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कारण मिलना, शरीरसंयोग रहना, गति-जाति-शरीरादिका उत्पन्न होना, नीच-उच्च कुलका पाना
होता है। इनके होनेमें मूलकारण कर्म है, उसे यह पहिचानता नहीं है, क्योंकि वह सूक्ष्म
है, इसे दिखाई नहीं देता; तथा वह इसको इन कार्योंका कर्त्ता दिखाई नहीं देता; इसलिये
इनके होनेमें या तो अपनेको कर्त्ता मानता है या किसी औरको कर्ता मानता है। तथा अपना
या अन्यका कर्त्तापना भासित न हो तो मूढ़ होकर भवितव्यको मानता है।
संवरसे आगामी कालमें दुःख नहीं होगा वह भासित नहीं होता। इसलिये आस्रवका तो संवर
करता नहीं है और उन अन्य पदार्थोंको दुःखदायक मानता है, उन्हींके न होनेका उपाय
किया करता है; परन्तु वे अपने आधीन नहीं हैं। वृथा ही खेदखिन्न होता है।
दुःख होना न जाने तो उनकी निर्जराके उपायको कैसे भला जाने?
दुःखदायक जानकर उनका ही अभाव करनेका उपाय करता है, परन्तु वे अपने आधीन नहीं
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भी कर्मके अनुसार बनता है। इसलिये उनका उपाय करके वृथा ही खेद करता है।
उसी प्रकार इसके कर्मबन्धन है; यह उस बन्धनको तथा बन्धजनित दुःखको न जाने तो
सर्वथा बन्धके अभावको कैसे भला जाने?
तो जानता है कि
इस प्रकार यह जीव मिथ्यादर्शनके कारण जीवादि सात तत्त्वोंका जो कि प्रयोजनभूत
किंचित् कार्य बने, उसको भला जानता है और पापसे इच्छानुसार कार्य नहीं बने, उसको
बुरा जानता है; परन्तु दोनों ही आकुलताके कारण हैं इसलिये बुरे ही हैं।
इस प्रकार अतत्त्वश्रद्धानरूप मिथ्यादर्शनका स्वरूप कहा। यह असत्यरूप है, इसलिये
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वहाँ ‘ऐसे है कि ऐसे है?’
होता और सम्यग्दृष्टि रस्सीको साँप जाने तो मिथ्याज्ञान नाम नहीं होता।
ज्ञान संसार
है उसके मूलकारणको नहीं पहिचानता, अन्यथा कारण मानता है; वह तो कारणविपर्यय है।
तथा जिसे जानता है उसके मूलवस्तुत्वरूप स्वरूपको नहीं पहिचानता, अन्यथास्वरूप मानता
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मिथ्यादृष्टिके जाननेमें विपरीतता पायी जाती है।
भी जाने तो भी उसके निश्चयरूप निर्धारसे श्रद्धानसहित जानना नहीं होता, इसलिये उसको
यथार्थ ज्ञान नहीं कहा जाता; उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि किसी कालमें किसी पदार्थको सत्य भी
जाने, तो भी उसके निश्चयरूप निर्धारसे श्रद्धानसहित जानना नहीं होता; अथवा सत्य भी
जाने, परन्तु उनसे अपना प्रयोजन अयथार्थ ही साधता है; इसलिये उसके सम्यग्ज्ञान नहीं
कहा जाता।
यहाँ प्रश्न है कि
किसीको सम्यग्ज्ञान कहें तो यह दोनों ही भाव मिथ्यादृष्टि तथा सम्यग्दृष्टिके पाये जाते हैं,
इसलिये उन दोनोंके मिथ्याज्ञान तथा सम्यग्ज्ञानका सद्भाव हो जायेगा और वह सिद्धान्तसे
विरुद्ध होता है, इसलिये ज्ञानावरणका निमित्त नहीं बनता।
रस्सीको जाना वहाँ यथार्थ जाननेकी शक्तिका कारण क्षयोपशम है इसलिये यथार्थ जानता है।
