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राजसादिक पाये जाते हैं ऐसा कहो। इन्हें पूज्य कहना, परमेश्वर कहना तो नहीं बनता।
जैसे अन्य संसारी हैं वैसे ये भी हैं।
हैं, सो यह भी भ्रम है। क्योंकि मायाके आधीन होनेसे तो काम-क्रोधादिक ही उत्पन्न होते
हैं और क्या होता है? सो उन ब्रह्मादिकोंके तो काम-क्रोधादिककी तीव्रता पायी जाती है।
कामकी तीव्रतासे स्त्रियोंके वशीभूत हुए नृत्य-गानादि करने लगे, विह्वल होने लगे, नानाप्रकार
कुचेष्टा करने लगे; तथा क्रोधके वशीभूत हुए अनेक युद्धादि करने लगे; मानके वशीभूत हुए
अपनी उच्चता प्रगट करनेके अर्थ अनेक उपाय करने लगे; मायाके वशीभूत हुए अनेक छल
करने लगे; लोभके वशीभूत हुए परिग्रहका संग्रह करने लगे
रुण्डमाला धारणादि बावलोंकी क्रिया, *बहुरूप धारणादि भूतोंकी क्रिया, गायें चराना आदि
वशीभूत होने पर क्या क्रिया होती सो समझमें नहीं आता?
ही नाम क्रोध है, इत्यादि इसी प्रकार जानना। और यदि बिना इच्छा करता है तो स्वयं
जिसे न चाहे ऐसा कार्य तो परवश होने पर ही होता है, सो परवशपना कैसे सम्भव है?
तथा तू लीला बतलाता है सो परमेश्वर अवतार धारण करके इन कार्योंकी लीला करता
है तो अन्य जीवोंको इन कार्योंसे छुड़ाकर मुक्त करनेका उपदेश किसलिये देते हैं? क्षमा,
सन्तोष, शील, संयमादिका उपदेश सर्व झूठा हुआ।
नमः कपालहस्ताय दिग्वासाय शिखण्डिने ।। (मत्स्य पुराण, अ० २५०, श्लोक २)
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कैसे कहेंगे? उसी प्रकार ब्रह्मादिक आप काम-क्रोधरूप चेष्टासे अपने उत्पन्न किये लोगों को
प्रवृत्ति करायें और वे लोग उस प्रकार प्रवृत्ति करें तब उन्हें नरकादिमें डाले। इन्हीं भावोंका
फल शास्त्रमें नरकादि लिखा है सो ऐसे प्रभुको भला कैसे मानें?
हुए तो जैसे कोई अपने सेवकको आप ही किसीसे कहकर मराये और फि र उस मारनेवालेको
आप मारे, तो ऐसे स्वामीको भला कैसे कहेंगे? उसी प्रकार जो अपने भक्तको आप ही
इच्छासे दुष्टों द्वारा पीड़ित कराये और फि र उन दुष्टोंको आप अवतार धारण करके मारे,
तो ऐसे ईश्वरको भला कैसे माना जाये?
ऐसा न होने दे। तथा उससे पूछते हैं कि यदि ऐसे कार्यके अर्थ अवतार धारण किया,
सो क्या बिना अवतार धारण किये शक्ति थी या नहीं? यदि थी तो अवतार क्यों धारण
किया? और नहीं थी तो बादमें सामर्थ्य होनेका कारण क्या हुआ?
द्वेष पाये जाते हैं तो अन्य जीवोंको राग-द्वेष छोड़कर समताभाव करनेका उपदेश किसलिये
दें? तथा राग-द्वेषके अनुसार कार्य करनेका विचार किया, सो कार्य थोड़े व बहुत काल
लगे बिना होता नहीं है, तो उतने काल आकुलता भी परमेश्वरको होती होगी। जैसे जिस
कार्यको छोटा आदमी ही कर सकता हो उस कार्यको राजा स्वयं आकर करे तो कुछ राजाकी
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।।८।। (गीता ४-८)
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कर सकें उस कार्यको परमेश्वर स्वयं अवतार धारण करके करता है
कराना चाहता है? तथा तू कहता है सर्व जीव परमेश्वरकी इच्छानुसार प्रवर्तते हैं और स्वयंको
स्तुति करानेकी इच्छा है तो सबको अपनी स्तुतिरूप प्रवर्तित करो, किसलिये अन्य कार्य करना
पड़े? इसलिए महिमाके अर्थ भी कार्य करना नहीं बनता।
मानो; परन्तु ऐसा असम्भव कहना युक्त नहीं है।
फि र वे कहते हैं
पहले इष्ट लगी तब उत्पन्न की, फि र अनिष्ट लगी तब नष्ट कर दी
परमेश्वरका एक स्वभाव नहीं ठहरा। सो एक स्वभाव न रहनेका कारण क्या है? वह बतला।
बिना कारण स्वभावका पलटना किसलिये होगा? और द्वितीय पक्ष ग्रहण करेगा तो सृष्टि
तो परमेश्वर के आधीन थी, उसे ऐसी क्यों होने दिया कि अपनेको अनिष्ट लगे?
