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सागर होते हैं। इसलिए इस संसारीके मुख्यतः एकेन्द्रिय पर्यायमें ही काल व्यतीत होता है।
अचक्षुदर्शन
जिससे महा दुःखी हैं। तथा दर्शनमोहके उदयसे मिथ्यादर्शन होता है उससे पर्यायका ही
अपनेरूप श्रद्धान करते हैं, अन्य विचार करनेकी शक्ति ही नहीं है।
होने पर ही होती हैं। वहाँ कषाय तो बहुत है और शक्ति सर्व प्रकारसे महा हीन है,
इसलिए बहुत दुःखी हो रहे हैं, कुछ उपाय नहीं कर सकते।
होने पर भी बहुत कषाय होती दिखाई देती है, उसी प्रकार एकेन्द्रियके ज्ञान थोड़ा होने
पर भी बहुत कषाय होना माना गया है।
जैसे कोई पुरुष शक्तिहीन है, उसको किसी कारणसे तीव्र कषाय हो, परन्तु कुछ कर नहीं
सकता, इसलिये उसकी कषाय बाह्यमें प्रगट नहीं होती, वह अति दुःखी होता है; उसी प्रकार
एकेन्द्रिय जीव शक्तिहीन हैं; उनको किसी कारणसे कषाय होती है, परन्तु कुछ कर नहीं
सकते, इसलिये उनकी कषाय बाह्यमें प्रगट नहीं होती, वे स्वयं ही दुःखी होते हैं।
होता है। परन्तु एकेन्द्रियोंके कषाय बहुत और शक्ति हीन, इसलिये एकेन्द्रिय जीव महा
दुःखी हैं। उनके दुःख वे ही भोगते हैं और केवली जानते हैं। जैसे
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कारण अपना दुःख प्रगट भी नहीं कर सकता, परन्तु महा दुःखी है।
सूख जाती है, जल न मिलनेसे सूख जाती है, अग्निसे जल जाती है; उसको कोई छेदता
है, भेदता है, मसलता है, खाता है, तोड़ता है
हैं।
ही, उसके द्वारा उन्हें जानकर मोहके वशसे महा व्याकुल होते हैं; परन्तु भागनेकी, लड़नेकी
या पुकारनेकी शक्ति नहीं है, इसलिये अज्ञानी लोग उनके दुःखको नहीं जानते। तथा कदाचित्
किंचित् साताका उदय होता है, परन्तु वह बलवान नहीं होता।
है। वहाँ आयु थोड़ा होनेसे जन्म-मरण होते ही रहते हैं उससे दुःखी हैं।
वशसे दुःखी होते हैं।
जीव एकेन्द्रिय पर्यायमें बहुत काल रहता है, अन्य पर्यायोंमें तो कदाचित् किंचित्मात्र काल
रहता है; इसलिये यह जीव संसारमें महा दुःखी है।
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जो अपर्याप्त हैं तथा पर्याप्त भी हीनशक्तिके धारक हैं; छोटे जीव हैं, उनकी शक्ति प्रगट
नहीं होती। तथा कितने ही पर्याप्त बहुत शक्तिके धारक बड़े जीव हैं उनकी शक्ति प्रगट
होती है; इसलिये वे जीव विषयोंका उपाय करते हैं, दुःख दूर होनेका उपाय करते हैं।
क्रोधादिकसे काटना, मारना, लड़ना, छल करना, अन्नादिका संग्रह करना, भागना इत्यादि कार्य
करते हैं; दुःखसे तड़फ ड़ाना, पुकारना इत्यादि क्रिया करते हैं; इसलिये उनका दुःख कुछ प्रगट
भी होता है। इस प्रकार लट, कीड़ी आदि जीवोंको शीत, उष्ण, छेदन, भेदनादिकसे तथा
भूख-प्यास आदिसे परम दुःखी देखते हैं। जो प्रत्यक्ष दिखाई देता है उसका विचार कर
लेना। यहाँ विशेष क्या लिखें?
