Moksha-Marg Prakashak (Hindi). Chautha Adhyay.

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तीसरा अधिकार ][ ६३
पुद्गलपरावर्तन मात्र है और पुद्गलपरावर्तनका काल ऐसा है जिसके अनन्तवें भागमें भी अनन्त
सागर होते हैं। इसलिए इस संसारीके मुख्यतः एकेन्द्रिय पर्यायमें ही काल व्यतीत होता है।
वहाँ एकेन्द्रियके ज्ञान-दर्शनकी शक्ति तो किंचित्मात्र ही रहती है। एक स्पर्शन इन्द्रियके
निमित्तसे हुआ मतिज्ञान और उसके निमित्तसे हुआ श्रुतज्ञान तथा स्पर्शन इन्द्रियजनित
अचक्षुदर्शन
जिनके द्वारा शीत-उष्णादिकको किंचित् जानते-देखते हैं। ज्ञानावरण-दर्शनावरणके
तीव्र उदयसे इससे अधिक ज्ञान-दर्शन नहीं पाये जाते और विषयोंकी इच्छा पायी जाती है
जिससे महा दुःखी हैं। तथा दर्शनमोहके उदयसे मिथ्यादर्शन होता है उससे पर्यायका ही
अपनेरूप श्रद्धान करते हैं, अन्य विचार करनेकी शक्ति ही नहीं है।
तथा चारित्रमोहके उदयसे तीव्र क्रोधादिक-कषायरूप परिणमित होते हैं; क्योंकि उनके
केवलीभगवानने कृष्ण, नील, कापोत यह तीन अशुभ लेश्या ही कही हैं और वे तीव्र कषाय
होने पर ही होती हैं। वहाँ कषाय तो बहुत है और शक्ति सर्व प्रकारसे महा हीन है,
इसलिए बहुत दुःखी हो रहे हैं, कुछ उपाय नहीं कर सकते।
यहाँ कोई कहे किज्ञान तो किंचित्मात्र ही रहा है, फि र वे क्या कषाय करते हैं?
समाधानःऐसा कोई नियम तो है नहीं कि जितना ज्ञान हो उतनी ही कषाय हो।
ज्ञान तो जितना क्षयोपशम हो उतना होता है। जैसे किसी अंधे-बहरे पुरुषको ज्ञान थोड़ा
होने पर भी बहुत कषाय होती दिखाई देती है, उसी प्रकार एकेन्द्रियके ज्ञान थोड़ा होने
पर भी बहुत कषाय होना माना गया है।
तथा बाह्य कषाय प्रगट तब होती है, जब कषायके अनुसार कुछ उपाय करे, परन्तु
वे शक्तिहीन हैं, इसलिये उपाय कुछ कर नहीं सकते, इससे उनकी कषाय प्रगट नहीं होती।
जैसे कोई पुरुष शक्तिहीन है, उसको किसी कारणसे तीव्र कषाय हो, परन्तु कुछ कर नहीं
सकता, इसलिये उसकी कषाय बाह्यमें प्रगट नहीं होती, वह अति दुःखी होता है; उसी प्रकार
एकेन्द्रिय जीव शक्तिहीन हैं; उनको किसी कारणसे कषाय होती है, परन्तु कुछ कर नहीं
सकते, इसलिये उनकी कषाय बाह्यमें प्रगट नहीं होती, वे स्वयं ही दुःखी होते हैं।
तथा ऐसा जानना कि जहाँ कषाय बहुत हो और शक्ति हीन हो वहाँ बहुत दुःख
होता है और ज्यों ज्यों कषाय कम होती जाये तथा शक्ति बढ़ती जाये त्यों-त्यों दुःख कम
होता है। परन्तु एकेन्द्रियोंके कषाय बहुत और शक्ति हीन, इसलिये एकेन्द्रिय जीव महा
दुःखी हैं। उनके दुःख वे ही भोगते हैं और केवली जानते हैं। जैसे
सन्निपात के रोगीका
ज्ञान कम हो जाये और बाह्य शक्तिकी हीनतासे अपना दुःख प्रगट भी न कर सके, परन्तु

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वह महा दुःखी है। उसी प्रकार एकेन्द्रियका ज्ञान तो थोड़ा है और बाह्य शक्तिहीनताके
कारण अपना दुःख प्रगट भी नहीं कर सकता, परन्तु महा दुःखी है।
तथा अंतरायके तीव्र उदयसे चाहा हुआ बहुत नहीं होता, इसलिए भी दुःखी ही
होते हैं।
तथा अघाति कर्मोंमें विशेषरूपसे पापप्रकृतियोंका उदय है; वहाँ असातावेदनीयका उदय
होने पर उसके निमित्तसे महा दुःखी होते हैं। वनस्पति है सो पवनसे टूटती है, शीत-उष्णतासे
सूख जाती है, जल न मिलनेसे सूख जाती है, अग्निसे जल जाती है; उसको कोई छेदता
है, भेदता है, मसलता है, खाता है, तोड़ता है
इत्यादि अवस्था होती है। उसी प्रकार
यथासम्भव पृथ्वी आदिमें अवस्थाएँ होती हैं। उन अवस्थाओंके होनेसे वे महा दुःखी होते
हैं।
जिस प्रकार मनुष्यके शरीरमें ऐसी अवस्था होने पर दुःख होता है उसी प्रकार उनके
होता है। क्योंकि इनका जानपना स्पर्शन इन्द्रियसे होता है और उनके स्पर्शन इन्द्रिय है
ही, उसके द्वारा उन्हें जानकर मोहके वशसे महा व्याकुल होते हैं; परन्तु भागनेकी, लड़नेकी
या पुकारनेकी शक्ति नहीं है, इसलिये अज्ञानी लोग उनके दुःखको नहीं जानते। तथा कदाचित्
किंचित् साताका उदय होता है, परन्तु वह बलवान नहीं होता।
तथा आयुकर्मसे इन एकेन्द्रिय जीवोंमें जो अपर्याप्त हैं उनके तो पर्यायकी स्थिति
उच्छ्वासके अठारहवें भाग मात्र ही है, और पर्याप्तोंकी अंतर्मूहूर्त आदि कितने ही वर्ष पर्यन्त
है। वहाँ आयु थोड़ा होनेसे जन्म-मरण होते ही रहते हैं उससे दुःखी हैं।
तथा नामकर्ममें तिर्यंचगति आदि पापप्रकृतियोंका ही उदय विशेषरूपसे पाया जाता है।
किसी हीन पुण्यप्रकृतिका उदय हो उसका बलवानपना नहीं होता, इसलिये उनसे भी मोहके
वशसे दुःखी होते हैं।
तथा गोत्रकर्ममें नीच गोत्रहीका उदय है, इसलिये महंतता नहीं होती, इसलिये भी
दुःखी ही हैं।
इसप्रकार एकेन्द्रिय जीव महा दुःखी हैं और इस संसारमें जैसे पाषाण आधार पर
तो बहुत काल रहता है, निराधार आकाशमें तो कदाचित् किंचित्मात्र काल रहता है; उसीप्रकार
जीव एकेन्द्रिय पर्यायमें बहुत काल रहता है, अन्य पर्यायोंमें तो कदाचित् किंचित्मात्र काल
रहता है; इसलिये यह जीव संसारमें महा दुःखी है।