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रचना बनायी सो पहले
दी वे कहाँसे सामग्री लाकर कैसे रचना करते हैं सो बतला।
ही कर्त्ता हुआ, लोक तो स्वयमेव ही उत्पन्न हुआ। तथा इच्छा तो परमब्रह्मने की थी, ब्रह्माका
कर्त्तव्य क्या हुआ जिससे ब्रह्मको सृष्टिको उत्पन्न करनेवाला कहा?
आया।
अनिष्ट बहुत देखे जाते हैं। जीवोंमें देवादिक बनाये सो तो रमण करनेके अर्थ व भक्ति
करानेके अर्थ इष्ट बनाये; और लट, कीड़ी, कुत्ता, सुअर, सिंहादिक बनाये सो किस अर्थ
बनाये? वे तो रमणीक नहीं हैं, भक्ति नहीं करते, सर्व प्रकार अनिष्ट ही हैं। तथा दरिद्री,
दुःखी नारकियोंको देखकर अपने जुगुप्सा, ग्लानि आदि दुःख उत्पन्न हों
परिणमित हुए सो कैसे परिणमित हुए? यदि आप ही परिणमित हुए कहोगे तो मालूम होता
है ब्रह्माने पहले तो उत्पन्न किये, फि र वे इसके आधीन नहीं रहे, इस कारण ब्रह्माको दुःख
ही हुआ।
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ब्रह्माको कुछ सुख तो नहीं उत्पन्न होता होगा। तथा तू कहेगा पापी जीवोंको दुःख देनेके
अर्थ बनाईं; तो अपने ही उत्पन्न किये जीव उनसे ऐसी दुष्टता किसलिये की, जो उनको
दुःखदायक सामग्री पहले ही बनाई? तथा धूल, पर्वतादि कुछ वस्तुएँ ऐसी भी हैं जो रमणीय
भी नहीं हैं और दुःखदायक भी नहीं हैं
सृष्टिका कर्ता कैसे कहा जाता है?
सो लोकमें तो दुःखको ही उत्पत्तिके कारण जहाँ-तहाँ देखे जाते हैं और उनसे जीवोंको दुःख
ही देखा जाता है। क्षुधा-तृषादि लग रहे हैं, शीत-उष्णादिकसे दुःख होता है, जीव परस्पर
दुःख उत्पन्न करते हैं, शस्त्रादि दुःखके कारण बन रहे हैं, तथा विनष्ट होनेके अनेक कारण
बन रहे हैं। जीवोंकी रोगादिक व अग्नि, विष, शस्त्रादिक पर्यायके नाशके कारण देखे जाते
हैं, तथा अजीवोंके भी परस्पर विनष्ट होनेके कारण देखे जाते हैं। सो ऐसे दोनों प्रकारकी
ही रक्षा नहीं की तो विष्णुने रक्षक होकर क्या किया?
उपस्थित होने पर भी
वहाँ विष्णुकी शक्ति हीन हुई या उसे ज्ञान ही नहीं हुआ? लोकमें बहुत तो ऐसे ही दुःखी
होते हैं, मरण पाते हैं; विष्णुने रक्षा क्यों नहीं की?
दुःखी होकर गरुड़ पक्षी द्वारा विष्णुसे प्रार्थना की तो उन्होंने समुद्रसे अण्डे दिलवा दिये। ऐसी पुराणोंमें
कथा है।
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तू कहता है कि भला हुआ वहाँ तो विष्णुका किया हुआ और बुरा हुआ सो इसके कर्त्तव्यका
फल हुआ। इस प्रकार झूठी कल्पना किसलिये करें? या तो बुरा व भला दोनों विष्णुके
किये कहो, या अपने कर्त्तव्यका फल कहो। यदि विष्णुका किया हुआ कहो तो बहुत जीव
दुःखी और शीघ्र मरते देखे जाते हैं सो ऐसा कार्य करे उसे रक्षक कैसे कहें? तथा अपने
कर्त्तव्यका फल है तो करेगा सो पायेगा, विष्णु क्या रक्षा करेगा?
