Moksha-Marg Prakashak (Hindi). Panchava Adhyay.

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बंधतत्त्व सम्बन्धी अयथार्थ श्रद्धान
तथा इन आस्रवभावोंसे ज्ञानावरणादि कर्मोंका बन्ध होता है। उनका उदय होने पर
ज्ञान-दर्शनकी हीनता होना, मिथ्यात्व-कषायरूप परिणमन होना, चाहा हुआ न होना, सुख-दुःखका
कारण मिलना, शरीरसंयोग रहना, गति-जाति-शरीरादिका उत्पन्न होना, नीच-उच्च कुलका पाना
होता है। इनके होनेमें मूलकारण कर्म है, उसे यह पहिचानता नहीं है, क्योंकि वह सूक्ष्म
है, इसे दिखाई नहीं देता; तथा वह इसको इन कार्योंका कर्त्ता दिखाई नहीं देता; इसलिये
इनके होनेमें या तो अपनेको कर्त्ता मानता है या किसी औरको कर्ता मानता है। तथा अपना
या अन्यका कर्त्तापना भासित न हो तो मूढ़ होकर भवितव्यको मानता है।
इस प्रकार बन्धतत्त्वका अयथार्थ ज्ञान होने पर अयथार्थ श्रद्धान होता है।
संवरतत्त्व सम्बन्धी अयथार्थ श्रद्धान
तथा आस्रवका अभाव होना सो संवर है। जो आस्रवको यथार्थ नहीं पहिचाने उसे
संवरका यथार्थ श्रद्धान कैसे हो? जैसेकिसीके अहितरूप आचरण है; उसे वह अहितरूप
भासित न हो तो उसके अभावको हितरूप कैसे माने? जैसेजीवको आस्रवकी प्रवृत्ति है;
इसे वह अहितरूप भासित न हो तो उसके अभावरूप संवरको कैसे हितरूप माने?
तथा अनादिसे इस जीवको आस्रवभाव ही हुआ है, संवर कभी नहीं हुआ, इसलिये
संवरका होना भासित नहीं होता। संवर होने पर सुख होता है वह भासित नहीं होता।
संवरसे आगामी कालमें दुःख नहीं होगा वह भासित नहीं होता। इसलिये आस्रवका तो संवर
करता नहीं है और उन अन्य पदार्थोंको दुःखदायक मानता है, उन्हींके न होनेका उपाय
किया करता है; परन्तु वे अपने आधीन नहीं हैं। वृथा ही खेदखिन्न होता है।
इस प्रकार संवरतत्त्वका अयथार्थ ज्ञान होने पर अयथार्थ श्रद्धान होता है।
निर्जरातत्त्व सम्बन्धी अयथार्थ श्रद्धान
तथा बन्धका एकदेश अभाव होना सो निर्जरा है। जो बन्धको यथार्थ नहीं पहिचाने
उसे निर्जराका यथार्थ श्रद्धान कैसे हो? जैसेभक्षण किये हुए विष आदिकसे दुःखका होना
न जाने तो उसे नष्ट करनेके उपायको कैसे भला जाने? उसी प्रकार बन्धरूप किये कर्मोंसे
दुःख होना न जाने तो उनकी निर्जराके उपायको कैसे भला जाने?
तथा इस जीवको इन्द्रियों द्वारा सूक्ष्मरूप जो कर्म उनका तो ज्ञान होता नहीं है और
उनमें दुःखोंके कारणभूत शक्ति है उसका भी ज्ञान नहीं है; इसलिये अन्य पदार्थोंके ही निमित्तको
दुःखदायक जानकर उनका ही अभाव करनेका उपाय करता है, परन्तु वे अपने आधीन नहीं

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हैं। तथा कदाचित् दुःख दूर करनेके निमित्त कोई इष्ट संयोगादि कार्य बनता है तो वह
भी कर्मके अनुसार बनता है। इसलिये उनका उपाय करके वृथा ही खेद करता है।
इस प्रकार निर्जरातत्त्वका अयथार्थ ज्ञान होने पर अयथार्थ श्रद्धान होता है।
मोक्षतत्त्व सम्बन्धी अयथार्थ श्रद्धान
तथा सर्व कर्मबन्धके अभावका नाम मोक्ष है। जो बन्धको तथा बन्धजनित सर्व
दुःखोंको नहीं पहिचाने, उसको मोक्षका यथार्थ श्रद्धान कैसे हो? जैसेकिसीको रोग है;
वह उस रोगको तथा रोगजनित दुःखको न जाने तो सर्वथा रोगके अभावको कैसे भला माने?
उसी प्रकार इसके कर्मबन्धन है; यह उस बन्धनको तथा बन्धजनित दुःखको न जाने तो
सर्वथा बन्धके अभावको कैसे भला जाने?
तथा इस जीवको कर्मोंका और उनकी शक्तिका तो ज्ञान है नहीं; इसलिये बाह्य
पदार्थोंको दुःखका कारण जानकर उनका सर्वथा अभाव करनेका उपाय करता है। तथा यह
तो जानता है कि
सर्वथा दुःख दूर होनेका कारण इष्ट सामग्रियोंको जुटाकर सर्वथा सुखी
होना है, परन्तु ऐसा कदापि नहीं हो सकता। यह वृथा ही खेद करता है।
इस प्रकार मिथ्यादर्शनसे मोक्षतत्त्वका अयथार्थ ज्ञान होनेसे अयथार्थ श्रद्धान है।
इस प्रकार यह जीव मिथ्यादर्शनके कारण जीवादि सात तत्त्वोंका जो कि प्रयोजनभूत
हैं, उनका अयथार्थ श्रद्धान करता है।
पुण्य-पाप सम्बन्धी अयथार्थ श्रद्धान
तथा पुण्य-पाप हैं सो इन्हींके विशेष हैं और इन पुण्य-पापकी एक जाति है; तथापि
मिथ्यादर्शनसे पुण्यको भला जानता है, पापको बुरा जानता है। पुण्यसे अपनी इच्छानुसार
किंचित् कार्य बने, उसको भला जानता है और पापसे इच्छानुसार कार्य नहीं बने, उसको
बुरा जानता है; परन्तु दोनों ही आकुलताके कारण हैं इसलिये बुरे ही हैं।
तथा यह अपनी मान्यतासे वहाँ सुख-दुःख मानता है। परमार्थसे जहाँ आकुलता हैं
वहाँ दुःख ही है; इसलिये पुण्य-पापके उदयको भला-बुरा जानना भ्रम ही है।
तथा कितने ही जीव कदाचित् पुण्य-पापके कारण जो शुभ-अशुभभाव उन्हें भला-
बुरा जानते हैं वह भी भ्रम ही है; क्योंकि दोनों ही कर्मबन्धनके कारण हैं।
इस प्रकार पुण्य-पापका अयथार्थ ज्ञान होने पर अयथार्थ श्रद्धान होता है।
इस प्रकार अतत्त्वश्रद्धानरूप मिथ्यादर्शनका स्वरूप कहा। यह असत्यरूप है, इसलिये
इसीका नाम मिथ्यात्व है और यह सत्यश्रद्धानसे रहित है, इसलिये इसीका नाम अदर्शन है।