भी नहीं मिलती, इसलिए उस शक्तिके होनेसे भी बहुत दुःखी हैं। उनके क्रोधादि कषायकी
अति तीव्रता पायी जाती है; क्योंकि उनके कृष्णादि अशुभ लेश्या ही हैं।
परन्तु क्रोध
उनके द्वारा दूसरोंको स्वयं पीड़ा देते हैं और स्वयंको कोई और पीड़ा देता है। कभी कषाय
उपशान्त नहीं होती। तथा उनमें माया
महा-दुःखी हैं। तथा कदाचित् किंचित् कोई प्रयोजन पाकर उनका भी कार्य होता है।
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रहे हैं, इसलिये वे कषायें तीव्र प्रगट होती हैं। तथा वेदोंमें नपुंसकवेद है, सो इच्छा तो
बहुत और स्त्री-पुरुषोंसे रमण करनेका निमित्त नहीं है, इसलिये महा पीड़ित हैं।
तथा वेदनीयमें असाता ही का उदय है उससे वहाँ अनेक वेदनाओंके निमित्त हैं, शरीरमें
भक्षण-पान करना चाहते हैं, और वहाँकी मिट्टीका ही भोजन मिलता है, वह मिट्टी भी ऐसी
है कि यदि यहाँ आ जाये तो उसकी दुर्गन्धसे कई कोसोंके मनुष्य मर जायें। और वहाँ शीत,
उष्णता ऐसी है कि यदि लाख योजनका लोहेका गोला हो तो वह भी उनसे भस्म हो जाये।
कहीं शीत है कहीं उष्णता है। तथा पृथ्वी वहाँ शस्त्रोंसे भी महातीक्ष्ण कंटकों सहित है।
उस पृथ्वीमें जो वन हैं वे शस्त्रकी धार समान पत्रादि सहित हैं। नदी ऐसे जल युक्त है कि
जिसका स्पर्श होने पर शरीर खण्ड-खण्ड हो जाये। पवन ऐसा प्रचण्ड है कि उससे शरीर
दग्ध हो जाता है। तथा नारकी एक-दूसरेको अनेक प्रकारसे पीड़ा देते हैं, घानीमें पेलते हैं,
खण्ड-खण्ड कर डालते हैं, हंडियोंमें राँधते हैं, कोड़े मारते हैं, तप्त लोहादिकका स्पर्श कराते
हैं
भाँति खण्ड-खण्ड हो जाने पर भी मिल जाता है।
जघन्य आयु दस हजार वर्ष तथा उत्कृष्ट आयु तेतीस सागर है। इतने काल तक वहाँ ऐसे
दुःख सहने पड़ते हैं। वहाँ नामकर्मकी सर्व पापप्रकृतियोंका ही उदय है, एक भी पुण्यप्रकृतिका
उदय नहीं है; उनसे महा दुःखी हैं। तथा गोत्रमें नीच गोत्रका ही उदय है उससे महन्तता
नहीं होती, इसलिये दुःखी ही हैं।
नहीं होती। उनके दुःख एकेन्द्रियवत् जानना; ज्ञानादिकका विशेष है सो विशेष जानना।
तथा बड़े पर्याप्त जीव कितने ही सम्मूर्च्छन हैं, कितने ही गर्भज हैं। उनमें ज्ञानादिक प्रगट
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है नहीं; किसीको कदाचित् किंचित् होती है।
कदाचित् मंदकषाय होती है, परन्तु थोड़े जीवोंके होती है, इसलिये मुख्यता नहीं है।
देखे जाते हैं, इसलिए बहुत नहीं कहा है। किसीके कदाचित् किंचित् साताका भी उदय
होता है, परन्तु थोड़े ही जीवोंको है, मुख्यतया नहीं है। तथा आयु अन्तर्मुहूर्तसे लेकर कोटि
वर्ष पर्यन्त है। वहाँ बहुत जीव अल्प आयुके धारक होते हैं, इसलिये जन्म-मरणका दुःख
पाते हैं। तथा भोगभूमियोंकी बड़ी आयु है और उनके साताका भी उदय है, परन्तु वे
