Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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पाँचवाँ अधिकार ][ १०३
तथा उनका कर्त्तव्य भी इन मय भासित होता है। कौतूहलादिक व स्त्री-सेवनादिक
व युद्धादिक कार्य करते हैं सो उन राजसादि गुणोंसे ही यह क्रियाएँ होती हैं; इसलिये उनके
राजसादिक पाये जाते हैं ऐसा कहो। इन्हें पूज्य कहना, परमेश्वर कहना तो नहीं बनता।
जैसे अन्य संसारी हैं वैसे ये भी हैं।
तथा कदाचित् तू कहेगा किसंसारी तो मायाके आधीन हैं सो बिना जाने उन
कार्योंको करते हैं। माया ब्रह्मादिकके आधीन है, इसलिये वे जानते ही इन कार्योंको करते
हैं, सो यह भी भ्रम है। क्योंकि मायाके आधीन होनेसे तो काम-क्रोधादिक ही उत्पन्न होते
हैं और क्या होता है? सो उन ब्रह्मादिकोंके तो काम-क्रोधादिककी तीव्रता पायी जाती है।
कामकी तीव्रतासे स्त्रियोंके वशीभूत हुए नृत्य-गानादि करने लगे, विह्वल होने लगे, नानाप्रकार
कुचेष्टा करने लगे; तथा क्रोधके वशीभूत हुए अनेक युद्धादि करने लगे; मानके वशीभूत हुए
अपनी उच्चता प्रगट करनेके अर्थ अनेक उपाय करने लगे; मायाके वशीभूत हुए अनेक छल
करने लगे; लोभके वशीभूत हुए परिग्रहका संग्रह करने लगे
इत्यादि; अधिक क्या कहें?
इस प्रकार वशीभूत हुए चीर-हरणादि निर्लज्जोंकी क्रिया और दधि-लूटनादि चोरोंकी क्रिया तथा
रुण्डमाला धारणादि बावलोंकी क्रिया, *बहुरूप धारणादि भूतोंकी क्रिया, गायें चराना आदि
नीच कुलवालोंकी क्रिया इत्यादि जो निंद्य क्रियायें उनको तो करने लगे; इससे अधिक मायाके
वशीभूत होने पर क्या क्रिया होती सो समझमें नहीं आता?
जैसेकोई मेघपटल सहित अमावस्याकी रात्रिको अन्धकार रहित माने; उसी प्रकार
बाह्य कुचेष्टा सहित तीव्र काम-क्रोधादिकोंके धारी ब्रह्मादिकोंको मायारहित मानना है।
फि र वह कहता है किइनको काम-क्रोधादि व्याप्त नहीं होते, यह भी परमेश्वरकी
लीला है। इससे कहते हैंऐसे कार्य करता है वे इच्छासे करता है या बिना इच्छाके करता
है? यदि इच्छासे करता है तो स्त्रीसेवनकी इच्छाका ही नाम काम है, युद्ध करनेकी इच्छाका
ही नाम क्रोध है, इत्यादि इसी प्रकार जानना। और यदि बिना इच्छा करता है तो स्वयं
जिसे न चाहे ऐसा कार्य तो परवश होने पर ही होता है, सो परवशपना कैसे सम्भव है?
तथा तू लीला बतलाता है सो परमेश्वर अवतार धारण करके इन कार्योंकी लीला करता
है तो अन्य जीवोंको इन कार्योंसे छुड़ाकर मुक्त करनेका उपदेश किसलिये देते हैं? क्षमा,
सन्तोष, शील, संयमादिका उपदेश सर्व झूठा हुआ।
नानारूपाय मुण्डाय वरुथपृथुदण्डिने।
नमः कपालहस्ताय दिग्वासाय शिखण्डिने ।। (मत्स्य पुराण, अ० २५०, श्लोक २)

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१०४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
फि र वह कहता है कि परमेश्वरको तो कुछ प्रयोजन नहीं है। लोकरीतिकी प्रवृत्तिके
अर्थ वह भक्तोंकी रक्षा, दुष्टोंका निग्रहउसके अर्थ अवतार धारण करता है। तो इससे
पूछते हैंप्रयोजन बिना चींटी भी कार्य नहीं करती, परमेश्वर किसलिये करेगा? तथा तूने
प्रयोजन भी कहा किलोकरीतिकी प्रवृत्तिके अर्थ करता है। सो जैसे कोई पुरुष आप
कुचेष्टासे अपने पुत्रोंको सिखाये और वे चेष्टारूप प्रवर्तें तब उनको मारे तो ऐसे पिताको भला
कैसे कहेंगे? उसी प्रकार ब्रह्मादिक आप काम-क्रोधरूप चेष्टासे अपने उत्पन्न किये लोगों को
प्रवृत्ति करायें और वे लोग उस प्रकार प्रवृत्ति करें तब उन्हें नरकादिमें डाले। इन्हीं भावोंका
फल शास्त्रमें नरकादि लिखा है सो ऐसे प्रभुको भला कैसे मानें?
तथा तूने यह प्रयोजन कहा कि भक्तोंकी रक्षा, दुष्टोंका निग्रह करना। सो भक्तोंको
दुःखदायक जो दुष्ट हुए, वे परमेश्वरकी इच्छासे हुए या बिना इच्छासे हुए? यदि इच्छासे
हुए तो जैसे कोई अपने सेवकको आप ही किसीसे कहकर मराये और फि र उस मारनेवालेको
आप मारे, तो ऐसे स्वामीको भला कैसे कहेंगे? उसी प्रकार जो अपने भक्तको आप ही
इच्छासे दुष्टों द्वारा पीड़ित कराये और फि र उन दुष्टोंको आप अवतार धारण करके मारे,
तो ऐसे ईश्वरको भला कैसे माना जाये?
यदि तू कहेगा कि बिना इच्छा दुष्ट हुएतो या तो परमेश्वरको ऐसा आगामी ज्ञान
नहीं होगा कि यह दुष्ट मेरे भक्तोंको दुःख देंगे, या पहले ऐसी शक्ति नहीं होगी कि इनको
ऐसा न होने दे। तथा उससे पूछते हैं कि यदि ऐसे कार्यके अर्थ अवतार धारण किया,
सो क्या बिना अवतार धारण किये शक्ति थी या नहीं? यदि थी तो अवतार क्यों धारण
किया? और नहीं थी तो बादमें सामर्थ्य होनेका कारण क्या हुआ?
तब वह कहता हैऐसा किये बिना परमेश्वरकी महिमा प्रगट कैसे होती? उससे
पूछते हैं किअपनी महिमाके अर्थ अपने अनुचरोंका पालन करे, प्रतिपक्षियोंका निग्रह करे;
यही राग-द्वेष है। वह राग-द्वेष तो संसारी जीवका लक्षण है। यदि परमेश्वरके भी राग-
द्वेष पाये जाते हैं तो अन्य जीवोंको राग-द्वेष छोड़कर समताभाव करनेका उपदेश किसलिये
दें? तथा राग-द्वेषके अनुसार कार्य करनेका विचार किया, सो कार्य थोड़े व बहुत काल
लगे बिना होता नहीं है, तो उतने काल आकुलता भी परमेश्वरको होती होगी। जैसे जिस
कार्यको छोटा आदमी ही कर सकता हो उस कार्यको राजा स्वयं आकर करे तो कुछ राजाकी
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।।८।। (गीता ४-८)

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पाँचवाँ अधिकार ][ १०५
महिमा नहीं होती, निन्दा ही होती है। उसी प्रकार जिस कार्यको राजा व व्यंतर देवादिक
कर सकें उस कार्यको परमेश्वर स्वयं अवतार धारण करके करता है
ऐसा मानें तो कुछ
परमेश्वरकी महिमा नहीं होती, निन्दा ही होती है।
तथा महिमा तो कोई और हो उसे दिखलाते हैं; तू तो अद्वैत ब्रह्म मानता है, महिमा
किसको दिखाता है? और महिमा दिखलानेका फल तो स्तुति कराना है सो किससे स्तुति
कराना चाहता है? तथा तू कहता है सर्व जीव परमेश्वरकी इच्छानुसार प्रवर्तते हैं और स्वयंको
स्तुति करानेकी इच्छा है तो सबको अपनी स्तुतिरूप प्रवर्तित करो, किसलिये अन्य कार्य करना
पड़े? इसलिए महिमाके अर्थ भी कार्य करना नहीं बनता।
फि र वह कहता हैपरमेश्वर इन कार्योंको करते हुए भी अकर्त्ता है, उसका निर्धार
नहीं होता। इससे कहते हैंतू कहेगा कि वह मेरी माता भी है और बाँझ भी है तो
तेरा कहा कैसे मानें? जो कार्य करता है उसे अकर्त्ता कैसे मानें? और तू कहता है
निर्धार नहीं होता; सो निर्धार बिना मान लेना ठहरा तो आकाशके फू ल, गधेके सींग भी
मानो; परन्तु ऐसा असम्भव कहना युक्त नहीं है।
इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु, महेशको होना कहते हैं सो मिथ्या जानना।
फि र वे कहते हैं
ब्रह्मा तो सृष्टिको उत्पन्न करते हैं, विष्णु रक्षा करते हैं, महेश
संहार करते हैंसो ऐसा कहना भी सम्भव नहीं है; क्योंकि इन कार्योंको करते हुए कोई
कुछ करना चाहेगा, कोई कुछ करना चाहेगा, तब परस्पर विरोध होगा।
और यदि तू कहेगा कि यह तो एक परमेश्वरका ही स्वरूप है, विरोध किसलिये
होगा? तो आप ही उत्पन्न करे, आप ही नष्ट करेऐसे कार्यमें कौन फल है? यदि सृष्टि
अपनेको अनिष्ट है तो किसलिये उत्पन्न की, और इष्ट है तो किसलिये नष्ट की? और यदि
पहले इष्ट लगी तब उत्पन्न की, फि र अनिष्ट लगी तब नष्ट कर दी
ऐसा है तो परमेश्वरका
स्वभाव अन्यथा हुआ कि सृष्टिका स्वरूप अन्यथा हुआ। यदि प्रथम पक्ष ग्रहण करेगा तो
परमेश्वरका एक स्वभाव नहीं ठहरा। सो एक स्वभाव न रहनेका कारण क्या है? वह बतला।
बिना कारण स्वभावका पलटना किसलिये होगा? और द्वितीय पक्ष ग्रहण करेगा तो सृष्टि
तो परमेश्वर के आधीन थी, उसे ऐसी क्यों होने दिया कि अपनेको अनिष्ट लगे?
तथा हम पूछते हैं किब्रह्मा सृष्टि उत्पन्न करते हैं सो कैसे उत्पन्न करते हैं? एक
प्रकार तो यह है कि जैसेमन्दिर बनानेवाला चूना, पत्थर आदि सामग्री एकत्रित करके
आकारादि बनाता है; उसी प्रकार ब्रह्मा सामग्री एकत्रित करके सृष्टिकी रचना करता है।

