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वहाँ कैसे सम्भव है? तथा ज्योतिमें ज्योति मिलने पर यह ज्योति रहती है या विनष्ट हो जाती है?
यदि रहती है तो ज्योति बढ़ती जायगी, तब ज्योतिमें हीनाधिकपना होगा; और विनष्ट हो जाती
है तो अपनी सत्ता नष्ट हो ऐसा कार्य उपादेय कैसे मानें? इसलिये ऐसा भी बनता नहीं है।
यदि एक था तो ब्रह्म ही मायारूप हुआ और अलग था तो माया दूर होने पर ब्रह्ममें मिलता है
तब इसका अस्तित्व रहता है या नहीं? यदि रहता है तो सर्वज्ञको तो इसका अस्तित्व अलग भासित
होगा; तब संयोग होनेसे मिले कहो, परन्तु परमार्थसे तो मिले नहीं हैं। तथा अस्तित्व नहीं रहता
है तो अपना अभाव होना कौन चाहेगा? इसलिये यह भी नहीं बनता।
क्रोधादिक दूर होने पर तो ऐसा कहना बनता है; और वहाँ चेतनाका भी अभाव हुआ मानें
तो पाषाणादि समान जड़ अवस्थाको कैसे भला मानें? तथा भला साधन करनेसे तो जानपना
बढ़ता है, फि र बहुत भला साधन करने पर जानपनेका अभाव होना कैसे मानें? तथा लोकमें
ज्ञानकी महंततासे जड़पनेकी तो महंतता नहीं है; इसलिये यह नहीं बनता।
जैसे वे अवतार हुए मानते हैं वैसे ही यह पैगम्बर हुए मानते हैं। जिस प्रकार वे पुण्य-पापका
लेखा लेना, यथायोग्य दण्डादिक देना ठहराते हैं; उसी प्रकार यह खुदाको ठहराते हैं। तथा
जिस प्रकार वे गाय आदिको पूज्य कहते हैं; उसी प्रकार यह सूअर आदिको कहते हैं। सब
तिर्यंचादिक हैं। तथा जिस प्रकार वे ईश्वरकी भक्तिसे मुक्ति कहते हैं; उसी प्रकार यह खुदाकी
भक्तिसे कहते हैं। तथा जिसप्रकार वे कहीं दयाका पोषण, कहीं हिंसाका पोषण करते हैं; उसी
प्रकार यह भी कहीं महर करनेका, कहीं कतल करनेका पोषण करते हैं। तथा जिस प्रकार
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करते हैं। तथा जिस प्रकार वे कहीं मांस-मदिरा, शिकार आदिका निषेध करते हैं, कहीं उत्तम
पुरुषों द्वारा उनका अंगीकार करना बतलाते हैं; उसी प्रकार यह भी उनका निषेध व अंगीकार
करना बतलाते हैं। ऐसे अनेक प्रकारसे समानता पायी जाती है। यद्यपि नामादिक और हैं;
तथापि प्रयोजनभूत अर्थकी एकता पायी जाती है।
प्रत्यक्षादि प्रमाणसे विरुद्ध निरूपण करते हैं।
इस प्रकार इस क्षेत्र-कालमें जिन-जिन मतोंकी प्रचुर प्रवृत्ति है उनका मिथ्यापना प्रगट
तथा राजादिकोंका व विद्यावानोंका ऐसे धर्ममें विषयकषायरूप प्रयोजन सिद्ध होता है। तथा जीव
तो लोकनिंद्यपनाको भी लाँघकर, पाप भी जानकर, जिन कार्योंको करना चाहे उन कार्योंको करते
धर्म बतलायें तो ऐसे धर्ममें कौन नहीं लगेगा? इसलिये इन धर्मोंकी विशेष प्रवृत्ति है।