जीव थोड़े हैं। तथा मुख्यतः तो नामकर्मकी तिर्यंचगति आदि पापप्रकृतियोंका ही उदय है।
किसीको कदाचित् किन्हीं पुण्यप्रकृतियोंका भी उदय होता है, परन्तु थोड़े जीवोंको थोड़ा होता
है, मुख्यता नहीं है। तथा गोत्रमें नीच गोत्रका ही उदय है, इसलिये हीन हो रहे हैं।
कालमें मरण पाते हैं, उनकी तो शक्ति प्रगट भासित नहीं होती; उनके दुःख एकेन्द्रियवत्
जानना। विशेष है सो विशेष जानना।
है। अथवा तिर्यंचोंका वर्णन किया है उस प्रकार जानना।
कुटुम्बादिकका निमित्त विशेष पाया जाता है
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उत्पन्न होता है। बादमें वहाँ क्रमशः ज्ञानादिककी तथा शरीरकी वृद्धि होती है। गर्भका दुःख
बहुत है। संकुचित रूपसे औंधे मुँह क्षुधा-तृषादि सहित वहाँ काल पूर्ण करता है। जब
बाहर निकलता है तब बाल्यावस्थामें महा दुःख होता है। कोई कहते हैं कि बाल्यावस्थामें
दुःख थोड़ा है; सो ऐसा नहीं है, किन्तु शक्ति थोड़ी होनेसे व्यक्त नहीं हो सकता। बादमें
व्यापारादिक तथा विषय-इच्छा आदि दुःखोंकी प्रगटता होती है। इष्ट-अनिष्ट जनित आकुलता
बनी ही रहती है। पश्चात् जब वृद्ध हो तब शक्तिहीन हो जाता है और तब परम दुःखी
होता है। ये दुःख प्रत्यक्ष होते देखे जाते हैं।
प्राप्त किये बिना होते नहीं हैं।
पोरें कानी होनेसे वे भी नहीं चूसी जातीं; कोई स्वादका लोभी उन्हें बिगाड़े तो बिगाड़ो;
परन्तु यदि उन्हें बो दे तो उनसे बहुतसे गन्ने हों, और उनका स्वाद बहुत मीठा आये।
उसी प्रकार मनुष्य-पर्यायका बालक-वृद्धपना तो सुखयोग्य नहीं है, और बीचकी अवस्था रोग-
क्लेशादिसे युक्त है, वहाँ सुख हो नहीं सकता; कोई विषयसुखका लोभी उसे बिगाड़े तो बिगाड़ो;
परन्तु यदि उसे धर्म साधनमें लगाये तो बहुत उच्चपदको पाये, वहाँ सुख बहुत निराकुल
पाया जाता है। इसलिये यहाँ अपना हित साधना, सुख होनेके भ्रमसे वृथा नहीं खोना।
कषाय बहुत मंद नहीं हैं और उनका उपयोग चंचल बहुत है तथा कुछ शक्ति भी है सो
कषायोंके कार्योंमें प्रवर्तते हैं; कौतूहल, विषयादि कार्योंमें लग रहे हैं और उस आकुलतासे
दुःखी ही हैं। तथा वैमानिकोंके ऊपर-ऊपर विशेष मन्दकषाय है और शक्ति विशेष है, इसलिये
आकुलता घटनेसे दुःख भी घटता है।
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देवोंके तो कौतूहलादिसे होते हैं, परन्तु उत्कृष्ट देवोंके थोड़े होते हैं, मुख्यता नहीं है; तथा
माया
कम हैं।
है। तथा स्त्रीवेद, पुरुषवेदका उदय है और रमण करनेका भी निमित्त है सो काम-सेवन
करते हैं। ये भी कषाय ऊपर-ऊपर मन्द हैं। अहमिन्द्रोंके वेदोंकी मन्दताके कारण काम-
सेवनका अभाव है।
तथा इनके कषायें जितनी थोड़ी हैं उतना दुःख भी थोड़ा है, इसलिये औरोंकी अपेक्षा
तथा कदाचित् किंचित् असाताका भी उदय किसी कारणसे होता है। वह निकृष्ट देवोंके कुछ