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मिथ्याज्ञानका स्वरूप
अब, मिथ्याज्ञानका स्वरूप कहते हैंःप्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वोंको अयथार्थ जाननेका
नाम मिथ्याज्ञान है। उसके द्वारा उनको जाननेमें संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय होता है।
वहाँ ‘ऐसे है कि ऐसे है?’
इस प्रकार परस्पर विरुद्धता सहित दोरूप ज्ञान उसका नाम
संशय है। जैसे‘मैं आत्मा हूँ कि शरीर हूँ?’ऐसा जानना। तथा ‘ऐसा ही है’ इस
प्रकार वस्तुस्वरूपसे विरुद्धता सहित एकरूप ज्ञान उसका नाम विपर्यय है। जैसे‘मैं शरीर
हूँ’ऐसा जानना। तथा ‘कुछ है’ ऐसा निर्धाररहित विचार उसका नाम अनध्यवसाय है।
जैसे ‘मैं कोई हूँ’ऐसा जानना। इस प्रकार प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वोंमें संशय, विपर्यय,
अनध्यवसायरूप जो जानना हो उसका नाम मिथ्याज्ञान है।
तथा अप्रयोजनभूत पदार्थोंको यथार्थ जाने या अयथार्थ जाने उसकी अपेक्षा मिथ्याज्ञान
सम्यग्ज्ञान नाम नहीं है। जिस प्रकार मिथ्यादृष्टि रस्सीको रस्सी जाने तो सम्यग्ज्ञान नाम नहीं
होता और सम्यग्दृष्टि रस्सीको साँप जाने तो मिथ्याज्ञान नाम नहीं होता।
यहाँ प्रश्न है किप्रत्यक्ष सच्चे-झूठे ज्ञानको सम्यग्ज्ञानमिथ्याज्ञान कैसे न कहें?
समाधानः जहाँ जाननेका हीसच-झूठका निर्धार करनेकाप्रयोजन हो वहाँ तो
कोई पदार्थ है उसके सच-झूठ जाननेकी अपेक्षा ही सम्यग्ज्ञानमिथ्याज्ञान नाम दिया जाता है।
जैसेप्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाणके वर्णनमें कोई पदार्थ होता है; उसके सच्चे जाननेरूप सम्यग्ज्ञानका
ग्रहण किया है और संशयादिरूप जाननेको अप्रमाणरूप मिथ्याज्ञान कहा है। तथा यहाँ संसार
मोक्षके कारणभूत सच-झूठ जाननेका निर्धार करना है, वहाँ रस्सी, सर्पादिकका यथार्थ या अन्यथा
ज्ञान संसार
मोक्षका कारण नहीं है, इसलिये उनकी अपेक्षा यहाँ सम्यग्ज्ञानमिथ्याज्ञान नहीं कहे
हैं। यहाँ तो प्रयोजनभूत जीवादिक तत्त्वोंके ही जाननेकी अपेक्षा सम्यग्ज्ञानमिथ्याज्ञान कहे हैं।
इसी अभिप्रायसे सिद्धान्तमें मिथ्यादृष्टिके तो सर्व जाननेको मिथ्याज्ञान ही कहा और
सम्यग्दृष्टिके सर्व जाननेको सम्यग्ज्ञान कहा।
यहाँ प्रश्न है किमिथ्यादृष्टिको जीवादि तत्त्वोंका अयथार्थ जानना है, उसे मिथ्याज्ञान
कहो; परन्तु रस्सी, सर्पादिकके यथार्थ जाननेको तो सम्यग्ज्ञान कहो।
समाधान :मिथ्यादृष्टि जानता है, वहाँ उसको सत्ता-असत्ताका विशेष नहीं है; इसलिये
कारणविपर्यय व स्वरूपविपर्यय व भेदाभेदविपर्ययको उत्पन्न करता है। वहाँ जिसे जानता
है उसके मूलकारणको नहीं पहिचानता, अन्यथा कारण मानता है; वह तो कारणविपर्यय है।
तथा जिसे जानता है उसके मूलवस्तुत्वरूप स्वरूपको नहीं पहिचानता, अन्यथास्वरूप मानता

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है; वह स्वरूपविपर्यय है। तथा जिसे जानता है उसे यह इनसे भिन्न है, इनसे अभिन्न है
ऐसा नहीं पहिचानता, अन्यथा भिन्न-अभिन्नपना मानता है; सो भेदाभेदविपर्यय है। इस प्रकार
मिथ्यादृष्टिके जाननेमें विपरीतता पायी जाती है।
जैसे मतवाला माताको पत्नी मानता है, पत्नीको माता मानता है; उसी प्रकार मिथ्यादृष्टिके
अन्यथा जानना होता है। तथा जैसे किसी कालमें मतवाला माताको माता और पत्नीको पत्नी
भी जाने तो भी उसके निश्चयरूप निर्धारसे श्रद्धानसहित जानना नहीं होता, इसलिये उसको
यथार्थ ज्ञान नहीं कहा जाता; उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि किसी कालमें किसी पदार्थको सत्य भी
जाने, तो भी उसके निश्चयरूप निर्धारसे श्रद्धानसहित जानना नहीं होता; अथवा सत्य भी
जाने, परन्तु उनसे अपना प्रयोजन अयथार्थ ही साधता है; इसलिये उसके सम्यग्ज्ञान नहीं
कहा जाता।
इस प्रकार मिथ्यादृष्टिके ज्ञानको मिथ्याज्ञान कहते हैं।
यहाँ प्रश्न है कि
इस मिथ्याज्ञानका कारण कौन है?
समाधानःमोहके उदयसे जो मिथ्यात्वभाव होता है, सम्यक्त्व नहीं होता; वह इस
मिथ्याज्ञानका कारण है। जैसेविषके संयोगसे भोजनको भी विषरूप कहते हैं, वैसे
मिथ्यात्वके सम्बन्धमें ज्ञान है सो मिथ्याज्ञान नाम पाता है।
यहाँ कोई कहे किज्ञानावरणको निमित्त क्यों नहीं कहते?
समाधानःज्ञानावरणके उदयसे तो ज्ञानके अभावरूप अज्ञानभाव होता है तथा उसके
क्षयोपशमसे किंचित् ज्ञानरूप मति-आदि ज्ञान होते हैं। यदि इनमेंसे किसीको मिथ्याज्ञान,
किसीको सम्यग्ज्ञान कहें तो यह दोनों ही भाव मिथ्यादृष्टि तथा सम्यग्दृष्टिके पाये जाते हैं,
इसलिये उन दोनोंके मिथ्याज्ञान तथा सम्यग्ज्ञानका सद्भाव हो जायेगा और वह सिद्धान्तसे
विरुद्ध होता है, इसलिये ज्ञानावरणका निमित्त नहीं बनता।
यहाँ फि र पूछते हैं किरस्सी, सर्पादिकके अयथार्थ-यथार्थ ज्ञानका कारण कौन है?
उसको ही जीवादि तत्त्वोंके अयथार्थ-यथार्थ ज्ञानका कारण कहो?
उत्तरःजाननेमें जितना अयथार्थपना होता है उतना तो ज्ञानावरणके उदयसे होता है;
और जो यथार्थपना होता है उतना ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे होता है। जैसे किरस्सीको सर्प
जाना वहाँ यथार्थ जाननेकी शक्तिका बाधककारणका उदय है इसलिये अयथार्थ जानता है; तथा
रस्सीको जाना वहाँ यथार्थ जाननेकी शक्तिका कारण क्षयोपशम है इसलिये यथार्थ जानता है।
उसी प्रकार जीवादि तत्त्वोंको यथार्थ जाननेकी शक्ति होने या न होनेमें तो ज्ञानावरणका ही
निमित्त है; परन्तु जैसे किसी पुरुषको क्षयोपशमसे दुःखके तथा सुखके कारणभूत पदार्थोंको यथार्थ

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जाननेकी शक्ति हो; वहाँ जिसको असातावेदनीयका उदय हो वह दुःखके कारणभूत जो हों
उन्हींका वेदन करता है, सुखके कारणभूत पदार्थोंका वेदन नहीं करता। यदि सुखके कारणभूत
पदार्थोंका वेदन करे तो सुखी हो जाये, असाताका उदय होनेसे हो नहीं सकता। इसलिये यहाँ
दुःखके कारणभूत और सुखके कारणभूत पदार्थोंके वेदनमें ज्ञानावरणका निमित्त नहीं है, असाता-
साताका उदय ही कारणभूत है। उसी प्रकार जीवमें प्रयोजनभूत जीवादिक तत्त्व तथा
अप्रयोजनभूत अन्यको यथार्थ जाननेकी शक्ति होती है। वहाँ जिसके मिथ्यात्वका उदय होता
है वह तो अप्रयोजनभूत हों उन्हींका वेदन करता है, जानता है; प्रयोजनभूतको नहीं जानता।
यदि प्रयोजनभूतको जाने तो सम्यग्दर्शन हो जाये, परन्तु वह मिथ्यात्वका उदय होने पर हो
नहीं सकता; इसलिये यहाँ प्रयोजनभूत और अप्रयोजनभूत पदार्थोंको जाननेमें ज्ञानावरणका निमित्त
नहीं है; मिथ्यात्वका उदय-अनुदय ही कारणभूत है।
यहाँ ऐसा जानना किजहाँ एकेन्द्रियादिकमें जीवादि तत्त्वोंको यथार्थ जाननेकी शक्ति
ही न हो, वहाँ तो ज्ञानावरणका उदय और मिथ्यात्वके उदयसे हुआ मिथ्यादर्शन इन दोनोंका
निमित्त है। तथा जहाँ संज्ञी मनुष्यादिकमें क्षयोपशमादि लब्धि होनेसे शक्ति हो और न जाने,
वहाँ मिथ्यात्वके उदयका ही निमित्त जानना।
इसलिये मिथ्याज्ञानका मुख्य कारण ज्ञानावरणको नहीं कहा, मोहके उदयसे हुआ भाव
वही कारण कहा है।
यहाँ फि र प्रश्न है किज्ञान होने पर श्रद्धान होता है, इसलिये पहले मिथ्याज्ञान
कहो बादमें मिथ्यादर्शन कहो?
समाधानःहै तो ऐसा ही; जाने बिना श्रद्धान कैसे हो? परन्तु मिथ्या और सम्यक्
ऐसी संज्ञा ज्ञानको मिथ्यादर्शन और सम्यग्दर्शनके निमित्तसे होती है। जैसे मिथ्यादृष्टि और
सम्यग्दृष्टि सुवर्णादि पदार्थोंको जानते तो समान हैं; (परन्तु) वही जानना मिथ्यादृष्टिके मिथ्याज्ञान
नाम पाता है और सम्यग्दृष्टिके सम्यग्ज्ञान नाम पाता है। इसी प्रकार सर्व मिथ्याज्ञान और
सम्यग्ज्ञानको मिथ्यादर्शन और सम्यग्दर्शन कारण जानना।
इसलिये जहाँ सामान्यतया ज्ञान-श्रद्धानका निरूपण हो वहाँ तो ज्ञान कारणभूत है,
उसे प्रथम कहना और श्रद्धान कार्यभूत है, उसे बादमें कहना। तथा जहाँ मिथ्यासम्यक्
ज्ञान-श्रद्धानका निरूपण हो वहाँ श्रद्धान कारणभूत है, उसे पहले कहना और ज्ञान कार्यभूत
है उसे बादमें कहना।
फि र प्रश्न है किज्ञानश्रद्धान तो युगपत् होते हैं, उनमें कारण-कार्यपना कैसे
कहते हो?