उसी प्रकार जीवादि तत्त्वोंको यथार्थ जाननेकी शक्ति होने या न होनेमें तो ज्ञानावरणका ही
निमित्त है; परन्तु जैसे किसी पुरुषको क्षयोपशमसे दुःखके तथा सुखके कारणभूत पदार्थोंको यथार्थ
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उन्हींका वेदन करता है, सुखके कारणभूत पदार्थोंका वेदन नहीं करता। यदि सुखके कारणभूत
पदार्थोंका वेदन करे तो सुखी हो जाये, असाताका उदय होनेसे हो नहीं सकता। इसलिये यहाँ
दुःखके कारणभूत और सुखके कारणभूत पदार्थोंके वेदनमें ज्ञानावरणका निमित्त नहीं है, असाता-
साताका उदय ही कारणभूत है। उसी प्रकार जीवमें प्रयोजनभूत जीवादिक तत्त्व तथा
अप्रयोजनभूत अन्यको यथार्थ जाननेकी शक्ति होती है। वहाँ जिसके मिथ्यात्वका उदय होता
है वह तो अप्रयोजनभूत हों उन्हींका वेदन करता है, जानता है; प्रयोजनभूतको नहीं जानता।
यदि प्रयोजनभूतको जाने तो सम्यग्दर्शन हो जाये, परन्तु वह मिथ्यात्वका उदय होने पर हो
नहीं सकता; इसलिये यहाँ प्रयोजनभूत और अप्रयोजनभूत पदार्थोंको जाननेमें ज्ञानावरणका निमित्त
नहीं है; मिथ्यात्वका उदय-अनुदय ही कारणभूत है।
निमित्त है। तथा जहाँ संज्ञी मनुष्यादिकमें क्षयोपशमादि लब्धि होनेसे शक्ति हो और न जाने,
वहाँ मिथ्यात्वके उदयका ही निमित्त जानना।
नाम पाता है और सम्यग्दृष्टिके सम्यग्ज्ञान नाम पाता है। इसी प्रकार सर्व मिथ्याज्ञान और
सम्यग्ज्ञानको मिथ्यादर्शन और सम्यग्दर्शन कारण जानना।
है उसे बादमें कहना।
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प्रकाश कार्य है। उसी प्रकार ज्ञान
मिलती है। इसलिये ज्ञानमें कुछ दोष नहीं है। परन्तु क्षयोपशम ज्ञान जहाँ लगता है वहाँ
एक ज्ञेयमें लगता है; और इस मिथ्यादर्शनके निमित्तसे वह ज्ञान अन्य ज्ञेयोमें तो लगता है,
परन्तु प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वोंका यथार्थ निर्णय करनेमें नहीं लगता। सो यह ज्ञानमें दोष
हुआ; इसे मिथ्याज्ञान कहा। तथा जीवादि तत्त्वोंका यथार्थ श्रद्धान नहीं होता सो यह श्रद्धानमें
दोष हुआ; इसे मिथ्यादर्शन कहा। ऐसे लक्षणभेदसे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञानको भिन्न कहा।
प्रवृत्ति करना चाहता है सो बनती नहीं है; इसलिये इसका नाम मिथ्याचारित्र है।
है, इसलिये रागी-द्वेषी होकर किसीका सद्भाव चाहता है, किसीका अभाव चाहता है, परन्तु
उनका सद्भाव या अभाव इसका किया हुआ होता नहीं, क्योंकि कोई द्रव्य किसी द्रव्यका
कर्त्ता-हर्त्ता है नहीं, सर्व द्रव्य अपने-अपने स्वभावरूप परिणमित होते हैं; यह वृथा ही
कषायभावसे आकुलित होता है।
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वह नहीं चलती तब क्यों नहीं चलाता? उसी प्रकार पदार्थ परिणमित होते हैं और यह जीव
उनका अनुसरण करके ऐसा मानता है कि इनको मैं ऐसा परिणमित कर रहा हूँ, परन्तु वह