है, भक्तोंका ही रक्षक मान। सो भक्तोंका भी रक्षक नहीं दीखता, क्योंकि अभक्त भी भक्त
पुरुषोंको पीड़ा उत्पन्न करते देखे जाते हैं।
अभक्त पुरुषों द्वारा भक्त पुरुषोंको पीड़ित होते देख व मन्दिरादिको विघ्न करते देखकर पूछते
हैं कि यहाँ सहाय नहीं करता, सो शक्ति नहीं है या खबर ही नहीं है। यदि शक्ति नहीं
है तो इनसे भी हीनशक्तिका धारक हुआ। खबर भी नहीं है तो जिसे इतनी भी खबर
नहीं है सो अज्ञान हुआ।
फि र वे कहते हैं
प्रकार विष्णुकी रक्षा करनेसे स्तुति की; उसी प्रकार उसकी संहार करनेसे निंदा करो, क्योंकि
रक्षा और संहार प्रतिपक्षी हैं।
तो बहुत जीवोंका सर्वलोकमें होता है, यह कैसे-कैसे अंगोंसे व किस-किसको आज्ञा देकर
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स्वयमेव उनका संहार होता है; तो उसके सदाकाल मारनेरूप दुष्ट परिणाम ही रहा करते
होंगे और अनेक जीवोंको एकसाथ मारनेकी इच्छा कैसे होती होगी? तथा यदि महाप्रलय
होने पर संहार करता है तो परमब्रह्मकी इच्छा होने पर करता है या उसकी बिना इच्छा
ही करता है? यदि इच्छा होने पर करता है तो परम ब्रह्मके ऐसा क्रोध कैसे हुआ कि
सर्वथा प्रलय करनेकी इच्छा हुई? क्योंकि किसी कारण बिना नाश करनेकी इच्छा नहीं होती
और नाश करनेकी जो इच्छा उसीका नाम क्रोध है सो कारण बतला?
है तब दूर करता है। यदि उसे यह लोक इष्ट-अनिष्ट लगता है तो उसे लोकसे राग-द्वेष
तो हुआ। ब्रह्मका स्वरूप साक्षीभूत किसलिये कहते हो; साक्षीभूत तो उसका नाम है जो
स्वयमेव जैसे हो उसीप्रकार देखता-जानता रहे। यदि इष्ट-अनिष्ट मानकर उत्पन्न करे, नष्ट करे,
उसे साक्षीभूत कैसे कहें? क्योंकि साक्षीभूत रहना और कर्ता-हर्ता होना यह दोनों परस्पर विरोधी
हैं; एकको दोनों सम्भव नहीं हैं।
भोलेपनसे कार्य करके फि र उस कार्यको दूर करना चाहे; उसी प्रकार परमब्रह्मने भी बहुत होकर
एक होनेकी इच्छा की सो मालूम होता है कि बहुत होनेका कार्य किया होगा सो भोलेपनहीसे
किया होगा, आगामी ज्ञानसे किया होता तो किसलिये उसे दूर करनेकी इच्छा होती?
है तो सबका एक साथ संहार कैसे करता है? तथा इसकी इच्छा होनेसे स्वयमेव संहार होता
है; तब इच्छा तो परमब्रह्मने की थी, इसने संहार क्यों किया?
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ब्रह्ममें एक हो जाती है तो जो जीव मायामें मिले थे वे भी मायाके साथ ब्रह्ममें मिल गये,
तो महाप्रलय होने पर सर्वका परमब्रह्ममें मिलना ठहरा ही, तब मोक्षका उपाय किसलिये करें?
है अलग-अलग रहते हैं, मिले क्यों कहते हो? और नये उत्पन्न होंगे तो जीवका अस्तित्व
थोड़ेकाल पर्यन्त ही रहता है, फि र किसलिये मुक्त होनेका उपाय करें?
और मूर्तिक अचेतन है तो यह ब्रह्ममें मिलता है या नहीं? यदि मिलता है तो इसके मिलनेसे
ब्रह्म भी मूर्तिक अचेतनसे मिश्रित हुआ। और नहीं मिलता है तो अद्वैतता नहीं रही। और
तू कहेगा
आप नष्ट होता हुआ लोकको नष्ट कैसे करेगा? और आगे-पीछे होता है तो महेश लोकको
नष्ट करके आप कहाँ रहा, आप भी तो सृष्टिमें ही था?