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समाधान :वह हो तो वह होइस अपेक्षा कारणकार्यपना होता है। जैसेदीपक
और प्रकाश युगपत होते हैं; तथापि दीपक हो तो प्रकाश हो, इसलिये दीपक कारण है
प्रकाश कार्य है। उसी प्रकार ज्ञान
श्रद्धानके है। अथवा मिथ्यादर्शन-मिथ्याज्ञान के व
सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानके कारण-कार्यपना जानना।
फि र प्रश्न है किमिथ्यादर्शनके संयोगसे ही मिथ्याज्ञान नाम पाता है, तो एक
मिथ्यादर्शनको ही संसारका कारण कहना था, मिथ्याज्ञानको अलग किसलिये कहा?
समाधान :ज्ञानकी ही अपेक्षा तो मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टिके क्षयोपशमसे हुए यथार्थ
ज्ञानमें कुछ विशेष नहीं है तथा वह ज्ञान केवलज्ञानमें भी जा मिलता है, जैसे नदी समुद्रमें
मिलती है। इसलिये ज्ञानमें कुछ दोष नहीं है। परन्तु क्षयोपशम ज्ञान जहाँ लगता है वहाँ
एक ज्ञेयमें लगता है; और इस मिथ्यादर्शनके निमित्तसे वह ज्ञान अन्य ज्ञेयोमें तो लगता है,
परन्तु प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वोंका यथार्थ निर्णय करनेमें नहीं लगता। सो यह ज्ञानमें दोष
हुआ; इसे मिथ्याज्ञान कहा। तथा जीवादि तत्त्वोंका यथार्थ श्रद्धान नहीं होता सो यह श्रद्धानमें
दोष हुआ; इसे मिथ्यादर्शन कहा। ऐसे लक्षणभेदसे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञानको भिन्न कहा।
इस प्रकार मिथ्याज्ञानका स्वरूप कहा। इसीको तत्त्वज्ञानके अभावसे अज्ञान कहते
हैं और अपना प्रयोजन नहीं साधता, इसलिये इसीको कुज्ञान कहते हैं।
मिथ्याचारित्रका स्वरूप
अब मिथ्याचारित्रका स्वरूप कहते हैंःचारित्रमोहके उदयसे जो कषायभाव होता है
उसका नाम मिथ्याचारित्र है। यहाँ अपने स्वभावरूप प्रवृत्ति नहीं है, झूठी पर-स्वभावरूप
प्रवृत्ति करना चाहता है सो बनती नहीं है; इसलिये इसका नाम मिथ्याचारित्र है।
वही बतलाते हैंःअपना स्वभाव तो दृष्टा-ज्ञाता है; सो स्वयं केवल देखनेवाला-
जाननेवाला तो रहता नहीं है, जिन पदार्थोंको देखता-जानता है उनमें इष्ट-अनिष्टपना मानता
है, इसलिये रागी-द्वेषी होकर किसीका सद्भाव चाहता है, किसीका अभाव चाहता है, परन्तु
उनका सद्भाव या अभाव इसका किया हुआ होता नहीं, क्योंकि कोई द्रव्य किसी द्रव्यका
कर्त्ता-हर्त्ता है नहीं, सर्व द्रव्य अपने-अपने स्वभावरूप परिणमित होते हैं; यह वृथा ही
कषायभावसे आकुलित होता है।
तथा कदाचित् जैसा यह चाहे वैसा ही पदार्थ परिणमित हो तो वह अपने परिणमानेसे
तो परिणमित हुआ नहीं है। जैसे गाड़ी चलती है; और बालक उसे धक्का देकर ऐसा माने

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कि मैं इसे चला रहा हूँ तो वह असत्य मानता है; यदि उसके चलानेसे चलती हो तो जब
वह नहीं चलती तब क्यों नहीं चलाता? उसी प्रकार पदार्थ परिणमित होते हैं और यह जीव
उनका अनुसरण करके ऐसा मानता है कि इनको मैं ऐसा परिणमित कर रहा हूँ, परन्तु वह
असत्य मानता है; यदि उसके परिणमानेसे परिणमित होते हैं तो वे वैसे परिणमित नहीं होते
तब क्यों नहीं परिणमाता? सो जैसा स्वयं चाहता है वैसा पदार्थका परिणमन कदाचित् ऐसे
ही बन जाय तब होता है। बहुत परिणमन तो जिन्हें स्वयं नहीं चाहता वैसे ही होते देखे
जाते हैं, इसलिए यह निश्चय है कि अपने करनेसे किसीका सद्भाव या अभाव होता नहीं।
तथा यदि अपने करनेसे सद्भाव-अभाव होते ही नहीं तो कषायभाव करनेसे क्या हो?
केवल स्वयं ही दुःखी होता है। जैसेकिसी विवाहादि कार्योमें जिसका कुछ भी कहा नहीं
होता, वह यदि स्वयं कर्त्ता होकर कषाय करे तो स्वयं ही दुःखी होता हैउसी प्रकार जानना।
इसलिये कषायभाव करना ऐसा है जैसे जलका बिलोना कुछ कार्यकारी नहीं है।
इसलिये इन कषायोंकी प्रवृत्तिको मिथ्याचारित्र कहते हैं।
इष्ट-अनिष्टकी मिथ्या कल्पना
तथा कषायभाव होते हैं सो पदार्थोंको इष्ट-अनिष्ट मानने पर होते हैं, सो इष्ट-अनिष्ट
मानना भी मिथ्या है; क्योंकि कोई पदार्थ इष्ट-अनिष्ट है नहीं।
कैसे? सो कहते हैंःजो अपनेको सुखदायकउपकारी हो उसे इष्ट कहते हैं; अपनेको
दुःखदायकअनुपकारी हो उसे अनिष्ट कहते हैं। लोकमें सर्व पदार्थ अपने-अपने स्वभावके ही
कर्त्ता हैं, कोई किसीको सुख-दुःखदायक, उपकारी-अनुपकारी है नहीं। यह जीव ही अपने
परिणामोंमें उन्हें सुखदायक
उपकारी मानकर इष्ट जानता है अथवा दुःखदायकअनुपकारी
जानकर अनिष्ट मानता है; क्योंकि एक ही पदार्थ किसीको इष्ट लगता है, किसीको अनिष्ट लगता
है। जैसे
जिसे वस्त्र न मिलता हो उसे मोटा वस्त्र इष्ट लगता है और जिसे पतला वस्त्र मिलता
है उसे वह अनिष्ट लगता है। सूकरादिको विष्टा इष्ट लगती है, देवादिको अनिष्ट लगती है।
किसीको मेघवर्षा इष्ट लगती है, किसीको अनिष्ट लगती है।
इसी प्रकार अन्य जानना।
तथा इसी प्रकार एक जीवको भी एक ही पदार्थ किसी कालमें इष्ट लगता है, किसी
कालमें अनिष्ट लगता है। तथा यह जीव जिसे मुख्यरूपसे इष्ट मानता है, वह भी अनिष्ट
होता देखा जाता है
इत्यादि जानना। जैसेशरीर इष्ट है, परन्तु रोगादि सहित हो तब
अनिष्ट हो जाता है; पुत्रादिक इष्ट हैं, परन्तु कारण मिलने पर अनिष्ट होते देखे जाते हैं
इत्यादि जानना। तथा यह जीव जिसे मुख्यरूपसे अनिष्ट मानता है, वह भी इष्ट होता देखते
हैं। जैसे
गाली अनिष्ट लगती है, परन्तु ससुरालमें इष्ट लगती है। इत्यादि जानना।