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१०६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तो वह सामग्री जहाँसे लाकर एकत्रित की वह ठिकाना बतला और एक ब्रह्माने ही इतनी
रचना बनायी सो पहले
बादमें बनायी होगी या अपने शरीरके हस्तादि बहुत किये होंगे?
वह कैसे है सो बतला। जो बतलायेगा उसीमें विचार करनेसे विरुद्ध भासित होगा।
तथा एक प्रकार यह हैजिस प्रकार राजा आज्ञा करे तदनुसार कार्य होता है,
उसी प्रकार ब्रह्माकी आज्ञासे सृष्टि उत्पन्न होती है, तो आज्ञा किनको दी? और जिन्हें आज्ञा
दी वे कहाँसे सामग्री लाकर कैसे रचना करते हैं सो बतला।
तथा एक प्रकार यह हैजिस प्रकार ऋद्धिधारी इच्छा करे तदनुसार कार्य स्वयमेव
बनता है; उसी प्रकार ब्रह्म इच्छा करे तदनुसार सृष्टि उत्पन्न होती है, तब ब्रह्मा तो इच्छाका
ही कर्त्ता हुआ, लोक तो स्वयमेव ही उत्पन्न हुआ। तथा इच्छा तो परमब्रह्मने की थी, ब्रह्माका
कर्त्तव्य क्या हुआ जिससे ब्रह्मको सृष्टिको उत्पन्न करनेवाला कहा?
तथा तू कहेगापरब्रह्मने भी इच्छा की और ब्रह्माने भी इच्छा की तब लोक उत्पन्न
हुआ, तो मालूम होता है कि केवल परमब्रह्मकी इच्छा कार्यकारी नहीं है। वहाँ शक्तिहीनपना
आया।
तथा हम पूछते हैंयदि लोक केवल बनानेसे बनता है तब बनानेवाला तो सुखके
अर्थ बनायेगा, तो इष्ट ही रचना करेगा। इस लोकमें तो इष्ट पदार्थ थोड़े देखे जाते हैं,
अनिष्ट बहुत देखे जाते हैं। जीवोंमें देवादिक बनाये सो तो रमण करनेके अर्थ व भक्ति
करानेके अर्थ इष्ट बनाये; और लट, कीड़ी, कुत्ता, सुअर, सिंहादिक बनाये सो किस अर्थ
बनाये? वे तो रमणीक नहीं हैं, भक्ति नहीं करते, सर्व प्रकार अनिष्ट ही हैं। तथा दरिद्री,
दुःखी नारकियोंको देखकर अपने जुगुप्सा, ग्लानि आदि दुःख उत्पन्न हों
ऐसे अनिष्ट किसलिये
बनाये?
वहाँ वह कहता हैजीव अपने पापसे लट, कीड़ी, दरिद्री, नारकी आदि पर्याय
भुगतते हैं। उससे पूछते हैं किबादमें तो पापहीके फलसे यह पर्यायें हुई कहो, परन्तु
पहले लोकरचना करते ही उनको बनाया तो किस अर्थ बनाया? तथा बादमें जीव पापरूप
परिणमित हुए सो कैसे परिणमित हुए? यदि आप ही परिणमित हुए कहोगे तो मालूम होता
है ब्रह्माने पहले तो उत्पन्न किये, फि र वे इसके आधीन नहीं रहे, इस कारण ब्रह्माको दुःख
ही हुआ।
तथा यदि कहोगेब्रह्माके परिणमित करनेसे परिणमित होते हैं तो उन्हें पापरूप
किसलिये परिणमित किया? जीव तो अपने उत्पन्न किये थे, उनका बुरा किस अर्थ किया?

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पाँचवाँ अधिकार ][ १०७
इसलिये ऐसा भी नहीं बनता।
तथा अजीवोंमें सुवर्ण, सुगन्धादि सहित वस्तुएँ बनाईं सो तो रमण करनेके अर्थ बनायीं;
कुवर्ण, दुर्गन्धादि सहित वस्तुएँ दुःखदायक बनाईं सो किस अर्थ बनाईं? इनके दर्शनादिसे
ब्रह्माको कुछ सुख तो नहीं उत्पन्न होता होगा। तथा तू कहेगा पापी जीवोंको दुःख देनेके
अर्थ बनाईं; तो अपने ही उत्पन्न किये जीव उनसे ऐसी दुष्टता किसलिये की, जो उनको
दुःखदायक सामग्री पहले ही बनाई? तथा धूल, पर्वतादि कुछ वस्तुएँ ऐसी भी हैं जो रमणीय
भी नहीं हैं और दुःखदायक भी नहीं हैं
उन्हें किस अर्थ बनाया? स्वयमेव तो जैसी-तैसी
ही होती हैं और बनानेवाला जो बनाये वह तो प्रयोजन सहित ही बनाता है; इसलिये ब्रह्माको
सृष्टिका कर्ता कैसे कहा जाता है?
तथा विष्णुको लोकका रक्षक कहते हैं। रक्षक हो वह तो दो ही कार्य करता है
एक तो दुःख उत्पत्तिके कारण नहीं होने देता और एक विनष्ट होनेके कारण नहीं होने देता।
सो लोकमें तो दुःखको ही उत्पत्तिके कारण जहाँ-तहाँ देखे जाते हैं और उनसे जीवोंको दुःख
ही देखा जाता है। क्षुधा-तृषादि लग रहे हैं, शीत-उष्णादिकसे दुःख होता है, जीव परस्पर
दुःख उत्पन्न करते हैं, शस्त्रादि दुःखके कारण बन रहे हैं, तथा विनष्ट होनेके अनेक कारण
बन रहे हैं। जीवोंकी रोगादिक व अग्नि, विष, शस्त्रादिक पर्यायके नाशके कारण देखे जाते
हैं, तथा अजीवोंके भी परस्पर विनष्ट होनेके कारण देखे जाते हैं। सो ऐसे दोनों प्रकारकी
ही रक्षा नहीं की तो विष्णुने रक्षक होकर क्या किया?
वह कहता हैविष्णु रक्षक ही है। देखो क्षुधा-तृषादिकके अर्थ अन्न-जलादिक बनाये
हैं; कीड़ीको कण और कुन्जरको मन पहुँचता है, संकटमें सहायता करता है। मृत्युके कारण
उपस्थित होने पर भी
टिटहरीकी भाँति उबारता हैइत्यादि प्रकारसे विष्णु रक्षा करता है।
उससे कहते हैंऐसा है तो जहाँ जीवोंको क्षुधा-तृषादिक पीड़ित करते हैं और अन्न-जलादिक
नहीं मिलते, संकट पड़ने पर सहाय नहीं होती, किंचित् कारण पाकर मरण हो जाता है,
वहाँ विष्णुकी शक्ति हीन हुई या उसे ज्ञान ही नहीं हुआ? लोकमें बहुत तो ऐसे ही दुःखी
होते हैं, मरण पाते हैं; विष्णुने रक्षा क्यों नहीं की?
तब वह कहता हैयह जीवोंके अपने कर्त्तव्यका फल है। तब उससे कहते हैं
एक प्रकारका पक्षी जो एक समुद्रके किनारे रहता था। समुद्र उसके अण्डे बहा ले जाता था। उसने
दुःखी होकर गरुड़ पक्षी द्वारा विष्णुसे प्रार्थना की तो उन्होंने समुद्रसे अण्डे दिलवा दिये। ऐसी पुराणोंमें
कथा है।