बिना झूठ नहीं चलता; परन्तु सर्वके हित प्रयोजनमें विषयकषायका ही पोषण किया है।
जिस प्रकार गीतामें उपदेश देकर युद्ध करनेका प्रयोजन प्रगट किया, वेदान्तमें शुद्ध निरूपण
करके स्वच्छन्द होनेका प्रयोजन दिखाया; उसी प्रकार अन्य जानना। तथा यह काल तो
निकृष्ट है, सो इसमें तो निकृष्ट धर्मकी ही प्रवृत्ति विशेष होती है।
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है, तमोगुण द्वारा मूढ़ता होती है, इत्यादि लक्षण कहते हैं। इनरूप अवस्थाका नाम प्रकृति है;
तथा उससे बुद्धि उत्पन्न होती है; उसीका नाम महतत्त्व है, उससे अहंकार उत्पन्न होता है; उससे
सोलह मात्रा होती हैं। वहाँ पाँच तो ज्ञान इन्द्रियाँ होती हैं
हैं सो बुद्धि नाम तो ज्ञानका है और ज्ञानगुणधारी पदार्थमें यह होती देखी जाती है, तो
इससे ज्ञान हुआ कैसे मानें? कोई कहे
अहंकार हुआ कहा सो परवस्तु में ‘‘मैं करता हूँ’’ ऐसा माननेका नाम अहंकार है, साक्षीभूत
जाननेसे तो अहंकार होता नहीं है, तो ज्ञानसे उत्पन्न कैसे कहा जाता है?
जाननेरूप भावइन्द्रियाँ हैं सो ज्ञानरूप हैं, अहंकारका क्या प्रयोजन है? कोई-किसीको अहंकार
बुद्धिरहित देखनेमें आता है? वहाँ अहंकार द्वारा उत्पन्न होना कैसे सम्भव है? तथा मन
कहा, सो इन्द्रियवत् ही मन है; क्योंकि द्रव्यमन शरीररूप है, भावमन ज्ञानरूप है। तथा
पाँच कर्मइन्द्रिय कहते हैं सो यह तो शरीरके अंग हैं, मूर्तिक हैं। अमूर्तिक अहंकारसे इनका
उत्पन्न होना कैसे मानें?
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भी कर्मइन्द्रियाँ हैं; पाँचकी ही संख्या किसलिये कहते हैं?
का परिणाम है, इसलिये यह मूर्तिक गुण कैसे उत्पन्न हुए मानें?
कोई भिन्न होते भासित नहीं होते, कथनमात्रसे भेद उत्पन्न करते हैं। इसलिये रूपादिसे अग्नि
आदि उत्पन्न हुए कैसे कहें? तथा कहनेमें भी गुणीमें गुण हैं, गुणसे गुणी उत्पन्न हुआ कैसे मानें?
उसीमें विचार करनेसे अन्यथापना भासित होगा।
तथा पुरुषको प्रकृतिसे भिन्न जाननेका नाम मोक्षमार्ग कहते हैं; सो प्रथम तो प्रकृति और
सिद्धि होती है। परन्तु इस प्रकार जाननेसे कुछ रागादिक नहीं घटते। प्रकृतिका कर्त्तव्य माने, आप
अकर्त्ता रहे; तो किसलिये आप रागादिक कम करेगा? इसलिये यह मोक्षमार्ग नहीं है।
पदार्थ पच्चीस तत्त्वोंमें कहा ही नहीं। तथा पुरुषको ही प्रकृतिका संयोग होने पर जीव संज्ञा
होती है तो पुरुष न्यारे-न्यारे प्रकृतिसहित हैं, पश्चात् साधन द्वारा कोई पुरुष प्रकृतिरहित
होता है
और अलग है तो वह भी एक वस्तु है, सर्व कर्तव्य उसका ठहरा। पुरुषका कुछ कर्तव्य
ही नहीं रहा, तब किसलिये उपदेश देते हैं?