प्रगट भी है, परन्तु उत्कृष्ट देवोंके विशेष प्रगट नहीं है। तथा आयु बड़ी है। जघन्य आयु
दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट इकतीस सागर है। इससे अधिक आयुका धारी मोक्षमार्ग प्राप्त
किए बिना नहीं होता। सो इतने काल तक विषय-सुखमें मग्न रहते हैं। तथा नामकर्मकी
देवगति आदि सर्व पुण्यप्रकृतियोंका ही उदय है, इसलिये सुखका कारण है। और गोत्रमें
उच्च गोत्रका ही उदय है, इसलिये महन्त पदको प्राप्त हैं।
है, इसलिये सुखी नहीं होते। उच्च देवोंको उत्कृष्ट पुण्य-उदय है, कषाय बहुत मंद है; तथापि
उनके भी इच्छाका अभाव नहीं होता, इसलिये परमार्थसे दुःखी ही हैं।
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पीड़ा नहीं है, परन्तु जब तक देखता-जानता नहीं है तब तक महा व्याकुल होता है। इस
इच्छा का नाम विषय है।
नाम कषाय है।
महा व्याकुल रहता है। इस इच्छाका नाम पापका उदय है।
तथा (४) एक इच्छा बाह्य निमित्तसे बनती है; सो इन तीन प्रकारकी इच्छाओंके
अनेक प्रकार हैं। वहाँ कितने ही प्रकारकी इच्छा पूर्ण होनेके कारण पुण्योदयसे मिलते हैं,
परन्तु उनका साधन एकसाथ नहीं हो सकता; इसलिये एकको छोड़कर अन्यमें लगता है,
फि र भी उसे छोड़कर अन्यमें लगता है। जैसे
करने लग जाता है, उसे छोड़कर भोजन करता है; अथवा देखनेमें ही एकको देखकर अन्यको
देखता है।
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पूर्ण करनेके कारण बनें तो युगपत् उनका साधन नहीं होता। सो एकका साधन जब तक
न हो तब तक उसकी आकुलता रहती है; और उसका साधन होने पर उस ही समय अन्यके
साधनकी इच्छा होती है तब उसकी आकुलता होती है। एक समय भी निराकुल नहीं रहता,
इसलिये दुःख ही है। अथवा तीन प्रकारकी इच्छारूपी रोगको मिटानेका किंचित् उपाय करता
है, इसलिये किंचित् दुःख कम होता है, सर्व दुःखका तो नाश नहीं होता, इसलिये दुःख
ही है।
धर्मानुरागमें जीव कम लगता है, जीव तो बहुत पाप-क्रियाओंमें ही प्रवर्तता है। इसलिये
चौथी इच्छा किसी जीवके किसी कालमें ही होती है।
चौथी इच्छा होने पर भी दुःखी होता है। किसीके बहुत विभूति है और उसके इच्छा बहुत
है तो बहुत आकुलतावान है और जिसके थोड़ी विभूति है तथा उसके इच्छा भी थोड़ी है तो
वह थोड़ा आकुलतावान है। अथवा किसीको अनिष्ट सामग्री मिली है और उसे उसको दूर
करनेकी इच्छा थोड़ी है तो वह थोड़ा आकुलतावान है। तथा किसीको इष्ट सामग्री मिली है,
परन्तु उसे उसको भोगनेकी तथा अन्य सामग्रीकी इच्छा बहुत है तो वह जीव बहुत आकुलतावान
है। इसलिये सुखी-दुःखी होना इच्छाके अनुसार जानना, बाह्य कारणके आधीन नहीं है।
तथा मनुष्य, तिर्यंचोंको भी सुखी-दुःखी, इच्छा ही की अपेक्षा जानना। तीव्र कषायसे जिसके
इच्छा बहुत है उसे दुःखी कहते हैं, मन्द कषायसे जिसके इच्छा थोड़ी है उसे सुखी कहते