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१०८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
किजैसे शक्तिहीन लोभी झूठा वैद्य किसीका कुछ भला हो तो कहता है मेरा किया हुआ
है; और जहाँ बुरा हो, मरण हो, तब कहता है इसकी ऐसी ही होनहार थी। उसी प्रकार
तू कहता है कि भला हुआ वहाँ तो विष्णुका किया हुआ और बुरा हुआ सो इसके कर्त्तव्यका
फल हुआ। इस प्रकार झूठी कल्पना किसलिये करें? या तो बुरा व भला दोनों विष्णुके
किये कहो, या अपने कर्त्तव्यका फल कहो। यदि विष्णुका किया हुआ कहो तो बहुत जीव
दुःखी और शीघ्र मरते देखे जाते हैं सो ऐसा कार्य करे उसे रक्षक कैसे कहें? तथा अपने
कर्त्तव्यका फल है तो करेगा सो पायेगा, विष्णु क्या रक्षा करेगा?
तब वह कहता हैजो विष्णुके भक्त हैं उनकी रक्षा करता है। उससे कहते हैं
कियदि ऐसा है तो कीड़ी, कुन्जर आदि भक्त नहीं हैं उनको अन्नादिक पहुंचानेमें व संकट
में सहाय होनेमें व मरण न होनेमें विष्णुका कर्त्तव्य मानकर सर्वका रक्षक किसलिये मानता
है, भक्तोंका ही रक्षक मान। सो भक्तोंका भी रक्षक नहीं दीखता, क्योंकि अभक्त भी भक्त
पुरुषोंको पीड़ा उत्पन्न करते देखे जाते हैं।
तब वह कहता हैकई जगह प्रह्लादादिककी सहाय की है। उससे कहते हैं
जहाँ सहाय की वहाँ तो तू वैसा ही मान; परन्तु हम तो प्रत्यक्ष म्लेच्छ मुसलमान आदि
अभक्त पुरुषों द्वारा भक्त पुरुषोंको पीड़ित होते देख व मन्दिरादिको विघ्न करते देखकर पूछते
हैं कि यहाँ सहाय नहीं करता, सो शक्ति नहीं है या खबर ही नहीं है। यदि शक्ति नहीं
है तो इनसे भी हीनशक्तिका धारक हुआ। खबर भी नहीं है तो जिसे इतनी भी खबर
नहीं है सो अज्ञान हुआ।
और यदि तू कहेगाशक्ति भी है और जानता भी है; परन्तु इच्छा ऐसी ही हुई,
तो फि र भक्तवत्सल किसलिये कहता है?
इस प्रकार विष्णुको लोकका रक्षक मानना नहीं बनता।
फि र वे कहते हैं
महेश संहार करता है। सो उससे पूछते हैं किप्रथम तो महेश
संहार सदा करता है या महाप्रलय होता है तभी करता है। यदि सदा करता है तो जिस
प्रकार विष्णुकी रक्षा करनेसे स्तुति की; उसी प्रकार उसकी संहार करनेसे निंदा करो, क्योंकि
रक्षा और संहार प्रतिपक्षी हैं।
तथा यह संहार कैसे करता है? जैसे पुरुष हस्तादिसे किसीको मारे या कहकर मराये;
उसी प्रकार महेश अपने अंगोंसे संहार करता है या आज्ञासे मराता है? तब क्षण-क्षणमें संहार
तो बहुत जीवोंका सर्वलोकमें होता है, यह कैसे-कैसे अंगोंसे व किस-किसको आज्ञा देकर

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पाँचवाँ अधिकार ][ १०९
युगपत् (एक साथ) कैसे संहार करता है? तथा महेश तो इच्छा ही करता है, उसकी इच्छासे
स्वयमेव उनका संहार होता है; तो उसके सदाकाल मारनेरूप दुष्ट परिणाम ही रहा करते
होंगे और अनेक जीवोंको एकसाथ मारनेकी इच्छा कैसे होती होगी? तथा यदि महाप्रलय
होने पर संहार करता है तो परमब्रह्मकी इच्छा होने पर करता है या उसकी बिना इच्छा
ही करता है? यदि इच्छा होने पर करता है तो परम ब्रह्मके ऐसा क्रोध कैसे हुआ कि
सर्वथा प्रलय करनेकी इच्छा हुई? क्योंकि किसी कारण बिना नाश करनेकी इच्छा नहीं होती
और नाश करनेकी जो इच्छा उसीका नाम क्रोध है सो कारण बतला?
तथा तू कहेगापरमब्रह्मने यह खेल बनाया था, फि र दूर कर दिया, कारण कुछ
भी नहीं है। तो खेल बनानेवालेको भी खेल इष्ट लगता है तब बनाता है, अनिष्ट लगता
है तब दूर करता है। यदि उसे यह लोक इष्ट-अनिष्ट लगता है तो उसे लोकसे राग-द्वेष
तो हुआ। ब्रह्मका स्वरूप साक्षीभूत किसलिये कहते हो; साक्षीभूत तो उसका नाम है जो
स्वयमेव जैसे हो उसीप्रकार देखता-जानता रहे। यदि इष्ट-अनिष्ट मानकर उत्पन्न करे, नष्ट करे,
उसे साक्षीभूत कैसे कहें? क्योंकि साक्षीभूत रहना और कर्ता-हर्ता होना यह दोनों परस्पर विरोधी
हैं; एकको दोनों सम्भव नहीं हैं।
तथा परमब्रह्मके पहले तो यह इच्छा हुई थी कि ‘‘मैं एक हूँ सो बहुत होऊँगा’’ तब
बहुत हुआ। अब ऐसी इच्छा हुई होगी कि ‘‘मैं बहुत हूँ सो कम होऊँगा’’। सो जैसे कोई
भोलेपनसे कार्य करके फि र उस कार्यको दूर करना चाहे; उसी प्रकार परमब्रह्मने भी बहुत होकर
एक होनेकी इच्छा की सो मालूम होता है कि बहुत होनेका कार्य किया होगा सो भोलेपनहीसे
किया होगा, आगामी ज्ञानसे किया होता तो किसलिये उसे दूर करनेकी इच्छा होती?
तथा यदि परमब्रह्मकी इच्छा बिना ही महेश संहार करता है तो यह परमब्रह्मका व
ब्रह्मका विरोधी हुआ।
फि र पूछते हैंयह महेश लोकका संहार कैसे करता है? अपने अंगोंसे ही संहार
करता है कि इच्छा होने पर स्वयमेव ही संहार होता है? यदि अपने अंगोंसे संहार करता
है तो सबका एक साथ संहार कैसे करता है? तथा इसकी इच्छा होनेसे स्वयमेव संहार होता
है; तब इच्छा तो परमब्रह्मने की थी, इसने संहार क्यों किया?
फि र हम पूछते हैं किसंहार होने पर सर्वलोकमें जो जीव-अजीव थे वे कहाँ गये?
तब वह कहता हैजीवोंमें जो भक्त थे वे तो ब्रह्ममें मिल गये, अन्य मायामें मिल गये।
अब इससे पूछते हैं किमाया ब्रह्मसे अलग रहती है कि बादमें एक हो जाती है?

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११० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
यदि अलग रहती है तो ब्रह्मवत् माया भी नित्य हुई, तब अद्वैत ब्रह्म नहीं रहा। और माया
ब्रह्ममें एक हो जाती है तो जो जीव मायामें मिले थे वे भी मायाके साथ ब्रह्ममें मिल गये,
तो महाप्रलय होने पर सर्वका परमब्रह्ममें मिलना ठहरा ही, तब मोक्षका उपाय किसलिये करें?
तथा जो जीव मायामें मिले वे पुनः लोकरचना होने पर वे ही जीव लोकमें आयेंगे
कि वे ब्रह्ममें मिल गये थे, इसलिये नये उत्पन्न होंगे? यदि वे ही आयेंगे तो मालूम होता
है अलग-अलग रहते हैं, मिले क्यों कहते हो? और नये उत्पन्न होंगे तो जीवका अस्तित्व
थोड़ेकाल पर्यन्त ही रहता है, फि र किसलिये मुक्त होनेका उपाय करें?
तथा वह कहता हैपृथ्वी आदि हैं वे मायामें मिलते हैं, सो माया अमूर्तिक सचेतन
है या मूर्तिक अचेतन? यदि अमूर्तिक सचेतन है तो अमूर्तिकमें मूर्तिक अचेतन कैसे मिलेगा?
और मूर्तिक अचेतन है तो यह ब्रह्ममें मिलता है या नहीं? यदि मिलता है तो इसके मिलनेसे
ब्रह्म भी मूर्तिक अचेतनसे मिश्रित हुआ। और नहीं मिलता है तो अद्वैतता नहीं रही। और
तू कहेगा
यह सर्व अमूर्तिक अचेतन हो जाते हैं तो आत्मा और शरीरादिककी एकता हुई,
सो यह संसारी एकता मानता ही है, इसे अज्ञानी किसलिये कहें?
फि र पूछते हैंलोकका प्रलय होने पर महेशका प्रलय होता है या नहीं होता?
यदि होता है तो एक साथ होता है या आगे-पीछे होता है? यदि एकसाथ होता है तो
आप नष्ट होता हुआ लोकको नष्ट कैसे करेगा? और आगे-पीछे होता है तो महेश लोकको
नष्ट करके आप कहाँ रहा, आप भी तो सृष्टिमें ही था?
इस प्रकार महेशको सृष्टिका संहारकर्त्ता मानते हैं सो असम्भव है।
इस प्रकारसे व अन्य अनेक प्रकारसे ब्रह्मा, विष्णु, महेशको सृष्टिका उत्पन्न करनेवाला,
रक्षा करनेवाला, संहार करनेवाला मानना नहीं बनता; इसलिये लोकको अनादिनिधन मानना।
लोकके अनादिनिधनपनेकी पुष्टि
इस लोकमें जो जीवादि पदार्थ हैं वे न्यारे-न्यारे अनादिनिधन हैं; तथा उनकी अवस्थाका
परिवर्तन होता रहता है, उस अपेक्षासे उत्पन्न-विनष्ट होते कहे जाते हैं। तथा जो स्वर्ग-
नरक द्वीपादिक हैं वे अनादिसे इसी प्रकार ही हैं और सदाकाल इसी प्रकार रहेंगे।
कदाचित् तू कहेगाबिना बनाये ऐसे आकारादि कैसे हुए? सो हुए होंगे तो बनाने
पर ही हुए होंगे। ऐसा नहीं है, क्योंकि अनादिसे ही जो पाये जाते हैं वहाँ तर्क कैसा?
जिसप्रकार तू परमब्रह्मका स्वरूप अनादिनिधन मानता है, उसी प्रकार उन जीवादिक व