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विकलत्रय व असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके दुःख
तथा जीव द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यायोंको धारण करे वहाँ
भी एकेन्द्रियवत् दुःख जानना। विशेष इतना कियहाँ क्रमसे एक-एक इन्द्रियजनित ज्ञान-
दर्शनकी तथा कुछ शक्तिकी अधिकता हुई है और बोलने-चालनेकी शक्ति हुई है। वहाँ भी
जो अपर्याप्त हैं तथा पर्याप्त भी हीनशक्तिके धारक हैं; छोटे जीव हैं, उनकी शक्ति प्रगट
नहीं होती। तथा कितने ही पर्याप्त बहुत शक्तिके धारक बड़े जीव हैं उनकी शक्ति प्रगट
होती है; इसलिये वे जीव विषयोंका उपाय करते हैं, दुःख दूर होनेका उपाय करते हैं।
क्रोधादिकसे काटना, मारना, लड़ना, छल करना, अन्नादिका संग्रह करना, भागना इत्यादि कार्य
करते हैं; दुःखसे तड़फ ड़ाना, पुकारना इत्यादि क्रिया करते हैं; इसलिये उनका दुःख कुछ प्रगट
भी होता है। इस प्रकार लट, कीड़ी आदि जीवोंको शीत, उष्ण, छेदन, भेदनादिकसे तथा
भूख-प्यास आदिसे परम दुःखी देखते हैं। जो प्रत्यक्ष दिखाई देता है उसका विचार कर
लेना। यहाँ विशेष क्या लिखें?
इस प्रकार द्वीन्द्रियादिक जीवोंको भी महा दुःखी ही जानना।
संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके दुःख
नरक गतिके दुःख
तथा संज्ञी पंचेन्द्रियोंमें नारकी जीव हैं वे तो सर्व प्रकारसे बहुत दुःखी हैं। उनमें
ज्ञानादिकी शक्ति कुछ है, परन्तु विषयोंकी इच्छा बहुत है और इष्ट विषयोंकी सामग्री किंचित्
भी नहीं मिलती, इसलिए उस शक्तिके होनेसे भी बहुत दुःखी हैं। उनके क्रोधादि कषायकी
अति तीव्रता पायी जाती है; क्योंकि उनके कृष्णादि अशुभ लेश्या ही हैं।
वहाँ क्रोधमानसे परस्पर दुःख देनेका कार्य निरन्तर पाया जाता है। यदि परस्पर
मित्रता करें तो दुःख मिट जाये। और अन्यको दुःख देनेसे उनका कुछ कार्य भी नहीं होता,
परन्तु क्रोध
मानकी अति तीव्रता पायी जाती है उससे परस्पर दुःख देनेकी ही बुद्धि रहती
है। विक्रिया द्वारा अन्यको दुःखदायक शरीरके अंग बनाते हैं तथा शस्त्रादि बनाते हैं।
उनके द्वारा दूसरोंको स्वयं पीड़ा देते हैं और स्वयंको कोई और पीड़ा देता है। कभी कषाय
उपशान्त नहीं होती। तथा उनमें माया
लोभकी भी अति तीव्रता है, परन्तु कोई इष्ट सामग्री
वहाँ दिखाई नहीं देती, इसलिये उन कषायोंका कार्य प्रगट नहीं कर सकते; उनसे अंतरंगमें
महा-दुःखी हैं। तथा कदाचित् किंचित् कोई प्रयोजन पाकर उनका भी कार्य होता है।
तथा हास्य-रति कषाय हैं, परन्तु बाह्य निमित्त नहीं हैं, इसलिये प्रगट होते नहीं हैं,

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कदाचित् किंचित् किसी कारणसे होते हैं। तथा अरति-शोक-भय-जुगुप्साके बाह्य कारण बन
रहे हैं, इसलिये वे कषायें तीव्र प्रगट होती हैं। तथा वेदोंमें नपुंसकवेद है, सो इच्छा तो
बहुत और स्त्री-पुरुषोंसे रमण करनेका निमित्त नहीं है, इसलिये महा पीड़ित हैं।
इस प्रकार कषायों द्वारा अति दुःखी हैं।
तथा वेदनीयमें असाता ही का उदय है उससे वहाँ अनेक वेदनाओंके निमित्त हैं, शरीरमें
कुष्ठ, कास, श्वासादि अनेक रोग युगपत् पाये जाते हैं और क्षुधा, तृषा ऐसी है कि सर्वका
भक्षण-पान करना चाहते हैं, और वहाँकी मिट्टीका ही भोजन मिलता है, वह मिट्टी भी ऐसी
है कि यदि यहाँ आ जाये तो उसकी दुर्गन्धसे कई कोसोंके मनुष्य मर जायें। और वहाँ शीत,
उष्णता ऐसी है कि यदि लाख योजनका लोहेका गोला हो तो वह भी उनसे भस्म हो जाये।
कहीं शीत है कहीं उष्णता है। तथा पृथ्वी वहाँ शस्त्रोंसे भी महातीक्ष्ण कंटकों सहित है।
उस पृथ्वीमें जो वन हैं वे शस्त्रकी धार समान पत्रादि सहित हैं। नदी ऐसे जल युक्त है कि
जिसका स्पर्श होने पर शरीर खण्ड-खण्ड हो जाये। पवन ऐसा प्रचण्ड है कि उससे शरीर
दग्ध हो जाता है। तथा नारकी एक-दूसरेको अनेक प्रकारसे पीड़ा देते हैं, घानीमें पेलते हैं,
खण्ड-खण्ड कर डालते हैं, हंडियोंमें राँधते हैं, कोड़े मारते हैं, तप्त लोहादिकका स्पर्श कराते
हैं
इत्यादि वेदना उत्पन्न करते हैं। तीसरी पृथ्वी तक असुरकुमार देव जाते हैं। वे स्वयं
पीड़ा देते हैं और परस्पर लड़ाते हैं। ऐसी वेदना होने पर भी शरीर छूटता नहीं है, पारेकी
भाँति खण्ड-खण्ड हो जाने पर भी मिल जाता है।
ऐसी महा पीड़ा है।
तथा साताका निमित्त तो कुछ है नहीं। किसी अंशमें कदाचित् किसीको अपनी मान्यतासे
किसी कारण-अपेक्षा साताका उदय होता है तो वह बलवान नहीं होता। आयु वहाँ बहुत है।
जघन्य आयु दस हजार वर्ष तथा उत्कृष्ट आयु तेतीस सागर है। इतने काल तक वहाँ ऐसे
दुःख सहने पड़ते हैं। वहाँ नामकर्मकी सर्व पापप्रकृतियोंका ही उदय है, एक भी पुण्यप्रकृतिका
उदय नहीं है; उनसे महा दुःखी हैं। तथा गोत्रमें नीच गोत्रका ही उदय है उससे महन्तता
नहीं होती, इसलिये दुःखी ही हैं।
इस प्रकार नरकगतिमें महा दुःख जानना।
तिर्यंच गतिके दुःख
तथा तिर्यंचगतिमें बहुत लब्घि-अपर्याप्त जीव हैं। उनकी तो उच्छ्वासके अठारहवें भाग-
मात्र आयु है। तथा कितने ही पर्याप्त भी छोटे जीव हैं, परन्तु उनकी शक्ति प्रगट भासित
नहीं होती। उनके दुःख एकेन्द्रियवत् जानना; ज्ञानादिकका विशेष है सो विशेष जानना।
तथा बड़े पर्याप्त जीव कितने ही सम्मूर्च्छन हैं, कितने ही गर्भज हैं। उनमें ज्ञानादिक प्रगट

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होते हैं, परन्तु वे विषयोंकी इच्छासे आकुलित हैं। उनमें बहुतोंको तो इष्ट-विषयकी प्राप्ति
है नहीं; किसीको कदाचित् किंचित् होती है।
तथा मिथ्यात्वभावसे अतत्त्वश्रद्धानी हो ही रहे हैं और कषाय मुख्यतः तीव्र ही पायी
जाती हैं। क्रोधमानसे परस्पर लड़ते हैं, भक्षण करते हैं, दुःख देते हैं; मायालोभसे छल
करते हैं, वस्तुको चाहते हैं; हास्यादिक द्वारा उन कषायोंके कार्योंमें प्रवर्तते हैं। तथा किसीके
कदाचित् मंदकषाय होती है, परन्तु थोड़े जीवोंके होती है, इसलिये मुख्यता नहीं है।
तथा वेदनीयमें मुख्यतः असाताका उदय है। उससे रोग, पीड़ा, क्षुधा, तृषा, छेदन,
भेदन, बहुत भार-वहन, शीत, उष्ण, अंग-भंगादि अवस्था होती है। उससे दुःखी होते प्रत्यक्ष
देखे जाते हैं, इसलिए बहुत नहीं कहा है। किसीके कदाचित् किंचित् साताका भी उदय
होता है, परन्तु थोड़े ही जीवोंको है, मुख्यतया नहीं है। तथा आयु अन्तर्मुहूर्तसे लेकर कोटि
वर्ष पर्यन्त है। वहाँ बहुत जीव अल्प आयुके धारक होते हैं, इसलिये जन्म-मरणका दुःख
पाते हैं। तथा भोगभूमियोंकी बड़ी आयु है और उनके साताका भी उदय है, परन्तु वे
जीव थोड़े हैं। तथा मुख्यतः तो नामकर्मकी तिर्यंचगति आदि पापप्रकृतियोंका ही उदय है।
किसीको कदाचित् किन्हीं पुण्यप्रकृतियोंका भी उदय होता है, परन्तु थोड़े जीवोंको थोड़ा होता
है, मुख्यता नहीं है। तथा गोत्रमें नीच गोत्रका ही उदय है, इसलिये हीन हो रहे हैं।
इस प्रकार तिर्यंच गतिमें महा दुःख जानना।
मनुष्य गतिके दुःख
तथा मनुष्यगतिमें असंख्यात जीव तो लब्धि-अपर्याप्त हैं वे सम्मूर्च्छन ही हैं, उनकी
आयु तो उच्छ्वासके अठारहवें भाग मात्र है। तथा कितने ही जीव गर्भमें आकर थोड़े ही
कालमें मरण पाते हैं, उनकी तो शक्ति प्रगट भासित नहीं होती; उनके दुःख एकेन्द्रियवत्
जानना। विशेष है सो विशेष जानना।
तथा गर्भजोंके कुछ काल गर्भमें रहनेके बाद बाहर निकलना होता है। उनके दुःखका
वर्णन कर्म-अपेक्षासे पहले वर्णन किया है वैसे जानना। वह सर्व वर्णन गर्भज मनुष्योंके सम्भव
है। अथवा तिर्यंचोंका वर्णन किया है उस प्रकार जानना।
विशेष यह है कियहाँ कोई शक्ति विशेष पायी जाती है तथा राजादिकोंके विशेष
साताका उदय होता है तथा क्षत्रियादिकोंको उच्च गोत्रका भी उदय होता है। तथा धन-
कुटुम्बादिकका निमित्त विशेष पाया जाता है
इत्यादि विशेष जानना।