हैं। परमार्थसे दुःख ही बहुत या थोड़ा है, सुख नहीं है। देवादिकोंको भी सुखी मानते
हैं वह भ्रम ही है। उनके चौथी इच्छाकी मुख्यता है, इसलिये आकुलित हैं।
दुःखोंसे पीड़ित ही हो रहे हैं।
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प्राप्ति हो, इसलिये इसी कार्यका उद्यम करना योग्य है। ऐसा साधन करने पर जितनी-जितनी
इच्छा मिटे उतना-उतना दुःख दूर होता जाता है और जब मोहके सर्वथा अभावसे सर्व इच्छाका
अभाव हो तब सर्व दुःख मिटता है, सच्चा सुख प्रगट होता है। तथा ज्ञानावरण-दर्शनावरण
और अन्तरायका अभाव हो तब इच्छाके कारणभूत क्षायोपशमिक ज्ञान-दर्शनका तथा
शक्तिहीनपनेका भी अभाव होता है, अनन्त ज्ञान-दर्शन-वीर्यकी प्राप्ति होती है। तथा कितने
ही काल पश्चात् अघातिकर्मोंका भी अभाव हो तब इच्छाके बाह्य कारणोंका भी अभाव होता
है। क्योंकि मोह चले जानेके बाद किसी भी कालमें कोई इच्छा उत्पन्न करनेमें समर्थ नहीं
थे, मोहके होने पर कारण थे, इसलिये कारण कहे हैं; उनका भी अभाव हुआ तब जीव
सिद्धपदको प्राप्त होते हैं।
इच्छाका भी अभाव हुआ, इसलिये दुःखका अभाव हुआ है। तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरणका
क्षय होनेसे सर्व इन्द्रियोंको सर्व विषयोंका युगपत् ग्रहण हुआ, इसलिये दुःखका कारण भी
दूर हुआ है वही दिखाते हैं। जैसे
की इच्छा उत्पन्न हो। इसी प्रकार स्पर्शनादि द्वारा एक-एक विषयका ग्रहण करना चाहता
था। अब त्रिकालवर्ती त्रिलोकके सर्व स्पर्श, रस, गन्ध तथा शब्दोंका युगपत् ग्रहण करता
है, कोई बिना ग्रहण किया नहीं रहा जिसका ग्रहण करनेकी इच्छा उत्पन्न हो।
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जिह्वा इत्यादिसे स्पर्श, रसादिकका
अनन्तकाल पर्यन्त सर्व पदार्थोंके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंको युगपत् जानता है, कोई बिना
जाने नहीं रहा जिसको जाननेकी इच्छा उत्पन्न हो। इस प्रकार यह दुःख और दुःखोंके कारण
उनका अभाव जानना।
भी अभाव हुआ है। उन कारणोंका अभाव यहाँ दिखाते हैंः
ऊँचा कोई है नहीं, इन्द्रादिक स्वयमेव नमन करते हैं और इष्टको पाते हैं; किससे मान करें?
सर्व भवितव्य भासित हो गया, कार्य रहा नहीं, किसीसे प्रयोजन रहा नहीं है; किसका लोभ
करें? कोई अन्य इष्ट रहा नहीं; किस कारणसे हास्य हो? कोई अन्य इष्ट प्रीति करने योग्य
है नहीं; फि र कहाँ रति करें? कोई दुःखदायक संयोग रहा नहीं है; कहाँ अरति करें? कोई
इष्ट-अनिष्ट संयोग-वियोग होता नहीं है; किसका शोक करें? कोई अनिष्ट करनेवाला कारण
रहा नहीं है; किसका भय करें? सर्व वस्तुएँ अपने स्वभाव सहित भासित होती हैं, अपनेको
अनिष्ट नहीं हैं, कहाँ जुगुप्सा करें? कामपीड़ा दूर होनेसे स्त्री-पुरुष दोनेंसे रमण करनेका कुछ
प्रयोजन नहीं रहा; किसलिये पुरुष, स्त्री या नपुंसकवेदरूप भाव हो?