असत्य मानता है; यदि उसके परिणमानेसे परिणमित होते हैं तो वे वैसे परिणमित नहीं होते
तब क्यों नहीं परिणमाता? सो जैसा स्वयं चाहता है वैसा पदार्थका परिणमन कदाचित् ऐसे
ही बन जाय तब होता है। बहुत परिणमन तो जिन्हें स्वयं नहीं चाहता वैसे ही होते देखे
जाते हैं, इसलिए यह निश्चय है कि अपने करनेसे किसीका सद्भाव या अभाव होता नहीं।
परिणामोंमें उन्हें सुखदायक
है। जैसे
किसीको मेघवर्षा इष्ट लगती है, किसीको अनिष्ट लगती है।
होता देखा जाता है
हैं। जैसे
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ऐसा है नहीं। यह जीव कल्पना द्वारा उन्हें इष्ट-अनिष्ट मानता है सो यह कल्पना झूठी है।
पदार्थोंका संयोग सुखदायक
है; किसीके शत्रु भी दास होजाते हैं, किसीके पुत्र भी अहितकारी होता है। इसलिये जाना
जाता है कि पदार्थ अपने आप इष्ट-अनिष्ट नहीं होते, परन्तु कर्मोदयके अनुसार प्रवर्तते हैं।
जैसे किसीके नौकर अपने स्वामीके कहे अनुसार किसी पुरुषको इष्ट-अनिष्ट उत्पन्न करें तो
वह कुछ नौकरोंका कर्त्तव्य नहीं है, उनके स्वामीका कर्त्तव्य है। कोई नौकरोंको ही इष्ट-
अनिष्ट माने तो झूठ है। उसी प्रकार कर्मके उदयसे प्राप्त हुए पदार्थ कर्मके अनुसार जीवको
इष्ट-अनिष्ट उत्पन्न करें तो वह कोई पदार्थोंका कर्त्तव्य नहीं है, कर्मका कर्त्तव्य है। यदि
पदार्थोंको ही इष्ट-अनिष्ट माने तो झूठ है।
जीव अपने रागादिक भावोंसे पुद्गलको कर्मरूप परिणमित करके अपना बुरा करे तो कर्मका
क्या दोष है? इसलिये कर्मसे भी राग-द्वेष करना मिथ्या है।
नहीं और यह इष्ट-अनिष्ट मानकर राग-द्वेष करता है, इसलिये इस परिणमनको मिथ्या कहा
है। मिथ्यारूप जो परिणमन, उसका नाम मिथ्याचारित्र है।
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है; अपनेको न सुहाये ऐसी अनिष्ट अवस्था होती है उसमें द्वेष करता है। तथा शरीरकी
इष्ट अवस्थाके कारणभूत बाह्य पदार्थोंमें तो राग करता है और उसके घातकोंमें द्वेष करता
है। तथा शरीरकी अनिष्ट अवस्थाके कारणभूत बाह्य पदार्थोंमें तो द्वेष करता है और उनके
घातकोंमें राग करता है। तथा इनमें जिन बाह्य पदार्थों से राग करता है उनके कारणभूत
अन्य पदार्थोंमें राग करता है और उनके घातकोंमें द्वेष करता है। तथा जिन बाह्य पदार्थोंसे
द्वेष करता है उनके कारणभूत अन्य पदार्थोंमें द्वेष करता है और उनके घातकोंमें राग करता
है। तथा इनमें भी जिनसे राग करता है उनके कारण व घातक अन्य पदार्थोंमें राग-द्वेष
करता है। तथा जिनसे द्वेष है उनके कारण व घातक अन्य पदार्थोंमें द्वेष व राग करता
है। इसी प्रकार राग-द्वेषकी परम्परा प्रवर्तती है।
हैं। तथा कितने ही वर्ण, गंध, शब्दादिके अवलोकनादिकसे शरीरको इष्ट नहीं होता तथापि
उनमें राग करता है। कितने ही वर्णादिकके अवलोकनादिकसे शरीरको अनिष्ट नहीं होता
तथापि उनमें द्वोष करता है।
द्वेष व राग करता है। इसी प्रकार यहाँ भी राग-द्वेषकी परम्परा प्रवर्तती है।
इष्ट-अनिष्ट माननेका प्रयोजन क्या है?