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अथवा गर्भ आदि अवस्थाओंके दुःख प्रत्यक्ष भासित होते हैं। जिस प्रकार विष्टामें
लट उत्पन्न होती है उसी प्रकार गर्भमें शुक्र-शोणितके बिन्दुको अपने शरीररूप करके जीव
उत्पन्न होता है। बादमें वहाँ क्रमशः ज्ञानादिककी तथा शरीरकी वृद्धि होती है। गर्भका दुःख
बहुत है। संकुचित रूपसे औंधे मुँह क्षुधा-तृषादि सहित वहाँ काल पूर्ण करता है। जब
बाहर निकलता है तब बाल्यावस्थामें महा दुःख होता है। कोई कहते हैं कि बाल्यावस्थामें
दुःख थोड़ा है; सो ऐसा नहीं है, किन्तु शक्ति थोड़ी होनेसे व्यक्त नहीं हो सकता। बादमें
व्यापारादिक तथा विषय-इच्छा आदि दुःखोंकी प्रगटता होती है। इष्ट-अनिष्ट जनित आकुलता
बनी ही रहती है। पश्चात् जब वृद्ध हो तब शक्तिहीन हो जाता है और तब परम दुःखी
होता है। ये दुःख प्रत्यक्ष होते देखे जाते हैं।
हम बहुत क्या कहें? प्रत्यक्ष जिसे भासित नहीं होते वह कहे हुए कैसे सुनेगा? किसीके
कदाचित् किंचित् साताका उदय होता है सो आकुलतामय है। और तीर्थंकरादि पद मोक्षमार्ग
प्राप्त किये बिना होते नहीं हैं।
इस प्रकार मनुष्य पर्यायमें दुःख ही हैं।
एक मनुष्य पर्यायमें कोई अपना भला होनेका उपाय करे तो हो सकता है। जैसे
काने गन्नेकी जड़ व उसका ऊपरी फीका भाग तो चूसने योग्य ही नहीं है, और बीचकी
पोरें कानी होनेसे वे भी नहीं चूसी जातीं; कोई स्वादका लोभी उन्हें बिगाड़े तो बिगाड़ो;
परन्तु यदि उन्हें बो दे तो उनसे बहुतसे गन्ने हों, और उनका स्वाद बहुत मीठा आये।
उसी प्रकार मनुष्य-पर्यायका बालक-वृद्धपना तो सुखयोग्य नहीं है, और बीचकी अवस्था रोग-
क्लेशादिसे युक्त है, वहाँ सुख हो नहीं सकता; कोई विषयसुखका लोभी उसे बिगाड़े तो बिगाड़ो;
परन्तु यदि उसे धर्म साधनमें लगाये तो बहुत उच्चपदको पाये, वहाँ सुख बहुत निराकुल
पाया जाता है। इसलिये यहाँ अपना हित साधना, सुख होनेके भ्रमसे वृथा नहीं खोना।
देव गतिके दुःख
तथा देव पर्यायमें ज्ञानादिककी शक्ति औरोंसे कुछ विशेष है; वे मिथ्यात्वसे
अतत्त्वश्रद्धानी हो रहे हैं। तथा उनके कषाय कुछ मंद हैं। भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्कोंके
कषाय बहुत मंद नहीं हैं और उनका उपयोग चंचल बहुत है तथा कुछ शक्ति भी है सो
कषायोंके कार्योंमें प्रवर्तते हैं; कौतूहल, विषयादि कार्योंमें लग रहे हैं और उस आकुलतासे
दुःखी ही हैं। तथा वैमानिकोंके ऊपर-ऊपर विशेष मन्दकषाय है और शक्ति विशेष है, इसलिये
आकुलता घटनेसे दुःख भी घटता है।
यहाँ देवोंके क्रोधमान कषाय हैं, परन्तु कारण थोड़ा है, इसलिये उनके कार्यकी

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गौणता है। किसीका बुरा करना तथा किसीको हीन करना इत्यादि कार्य निकृष्ट
देवोंके तो कौतूहलादिसे होते हैं, परन्तु उत्कृष्ट देवोंके थोड़े होते हैं, मुख्यता नहीं है; तथा
माया
लोभ कषायोंके कारण पाये जाते हैं इसलिये उनके कार्यकी मुख्यता है; इसलिये छल
करना, विषय-सामग्रीकी चाह करना इत्यादि कार्य विशेष होते हैं। वे भी ऊँचे-ऊँचे देवोंके
कम हैं।
तथा हास्य, रति कषायके कारण बहुत पाये जाते हैं, इसलिए इनके कार्योंकी मुख्यता
है। तथा अरति, शोक, भय, जुगुप्सा इनके कारण थोड़े हैं, इसलिये इनके कार्योंकी गौणता
है। तथा स्त्रीवेद, पुरुषवेदका उदय है और रमण करनेका भी निमित्त है सो काम-सेवन
करते हैं। ये भी कषाय ऊपर-ऊपर मन्द हैं। अहमिन्द्रोंके वेदोंकी मन्दताके कारण काम-
सेवनका अभाव है।
इस प्रकार देवोंके कषायभाव है और कषायसे ही दुःख है।
तथा इनके कषायें जितनी थोड़ी हैं उतना दुःख भी थोड़ा है, इसलिये औरोंकी अपेक्षा
इन्हें सुखी कहते हैं। परमार्थसे कषायभाव जीवित है उससे दुःखी ही हैं।
तथा वेदनीयमें साताका उदय बहुत है। वहाँ भवनत्रिकको थोड़ा है, वैमानिकोंके ऊपर-
ऊपर विशेष है। इष्ट शरीरकी अवस्था, स्त्री, महल आदि सामग्रीका संयोग पाया जाता है।
तथा कदाचित् किंचित् असाताका भी उदय किसी कारणसे होता है। वह निकृष्ट देवोंके कुछ
प्रगट भी है, परन्तु उत्कृष्ट देवोंके विशेष प्रगट नहीं है। तथा आयु बड़ी है। जघन्य आयु
दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट इकतीस सागर है। इससे अधिक आयुका धारी मोक्षमार्ग प्राप्त
किए बिना नहीं होता। सो इतने काल तक विषय-सुखमें मग्न रहते हैं। तथा नामकर्मकी
देवगति आदि सर्व पुण्यप्रकृतियोंका ही उदय है, इसलिये सुखका कारण है। और गोत्रमें
उच्च गोत्रका ही उदय है, इसलिये महन्त पदको प्राप्त हैं।
इस प्रकार इनको पुण्य-उदयकी विशेषतासे इष्ट सामग्री मिली है और कषायोंसे इच्छा
पायी जाती है, इसलिये उसके भोगनेमें आसक्त हो रहे हैं, परन्तु इच्छा अधिक ही रहती
है, इसलिये सुखी नहीं होते। उच्च देवोंको उत्कृष्ट पुण्य-उदय है, कषाय बहुत मंद है; तथापि
उनके भी इच्छाका अभाव नहीं होता, इसलिये परमार्थसे दुःखी ही हैं।
इस प्रकार संसारमें सर्वत्र दुःख ही दुःख पाया जाता है।इस प्रकार पर्याय- अपेक्षासे
दुःखका वर्णन किया।