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पाँचवाँ अधिकार ][ १११
स्वर्गादिकको अनादिनिधन मानते हैं। तू कहेगाजीवादिक व स्वर्गादिक कैसे हुए? हम कहेंगे
परमब्रह्म कैसे हुआ? तू कहेगाइनकी रचना ऐसी किसने की? हम कहेंगेपरमब्रह्मको
ऐसा किसने बनाया? तू कहेगापरमब्रह्म स्वयंसिद्ध है; हम कहेंगेजीवादिक व स्वर्गादिक
स्वयंसिद्ध हैं। तू कहेगाइनकी और परमब्रह्मकी समानता कैसे सम्भव है? तो सम्भावनामें
दूषण बतला। लोकको नवीन उत्पन्न करना, उसका नाश करना, उसमें तो हमने अनेक दोष
दिखाये। लोकको अनादिनिधन माननेसे क्या दोष है? सो तू बतला।
यदि तू परमब्रह्म मानता है सो अलग कोई है ही नहीं; इस संसारमें जीव हैं वे
ही यथार्थ ज्ञानसे मोक्षमार्ग साधनेसे सर्वज्ञ वीतराग होते हैं।
यहाँ प्रश्न है कितुम न्यारे-न्यारे जीव अनादिनिधन कहते हो; मुक्त होनेके पश्चात्
तो निराकार होते हैं, वहाँ न्यारे-न्यारे कैसे सम्भव हैं?
समाधान :मुक्त होनेके पश्चात् सर्वज्ञको दिखते हैं या नहीं दिखते? यदि दिखते हैं तो
कुछ आकार दिखता ही होगा। बिना आकार देखे क्या देखा? और नहीं दिखते तो या तो
वस्तु ही नहीं है या सर्वज्ञ नहीं है। इसलिये इन्द्रियज्ञानगम्य आकार नहीं है उस अपेक्षा निराकार
हैं और सर्वज्ञ ज्ञानगम्य हैं, इसलिये आकारवान हैं। जब आकारवान ठहरे तब अलग-अलग
हों तो क्या दोष लगेगा? और यदि तू जाति अपेक्षा एक कहे तो हम भी मानते हैं। जैसे
गेहूँ भिन्न-भिन्न हैं उनकी जाति एक है;
इस प्रकार एक मानें तो कुछ दोष नहीं है।
इस प्रकार यथार्थ श्रद्धानसे लोकमें सर्व पदार्थ अकृत्रिम भिन्न-भिन्न अनादिनिधन मानना।
यदि वृथा ही भ्रमसे सच-झूठका निर्णय न करे तो तू जाने, अपने श्रद्धानका फल तू पायेगा।
ब्रह्मसे कुलप्रवृत्ति आदिका प्रतिषेध
तथा वे ही ब्रह्मसे पुत्र-पौत्रादि द्वारा कुलप्रवृत्ति कहते हैं। और कुलोंमें राक्षस, मनुष्य, देव,
तिर्यंचोंके परस्पर प्रसूति भेद बतलाते हैं। वहाँ देवसे मनुष्य व मनुष्यसे देव व तिर्यंचसे मनुष्य
इत्यादि
किसी माता किसी पितासे किसी पुत्र-पुत्रीका उत्पन्न होना बतलाते हैं सो कैसे सम्भव है?
तथा मनहीसे व पवनादिसे व वीर्य सूँघने आदिसे प्रसूतिका होना बतलाते हैं सो
प्रत्यक्षविरुद्ध भासित होता है। ऐसा होनेसे पुत्र-पौत्रादिकका नियम कैसे रहा? तथा बड़े-बड़े
महन्तोंको अन्य-अन्य माता-पितासे हुआ कहते हैं; सो महन्त पुरुष कुशीलवान माता-पिताके कैसे
उत्पन्न होंगे? यह तो लोकमें गाली है। फि र ऐसा कहकर उनको महंतता किसलिये कहते हैं?
तथा गणेशादिककी मैल आदिसे उत्पत्ति बतलाते हैं व किसीके अंग किसीमें जुड़े
बतलाते हैं। इत्यादि अनेक प्रत्यक्षविरुद्ध कहते हैं।

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११२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
अवतार मीमांसा
तथा चौबीस अवतार हुए कहते हैं; वहाँ कितने ही अवतारोंको पूर्णावतार कहते हैं,
कितनोंको अंशावतार कहते हैं। सो पूर्णावतार हुए तब ब्रह्म अन्यत्र व्यापक रहा या नहीं
रहा? यदि रहा तो इन अवतारोंको पूर्णावतार किसलिये कहते हो? यदि (व्यापक) नहीं रहा
तो एतावन्मात्र ही ब्रह्म रहा। तथा अंशावतार हुए वहाँ ब्रह्मका अंश तो सर्वत्र कहते हो,
इनमें क्या अधिकता हुई? तथा कार्य तो तुच्छ था और उसके लिये ब्रह्मने स्वयं अवतार
धारण किया कहते हैं सो मालूम होता है बिना अवतार धारण किये ब्रह्मकी शक्ति वह कार्य
करनेकी नहीं थी; क्योंकि जो कार्य अल्प उद्यमसे हो वहाँ बहुत उद्यम किसलिये करें?
तथा अवतारोंमें मच्छ, गच्छादि अवतार हुए सो किंचित कार्य करनेके अर्थ हीन तिर्यंच
पर्यायरूप हुआ सो कैसे सम्भव है? तथा प्रह्लादके अर्थ नरसिंह अवतार हुआ, सो हरिणांकुशको
ऐसा क्यों होने दिया और कितने ही काल तक अपने भक्तको किसलिये दुःख दिलाया?
तथा ऐसा रूप किसलिये धारण किया? तथा नाभिराजाके वृषभावतार हुआ बतलाते हैं, सो
नाभिको पुत्रपनेका सुख उपजानेको अवतार धारण किया। घोर तपश्चरण किसलिये किया?
उनको तो कुछ साघ्य था ही नहीं। कहेगा कि जगतके दिखलानेको किया; तब कोई अवतार
तो तपश्चरण दिखाये, कोई अवतार भोगादिक दिखाये, वहाँ जगत किसको भला जानेगा?
फि र (वह) कहता हैएक अरहंत नामका राजा हुआ उसने वृषभावतारका मत
अंगीकार करके जैनमत प्रगट किया, सो जैनमें कोई एक अरहंत नहीं हुआ। जो सर्वज्ञपद
पाकर पूजने योग्य हो उसका नाम अर्हत् है।
तथा राम-कृष्ण इन दोनों अवतारोंको मुख्य कहते हैं सो रामावतारने क्या किया?
सीताके अर्थ विलाप करके रावणसे लड़कर उसे मारकर राज्य किया। और कृष्णावतारमें
पहले ग्वाला होकर परस्त्री गोपियोंके अर्थ नाना विपरीत निंद्य
चेष्टाएँ करके, फि र जरासिंघु
आदिको मारकर राज्य किया। सो ऐसे कार्य करनेमें क्या सिद्धि हुई?
तथा राम-कृष्णादिकका एक स्वरूप कहते हैं, सो बीचमें इतने काल कहाँ रहे? यदि
ब्रह्ममें रहे तो अलग रहे या एक रहे? अलग रहे तो मालूम होता है वे ब्रह्मसे अलग रहते
सनत्कुमार-१, शूकरावतार-२, देवर्षि नारद-३, नर-नारायण-४, क पिल-५, दत्तात्रय-६, यज्ञपुरुष-७,
ऋषभावतार-८, पृथुअवतार-९, मत्स्य-१०, कच्छप-११, धन्वन्तरि-१२, मोहिनी-१३, नृसिंहावतार-१४,
वामन-१५, परशुराम-१६, व्यास-१७, हंस-१८, रामावतार-१९, कृष्णावतार-२०, हयग्रीव-२१, हरि-२२,
बुद्ध-२३, और कल्कि यह २४ अवतार माने जाते हैं।
भागवत स्कन्ध ५, अध्याय ६, ७, ११

