Moksha-Marg Prakashak (Hindi). Tisara Adhyay.

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दूसरा अधिकार ][ ४३
तथा जैसे कोई नवीन वस्त्र पहिनता है, कुछ काल तक पहिने रहता है, फि र उसको
छोड़कर अन्य वस्त्र पहिनता है; उसी प्रकार जीव नवीन शरीर धारण करता है, कुछ काल
तक धारण किये रहता है, फि र उसको छोड़कर अन्य शरीर धारण करता है। इसलिये
शरीर-सम्बन्धकी अपेक्षा जन्मादिक हैं। जीव जन्मादि रहित नित्य ही है तथापि मोही जीवको
अतीत-अनागतका विचार नहीं है; इसलिए प्राप्त पर्यायमात्र ही अपनी स्थिति मानकर पर्याय
सम्बन्धी कार्योंमें ही तत्पर हो रहा है।
इस प्रकार आयुसे पर्यायकी स्थिति जानना।
नामकर्मोदयजन्य अवस्था
तथा नामकर्मसे यह जीव मनुष्यादि गतियोंको प्राप्त होता है; उस पर्यायरूप अपनी
अवस्था होती है। वहाँ त्रस-स्थावरादि विशेष उत्पन्न होते हैं। तथा वहाँ एकेन्द्रियादि जातिको
धारण करता है। इस जातिकर्मके उदयको और मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमको निमित्त-
नैमित्तिकपना जानना। जैसा क्षयोपशम हो वैसी जाति प्राप्त करता है।
तथा शरीरोंका सम्बन्ध होता है; वहाँ शरीरके परमाणु और आत्माके प्रदेशोंका एक
बंधान होता है तथा संकोच-विस्ताररूप होकर शरीरप्रमाण आत्मा रहता है। तथा नोकर्मरूप
शरीरमें अंगोपांगादिकके योग्य स्थान प्रमाणसहित होते हैं। इसीसे स्पर्शन, रसना आदि द्रव्य-
इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं तथा हृदयस्थानमें आठ पंखुरियोंके फू ले हुए कमलके आकार द्रव्यमन
होता है। तथा उस शरीरमें ही आकारादिकका विशेष होना, वर्णादिकका विशेष होना और
स्थूल-सूक्ष्मत्वादिका होना इत्यादि कार्य उत्पन्न होते हैं; सो वे शरीररूप परिणमित परमाणु इस
प्रकार परिणमित होते हैं।
तथा श्वासोच्छ्वास और स्वर उत्पन्न होते हैं; वे भी पुद्गलके पिण्ड हैं और शरीरसे
एक बंधानरूप हैं। इनमें भी आत्माके प्रदेश व्याप्त हैं। वहाँ श्वासोच्छ्वास तो पवन है।
जैसे आहारका ग्रहण करे और निहारको निकाले तभी जीना होता है; उसी प्रकार बाह्य पवनको
ग्रहण करे और अभ्यंतर पवनको निकाले तभी जीवितव्य रहता है। इसलिये श्वासोच्छ्वास
जीवितव्यका कारण है। इस शरीरमें जिस प्रकार हाड़-मांसादिक हैं उसी प्रकार पवन जानना।
तथा जैसे हस्तादिकसे कार्य करते हैं वैसे ही पवनसे ही कार्य करते हैं। मुँहमें जो ग्रास
रखा उसे पवनसे निगलते हैं, मलादिक पवनसे बाहर निकालते हैं, वैसे ही अन्य जानना।
तथा नाड़ी, वायुरोग, वायगोला इत्यादिको पवनरूप शरीरके अंग जानना।
स्वर है वह शब्द है। सो जैसे वीणाकी ताँतको हिलाने पर भाषारूप होने योग्य
जो पुद्गलस्कंध हैं वे साक्षर या अनक्षर शब्दरूप परिणमित होते हैं; उसी प्रकार तालु, होंठ

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४४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
इत्यादि अंगोंको हिलाने पर भाषापर्याप्तिमें ग्रहण किये गये जो पुद्गलस्कंध हैं वे साक्षर या
अनक्षर शब्दरूप परिणमित होते हैं।
तथा शुभ-अशुभ गमनादिक होते हैं। यहाँ ऐसा जानना कि जैसे दो पुरुषोंको इकदंडी
बेड़ी है। वहाँ एक पुरुष गमनादिक करना चाहे और दूसरा भी गमनादिक करे तो गमनादिक
हो सकते हैं, दोनोंमेंसे एक बैठा रहे तो गमनादिक नहीं हो सकते, तथा दोनोंमें एक बलवान
हो तो दूसरेको भी घसीट ले जाये। उसी प्रकार आत्माके और शरीरादिकरूप पुद्गलके
एकक्षेत्रावगाहरूप बंधान है; वहाँ आत्मा हलन-चलनादि करना चाहे और पुद्गल उस शक्तिसे
रहित हुआ हलन-चलन न करे अथवा पुद्गलमें तो शक्ति पाई जाती है, परन्तु आत्माकी
इच्छा न हो तो हलन-चलनादि नहीं हो सकते। तथा इनमें पुद्गल बलवान होकर हलन-
चलन करे तो उसके साथ बिना इच्छाके भी आत्मा हलन-चलन करता है। इस प्रकार हलन-
चलनादि क्रिया होती है। तथा इसके अपयश आदि बाह्य निमित्त बनते हैं।
इस प्रकार
ये कार्य उत्पन्न होते हैं, उनसे मोहके अनुसार आत्मा सुखी-दुःखी भी होता है।
ऐसे नामकर्मके उदयसे स्वयमेव नानाप्रकार रचना होती है, अन्य कोई करनेवाला नहीं
है। तथा तीर्थंकरादि प्रकृति यहाँ है ही नहीं।
गोत्रकर्मोदयजन्य अवस्था
गोत्रकर्मसे उच्च-नीच कुलमें उत्पन्न होना होता है; वहाँ अपनी अधिकता-हीनता प्राप्त
होती है। मोहके उदयसे आत्मा सुखी-दुःखी भी होता है।
इस प्रकार अघातिकर्मोंके निमित्तसे अवस्था होती है।
इस प्रकार इस अनादि संसारमें घाति-अघातिकर्मोंके उदयके अनुसार आत्माके अवस्था
होती है। सो हे भव्य! अपने अंतरंगमें विचारकर देख कि ऐसे ही है कि नहीं। विचार
करने पर ऐसा ही प्रतिभासित होता है। यदि ऐसा है तो तू यह मान कि
‘‘मेरे अनादि
संसार-रोग पाया जाता है, उसके नाशका मुझे उपाय करना’’ इस विचारसे तेरा कल्याण
होगा।
इति श्री मोक्षमार्गप्रकाशक नामक शास्त्रमें संसार-अवस्थाका निरूपक
द्वितीय अधिकार सम्पूर्ण हुआ।।।।

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तीसरा अधिकार ][ ४५
तीसरा अधिकार
संसारदुःख तथा
मोक्षसुखका निरूपण
दोहासो निजभाव सदा सुखद, अपनौं करौ प्रकाश,
जो बहुविधि भवदुखनिकौ, करिहै सत्ता नाश
।।
अब, इस संसार-अवस्थामें नानाप्रकारके दुःख हैं उनका वर्णन करते हैं। क्योंकि यदि
संसारमें भी सुख हो तो संसारमें मुक्त होनेका उपाय किसलिये करें। इस संसारमें अनेक दुःख
हैं, इसलिये संसारसे मुक्त होनेका उपाय करते हैं।
जैसेवैद्य रोगका निदान और उसकी अवस्थाका वर्णन करके, रोगीको रोगका निश्चय
कराकर, फि र उसका इलाज करनेकी रुचि कराता है। उसी प्रकार यहाँ संसारका निदान
तथा उसकी अवस्थाका वर्णन करके, संसारीको संसार-रोगका निश्चय कराके, अब उसका उपाय
करनेकी रुचि कराते हैं।
जैसेरोगी रोगसे दुःखी हो रहा है, परन्तु उसका मूल कारण नहीं जानता, सच्चा
उपाय नहीं जानता और दुःख सहा नहीं जाता; तब जो उसे भासित हो वही उपाय करता
है, इसलिये दुःख दूर नहीं होता, तब तड़प-तड़पकर परवश हुआ उन दुःखोंको सहता है।
उसे वैद्य दुःखका मूलकारण बतलाये, दुःखका स्वरूप बतलाये, उन उपायोंको झूठा बतलाये,
तब सच्चे उपाय करनेकी रुचि होती है। उसी प्रकार संसारी संसारसे दुःखी हो रहा है,
परन्तु उसका मूलकारण नहीं जानता, तथा सच्चे उपाय नहीं जानता और दुःख सहा भी नहीं
जाता; तब अपनेको भासित हो वही उपाय करता है, इसलिये दुःख दूर नहीं होता, तब
तड़प-तड़पकर परवश हुआ उन दुःखोंको सहता है। उसे यहाँ दुःखका मूलकारण बतलाते
हैं, दुःखका स्वरूप बतलाते हैं और उन उपायोंको झूठे बतलायें तो सच्चे उपाय करनेकी
रुचि हो। इसलिये यह वर्णन यहाँ करते हैं।