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७० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
(ग) दुःखका सामान्य स्वरूप
अब इस सर्व दुःखका सामान्यस्वरूप कहते हैं। दुःखका लक्षण आकुलता है और
आकुलता इच्छा होने पर होती है।
चार प्रकारकी इच्छाएँ
इस संसारी जीवके इच्छा अनेक प्रकार पायी जाती हैंः
(१) एक इच्छा तो विषय-ग्रहणकी है, उससे यह देखना-जानना चाहता है। जैसे
वर्ण देखनेकी, राग सुननेकी, अव्यक्तको जाननेकी, इत्यादि इच्छा होती है। वहाँ अन्य कोई
पीड़ा नहीं है, परन्तु जब तक देखता-जानता नहीं है तब तक महा व्याकुल होता है। इस
इच्छा का नाम विषय है।
तथा (२) एक इच्छा कषायभावोंके अनुसार कार्य करनेकी है, जिससे वह कार्य करना
चाहता है। जैसेबुरा करनेकी, हीन करनेकी इत्यादि इच्छा होती है। यहाँ भी अन्य कोई
पीड़ा नहीं है, परन्तु जब तक कार्य न हो तब तक महा व्याकुल होता है। इस इच्छाका
नाम कषाय है।
तथा (३) एक इच्छा पापके उदयसे जो शरीरमें या बाह्य अनिष्ट कारण मिलते हैं
उनको दूर करनेकी होती है। जैसेरोग, पीड़ा, क्षुधा आदिका संयोग होने पर उन्हें दूर
करनेकी इच्छा होती है सो यहाँ यही पीड़ा मानता है, जब तक वह दूर न हो तब तक
महा व्याकुल रहता है। इस इच्छाका नाम पापका उदय है।
इस प्रकार इन तीन प्रकारकी इच्छा होने पर सभी दुःख मानते हैं सो दुःख ही है।
तथा (४) एक इच्छा बाह्य निमित्तसे बनती है; सो इन तीन प्रकारकी इच्छाओंके
अनुसार प्रवर्तनेकी इच्छा होती है। इन तीन प्रकारकी इच्छाओंमें एक-एक प्रकारकी इच्छाके
अनेक प्रकार हैं। वहाँ कितने ही प्रकारकी इच्छा पूर्ण होनेके कारण पुण्योदयसे मिलते हैं,
परन्तु उनका साधन एकसाथ नहीं हो सकता; इसलिये एकको छोड़कर अन्यमें लगता है,
फि र भी उसे छोड़कर अन्यमें लगता है। जैसे
किसीको अनेक प्रकारकी सामग्री मिली है।
वहाँ वह किसीको देखता है, उसे छोड़कर राग सुनता है, फि र उसे छोड़कर किसीका बुरा
करने लग जाता है, उसे छोड़कर भोजन करता है; अथवा देखनेमें ही एकको देखकर अन्यको
देखता है।
इसी प्रकार अनेक कार्योंकी प्रवृत्तिमें इच्छा होती है। सो इस इच्छाका नाम
पुण्यका उदय है।

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तीसरा अधिकार ][ ७१
इसे जगत सुख मानता है, परन्तु यह सुख है नहीं, दुःख ही है। क्योंकिप्रथम
तो सर्व प्रकारकी इच्छा पूर्ण होनेके कारण किसीके भी नहीं बनते और किसी प्रकार इच्छा
पूर्ण करनेके कारण बनें तो युगपत् उनका साधन नहीं होता। सो एकका साधन जब तक
न हो तब तक उसकी आकुलता रहती है; और उसका साधन होने पर उस ही समय अन्यके
साधनकी इच्छा होती है तब उसकी आकुलता होती है। एक समय भी निराकुल नहीं रहता,
इसलिये दुःख ही है। अथवा तीन प्रकारकी इच्छारूपी रोगको मिटानेका किंचित् उपाय करता
है, इसलिये किंचित् दुःख कम होता है, सर्व दुःखका तो नाश नहीं होता, इसलिये दुःख
ही है।
इस प्रकार संसारी जीवोंको सर्व प्रकारसे दुःख ही है।
तथा यहाँ इतना जानना कितीन प्रकारकी इच्छासे सर्व जगत पीड़ित है और चौथी
इच्छा तो पुण्यका उदय आने पर होती है, तथा पुण्यका बंध धर्मानुरागसे होता है; परन्तु
धर्मानुरागमें जीव कम लगता है, जीव तो बहुत पाप-क्रियाओंमें ही प्रवर्तता है। इसलिये
चौथी इच्छा किसी जीवके किसी कालमें ही होती है।
यहाँ इतना जानना किसमान इच्छावान जीवोंकी अपेक्षा तो चौथी इच्छावालेके किंचित्
तीन प्रकारकी इच्छाके घटनेसे सुख कहते हैं। तथा चौथी इच्छावालेकी अपेक्षा महान इच्छावाला
चौथी इच्छा होने पर भी दुःखी होता है। किसीके बहुत विभूति है और उसके इच्छा बहुत
है तो बहुत आकुलतावान है और जिसके थोड़ी विभूति है तथा उसके इच्छा भी थोड़ी है तो
वह थोड़ा आकुलतावान है। अथवा किसीको अनिष्ट सामग्री मिली है और उसे उसको दूर
करनेकी इच्छा थोड़ी है तो वह थोड़ा आकुलतावान है। तथा किसीको इष्ट सामग्री मिली है,
परन्तु उसे उसको भोगनेकी तथा अन्य सामग्रीकी इच्छा बहुत है तो वह जीव बहुत आकुलतावान
है। इसलिये सुखी-दुःखी होना इच्छाके अनुसार जानना, बाह्य कारणके आधीन नहीं है।
नारकी दुःखी और देव सुखी कहे जाते हैं वह भी इच्छाकी ही अपेक्षा कहते हैं,
क्योंकि नारकियोंको तीव्र कषायसे इच्छा बहुत है और देवोंके मन्दकषायसे इच्छा थोड़ी है।
तथा मनुष्य, तिर्यंचोंको भी सुखी-दुःखी, इच्छा ही की अपेक्षा जानना। तीव्र कषायसे जिसके
इच्छा बहुत है उसे दुःखी कहते हैं, मन्द कषायसे जिसके इच्छा थोड़ी है उसे सुखी कहते
हैं। परमार्थसे दुःख ही बहुत या थोड़ा है, सुख नहीं है। देवादिकोंको भी सुखी मानते
हैं वह भ्रम ही है। उनके चौथी इच्छाकी मुख्यता है, इसलिये आकुलित हैं।
इस प्रकार जो इच्छा होती है वह मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयमसे होती है। तथा इच्छा
है सो आकुलतामय है और आकुलता है वह दुःख है। इस प्रकार सर्व संसारी जीव नाना
दुःखोंसे पीड़ित ही हो रहे हैं।

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७२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
मोक्षसुख और उसकी प्राप्तिका उपाय
अब, जिन जीवोंको दुःखसे छूटना हो वे इच्छा दूर करनेका उपाय करो। तथा इच्छा
दूर तब ही होती है जब मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयमका अभाव हो और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी
प्राप्ति हो, इसलिये इसी कार्यका उद्यम करना योग्य है। ऐसा साधन करने पर जितनी-जितनी
इच्छा मिटे उतना-उतना दुःख दूर होता जाता है और जब मोहके सर्वथा अभावसे सर्व इच्छाका
अभाव हो तब सर्व दुःख मिटता है, सच्चा सुख प्रगट होता है। तथा ज्ञानावरण-दर्शनावरण
और अन्तरायका अभाव हो तब इच्छाके कारणभूत क्षायोपशमिक ज्ञान-दर्शनका तथा
शक्तिहीनपनेका भी अभाव होता है, अनन्त ज्ञान-दर्शन-वीर्यकी प्राप्ति होती है। तथा कितने
ही काल पश्चात् अघातिकर्मोंका भी अभाव हो तब इच्छाके बाह्य कारणोंका भी अभाव होता
है। क्योंकि मोह चले जानेके बाद किसी भी कालमें कोई इच्छा उत्पन्न करनेमें समर्थ नहीं
थे, मोहके होने पर कारण थे, इसलिये कारण कहे हैं; उनका भी अभाव हुआ तब जीव
सिद्धपदको प्राप्त होते हैं।
वहाँ दुःखका तथा दुःखके कारणोंका सर्वथा अभाव होनेसे सदाकाल अनुपम, अखंडित,
सर्वोत्कृष्ट आनन्द सहित अनन्तकाल विराजमान रहते हैं। वही बतलाते हैंः
ज्ञानावरण, दर्शनावरणका क्षयोपशम होने पर तथा उदय होने पर मोह द्वारा एक-
एक विषयको देखने-जाननेकी इच्छासे महा व्याकुल होता था; अब मोहका अभाव होनेसे
इच्छाका भी अभाव हुआ, इसलिये दुःखका अभाव हुआ है। तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरणका
क्षय होनेसे सर्व इन्द्रियोंको सर्व विषयोंका युगपत् ग्रहण हुआ, इसलिये दुःखका कारण भी
दूर हुआ है वही दिखाते हैं। जैसे
नेत्र द्वारा एक-एक विषयको देखना चाहता था, अब
त्रिकालवर्ती त्रिलोकके सर्व वर्णोंको युगपत् देखता है, कोई बिना देखा नहीं रहा जिसके देखने
की इच्छा उत्पन्न हो। इसी प्रकार स्पर्शनादि द्वारा एक-एक विषयका ग्रहण करना चाहता
था। अब त्रिकालवर्ती त्रिलोकके सर्व स्पर्श, रस, गन्ध तथा शब्दोंका युगपत् ग्रहण करता
है, कोई बिना ग्रहण किया नहीं रहा जिसका ग्रहण करनेकी इच्छा उत्पन्न हो।
यहाँ कोई कहे किशरीरादिक बिना ग्रहण कैसे होगा?
समाधानःइन्द्रियज्ञान होने पर तो द्रव्येन्द्रियों आदिके बिना ग्रहण नहीं होता था।
अब ऐसा स्वभाव प्रगट हुआ कि बिना इन्द्रियोंके ही ग्रहण होता है।
यहाँ कोई कहे किजैसे मन द्वारा स्पर्शादिकको जानते हैं उसी प्रकार जानना होता
होगा; त्वचा, जिह्वा आदिसे ग्रहण होता है वैसे नहीं होता होगा; सो ऐसा नहीं हैक्योंकि