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इस प्रकार पदार्थमें इष्ट-अनिष्टपना है नहीं। यदि पदार्थमें इष्ट-अनिष्टपना होता तो जो
पदार्थ इष्ट होता वह सभीको इष्ट ही होता और अनिष्ट होता वह अनिष्ट ही होता; परन्तु
ऐसा है नहीं। यह जीव कल्पना द्वारा उन्हें इष्ट-अनिष्ट मानता है सो यह कल्पना झूठी है।
तथा पदार्थ सुखदायकउपकारी या दुःखदायकअनुपकारी होता है सो अपने आप
नहीं होता, परन्तु पुण्य-पापके उदयानुसार होता है। जिसके पुण्यका उदय होता है, उसको
पदार्थोंका संयोग सुखदायक
उपकारी होता है और जिसके पापका उदय होता है उसे पदार्थोंका
संयोग दुःखदायकअनुपकारी होता है।ऐसा प्रत्यक्ष देखते हैं। किसीको स्त्री-पुत्रादिक
सुखदायक हैं, किसीको दुःखदायक हैं; किसीको व्यापार करनेसे लाभ है, किसीको नुकसान
है; किसीके शत्रु भी दास होजाते हैं, किसीके पुत्र भी अहितकारी होता है। इसलिये जाना
जाता है कि पदार्थ अपने आप इष्ट-अनिष्ट नहीं होते, परन्तु कर्मोदयके अनुसार प्रवर्तते हैं।
जैसे किसीके नौकर अपने स्वामीके कहे अनुसार किसी पुरुषको इष्ट-अनिष्ट उत्पन्न करें तो
वह कुछ नौकरोंका कर्त्तव्य नहीं है, उनके स्वामीका कर्त्तव्य है। कोई नौकरोंको ही इष्ट-
अनिष्ट माने तो झूठ है। उसी प्रकार कर्मके उदयसे प्राप्त हुए पदार्थ कर्मके अनुसार जीवको
इष्ट-अनिष्ट उत्पन्न करें तो वह कोई पदार्थोंका कर्त्तव्य नहीं है, कर्मका कर्त्तव्य है। यदि
पदार्थोंको ही इष्ट-अनिष्ट माने तो झूठ है।
इसलिये यह बात सिद्ध हुई कि पदार्थोंको इष्ट-अनिष्ट मानकर उनमें राग-द्वेष करना
मिथ्या है।
यहाँ कोई कहे किबाह्य वस्तुओंका संयोग कर्मनिमित्तसे बनता है, तब कर्मोमें तो
राग-द्वेष करना?
समाधानःकर्म तो जड़ हैं, उनके कुछ सुख-दुःख देनेकी इच्छा नहीं है। तथा वे
स्वयमेव तो कर्मरूप परिणमित होते नहीं हैं, इसके भावोंके निमित्तसे कर्मरूप होते हैं। जैसे
कोई अपने हाथसे पत्थर लेकर अपना सिर फोड़ ले तो पत्थरका क्या दोष है? उसी प्रकार
जीव अपने रागादिक भावोंसे पुद्गलको कर्मरूप परिणमित करके अपना बुरा करे तो कर्मका
क्या दोष है? इसलिये कर्मसे भी राग-द्वेष करना मिथ्या है।
इस प्रकार परद्रव्योंको इष्ट-अनिष्ट मानकर राग-द्वेष करना मिथ्या है। यदि परद्रव्य
इष्ट-अनिष्ट होते और वहाँ राग-द्वेष करता तो मिथ्या नाम न पाता; वे तो इष्ट-अनिष्ट हैं
नहीं और यह इष्ट-अनिष्ट मानकर राग-द्वेष करता है, इसलिये इस परिणमनको मिथ्या कहा
है। मिथ्यारूप जो परिणमन, उसका नाम मिथ्याचारित्र है।

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चौथा अधिकार ][ ९१
राग-द्वेषका विधान व विस्तार
अब, इस जीवके राग-द्वेष होते हैं, उनका विधान और विस्तार बतलाते हैं :
प्रथम तो इस जीवको पर्यायमें अहंबुद्धि है सो अपनेको और शरीरको एक जानकर
प्रर्वतता है। तथा इस शरीरमें अपनेको सुहाये ऐसी इष्ट अवस्था होती है उसमें राग करता
है; अपनेको न सुहाये ऐसी अनिष्ट अवस्था होती है उसमें द्वेष करता है। तथा शरीरकी
इष्ट अवस्थाके कारणभूत बाह्य पदार्थोंमें तो राग करता है और उसके घातकोंमें द्वेष करता
है। तथा शरीरकी अनिष्ट अवस्थाके कारणभूत बाह्य पदार्थोंमें तो द्वेष करता है और उनके
घातकोंमें राग करता है। तथा इनमें जिन बाह्य पदार्थों से राग करता है उनके कारणभूत
अन्य पदार्थोंमें राग करता है और उनके घातकोंमें द्वेष करता है। तथा जिन बाह्य पदार्थोंसे
द्वेष करता है उनके कारणभूत अन्य पदार्थोंमें द्वेष करता है और उनके घातकोंमें राग करता
है। तथा इनमें भी जिनसे राग करता है उनके कारण व घातक अन्य पदार्थोंमें राग-द्वेष
करता है। तथा जिनसे द्वेष है उनके कारण व घातक अन्य पदार्थोंमें द्वेष व राग करता
है। इसी प्रकार राग-द्वेषकी परम्परा प्रवर्तती है।
तथा कितने ही बाह्य पदार्थ शरीरकी अवस्थाको कारण नही हैं उनमें भी राग-द्वेष
करता है। जैसेगाय आदिको बच्चोंसे कुछ शरीरका इष्ट नहीं होता तथापि वहाँ राग करते
हैं और कुत्ते आदिको बिल्ली आदिसे कुछ शरीरका अनिष्ट नहीं होता तथापि वहाँ द्वेष करते
हैं। तथा कितने ही वर्ण, गंध, शब्दादिके अवलोकनादिकसे शरीरको इष्ट नहीं होता तथापि
उनमें राग करता है। कितने ही वर्णादिकके अवलोकनादिकसे शरीरको अनिष्ट नहीं होता
तथापि उनमें द्वोष करता है।
इस प्रकार भिन्न बाह्य पदार्थोंमें राग-द्वेष होता है।
तथा इनमें भी जिनसे राग करता है उनके कारण और घातक अन्य पदार्थोंमें राग
व द्वेष करता है। और जिनसे द्वेष करता है उनके कारण और घातक अन्य पदार्थोंमें
द्वेष व राग करता है। इसी प्रकार यहाँ भी राग-द्वेषकी परम्परा प्रवर्तती है।
यहाँ प्रश्न है किअन्य पदार्थोंमें तो राग-द्वेष करनेका प्रयोजन जाना, परन्तु प्रथम
ही मूलभूत शरीरकी अवस्थामें तथा जो शरीरकी अवस्थाको कारण नहीं हैं, उन पदार्थोंमें
इष्ट-अनिष्ट माननेका प्रयोजन क्या है?
समाधान :जो प्रथम मूलभूत शरीरकी अवस्था आदिक हैं, उनमें भी प्रयोजन
विचारकर राग-द्वेष करे तो मिथ्याचारित्र नाम क्यों पाये? उनमें बिना ही प्रयोजन राग-द्वेष
करता है और उन्हींके अर्थ अन्यसे राग-द्वेष करता है, इसलिये सर्व राग-द्वेष परिणतिका
नाम मिथ्याचारित्र कहा है।

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९२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
यहाँ प्रश्न है किशरीरकी अवस्था एवं बाह्य पदार्थोंमें इष्ट-अनिष्ट माननेका प्रयोजन
तो भासित नहीं होता और इष्ट-अनिष्ट माने बिना रहा भी नहीं जाता; सो कारण क्या?
समाधानःइस जीवके चारित्रमोहके उदयसे राग-द्वेषभाव होते हैं और वे भाव किसी
पदार्थके आश्रय बिना हो नहीं सकते। जैसेराग हो तो किसी पदार्थमें होता है, द्वेष हो
तो किसी पदार्थमें होता है।इस प्रकार उन पदार्थोंके और राग-द्वेषके निमित्त-नैमित्तिक
सम्बन्ध है। वहाँ विशेष इतना है किकितने ही पदार्थ तो मुख्यरूपसे रागके कारण हैं
और कितने ही पदार्थ मुख्यरूपसे द्वेषके कारण हैं। कितने ही पदार्थ किसीको किसी कालमें
रागके कारण होते हैं तथा किसीको किसी कालमें द्वेषके कारण होते हैं।
यहाँ इतना जाननाएक कार्य होनेमें अनेक कारण चाहिये सो रागादिक होनेमें
अन्तरंग कारण मोहका उदय है वह तो बलवान है और बाह्य कारण पदार्थ है वह बलवान
नहीं है। महा मुनियोंको मोह मन्द होनेसे बाह्य पदार्थोंका निमित्त होने पर भी राग-द्वेष उत्पन्न
नहीं होते। पापी जीवोंको मोह तीव्र होनेसे बाह्य कारण न होने पर भी उनके संकल्पहीसे
राग-द्वेष होते हैं। इसलिये मोहका उदय होनेसे रागादिक होते हैं। वहाँ जिस बाह्य पदार्थके
आश्रयसे रागभाव होना हो, उसमें बिना ही प्रयोजन अथवा कुछ प्रयोजनसहित इष्टबुद्धि होती
है। तथा जिस पदार्थके आश्रयसे द्वेषभाव होना हो उसमें बिना ही प्रयोजन अथवा कुछ
प्रयोजनसहित अनिष्टबुद्धि होती है। इसलिये मोहके उदयसे पदार्थोंको इष्ट-अनिष्ट माने बिना
रहा नहीं जाता।
इस प्रकार पदार्थोंमें इष्ट-अनिष्टबुद्धि होने पर जो राग-द्वेषरूप परिणमन होता है, उसका
नाम मिथ्याचारित्र जानना।
तथा इन राग-द्वेषोंहीके विशेष क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक,
भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेदरूप कषायभाव हैं; वे सब इस मिथ्याचारित्रहीके
भेद जानना। इनका वर्णन पहले किया ही है
तथा इस मिथ्याचारित्रमें स्वरूपाचरणचारित्रका अभाव है, इसलिये इसका नाम अचारित्र
भी कहा जाता है। तथा यहाँ वे परिणाम मिटते नहीं हैं अथवा विरक्त नहीं हैं, इसलिये
इसीका नाम असंयम कहा जाता है या अविरति कहा जाता है। क्योंकि पाँच इन्द्रियाँ और
मनके विषयोंमें तथा पंचस्थावर और त्रसकी हिंसामें स्वच्छन्दपना हो तथा उनके त्यागरूप भाव
नहीं हो, वही बारह प्रकारका असंयम या अविरति है। कषायभाव होने पर ऐसे कार्य होते
हैं, इसलिये मिथ्याचारित्रका नाम असंयम या अविरति जानना। तथा इसीका नाम अव्रत
१. पृष्ठ ३८, ५२