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४६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
संसारदुःख और उसका मूलकारण
(क) कर्मोंकी अपेक्षासे
वहाँ सब दुःखोंका मूलकारण मिथ्यादर्शन, अज्ञान और असंयम है। जो दर्शन-मोहके
उदयसे हुआ अतत्त्वश्रद्धानमिथ्यादर्शन है, उससे वस्तुस्वरूपकी यथार्थ प्रतीति नहीं हो सकती,
अन्यथा प्रतीति होती है। तथा उस मिथ्यादर्शन ही के निमित्तसे क्षयोपशमरूप ज्ञान है वह
अज्ञान हो रहा है, उससे यथार्थ वस्तुस्वरूपका जानना नहीं होता, अन्यथा जानना होता है।
तथा चारित्रमोहके उदयसे हुआ कषायभाव उसका नाम असंयम है, उससे जैसे वस्तुस्वरूप
है वैसा नहीं प्रवर्तता, अन्यथा प्रवृत्ति होती है।
इसप्रकार ये मिथ्यादर्शनादिक हैं वे ही सर्व दुःखोंका मूल कारण हैं। किस प्रकार?
सो बतलाते हैंः
ज्ञानावरण और दर्शनावरणके क्षयोपशमसे होनेवाला दुःख और उससे निवृत्ति
मिथ्यादर्शनादिकसे जीवको स्व-पर विवेक नहीं हो सकता। स्वयं एक आत्मा और
अनन्त पुद्गलपरमाणुमय शरीर; इनके संयोगरूप मनुष्यादि पर्याय उत्पन्न होती है, उसी पर्यायको
स्व मानता है। तथा आत्माका ज्ञान-दर्शनादि स्वभाव है उसके द्वारा किंचित् जानना-देखना
होता है; और कर्मोपाधिसे हुए क्रोधादिकभाव उनरूप परिणाम पाये जाते हैं; तथा शरीरका
स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण स्वभाव है वह प्रगट है और स्थूल-कृषादिक होना तथा स्पर्शादिकका
पलटना इत्यादि अनेक अवस्थायें होती हैं;
इन सबको अपना स्वरूप जानता है।
वहाँ ज्ञान-दर्शनकी प्रवृत्ति इन्द्रियमनके द्वारा होती है, इसलिये यह मानता है कि
ये त्वचा, जीभ, नासिका, नेत्र, कान मन मेरे अंग हैं। इनके द्वारा मैं देखता-जानता हूँ;
ऐसी मान्यतासे इन्द्रियोंमें प्रीति पायी जाती है।
तथा मोहके आवेशसे उन इन्द्रियोंके द्वारा विषय-ग्रहण करने की इच्छा होती है।
और उन विषयोंका ग्रहण होने पर उस इच्छाके मिटनेसे निराकुल होता है तब आनन्द मानता
है। जैसे कुत्ता ही चबाता है, उससे अपना लोहू निकले उसका स्वाद लेकर ऐसा मानता
है कि यह हयिोंका स्वाद है। उसी प्रकार यह जीव विषयोंको जानता है, उससे अपना
ज्ञान प्रवर्तता है, उसका स्वाद लेकर ऐसा मानता है कि यह विषयका स्वाद है। सो विषयमें
तो स्वाद है नहीं। स्वयं ही इच्छा की थी, उसे स्वयं ही जानकर स्वयं ही आनन्द मान
लिया; परन्तु मैं अनादि-अनन्त ज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ
ऐसा निःकेवल(परसे के वल भिन्न)ज्ञानका

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तीसरा अधिकार ][ ४७
तो अनुभवन है नहीं। तथा मैंने नृत्य देखा, राग सुना, फू ल सूँघे, (पदार्थका स्वाद लिया,
पदार्थका स्पर्श किया) शास्त्र जाना, मुझे यह जानना;
इस प्रकार ज्ञेयमिश्रित ज्ञानका अनुभवन
है, उससे विषयोंकी ही प्रधानता भासित होती है। इस प्रकार इस जीवको मोहके निमित्तसे
विषयोंकी इच्छा पायी जाती है।
वहाँ इच्छा तो त्रिकालवर्ती सर्वविषयोंको ग्रहण करनेकी है। मैं सर्वका स्पर्श करूँ,
सर्वका स्वाद लूँ, सर्वको सूँघूँ, सर्वको देखूँ, सर्वको सुनूँ, सर्वको जानूँ; इच्छा तो इतनी है।
परन्तु शक्ति इतनी ही है कि इन्द्रियोंके सन्मुख आनेवाले वर्तमान स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण,
शब्द; उनमेंसे किसीको किंचित् मात्र ग्रहण करे तथा स्मरणादिकसे मन द्वारा किंचित् जाने,
सो भी बाह्य अनेक कारण मिलने पर सिद्ध हो। इसलिए इच्छा कभी पूर्ण नहीं होती।
ऐसी इच्छा तो केवलज्ञान होने पर सम्पूर्ण हो।
क्षयोपशमरूप इन्द्रियोंसे तो इच्छा पूर्ण होती नहीं है, इसलिये मोहके निमित्तसे इन्द्रियोंको
अपने-अपने विषय-ग्रहणकी निरन्तर इच्छा होती ही रहती है; उससे आकुलित होकर दुःखी
हो रहा है। ऐसा दुःखी हो रहा है कि किसी एक विषयके ग्रहणके अर्थ अपने मरणको
भी नहीं गिनता है। जैसे हाथीको कपटकी हथिनीका शरीर स्पर्श करनेकी, मच्छको बंसीमें
लगा हुआ मांसका स्वाद लेनेकी, भ्रमरको कमल-सुगन्ध सूंघनेकी, पतंगेको दीपकका वर्ण देखनेकी
और हरिणको राग सुननेकी इच्छा ऐसी होती है कि तत्काल मरना भासित हो तथापि मरणको
नहीं गिनते। विषयोंका ग्रहण करने पर उसके मरण होता था, विषयसेवन नहीं करने पर
इन्द्रियों की पीड़ा अधिक भासित होती है। इन इन्द्रियोंकी पीड़ासे पीड़ितरूप सर्व जीव
निर्विचार होकर जैसे कोई दुःखी पर्वतसे गिर पड़े वैसे ही विषयोंमें छलाँग लगाते हैं। नाना
कष्टसे धन उत्पन्न करते हैं, उसे विषयके अर्थ खोते हैं। तथा विषयोंके अर्थ जहाँ मरण
होना जानते हैं वहाँ भी जाते हैं। नरकादिके कारण जो हिंसादिक कार्य उन्हें करते हैं तथा
क्रोधादि कषायोंको उत्पन्न करते हैं।
वे करें क्या? इन्द्रियोंकी पीड़ा सही नहीं जाती, इसलिये अन्य विचार कुछ आता
नहीं। इसी पीड़ासे पीड़ित हुए इन्द्रादिक हैं; वे भी विषयोंमें अति आसक्त हो रहे हैं।
जैसे खाज-रोगसे पीड़ित हुआ पुरुष आसक्त होकर खुजाता है, पीड़ा न हो तो किसलिये
खुजाये; उसी प्रकार इन्द्रियरोगसे पीड़ित हुए इन्द्रादिक आसक्त होकर विषय सेवन करते हैं।
पीड़ा न हो तो किसलिये विषय सेवन करें?
इस प्रकार ज्ञानावरण-दर्शनावरणके क्षयोपशमसे हुआ इन्द्रियजनित ज्ञान है, वह
मिथ्यादर्शनादिके निमित्तसे इच्छासहित होकर दुःखका कारण हुआ है।