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तीसरा अधिकार ][ ७३
मन द्वारा स्मरणादि होने पर अस्पष्ट जानना कुछ होता है। यहाँ तो जिस प्रकार त्वचा,
जिह्वा इत्यादिसे स्पर्श, रसादिकका
स्पर्श करने पर, स्वाद लेने पर सूँघनेदेखनेसुनने पर
जैसा स्पष्ट जानना होता है उससे भी अनन्तगुणा स्पष्ट जानना उनके होता है।
विशेष इतना हुआ है किवहाँ इन्द्रियविषयका संयोग होने पर ही जानना होता
था, यहाँ दूर रहकर भी वैसा ही जानना होता हैयह शक्तिकी महिमा है। तथा मन
द्वारा कुछ अतीत, अनागतको तथा अव्यक्तको जानना चाहता था; अब सर्व ही अनादिसे
अनन्तकाल पर्यन्त सर्व पदार्थोंके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंको युगपत् जानता है, कोई बिना
जाने नहीं रहा जिसको जाननेकी इच्छा उत्पन्न हो। इस प्रकार यह दुःख और दुःखोंके कारण
उनका अभाव जानना।
तथा मोहके उदयसे मिथ्यात्व और कषायभाव होते थे उनका सर्वथा अभाव हुआ
इसलिये दुःखका अभाव हुआ; तथा इनके कारणोंका अभाव हुआ, इसलिए दुःखके कारणोंका
भी अभाव हुआ है। उन कारणोंका अभाव यहाँ दिखाते हैंः
सर्व तत्त्व यथार्थ प्रतिभासित होने पर अतत्त्वश्रद्धानरूप मिथ्यात्व कैसे हो? कोई अनिष्ट
नहीं रहा, निंदक स्वयमेव अनिष्टको प्राप्त होता ही है; स्वयं क्रोध किस पर करें? सिद्धोंसे
ऊँचा कोई है नहीं, इन्द्रादिक स्वयमेव नमन करते हैं और इष्टको पाते हैं; किससे मान करें?
सर्व भवितव्य भासित हो गया, कार्य रहा नहीं, किसीसे प्रयोजन रहा नहीं है; किसका लोभ
करें? कोई अन्य इष्ट रहा नहीं; किस कारणसे हास्य हो? कोई अन्य इष्ट प्रीति करने योग्य
है नहीं; फि र कहाँ रति करें? कोई दुःखदायक संयोग रहा नहीं है; कहाँ अरति करें? कोई
इष्ट-अनिष्ट संयोग-वियोग होता नहीं है; किसका शोक करें? कोई अनिष्ट करनेवाला कारण
रहा नहीं है; किसका भय करें? सर्व वस्तुएँ अपने स्वभाव सहित भासित होती हैं, अपनेको
अनिष्ट नहीं हैं, कहाँ जुगुप्सा करें? कामपीड़ा दूर होनेसे स्त्री-पुरुष दोनेंसे रमण करनेका कुछ
प्रयोजन नहीं रहा; किसलिये पुरुष, स्त्री या नपुंसकवेदरूप भाव हो?
इस प्रकार मोह उत्पन्न
होनेके कारणोंका अभाव जानना।
तथा अन्तरायके उदयसे शक्ति हीनपनेके कारण पूर्ण नहीं होती थी, अब उसका अभाव
हुआ, इसलिये दुःखका अभाव हुआ। तथा अनन्तशक्ति प्रगट हुई, इसलिये दुःखके कारणका
भी अभाव हुआ।
यहाँ कोई कहे किदान, लाभ, भोग, उपभोग तो करते नहीं हैं; इनकी शक्ति
कैसे प्रगट हुई?

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७४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
समाधान :ये कार्य रोगके उपचार थे; रोग ही नहीं है, तब उपचार क्यों करें?
इसलिये इन कार्योंका सद्भाव तो है नहीं और इन्हें रोकनेवाले कर्मोंका अभाव हुआ, इसलिये
शक्ति प्रगट हुई कहते हैं। जैसे
कोई गमन करना चाहता था। उसे किसीने रोका था
तब दुःखी था और जब उसकी रोक दूर हुई तब जिस कार्यके अर्थ जाना चाहता था वह
कार्य नहीं रहा, इसलिये गमन भी नहीं किया। वहाँ उसके गमन न करने पर भी शक्ति
प्रगट हुई कही जाती है; उसी प्रकार यहाँ भी जानना। तथा उनके ज्ञानादिकी शक्तिरूप
अनन्तवीर्य प्रगट पाया जाता है।
तथा अघाति कर्मोंमें मोहसे पापप्रकृतियोंका उदय होने पर दुःख मान रहा था,
पुण्यप्रकृतियोंका उदय होने पर सुख मान रहा था, परमार्थसे आकुलताके कारण सब दुःख
ही था। अब, मोहके नाशसे सर्व आकुलता दूर होने पर सर्व दुःखका नाश हुआ। तथा
जिन कारणोंसे दुःख मान रहा था, वे कारण तो सर्व नष्ट हुए; और किन्हीं कारणोंसे किंचित्
दुःख दूर होनेसे सुख मान रहा था सो अब मूलहीमें दुःख नहीं रहा, इसलिये उन दुःखके
उपचारोंका कुछ प्रयोजन नहीं रहा कि उनसे कार्यकी सिद्धि करना चाहे। उसकी सिद्धि स्वयमेव
ही हो रही है।
इसीका विशेष बतलाते हैंःवेदनीयमें असाताके उदयसे दुःखके कारण शरीरमें रोग
क्षुधादिक होते थे; अब शरीर ही नहीं, तब कहाँ हो? तथा शरीरकी अनिष्ट अवस्थाको कारण
आताप आदि थे; परन्तु अब शरीर बिना किसको कारण हों? तथा बाह्य अनिष्ट निमित्त
बनते थे; परन्तु अब इनके अनिष्ट रहा ही नहीं। इस प्रकार दुःखके कारणोंका तो अभाव
हुआ।
तथा साताके उदयसे किंचित् दुःख मिटानेके कारण औषधि, भोजनादिक थे उसका
प्रयोजन नहीं रहा है और इष्टकार्य पराधीन नहीं रहे हैं; इसलिये बाह्यमें भी मित्रादिकको
इष्ट माननेका प्रयोजन नहीं रहा, इनके द्वारा दुःख मिटाना चाहता था और इष्ट करना चाहता
था; सो अब तो सम्पूर्ण दुःख नष्ट हुआ और सम्पूर्ण इष्ट प्राप्त हुआ।
तथा आयुके निमित्तसे जीवन-मरण था। वहाँ मरणसे दुःख मानता था; परन्तु अविनाशी
पद प्राप्त कर लिया, इसलिये दुःखका कारण नहीं रहा। तथा द्रव्यप्राणोंको धारण किये कितने
ही काल तक जीने-मरनेसे सुख मानता था, वहाँ भी नरक पर्यायमें दुःखकी विशेषतासे वहाँ
नहीं जीना चाहता था; परन्तु अब इस सिद्धपर्यायमें द्रव्यप्राणके बिना ही अपने चैतन्यप्राणसे
सदाकाल जीता है और वहाँ दुःखका लवलेश भी नहीं रहा।