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चौथा अधिकार ][ ९३
जाननाक्योंकि हिंसा, अनृत, अस्तेय, अब्रह्म, परिग्रहइन पापकार्योंमें प्रवृत्तिका नाम अव्रत
है। इनका मूलकारण प्रमत्तयोग कहा है। प्रमत्तयोग है वह कषायमय है, इसलिये
मिथ्याचारित्रका नाम अव्रत भी कहा जाता है।
ऐसे मिथ्याचारित्रका स्वरूप कहा।
इसप्रकार इस संसारी जीवके मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्ररूप परिणमन अनादिसे
पाया जाता है। ऐसा परिणमन एकेन्द्रियादि असंज्ञी पर्यन्त तो सर्व जीवोंके पाया जाता है। तथा
संज्ञी पंचेन्द्रियोंमें सम्यग्दृष्टिको छोड़कर अन्य सर्व जीवोंके ऐसा ही परिणमन पाया जाता है।
परिणमनमें जैसा जहाँ संभव हो वैसा वहाँ जानना। जैसे
एकेन्द्रियादिकोंको इन्द्रियादिककी हीनता-
अधिकता पाई जाती है और धन-पुत्रादिकका सम्बन्ध मनुष्यादिकको ही पाया जाता है। इन्हींके
निमित्तसे मिथ्यादर्शनादिकका वर्णन किया है। उसमें जैसा विशेष संभव हो वैसा जानना।
तथा एकन्द्रियादिक जीव इन्द्रिय, शरीरादिकका नाम नहीं जानते; परन्तु उस नामके
अर्थरूप जो भाव है उसमें पूर्वोक्त प्रकारसे परिणमन पाया जाता है। जैसेमैं स्पर्शनसे
स्पर्श करता हूँ। शरीर मेरा है ऐसा नाम नहीं जानता, तथापि उसके अर्थरूप जो भाव
है उसरूप परिणमित होता है। तथा मनुष्यादिक कितने ही नाम भी जानते हैं और उनके
भावरूप परिणमन करते हैं
इत्यादि विशेष सम्भव हैं उन्हें जान लेना।
मोहकी महिमा
ऐसे ये मिथ्यादर्शनादिक भाव जीवके अनादिसे पाये जाते हैं, नवीन ग्रहण नहीं किये
हैं। देखो इसकी महिमा, कि जो पर्याय धारण करता है वहाँ बिना ही सिखाये मोहके उदयसे
स्वयमेव ऐसा ही परिणमन होता है। तथा मनुष्यादिकको सत्यविचार होनेके कारण मिलने
पर भी सम्यक्परिणमन नहीं होता; और श्रीगुरुके उपदेशका निमित्त बने, वे बारम्बार समझायें,
परन्तु यह कुछ विचार नहीं करता। तथा स्वयंको भी प्रत्यक्ष भासित हो वह तो नहीं मानता
और अन्यथा ही मानता है। किस प्रकार? सो कहते हैंः
मरण होने पर शरीर-आत्मा प्रत्यक्ष भिन्न होते हैं। एक शरीरको छोड़कर आत्मा अन्य
शरीर धारण करता है; वहाँ व्यन्तरादिक अपने पूर्वभवका सम्बन्ध प्रगट करते देखे जाते हैं;
परन्तु इसको शरीरसे भिन्नबुद्धि नहीं हो सकती। स्त्री-पुत्रादिक अपने स्वार्थके सगे प्रत्यक्ष
देखे जाते हैं; उनका प्रयोजन सिद्ध न हो तभी विपरीत होते दिखाई देते हैं; यह उनमें
ममत्व करता है और उनके अर्थ नरकादिकमें गमनके कारणभूत नानाप्रकारके पाप उत्पन्न करता

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९४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
है। धनादिक सामग्री किसीकी किसीके होती देखी जाती है, यह उन्हें अपनी मानता है।
तथा शरीरकी अवस्था और बाह्य सामग्री स्वयमेव उत्पन्न होती तथा विनष्ट होती दिखाई देती
है, यह वृथा स्वयं कर्त्ता होता है। वहाँ जो कार्य अपने मनोरथके अनुसार होता है उसे
तो कहता है
‘मैंने किया’; और अन्यथा हो तो कहता है‘मैं क्या करूँ?’ ऐसा ही होना
था अथवा ऐसा क्यों हुआ?ऐसा मानता है। परन्तु या तो सर्वथा कर्त्ता ही होना था
या अकर्त्ता रहना था, सो विचार नहीं है।
तथा मरण अवश्य होगा ऐसा जानता है, परन्तु मरणका निश्चय करके कुछ कर्त्तव्य
नहीं करता; इस पर्याय सम्बन्धी ही यत्न करता है। तथा मरणका निश्चय करके कभी तो
कहता है कि
मैं मरूँगा और शरीरको जला देंगे। कभी कहता हैमुझे जला देंगे।
कभी कहता हैयश रहा तो हम जीवित ही हैं। कभी कहता हैपुत्रादिक रहेंगे तो
मैं ही जीऊँगा।इस प्रकार पागलकी भाँति बकता है, कुछ सावधानी नहीं है।
तथा अपनेको परलोकमें जाना है यह प्रत्यक्ष जानता है; उसके तो इष्ट-अनिष्टका यह
कुछ भी उपाय नहीं करता और यहाँ पुत्र, पौत्र आदि मेरी सन्ततिमें बहुत काल तक इष्ट
बना रहे
अनिष्ट न हो; ऐसे अनेक उपाय करता है। किसीके परलोक जानेके बाद इस
लोककी सामग्री द्वारा उपकार हुआ देखा नहीं है, परन्तु इसको परलोक होनेका निश्चय होने
पर भी इस लोककी सामग्रीका ही पालन रहता है।
तथा विषय-कषायोंकी परिणतिसे तथा हिंसादि कार्यों द्वारा स्वयं दुःखी होता है,
खेदखिन्न होता है, दूसरोंका शत्रु होता है, इस लोकमें निंद्य होता है, परलोकमें बुरा होता
है
ऐसा स्वयं प्रत्यक्ष जानता है तथापि उन्हींमें प्रवर्तता है।इत्यादि अनेक प्रकारसे प्रत्यक्ष
भासित हो उसका भी अन्यथा श्रद्धान करता है, जानता है, आचरण करता है; सो यह
मोहका माहात्म्य है।
इस प्रकार यह जीव अनादिसे मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणमित हो रहा है। इसी
परिणमनसे संसारमें अनेक प्रकारका दुःख उत्पन्न करनेवाले कर्मोंका सम्बन्ध पाया जाता है।
यही भाव दुःखोंके बीज हैं अन्य कोई नहीं।
इसलिये हे भव्य! यदि दुःखोंसे मुक्त होना चाहता है तो इन मिथ्यादर्शनादिक
विभावभावोंका अभाव करना ही कार्य है; इस कार्यके करनेसे तेरा परम कल्याण होगा।
इति श्री मोक्षमार्गप्रकाशक नामक शास्त्रमें मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रके निरूपणरूप
चौथा अधिकार समाप्त हुआ ।।।।

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पाँचवाँ अधिकार
विविधमत-समीक्षा
दोहाःबहुविधि मिथ्या गहनकरि, मलिन भयो निज भाव,
ताको होत अभाव है, सहजरूप दरसाव
।।
अब, यह जीव पूर्वोक्त प्रकारसे अनादिहीसे मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणमित हो
रहा है। उससे संसारमें दुःख सहता हुआ कदाचित् मनुष्यादि पर्यायोंमें विशेष श्रद्धानादि करनेकी
शक्तिको पाता है। वहाँ यदि विशेष मिथ्याश्रद्धानादिकके कारणोंसे उन मिथ्याश्रद्धानादिकका
पोषण करे तो उस जीवका दुःखसे मुक्त होना अति दुर्लभ होता है।
जैसे कोई पुरुष रोगी है, वह कुछ सावधानीको पाकर कुपथ्य सेवन करे तो उस
रोगीका सुलझना कठिन ही होगा। उसी प्रकार यह जीव मिथ्यात्वादि सहित है, वह कुछ
ज्ञानादि शक्तिको पाकर विशेष विपरीत श्रद्धानादिकके कारणोंका सेवन करे तो इस जीवका
मुक्त होना कठिन ही होगा।
इसलिये जिस प्रकार वैद्य कुपथ्योंके विशेष बतलाकर उनके सेवनका निषेध करता
है, उसी प्रकार यहाँ विशेष मिथ्याश्रद्धानादिकके कारणोंका विशेष बतलाकर उनका निषेध करते
हैं।
यहाँ अनादिसे जो मिथ्यात्वादिभाव पाये जाते हैं उन्हें तो अगृहीत मिथ्यात्वादि जानना,
क्योंकि वे नवीन ग्रहण नहीं किये हैं। तथा उनके पुष्ट करनेके कारणोंसे विशेष मिथ्यात्वादिभाव
होते हैं, उन्हें गृहीत मिथ्यात्वादि जानना। वहाँ अगृहीत मिथ्यात्वादिका वर्णन तो पहले किया
है वह जानना और अब गृहीत मिथ्यात्वादिका निरूपण करते हैं सो जानना।