इस प्रकारसे व अन्य अनेक प्रकारसे ब्रह्मा, विष्णु, महेशको सृष्टिका उत्पन्न करनेवाला,
नरक द्वीपादिक हैं वे अनादिसे इसी प्रकार ही हैं और सदाकाल इसी प्रकार रहेंगे।
जिसप्रकार तू परमब्रह्मका स्वरूप अनादिनिधन मानता है, उसी प्रकार उन जीवादिक व
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दिखाये। लोकको अनादिनिधन माननेसे क्या दोष है? सो तू बतला।
वस्तु ही नहीं है या सर्वज्ञ नहीं है। इसलिये इन्द्रियज्ञानगम्य आकार नहीं है उस अपेक्षा निराकार
हैं और सर्वज्ञ ज्ञानगम्य हैं, इसलिये आकारवान हैं। जब आकारवान ठहरे तब अलग-अलग
हों तो क्या दोष लगेगा? और यदि तू जाति अपेक्षा एक कहे तो हम भी मानते हैं। जैसे
गेहूँ भिन्न-भिन्न हैं उनकी जाति एक है;
इत्यादि
महन्तोंको अन्य-अन्य माता-पितासे हुआ कहते हैं; सो महन्त पुरुष कुशीलवान माता-पिताके कैसे
उत्पन्न होंगे? यह तो लोकमें गाली है। फि र ऐसा कहकर उनको महंतता किसलिये कहते हैं?
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रहा? यदि रहा तो इन अवतारोंको पूर्णावतार किसलिये कहते हो? यदि (व्यापक) नहीं रहा
तो एतावन्मात्र ही ब्रह्म रहा। तथा अंशावतार हुए वहाँ ब्रह्मका अंश तो सर्वत्र कहते हो,
इनमें क्या अधिकता हुई? तथा कार्य तो तुच्छ था और उसके लिये ब्रह्मने स्वयं अवतार
धारण किया कहते हैं सो मालूम होता है बिना अवतार धारण किये ब्रह्मकी शक्ति वह कार्य
करनेकी नहीं थी; क्योंकि जो कार्य अल्प उद्यमसे हो वहाँ बहुत उद्यम किसलिये करें?
ऐसा क्यों होने दिया और कितने ही काल तक अपने भक्तको किसलिये दुःख दिलाया?
तथा ऐसा रूप किसलिये धारण किया? तथा नाभिराजाके वृषभावतार हुआ बतलाते हैं, सो
नाभिको पुत्रपनेका सुख उपजानेको अवतार धारण किया। घोर तपश्चरण किसलिये किया?
उनको तो कुछ साघ्य था ही नहीं। कहेगा कि जगतके दिखलानेको किया; तब कोई अवतार
तो तपश्चरण दिखाये, कोई अवतार भोगादिक दिखाये, वहाँ जगत किसको भला जानेगा?
पाकर पूजने योग्य हो उसका नाम अर्हत् है।
पहले ग्वाला होकर परस्त्री गोपियोंके अर्थ नाना विपरीत निंद्य
ऋषभावतार-८, पृथुअवतार-९, मत्स्य-१०, कच्छप-११, धन्वन्तरि-१२, मोहिनी-१३, नृसिंहावतार-१४,
वामन-१५, परशुराम-१६, व्यास-१७, हंस-१८, रामावतार-१९, कृष्णावतार-२०, हयग्रीव-२१, हरि-२२,
बुद्ध-२३, और कल्कि यह २४ अवतार माने जाते हैं।
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कहते हैं
ऐसे कार्य तो महानिंद्य हैं। तथा रुक्मिणीको छोड़कर राधाको मुख्य किया सो परस्त्री सेवनको
भला जान किया होगा? तथा एक राधामें ही आसक्त नहीं हुए, अन्य गोपिका *कुब्जा आदि
यह अलग लक्ष्मी कौन है जिसका भर्तार नारायण है? तथा सीतादिकको मायाका स्वरूप कहते
हैं, सो इनमें आसक्त हुए तब मायामें आसक्त कैसे न हुए? कहाँ तक कहें, जो निरूपण
करते हैं सो विरुद्ध करते हैं। परन्तु जीवोंको भोगादिककी कथा अच्छी लगती है, इसलिये
उनका कहना प्रिय लगता है।
किया? तथा मृगछाला, भस्म धारण करते हैं सो किस अर्थ धारण की है? तथा रुण्डमाला