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पाँचवाँ अधिकार ][ ११३
हैं। एक रहे तो राम ही कृष्ण हुए, सीता ही रुक्मिणी हुईइत्यादि कैसे कहते हैं?
तथा रामावतारमें तो सीताको मुख्य करते हैं और कृष्णावतारमें सीताको रुक्मिणी हुई
कहते हैं और उसे तो प्रधान नहीं कहते, राधिकाकुमारीको मुख्य करते हैं। तथा पूछें तब
कहते हैं
राधिका भक्त थी; सो निज स्त्रीको छोड़कर दासीको मुख्य करना कैसे बनता है?
तथा कृष्णके तो राधिका सहित परस्त्री सेवनके सर्व विधान हुए सो यह भक्ति कैसी की,
ऐसे कार्य तो महानिंद्य हैं। तथा रुक्मिणीको छोड़कर राधाको मुख्य किया सो परस्त्री सेवनको
भला जान किया होगा? तथा एक राधामें ही आसक्त नहीं हुए, अन्य गोपिका *कुब्जा आदि
अनेक परस्त्रियोंमें भी आसक्त हुआ। सो यह अवतार ऐसे ही कार्यका अधिकारी हुआ।
फि र कहते हैं‘‘लक्ष्मी उसकी स्त्री है’’, और धनादिकको लक्ष्मी कहते हैं; सो यह
तो पृथ्वी आदिमें जिस प्रकार पाषाण, धूल हैं; उसी प्रकार रत्न, सुवर्णादि धन देखते हैं;
यह अलग लक्ष्मी कौन है जिसका भर्तार नारायण है? तथा सीतादिकको मायाका स्वरूप कहते
हैं, सो इनमें आसक्त हुए तब मायामें आसक्त कैसे न हुए? कहाँ तक कहें, जो निरूपण
करते हैं सो विरुद्ध करते हैं। परन्तु जीवोंको भोगादिककी कथा अच्छी लगती है, इसलिये
उनका कहना प्रिय लगता है।
ऐसे अवतार कहे हैं इनको ब्रह्मस्वरूप कहते हैं। तथा औरोंको भी ब्रह्मस्वरूप कहते
हैं। एक तो महादेवको ब्रह्मस्वरूप मानते हैं, उसे योगी कहते हैं, सो योग किसलिये ग्रहण
किया? तथा मृगछाला, भस्म धारण करते हैं सो किस अर्थ धारण की है? तथा रुण्डमाला
पहिनते हैं सो हीको छूना भी निंद्य है उसे गलेमें किस अर्थ धारण करते हैं? सर्पादि सहित
हैं सो इसमें कौन बड़ाई है? आक
धतूरा खाता है सो इसमें कौन भलाई है? त्रिशूलादि
रखता है सो किसका भय है? तथा पार्वतीको संग लिये है, परन्तु योगी होकर स्त्री रखता
है सो ऐसी विपरीतता किसलिये की? कामासक्त था तो घरमें ही रहता, तथा उसने नानाप्रकार
विपरीत चेष्टा की उसका प्रयोजन तो कुछ भासित नहीं होता, बावले जैसा कर्तव्य भासित
होता है, उसे ब्रह्मस्वरूप कहते हैं।
तथा कभी कृष्णको इसका सेवक कहते हैं, कभी इसको कृष्णका सेवक कहते हैं,
कभी दोनोंको एक ही कहते हैं, कुछ ठिकाना नहीं है।
तथा सूर्यादिको ब्रह्मका स्वरूप कहते हैं। तथा ऐसा कहते हैं कि विष्णु ने कहा
भागवत स्कन्ध१०, अ० ४८, १११

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११४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
हैधातुओंमें सुवर्ण, वृक्षोंमें कल्पवृक्ष, जुएमें झूठ इत्यादिमें मैं ही हूँ; सो पूर्वापर कुछ विचार
नहीं करते। किसी एक अङ्गसे कितने ही संसारी जिसे महंत मानते हैं, उसीको ब्रह्माका स्वरूप
कहते हैं; सो ब्रह्म सर्वव्यापी है तो ऐसा विशेष किसलिये किया? और सूर्यादिमें व सुवर्णादिमें
ही ब्रह्म है तो सूर्य उजाला करता है, सुवर्ण धन है इत्यादि गुणोंसे ब्रह्म माना; सो दीपादिक
भी सूर्यवत् उजाला करते हैं, चांदी
लोहादि भी सुवर्णवत् धन हैंइत्यादि गुण अन्य पदार्थोंमें
भी हैं, उन्हें भी ब्रह्म मानो, बड़ाछोटा मानो, परन्तु जाति तो एक हुई। सो झूठी महंतता
ठहरानेके अर्थ अनेक प्रकारकी युक्ति बनाते हैं।
तथा अनेक ज्वालामालिनी आदि देवियोंको मायाका स्वरूप कहकर हिंसादिक पाप उत्पन्न
करके उन्हें पूजना ठहराते हैं; सो माया तो निंद्य है, उसका पूजना कैसे सम्भव है? और
हिंसादिक करना कैसे भला होगा? तथा गाय, सर्प आदि पशु अभक्ष्य भक्षणादिसहित उन्हें
पूज्य कहते हैं; अग्नि, पवन, जलादिकको देव ठहराकर पूज्य कहते हैं; वृक्षादिकको युक्ति
बनाकर पूज्य कहते हैं।
बहुत क्या कहें? पुरुषलिंगी नाम सहित जो हों उनमें ब्रह्मकी कल्पना करते हैं और
स्त्रीलिंगी नाम सहित हों उनमें मायाकी कल्पना करके अनेक वस्तुओंका पूजन ठहराते हैं।
इनके पूजनेसे क्या होगा सो कुछ विचार नहीं है। झूठे लौकिक प्रयोजनके कारण ठहराकर
जगतको भ्रमाते हैं।
तथा वे कहते हैंविधाता शरीरको गढ़ता है और यम मारता है, मरते समय यमके
दूत लेने आते हैं, मरनेके पश्चात् मार्गमें बहुत काल लगता है, तथा वहाँ पुण्य-पापका लेखा
करते हैं और वहाँ दण्डादिक देते हैं; सो यह कल्पित झूठी युक्ति है। जीव तो प्रतिसमय
अनन्त उपजते-मरते हैं, उनका युगपत् ऐसा होना कैसे सम्भव है? और इस प्रकार माननेका
कोई कारण भी भासित नहीं होता।
तथा वे मरनेके पश्चात् श्राद्धादिकसे भला होना कहते हैं, सो जीवित दशा तो किसीके
पुण्य-पाप द्वारा कोई सुखी-दुखी होता दिखाई नहीं देता, मरनेके बादमें कैसे होगा? यह युक्ति
मनुष्योंको भ्रमित करके अपना लोभ साधनेके अर्थ बनायी है।
कीड़ी, पतंगा, सिंहादिक जीव भी तो उपजते-मरते हैं उनको तो प्रलयके जीव ठहराते
हैं; परन्तु जिस प्रकार मनुष्यादिकके जन्म-मरण होते देखे जाते हैं, उसी प्रकार उनके होते
देखे जाते हैं। झूठी कल्पना करनेसे क्या सिद्धि है?
तथा वे शास्त्रोंमें कथादिकका निरूपण करते हैं वहाँ विचार करने पर विरुद्ध भासित
होता है।

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पाँचवाँ अधिकार ][ ११५
तथा यज्ञादिक करना धर्म ठहराते हैं, सो वहाँ बड़े जीव उनका होम करते हैं, अग्नि
आदिकका महा प्रारम्भ करते हैं, वहाँ जीवघात होता है; सो उन्हींके शास्त्रोंमें व लोकमें हिंसाका
निषेध है; परन्तु ऐसे निर्दय हैं कि कुछ गिनते नहीं हैं और कहते हैं
‘‘यज्ञार्थ पशवः
सृष्टाः’’ इस यज्ञके ही अर्थ पशु बनाये हैं, वहाँ घात करनेका दोष नहीं है।
तथा मेघादिकका होना, शत्रु आदिका विनष्ट होना इत्यादि फल बतलाकर अपने लोभके
अर्थ रागादिकोंको भ्रमित करते हैं। सो कोई विषसे जीवित होना कहे तो प्रत्यक्ष विरुद्ध है;
उसी प्रकार हिंसा करनेसे धर्म और कार्यसिद्धि कहना प्रत्यक्ष विरुद्ध है। परन्तु जिनकी हिंसा
करना कहा, उनकी तो कुछ शक्ति नहीं है, किसीको उनकी पीड़ा नहीं है। यदि किसी शक्तिवान
व इष्टका होम करना ठहराया होता तो ठीक रहता। पापका भय नहीं है, इसलिये पापी दुर्बलके
घातक होकर अपने लोभके अर्थ अपना व अन्यका बुरा करनेमें तत्पर हुए हैं।
योग मीमांसा
तथा वे मोक्षमार्ग भक्तियोग और ज्ञानयोग द्वारा दो प्रकारसे प्ररूपित करते हैं।
भक्तियोग मीमांसा
अब, भक्तियोग द्वारा मोक्षमार्ग कहते हैं, उसका स्वरूप कहा जाता हैः
वहाँ भक्ति निर्गुण-सगुण भेदसे दो प्रकारकी कहते हैं। वहाँ अद्वैत परब्रह्मकी भक्ति
करना सो निर्गुण भक्ति है; वह इस प्रकार कहते हैंतुम निराकार हो, निरंजन हो, मन-
वचनसे अगोचर हो, अपार हो, सर्वव्यापी हो, एक हो, सर्वके प्रतिपालक हो, अधम उधारन
हो, सर्वके कर्ता-हर्ता हो, इत्यादि विशेषणोंसे गुण गाते हैं; सो इनमें कितने ही तो निराकारादि
विशेषण हैं सो अभावरूप हैं, उनको सर्वथा माननेसे अभाव ही भासित होता है। क्योंकि
आकारादि बिना वस्तु कैसी होगी? तथा कितने ही सर्वव्यापी आदि विशेषण असम्भवी हैं
सो उनका असम्भवपना पहले दिखाया ही है।
फि र ऐसा कहते हैं किजीवबुद्धिसे मैं तुम्हारा दास हूँ, शास्त्रदृष्टिसे तुम्हारा अंश
हूँ, तत्त्वबुद्धिसे ‘‘तू ही मैं हूँ’’ सो यह तीनों ही भ्रम हैं। यह भक्ति करनेवाला चेतन है
या जड़ है? यदि चेतन है तो वह चेतना ब्रह्मकी है या इसीकी है? यदि ब्रह्मकी है तो
‘‘मैं दास हूँ’’ ऐसा मानना तो चेतनाहीके होता है सो चेतना ब्रह्मका स्वभाव ठहरा और
स्वभाव-स्वभावीके तादात्म्य सम्बन्ध है, वहाँ दास और स्वामीका सम्बन्ध कैसे बनता है? दास
और स्वामीका सम्बन्ध तो भिन्न पदार्थ हो तभी बनता है। तथा यदि यह चेतना इसीकी
है तो यह अपनी चेतनाका स्वामी भिन्न पदार्थ ठहरा, तब मैं अंश हूँ व ‘‘जो तू है सो

