम्बन्ध कराया। यह
जीव उस शरीरको अपना अंग जानकर अपनेको और शरीरको एक मानता है। वह शरीर
कर्मके आधीन कभी कृष होता है, कभी स्थूल होता है, कभी नष्ट होता है, कभी नवीन
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है; कोई अनेक अवस्थारूप परिणमन करते हैं; वह पागल उन्हें अपने आधीन मानता है,
उनकी पराधीन क्रिया हो तब खेदखिन्न होता है। उसी प्रकार यह जीव जहाँ पर्याय धारण
करता है वहाँ स्वयमेव पुत्र, घोड़ा, धनादिक कहींसे आकर प्राप्त हुए, यह जीव उन्हें अपना
जानता है। वे तो उन्हींके आधीन कोई आते हैं, कोई जाते हैं, कोई अनेक अवस्थारूप
परिणमन करते हैं; यह जीव उन्हें अपने आधीन मानता है, और उनकी पराधीन क्रिया हो
तब खेदखिन्न होता है।
विचार होने पर सुखकासा आभास होता है; परन्तु सर्व ही तो सर्व प्रकारसे जैसे यह चाहता
है वैसे परिणमित नहीं होते, इसलिये अभिप्रायमें तो अनेक आकुलता सदाकाल रहा ही करती
है।
तथा रक्षा करनेकी चिंतासे निरन्तर व्याकुल रहता है। नाना प्रकार कष्ट सहकर भी उनका
भला चाहता है।
सो इन सबका मूलकारण एक मिथ्यादर्शन है। उसका नाश होने पर सबका नाश हो जाता
है, इसलिये सब दुःखोंका मूल यह मिथ्यादर्शन है।
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इनसे मेरा भला होगा; परन्तु वे ऐसा उपाय करते हैं जिससे यह अचेत हो जाय।
वस्तुस्वरूपका विचार करनेको उद्यमी हुआ था सो विपरीत विचारमें दृढ़ हो जाता है और
तब विषय-कषायकी वासना बढ़नेसे अधिक दुःखी होता है।
हो तथा विषयकी इच्छा घटे तो थोड़ा दुःखी होता है, परन्तु फि र जैसेका तैसा हो जाता
है; इसलिये यह संसारी जो उपाय करता है वे भी झूठे ही होते हैं।
अनादिनिधन वस्तुएँ भिन्न-भिन्न अपनी मर्यादा सहित परिणमित होती हैं, कोई किसीके आधीन
नहीं हैं, कोई किसीके परिणमित करानेसे परिणमित नहीं होतीं। उन्हें परिणमित कराना चाहे
वह कोई उपाय नहीं है, वह तो मिथ्यादर्शन ही है।
तो आप ही दुःखी होता है। तथा उसे मुर्दा मानना और यह जिलानेसे जियेगा नहीं ऐसा
मानना सो ही उस दुःखके दूर होनेका उपाय है। उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि होकर पदार्थोंको
अन्यथा माने, अन्यथा परिणमित करना चाहे तो आप ही दुःखी होता है। तथा उन्हें यथार्थ
मानना और यह परिणमित करानेसे अन्यथा परिणमित नहीं होंगे ऐसा मानना सो ही उस
दुःखके दूर होनेका उपाय है। भ्रमजनित दुःखका उपाय भ्रम दूर करना ही है। सो भ्रम
दूर होनेसे सम्यक्श्रद्धान होता है, वही सत्य उपाय जानना।
प्रवर्तता है। सो ही दिखाते हैंः
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खर्च करके व मरणादि द्वारा अपना भी बुरा करके अन्यका बुरा करनेका उद्यम करता है
अथवा औरोंसे बुरा होना जाने तो औरोंसे बुरा कराता है। स्वयं ही उसका बुरा होता
हो तो अनुमोदन करता है। उसका बुरा होनेसे अपना कुछ भी प्रयोजन सिद्ध न हो तथापि
उसका बुरा करता है। तथा क्रोध होने पर कोई पूज्य या इष्टजन भी बीचमें आयें तो
उन्हें भी बुरा कहता है, मारने लग जाता है, कुछ विचार नहीं रहता। तथा अन्यका बुरा
न हो तो अपने अंतरंगमें आप ही बहुत संतापवान होता है और अपने ही अंगोंका घात