करता है और उन्हींके अर्थ अन्यसे राग-द्वेष करता है, इसलिये सर्व राग-द्वेष परिणतिका
नाम मिथ्याचारित्र कहा है।
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रागके कारण होते हैं तथा किसीको किसी कालमें द्वेषके कारण होते हैं।
नहीं है। महा मुनियोंको मोह मन्द होनेसे बाह्य पदार्थोंका निमित्त होने पर भी राग-द्वेष उत्पन्न
नहीं होते। पापी जीवोंको मोह तीव्र होनेसे बाह्य कारण न होने पर भी उनके संकल्पहीसे
राग-द्वेष होते हैं। इसलिये मोहका उदय होनेसे रागादिक होते हैं। वहाँ जिस बाह्य पदार्थके
आश्रयसे रागभाव होना हो, उसमें बिना ही प्रयोजन अथवा कुछ प्रयोजनसहित इष्टबुद्धि होती
है। तथा जिस पदार्थके आश्रयसे द्वेषभाव होना हो उसमें बिना ही प्रयोजन अथवा कुछ
प्रयोजनसहित अनिष्टबुद्धि होती है। इसलिये मोहके उदयसे पदार्थोंको इष्ट-अनिष्ट माने बिना
रहा नहीं जाता।
भेद जानना। इनका वर्णन पहले किया ही है
इसीका नाम असंयम कहा जाता है या अविरति कहा जाता है। क्योंकि पाँच इन्द्रियाँ और
मनके विषयोंमें तथा पंचस्थावर और त्रसकी हिंसामें स्वच्छन्दपना हो तथा उनके त्यागरूप भाव
नहीं हो, वही बारह प्रकारका असंयम या अविरति है। कषायभाव होने पर ऐसे कार्य होते
हैं, इसलिये मिथ्याचारित्रका नाम असंयम या अविरति जानना। तथा इसीका नाम अव्रत
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मिथ्याचारित्रका नाम अव्रत भी कहा जाता है।
संज्ञी पंचेन्द्रियोंमें सम्यग्दृष्टिको छोड़कर अन्य सर्व जीवोंके ऐसा ही परिणमन पाया जाता है।
परिणमनमें जैसा जहाँ संभव हो वैसा वहाँ जानना। जैसे
निमित्तसे मिथ्यादर्शनादिकका वर्णन किया है। उसमें जैसा विशेष संभव हो वैसा जानना।
है उसरूप परिणमित होता है। तथा मनुष्यादिक कितने ही नाम भी जानते हैं और उनके
भावरूप परिणमन करते हैं
स्वयमेव ऐसा ही परिणमन होता है। तथा मनुष्यादिकको सत्यविचार होनेके कारण मिलने
पर भी सम्यक्परिणमन नहीं होता; और श्रीगुरुके उपदेशका निमित्त बने, वे बारम्बार समझायें,
परन्तु यह कुछ विचार नहीं करता। तथा स्वयंको भी प्रत्यक्ष भासित हो वह तो नहीं मानता
और अन्यथा ही मानता है। किस प्रकार? सो कहते हैंः
परन्तु इसको शरीरसे भिन्नबुद्धि नहीं हो सकती। स्त्री-पुत्रादिक अपने स्वार्थके सगे प्रत्यक्ष
देखे जाते हैं; उनका प्रयोजन सिद्ध न हो तभी विपरीत होते दिखाई देते हैं; यह उनमें
ममत्व करता है और उनके अर्थ नरकादिकमें गमनके कारणभूत नानाप्रकारके पाप उत्पन्न करता
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तथा शरीरकी अवस्था और बाह्य सामग्री स्वयमेव उत्पन्न होती तथा विनष्ट होती दिखाई देती
है, यह वृथा स्वयं कर्त्ता होता है। वहाँ जो कार्य अपने मनोरथके अनुसार होता है उसे
तो कहता है
कहता है कि
बना रहे
पर भी इस लोककी सामग्रीका ही पालन रहता है।
है
मोहका माहात्म्य है।
यही भाव दुःखोंके बीज हैं अन्य कोई नहीं।
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ताको होत अभाव है, सहजरूप दरसाव
शक्तिको पाता है। वहाँ यदि विशेष मिथ्याश्रद्धानादिकके कारणोंसे उन मिथ्याश्रद्धानादिकका
पोषण करे तो उस जीवका दुःखसे मुक्त होना अति दुर्लभ होता है।
ज्ञानादि शक्तिको पाकर विशेष विपरीत श्रद्धानादिकके कारणोंका सेवन करे तो इस जीवका
मुक्त होना कठिन ही होगा।
हैं।
होते हैं, उन्हें गृहीत मिथ्यात्वादि जानना। वहाँ अगृहीत मिथ्यात्वादिका वर्णन तो पहले किया
है वह जानना और अब गृहीत मिथ्यात्वादिका निरूपण करते हैं सो जानना।