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कल्पना करते हैं, कुछ निश्चय नहीं है। तथा इस मतमें कितने ही जटा धारण करते हैं,
कितने ही चोटी रखते हैं, कितने ही मुण्डित होते हैं, कितने ही कत्थई वस्त्र पहिनते हैं;
इत्यादि अनेक प्रकारसे भेष धारण करके तत्त्वज्ञानके आश्रयसे महन्त कहलाते हैं।
अर्थ प्रवृत्ति हो सो प्रयोजन है। जिसे वादी-प्रतिवादी मानें सो दृष्टान्त है। दृष्टान्त द्वारा जिसे
ठहरायें वह सिद्धान्त है। तथा अनुमानके प्रतिज्ञा आदि पाँच अंग वह अवयव हैं। संशय
दूर होने पर किसी विचारसे ठीक हो सो तर्क है। पश्चात् प्रतीतिरूप जानना सो निर्णय है।
आचार्य-शिष्यमें पक्ष-प्रतिपक्ष द्वारा अभ्यास सो वाद है। जाननेकी इच्छारूप कथामें जो छल,
जाति आदि दूषण हो सो जल्प है। प्रतिपक्ष रहित वाद सो वितंडा है। सच्चे हेतु नहीं हैं
ऐसे असिद्ध आदि भेदसहित हेत्वाभास है। छलसहित वचन सो छल है। सच्चे दूषण नहीं हैं
ऐसे दूषणाभास सो जाति है। जिससे प्रतिवादीका निग्रह हो सो निग्रहस्थान है।
इनसे परमार्थकार्य क्या होगा? काम-क्रोधादि भावको मिटाकर निराकुल होना सो कार्य है;
वह प्रयोजन तो यहाँ कुछ दिखाया नहीं है; पंडिताईकी नाना युक्तियाँ बनाईं, सो यह भी
एक चातुर्य है; इसलिये यह तत्त्वभूत नहीं हैं।
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लौकिक (कार्य) साधनेको ही कारण होते हैं। जिस प्रकार इन्द्रियादिकके जाननेको प्रत्यक्षादि
प्रमाण कहा, व स्थाणु-पुरुषादिमें संशयादिकका निरूपण किया। इसलिये जिनको जाननेसे
अवश्य काम-क्रोधादि दूर हों, निराकुलता उत्पन्न हो, वे ही तत्त्व कार्यकारी हैं।
प्रमेय तत्त्व किसलिये कहे? आत्मा आदि तत्त्व कहना थे।
उत्पन्न नहीं है, क्योंकि इसमें अकार्यरूप पदार्थ भी हैं। जो अकार्य हैं सो कर्ता द्वारा उत्पन्न
नहीं हैं, जैसे
प्रत्यक्षादि प्रमाणके अगोचर हैं, इसलिये ईश्वरको कर्ता मानना मिथ्या है।
तथा प्रमाणादिकके स्वरूपकी भी अन्यथा कल्पना करते हैं वह जैन ग्रंथोंसे परीक्षा
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कार्यरूप पृथ्वी आदि होते हैं सो अनित्य हैं। परन्तु ऐसा कहना प्रत्यक्षादिसे विरुद्ध है।
ईन्धनरूप पृथ्वी आदिके परमाणु अग्निरूप होते देखे जाते हैं, अग्नि के परमाणु राखरूप पृथ्वी
होते देखे जाते हैं। जलके परमाणु मुक्ताफल (मोती) रूप पृथ्वी होते देखे जाते हैं। फि र
यदि तू कहेगा
ही ऐसा ठहरता नहीं है। इसलिये सब परमाणुओंकी एक पुद्गलरूप मूर्तिक जाति है, वह
पृथ्वी आदि अनेक अवस्थारूप परिणमित होती है।
यह अन्यत्र
ही अवस्तु हैं, यह सत्तारूप पदार्थ नहीं हैं। पदार्थोंके क्षेत्र-परिणमनादिकका पूर्वापर विचार
करनेके अर्थ इनकी कल्पना करते हैं। तथा दिशा कुछ है ही नहीं; आकाशमें खण्डकल्पना
द्वारा दिशा मानते हैं। तथा आत्मा दो प्रकार से कहते हैं; सो पहले निरूपण किया ही