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११६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
मैं हूँ’’ ऐसा कहना झूठा हुआ। और यदि भक्ति करनेवाला जड़ है तो जड़के बुद्धिका
होना असम्भव है, ऐसी बुद्धि कैसे हुई? इसलिये ‘‘मैं दास हूँ’’ ऐसा कहना तो तभी बनता
है जब अलग-अलग पदार्थ हों। और ‘‘तेरा मैं अंश हूँ’’ ऐसा कहना बनता ही नहीं।
क्योंकि ‘तू’ और ‘मैं’ ऐसा तो भिन्न हो तभी बनता है, परन्तु अंश-अंशी भिन्न कैसे होंगे?
अंशी तो कोई भिन्न वस्तु है नहीं, अंशोंका समुदाय वही अंशी है। और ‘‘तू है सो मैं
हूँ’’
ऐसा वचन ही विरुद्ध है। एक पदार्थमें अपनत्व भी माने और उसे पर भी माने
सो कैसे सम्भव है; इसलिये भ्रम छोड़कर निर्णय करना।
तथा कितने नाम ही जपते हैं; सो जिसका नाम जपते हैं उसका स्वरूप पहिचाने
बिना केवल नामका ही जपना कैसे कार्यकारी होगा? यदि तू कहेगा नामका ही अतिशय
है; तो जो नाम ईश्वरका है वही नाम किसी पापी पुरुषका रखा, वहाँ दोनोंके नाम- उच्चारणमें
फलकी समानता हो, सो कैसे बनेगा? इसलिये स्वरूपका निर्णय करके पश्चात् भक्ति करने
योग्य हो उसकी भक्ति करना।
इस प्रकार निर्गुणभक्तिका स्वरूप बतलाया।
तथा जहाँ काम-क्रोधादिसे उत्पन्न हुए कार्योंका वर्णन करके स्तुति आदि करें उसे
सगुणभक्ति कहते हैं।
वहाँ सगुणभक्तिमें लौकिक श्रृंगार वर्णन जैसा नायक-नायिकाका करते हैं वैसा ठाकुर-
ठकुरानीका वर्णन करते हैं। स्वकीया-परकीया स्त्री सम्बन्धी संयोग-वियोगरूप सर्वव्यवहार वहाँ
निरूपित करते हैं। तथा स्नान करती स्त्रियोंके वस्त्र चुराना, दधि लूटना, स्त्रियोंके पैर पड़ना,
स्त्रियोंके आगे नाचना इत्यादि जिन कार्योंको करते संसारी जीव भी लज्जित हों उन कार्योंका
करना ठहराते हैं; सो ऐसा कार्य अति कामपीड़ित होने पर ही बनता है।
तथा युद्धादिक किये कहते हैं सो यह क्रोधके कार्य हैं। अपनी महिमा दिखानेके
अर्थ उपाय किये कहते हैं सो यह मानके कार्य हैं। अनेक छल किये कहते हैं सो मायाके
कार्य हैं। विषयसामग्री प्राप्तिके अर्थ यत्न किये कहते हैं सो यह लोभके कार्य हैं।
कौतूहलादिक किये कहते हैं सो हास्यादिकके कार्य हैं। ऐसे यह कार्य क्रोधादिसे युक्त होने
पर ही बनते हैं।
इस प्रकार काम-क्रोधादिसे उत्पन्न कार्योंको प्रगट करके कहते हैं किहम स्तुति करते
हैं; सो काम-क्रोधादिकके कार्य ही स्तुति योग्य हुए तो निंद्य कौन ठहरेंगे? जिनकी लोकमें,
शास्त्रमें अत्यन्त निन्दा पायी जाती है, उन कार्योंका वर्णन करके स्तुति करना तो हस्तचुगल
जैसा कार्य हुआ।

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पाँचवाँ अधिकार ][ ११७
हम पूछते हैंकोई किसीका नाम तो न कहे, और ऐसे कार्योंका ही निरूपण करके
कहे कि किसीने ऐसे कार्य किये हैं, तब तुम उसे भला जानोगे या बुरा जानोगे? यदि
भला जानोगे तो पापी भले हुए, बुरा कौन रहा? बुरा जानोगे तो ऐसे कार्य कोई करो,
वही बुरा हुआ। पक्षपात रहित न्याय करो।
यदि पक्षपातसे कहोगे किठाकुरका ऐसा वर्णन करना भी स्तुति है, तो ठाकुरने
ऐसे कार्य किसलिये किये? ऐसे निंद्य कार्य करनेमें क्या सिद्धि हुई? कहोगे किप्रवृत्ति
चलानेके अर्थ किये, तो परस्त्रीसेवन आदि निंद्य कार्योंकी प्रवृत्ति चलानेमें आपको व अन्यको
क्या लाभ हुआ? इसलिये ठाकुरको ऐसा कार्य करना सम्भव नहीं है। तथा यदि ठाकुरने
कार्य नहीं किये, तुम ही कहते हो, तो जिसमें दोष नहीं था उसे दोष लगाया। इसलिये
ऐसा वर्णन करना तो निन्दा है
स्तुति नहीं है।
तथा स्तुति करते हुए जिन गुणोंका वर्णन करते हैं उसरूप ही परिणाम होते हैं व
उन्हींमें अनुराग आता है। सो काम-क्रोधादि कार्योंका वर्णन करते हुए आप भी काम-
क्रोधादिरूप होगा अथवा काम-क्रोधादिमें अनुरागी होगा, सो ऐसे भाव तो भले नहीं हैं।
यदि कहोगे
भक्त ऐसा भाव नहीं करते, तो परिणाम हुए बिना वर्णन कैसे किया? उनका
अनुराग हुए बिना भक्ति कैसे की? यदि यह भाव ही भले हों तो ब्रह्मचर्यको व क्षमादिकको
भला किसलिये कहें? इनके तो परस्पर प्रतिपक्षीपना है।
तथा सगुण भक्ति करनेके अर्थ राम-कृष्णादिकी मूर्ति भी श्रृङ्गारादि किये, वक्रत्वादि
सहित, स्त्री आदि संग सहित बनाते हैं; जिसे देखते ही काम-क्रोधादिभाव प्रगट हो आयें
और महादेव के लिंगका ही आकार बनाते हैं। देखो विडम्बना! जिसका नाम लेने से लाज
आती है, जगत जिसे ढँक रखता है, उसके आकारकी पूजा कराते हैं। क्या उसके अन्य
अंग नहीं थे? परन्तु बहुत विडम्बना ऐसा ही करनेसे प्रगट होती है।
तथा सगुण भक्तिके अर्थ नानाप्रकार की विषयसामग्री एकत्रित करते हैं। वहाँ नाम
ठाकुरका करते हैं और स्वयं उसका उपभोग करते हैं। भोजनादि बनाते हैं और ठाकुरको
भोग लगाया कहते हैं; फि र आप ही प्रसादकी कल्पना करके उसका भक्षणादि करते हैं। सो
यहाँ पूछते हैं
प्रथम तो ठाकुरके क्षुधा-तृषाकी पीड़ा होगी, न हो तो ऐसी कल्पना कैसे सम्भव
है? और क्षुधादिसे पीड़ित होगा तब व्याकुल होकर ईश्वर दुःखी हुआ, औरोंका दुःख कैसे
दूर करेगा? तथा भोजनादि सामग्री आपने तो उनके अर्थ अर्पण की सो की, फि र प्रसाद तो
ठाकुर दे तब होता है, अपना ही किया तो नहीं होता। जैसे कोई राजाको भेंट करे, फि र
राजा इनाम दे तो उसे ग्रहण करना योग्य है; परन्तु आप राजाको भेंट करे, वहाँ राजा तो