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मिथ्याज्ञान है। तथा जिस आचरणमें कषायोंका सेवन हो और उसे धर्मरूप अंगीकार करें
सो मिथ्याचारित्र है।
गनगौर, होली इत्यादि; तथा सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, औत, पितृ, व्यन्तर इत्यादि; तथा गाय, सर्प
इत्यादि; तथा अग्नि, जल, वृक्ष इत्यादि; तथा शस्त्र, दवात, बर्तन इत्यादि अनेक हैं; उनका
अन्यथा श्रद्धान करके उनको पूजते हैं और उनसे अपना कार्य सिद्ध करना चाहते हैं, परन्तु
वे कार्यसिद्धिके कारण नहीं हैं। इसलिये ऐसे श्रद्धानको गृहितमिथ्यात्व कहते हैं।
देखे जाते हैं, उन्हें एक कैसे माना जाये? इनका मानना तो इन प्रकारोंसे हैः
उनसे भिन्न कोई सेना वस्तु नहीं है। सो इस प्रकारसे सर्व पदार्थ जिनका नाम ब्रह्म है वह
ब्रह्म कोई भिन्न वस्तु तो सिद्ध नहीं हुई, कल्पना मात्र ही ठहरी।
ब्रह्मैवेदममृतं पुरस्ताद ब्रह्मदक्षिणतपश्चोत्तरेण।
अघश्चोर्ध्वं च प्रसृतं ब्रह्मैवेदं विश्वमिदं वरिष्ठम् ।। मुण्डको० खं० ३ मं० ११
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माना जाय तो ब्रह्म कोई भिन्न तो सिद्ध हुआ नहीं।
कहते हैं; तथा जैसे पृथ्वीके परमाणुओंका मिलाप होने पर घट आदि कहते हैं; परन्तु यहाँ
समुद्रादि व घटादिक हैं, वे उन परमाणुओंसे भिन्न कोई अलग वस्तु तो नहीं है। सो इस
प्रकारसे सर्व पदार्थ न्यारे-न्यारे हैं, परन्तु कदाचित् मिलकर एक हो जाते हैं वह ब्रह्म है
सो इस प्रकारसे यह सर्व पदार्थ तो अंग हैं और जिसके यह हैं वह अंगी ब्रह्म है। यह
सर्व लोक विराट स्वरूप ब्रह्मका अंग है
हैं। सो लोकमें तो पदार्थोंके परस्पर अन्तराल भासित होता है; फि र उसका एकत्वपना कैसे
माना जाय? अन्तराल होने पर भी एकत्व मानें तो भिन्नपना कहाँ माना जायेगा?
साथ जिन सूक्ष्म अंगोंसे वह जुड़ता है वे गमन करेंगे। तथा उनके गमन करनेसे वे सूक्ष्म
अंग अन्य स्थूल अंगोंसे जुड़े रहते हैं वे भी गमन करेंगे
एक पदार्थके गमनादि करनेसे सर्व पदार्थोंके गमनादि होंगे सो भासित नहीं होता। तथा यदि
द्वितीय पक्ष ग्रहण करेगा तो अंग टूटनेसे भिन्नपना हो ही जाता है, तब एकत्वपना कैसे
रहा? इसलिये सर्व-लोकके एकत्वको ब्रह्म मानना कैसे सम्भव हो सकता है?
तब एक हो जाता है। तथा जैसे
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और फि र एक होगा, इसलिये एक ही है।
नहीं रहा। तथा जल, सुवर्णादिकको भिन्न होने पर भी एक कहते हैं वह तो एक जाति
अपेक्षासे कहते हैं, परन्तु यहाँ सर्व पदार्थोंकी एक जाति भासित नहीं होती। कोई चेतन
है, कोई अचेतन है, इत्यादि अनेक रूप हैं; उनकी एक जाति कैसे कहें? तथा पहले एक
था, फि र भिन्न हुआ मानते हैं तो जैसे एक पाषाण फू टकर टुकड़े हो जाता है उसी प्रकार
ब्रह्मके खण्ड हो गये, फि र उनका इकट्ठा होना मानता है तो वहाँ उनका स्वरूप भिन्न रहता
है या एक हो जाता है? यदि भिन्न रहता है तो वहाँ अपने-अपने स्वरूपसे भिन्न ही हैं
और एक हो जाते हैं तो जड़ भी चेतन हो जायेगा व चेतन जड़ हो जायगा। वहाँ अनेक
वस्तुओंकी एक वस्तु हुई तब किसी कालमें अनेक वस्तु, किसी कालमें एक वस्तु ऐसा कहना
बनेगा, ‘अनादि-अनन्त एक ब्रह्म है’
अलग नवीन उत्पन्न हुए हैं या ब्रह्म ही इन स्वरूप हुआ है? यदि अलग नवीन उत्पन्न हुए हैं
तो वे न्यारे हुए, ब्रह्म न्यारा रहा; सर्वव्यापी अद्वैत ब्रह्म नहीं ठहरा। तथा यदि ब्रह्म ही इन
स्वरूप हुआ तो कदाचित् लोक हुआ, कदाचित् ब्रह्म हुआ, फि र जैसाका तैसा कैसा रहा?