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४८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
अब, इस दुःखके दूर होनेका उपाय यह जीव क्या करता है सो कहते हैं। इन्द्रियोंसे
विषयोंका ग्रहण होने पर मेरी इच्छा पूर्ण होगी ऐसा जानकर प्रथम तो नानाप्रकारके भोजनादिकोंसे
इन्द्रियोंको प्रबल करता है और ऐसा ही जानता है कि इन्द्रियोंके प्रबल रहनेसे मेरे विषय-ग्रहणकी
शक्ति विशेष होती है। तथा वहाँ अनेक बाह्य कारण चाहिए उनका निमित्त मिलाता है।
तथा इन्द्रियाँ हैं वे विषय-सन्मुख होने पर उनको ग्रहण करती हैं, इसलिए अनेक
बाह्य उपायों द्वारा विषयोंका तथा इन्द्रियोंका संयोग मिलाता है। नानाप्रकारके वस्त्रादिकका,
भोजनादिकका, पुष्पादिकका, मन्दिर-आभूषणादिकका तथा गान-वादित्रादिकका संयोग मिलानेके
अर्थ बहुत खेदखिन्न होता है।
तथा इन इन्द्रियोंके सन्मुख विषय रहता है तब तक उस विषयका किंचित् स्पष्ट
जानपना रहता है, पश्चात् मन द्वारा स्मरणमात्र रह जाता है। काल व्यतीत होने पर स्मरण
भी मंद होता जाता है, इसलिए उन विषयोंको अपने आधीन रखनेका उपाय करता है और
शीघ्र-शीघ्र उनका ग्रहण किया करता है। तथा इन्द्रियोंके तो एक कालमें एक विषयका ही
ग्रहण होता है, किन्तु यह बहुत ग्रहण करना चाहता है, इसलिये आकुलित होकर शीघ्र-
शीघ्र एक विषयको छोड़कर अन्यको ग्रहण करता है, तथा उसे छोड़कर अन्यको ग्रहण करता
है
ऐसे झपट्टे मारता है।
इस प्रकार जो उपाय इसे भासित होते हैं सो करता है, परन्तु वे झूठे हैं। क्योंकि
प्रथम तो इन सबका ऐसा ही होना अपने आधीन नहीं है, महान् कठिन है; तथा कदाचित्
उदय अनुसार ऐसी ही विधि मिल जाये तो इन्द्रियोंको प्रबल करनेसे कहीं विषय-ग्रहणकी
शक्ति बढ़ती नहीं है; वह शक्ति तो ज्ञान-दर्शन बढ़ाने पर बढ़ती है सो यह कर्मके क्षयोपशमके
आधीन है। किसीका शरीर पुष्ट है उसके ऐसी शक्ति कम देखी जाती है, किसीका शरीर
दुर्बल है उसके अधिक देखी जाती है। इसलिए भोजनादि द्वारा इन्द्रियाँ पुष्ट करनेसे कुछ
सिद्धि है नहीं। कषायादि घटनेसे कर्मका क्षयोपशम होने पर ज्ञान-दर्शन बढ़े तब विषयग्रहणकी
शक्ति बढ़ती है।
तथा विषयोंका जो संयोग मिलाता है वह बहुत काल तक नहीं रहता अथवा सर्व
विषयोंका संयोग मिलता ही नहीं है, इसलिये यह आकुलता बनी ही रहती है। तथा उन
विषयोंको अपने आधीन रखकर शीघ्र-शीघ्र ग्रहण करता है, किन्तु वे आधीन रहते नहीं हैं।
वे भिन्न द्रव्य तो अपने आधीन परिणमित होते हैं या कर्मोदयके आधीन हैं। ऐसे कर्मका
बन्ध यथायोग्य शुभभाव होने पर होता है और पश्चात् उदय आता है वह प्रत्यक्ष देखते
हैं। अनेक उपाय करने पर भी कर्मके निमित्त बिना सामग्री नहीं मिलती।

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तीसरा अधिकार ][ ४९
तथा एक विषयको छोड़कर अन्यका ग्रहण करता हैऐसे झपट्टे मारता है उससे क्या
सिद्धि होती है? जैसे मणकी भूखवालेको कण मिले तो क्या भूख मिटती है? उसी प्रकार
जिसे सर्वके ग्रहणकी इच्छा है उसे एक विषयका ग्रहण होने पर क्या इच्छा मिटती है?
इच्छा मिटे बिना सुख नहीं होता, इसलिए यह उपाय झूठा है।
कोई पूछता है कि इस उपायसे कई जीव सुखी होते देखे जाते हैं, सर्वथा झूठ
कैसे कहते हो?
समाधानःसुखी तो नहीं होते हैं, भ्रमसे सुख मानते हैं। यदि सुखी हुए हों तो
अन्य विषयोंकी इच्छा कैसे रहेगी? जैसेरोग मिटने पर अन्य औषधिको क्यों चाहे? उसी
प्रकार दुःख मिटने पर अन्य विषयोंको क्यों चाहे? इसलिये विषयके ग्रहण द्वारा इच्छा रुक
जाये तो हम सुख मानें। परन्तु जब तक जिस विषयका ग्रहण नहीं होता तब तक तो
उसकी इच्छा रहती है और जिस समय उसका ग्रहण हुआ उसी समय अन्य विषय-ग्रहणकी
इच्छा होती देखी जाती है, तो यह सुख मानना कैसे है? जैसे कोई महा क्षुधावान रंक
उसको एक अन्नका कण मिला उसका भक्षण करके चैन माने; उसी प्रकार यह महा तृष्णावान
उसको एक विषयका निमित्त मिला उसका ग्रहण करके सुख मानता है, परमार्थसे सुख है
नहीं।
कोई कहे कि जिस प्रकार कण-कण करके अपनी भूख मिटाये, उसी प्रकार एक-
एक विषयका ग्रहण करके अपनी इच्छा पूर्ण करे तो दोष क्या?
उत्तरःयदि वे कण एकत्रित हों तो ऐसा ही मान लें, परन्तु जब दूसरा कण मिलता
है तब पहले कणका निर्गमन हो जाये तो कैसे भूख मिटेगी? उसी प्रकार जाननेमें विषयोंका
ग्रहण एकत्रित होता जाये तो इच्छा पूर्ण हो जाये, परन्तु जब दूसरा विषय ग्रहण करता
है तब पूर्वमें जो विषय ग्रहण किया था उसका जानना नहीं रहता, तो कैसे इच्छा पूर्ण
हो? इच्छा पूर्ण हुए बिना आकुलता मिटती नहीं है और आकुलता मिटे बिना सुख कैसे
कहा जाय?
तथा एक विषयका ग्रहण भी मिथ्यादर्शनादिकके सद्भावपूर्वक करता है, इसलिये
आगामी अनेक दुःखोंका कारण कर्म बँधते हैं। इसलिये यह वर्त्तमानमें सुख नहीं है, आगामी
सुखका कारण नहीं है, इसलिये दुःख ही है। यही प्रवचनसारमें कहा है
सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं
जं इंदिएहिं लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा।।७६।।

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५० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
अर्थःजो इन्द्रियोंसे प्राप्त किया सुख है वह पराधीन है, बाधासहित है, विनाशीक
है, बन्धका कारण है, विषम है; सो ऐसा सुख इस प्रकार दुःख ही है।
इस प्रकार इस संसारी जीव द्वारा किये उपाय झूठे जानना।
तो सच्चा उपाय क्या है? जब इच्छा तो दूर हो जाये और सर्व विषयोंका युगपत्
ग्रहण बना रहे तब यह दुःख मिटे। सो इच्छा तो मोह जाने पर मिटे और सबका युगपत्
ग्रहण केवलज्ञान होने पर हो। इनका उपाय सम्यग्दर्शनादिक है और वही सच्चा उपाय
जानना।
इस प्रकार तो मोहके निमित्तसे ज्ञानावरण-दर्शनावरणका क्षयोपशम भी दुःखदायक है,
उसका वर्णन किया।
यहाँ कोई कहे किज्ञानावरण-दर्शनावरणके उदयसे जानना नहीं हुआ, इसलिये उसे
दुःखका कारण कहो; क्षयोपशमको क्यों कहते हो?
समाधान :यदि जानना न होना दुःखका कारण हो तो पुद्गलके भी दुःख ठहरे,
परन्तु दुःखका मूलकारण तो इच्छा है और इच्छा क्षयोपशमसे ही होती है, इसलिये क्षयोपशमको
दुःखका कारण कहा है; परमार्थसे क्षयोपशम भी दुःखका कारण नहीं है। जो मोहसे विषय-
ग्रहणकी इच्छा है, वही दुःखका कारण जानना।
मोहनीय कर्मके उदयसे होनेवाला दुःख और उससे निवृत्ति
मोहका उदय है सो दुःखरूप ही है, किस प्रकार सो कहते हैंः
दर्शनमोहसे दुःख और उससे निवृत्ति
प्रथम तो दर्शनमोहके उदयसे मिथ्यादर्शन होता है; उसके द्वारा जैसा इसके श्रद्धान
है वैसा तो पदार्थ होता नहीं है, जैसा पदार्थ है वैसा यह मानता नहीं है, इसलिये इसको
आकुलता ही रहती है।
जैसेपागलको किसीने वस्त्र पहिना दिया। वह पागल उस वस्त्रको अपना अंग
जानकर अपनेको और वस्त्रको एक मानता है। वह वस्त्र पहिनानेवालेके आधीन होनेसे कभी
वह फाड़ता है, कभी जोड़ता है, कभी खोंसता है, कभी नया पहिनाता है
इत्यादि चरित्र
करता है। वह पागल उसे अपने आधीन मानता है, उसकी पराधीन क्रिया होती है, उससे
वह महा खेदखिन्न होता है। उसी प्रकार इस जीवको कर्मोदयने शरीर-सम्बन्ध कराया। यह
जीव उस शरीरको अपना अंग जानकर अपनेको और शरीरको एक मानता है। वह शरीर
कर्मके आधीन कभी कृष होता है, कभी स्थूल होता है, कभी नष्ट होता है, कभी नवीन