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९६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
कुदेव-कुगुरु-कुधर्म और कल्पित तत्त्वोंका श्रद्धान तो मिथ्यादर्शन है। तथा जिनमें
विपरीत निरूपण द्वारा रागादिका पोषण किया हो ऐसे कुशास्त्रोंमें श्रद्धानपूर्वक अभ्यास सो
मिथ्याज्ञान है। तथा जिस आचरणमें कषायोंका सेवन हो और उसे धर्मरूप अंगीकार करें
सो मिथ्याचारित्र है।
अब, इन्हींको विशेष बतलाते हैंः
इन्द्र, लोकपाल इत्यादि; तथा अद्वैत ब्रह्म, राम, कृष्ण, महादेव, बुद्ध, खुदा, पीर, पैगम्बर
इत्यादि; तथा हनुमान, भैरों, क्षेत्रपाल, देवी, दहाड़ी, सती इत्यादि; तथा शीतला, चौथ, सांझी,
गनगौर, होली इत्यादि; तथा सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, औत, पितृ, व्यन्तर इत्यादि; तथा गाय, सर्प
इत्यादि; तथा अग्नि, जल, वृक्ष इत्यादि; तथा शस्त्र, दवात, बर्तन इत्यादि अनेक हैं; उनका
अन्यथा श्रद्धान करके उनको पूजते हैं और उनसे अपना कार्य सिद्ध करना चाहते हैं, परन्तु
वे कार्यसिद्धिके कारण नहीं हैं। इसलिये ऐसे श्रद्धानको गृहितमिथ्यात्व कहते हैं।
वहाँ उनका अन्यथा श्रद्धान कैसे होता है सो कहते हैंः
सर्वव्यापी अद्वैत ब्रह्म
अद्वैत ब्रह्मको सर्वव्यापी सर्वका कर्त्ता मानते हैं, सो कोई है नहीं। प्रथम उसे
सर्वव्यापी मानते हैं सो सर्व पदार्थ तो न्यारे-न्यारे प्रत्यक्ष हैं तथा उनके स्वभाव न्यारे-न्यारे
देखे जाते हैं, उन्हें एक कैसे माना जाये? इनका मानना तो इन प्रकारोंसे हैः
एक प्रकार तो यह है किसर्व न्यारे-न्यारे हैं, उनके समुदायकी कल्पना करके उसका
कुछ नाम रख लें। जैसे घोड़ा, हाथी आदि भिन्न-भिन्न हैं; उनके समुदायका नाम सेना है,
उनसे भिन्न कोई सेना वस्तु नहीं है। सो इस प्रकारसे सर्व पदार्थ जिनका नाम ब्रह्म है वह
ब्रह्म कोई भिन्न वस्तु तो सिद्ध नहीं हुई, कल्पना मात्र ही ठहरी।
तथा एक प्रकार यह है किव्यक्ति अपेक्षा तो न्यारे-न्यारे हैं, उन्हें जाति अपेक्षा
कल्पनासे एक कहा जाता है। जैसेसौ घोड़े हैं सो व्यक्ति अपेक्षा तो भिन्न-भिन्न सौ ही
हैं, उनके आकारादिकी समानता देखकर एक जाति कहते हैं, परन्तु वह जाति उनसे कोई
‘सर्व वैखल्विदं ब्रह्म’ छान्दोग्योपनिषद् प्र० खं० १४ मं० १
‘नेह नानास्तिर्किचन’ कठोपनिषद् अ० २ व० ४१ मं० ११
ब्रह्मैवेदममृतं पुरस्ताद ब्रह्मदक्षिणतपश्चोत्तरेण।
अघश्चोर्ध्वं च प्रसृतं ब्रह्मैवेदं विश्वमिदं वरिष्ठम् ।। मुण्डको० खं० ३ मं० ११

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पाँचवाँ अधिकार ][ ९७
भिन्न ही तो है नहीं। सो इस प्रकारसे यदि सबहीकी किसी एक जाति- अपेक्षा एक ब्रह्म
माना जाय तो ब्रह्म कोई भिन्न तो सिद्ध हुआ नहीं।
तथा एक प्रकार यह है किपदार्थ न्यारे-न्यारे हैं, उनके मिलापसे एक स्कन्ध हो
उसे एक कहते हैं। जैसे जलके परमाणु न्यारे-न्यारे हैं, उनका मिलाप होने पर समुद्रादि
कहते हैं; तथा जैसे पृथ्वीके परमाणुओंका मिलाप होने पर घट आदि कहते हैं; परन्तु यहाँ
समुद्रादि व घटादिक हैं, वे उन परमाणुओंसे भिन्न कोई अलग वस्तु तो नहीं है। सो इस
प्रकारसे सर्व पदार्थ न्यारे-न्यारे हैं, परन्तु कदाचित् मिलकर एक हो जाते हैं वह ब्रह्म है
ऐसा माना जाये तो इनसे अलग तो कोई ब्रह्म सिद्ध नहीं हुआ।
तथा एक प्रकार यह है किअंग तो न्यारे-न्यारे हैं और जिसके अंग हैं वह अंगी
एक है। जैसे नेत्र, हस्त, पदादिक भिन्न-भिन्न हैं और जिसके यह हैं वह मनुष्य एक है।
सो इस प्रकारसे यह सर्व पदार्थ तो अंग हैं और जिसके यह हैं वह अंगी ब्रह्म है। यह
सर्व लोक विराट स्वरूप ब्रह्मका अंग है
ऐसा मानते हैं तो मनुष्यके हस्तपादादिक अंगोंमें
परस्पर अन्तराल होने पर तो एकत्वपना नहीं रहता, जुड़े रहने पर ही एक शरीर नाम पाते
हैं। सो लोकमें तो पदार्थोंके परस्पर अन्तराल भासित होता है; फि र उसका एकत्वपना कैसे
माना जाय? अन्तराल होने पर भी एकत्व मानें तो भिन्नपना कहाँ माना जायेगा?
यहाँ कोई कहे किसमस्त पदार्थोंके मध्यमें सूक्ष्मरूप ब्रह्मके अंग हैं उनके द्वारा सब
जुड़ रहे हैं। उससे कहते हैंः
जो अंग जिस अंगसे जुड़ा है वह उसीसे जुड़ा रहता है या टूट-टूटकर अन्य-अन्य
अंगोंसे जुड़ता रहता है? यदि प्रथम पक्ष ग्रहण करेगा तो सूर्यादि गमन करते हैं, उनके
साथ जिन सूक्ष्म अंगोंसे वह जुड़ता है वे गमन करेंगे। तथा उनके गमन करनेसे वे सूक्ष्म
अंग अन्य स्थूल अंगोंसे जुड़े रहते हैं वे भी गमन करेंगे
इस प्रकार सर्वलोक अस्थिर हो
जायेगा। जिस प्रकार शरीरका एक अंग खींचने पर सर्व अंग खिच जाते हैं; उसी प्रकार
एक पदार्थके गमनादि करनेसे सर्व पदार्थोंके गमनादि होंगे सो भासित नहीं होता। तथा यदि
द्वितीय पक्ष ग्रहण करेगा तो अंग टूटनेसे भिन्नपना हो ही जाता है, तब एकत्वपना कैसे
रहा? इसलिये सर्व-लोकके एकत्वको ब्रह्म मानना कैसे सम्भव हो सकता है?
तथा एक प्रकार यह है किपहले एक था, फि र अनेक हुआ, फि र एक हो जाता
है; इसलिये एक है। जैसे जल एक था, सो बर्तनोंमें अलग-अलग हुआ, फि र मिलता है
तब एक हो जाता है। तथा जैसे
सोनेका एक डला था, सो कंकन-कुण्डलादिरूप हुआ,