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तीसरा अधिकार ][ ७५
तथा नामकर्मसे अशुभ गति, जाति होने पर दुःख मानता था, परन्तु अब उन सबका
अभाव हुआ; दुःख कहाँसे हो? तथा शुभगति, जाति आदि होने पर किंचित् दुःख दूर होनेसे
सुख मानता था; परन्तु अब उनके बिना ही सर्व दुःखका नाश और सर्व सुखका प्रकाश
पाया जाता है। इसलिये उनका भी कुछ प्रयोजन नहीं रहा।
तथा गोत्रके निमित्तसे नीच कुल प्राप्त होने पर दुःख मानता था, अब उसका अभाव
होनेसे दुःखका कारण नहीं रहा; तथा उच्च कुल प्राप्त होने पर सुख मानता था, परन्तु अब
उच्च कुलके बिना ही त्रैलोक्य पूज्य उच्च पदको प्राप्त है।
इस प्रकार सिद्धोंके सर्व कर्मोंका नाश होनेसे सर्व दुःखका नाश हो गया है।
दुःखका लक्षण तो आकुलता है और आकुलता तभी होती है जब इच्छा हो; परन्तु
इच्छाका तथा इच्छाके कारणोंका सर्वथा अभाव हुआ, इसलिये निराकुल होकर सर्व दुःखरहित
अनन्त सुखका अनुभव करता है; क्योंकि निराकुलता ही सुखका लक्षण है। संसारमें भी
किसी प्रकार निराकुल होकर सब ही सुख मानते हैं; जहाँ सर्वथा निराकुल हुआ वहाँ सुख
सम्पूर्ण कैसे नहीं माना जाये?
इस प्रकार सम्यग्दर्शनादि साधनसे सिद्धपद प्राप्त करने पर सर्व दुःखका अभाव होता
है, सर्व सुख प्रगट होता है।
अब यहाँ उपदेश देते हैं किहे भव्य! हे भाई!! तुझे जो संसारके दुःख बतलाए
सो वे तुझपर बीतते हैं या नहीं, वह विचार और तू जो उपाय करता है इन्हें झूठा बतलाया
सो ऐसे ही हैं या नहीं, वह विचार। तथा सिद्धपद प्राप्त होने पर सुख होता है या नहीं,
उसका भी विचार कर। जैसा कहा है वैसी ही प्रतीति तुझे आती हो तो तू संसारसे छूटकर
सिद्धपद प्राप्त करनेका हम जो उपाय कहते हैं वह कर, विलम्ब मत कर। यह उपाय करनेसे
तेरा कल्याण होगा।
इति श्री मोक्षमार्गप्रकाशक शास्त्रमें संसारदुःख तथा मोक्षसुखका निरूपक
तृतीय अधिकार पूर्ण हुआ ।।।।

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७६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
चौथा अधिकार
मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रका निरूपण
दोहाइस भवके सब दुःखनिके, कारण मिथ्याभाव
तिनिकी सत्ता नाश करि, प्रगटै मोक्ष उपाव ।।
अब यहाँ संसार दुःखोंके बीजभूत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र हैं उनके
स्वरूपका विशेष निरूपण करते हैं। जैसे वैद्य है सो रोगके कारणोंको विशेषरूपसे कहे तो
रोगी कुपथ्य सेवन न करे, तब रोग रहित हो। उसी प्रकार यहाँ संसारके कारणोंका विशेष
निरूपण करते हैं, जिससे संसारी मिथ्यात्वादिकका सेवन न करे, तब संसार रहित हो। इसलिये
मिथ्यादर्शनादिकका विशेष निरूपण करते हैंः
मिथ्यादर्शनका स्वरूप
यह जीव अनादिसे कर्म-सम्बन्ध सहित है। उसको दर्शनमोहके उदयसे हुआ जो
अतत्त्वश्रद्धान उसका नाम मिथ्यादर्शन है क्योंकि तद्भाव सो तत्त्व, अर्थात् जो श्रद्धान करने
योग्य अर्थ है उसका जो भाव
स्वरूप उसका नाम तत्त्व है। तत्त्व नहीं उसका नाम अतत्त्व
है इसलिये अतत्त्व है वह असत्य है; अतः इसीका नाम मिथ्या है। तथा ‘ऐसे ही यह
है’
ऐसा प्रतीतिभाव उसका नाम श्रद्धान है।
यहाँ श्रद्धानका ही नाम दर्शन है। यद्यपि दर्शनका शब्दार्थ सामान्य अवलोकन है
तथापि यहाँ प्रकरणवश इसी धातुका अर्थ श्रद्धान जानना।ऐसा ही सर्वार्थसिद्धि नामक
सूत्रकी टीकामें कहा है। क्योंकि सामान्य अवलोकन संसारमोक्षका कारण नहीं होता; श्रद्धान
ही संसारमोक्षका कारण है, इसलिये संसारमोक्षके कारणमें दर्शनका अर्थ श्रद्धान ही जानना।
तथा मिथ्यारूप जो दर्शन अर्थात् श्रद्धान, उसका नाम मिथ्यादर्शन है। जैसा वस्तुका
स्वरूप नहीं है वैसा मानना, जैसा है वैसा नहीं मानना, ऐसा विपरीताभिनिवेश अर्थात् विपरीत
अभिप्राय, उसको लिये हुए मिथ्यादर्शन होता है।

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चौथा अधिकार ][ ७७
यहाँ प्रश्न है किकेवलज्ञानके बिना सर्व पदार्थ यथार्थ भासित नहीं होते और यथार्थ
भासित हुए बिना यथार्थ श्रद्धान नहीं होता, तो फि र मिथ्यादर्शनका त्याग कैसे बने?
समाधानःपदार्थोंका जानना, न जानना, अन्यथा जानना तो ज्ञानावरणके अनुसार
है; तथा जो प्रतीति होती है सो जानने पर ही होती है, बिना जाने प्रतीति कैसे आये
यह तो सत्य है। परन्तु जैसे (कोई) पुरुष है वह जिनसे प्रयोजन नहीं है उन्हें अन्यथा
जाने या यथार्थ जाने, तथा जैसा जानता है वैसा ही माने तो उससे उसका कुछ भी बिगाड़-
सुधार नहीं है, उससे वह पागल या चतुर नाम नहीं पाता; तथा जिनसे प्रयोजन पाया जाता
है उन्हें यदि अन्यथा जाने और वैसा ही माने तो बिगाड़ होता है, इसलिए उसे पागल
कहते हैं; तथा उनको यदि यथार्थ जाने और वैसा ही माने तो सुधार होता है, इसलिये
उसे चतुर कहते हैं। उसी प्रकार जीव है वह जिनसे प्रयोजन नहीं है उन्हें अन्यथा जाने
या यथार्थ जाने, तथा जैसा जाने वैसा श्रद्धान करे, तो इसका कुछ भी बिगाड़-सुधार नहीं
है, उससे मिथ्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि नाम प्राप्त नहीं करता; तथा जिससे प्रयोजन पाया जाता
है उन्हें यदि अन्यथा जाने और वैसा ही श्रद्धान करे तो बिगाड़ होता है, इसलिये उसे
मिथ्यादृष्टि कहते हैं; तथा यदि उन्हें यथार्थ जाने और वैसा ही श्रद्धान करे तो सुधार होता
है, इसलिये उसे सम्यदृष्टि कहते हैं।
यहाँ इतना जानना किअप्रयोजनभूत अथवा प्रयोजनभूत पदार्थोंका न जानना या
यथार्थ-अयथार्थ जानना हो, उसमें ज्ञानकी हीनाधिकता होना इतना जीवका बिगाड़-सुधार है
और उसका निमित्त तो ज्ञानावरण कर्म है, परन्तु वहाँ प्रयोजनभूत पदार्थोंका अन्यथा या
यथार्थ श्रद्धान करनेसे जीवका कुछ और भी बिगाड़-सुधार होता है, इसलिये उसका निमित्त
दर्शनमोह नामक कर्म है।
यहाँ कोई कहे कि जैसा जाने वैसा श्रद्धान करे, इसलिये ज्ञानावरणके ही अनुसार
श्रद्धान भासित होता है, यहाँ दर्शनमोहका विशेष निमित्त कैसे भासित होता है?
समाधानःप्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वोंका श्रद्धान करने योग्य ज्ञानावरणका क्षयोपशम
तो सर्व संज्ञी पंचेन्द्रियोंके हुआ है, परन्तु द्रव्यलिंगी मुनि ग्यारह अङ्ग तक पढ़ते हैं तथा ग्रैवेयकके
देव अवधिज्ञानादियुक्त हैं, उनके ज्ञानावरणका क्षयोपशम बहुत होने पर भी प्रयोजनभूत
जीवादिकका श्रद्धान नहीं होता; और तिर्यंचादिकको ज्ञानावरणका क्षयोपशम थोड़ा होने पर भी
प्रयोजनभूत जीवादिकका श्रद्धान होता है। इसलिये जाना जाता है कि ज्ञानावरणके ही अनुसार
श्रद्धान नहीं होता; कोई अन्य कर्म है और वह दर्शनमोह है। उसके उदयसे जीवके मिथ्यादर्शन
होता है तब प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वोंका अन्यथा श्रद्धान करता है।