प्रकार ब्रह्मका एक अंश भिन्न होकर लोकरूप हुआ, वहाँ स्थूल विचारसे तो गम्य नहीं है,
परन्तु सूक्ष्म विचार करने पर तो एक अंश अपेक्षासे ब्रह्मके अन्यथापना हुआ। यह अन्यथापना
और तो किसीके हुआ नहीं है।
तथा एक प्रकार यह है
हैं वहाँ जिस प्रकार आकाश है उसी प्रकार ब्रह्म भी है
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एक मानना कैसे सम्भव है। तथा आकाशका लक्षण तो सर्वत्र भासित है, इसलिये उसका
तो सर्वत्र सद्भाव मानते हैं; ब्रह्मका लक्षण तो सर्वत्र भासित नहीं होता, इसलिये उसका
सर्वत्र सद्भाव कैसे मानें। इस प्रकारसे भी सर्वरूप ब्रह्म नहीं है।
है। एक भी है; अनेक भी है; भिन्न भी है, मिला भी है। उसकी महिमा ऐसी ही है।
है ही नहीं। तथा वह कहता है
न्याय तो जिस प्रकार सत्य है उसी प्रकार होगा।
प्रथम तो ऐसा मानता है कि ब्रह्मको ऐसी इच्छा हुई कि
कहता है कि दुःख तो नहीं था, ऐसा ही कौतूहल उत्पन्न हुआ। उसे कहते हैं
सो ब्रह्मको एक अवस्थासे बहुत अवस्थारूप होने पर बहुत सुख होना कैसे सम्भव है? और
यदि पूर्व सम्पूर्ण सुखी हो तो अवस्था किसलिये पलटे? प्रयोजन बिना तो कोई कुछ कर्त्तव्य
करता नहीं है।
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नहीं है। इच्छा तो तभी होती है जब कार्य न हो। कार्य हो तब इच्छा नहीं रहती।
इसलिये सूक्ष्म कालमात्र इच्छा रही तब तो दुःखी हुआ होगा; क्योंकि इच्छा है सो ही दुःख
है और कोई दुःखका स्वरूप है नहीं। इसलिए ब्रह्मके इच्छा कैसे बने?
दण्डवत् संयोगसम्बन्ध है कि अग्नि-उष्णवत् समवायसम्बन्ध है। जो संयोगसम्बन्ध है तो ब्रह्म
भिन्न है, माया भिन्न है; अद्वैत ब्रह्म कैसे रहा? तथा जैसे दण्डी दण्डको उपकारी जानकर
ग्रहण करता है तैसे ब्रह्म मायाको उपकारी जानता है तो ग्रहण करता है, नहीं तो क्यों
ग्रहण करे? तथा जिस मायाको ब्रह्म ग्रहण करे उसका निषेध करना कैसे सम्भव है? वह
तो उपादेय हुई। तथा यदि समवायसम्बन्ध है तो जैसे अग्निका उष्णत्व स्वभाव है वैसे
ब्रह्मका माया स्वभाव ही हुआ। जो ब्रह्मका स्वभाव है उसका निषेध करना कैसे सम्भव
है? यह तो उत्तम हुई।
तो उसीको कहते हैं जिसने कपट किया, उसके कपटसे अन्य भ्रमरूप हुए उन्हें तो कपटी
नहीं कहते। उसी प्रकार ब्रह्म अपनी मायाको आप जानता है सो आप तो भ्रमरूप नहीं
होता, परन्तु उसकी मायासे अन्य जीव भ्रमरूप होते हैं। वहाँ मायावी तो ब्रह्मको ही कहा
जायगा, उसकी मायासे अन्य जीव भ्रमरूप हुए उन्हें मायावी किसलिये कहते हैं?