करता है तथा विषादिसे मर जाता है।
है, अपनी प्रशंसा करता है व अनेक प्रकारसे औरोंकी महिमा मिटाता है, अपनी महिमा करता
है। महाकष्टसे जो धनादिकका संग्रह किया उसे विवाहादि कार्योंमें खर्च करता है तथा कर्ज
लेकर भी खर्चता है। मरनेके बाद हमारा यश रहेगा ऐसा विचारकर अपना मरण करके
भी अपनी महिमा बढ़ाता है। यदि कोई अपना सन्मानादिक न करे तो उसे भयादिक दिखाकर
दुःख उत्पन्न करके अपना सन्मान कराता है। तथा मान होने पर कोई पूज्य
न दे, तो अपने अंतरंगमें आप बहुत संतापवान होता है और अपने अंगोंका घात करता
है तथा विष आदिसे मर जाता है।
शरीरकी कपटरूप अवस्था करता है, बाह्य वस्तुओंको अन्यथा बतलाता है, तथा जिनमें अपना
मरण जाने ऐसे भी छल करता है। कपट प्रगट होने पर स्वयंका बहुत बुरा हो, मरणादिक
हो उनको भी नहीं गिनता। तथा माया होने पर किसी पूज्य व इष्टका भी सम्बन्ध बने
तो उनसे भी छल करता है, कुछ विचार नहीं रहता। यदि छल द्वारा कार्यसिद्धि न हो
तो स्वयं बहुत संतापवान होता है, अपने अंगोंका घात करता है तथा विष आदिसे मर
जाता है।
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वह कार्य भी करता है। जिनमें बहुत दुःख उत्पन्न हो ऐसे प्रारम्भ करता है। तथा लोभ
होने पर पूज्य व इष्टका भी कार्य हो वहाँ भी अपना प्रयोजन साधता है, कुछ विचार नहीं
रहता। तथा जिस इष्ट वस्तुकी प्राप्त हुई है उसकी अनेक प्रकारसे रक्षा करता है। यदि
इष्ट वस्तुकी प्राप्ति न हो या इष्टका वियोग हो तो स्वयं संतापवान होता है, अपने अंगोंका
घात करता है तथा विष आदिसे मर जाता है।
तथा इन कषायोंके साथ नोकषाय होती हैं। वहाँ जब हास्य कषाय होती है तब
रोगोंसे स्वयं पीड़ित है तो भी कोई कल्पना करके हँसने लग जाता है। इसी प्रकार यह
जीव अनेक पीड़ा सहित है; तथापि कोई झूठी कल्पना करके अपनेको सुहाता कार्य मानकर
हर्ष मानता है, परमार्थतः दुःखी होता है। सुखी तो कषाय-रोग मिटने पर होगा।
होनेके कारण तथा वियोग होनेके अभिप्रायसे आसक्तता होती है, इसलिये दुःख ही है।
उसका वियोग करनेको तड़पता है; वह दुःख ही है।
अपने अंगका घात करके मर जाता है; कुछ सिद्धि नहीं है तथापि स्वयं ही महा दुःखी
होता है।
होनेके स्थान पर पहुँच जाता है व मर जाता है; सो यह दुःखरूप ही है।
खेदखिन्न होकर महा दुःख पाता है।
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होती है। उससे अति व्याकुल होता है, आताप उत्पन्न होता है, निर्लज्ज होता है, धन खर्च
करता है, अपयशको नहीं गिनता, परम्परा दुःख हो व दण्ड आदि हो उसे नहीं गिनता।
कामपीड़ासे पागल हो जाता है, मर जाता है। रसग्रन्थोंमें कामकी दस दशाएँ कही हैं।
वहाँ पागल होना, मरण होना लिखा है। वैद्यकशास्त्रोंमें ज्वरके भेदोंमें कामज्वरको मरणका
कारण लिखा है। प्रत्यक्ष ही कामसे मरण तक होते देखे जाते हैं। कामांधको कुछ विचार
नहीं रहता। पिता पुत्री तथा मनुष्य तिर्यंचिनी इत्यादिसे रमण करने लग जाते हैं। ऐसी
कामकी पीड़ा है सो महादुःखरूप है।
यहाँ ऐसा विचार आता है कि यदि इन अवस्थाओंमें न प्रवर्ते तो क्रोधादिक पीड़ा