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७८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
प्रयोजनभूत-अप्रयोजनभूत पदार्थ
यहाँ कोई पूछे किप्रयोजनभूत और अप्रयोजनभूत पदार्थ कौन हैं?
समाधानःइस जीवको प्रयोजन तो एक यही है कि दुःख न हो और सुख हो।
किसी जीवके अन्य कुछ भी प्रयोजन नहीं है। तथा दुःखका न होना, सुखका होना एक
ही है; क्योंकि दुःखका अभाव वही सुख है और इस प्रयोजनकी सिद्धि जीवादिकका सत्य
श्रद्धान करनेसे होती है। कैसे?
सो कहते हैंःप्रथम तो दुःख दूर करनेमें आपापरका ज्ञान अवश्य होना चाहिये।
यदि आपापरका ज्ञान नहीं हो तो अपनेको पहिचाने बिना अपना दुःख कैसे दूर करे? अथवा
आपापरको एक जानकर अपना दुःख दूर करनेके अर्थ परका उपचार करे तो अपना दुःख
दूर कैसे हो? अथवा अपनेसे पर भिन्न हैं, परन्तु यह परमें अहंकार-ममकार करे तो उससे दुःख
ही होता है। आपापरका ज्ञान होने पर ही दुःख दूर होता है। तथा आपापरका ज्ञान जीव-
अजीवका ज्ञान होने पर ही होता है; क्योंकि आप स्वयं जीव है, शरीरादिक अजीव हैं।
यदि लक्षणादि द्वारा जीव-अजीवकी पहिचान हो तो अपनी और परकी भिन्नता भासित
हो; इसलिये जीव-अजीवको जानना। अथवा जीव-अजीवका ज्ञान होने पर, जिन पदार्थोंके
अन्यथा श्रद्धानसे दुःख होता था उनका यथार्थ ज्ञान होनेसे दुःख दूर होता है; इसलिये जीव-
अजीवको जानना।
तथा दुःखका कारण तो कर्म-बन्धन है और उसका कारण मिथ्यात्वादिक आस्रव हैं।
यदि इनको न पहिचाने, इनको दुःखका मूल कारण न जाने तो इनका अभाव कैसे करे?
और इनका अभाव नहीं करे तो कर्म बन्धन कैसे नहीं हो? इसलिये दुःख ही होता है।
अथवा मिथ्यात्वादिक भाव हैं सो दुःखमय हैं। यदि उन्हें ज्योंका त्यों नहीं जाने तो उनका
अभाव नहीं करे, तब दुःखी ही रहे; इसलिये आस्रवको जानना।
तथा समस्त दुःखका कारण कर्म-बन्धन है। यदि उसे न जाने तो उससे मुक्त होनेका
उपाय नहीं करे, तब उसके निमित्तसे दुःखी हो; इसलिये बन्धको जानना।
तथा आस्रवका अभाव करना सो संवर है। उसका स्वरूप न जाने तो उसमें प्रवर्तन नहीं
करे, तब आस्रव ही रहे, उससे वर्त्तमान तथा आगामी दुःख ही होता है; इसलिये संवरको जानना।
तथा कथंचित् किंचित् कर्मबन्धका अभाव करना उसका नाम निर्जरा है। यदि उसे
न जाने तो उसकी प्रवृत्तिका उद्यमी नहीं हो, तब सर्वथा बन्ध ही रहे, जिससे दुःख ही
होता है; इसलिये निर्जराको जानना।

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चौथा अधिकार ][ ७९
तथा सर्वथा सर्व कर्मबन्धका अभाव होना उसका नाम मोक्ष है। यदि उसे नहीं पहिचाने
तो उसका उपाय नहीं करे, तब संसारमें कर्मबन्धसे उत्पन्न दुःखोंको ही सहे; इसलिये मोक्षको
जानना। इस प्रकार जीवादि सात तत्त्व जानना।
तथा शास्त्रादि द्वारा कदाचित् उन्हें जाने, परन्तु ऐसे ही हैं ऐसी प्रतीति न आयी
तो जाननेसे क्या हो? इसलिये उनका श्रद्धान करना कार्यकारी है। ऐसे जीवादि तत्त्वोंका
सत्य श्रद्धान करने पर ही दुःख होनेका अभावरूप प्रयोजनकी सिद्धि होती है। इसलिये
जीवादिक पदार्थ हैं वे ही प्रयोजनभूत जानना।
तथा इनके भेद पुण्य-पापादिरूप हैं उनका भी श्रद्धान प्रयोजनभूत है, क्योंकि सामान्यसे
विशेष बलवान है। इस प्रकार ये पदार्थ तो प्रयोजनभूत हैं, इसलिये इनका यथार्थ श्रद्धान
करने पर तो दुःख नहीं होता, सुख होता है; और इनका यथार्थ श्रद्धान किए बिना दुःख
होता है, सुख नहीं होता।
तथा इनके अतिरिक्त अन्य पदार्थ हैं वे अप्रयोजनभूत हैं, क्योंकि उनका यथार्थ श्रद्धान
करो या मत करो उनका श्रद्धान कुछ सुख-दुःखका कारण नहीं है।
यहाँ प्रश्न उठता है किपहले जीव-अजीव पदार्थ कहे उनमें तो सभी पदार्थ आ
गये; उनके सिवा अन्य पदार्थ कौन रहे जिन्हें अप्रयोजनभूत कहा है।
समाधानःपदार्थ तो सब जीव-अजीवमें गर्भित हैं, परन्तु उन जीव-अजीवोंके विशेष
बहुत हैं। उनमेंसे जिन विशेषों सहित जीव-अजीवका यथार्थ श्रद्धान करनेसे स्व-परका श्रद्धान
हो, रागादिक दूर करनेका श्रद्धान हो, उनसे सुख उत्पन्न हो; तथा अयथार्थ श्रद्धान करनेसे
स्व-परका श्रद्धान नहीं हो, रागादिक दूर करनेका श्रद्धान नहीं हो, इसलिये दुःख उत्पन्न हो;
उन विशेषों सहित जीव-अजीव पदार्थों तो प्रयोजनभूत जानना।
तथा जिन विशेषों सहित जीव-अजीवका यथार्थ श्रद्धान करने या न करनेसे स्व-परका
श्रद्धान हो या न हो, तथा रागादिक दूर करनेका श्रद्धान हो या न होकोई नियम नहीं
है; उन विशेषों सहित जीव-अजीव पदार्थ अप्रयोजनभूत जानना।
जैसेजीव और शरीरका चैतन्य, मूर्त्तत्वादि विशेषोंसे श्रद्धान करना तो प्रयोजनभूत
है; और मनुष्यादि पर्यायोंका तथा घट-पटादिका अवस्था, आकारादि विशेषोंसे श्रद्धान करना
अप्रयोजनभूत है। इसी प्रकार अन्य जानना।
इस प्रकार कहे गये जो प्रयोजनभूत जीवादिक तत्त्व उनके अयथार्थ श्रद्धानका नाम
मिथ्यादर्शन जानना।

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८० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
मिथ्यादर्शनकी प्रवृत्ति
अब, संसारी जीवोंके मिथ्यादर्शनकी प्रवृत्ति कैसे पायी जाती है सो कहते हैं। यहाँ
वर्णन तो श्रद्धानका करना है; परन्तु जानेगा तो श्रद्धान करेगा, इसलिये जाननेकी मुख्यतासे
वर्णन करते हैं।
जीव-अजीवतत्त्व सम्बन्धी अयथार्थ श्रद्धान
अनादिकालसे जीव है वह कर्मके निमित्तसे अनेक पर्यायें धारण करता है। वहाँ पूर्व
पर्यायको छोड़ता है, नवीन पर्याय धारण करता है। तथा वह पर्याय एक तो स्वयं आत्मा
और अनन्त पुद्गलपरमाणुमय शरीर उनसे एकपिण्ड बन्धानरूप है। तथा जीवको उस
पर्यायमें
‘यह मैं हूँ’ऐसी अहंबुद्धि होती है। तथा स्वयं जीव है, उसका स्वभाव तो
ज्ञानादिक है और विभाव क्रोधादिक हैं और पुद्गलपरमाणुओंके वर्ण, गंध, रस, स्पर्शादि स्वभाव
हैं
उन सबको अपना स्वरूप मानता है।
‘ये मेरे हैं’इस प्रकार उनमें ममत्वबुद्धि होती है। तथा स्वयं जीव है, उसके
ज्ञानादिककी तथा क्रोधादिककी अधिकता-हीनतारूप अवस्था होती है और पुद्गलपरमाणुओंकी
वर्णादि पलटनेरूप अवस्था होती है उन सबको अपनी अवस्था मानता है। ‘यह मेरी अवस्था
है’
ऐसी ममत्वबुद्धि करता है।
तथा जीव और शरीरके नैमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है, इसलिये जो क्रिया होती है उसे
अपनी मानता है। अपना दर्शन-ज्ञान स्वभाव है, उसकी प्रवृत्तिको निमित्तमात्र शरीरके अंगरूप
स्पर्शनादि द्रव्यइन्द्रियाँ हैं; यह उन्हें एक मानकर ऐसा मानता है कि
हाथ आदिसे मैंने स्पर्श
किया, जीभसे स्वाद लिया, नासिकासे सूँघा, नेत्रसे देखा, कानोंसे सुना। मनोवर्गणारूप आठ
पंखुड़ियोंके फू ले कमलके आकारका हृदयस्थानमें द्रव्यमन है, वह दृष्टिगम्य नहीं ऐसा है, सो
शरीरका अंग है; उसके निमित्त होने पर स्मरणादिरूप ज्ञानकी प्रवृत्ति होती है। यह द्रव्यमनको
और ज्ञानको एक मानकर ऐसा मानता है कि मैंने मनसे जाना।
तथा अपनेको बोलनेकी इच्छा होती है तब अपने प्रदेशोंको जिस प्रकार बोलना बने
उस प्रकार हिलाता है, तब एकक्षेत्रावगाह सम्बन्धके कारण शरीरके अंग भी हिलते हैं।
उनके निमित्तसे भाषावर्गणारूप पुद्गल वचनरूप परिणमित होते हैं; यह सबको एक मानकर
ऐसा मानता है कि मैं बोलता हूँ।
तथा अपनेको गमनादि क्रियाकी या वस्तु ग्रहणादिककी इच्छा होती है तब अपने
प्रदेशोंको जैसे कार्य बने वैसे हिलाता है। वहाँ एकक्षेत्रावगाहके कारण शरीरके अंग हिलते
हैं तब वह कार्य बनता है; अथवा अपनी इच्छाके बिना शरीर हिलता है तब अपने प्रदेश