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तीसरा अधिकार ][ ५१
उत्पन्न होता हैइत्यादि चरित्र होते हैं। यह जीव उसे अपने आधीन मानता है, उसकी
पराधीन क्रिया होती है, उससे महा खेदखिन्न होता है।
तथा जैसेजहाँ वह पागल ठहरा था वहाँ मनुष्य, घोड़ा, धनादिक कहींसे आकर
उतरे, वह पागल उन्हें अपना जानता है। वे तो उन्हींके आधीन कोई आते हैं, कोई जाते
है; कोई अनेक अवस्थारूप परिणमन करते हैं; वह पागल उन्हें अपने आधीन मानता है,
उनकी पराधीन क्रिया हो तब खेदखिन्न होता है। उसी प्रकार यह जीव जहाँ पर्याय धारण
करता है वहाँ स्वयमेव पुत्र, घोड़ा, धनादिक कहींसे आकर प्राप्त हुए, यह जीव उन्हें अपना
जानता है। वे तो उन्हींके आधीन कोई आते हैं, कोई जाते हैं, कोई अनेक अवस्थारूप
परिणमन करते हैं; यह जीव उन्हें अपने आधीन मानता है, और उनकी पराधीन क्रिया हो
तब खेदखिन्न होता है।
यहाँ कोई कहे किकिसी कालमें शरीरकी तथा पुत्रादिककी क्रिया इस जीवके आधीन
भी तो होती दिखाई देती है, तब तो यह सुखी होता है?
समाधानःशरीरादिकके भवितव्यकी और जीवकी इच्छाकी विधि मिलने पर किसी
एक प्रकार जैसे वह चाहता है वैसे कोई परिणमित होता है, इसलिये किसी कालमें उसीका
विचार होने पर सुखकासा आभास होता है; परन्तु सर्व ही तो सर्व प्रकारसे जैसे यह चाहता
है वैसे परिणमित नहीं होते, इसलिये अभिप्रायमें तो अनेक आकुलता सदाकाल रहा ही करती
है।
तथा किसी कालमें किसी प्रकार इच्छानुसार परिणमित होते देखकर कहीं यह जीव
शरीर, पुत्रादिकमें अहंकार-ममकार करता है; सो इस बुद्धिसे उनको उत्पन्न करनेकी, बढ़ानेकी,
तथा रक्षा करनेकी चिंतासे निरन्तर व्याकुल रहता है। नाना प्रकार कष्ट सहकर भी उनका
भला चाहता है।
तथा जो विषयोंकी इच्छा होती है, कषाय होती है, बाह्य-सामग्रीमें इष्ट-अनिष्टपना मानता
है, अन्यथा उपाय करता है, सच्चे उपायकी श्रद्धा नहीं करता, अन्यथा कल्पना करता है;
सो इन सबका मूलकारण एक मिथ्यादर्शन है। उसका नाश होने पर सबका नाश हो जाता
है, इसलिये सब दुःखोंका मूल यह मिथ्यादर्शन है।
तथा उस मिथ्यादर्शनके नाशका उपाय भी नहीं करता। अन्यथा श्रद्धानको सत्यश्रद्धान
माने तब उपाय किसलिये करे?
तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय कदाचित् तत्त्वनिश्चय करनेका उपाय विचारे, वहाँ अभाग्यसे कुदेव-

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५२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
कुगुरु-कुशास्त्रका निमित्त बने तो अतत्त्वश्रद्धान पुष्ट हो जाता है। वह तो जानता है कि
इनसे मेरा भला होगा; परन्तु वे ऐसा उपाय करते हैं जिससे यह अचेत हो जाय।
वस्तुस्वरूपका विचार करनेको उद्यमी हुआ था सो विपरीत विचारमें दृढ़ हो जाता है और
तब विषय-कषायकी वासना बढ़नेसे अधिक दुःखी होता है।
तथा कदाचित् सुदेव-सुगुरु-सुशास्त्रका भी निमित्त बन जाये तो वहाँ उनके निश्चय-
उपदेशका तो श्रद्धान नहीं करता, व्यवहारश्रद्धानसे अतत्त्वश्रद्धानी ही रहता है। वहाँ मंदकषाय
हो तथा विषयकी इच्छा घटे तो थोड़ा दुःखी होता है, परन्तु फि र जैसेका तैसा हो जाता
है; इसलिये यह संसारी जो उपाय करता है वे भी झूठे ही होते हैं।
तथा इस संसारीके एक यह उपाय है कि स्वयंको जैसा श्रद्धान है उसी प्रकार पदार्थोंको
परिणमित करना चाहता है। यदि वे परिणमित हों तो इसका सच्चा श्रद्धान हो जाये। परन्तु
अनादिनिधन वस्तुएँ भिन्न-भिन्न अपनी मर्यादा सहित परिणमित होती हैं, कोई किसीके आधीन
नहीं हैं, कोई किसीके परिणमित करानेसे परिणमित नहीं होतीं। उन्हें परिणमित कराना चाहे
वह कोई उपाय नहीं है, वह तो मिथ्यादर्शन ही है।
तो सच्चा उपाय क्या है? जैसा पदार्थोंका स्वरूप है वैसा श्रद्धान हो जाये तो सर्व
दुःख दूर हो जायें। जिस प्रकार कोई मोहित होकर मुर्देको जीवित माने या जिलाना चाहे
तो आप ही दुःखी होता है। तथा उसे मुर्दा मानना और यह जिलानेसे जियेगा नहीं ऐसा
मानना सो ही उस दुःखके दूर होनेका उपाय है। उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि होकर पदार्थोंको
अन्यथा माने, अन्यथा परिणमित करना चाहे तो आप ही दुःखी होता है। तथा उन्हें यथार्थ
मानना और यह परिणमित करानेसे अन्यथा परिणमित नहीं होंगे ऐसा मानना सो ही उस
दुःखके दूर होनेका उपाय है। भ्रमजनित दुःखका उपाय भ्रम दूर करना ही है। सो भ्रम
दूर होनेसे सम्यक्श्रद्धान होता है, वही सत्य उपाय जानना।
चारित्रमोहसे दुःख और उससे निवृत्ति
चारित्रमोहके उदयसे क्रोधादि कषायरूप तथा हास्यादि नोकषायरूप जीवके भाव होते
हैं, तब यह जीव क्लेशवान होकर दुःखी होता हुआ विह्वल होकर नानाप्रकारके कुकार्योंमें
प्रवर्तता है। सो ही दिखाते हैंः
जब इसके क्रोध कषाय उत्पन्न होती है तब दूसरेका बुरा करनेकी इच्छा होती है
और उसके अर्थ अनेक उपाय विचारता है, मर्मच्छेदी गाली प्रदानादिरूप वचन बोलता है।