कष्ट तो स्वीकार करते हैं, परन्तु क्रोधादिककी पीड़ा सहना स्वीकार नहीं करते। इससे यह
निश्चित हुआ कि मरणादिकसे भी कषायोंकी पीड़ा अधिक है।
बनाता है। जैसे
क्रोधादि पीड़ा करें और शरीरमें उनरूप कार्य करनेकी शक्ति न हो तो औषधि बनाता है
और अन्य अनेक उपाय करता है। तथा कोई कारण बने ही नहीं तो अपने उपयोगमें
कषायोंके कारणभूत पदार्थोंका चिंतवन करके स्वयं ही कषायोंरूप परिणमित होता है।
तथा जिस प्रयोजनके लिये कषायभाव हुआ है उस प्रयोजनकी सिद्धि हो तो मेरा
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रहना, रतिमें इष्ट संयोगका बना रहना, अरतिमें अनिष्टका दूर होना, शोकमें शोकका कारण
मिटना, भयमें भयका कारण मिटना, जुगुप्सामें जुगुप्साका कारण दूर होना, पुरुषवेदमें स्त्रीसे
रमण करना, स्त्रीवेदमें पुरुषसे रमण करना, नपुंसकवेदमें दोनोंके साथ रमण करना
अनेक उपाय करते हैं, परन्तु सिद्धि नहीं होती। तथा उपाय होना भी अपने आधीन नहीं
है, भवितव्यके आधीन है; क्योंकि अनेक उपाय करनेका विचार करता है और एक भी
उपाय नहीं होता देखते हैं।
तो उस कार्य सम्बन्धी कषाय थी; और जिस समय कार्य सिद्ध हुआ उसी समय अन्य कार्य
सम्बन्धी कषाय हो जाती हैं, एक समयमात्र भी निराकुल नहीं रहता। जैसे कोई क्रोधसे
किसीका बुरा सोचता था और उसका बुरा हो चुका, तब अन्य पर क्रोध करके उसका
बुरा चाहने लगा। अथवा थोड़ी शक्ति थी तब छोटोंका बुरा चाहता था, बहुत शक्ति हुई
तब बड़ोंका बुरा चाहने लगा। उसी प्रकार मान-माया-लोभादिक द्वारा जो कार्य सोचता था
वह सिद्ध हो चुका तब अन्यमें मानादिक उत्पन्न करके उसकी सिद्धि करना चाहता है। थोड़ी
शक्ति थी तब छोटे कार्यकी सिद्धि करना चाहता था, बहुत शक्ति हुई तब बड़े कार्यकी
सिद्धि करनेकी अभिलाषा हुई। कषायोंमें कार्यका प्रमाण हो तो उस कार्यकी सिद्धि होने
पर सुखी हो जाये; परन्तु प्रमाण है नहीं, इच्छा बढ़ती ही जाती है।
अणु समान है और लोक तो एक ही है तो अब यहाँ कहो किसको कितना हिस्सेमें आये?
इसलिये तुम्हें जो यह विषयोंकी इच्छा है सो वृथा ही है।
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प्रकार जीवको दुःख देनेवाले अनेक कषाय हैं; व जब क्रोध नहीं होता तब मानादिक हो
जाते हैं, जब मान न हो तब क्रोधादिक हो जाते हैं। इस प्रकार कषायका सद्भाव बना
ही रहता है, कोई एक समय भी कषाय रहित नहीं होता। इसलिये किसी कषायका कोई
कार्य सिद्ध होने पर भी दुःख कैसे दूर हो? और इसका अभिप्राय तो सर्व कषायोंका सर्व
प्रयोजन सिद्ध करनेका है, वह हो तो यह सुखी हो; परन्तु वह कदापि नहीं हो सकता,
इसलिये अभिप्रायमें सर्वदा दुःखी ही रहता है। इसलिये कषायोंके प्रयोजनको साधकर दुःख
दूर करके सुखी होना चाहता है; सो यह उपाय झूठा ही है।
कषायोंका अभाव हो, तब उनकी पीड़ा दूर हो और तब प्रयोजन भी कुछ नहीं रहे, निराकुल
होनेसे महा सुखी हो। इसलिये सम्यग्दर्शनादिक ही यह दुःख मेटनेका सच्चा उपाय है।
है ही।
विघ्न होता देखा जाता है। अन्तरायका क्षयोपशम होने पर बिना उपाय भी विघ्न नहीं होता।
इसलिये विघ्नोंका मूल कारण अन्तराय है।
द्रव्यों द्वारा विघ्न हुए, यह जीव उन बाह्य द्रव्योंसे वृथा द्वेष करता है। अन्य द्रव्य इसे