पहिनते हैं सो हीको छूना भी निंद्य है उसे गलेमें किस अर्थ धारण करते हैं? सर्पादि सहित
हैं सो इसमें कौन बड़ाई है? आक
है सो ऐसी विपरीतता किसलिये की? कामासक्त था तो घरमें ही रहता, तथा उसने नानाप्रकार
विपरीत चेष्टा की उसका प्रयोजन तो कुछ भासित नहीं होता, बावले जैसा कर्तव्य भासित
होता है, उसे ब्रह्मस्वरूप कहते हैं।
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कहते हैं; सो ब्रह्म सर्वव्यापी है तो ऐसा विशेष किसलिये किया? और सूर्यादिमें व सुवर्णादिमें
ही ब्रह्म है तो सूर्य उजाला करता है, सुवर्ण धन है इत्यादि गुणोंसे ब्रह्म माना; सो दीपादिक
भी सूर्यवत् उजाला करते हैं, चांदी
हिंसादिक करना कैसे भला होगा? तथा गाय, सर्प आदि पशु अभक्ष्य भक्षणादिसहित उन्हें
पूज्य कहते हैं; अग्नि, पवन, जलादिकको देव ठहराकर पूज्य कहते हैं; वृक्षादिकको युक्ति
बनाकर पूज्य कहते हैं।
इनके पूजनेसे क्या होगा सो कुछ विचार नहीं है। झूठे लौकिक प्रयोजनके कारण ठहराकर
जगतको भ्रमाते हैं।
करते हैं और वहाँ दण्डादिक देते हैं; सो यह कल्पित झूठी युक्ति है। जीव तो प्रतिसमय
अनन्त उपजते-मरते हैं, उनका युगपत् ऐसा होना कैसे सम्भव है? और इस प्रकार माननेका
कोई कारण भी भासित नहीं होता।
मनुष्योंको भ्रमित करके अपना लोभ साधनेके अर्थ बनायी है।
देखे जाते हैं। झूठी कल्पना करनेसे क्या सिद्धि है?
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निषेध है; परन्तु ऐसे निर्दय हैं कि कुछ गिनते नहीं हैं और कहते हैं
उसी प्रकार हिंसा करनेसे धर्म और कार्यसिद्धि कहना प्रत्यक्ष विरुद्ध है। परन्तु जिनकी हिंसा
करना कहा, उनकी तो कुछ शक्ति नहीं है, किसीको उनकी पीड़ा नहीं है। यदि किसी शक्तिवान
व इष्टका होम करना ठहराया होता तो ठीक रहता। पापका भय नहीं है, इसलिये पापी दुर्बलके
घातक होकर अपने लोभके अर्थ अपना व अन्यका बुरा करनेमें तत्पर हुए हैं।
हो, सर्वके कर्ता-हर्ता हो, इत्यादि विशेषणोंसे गुण गाते हैं; सो इनमें कितने ही तो निराकारादि
विशेषण हैं सो अभावरूप हैं, उनको सर्वथा माननेसे अभाव ही भासित होता है। क्योंकि
आकारादि बिना वस्तु कैसी होगी? तथा कितने ही सर्वव्यापी आदि विशेषण असम्भवी हैं
सो उनका असम्भवपना पहले दिखाया ही है।
या जड़ है? यदि चेतन है तो वह चेतना ब्रह्मकी है या इसीकी है? यदि ब्रह्मकी है तो
‘‘मैं दास हूँ’’ ऐसा मानना तो चेतनाहीके होता है सो चेतना ब्रह्मका स्वभाव ठहरा और
स्वभाव-स्वभावीके तादात्म्य सम्बन्ध है, वहाँ दास और स्वामीका सम्बन्ध कैसे बनता है? दास
और स्वामीका सम्बन्ध तो भिन्न पदार्थ हो तभी बनता है। तथा यदि यह चेतना इसीकी
है तो यह अपनी चेतनाका स्वामी भिन्न पदार्थ ठहरा, तब मैं अंश हूँ व ‘‘जो तू है सो
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होना असम्भव है, ऐसी बुद्धि कैसे हुई? इसलिये ‘‘मैं दास हूँ’’ ऐसा कहना तो तभी बनता
है जब अलग-अलग पदार्थ हों। और ‘‘तेरा मैं अंश हूँ’’ ऐसा कहना बनता ही नहीं।
क्योंकि ‘तू’ और ‘मैं’ ऐसा तो भिन्न हो तभी बनता है, परन्तु अंश-अंशी भिन्न कैसे होंगे?