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तीसरा अधिकार ][ ५३
अपने अंगोंसे तथा शस्त्र-पाषाणादिकसे घात करता है। अनेक कष्ट सहनकर तथा धनादि
खर्च करके व मरणादि द्वारा अपना भी बुरा करके अन्यका बुरा करनेका उद्यम करता है
अथवा औरोंसे बुरा होना जाने तो औरोंसे बुरा कराता है। स्वयं ही उसका बुरा होता
हो तो अनुमोदन करता है। उसका बुरा होनेसे अपना कुछ भी प्रयोजन सिद्ध न हो तथापि
उसका बुरा करता है। तथा क्रोध होने पर कोई पूज्य या इष्टजन भी बीचमें आयें तो
उन्हें भी बुरा कहता है, मारने लग जाता है, कुछ विचार नहीं रहता। तथा अन्यका बुरा
न हो तो अपने अंतरंगमें आप ही बहुत संतापवान होता है और अपने ही अंगोंका घात
करता है तथा विषादिसे मर जाता है।
ऐसी अवस्था क्रोध होनेसे होती है।
तथा जब इसके मान कषाय उत्पन्न होती है तब औरोंको नीचा व अपनेको ऊँचा
दिखानेकी इच्छा होती है और उसके अर्थ अनेक उपाय सोचता है। अन्यकी निंदा करता
है, अपनी प्रशंसा करता है व अनेक प्रकारसे औरोंकी महिमा मिटाता है, अपनी महिमा करता
है। महाकष्टसे जो धनादिकका संग्रह किया उसे विवाहादि कार्योंमें खर्च करता है तथा कर्ज
लेकर भी खर्चता है। मरनेके बाद हमारा यश रहेगा ऐसा विचारकर अपना मरण करके
भी अपनी महिमा बढ़ाता है। यदि कोई अपना सन्मानादिक न करे तो उसे भयादिक दिखाकर
दुःख उत्पन्न करके अपना सन्मान कराता है। तथा मान होने पर कोई पूज्य
बड़े हों उनका
भी सन्मान नहीं करता, कुछ विचार नहीं रहता। यदि अन्य नीचा और स्वयं ऊँचा दिखाई
न दे, तो अपने अंतरंगमें आप बहुत संतापवान होता है और अपने अंगोंका घात करता
है तथा विष आदिसे मर जाता है।
ऐसी अवस्था मान होने पर होती है।
तथा जब इसके माया कषाय उत्पन्न होती है तब छल द्वारा कार्य सिद्ध करनेकी
इच्छा होती है। उसके अर्थ अनेक उपाय सोचता है, नानाप्रकार कपटके वचन कहता है,
शरीरकी कपटरूप अवस्था करता है, बाह्य वस्तुओंको अन्यथा बतलाता है, तथा जिनमें अपना
मरण जाने ऐसे भी छल करता है। कपट प्रगट होने पर स्वयंका बहुत बुरा हो, मरणादिक
हो उनको भी नहीं गिनता। तथा माया होने पर किसी पूज्य व इष्टका भी सम्बन्ध बने
तो उनसे भी छल करता है, कुछ विचार नहीं रहता। यदि छल द्वारा कार्यसिद्धि न हो
तो स्वयं बहुत संतापवान होता है, अपने अंगोंका घात करता है तथा विष आदिसे मर
जाता है।
ऐसी अवस्था माया होने पर होती है।
तथा जब इसके लोभ कषाय उत्पन्न हो तब इष्ट पदार्थके लाभकी इच्छा होनेसे उसके
अर्थ अनेक उपाय सोचता है। उसके साधनरूप वचन बोलता है, शरीरकी अनेक चेष्टा करता

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५४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
है, बहुत कष्ट सहता है, सेवा करता है, विदेशगमन करता है। जिसमें मरण होना जाने
वह कार्य भी करता है। जिनमें बहुत दुःख उत्पन्न हो ऐसे प्रारम्भ करता है। तथा लोभ
होने पर पूज्य व इष्टका भी कार्य हो वहाँ भी अपना प्रयोजन साधता है, कुछ विचार नहीं
रहता। तथा जिस इष्ट वस्तुकी प्राप्त हुई है उसकी अनेक प्रकारसे रक्षा करता है। यदि
इष्ट वस्तुकी प्राप्ति न हो या इष्टका वियोग हो तो स्वयं संतापवान होता है, अपने अंगोंका
घात करता है तथा विष आदिसे मर जाता है।
ऐसी अवस्था लोभ होने पर होती है।
इस प्रकार कषायोंसे पीड़ित हुआ इन अवस्थाओंमें प्रवर्तता है।
तथा इन कषायोंके साथ नोकषाय होती हैं। वहाँ जब हास्य कषाय होती है तब
स्वयं विकसित प्रफु ल्लित होता है; वह ऐसा जानना जैसे सन्निपातके रोगीका हँसना; नाना
रोगोंसे स्वयं पीड़ित है तो भी कोई कल्पना करके हँसने लग जाता है। इसी प्रकार यह
जीव अनेक पीड़ा सहित है; तथापि कोई झूठी कल्पना करके अपनेको सुहाता कार्य मानकर
हर्ष मानता है, परमार्थतः दुःखी होता है। सुखी तो कषाय-रोग मिटने पर होगा।
तथा जब रति उत्पन्न होती है तब इष्ट वस्तुमें अति आसक्त होता है। जैसे बिल्ली
चूहेको पकड़कर आसक्त होती है, कोई मारे तो भी नहीं छोड़ती; सो यहाँ कठिनतासे प्राप्त
होनेके कारण तथा वियोग होनेके अभिप्रायसे आसक्तता होती है, इसलिये दुःख ही है।
तथा जब अरति उत्पन्न होती है तब अनिष्ट वस्तुका संयोग पाकर महा व्याकुल होता
है। अनिष्टका संयोग हुआ वह स्वयंको सुहाता नहीं है, वह पीड़ा सही नहीं जाती, इसलिये
उसका वियोग करनेको तड़पता है; वह दुःख ही है।
तथा जब शोक उत्पन्न होता है तब इष्टका वियोग और अनिष्टका संयोग होनेसे अति
व्याकुल होकर संताप पैदा करता है, रोता है, पुकार करता है, असावधान हो जाता है,
अपने अंगका घात करके मर जाता है; कुछ सिद्धि नहीं है तथापि स्वयं ही महा दुःखी
होता है।
तथा जब भय उत्पन्न होता है तब किसीको इष्ट-वियोग व अनिष्ट-संयोगका कारण
जानकर डरता है, अतिविह्वल होता है, भागता है, छिपता है, शिथिल हो जाता है, कष्ट
होनेके स्थान पर पहुँच जाता है व मर जाता है; सो यह दुःखरूप ही है।
तथा जब जुगुप्सा उत्पन्न होती है तब अनिष्ट वस्तुसे घृणा करता है। उसका तो
संयोग हुआ और यह घृणा करके भागना चाहता है या उसे दूर करना चाहता है और
खेदखिन्न होकर महा दुःख पाता है।

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तीसरा अधिकार ][ ५५
तथा तीनों वेदोंसे जब काम उत्पन्न होता है तब पुरुषवेदसे स्त्रीके साथ रमण करनेकी,
स्त्रीवेदसे पुरुषके साथ रमण करनेकी और नपुंसकवेदसे दोनोंके साथ रमण करनेकी इच्छा
होती है। उससे अति व्याकुल होता है, आताप उत्पन्न होता है, निर्लज्ज होता है, धन खर्च
करता है, अपयशको नहीं गिनता, परम्परा दुःख हो व दण्ड आदि हो उसे नहीं गिनता।
कामपीड़ासे पागल हो जाता है, मर जाता है। रसग्रन्थोंमें कामकी दस दशाएँ कही हैं।
वहाँ पागल होना, मरण होना लिखा है। वैद्यकशास्त्रोंमें ज्वरके भेदोंमें कामज्वरको मरणका
कारण लिखा है। प्रत्यक्ष ही कामसे मरण तक होते देखे जाते हैं। कामांधको कुछ विचार
नहीं रहता। पिता पुत्री तथा मनुष्य तिर्यंचिनी इत्यादिसे रमण करने लग जाते हैं। ऐसी
कामकी पीड़ा है सो महादुःखरूप है।
इस प्रकार कषायों और नोकषायोंसे अवस्थाएँ होती हैं।
यहाँ ऐसा विचार आता है कि यदि इन अवस्थाओंमें न प्रवर्ते तो क्रोधादिक पीड़ा
उत्पन्न करते हैं और इन अवस्थाओंमें प्रवर्ते तो मरणपर्यन्त कष्ट होते हैं। वहाँ मरणपर्यन्त
कष्ट तो स्वीकार करते हैं, परन्तु क्रोधादिककी पीड़ा सहना स्वीकार नहीं करते। इससे यह
निश्चित हुआ कि मरणादिकसे भी कषायोंकी पीड़ा अधिक है।
तथा जब इसके कषायका उदय हो तब कषाय किये बिना रहा नहीं जाता।
बाह्यकषायोंके कारण मिलें तो उनके आश्रय कषाय करता है, यदि न मिलें तो स्वयं कारण
बनाता है। जैसे
व्यापारादि कषायोंका कारण न हो तो जुआ खेलना व क्रोधादिकके कारण
अन्य अनेक खेल खेलना, दुष्ट कथा कहना-सुनना इत्यादि कारण बनाता है। तथा काम-
क्रोधादि पीड़ा करें और शरीरमें उनरूप कार्य करनेकी शक्ति न हो तो औषधि बनाता है
और अन्य अनेक उपाय करता है। तथा कोई कारण बने ही नहीं तो अपने उपयोगमें
कषायोंके कारणभूत पदार्थोंका चिंतवन करके स्वयं ही कषायोंरूप परिणमित होता है।
इस प्रकार यह जीव कषायभावोंसे पीड़ित हुआ महान दुःखी होता है।
तथा जिस प्रयोजनके लिये कषायभाव हुआ है उस प्रयोजनकी सिद्धि हो तो मेरा
यह दुःख दूर हो और मुझे सुख होऐसा विचारकर उस प्रयोजन सिद्धि होनेके अर्थ अनेक
उपाय करना उसे दुःखके दूर होनेका उपाय मानता है।
अब यहाँ कषायभावोंसे जो दुःख होता है वह तो सच्चा ही है, प्रत्यक्ष स्वयं ही
दुःखी होता है; परन्तु यह जो उपाय करता है वे झूठे हैं। क्यों? सो कहते हैंः
क्रोधमें तो अन्यका बुरा करना, मानमें औरोंको नीचा दिखाकर स्वयं ऊँचा होना, मायामें