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११८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
कुछ कहे नहीं और आप ही ‘‘राजाने मुझे इनाम दी’’ऐसा कहकर उसे अंगीकार करे तो
यह खेल हुआ। उसी प्रकार करनेसे भक्ति तो हुई नहीं, हास्य करना हुआ।
फि र ठाकुर और तुम दो हो या एक हो? दो हो तो तूनें भेंट की, पश्चात् ठाकुर दे तो
ग्रहण करना चाहिए, अपने आप ग्रहण किसलिए करता है? और तू कहेगाठाकुरकी तो मूर्ति
है, इसलिए मैं ही कल्पना करता हूँ; तो ठाकुरके करनेका कार्य तूने ही किया, तब तू ही ठाकुर
हुआ। और यदि एक हो तो भेंट कहना, प्रसाद करना झूठ हुआ। एक होने पर यह व्यवहार
सम्भव नहीं होता; इसलिए भोजनासक्त पुरुषों द्वारा ऐसी कल्पना की जाती है।
तथा ठाकुरजीके अर्थ नृत्य-गानादि करना; शीत, ग्रीष्म, वसन्तादि ऋतुओंमें संसारियोंके
सम्भवित ऐसी विषयसामग्री एकत्रित करना इत्यादि कार्य करते हैं। वहाँ नाम तो ठाकुरका
लेना और इन्द्रियोंके विषय अपने पोषना सो विषयासक्त जीवों द्वारा ऐसा उपाय किया गया
है। तथा वहाँ जन्म, विवाहादिककी व सोने-जागने इत्यादिकी कल्पना करते हैं सो जिस
प्रकार लड़कियाँ गुा-गुड़ियोंका खेल बनाकर कौतूहल करती हैं; उसी प्रकार यह भी कौतूहल
करता हैं, कुछ परमार्थरूप गुण नहीं है। तथा बाल ठाकुरका स्वांग बनाकर चेष्टाएँ दिखाते
हैं, उससे अपने विषयोंका पोषण करते हैं और कहते हैं
यह भी भक्ति है, इत्यादि क्या-
क्या कहें? ऐसी अनेक विपरीतताएँ सगुण भक्तिमें पायी जाती हैं।
इस प्रकार दोनों प्रकारकी भक्तिसे मोक्षमार्ग कहते हैं सो उसे मिथ्या दिखाया।
ज्ञानयोग मीमांसा
अब अन्यमत प्ररूपित ज्ञानयोगसे मोक्षमार्गका स्वरूप बतलाते हैंः
एक अद्वैत सर्वव्यापी परब्रह्मको जानना उसे ज्ञान कहते हैं सो उसका मिथ्यापना तो
पहले कहा ही है।
तथा अपनेको सर्वथा शुद्ध ब्रह्मस्वरूप मानना, काम-क्रोधादिक व शरीरादिकको भ्रम
जानना उसे ज्ञान कहते हैं; सो यह भ्रम है। आप शुद्ध है तो मोक्षका उपाय किसलिये
करता है? आप शुद्ध ब्रह्म ठहरा तब कर्तव्य क्या रहा? तथा अपनेको प्रत्यक्ष काम-क्रोधादिक
होते देखे जाते हैं, और शरीरादिकका संयोग देखा जाता है; सो इनका अभाव होगा तब
होगा, वर्तमानमें इनका सद्भाव मानना भ्रम कैसे हुआ?
फि र कहते हैंमोक्षका उपाय करना भी भ्रम है। जैसेरस्सी तो रस्सी ही है,
उसे सर्प जान रहा था सो भ्रम था, भ्रम मिटने पर रस्सी ही है; उसी प्रकार आप तो
ब्रह्म ही है, अपनेको अशुद्ध जान रहा था सो भ्रम था, भ्रम मिटने पर आप ब्रह्म ही है।

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पाँचवाँ अधिकार ][ ११९
सो ऐसा कहना मिथ्या है। यदि आप शुद्ध हो और उसे अशुद्ध जाने तो भ्रम है; और
आप काम-क्रोधादि सहित अशुद्ध हो रहा है उसे अशुद्ध जाने तो भ्रम कैसे होगा? शुद्ध
जानने पर भ्रम होगा। सो झूठे भ्रमसे अपनेको शुद्धब्रह्म माननेसे क्या सिद्धि है?
तथा तू कहेगायह काम-क्रोधादिक तो मनके धर्म हैं, ब्रह्म न्यारा है। तो तुझसे
पूछते हैंमन तेरा स्वरूप है या नहीं? यदि है तो काम-क्रोधादिक भी तेरे ही हुए; और
नहीं है तो तू ज्ञानस्वभाव है या जड़ है? यदि ज्ञानस्वरूप है तो तेरे तो ज्ञान मन व
इन्द्रिय द्वारा ही होता दिखाई देता है। इनके बिना कोई ज्ञान बतलाये तो उसे तेरा अलग
स्वरूप मानें, सो भासित नहीं होता। तथा ‘‘मनज्ञाने’’ धातुसे मन शब्द उत्पन्न होता है सो
मन तो ज्ञानस्वरूप है; सो यह ज्ञान किसका है उसे बतला; परन्तु अलग कोई भासित नहीं
होता। तथा यदि तू जड़ है तो ज्ञान बिना अपने स्वरूपका विचार कैसे करता है? यह
तो बनता नहीं है। तथा तू कहता है
ब्रह्म न्यारा है, सो वह न्यारा ब्रह्म तू ही है या
और है? यदि तू ही है तो तेरे ‘‘मैं ब्रह्म हूँ’’ऐसा माननेवाला जो ज्ञान है वह तो मन-
स्वरूप ही है, मनसे अलग नहीं है; और अपनत्व मानना तो अपनेमें ही होता है। जिसे
न्यारा जाने उसमें अपनत्व नहीं माना जाता। सो मनसे न्यारा ब्रह्म है, तो मनरूप ज्ञान ब्रह्ममें
अपनत्व किसलिये मानता है? तथा यदि ब्रह्म और ही है तो तू ब्रह्ममें अपनत्व किसलिये
मानता है? इसलिये भ्रम छोड़कर ऐसा जान कि जिस प्रकार स्पर्शनादि इन्द्रियाँ तो शरीरका
स्वरूप है सो जड़ है, उसके द्वारा जो जानपना होता है सो आत्माका स्वरूप है; उसी प्रकार
मन भी सूक्ष्म परमाणुओंका पुंज है वह शरीरका ही अंग है। उसके द्वारा जानपना होता
है व काम-क्रोधादिभाव होते हैं सो सर्व आत्माका स्वरूप है।
विशेष इतनाजानपना तो निजस्वभाव है, काम-क्रोधादिक औपाधिकभाव हैं, उनसे
आत्मा अशुद्ध है। जब काल पाकर काम-क्रोधादि मिटेंगे और जानपनेके मन-इन्द्रियकी
आधीनता मिटेगी तब केवलज्ञानस्वरूप आत्मा शुद्ध होगा।
इसी प्रकार बुद्धिअहंकारादिक भी जान लेना; क्योंकि मन और बुद्धि आदिक एकार्थ
हैं और अहंकारादिक हैं वे काम-क्रोधादिवत् औपाधिकभाव हैं; इनको अपनेसे भिन्न जानना भ्रम
है। इनको अपना जानकर औपाधिकभावोंका अभाव करनेका उद्यम करना योग्य है। तथा जिनसे
इसका अभाव न हो सके और अपनी महंतता चाहें, वे जीव इन्हें अपने न ठहराकर स्वच्छन्द
प्रवर्तते हैं; काम-क्रोधादिक भावोंको बढ़ाकर विषय-सामग्रियोंमें व हिंसादिक कार्योंमें तत्पर होते हैं।
तथा अहंकारादिके त्यागको भी वे अन्यथा मानते हैं। सर्वको परब्रह्म मानना, कहीं
अपनत्व न मानना उसे अहंकारका त्याग बतलाते हैं सो मिथ्या है; क्योंकि कोई आप है

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१२० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
या नहीं? यदि तो है आपमें अपनत्व कैसे न मानें? यदि आप नहीं है तो सर्वका ब्रह्म
कौन मानता है? इसलिये शरीरादि परमें अहंबुद्धि न करना, वहाँ कर्ता न होना सो अहंकारका
त्याग है। अपनेमें अहंबुद्धि करनेका दोष नहीं है।
तथा सर्वको समान जानना, किसीमें भेद नहीं करना, उसको राग-द्वेषका त्याग बतलाते
हैं वह भी मिथ्या है; क्योंकि सर्व पदार्थ समान नहीं हैं। कोई चेतन है, कोई अचेतन है,
कोई कैसा है, कोई कैसा है, उन्हें समान कैसे मानें? इसलिये परद्रव्योंको इष्ट-अनिष्ट न मानना
सो राग-द्वेषका त्याग है। पदार्थोंका विशेष जाननेमें तो कुछ दोष नहीं है।
इसी प्रकार अन्य मोक्षमार्गरूप भावोंकी अन्यथा कल्पना करते हैं। तथा ऐसी कल्पनासे
कुशील सेवन करते हैं, अभक्ष्य भक्षण करते हैं, वर्णादि भेद नहीं करते, हीन क्रिया आचरते
हैं, इत्यादि विपरीतरूप प्रवर्तते हैं। जब कोई पूछे तब कहते हैं
यह तो शरीरका धर्म
है अथवा जैसा प्रारब्ध (भाग्य) है वैसा होता है, अथवा जैसी ईश्वरकी इच्छा होती है वैसा
होता है, हमको विकल्प नहीं करना।
सो देखो झूठ, आप जान-जानकर प्रवर्तता है उसे तो शरीरका धर्म बतलाता है,
स्वयं उद्यमी होकर कार्य करता है, उसे प्रारब्ध (भाग्य) कहता है और आप इच्छासे सेवन
करे उसे ईश्वरकी इच्छा बतलाता है। विकल्प करता है और कहता है
हमको तो विकल्प
नहीं करना। सो धर्मका आश्रय लेकर विषयकषाय सेवन करना है, इसलिये ऐसी झूठी युक्ति
बनाता है। यदि अपने परिणाम किंचित् भी न मिलाये तो हम इसका कर्तव्य न मानें।
जैसे
आप ध्यान धरे बैठे हो, कोई अपने ऊपर वस्त्र डाल गया, वहाँ आप किंचित् सुखी
न हुए; वहाँ तो उसका कर्तव्य नहीं है यह सच है। और आप वस्त्रको अंगीकार करके
पहिने, अपनी शीतादिक वेदना मिटाकर सुखी हो; वहाँ यदि अपना कर्तव्य नहीं मानें तो
कैसे सम्भव है? तथा कुशील सेवन करना, अभक्ष्य भक्षण करना इत्यादि कार्य तो परिणाम
मिले बिना होते नहीं; वहाँ अपना कर्तव्य कैसे न मानें? इसलिये यदि काम-क्रोधादिका अभाव
ही हुआ हो तो वहाँ किन्हीं क्रियाओंमें प्रवृत्ति सम्भव ही नहीं है। और यदि काम-क्रोधादि
पाये जाते हैं तो जिसप्रकार यह भाव थोड़े हों तदनुसार प्रवृत्ति करना। स्वच्छन्द होकर
इनको बढ़ाना युक्त नहीं है।
तथा कई जीव पवनादिकी साधना करके अपनेको ज्ञानी मानते हैं। वहाँ इड़ा, पिंगला,
सुषुम्णारूप नासिकाद्वारसे पवन निकले, वहाँ वर्णादिक भेदोंसे पवनकी ही पृथ्वी तत्त्वादिरूप
कल्पना करते हैं। उसके विज्ञान द्वारा किंचित् साधनासे निमित्तका ज्ञान होता है, इसलिये
जगतको इष्ट-अनिष्ट बतलाते हैं, आप महन्त कहलाते हैं; सो यह तो लौकिक कार्य है, कहीं