भी अभाव हुआ।
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शक्ति प्रगट हुई कहते हैं। जैसे
कार्य नहीं रहा, इसलिये गमन भी नहीं किया। वहाँ उसके गमन न करने पर भी शक्ति
प्रगट हुई कही जाती है; उसी प्रकार यहाँ भी जानना। तथा उनके ज्ञानादिकी शक्तिरूप
अनन्तवीर्य प्रगट पाया जाता है।
ही था। अब, मोहके नाशसे सर्व आकुलता दूर होने पर सर्व दुःखका नाश हुआ। तथा
जिन कारणोंसे दुःख मान रहा था, वे कारण तो सर्व नष्ट हुए; और किन्हीं कारणोंसे किंचित्
दुःख दूर होनेसे सुख मान रहा था सो अब मूलहीमें दुःख नहीं रहा, इसलिये उन दुःखके
उपचारोंका कुछ प्रयोजन नहीं रहा कि उनसे कार्यकी सिद्धि करना चाहे। उसकी सिद्धि स्वयमेव
ही हो रही है।
आताप आदि थे; परन्तु अब शरीर बिना किसको कारण हों? तथा बाह्य अनिष्ट निमित्त
बनते थे; परन्तु अब इनके अनिष्ट रहा ही नहीं। इस प्रकार दुःखके कारणोंका तो अभाव
हुआ।
इष्ट माननेका प्रयोजन नहीं रहा, इनके द्वारा दुःख मिटाना चाहता था और इष्ट करना चाहता
था; सो अब तो सम्पूर्ण दुःख नष्ट हुआ और सम्पूर्ण इष्ट प्राप्त हुआ।
ही काल तक जीने-मरनेसे सुख मानता था, वहाँ भी नरक पर्यायमें दुःखकी विशेषतासे वहाँ
नहीं जीना चाहता था; परन्तु अब इस सिद्धपर्यायमें द्रव्यप्राणके बिना ही अपने चैतन्यप्राणसे
सदाकाल जीता है और वहाँ दुःखका लवलेश भी नहीं रहा।
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सुख मानता था; परन्तु अब उनके बिना ही सर्व दुःखका नाश और सर्व सुखका प्रकाश
पाया जाता है। इसलिये उनका भी कुछ प्रयोजन नहीं रहा।
उच्च कुलके बिना ही त्रैलोक्य पूज्य उच्च पदको प्राप्त है।
दुःखका लक्षण तो आकुलता है और आकुलता तभी होती है जब इच्छा हो; परन्तु
अनन्त सुखका अनुभव करता है; क्योंकि निराकुलता ही सुखका लक्षण है। संसारमें भी
किसी प्रकार निराकुल होकर सब ही सुख मानते हैं; जहाँ सर्वथा निराकुल हुआ वहाँ सुख
सम्पूर्ण कैसे नहीं माना जाये?
सो ऐसे ही हैं या नहीं, वह विचार। तथा सिद्धपद प्राप्त होने पर सुख होता है या नहीं,
उसका भी विचार कर। जैसा कहा है वैसी ही प्रतीति तुझे आती हो तो तू संसारसे छूटकर
सिद्धपद प्राप्त करनेका हम जो उपाय कहते हैं वह कर, विलम्ब मत कर। यह उपाय करनेसे
तेरा कल्याण होगा।
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रोगी कुपथ्य सेवन न करे, तब रोग रहित हो। उसी प्रकार यहाँ संसारके कारणोंका विशेष
निरूपण करते हैं, जिससे संसारी मिथ्यात्वादिकका सेवन न करे, तब संसार रहित हो। इसलिये
मिथ्यादर्शनादिकका विशेष निरूपण करते हैंः
योग्य अर्थ है उसका जो भाव
है’
अभिप्राय, उसको लिये हुए मिथ्यादर्शन होता है।
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जाने या यथार्थ जाने, तथा जैसा जानता है वैसा ही माने तो उससे उसका कुछ भी बिगाड़-
सुधार नहीं है, उससे वह पागल या चतुर नाम नहीं पाता; तथा जिनसे प्रयोजन पाया जाता