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९८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
फि र मिलकर सोनेका डला हो जाता है। उसी प्रकार ब्रह्म एक था, फि र अनेकरूप हुआ
और फि र एक होगा, इसलिये एक ही है।
इस प्रकार एकत्व मानता है तो जब अनेकरूप हुआ तब जुड़ा रहा या भिन्न हुआ?
यदि जुड़ा रहा कहेगा तो पूर्वोक्त दोष आयेगा। भिन्न हुआ कहेगा तो उस काल तो एकत्व
नहीं रहा। तथा जल, सुवर्णादिकको भिन्न होने पर भी एक कहते हैं वह तो एक जाति
अपेक्षासे कहते हैं, परन्तु यहाँ सर्व पदार्थोंकी एक जाति भासित नहीं होती। कोई चेतन
है, कोई अचेतन है, इत्यादि अनेक रूप हैं; उनकी एक जाति कैसे कहें? तथा पहले एक
था, फि र भिन्न हुआ मानते हैं तो जैसे एक पाषाण फू टकर टुकड़े हो जाता है उसी प्रकार
ब्रह्मके खण्ड हो गये, फि र उनका इकट्ठा होना मानता है तो वहाँ उनका स्वरूप भिन्न रहता
है या एक हो जाता है? यदि भिन्न रहता है तो वहाँ अपने-अपने स्वरूपसे भिन्न ही हैं
और एक हो जाते हैं तो जड़ भी चेतन हो जायेगा व चेतन जड़ हो जायगा। वहाँ अनेक
वस्तुओंकी एक वस्तु हुई तब किसी कालमें अनेक वस्तु, किसी कालमें एक वस्तु ऐसा कहना
बनेगा, ‘अनादि-अनन्त एक ब्रह्म है’
ऐसा कहना नहीं बनेगा।
तथा यदि कहेगा कि लोक-रचना होनेसे व न होनेसे ब्रह्म जैसाका तैसा ही रहता है,
इसलिये ब्रह्म अनादि-अनन्त है। तो हम पूछते हैं कि लोकमें पृथ्वी, जलादिक देखे जाते हैं वे
अलग नवीन उत्पन्न हुए हैं या ब्रह्म ही इन स्वरूप हुआ है? यदि अलग नवीन उत्पन्न हुए हैं
तो वे न्यारे हुए, ब्रह्म न्यारा रहा; सर्वव्यापी अद्वैत ब्रह्म नहीं ठहरा। तथा यदि ब्रह्म ही इन
स्वरूप हुआ तो कदाचित् लोक हुआ, कदाचित् ब्रह्म हुआ, फि र जैसाका तैसा कैसा रहा?
तथा वह कहता है किसभी ब्रह्म तो लोकस्वरूप नहीं होता, उसका कोई अंश
होता है। उससे कहते हैंजैसे समुद्रका एक बिन्दु विषरूप हुआ, वहाँ स्थूल दृष्टिसे तो
गम्य नहीं है, परन्तु सूक्ष्मदृष्टि देने पर तो बिन्दु अपेक्षा समुद्रके अन्यथापना हुआ। उसी
प्रकार ब्रह्मका एक अंश भिन्न होकर लोकरूप हुआ, वहाँ स्थूल विचारसे तो गम्य नहीं है,
परन्तु सूक्ष्म विचार करने पर तो एक अंश अपेक्षासे ब्रह्मके अन्यथापना हुआ। यह अन्यथापना
और तो किसीके हुआ नहीं है।
इस प्रकार सर्वरूप ब्रह्मको मानना भ्रम ही है।
तथा एक प्रकार यह है
जैसे आकाश सर्वव्यापी एक है, उसी प्रकार ब्रह्म सर्वव्यापी
एक है। यदि इस प्रकार मानता है तो आकाशवत् बड़ा ब्रह्मको मान और जहाँ घटपटादिक
हैं वहाँ जिस प्रकार आकाश है उसी प्रकार ब्रह्म भी है
ऐसा भी मान, परन्तु जिस प्रकार

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पाँचवाँ अधिकार ][ ९९
घटपटादिकको और आकाशको एक ही कहें तो कैसे बनेगा? उसी प्रकार लोकको और ब्रह्मको
एक मानना कैसे सम्भव है। तथा आकाशका लक्षण तो सर्वत्र भासित है, इसलिये उसका
तो सर्वत्र सद्भाव मानते हैं; ब्रह्मका लक्षण तो सर्वत्र भासित नहीं होता, इसलिये उसका
सर्वत्र सद्भाव कैसे मानें। इस प्रकारसे भी सर्वरूप ब्रह्म नहीं है।
ऐसा विचार करने पर किसी भी प्रकारसे एक ब्रह्म सम्भवित नहीं है। सर्व पदार्थ
भिन्न - भिन्न ही भासित होते हैं।
यहाँ प्रतिवादी कहता है किसर्व एक ही है, परन्तु तुम्हें भ्रम है, इसलिये तुम्हें एक
भासित नहीं होता। तथा तुमने युक्ति कही सो ब्रह्मका स्वरूप युक्तिगम्य नहीं है, वचन-अगोचर
है। एक भी है; अनेक भी है; भिन्न भी है, मिला भी है। उसकी महिमा ऐसी ही है।
उससे कहते हैं किप्रत्यक्ष तुझको व हमको व सबको भासित होता है उसे तो
तू भ्रम कहता है। और युक्तिसे अनुमान करें सो तू कहता है कि सच्चा स्वरूप युक्तिगम्य
है ही नहीं। तथा वह कहता है
सच्चा स्वरूप वचन-अगोचर है तो वचन बिना कैसे निर्णय
करें? तथा कहता हैएक भी है, अनेक भी है; भिन्न भी है, मिला भी है; परन्तु उनकी
अपेक्षा नहीं बतलाता; बावलेकी भाँति ऐसे भी है, ऐसे भी हैऐसा कहकर इसकी महिमा
बतलाता है। परन्तु जहाँ न्याय नहीं होता वहाँ झूठे ऐसा ही वाचालपना करते हैं सो करो,
न्याय तो जिस प्रकार सत्य है उसी प्रकार होगा।
सृष्टिकर्त्तावादका निराकरण
तथा अब, ब्रह्मको लोकका कर्त्ता मानता है उसे मिथ्या दिखलाते हैं।
प्रथम तो ऐसा मानता है कि ब्रह्मको ऐसी इच्छा हुई कि
‘एकोऽहं बहुस्यां’ अर्थात्
मैं एक हूँ सो बहुत होऊँगा।
वहाँ पूछते हैंपूर्व अवस्थामें दुःखी हो तब अन्य अवस्थाको चाहे। सो ब्रह्मने एक
अवस्थासे बहुतरूप होनेकी इच्छा की तो उस एकरूप अवस्थामें क्या दुःख था? तब वह
कहता है कि दुःख तो नहीं था, ऐसा ही कौतूहल उत्पन्न हुआ। उसे कहते हैं
यदि पहले
थोड़ा सुखी हो और कौतूहल करनेसे बहुत सुखी हो तो कौतूहल करनेका विचार करे।
सो ब्रह्मको एक अवस्थासे बहुत अवस्थारूप होने पर बहुत सुख होना कैसे सम्भव है? और
यदि पूर्व सम्पूर्ण सुखी हो तो अवस्था किसलिये पलटे? प्रयोजन बिना तो कोई कुछ कर्त्तव्य
करता नहीं है।

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१०० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा पहले भी सुखी होगा इच्छानुसार कार्य होने पर भी सुखी होगा; परन्तु इच्छा
हुई उस काल तो दुःखी होगा? तब वह कहता हैब्रह्मके जिस काल इच्छा होती है उसी
काल ही कार्य होता है, इसलिये दुःखी नहीं होता। वहाँ कहते हैंस्थूल कालकी अपेक्षा
तो ऐसा मानो; परन्तु सूक्ष्म कालकी अपेक्षा तो इच्छाका और कार्यका होना युगपत् सम्भव
नहीं है। इच्छा तो तभी होती है जब कार्य न हो। कार्य हो तब इच्छा नहीं रहती।
इसलिये सूक्ष्म कालमात्र इच्छा रही तब तो दुःखी हुआ होगा; क्योंकि इच्छा है सो ही दुःख
है और कोई दुःखका स्वरूप है नहीं। इसलिए ब्रह्मके इच्छा कैसे बने?
फि र वे कहते हैं किइच्छा होने पर ब्रह्मकी माया प्रगट हुई; वहाँ ब्रह्मको माया
हुई तब ब्रह्म भी मायावी हुआ, शुद्धस्वरूप कैसे रहा? तथा ब्रह्मको और मायाको दण्डी-
दण्डवत् संयोगसम्बन्ध है कि अग्नि-उष्णवत् समवायसम्बन्ध है। जो संयोगसम्बन्ध है तो ब्रह्म
भिन्न है, माया भिन्न है; अद्वैत ब्रह्म कैसे रहा? तथा जैसे दण्डी दण्डको उपकारी जानकर
ग्रहण करता है तैसे ब्रह्म मायाको उपकारी जानता है तो ग्रहण करता है, नहीं तो क्यों
ग्रहण करे? तथा जिस मायाको ब्रह्म ग्रहण करे उसका निषेध करना कैसे सम्भव है? वह
तो उपादेय हुई। तथा यदि समवायसम्बन्ध है तो जैसे अग्निका उष्णत्व स्वभाव है वैसे
ब्रह्मका माया स्वभाव ही हुआ। जो ब्रह्मका स्वभाव है उसका निषेध करना कैसे सम्भव
है? यह तो उत्तम हुई।
फि र वे कहते हैं कि ब्रह्म तो चैतन्य है, माया जड़ है; सो समवायसम्बन्धमें ऐसे
दो स्वभाव सम्भवित नहीं होते। जैसे प्रकाश और अन्धकार एकत्र कैसे सम्भव हैं?
तथा वह कहता हैमायासे ब्रह्म आप तो भ्रमरूप होता नहीं है, उसकी मायासे
जीव भ्रमरूप होता है। उससे कहते हैंजिस प्रकार कपटी अपने कपटको आप जानता
है सो आप भ्रमरूप नहीं होता, उसके कपटसे अन्य भ्रमरूप हो जाता है। वहाँ कपटी
तो उसीको कहते हैं जिसने कपट किया, उसके कपटसे अन्य भ्रमरूप हुए उन्हें तो कपटी
नहीं कहते। उसी प्रकार ब्रह्म अपनी मायाको आप जानता है सो आप तो भ्रमरूप नहीं
होता, परन्तु उसकी मायासे अन्य जीव भ्रमरूप होते हैं। वहाँ मायावी तो ब्रह्मको ही कहा
जायगा, उसकी मायासे अन्य जीव भ्रमरूप हुए उन्हें मायावी किसलिये कहते हैं?
फि र पूछते हैं किवे जीव ब्रह्मसे एक हैं? या न्यारे हैं? यदि एक हैं तो जैसे
कोई आप ही अपने अंगोंको पीड़ा उत्पन्न करे तो उसे बावला कहते हैं; उसी प्रकार ब्रह्म
आप ही जो अपनेसे भिन्न नहीं हैं ऐसे अन्य जीव, उनको मायासे दुःखी करता है सो कैसे