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पाँचवाँ अधिकार ][ १२१
मोक्षमार्ग नहीं है। जीवोंको इष्ट-अनिष्ट बतलाकर उनके राग-द्वेष बढ़ाये और अपने मान-
लोभादिक उत्पन्न करे, इसमें क्या सिद्धि है?
तथा प्राणायामादिक साधन करे, पवनको चढ़ाकर समाधि लगाई कहे; सो यह तो
जिस प्रकार नट साधना द्वारा हस्तादिकसे क्रिया करता है, उसी प्रकार यहाँ भी साधना द्वारा
पवनसे क्रिया की। हस्तादिक और पवन यह तो शरीरके ही अंग हैं इनके साधनेसे आत्महित
कैसे सधेगा?
तथा तू कहेगावहाँ मनका विकल्प मिटता है, सुख उत्पन्न होता है, यमके
वशीभूतपना नहीं होता; सो यह मिथ्या है। जिस प्रकार निद्रामें चेतनाकी प्रवृत्ति मिटती है,
उसी प्रकार पवन साधनेसे यहाँ चेतनाकी प्रवृत्ति मिटती है। वहाँ मनको रोक रखा है, कुछ
वासना तो मिटी नहीं है, इसलिये मनका विकल्प मिटा नहीं कहते; और चेतना बिना सुख
कौन भोगता है? इसलिये सुख उत्पन्न हुआ नहीं कहते। तथा इस साधनावाले तो इस क्षेत्रमें
हुए हैं, उनमें कोई अमर दिखाई नहीं देता। अग्नि लगानेसे उसका भी मरण होता दिखाई
देता है; इसलिये यमके वशीभूत नहीं हैं
यह झूठी कल्पना है।
तथा जहाँ साधनामें किंचित् चेतना रहे और वहाँ साधनासे शब्द सुने उसे ‘‘अनहद
नाद’’ बतलाता है। सो जिस प्रकार वीणादिकके शब्द सुननेसे सुख मानना है, उसी प्रकार
उसके सुननेसे सुख मानना है। यहाँ तो विषयपोषण हुआ, परमार्थ तो कुछ नहीं है। तथा
पवनके निकलने
- प्रविष्ट होनेमें ‘‘सोहं’’ ऐसे शब्द की कल्पना करके उसे ‘‘अजपा जाप’’ कहते
हैं। सो जिस प्रकार तीतरके शब्दमें ‘‘तू ही’’ शब्द की कल्पना करते हैं, कहीं तीतर अर्थका
अवधारण कर ऐसा शब्द नहीं कहता। उसी प्रकार यहाँ ‘‘सोहं’’ शब्दकी कल्पना है, कुछ
पवन अर्थ अवधारण करके ऐसे शब्द नहीं कहते; तथा शब्दके जपने
सुननेसे ही तो कुछ
फलप्राप्ति नहीं है, अर्थका अवधारण करनेसे फलप्राप्ति होती है।
‘‘सोहं’’ शब्दका तो अर्थ यह है ‘‘सो मैं हूँ।’’ यहाँ ऐसी अपेक्षा चाहिये कि
‘सो’ कौन? तब उसका निर्णय करना चाहिये; क्योंकि तत् शब्दको और यत् शब्दको नित्य
सम्बन्ध है। इसलिये वस्तुका निर्णय करके उसमें अहंबुद्धि धारण करनेमें ‘‘सोहं’’ शब्द बनता
है। वहाँ भी आपको आपरूप अनुभव करे वहाँ तो ‘‘सोहं’’ शब्द सम्भव नहीं है, परको
अपनेरूप बतलानेमें ‘‘सोहं’’ शब्द सम्भव है। जैसे
पुरुष आपको आप जाने, वहाँ ‘‘सो
मैं हूँ’’ ऐसा किसलिये विचारेगा? कोई अन्य जीव जो अपनेको न पहिचानता हो और कोई
अपना लक्षण न जानता हो, तब उससे कहते हैं
‘‘जो ऐसा है सो मैं हूँ’’, उसी प्रकार
यहाँ जानना।

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१२२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा कोई ललाट, भ्रमर और नासिकाके अग्रको देखनेके साधन द्वारा त्रिकुटी आदिका
ध्यान हुआ कहकर परमार्थ मानता है। वहाँ नेत्रकी पुतली फि रनेसे मूर्तिक वस्तु देखी, उसमें
क्या सिद्धि है? तथा ऐसे साधनसे किंचित् अतीत-अनागतादिकका ज्ञान हो, व वचनसिद्धि
हो, व पृथ्वी-आकाशादिमें गमनादिककी शक्ति हो, व शरीरमें आरोग्यतादिक हो तो यह तो
सर्व लौकिक कार्य हैं; देवादिकको स्वयमेव ही ऐसी शक्ति पायी जाती है। इनसे कुछ अपना
भला तो होता नहीं है; भला तो विषयकषायकी वासना मिटने पर होता है; यह तो
विषयकषायका पोषण करनेके उपाय हैं; इसलिये यह सर्व साधन किंचित् भी हितकारी नहीं
हैं। इनमें कष्ट बहुत मरणादि पर्यन्त होता है और हित सधता नहीं है; इसलिये ज्ञानी वृथा
ऐसा खेद नहीं करते, कषायी जीव ही ऐसे साधनमें लगते हैं।
तथा किसीको बहुत तपश्चरणादिक द्वारा मोक्षका साधन कठिन बतलाते हैं, किसीको
सुगमतासे ही मोक्ष हुआ कहते हैं। उद्धवादिकको परम भक्त कहकर उन्हें तो तपका उपदेश
दिया कहते हैं और वेश्यादिकको बिना परिणाम (केवल) नामादिकसे ही तरना बतलाते हैं,
कोई ठिकाना ही नहीं है।
इसप्रकार मोक्षमार्गको अन्यथा प्ररूपित करते हैं।
अन्यमत कल्पित मोक्षमार्गकी मीमांसा
तथा मोक्षस्वरूपको भी अन्यथा प्ररूपित करते हैं। वहाँ मोक्ष अनेक प्रकारसे बतलाते हैं।
एक तो मोक्ष ऐसा कहते हैं कि
वैकुण्ठधाममें ठाकुरठकुरानी सहित नाना भोग-विलास
करते हैं, वहाँ पहुँच जाय और उनकी सेवा करता रहे सो मोक्ष है; सो यह तो विरुद्ध है।
प्रथम तो ठाकुर ही संसारीवत् विषयासक्त हो रहे हैं; सो जैसे राजादिक हैं वैसे ही ठाकुर हुए।
तथा दूसरोंसे सेवा करानी पड़ी तब ठाकुरके पराधीनपना हुआ। और यदि वह मोक्ष प्राप्त करके
वहाँ सेवा करता रहे तो जिस प्रकार राजाकी चाकरी करना उसी प्रकार यह भी चाकरी हुई,
वहाँ पराधीन होने पर सुख कैसे होगा? इसलिये यह भी नहीं बनता।
तथा एक मोक्ष ऐसा कहते हैंईश्वरके समान आप होता है; सो भी मिथ्या है।
यदि उसके समान और भी अलग होते हैं तो बहुत ईश्वर हुए। लोकका कर्ता-हर्ता कौन
ठहरेगा? सभी ठहरें तो भिन्न इच्छा होने पर परस्पर विरोध होगा। एक ही है तो समानता
नहीं हुई। न्यून है उसको नीचेपनसे उच्च होनेकी आकुलता रही; तब सुखी कैसे होगा?
जिस प्रकार छोटा राजा या बड़ा राजा संसारमें होता है; उसी प्रकार छोटा-बड़ा ईश्वर मुक्तिमें
भी हुआ सो नहीं बनता।
तथा एक मोक्ष ऐसा कहते हैं किवैकुण्ठमें दीपक जैसी एक ज्योति है, वहाँ ज्योतिमें