विघ्न करना चाहें और इसके न हो; तथा अन्य द्रव्य विघ्न करना न चाहें और इसके हो
जाये। इसलिये जाना जाता है कि अन्य द्रव्यका कुछ वश नहीं है। जिनका वश नहीं
है उनसे किसलिये लड़े? इसलिये यह उपाय झूठा है।
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इच्छा तो मिट जाये और शक्ति बढ़ जाये, तब वह दुःख दूर होकर निराकुल सुख उत्पन्न
होता है। इसलिये सम्यग्दर्शनादि ही सच्चा उपाय है।
बाह्य ही वस्तुओंके संयोग होते हैं। वहाँ असाताके उदयसे शरीरमें तो क्षुधा, तृषा, उच्छ्वास,
पीड़ा, रोग इत्यादि होते हैं; तथा शरीरकी अनिष्ट अवस्थाको निमित्तभूत बाह्य अति शीत,
उष्ण, पवन, बंधनादिकका संयोग होता है; तथा बाह्य शत्रु, कुपुत्रादिक व कुवर्णादिक सहित
स्कन्धोंका संयोग होता है
चाहे, और जब तक वे दूर न हों तब तक दुःखी रहता है। इनके होनेसे तो सभी दुःख
मानते हैं।
है; तथा बाह्य मित्र, सुपुत्र, स्त्री, किंकर, हाथी, घोड़ा, धन, धान्य, मकान, वस्त्रादिकका संयोग
होता है
सुख माने। सो यह सुख मानना ऐसा है जैसे कोई अनेक रोगोंसे बहुत पीड़ित हो रहा
था, उसके किसी उपचारसे किसी एक रोगकी कुछ कालके लिये कुछ उपशान्तता हुई, तब
वह पूर्व अवस्थाकी अपेक्षा अपनेको सुखी कहता है; परमार्थसे सुख है नहीं।
होता है, इसलिये उसे रखनेका उपाय करता है
थोड़ा यत्न करने पर भी अथवा न करने पर भी सिद्धि हो जाये, किसीको बहुत यत्न करने
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उनको भोगनेकी इच्छासे आकुलित होता है। एक भोग्य वस्तुको भोगनेकी इच्छा हो, जब
तक वह नहीं मिलती तब तक तो उसकी इच्छासे आकुल होता है; और वह मिली उसी
समय अन्यको भोगनेकी इच्छा हो जाती है, तब उससे आकुल होता है। जैसे
लेनेकी तथा स्पर्शनादिकी इच्छा उत्पन्न होती है।
इच्छा हो जाती है। जैसे स्त्रीको देखना चाहता था, जिस समय अवलोकन हुआ उसी समय
रमण करनेकी इच्छा होती है। तथा ऐसे भोग भोगते हुए भी उनके अन्य उपाय करनेकी
आकुलता होती है तो उन्हें छोड़कर अन्य उपाय करनेमें लग जाता है; वहाँ अनेक प्रकारकी
आकुलता होती है।
असाताका उदय आता ही रहे; उसके निराकरणसे सुख माने
होती है, वह मिटें तब कोई अन्य इच्छा उत्पन्न हो उसकी आकुलता होती है और फि र
क्षुधादिक हों तब उनकी आकुलता हो आती है।
उसकी आकुलतासे विह्वल हो जाये; वहाँ महा दुःखी होता है।
है वे झूठे हैं।
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वह सुख मानता है। बाह्य सामग्री तो उसके इससे निन्यानवेगुनी है। अथवा लक्ष धनके धनीको
अधिक धनकी इच्छा है तो वह दुःखी है और शत धनके धनीको सन्तोष है तो वह सुखी
है। तथा समान वस्तु मिलने पर कोई सुख मानता है कोई दुःख मानता है। जैसे
पीड़ा व बाह्य इष्टका वियोग, अनिष्टका संयोग होने पर किसीको बहुत दुःख होता है, किसीको
थोड़ा होता है, किसीको नहीं होता। इसलिये सामग्रीके आधीन सुख-दुःख नहीं हैं, साता-
असाताका उदय होने पर मोह-परिणमनके निमित्तसे ही सुख-दुःख मानते हैं।
उससे शरीरकी अवस्था द्वारा सुख-दुःख विशेष जाना जाता है। तथा पुत्र धनादिकसे अधिक