आप ही जो अपनेसे भिन्न नहीं हैं ऐसे अन्य जीव, उनको मायासे दुःखी करता है सो कैसे
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करके पीड़ा उत्पन्न करता है, उसी प्रकार ब्रह्म बिना ही प्रयोजन अन्य जीवोंको माया उत्पन्न
करके पीड़ा उत्पन्न करे सो भी बनता नहीं है।
फि र वे कहते हैं
भरा है, उन सबमें चन्द्रमाका प्रतिबिम्ब अलग-अलग पड़ता है, चन्द्रमा एक है; उसी प्रकार
अलग-अलग बहुतसे शरीरोंमें ब्रह्मका चैतन्यप्रकाश अलग-अलग पाया जाता है। ब्रह्म एक
है, इसलिये जीवोंके चेतना है सो ब्रह्मकी है।
हुई। तथा उससे पूछते हैं
कहेगा, यह घटउपाधि भेद है; तो घटउपाधि होनेसे तो चेतना भिन्न-भिन्न ठहरी। घटउपाधि
मिटने पर इसकी चेतना ब्रह्ममें मिलेगी या नाश हो जायगी? यदि नाश हो जायेगी तो यह
जीव तो अचेतन रह जायेगा और तू कहेगा कि जीव ही ब्रह्ममें मिल जाता है तो वहाँ
ब्रह्ममें मिलने पर इसका अस्तित्व रहता है या नहीं रहता? यदि अस्तित्व रहता है तो यह
रहा, इसकी चेतना इसके रही; ब्रह्ममें क्या मिला? और यदि अस्तित्व नहीं रहता है तो
उसका नाश ही हुआ; ब्रह्ममें कौन मिला? यदि तू कहेगा कि ब्रह्मकी और जीवोंकी चेतना
भिन्न है, तो ब्रह्म और सर्व जीव आप ही भिन्न-भिन्न ठहरे। इस प्रकार जीवोंको चेतना
है सो ब्रह्मकी है
थे या नवीन हुए हैं? यदि पहले ही थे तो पहले तो माया ब्रह्मकी थी, ब्रह्म अमूर्तिक है
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स्वभाव शाश्वत नहीं ठहरा और यदि कहेगा कि
कहता है, वे तो उन पदार्थमय हुए। और अभिन्न उत्पन्न हुए तो माया ही तद्रूप हुई, नवीन
पदार्थ उत्पन्न किसलिये कहता है?
तथा वे कहते हैं
भावको तामस कहते हैं, मन्दकषायरूप भावको सात्त्विक कहते हैं। सो यह भाव तो चेतनामय
प्रत्यक्ष देखे जाते हैं और मायाका स्वरूप जड़ कहते हो, सो जड़से यह भाव कैसे उत्पन्न
हों? यदि जड़के भी हों तो पाषाणादिकके भी होंगे, परन्तु चेतनास्वरूप जीवोंके ही यह
भाव दिखते हैं; इसलिये यह भाव मायासे उत्पन्न नहीं हैं। यदि मायाको चेतन ठहराये तो
यह मानें। सो मायाको चेतन ठहराने पर शरीरादिक मायासे उत्पन्न कहेगा तो नहीं मानेंगे।
इसलिये निर्धार कर; भ्रमरूप माननेसे लाभ क्या है।
क्रोध होगा, क्रोधसे पुरुष कैसे उत्पन्न होगा? फि र इन गुणोंकी तो निन्दा करते हैं, इनसे
उत्पन्न हुए ब्रह्मादिकको पूज्य कैसे माना जाता है? तथा गुण तो मायामयी और इन्हें ब्रह्मके
अवतार कहा जाता है सो यह तो मायाके अवतार हुए, इनको ब्रह्मका अवतार *कैसे कहा
और जो इन्हींकी मूर्ति उन्हें पूज्य मानें यह कैसा भ्रम है?
कलिकालके प्रारम्भमें परब्रह्म परमात्माने रजोगुणसे उत्पन्न होकर ब्रह्मा बनकर प्रजाकी रचना की।
प्रलयके समय तमोगुणसे उत्पन्न हो काल (शिव) बनकर सृष्टिको ग्रस लिया। उस परमात्माने सत्त्वगुणसे
उत्पन्न हो, नारायण बनकर समुद्रमें शयन किया।