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५६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
छलसे कार्यसिद्धि करना, लोभमें इष्टकी प्राप्ति करना, हास्यमें विकसित होनेका कारण बना
रहना, रतिमें इष्ट संयोगका बना रहना, अरतिमें अनिष्टका दूर होना, शोकमें शोकका कारण
मिटना, भयमें भयका कारण मिटना, जुगुप्सामें जुगुप्साका कारण दूर होना, पुरुषवेदमें स्त्रीसे
रमण करना, स्त्रीवेदमें पुरुषसे रमण करना, नपुंसकवेदमें दोनोंके साथ रमण करना
ऐसे
प्रयोजन पाये जाते हैं।
यदि इनकी सिद्धि हो तो कषायका उपशमन होनेसे दुःख दूर हो जाये, सुखी हो;
परन्तु उनकी सिद्धि इसके किये उपायोंके आधीन नहीं है, भवितव्यके आधीन है; क्योंकि
अनेक उपाय करते हैं, परन्तु सिद्धि नहीं होती। तथा उपाय होना भी अपने आधीन नहीं
है, भवितव्यके आधीन है; क्योंकि अनेक उपाय करनेका विचार करता है और एक भी
उपाय नहीं होता देखते हैं।
तथा काकतालीय न्यायसे भवितव्य ऐसा ही हो जैसा अपना प्रयोजन हो, वैसा ही
उपाय हो, और उससे कार्यकी सिद्धि भी हो जायेतो उस कार्य सम्बन्धी किसी कषायका
उपशम हो; परन्तु वहाँ रुकाव नहीं होता। जब तक कार्य सिद्ध नहीं हुआ था तब तक
तो उस कार्य सम्बन्धी कषाय थी; और जिस समय कार्य सिद्ध हुआ उसी समय अन्य कार्य
सम्बन्धी कषाय हो जाती हैं, एक समयमात्र भी निराकुल नहीं रहता। जैसे कोई क्रोधसे
किसीका बुरा सोचता था और उसका बुरा हो चुका, तब अन्य पर क्रोध करके उसका
बुरा चाहने लगा। अथवा थोड़ी शक्ति थी तब छोटोंका बुरा चाहता था, बहुत शक्ति हुई
तब बड़ोंका बुरा चाहने लगा। उसी प्रकार मान-माया-लोभादिक द्वारा जो कार्य सोचता था
वह सिद्ध हो चुका तब अन्यमें मानादिक उत्पन्न करके उसकी सिद्धि करना चाहता है। थोड़ी
शक्ति थी तब छोटे कार्यकी सिद्धि करना चाहता था, बहुत शक्ति हुई तब बड़े कार्यकी
सिद्धि करनेकी अभिलाषा हुई। कषायोंमें कार्यका प्रमाण हो तो उस कार्यकी सिद्धि होने
पर सुखी हो जाये; परन्तु प्रमाण है नहीं, इच्छा बढ़ती ही जाती है।
यही आत्मानुशासनमें कहा हैः
आशागर्तः प्रतिप्राणी यस्मिन् विश्वमणूपमम्
कस्य किं कियदायाति वृथा वो विषयैषिता।।३६।।
अर्थःआशारूपी गड्ढा प्रत्येक प्राणीमें पाया जाता है। अनन्तानन्त जीव हैं उन सबके
आशा पायी जाती है। तथा वह आशारूपी कूप कैसा है कि उस एक गड्ढेमें समस्त लोक
अणु समान है और लोक तो एक ही है तो अब यहाँ कहो किसको कितना हिस्सेमें आये?
इसलिये तुम्हें जो यह विषयोंकी इच्छा है सो वृथा ही है।

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तीसरा अधिकार ][ ५७
इच्छा पूर्ण तो होती नहीं है, इसलिये कोई कार्य सिद्ध होने पर भी दुःख दूर नहीं
होता। अथवा कोई कषाय मिटे तो उसीसमय अन्य कषाय हो जाती है। जैसेकिसीको
मारनेवाले बहुत हों तो कोई एक जब नहीं मारता तब अन्य मारने लग जाता है। उसी
प्रकार जीवको दुःख देनेवाले अनेक कषाय हैं; व जब क्रोध नहीं होता तब मानादिक हो
जाते हैं, जब मान न हो तब क्रोधादिक हो जाते हैं। इस प्रकार कषायका सद्भाव बना
ही रहता है, कोई एक समय भी कषाय रहित नहीं होता। इसलिये किसी कषायका कोई
कार्य सिद्ध होने पर भी दुःख कैसे दूर हो? और इसका अभिप्राय तो सर्व कषायोंका सर्व
प्रयोजन सिद्ध करनेका है, वह हो तो यह सुखी हो; परन्तु वह कदापि नहीं हो सकता,
इसलिये अभिप्रायमें सर्वदा दुःखी ही रहता है। इसलिये कषायोंके प्रयोजनको साधकर दुःख
दूर करके सुखी होना चाहता है; सो यह उपाय झूठा ही है।
तब सच्चा उपाय क्या है? सम्यग्दर्शनज्ञानसे यथावत् श्रद्धान और जानना हो तब
इष्ट-अनिष्ट बुद्धि मिटे, तथा उन्हींके बलसे चारित्रमोहका अनुभाग हीन हो। ऐसा होने पर
कषायोंका अभाव हो, तब उनकी पीड़ा दूर हो और तब प्रयोजन भी कुछ नहीं रहे, निराकुल
होनेसे महा सुखी हो। इसलिये सम्यग्दर्शनादिक ही यह दुःख मेटनेका सच्चा उपाय है।
अन्तरायकर्मके उदयसे होनेवाले दुःख और उससे निवृत्ति
तथा जीवके मोह द्वारा दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्यशक्तिका उत्साह उत्पन्न होता
है; परन्तु अन्तरायके उदयसे हो नहीं सकता, तब परम आकुलता होती है। सो यह दुःखरूप
है ही।
इसका उपाय यह करता है कि जो विघ्नके बाह्य कारण सूझते हैं उन्हें दूर करनेका
उद्यम करता है, परन्तु वह उपाय झूठा है। उपाय करने पर भी अन्तरायका उदय होनेसे
विघ्न होता देखा जाता है। अन्तरायका क्षयोपशम होने पर बिना उपाय भी विघ्न नहीं होता।
इसलिये विघ्नोंका मूल कारण अन्तराय है।
तथा जैसे कुत्तेको पुरुष द्वारा मारी हुई लाठी लगी, वहाँ वह कुत्ता लाठीसे वृथा
ही द्वेष करता है; उसी प्रकार जीवको अन्तरायसे निमित्तभूत किये गये बाह्य चेतन-अचेतन
द्रव्यों द्वारा विघ्न हुए, यह जीव उन बाह्य द्रव्योंसे वृथा द्वेष करता है। अन्य द्रव्य इसे
विघ्न करना चाहें और इसके न हो; तथा अन्य द्रव्य विघ्न करना न चाहें और इसके हो
जाये। इसलिये जाना जाता है कि अन्य द्रव्यका कुछ वश नहीं है। जिनका वश नहीं
है उनसे किसलिये लड़े? इसलिये यह उपाय झूठा है।