अंशी तो कोई भिन्न वस्तु है नहीं, अंशोंका समुदाय वही अंशी है। और ‘‘तू है सो मैं
हूँ’’
है; तो जो नाम ईश्वरका है वही नाम किसी पापी पुरुषका रखा, वहाँ दोनोंके नाम- उच्चारणमें
फलकी समानता हो, सो कैसे बनेगा? इसलिये स्वरूपका निर्णय करके पश्चात् भक्ति करने
योग्य हो उसकी भक्ति करना।
तथा जहाँ काम-क्रोधादिसे उत्पन्न हुए कार्योंका वर्णन करके स्तुति आदि करें उसे
निरूपित करते हैं। तथा स्नान करती स्त्रियोंके वस्त्र चुराना, दधि लूटना, स्त्रियोंके पैर पड़ना,
स्त्रियोंके आगे नाचना इत्यादि जिन कार्योंको करते संसारी जीव भी लज्जित हों उन कार्योंका
करना ठहराते हैं; सो ऐसा कार्य अति कामपीड़ित होने पर ही बनता है।
कार्य हैं। विषयसामग्री प्राप्तिके अर्थ यत्न किये कहते हैं सो यह लोभके कार्य हैं।
कौतूहलादिक किये कहते हैं सो हास्यादिकके कार्य हैं। ऐसे यह कार्य क्रोधादिसे युक्त होने
पर ही बनते हैं।
शास्त्रमें अत्यन्त निन्दा पायी जाती है, उन कार्योंका वर्णन करके स्तुति करना तो हस्तचुगल
जैसा कार्य हुआ।
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भला जानोगे तो पापी भले हुए, बुरा कौन रहा? बुरा जानोगे तो ऐसे कार्य कोई करो,
वही बुरा हुआ। पक्षपात रहित न्याय करो।
कार्य नहीं किये, तुम ही कहते हो, तो जिसमें दोष नहीं था उसे दोष लगाया। इसलिये
ऐसा वर्णन करना तो निन्दा है
क्रोधादिरूप होगा अथवा काम-क्रोधादिमें अनुरागी होगा, सो ऐसे भाव तो भले नहीं हैं।
यदि कहोगे
भला किसलिये कहें? इनके तो परस्पर प्रतिपक्षीपना है।
और महादेव के लिंगका ही आकार बनाते हैं। देखो विडम्बना! जिसका नाम लेने से लाज
आती है, जगत जिसे ढँक रखता है, उसके आकारकी पूजा कराते हैं। क्या उसके अन्य
अंग नहीं थे? परन्तु बहुत विडम्बना ऐसा ही करनेसे प्रगट होती है।
भोग लगाया कहते हैं; फि र आप ही प्रसादकी कल्पना करके उसका भक्षणादि करते हैं। सो
यहाँ पूछते हैं
दूर करेगा? तथा भोजनादि सामग्री आपने तो उनके अर्थ अर्पण की सो की, फि र प्रसाद तो
ठाकुर दे तब होता है, अपना ही किया तो नहीं होता। जैसे कोई राजाको भेंट करे, फि र
राजा इनाम दे तो उसे ग्रहण करना योग्य है; परन्तु आप राजाको भेंट करे, वहाँ राजा तो
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हुआ। और यदि एक हो तो भेंट कहना, प्रसाद करना झूठ हुआ। एक होने पर यह व्यवहार
सम्भव नहीं होता; इसलिए भोजनासक्त पुरुषों द्वारा ऐसी कल्पना की जाती है।
लेना और इन्द्रियोंके विषय अपने पोषना सो विषयासक्त जीवों द्वारा ऐसा उपाय किया गया
है। तथा वहाँ जन्म, विवाहादिककी व सोने-जागने इत्यादिकी कल्पना करते हैं सो जिस
प्रकार लड़कियाँ गुा-गुड़ियोंका खेल बनाकर कौतूहल करती हैं; उसी प्रकार यह भी कौतूहल
करता हैं, कुछ परमार्थरूप गुण नहीं है। तथा बाल ठाकुरका स्वांग बनाकर चेष्टाएँ दिखाते
हैं, उससे अपने विषयोंका पोषण करते हैं और कहते हैं
करता है? आप शुद्ध ब्रह्म ठहरा तब कर्तव्य क्या रहा? तथा अपनेको प्रत्यक्ष काम-क्रोधादिक
होते देखे जाते हैं, और शरीरादिकका संयोग देखा जाता है; सो इनका अभाव होगा तब
होगा, वर्तमानमें इनका सद्भाव मानना भ्रम कैसे हुआ?