है उन्हें यदि अन्यथा जाने और वैसा ही माने तो बिगाड़ होता है, इसलिए उसे पागल
कहते हैं; तथा उनको यदि यथार्थ जाने और वैसा ही माने तो सुधार होता है, इसलिये
उसे चतुर कहते हैं। उसी प्रकार जीव है वह जिनसे प्रयोजन नहीं है उन्हें अन्यथा जाने
या यथार्थ जाने, तथा जैसा जाने वैसा श्रद्धान करे, तो इसका कुछ भी बिगाड़-सुधार नहीं
है, उससे मिथ्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि नाम प्राप्त नहीं करता; तथा जिससे प्रयोजन पाया जाता
है उन्हें यदि अन्यथा जाने और वैसा ही श्रद्धान करे तो बिगाड़ होता है, इसलिये उसे
मिथ्यादृष्टि कहते हैं; तथा यदि उन्हें यथार्थ जाने और वैसा ही श्रद्धान करे तो सुधार होता
है, इसलिये उसे सम्यदृष्टि कहते हैं।
और उसका निमित्त तो ज्ञानावरण कर्म है, परन्तु वहाँ प्रयोजनभूत पदार्थोंका अन्यथा या
यथार्थ श्रद्धान करनेसे जीवका कुछ और भी बिगाड़-सुधार होता है, इसलिये उसका निमित्त
दर्शनमोह नामक कर्म है।
देव अवधिज्ञानादियुक्त हैं, उनके ज्ञानावरणका क्षयोपशम बहुत होने पर भी प्रयोजनभूत
जीवादिकका श्रद्धान नहीं होता; और तिर्यंचादिकको ज्ञानावरणका क्षयोपशम थोड़ा होने पर भी
प्रयोजनभूत जीवादिकका श्रद्धान होता है। इसलिये जाना जाता है कि ज्ञानावरणके ही अनुसार
श्रद्धान नहीं होता; कोई अन्य कर्म है और वह दर्शनमोह है। उसके उदयसे जीवके मिथ्यादर्शन
होता है तब प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वोंका अन्यथा श्रद्धान करता है।
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ही है; क्योंकि दुःखका अभाव वही सुख है और इस प्रयोजनकी सिद्धि जीवादिकका सत्य
श्रद्धान करनेसे होती है। कैसे?
आपापरको एक जानकर अपना दुःख दूर करनेके अर्थ परका उपचार करे तो अपना दुःख
दूर कैसे हो? अथवा अपनेसे पर भिन्न हैं, परन्तु यह परमें अहंकार-ममकार करे तो उससे दुःख
ही होता है। आपापरका ज्ञान होने पर ही दुःख दूर होता है। तथा आपापरका ज्ञान जीव-
अजीवका ज्ञान होने पर ही होता है; क्योंकि आप स्वयं जीव है, शरीरादिक अजीव हैं।
अन्यथा श्रद्धानसे दुःख होता था उनका यथार्थ ज्ञान होनेसे दुःख दूर होता है; इसलिये जीव-
अजीवको जानना।
और इनका अभाव नहीं करे तो कर्म बन्धन कैसे नहीं हो? इसलिये दुःख ही होता है।
अथवा मिथ्यात्वादिक भाव हैं सो दुःखमय हैं। यदि उन्हें ज्योंका त्यों नहीं जाने तो उनका
अभाव नहीं करे, तब दुःखी ही रहे; इसलिये आस्रवको जानना।
होता है; इसलिये निर्जराको जानना।
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जानना। इस प्रकार जीवादि सात तत्त्व जानना।
सत्य श्रद्धान करने पर ही दुःख होनेका अभावरूप प्रयोजनकी सिद्धि होती है। इसलिये
जीवादिक पदार्थ हैं वे ही प्रयोजनभूत जानना।
करने पर तो दुःख नहीं होता, सुख होता है; और इनका यथार्थ श्रद्धान किए बिना दुःख
होता है, सुख नहीं होता।
हो, रागादिक दूर करनेका श्रद्धान हो, उनसे सुख उत्पन्न हो; तथा अयथार्थ श्रद्धान करनेसे