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५८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तब सच्चा उपाय क्या है? मिथ्यादर्शनादिकसे इच्छा द्वारा जो उत्साह उत्पन्न होता था
वह सम्यग्दर्शनादिकसे दूर होता है और सम्यग्दर्शनादि द्वारा ही अन्तरायका अनुभाग घटे तब
इच्छा तो मिट जाये और शक्ति बढ़ जाये, तब वह दुःख दूर होकर निराकुल सुख उत्पन्न
होता है। इसलिये सम्यग्दर्शनादि ही सच्चा उपाय है।
वेदनीयकर्मके उदयके होनेवाला दुःख और उससे निवृत्ति
तथा वेदनीयके उदयसे दुःख-सुखके कारणोंका संयोग होता है। वहाँ कई तो शरीरमें
ही अवस्थाएँ होती हैं, कई शरीरकी अवस्थाको निमित्तभूत बाह्य संयोग होते हैं, और कई
बाह्य ही वस्तुओंके संयोग होते हैं। वहाँ असाताके उदयसे शरीरमें तो क्षुधा, तृषा, उच्छ्वास,
पीड़ा, रोग इत्यादि होते हैं; तथा शरीरकी अनिष्ट अवस्थाको निमित्तभूत बाह्य अति शीत,
उष्ण, पवन, बंधनादिकका संयोग होता है; तथा बाह्य शत्रु, कुपुत्रादिक व कुवर्णादिक सहित
स्कन्धोंका संयोग होता है
सो मोह द्वारा इनमें अनिष्ट बुद्धि होती है। जब इनका उदय
हो तब मोहका उदय ऐसा ही आवे जिससे परिणामोंमें महा व्याकुल होकर इन्हें दूर करना
चाहे, और जब तक वे दूर न हों तब तक दुःखी रहता है। इनके होनेसे तो सभी दुःख
मानते हैं।
तथा साताके उदयसे शरीरमें आरोग्यवानपना, बलवानपना इत्यादि होते हैं; और
शरीरकी इष्ट अवस्थाको निमित्तभूत बाह्य खान-पानादिक तथा सुहावने पवनादिकका संयोग होता
है; तथा बाह्य मित्र, सुपुत्र, स्त्री, किंकर, हाथी, घोड़ा, धन, धान्य, मकान, वस्त्रादिकका संयोग
होता है
और मोह द्वारा इनमें इष्टबुद्धि होती है। जब इनका उदय हो तब मोहका उदय
ऐसा ही आये कि जिससे परिणामोंमें सुख माने, उनकी रक्षा चाहे, जब तक रहें तब तक
सुख माने। सो यह सुख मानना ऐसा है जैसे कोई अनेक रोगोंसे बहुत पीड़ित हो रहा
था, उसके किसी उपचारसे किसी एक रोगकी कुछ कालके लिये कुछ उपशान्तता हुई, तब
वह पूर्व अवस्थाकी अपेक्षा अपनेको सुखी कहता है; परमार्थसे सुख है नहीं।
तथा इसके असाताका उदय होने पर जो हो उससे तो दुःख भासित होता है, इसलिये
उसे दूर करनेका उपाय करता है; और साताके उदय होने पर जो हो उससे सुख भासित
होता है, इसलिये उसे रखनेका उपाय करता है
परन्तु यह उपाय झूठा है।
प्रथम तो इसके उपायके आधीन नहीं है, वेदनीय कर्मके उदयके आधीन है।
असाताको मिटाने और साताको प्राप्त करनेके अर्थ तो सभीका यत्न रहता है; परन्तु किसीको
थोड़ा यत्न करने पर भी अथवा न करने पर भी सिद्धि हो जाये, किसीको बहुत यत्न करने

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तीसरा अधिकार ][ ५९
पर भी सिद्धि नहीं हो; इसलिये जाना जाता है कि इसका उपाय इसके आधीन नहीं है।
तथा कदाचित् उपाय भी करे और वैसा ही उदय आये तो थोड़े काल तक किंचित्
किसी प्रकारकी असाताका कारण मिटे और साताका कारण हो; वहाँ भी मोहके सद्भावसे
उनको भोगनेकी इच्छासे आकुलित होता है। एक भोग्य वस्तुको भोगनेकी इच्छा हो, जब
तक वह नहीं मिलती तब तक तो उसकी इच्छासे आकुल होता है; और वह मिली उसी
समय अन्यको भोगनेकी इच्छा हो जाती है, तब उससे आकुल होता है। जैसे
किसीको
स्वाद लेनेकी इच्छा हुई थी, उसका आस्वाद जिस समय हुआ उसी समय अन्य वस्तुका स्वाद
लेनेकी तथा स्पर्शनादिकी इच्छा उत्पन्न होती है।
अथवा एक ही वस्तुको पहले अन्य प्रकार भोगनेकी इच्छा हो, जब तक वह नहीं
मिले तब तक उसकी आकुलता रहे और वह भोग हुआ उसी समय अन्य प्रकारसे भोगनेकी
इच्छा हो जाती है। जैसे स्त्रीको देखना चाहता था, जिस समय अवलोकन हुआ उसी समय
रमण करनेकी इच्छा होती है। तथा ऐसे भोग भोगते हुए भी उनके अन्य उपाय करनेकी
आकुलता होती है तो उन्हें छोड़कर अन्य उपाय करनेमें लग जाता है; वहाँ अनेक प्रकारकी
आकुलता होती है।
देखो, एक धनका उपाय करनेमें व्यापारादिक करते हुए तथा उसकी रक्षा करनेमें
सावधानी करते हुए कितनी आकुलता होती है। तथा क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, मल, श्लेष्मादि
असाताका उदय आता ही रहे; उसके निराकरणसे सुख माने
सो काहेका सुख है? यह
तो रोगका प्रतिकार है। जब तक क्षुधादिक रहें तब तक उनको मिटानेकी इच्छासे आकुलता
होती है, वह मिटें तब कोई अन्य इच्छा उत्पन्न हो उसकी आकुलता होती है और फि र
क्षुधादिक हों तब उनकी आकुलता हो आती है।
इस प्रकार इसके उपाय करते हुए कदाचित् असाता मिटकर साता हो, वहाँ भी
आकुलता बनी ही रहती है, इसलिये दुःख ही रहता है।
तथा ऐसे भी रहना तो होता नहीं है, उपाय करते-करते ही अपनेको असाताका उदय
ऐसा आये कि उसका कुछ उपाय बन नहीं सके और उसकी पीड़ा हो, सही न जाये, तब
उसकी आकुलतासे विह्वल हो जाये; वहाँ महा दुःखी होता है।
सो इस संसारमें साताका उदय तो किसी पुण्यके उदयसे किसीके कदाचित् ही पाया
जाता है; बहुत जीवोंके बहुत काल असाताहीका उदय रहता है। इसलिये उपाय करता
है वे झूठे हैं।