ब्रह्म ही है, अपनेको अशुद्ध जान रहा था सो भ्रम था, भ्रम मिटने पर आप ब्रह्म ही है।
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आप काम-क्रोधादि सहित अशुद्ध हो रहा है उसे अशुद्ध जाने तो भ्रम कैसे होगा? शुद्ध
जानने पर भ्रम होगा। सो झूठे भ्रमसे अपनेको शुद्धब्रह्म माननेसे क्या सिद्धि है?
इन्द्रिय द्वारा ही होता दिखाई देता है। इनके बिना कोई ज्ञान बतलाये तो उसे तेरा अलग
स्वरूप मानें, सो भासित नहीं होता। तथा ‘‘मनज्ञाने’’ धातुसे मन शब्द उत्पन्न होता है सो
मन तो ज्ञानस्वरूप है; सो यह ज्ञान किसका है उसे बतला; परन्तु अलग कोई भासित नहीं
होता। तथा यदि तू जड़ है तो ज्ञान बिना अपने स्वरूपका विचार कैसे करता है? यह
तो बनता नहीं है। तथा तू कहता है
न्यारा जाने उसमें अपनत्व नहीं माना जाता। सो मनसे न्यारा ब्रह्म है, तो मनरूप ज्ञान ब्रह्ममें
अपनत्व किसलिये मानता है? तथा यदि ब्रह्म और ही है तो तू ब्रह्ममें अपनत्व किसलिये
मानता है? इसलिये भ्रम छोड़कर ऐसा जान कि जिस प्रकार स्पर्शनादि इन्द्रियाँ तो शरीरका
स्वरूप है सो जड़ है, उसके द्वारा जो जानपना होता है सो आत्माका स्वरूप है; उसी प्रकार
मन भी सूक्ष्म परमाणुओंका पुंज है वह शरीरका ही अंग है। उसके द्वारा जानपना होता
है व काम-क्रोधादिभाव होते हैं सो सर्व आत्माका स्वरूप है।
आधीनता मिटेगी तब केवलज्ञानस्वरूप आत्मा शुद्ध होगा।
है। इनको अपना जानकर औपाधिकभावोंका अभाव करनेका उद्यम करना योग्य है। तथा जिनसे
इसका अभाव न हो सके और अपनी महंतता चाहें, वे जीव इन्हें अपने न ठहराकर स्वच्छन्द
प्रवर्तते हैं; काम-क्रोधादिक भावोंको बढ़ाकर विषय-सामग्रियोंमें व हिंसादिक कार्योंमें तत्पर होते हैं।
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कौन मानता है? इसलिये शरीरादि परमें अहंबुद्धि न करना, वहाँ कर्ता न होना सो अहंकारका
त्याग है। अपनेमें अहंबुद्धि करनेका दोष नहीं है।
कोई कैसा है, कोई कैसा है, उन्हें समान कैसे मानें? इसलिये परद्रव्योंको इष्ट-अनिष्ट न मानना
सो राग-द्वेषका त्याग है। पदार्थोंका विशेष जाननेमें तो कुछ दोष नहीं है।
हैं, इत्यादि विपरीतरूप प्रवर्तते हैं। जब कोई पूछे तब कहते हैं
होता है, हमको विकल्प नहीं करना।
करे उसे ईश्वरकी इच्छा बतलाता है। विकल्प करता है और कहता है
बनाता है। यदि अपने परिणाम किंचित् भी न मिलाये तो हम इसका कर्तव्य न मानें।
जैसे
पहिने, अपनी शीतादिक वेदना मिटाकर सुखी हो; वहाँ यदि अपना कर्तव्य नहीं मानें तो
कैसे सम्भव है? तथा कुशील सेवन करना, अभक्ष्य भक्षण करना इत्यादि कार्य तो परिणाम
मिले बिना होते नहीं; वहाँ अपना कर्तव्य कैसे न मानें? इसलिये यदि काम-क्रोधादिका अभाव
ही हुआ हो तो वहाँ किन्हीं क्रियाओंमें प्रवृत्ति सम्भव ही नहीं है। और यदि काम-क्रोधादि
पाये जाते हैं तो जिसप्रकार यह भाव थोड़े हों तदनुसार प्रवृत्ति करना। स्वच्छन्द होकर
इनको बढ़ाना युक्त नहीं है।
कल्पना करते हैं। उसके विज्ञान द्वारा किंचित् साधनासे निमित्तका ज्ञान होता है, इसलिये
जगतको इष्ट-अनिष्ट बतलाते हैं, आप महन्त कहलाते हैं; सो यह तो लौकिक कार्य है, कहीं
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लोभादिक उत्पन्न करे, इसमें क्या सिद्धि है?