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चौथा अधिकार ][ ८१
भी हिलते हैं; यह सबको एक मानकर ऐसा मानता है कि मैं गमनादि कार्य करता हूँ, मैं
वस्तुका ग्रहण करता हूँ अथवा मैंने किया है
इत्यादिरूप मानता है।
तथा जीवके कषायभाव हों तब शरीरकी चेष्टा उनके अनुसार हो जाती है। जैसे
क्रोधादिक होने पर लाल नेत्रादि हो जाते हैं, हास्यादि होने पर मुखादि प्रफु ल्लित हो जाते
हैं, पुरुषवेदादि होने पर लिंगकाठिन्यादि हो जाते हैं, यह सब एक मानकर ऐसा मानता है
कि यह कार्य सब मैं करता हूँ। तथा शरीरमें शीत, उष्ण, क्षुधा, तृषा, रोग इत्यादि अवस्थाएँ
होती हैं; उनके निमित्तसे मोहभाव द्वारा स्वयं सुख-दुःख मानता है; इन सबको एक जानकर
शीतादिक तथा सुख-दुःख अपनेको ही हुए मानता है।
तथा शरीरके परमाणुओंका मिलना-बिछुड़ना आदि होनेसे अथवा उनकी अवस्था
पलटनेसे या शरीर स्कन्धके खण्ड आदि होनेसे स्थूल - कृशादिक, बाल - वृद्धादिक अथवा
अंगहीनादिक होते हैं और उसके अनुसार अपने प्रदेशोंका संकोच-विस्तार होता है; यह सबको
एक मानकर मैं स्थूल हूँ, मैं कृश हूँ, मैं बालक हूँ, मैं वृद्ध हूँ, मेरे इन अंगोंका भंग हुआ
है
इत्यादिरूप मानता है।
तथा शरीरकी अपेक्षा गति, कुलादिक होते हैं उन्हें अपना मानकर मैं मनुष्य हूँ, मैं
तिर्यंच हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ, मैं वैश्य हूँइत्यादिरूप मानता है। तथा शरीरका संयोग होने
और छूटनेकी अपेक्षा जन्म-मरण होता है; उसे अपना जन्म-मरण मानकर मैं उत्पन्न हुआ,
मैं मरूँगा
ऐसा मानता है।
तथा शरीरकी ही अपेक्षा अन्य वस्तुओंसे नाता मानता है। जिनके द्वारा शरीरकी उत्पत्ति
हुई उन्हें अपने माता-पिता मानता है; जो शरीरको रमण कराये उसे अपनी रमणी मानता है;
जो शरीरसे उत्पन्न हुआ उसे अपना पुत्र मानता है; जो शरीरको उपकारी हो उसे मित्र मानता
है; जो शरीरका बुरा करे उसे शत्रु मानता है
इत्यादिरूप मान्यता होती है।
अधिक क्या कहें? जिस-तिस प्रकारसे अपनेको और शरीरको एक ही मानता है।
इन्द्रियादिकके नाम तो यहाँ कहे हैं, परन्तु इसे तो कुछ गम्य नहीं हैं। अचेत हुआ
पर्यायमें अहंबुद्धि धारण करता है। उसका कारण क्या है? वह बतलाते हैंः
इस आत्माको अनादिसे इन्द्रियज्ञान है; उससे स्वयं अमूर्तिक है वह तो भासित नहीं
होता, परन्तु शरीर मूर्त्तिक है वही भासित होता है और आत्मा किसीको आपरूप जानकर
अहंबुद्धि धारण करे ही करे, सो जब स्वयं पृथक् भासित नहीं हुआ तब उनके समुदायरूप
पर्यायमें ही अहंबुद्धि धारण करता है।
तथा अपनेको और शरीरको निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध बहुत हैं, इसलिये भिन्नता भासित

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८२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
नहीं होती और जिस विचार द्वारा भिन्नता भासित होती है वह मिथ्यादर्शनके जोरसे हो नहीं
सकता, इसलिये पर्यायमें ही अहंबुद्धि पायी जाती है।
तथा मिथ्यादर्शनसे यह जीव कदाचित् बाह्य सामग्रीका संयोग होने पर उसे भी अपनी
मानता है। पुत्र, स्त्री, धन, धान्य, हाथी, घोड़े, महल, किंकर आदि प्रत्यक्ष अपनेसे भिन्न और
सदाकाल अपने आधीन नहीं ऐसे स्वयंको भासित होते हैं; तथापि उनमें ममकार करता है।
पुत्रादिकमें ‘ये हैं सो मैं ही हूँ’ ऐसी भी कदाचित् भ्रमबुद्धि होती है। तथा मिथ्यादर्शनसे
शरीरादिकका स्वरूप अन्यथा ही भासित होता है। अनित्यको नित्य मानता है, भिन्नको अभिन्न
मानता है, दुःखके कारणको सुखका कारण मानता है, दुःखको सुख मानता है
इत्यादि विपरीत
भासित होता है।
इस प्रकार जीव-अजीव तत्त्वोंका अयथार्थ ज्ञान होने पर अयथार्थ श्रद्धान होता है।
आस्रवतत्त्व सम्बन्धी अयथार्थ श्रद्धान
तथा इस जीवको मोहके उदयसे मिथ्यात्व-कषायादिभाव होते हैं, उनको अपना स्वभाव
मानता है, कर्मोपाधिसे हुए नहीं जानता। दर्शन-ज्ञान उपयोग और आस्रवभाव उनको एक
मानता है; क्योंकि इनका आधारभूत तो एक आत्मा है और इनका परिणमन एक ही कालमें
होता है, इसलिये इसे भिन्नपना भासित नहीं होता और भिन्नपना भासित होनेका कारण जो
विचार है सो मिथ्यादर्शनके बलसे हो नहीं सकता।
तथा ये मिथ्यात्वकषायभाव आकुलता सहित हैं, इसलिये वर्त्तमान दुःखमय हैं और
कर्मबन्धके कारण हैं, इसलिये आगामी कालमें दुःख करेंगेऐसा उन्हें नहीं मानता और भला
जान इन भावोंरूप होकर स्वयं प्रवर्तता है। तथा वह दुःखी तो अपने इन मिथ्यात्व
कषायभावोंसे होता है और वृथा ही औरोंको दुःख उत्पन्न करनेवाले मानता है। जैसे
दुःखी तो मिथ्याश्रद्धानसे होता है, परन्तु अपने श्रद्धानके अनुसार जो पदार्थ न प्रवर्ते उसे
दुःखदायक मानता है। तथा दुःखी तो क्रोधसे होता है, परन्तु जिससे क्रोध किया हो उसको
दुःखदायक मानता है। दुःखी तो लोभसे होता है, परन्तु इष्ट वस्तुकी अप्राप्तिको दुःखदायक
मानता है।
इसी प्रकार अन्यत्र जानना।
तथा इन भावोंका जैसा फल आता है वैसा भासित नहीं होता। इनकी तीव्रतासे
नरकादि होते हैं तथा मन्दतासे स्वर्गादि होते हैं, वहाँ अधिक-कम आकुलता होती है। ऐसा
भासित नहीं होता है, इसलिये वे बुरे नहीं लगते। कारण यह है कि
वे अपने किये
भासित होते हैं, इसलिये उनको बुरे कैसे माने?
इस प्रकार आस्रवतत्त्वका अयथार्थ ज्ञान होने पर अयथार्थ श्रद्धान होता है।