मोह हो तो अपने शरीरका कष्ट सहे उसका थोड़ा दुःख माने, और उनको दुःख होने पर
अथवा उनका संयोग मिटने पर बहुत दुःख माने; और मुनि हैं वे शरीरको पीड़ा होने
पर भी कुछ दुःख नहीं मानते; इसलिये सुख-दुःखका मानना तो मोहहीके आधीन है। मोहके
और वेदनीयके निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है, इसलिये साता-असाता के उदयसे सुख-दुःखका
होना भासित होता है। तथा मुख्यतः कितनी ही सामग्री साताके उदयसे होती है, कितनी
ही असाताके उदयसे होती है; इसलिये सामग्रियोंसे सुख-दुःख भासित होते हैं। परन्तु निर्धार
करने पर मोह ही से सुख-दुःख का मानना होता है, औरोंके द्वारा सुख-दुःख होनेका नियम
नहीं है। केवलीके साता-असाताका उदय भी है और सुख-दुःखके कारण सामग्रीका संयोग
भी है; परन्तु मोहके अभावसे किंचित्मात्र भी सुख-दुःख नहीं होता। इसलिये सुख-दुःख
को मोहजनित ही मानना। इसलिये तू सामग्रीको दूर करनेका या होनेका उपाय करके दुःख
मिटाना चाहे और सुखी होना चाहे सो यह उपाय झूठा है।
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भावनासेही मोह मंद हो जाये तब ऐसी दशा हो जाये कि अनेक कारण मिलने पर भी
अपनेको सुख-दुःख नहीं होता; तब एक शांतदशारूप निराकुल होकर सच्चे सुखका अनुभव
करता है, और तब सर्व दुःख मिटकर सुखी होता है
जीवितव्य रहने पर अपना अस्तित्व मानता है और मरण होने पर अपना अभाव होना मानता
है। इसी कारणसे इसे सदाकाल मरणका भय रहता है, उस भयसे सदा आकुलता रहती
है। जिनको मरणका कारण जाने उनसे बहुत डरता है, कदाचित् उनका संयोग बने तो
महाविह्वल हो जाता है
सहायक हों तथापि मरण हो ही जाता है, एक समयमात्र भी जीवित नहीं रहता। और
जब तक आयु पूर्ण न हो तब तक अनेक कारण मिले, सर्वथा मरण नहीं होता। इसलिये
उपाय करनेसे मरण मिटता नहीं है; तथा आयुकी स्थिति पूर्ण होती ही है, इसलिए मरण
भी होता ही है। इसका उपाय करना झूठा ही है।
भय नहीं रहता। तथा सम्यग्दर्शनादिकसे ही सिद्धपद प्राप्त करे तब मरणका अभाव ही होता
है। इसलिये सम्यग्दर्शनादिक ही सच्चे उपाय हैं।
कारण होते हैं; सो यहाँ सुख मानना भ्रम है। तथा यह दुःखके कारण मिटानेका और सुखके
कारण होनेका उपाय करता है वह झूठा है; सच्चा उपाय सम्यग्दर्शनादिक हैं। जैसा निरूपण
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कारणपनेकी समानतासे निरूपणकी समानता जानना।
कुल पलटनेका उपाय तो इसको भासित नहीं होता, इसलिये जैसा कुल प्राप्त किया उसीमें
अपनापन मानता है। परन्तु कुल की अपेक्षा ऊँचा-नीचा मानना भ्रम है। कोई उच्च कुलवाला
निंद्य कार्य करे तो वह नीचा हो जाये और नीच कुलमें कोई श्लाघ्य कार्य करे तो वह ऊँचा
हो जाये। लोभादिकसे उच्च कुलवाले नीचे कुलवालेकी सेवा करने लग जाते हैं।
नीच कुलवाले को प्राप्त किये हुए नीचेपनका दुःख ही है।
है तब सब दुःख मिट जाते हैं और सुखी होता है।
उचट जाना। इस प्रकार वहाँसे निकलकर अन्य पर्याय धारण करे तो त्रसमें तो बहुत थोड़े
ही काल रहता है; एकेन्द्रियमें ही बहुत काल व्यतीत करता है।
उत्कृष्ट काल तो साधिक दो हजार सागर ही है तथा एकेन्द्रियमें रहनेका उत्कृष्ट काल असंख्यात