स्व-परका श्रद्धान नहीं हो, रागादिक दूर करनेका श्रद्धान नहीं हो, इसलिये दुःख उत्पन्न हो;
उन विशेषों सहित जीव-अजीव पदार्थों तो प्रयोजनभूत जानना।
अप्रयोजनभूत है। इसी प्रकार अन्य जानना।
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वर्णन करते हैं।
और अनन्त पुद्गलपरमाणुमय शरीर उनसे एकपिण्ड बन्धानरूप है। तथा जीवको उस
पर्यायमें
हैं
वर्णादि पलटनेरूप अवस्था होती है उन सबको अपनी अवस्था मानता है। ‘यह मेरी अवस्था
है’
स्पर्शनादि द्रव्यइन्द्रियाँ हैं; यह उन्हें एक मानकर ऐसा मानता है कि
पंखुड़ियोंके फू ले कमलके आकारका हृदयस्थानमें द्रव्यमन है, वह दृष्टिगम्य नहीं ऐसा है, सो
शरीरका अंग है; उसके निमित्त होने पर स्मरणादिरूप ज्ञानकी प्रवृत्ति होती है। यह द्रव्यमनको
और ज्ञानको एक मानकर ऐसा मानता है कि मैंने मनसे जाना।
उनके निमित्तसे भाषावर्गणारूप पुद्गल वचनरूप परिणमित होते हैं; यह सबको एक मानकर
ऐसा मानता है कि मैं बोलता हूँ।
हैं तब वह कार्य बनता है; अथवा अपनी इच्छाके बिना शरीर हिलता है तब अपने प्रदेश
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वस्तुका ग्रहण करता हूँ अथवा मैंने किया है
हैं, पुरुषवेदादि होने पर लिंगकाठिन्यादि हो जाते हैं, यह सब एक मानकर ऐसा मानता है
कि यह कार्य सब मैं करता हूँ। तथा शरीरमें शीत, उष्ण, क्षुधा, तृषा, रोग इत्यादि अवस्थाएँ
होती हैं; उनके निमित्तसे मोहभाव द्वारा स्वयं सुख-दुःख मानता है; इन सबको एक जानकर
शीतादिक तथा सुख-दुःख अपनेको ही हुए मानता है।
एक मानकर मैं स्थूल हूँ, मैं कृश हूँ, मैं बालक हूँ, मैं वृद्ध हूँ, मेरे इन अंगोंका भंग हुआ
है
मैं मरूँगा
जो शरीरसे उत्पन्न हुआ उसे अपना पुत्र मानता है; जो शरीरको उपकारी हो उसे मित्र मानता
है; जो शरीरका बुरा करे उसे शत्रु मानता है
इन्द्रियादिकके नाम तो यहाँ कहे हैं, परन्तु इसे तो कुछ गम्य नहीं हैं। अचेत हुआ
अहंबुद्धि धारण करे ही करे, सो जब स्वयं पृथक् भासित नहीं हुआ तब उनके समुदायरूप
पर्यायमें ही अहंबुद्धि धारण करता है।
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सकता, इसलिये पर्यायमें ही अहंबुद्धि पायी जाती है।
सदाकाल अपने आधीन नहीं ऐसे स्वयंको भासित होते हैं; तथापि उनमें ममकार करता है।
मानता है, दुःखके कारणको सुखका कारण मानता है, दुःखको सुख मानता है
मानता है; क्योंकि इनका आधारभूत तो एक आत्मा है और इनका परिणमन एक ही कालमें
होता है, इसलिये इसे भिन्नपना भासित नहीं होता और भिन्नपना भासित होनेका कारण जो
विचार है सो मिथ्यादर्शनके बलसे हो नहीं सकता।
दुःखदायक मानता है। तथा दुःखी तो क्रोधसे होता है, परन्तु जिससे क्रोध किया हो उसको
दुःखदायक मानता है। दुःखी तो लोभसे होता है, परन्तु इष्ट वस्तुकी अप्राप्तिको दुःखदायक
मानता है।
भासित नहीं होता है, इसलिये वे बुरे नहीं लगते। कारण यह है कि