पवनसे क्रिया की। हस्तादिक और पवन यह तो शरीरके ही अंग हैं इनके साधनेसे आत्महित
कैसे सधेगा?
उसी प्रकार पवन साधनेसे यहाँ चेतनाकी प्रवृत्ति मिटती है। वहाँ मनको रोक रखा है, कुछ
वासना तो मिटी नहीं है, इसलिये मनका विकल्प मिटा नहीं कहते; और चेतना बिना सुख
कौन भोगता है? इसलिये सुख उत्पन्न हुआ नहीं कहते। तथा इस साधनावाले तो इस क्षेत्रमें
हुए हैं, उनमें कोई अमर दिखाई नहीं देता। अग्नि लगानेसे उसका भी मरण होता दिखाई
देता है; इसलिये यमके वशीभूत नहीं हैं
उसके सुननेसे सुख मानना है। यहाँ तो विषयपोषण हुआ, परमार्थ तो कुछ नहीं है। तथा
पवनके निकलने
अवधारण कर ऐसा शब्द नहीं कहता। उसी प्रकार यहाँ ‘‘सोहं’’ शब्दकी कल्पना है, कुछ
पवन अर्थ अवधारण करके ऐसे शब्द नहीं कहते; तथा शब्दके जपने
सम्बन्ध है। इसलिये वस्तुका निर्णय करके उसमें अहंबुद्धि धारण करनेमें ‘‘सोहं’’ शब्द बनता
है। वहाँ भी आपको आपरूप अनुभव करे वहाँ तो ‘‘सोहं’’ शब्द सम्भव नहीं है, परको
अपनेरूप बतलानेमें ‘‘सोहं’’ शब्द सम्भव है। जैसे
अपना लक्षण न जानता हो, तब उससे कहते हैं
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क्या सिद्धि है? तथा ऐसे साधनसे किंचित् अतीत-अनागतादिकका ज्ञान हो, व वचनसिद्धि
हो, व पृथ्वी-आकाशादिमें गमनादिककी शक्ति हो, व शरीरमें आरोग्यतादिक हो तो यह तो
सर्व लौकिक कार्य हैं; देवादिकको स्वयमेव ही ऐसी शक्ति पायी जाती है। इनसे कुछ अपना
भला तो होता नहीं है; भला तो विषयकषायकी वासना मिटने पर होता है; यह तो
विषयकषायका पोषण करनेके उपाय हैं; इसलिये यह सर्व साधन किंचित् भी हितकारी नहीं
हैं। इनमें कष्ट बहुत मरणादि पर्यन्त होता है और हित सधता नहीं है; इसलिये ज्ञानी वृथा
ऐसा खेद नहीं करते, कषायी जीव ही ऐसे साधनमें लगते हैं।
दिया कहते हैं और वेश्यादिकको बिना परिणाम (केवल) नामादिकसे ही तरना बतलाते हैं,
कोई ठिकाना ही नहीं है।
एक तो मोक्ष ऐसा कहते हैं कि
प्रथम तो ठाकुर ही संसारीवत् विषयासक्त हो रहे हैं; सो जैसे राजादिक हैं वैसे ही ठाकुर हुए।
तथा दूसरोंसे सेवा करानी पड़ी तब ठाकुरके पराधीनपना हुआ। और यदि वह मोक्ष प्राप्त करके
वहाँ सेवा करता रहे तो जिस प्रकार राजाकी चाकरी करना उसी प्रकार यह भी चाकरी हुई,
वहाँ पराधीन होने पर सुख कैसे होगा? इसलिये यह भी नहीं बनता।
ठहरेगा? सभी ठहरें तो भिन्न इच्छा होने पर परस्पर विरोध होगा। एक ही है तो समानता
नहीं हुई। न्यून है उसको नीचेपनसे उच्च होनेकी आकुलता रही; तब सुखी कैसे होगा?
जिस प्रकार छोटा राजा या बड़ा राजा संसारमें होता है; उसी प्रकार छोटा-बड़ा ईश्वर मुक्तिमें
भी हुआ सो नहीं बनता।