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पाँचवा अधिकार ][ १०१
बनेगा? तथा जो न्यारे हैं तो जैसे कोई भूत बिना ही प्रयोजन अन्य जीवोंको भ्रम उत्पन्न
करके पीड़ा उत्पन्न करता है, उसी प्रकार ब्रह्म बिना ही प्रयोजन अन्य जीवोंको माया उत्पन्न
करके पीड़ा उत्पन्न करे सो भी बनता नहीं है।
इस प्रकार माया ब्रह्मकी कहते हैं सो कैसे सम्भव है?
फि र वे कहते हैं
माया होने पर लोक उत्पन्न हुआ, वहाँ जीवोंके जो चेतना है
वह तो ब्रह्मस्वरूप है, शरीरादिक माया है। वहाँ जिस प्रकार भिन्न-भिन्न बहुतसे पात्रोंमें जल
भरा है, उन सबमें चन्द्रमाका प्रतिबिम्ब अलग-अलग पड़ता है, चन्द्रमा एक है; उसी प्रकार
अलग-अलग बहुतसे शरीरोंमें ब्रह्मका चैतन्यप्रकाश अलग-अलग पाया जाता है। ब्रह्म एक
है, इसलिये जीवोंके चेतना है सो ब्रह्मकी है।
ऐसा कहना भी भ्रम ही है; क्योंकि शरीर जड़ है, इसमें ब्रह्मके प्रतिबिम्बसे चेतना हुई,
तो घट-पटादि जड़ हैं उनमें ब्रह्मका प्रतिबिम्ब क्यों नहीं पड़ा और चेतना क्यों नहीं हुई?
तथा वह कहता हैशरीरको तो चेतन नहीं करता, जीवको करता है।
तब उससे पूछते हैं कि जीवका स्वरूप चेतन है या अचेतन? यदि चेतन है तो
चेतनका चेतन क्या करेगा? अचेतन है तो शरीरकी व घटादिककी व जीवकी एक जाति
हुई। तथा उससे पूछते हैं
ब्रह्मकी और जीवोंकी चेतना एक है या भिन्न है? यदि एक
है तो ज्ञानका अधिक-हीनपना कैसे देखा जाता है? तथा यह जीव परस्परवह उसकी
जानीको नहीं जानता और वह उसकी जानीको नहीं जानता, सो क्या कारण है? यदि तू
कहेगा, यह घटउपाधि भेद है; तो घटउपाधि होनेसे तो चेतना भिन्न-भिन्न ठहरी। घटउपाधि
मिटने पर इसकी चेतना ब्रह्ममें मिलेगी या नाश हो जायगी? यदि नाश हो जायेगी तो यह
जीव तो अचेतन रह जायेगा और तू कहेगा कि जीव ही ब्रह्ममें मिल जाता है तो वहाँ
ब्रह्ममें मिलने पर इसका अस्तित्व रहता है या नहीं रहता? यदि अस्तित्व रहता है तो यह
रहा, इसकी चेतना इसके रही; ब्रह्ममें क्या मिला? और यदि अस्तित्व नहीं रहता है तो
उसका नाश ही हुआ; ब्रह्ममें कौन मिला? यदि तू कहेगा कि ब्रह्मकी और जीवोंकी चेतना
भिन्न है, तो ब्रह्म और सर्व जीव आप ही भिन्न-भिन्न ठहरे। इस प्रकार जीवोंको चेतना
है सो ब्रह्मकी है
ऐसा भी नहीं बनता।
शरीरादि मायाके कहते हो सो माया ही हाड़-मांसादिरूप होती है या मायाके निमित्तसे
और कोई उनरूप होता है। यदि माया ही होती है तो मायाके वर्ण-गंधादिक पहले ही
थे या नवीन हुए हैं? यदि पहले ही थे तो पहले तो माया ब्रह्मकी थी, ब्रह्म अमूर्तिक है

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१०२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
वहाँ वर्णादि कैसे सम्भव हैं? यदि नवीन हुए तो अमूर्तिकका मूर्तिक हुआ, तब अमूर्तिक
स्वभाव शाश्वत नहीं ठहरा और यदि कहेगा कि
मायाके निमित्तसे और कोई होता है,
तब और पदार्थ तो तू ठहराता ही नहीं, फि र हुआ कौन?
यदि तू कहेगानवीन पदार्थ उत्पन्न होता है; तो वह मायासे भिन्न उत्पन्न होता
है या अभिन्न उत्पन्न होता है? मायासे भिन्न उत्पन्न हो तो मायामयी शरीरादिक किसलिये
कहता है, वे तो उन पदार्थमय हुए। और अभिन्न उत्पन्न हुए तो माया ही तद्रूप हुई, नवीन
पदार्थ उत्पन्न किसलिये कहता है?
इस प्रकार शरीरादिक मायास्वरूप हैं, ऐसा कहना भ्रम है।
तथा वे कहते हैं
मायासे तीन गुण उत्पन्न हुएराजस, तामस, सात्त्विक। सो यह
भी कहना कैसे बनेगा? क्योंकि मानादि कषायरूप भावको राजस कहते हैं, क्रोधादि-कषायरूप
भावको तामस कहते हैं, मन्दकषायरूप भावको सात्त्विक कहते हैं। सो यह भाव तो चेतनामय
प्रत्यक्ष देखे जाते हैं और मायाका स्वरूप जड़ कहते हो, सो जड़से यह भाव कैसे उत्पन्न
हों? यदि जड़के भी हों तो पाषाणादिकके भी होंगे, परन्तु चेतनास्वरूप जीवोंके ही यह
भाव दिखते हैं; इसलिये यह भाव मायासे उत्पन्न नहीं हैं। यदि मायाको चेतन ठहराये तो
यह मानें। सो मायाको चेतन ठहराने पर शरीरादिक मायासे उत्पन्न कहेगा तो नहीं मानेंगे।
इसलिये निर्धार कर; भ्रमरूप माननेसे लाभ क्या है।
तथा वे कहते हैंउन गुणोंसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश यह तीन देव प्रगट हुए सो कैसे
सम्भव है? क्योंकि गुणीसे तो गुण होता है, गुणसे गुणी कैसे उत्पन्न होगा? पुरुषसे तो
क्रोध होगा, क्रोधसे पुरुष कैसे उत्पन्न होगा? फि र इन गुणोंकी तो निन्दा करते हैं, इनसे
उत्पन्न हुए ब्रह्मादिकको पूज्य कैसे माना जाता है? तथा गुण तो मायामयी और इन्हें ब्रह्मके
अवतार कहा जाता है सो यह तो मायाके अवतार हुए, इनको ब्रह्मका अवतार *कैसे कहा
जाता है? तथा यह गुण जिनके थोड़े भी पाये जाते हैं उन्हें तो छुड़ानेका उपदेश देते हैं
और जो इन्हींकी मूर्ति उन्हें पूज्य मानें यह कैसा भ्रम है?
ब्रह्मा, विष्णु और शिव यह तीनों ब्रह्मकी प्रधान शक्तियाँ हैं। (‘विष्णु पुराण’ अ० २२-५८)
कलिकालके प्रारम्भमें परब्रह्म परमात्माने रजोगुणसे उत्पन्न होकर ब्रह्मा बनकर प्रजाकी रचना की।
प्रलयके समय तमोगुणसे उत्पन्न हो काल (शिव) बनकर सृष्टिको ग्रस लिया। उस परमात्माने सत्त्वगुणसे
उत्पन्न हो, नारायण बनकर समुद्रमें शयन किया।
(‘वायु पुराण’ अ० ७-६८, ६९)