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६० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
अथवा बाह्य सामग्रीसे सुख-दुःख मानते हैं सो ही भ्रम है। सुख-दुःख तो साता-असाताका
उदय होने पर मोहके निमित्तसे होते हैंऐसा प्रत्यक्ष देखनेमें आता है। लक्ष धनके धनीको
सहस्र धनका व्यय हुआ तब वह तो दुःखी है और शत धनके धनीको सहस्र धन हुआ तब
वह सुख मानता है। बाह्य सामग्री तो उसके इससे निन्यानवेगुनी है। अथवा लक्ष धनके धनीको
अधिक धनकी इच्छा है तो वह दुःखी है और शत धनके धनीको सन्तोष है तो वह सुखी
है। तथा समान वस्तु मिलने पर कोई सुख मानता है कोई दुःख मानता है। जैसे
किसीको
मोटे वस्त्रका मिलना दुःखकारी होता है, किसीको सुखकारी होता है। तथा शरीरमें क्षुधा आदि
पीड़ा व बाह्य इष्टका वियोग, अनिष्टका संयोग होने पर किसीको बहुत दुःख होता है, किसीको
थोड़ा होता है, किसीको नहीं होता। इसलिये सामग्रीके आधीन सुख-दुःख नहीं हैं, साता-
असाताका उदय होने पर मोह-परिणमनके निमित्तसे ही सुख-दुःख मानते हैं।
यहाँ प्रश्न है किबाह्य सामग्रीका तो तुम कहते हो वैसा ही है; परन्तु शरीरमें
तो पीड़ा होने पर दुःखी होता ही है और पीड़ा न होने पर सुखी होता हैयह तो
शरीर-अवस्थाहीके आधीन सुख-दुःख भासित होते हैं?
समाधानःआत्माका तो ज्ञान इन्द्रियाधीन है और इन्द्रियाँ शरीरका अङ्ग हैं, इसलिये
इसमें जो अवस्था हो उसे जाननेरूप ज्ञान परिणमित होता है; उसके साथ ही मोहभाव हो,
उससे शरीरकी अवस्था द्वारा सुख-दुःख विशेष जाना जाता है। तथा पुत्र धनादिकसे अधिक
मोह हो तो अपने शरीरका कष्ट सहे उसका थोड़ा दुःख माने, और उनको दुःख होने पर
अथवा उनका संयोग मिटने पर बहुत दुःख माने; और मुनि हैं वे शरीरको पीड़ा होने
पर भी कुछ दुःख नहीं मानते; इसलिये सुख-दुःखका मानना तो मोहहीके आधीन है। मोहके
और वेदनीयके निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है, इसलिये साता-असाता के उदयसे सुख-दुःखका
होना भासित होता है। तथा मुख्यतः कितनी ही सामग्री साताके उदयसे होती है, कितनी
ही असाताके उदयसे होती है; इसलिये सामग्रियोंसे सुख-दुःख भासित होते हैं। परन्तु निर्धार
करने पर मोह ही से सुख-दुःख का मानना होता है, औरोंके द्वारा सुख-दुःख होनेका नियम
नहीं है। केवलीके साता-असाताका उदय भी है और सुख-दुःखके कारण सामग्रीका संयोग
भी है; परन्तु मोहके अभावसे किंचित्मात्र भी सुख-दुःख नहीं होता। इसलिये सुख-दुःख
को मोहजनित ही मानना। इसलिये तू सामग्रीको दूर करनेका या होनेका उपाय करके दुःख
मिटाना चाहे और सुखी होना चाहे सो यह उपाय झूठा है।
तो सच्चा उपाय क्या है? सम्यग्दर्शनादिकसे भ्रम दूर हो तब सामग्रीसे सुख-दुःख भासित
नहीं होता, अपने परिणामहीसे भासित होता है। तथा यथार्थ विचारके अभ्यास द्वारा अपने

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तीसरा अधिकार ][ ६१
परिणाम जैसे सामग्रीके निमित्तसे सुखी-दुःखी न हों वैसे साधन करे तथा सम्यग्दर्शनादिकी
भावनासेही मोह मंद हो जाये तब ऐसी दशा हो जाये कि अनेक कारण मिलने पर भी
अपनेको सुख-दुःख नहीं होता; तब एक शांतदशारूप निराकुल होकर सच्चे सुखका अनुभव
करता है, और तब सर्व दुःख मिटकर सुखी होता है
यह सच्चा उपाय है।
आयुकर्मके उदयसे होनेवाला दुःख और उससे निवृत्ति
तथा आयुकर्मके निमित्तसे पर्यायका धारण करना सो जीवितव्य है और पर्यायका छूटना
सो मरण है। यह जीव मिथ्यादर्शनादिकसे पर्यायको ही अपनेरूप अनुभव करता है; इसलिए
जीवितव्य रहने पर अपना अस्तित्व मानता है और मरण होने पर अपना अभाव होना मानता
है। इसी कारणसे इसे सदाकाल मरणका भय रहता है, उस भयसे सदा आकुलता रहती
है। जिनको मरणका कारण जाने उनसे बहुत डरता है, कदाचित् उनका संयोग बने तो
महाविह्वल हो जाता है
इसप्रकार महा दुःखी रहता है।
उसका उपाय यह करता है कि मरणके कारणोंको दूर रखता है अथवा स्वयं उनसे
भागता है। तथा औषधादिक साधन करता है; किला, कोट आदि बनाता हैइत्यादि उपाय
करता है सो ये उपाय झूठे हैं; क्योंकि आयु पूर्ण होने पर तो अनेक उपाय करे, अनेक
सहायक हों तथापि मरण हो ही जाता है, एक समयमात्र भी जीवित नहीं रहता। और
जब तक आयु पूर्ण न हो तब तक अनेक कारण मिले, सर्वथा मरण नहीं होता। इसलिये
उपाय करनेसे मरण मिटता नहीं है; तथा आयुकी स्थिति पूर्ण होती ही है, इसलिए मरण
भी होता ही है। इसका उपाय करना झूठा ही है।
तो सच्चा उपाय क्या है? सम्यग्दर्शनादिकसे पर्यायमें अहंबुद्धि छूट जाये, स्वयं
अनादिनिधन चैतन्यद्रव्य है उसमें अहंबुद्धि आये, पर्यायको स्वांग समान जाने; तब मरणका
भय नहीं रहता। तथा सम्यग्दर्शनादिकसे ही सिद्धपद प्राप्त करे तब मरणका अभाव ही होता
है। इसलिये सम्यग्दर्शनादिक ही सच्चे उपाय हैं।
नामकर्मके उदयसे होनेवाला दुःख और उससे निवृत्ति
तथा नामकर्मके उदयसे गति, जाति, शरीरादिक उत्पन्न होते हैं। उनमेंसे जो पुण्यके
उदयसे होते हैं वे तो सुखके कारण होते हैं और जो पापके उदयसे होते हैं वे दुःखके
कारण होते हैं; सो यहाँ सुख मानना भ्रम है। तथा यह दुःखके कारण मिटानेका और सुखके
कारण होनेका उपाय करता है वह झूठा है; सच्चा उपाय सम्यग्दर्शनादिक हैं। जैसा निरूपण

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वेदनीयका कथन करते हुए किया वैसा यहाँ भी जानना। वेदनीय और नाममें सुख-दुःखके
कारणपनेकी समानतासे निरूपणकी समानता जानना।
गोत्रकर्मके उदयसे होनेवाला दुःख और उससे निवृत्ति
तथा गोत्रकर्मके उदयसे उच्च-नीच कुलमें उत्पन्न होता है। वहाँ उच्च कुलमें उत्पन्न होने
पर अपनेको ऊँचा मानता है और नीच कुलमें उत्पन्न होने पर अपनेको नीचा मानता है। वहाँ,
कुल पलटनेका उपाय तो इसको भासित नहीं होता, इसलिये जैसा कुल प्राप्त किया उसीमें
अपनापन मानता है। परन्तु कुल की अपेक्षा ऊँचा-नीचा मानना भ्रम है। कोई उच्च कुलवाला
निंद्य कार्य करे तो वह नीचा हो जाये और नीच कुलमें कोई श्लाघ्य कार्य करे तो वह ऊँचा
हो जाये। लोभादिकसे उच्च कुलवाले नीचे कुलवालेकी सेवा करने लग जाते हैं।
तथा कुल कितने काल रहता है? पर्याय छूटने पर कुलकी बदली हो जाती है; इसलिये
उच्च-नीच कुलसे अपनेको ऊँचा-नीचा मानने पर उच्च कुलवालेको नीचा होनेके भयका और
नीच कुलवाले को प्राप्त किये हुए नीचेपनका दुःख ही है।
इसका सच्चा उपाय यही है किसम्यग्दर्शनादिक द्वारा उच्च-नीच कुलमें हर्ष-विषाद
न माने। तथा उन्हींसे जिसकी फि र बदली नहीं होती ऐसा सबसे ऊँचा सिद्धपद प्राप्त करता
है तब सब दुःख मिट जाते हैं और सुखी होता है।
इस प्रकार कर्मोदयकी अपेक्षा मिथ्यादर्शनादिकके निमित्तसे संसारमें दुःख ही दुःख पाया
जाता है, उसका वर्णन किया।
(ख) पर्यायकी अपेक्षासे
पर्यायोंकी अपेक्षासे अब, इसी दुःखका वर्णन करते हैंः
एकेन्द्रिय जीवोंके दुःख
इस संसारमें बहुत काल तो एकेन्द्रिय पर्यायमें ही बीतता है। इसलिये अनादिहीसे
तो नित्यनिगोदमें रहना होता है; फि र वहाँसे निकलना ऐसा है जैसा भाड़में भुँजते हुए चनेका
उचट जाना। इस प्रकार वहाँसे निकलकर अन्य पर्याय धारण करे तो त्रसमें तो बहुत थोड़े
ही काल रहता है; एकेन्द्रियमें ही बहुत काल व्यतीत करता है।
वहाँ इतरनिगोदमें बहुत काल रहना होता है तथा कितने काल तक पृथ्वी, अप्,
तेज, वायु और प्रत्येक वनस्पतिमें रहना होता है। नित्यनिगोदसे निकलकर बादमें त्रसमें रहनेका
उत्कृष्ट काल तो साधिक दो हजार सागर ही है तथा एकेन्द्रियमें रहनेका उत्कृष्ट काल असंख्यात