है। तथा मन कोई पृथक् पदार्थ नहीं है। भावमन तो ज्ञानरूप है सो आत्माका स्वरूप
है, द्रव्यमन परमाणुओंका पिण्ड है सो शरीरका अंग है। इस प्रकार यह द्रव्य कल्पित जानना।
द्वेष, स्नेह, गुरुत्व, द्रव्यत्व। सो इनमें स्पर्शादिक गुण तो परमाणुओंमें पाये जाते हैं; परन्तु
पृथ्वीको गंधवती ही कहना, जलको शीत स्पर्शवान ही कहना इत्यादि मिथ्या है; क्योंकि किसी
पृथ्वीमें गंधकी मुख्यता भासित नहीं होती, कोई जल उष्ण देखा जाता है
रुकता है, इसलिये मूर्तिक है और आकाश अमूर्तिक सर्वव्यापी है। भींतमें आकाश रहे और
शब्दगुण प्रवेश न कर सके, यह कैसे बनेगा? तथा संख्यादिक हैं सो वस्तुमें तो कुछ हैं
नहीं, अन्य पदार्थकी अपेक्षा अन्य पदार्थकी हीनाधिकता जाननेको अपने ज्ञानमें संख्यादिककी
कल्पना द्वारा विचार करते हैं। तथा बुद्धि आदि है सो आत्माका परिणमन है, वहाँ बुद्धि
नाम ज्ञानका है तो आत्माका गुण है ही, और मनका नाम है तो मन तो द्रव्योंमें कहा ही
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लक्षणभूत तो यह गुण हैं नहीं, अव्याप्तपनेसे लक्षणाभास है। तथा स्निग्धादि पुद्गलपरमाणुमें
पाये जाते हैं, सो स्निग्ध गुरुत्व इत्यादि तो स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा जाने जाते हैं, इसलिये
स्पर्शगुणमें गर्भित हुए, अलग किसलिये कहे? तथा द्रव्यत्वगुण जलमें कहा, सो ऐसे तो अग्नि
आदिमें ऊर्ध्वगमनत्वादि पाये जाते हैं। या तो सर्व कहना थे या सामान्यमें गर्भित करना
थे। इस प्रकार यह गुण कहे वे भी कल्पित हैं।
नहीं हैं, चेष्टाएँ तो बहुत ही प्रकारकी होती हैं। तथा इनको अलग ही तत्त्व संज्ञा कही; सो
या तो अलग पदार्थ हों तो उन्हें अलग तत्त्व कहना था, या काम-क्रोधादि मिटानेमें विशेष
प्रयोजनभूत हों तो तत्त्व कहना था; सो दोनों ही नहीं है। और ऐसे ही कह देना हो तो
पाषाणादिककी अनेक अवस्थाएँ होती हैं सो कहा करो, कुछ साध्य नहीं हैं।
नाम समवाय है। यह सामान्यादिक तो बहुतोंको एक प्रकार द्वारा व एक वस्तुमें भेद-कल्पना
द्वारा व भेदकल्पना अपेक्षा सम्बन्ध माननेसे अपने विचारमें ही होते हैं, कोई अलग पदार्थ
तो हैं नहीं। तथा इनके जाननेसे काम-क्रोधादि मिटानेरूप विशेष प्रयोजनकी भी सिद्धि नहीं
है, इसलिये इनको तत्त्व किसलिये कहा? और ऐसे ही तत्त्व कहना थे तो प्रमेयत्वादि वस्तुके
अनन्त धर्म हैं व सम्बन्ध, आधारादिक कारकोंके अनेक प्रकार वस्तुमें सम्भवित हैं, इसलिये
या तो सर्व कहना थे या प्रयोजन जानकर कहना थे। इसलिये यह सामान्यादिक तत्त्व भी
वृथा ही कहे हैं।
तथा वैशेषिक दो ही प्रमाण मानते हैं
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अधिकरणपना आत्माका लक्षण कहा था; अब ज्ञानका अभाव होने पर लक्षणका अभाव होनेसे
लक्ष्यका भी अभाव होगा, तब आत्माकी स्थिति किस प्रकार रही? और यदि बुद्धि नाम
मनका है तो भावमन तो ज्ञानरूप है ही, और द्रव्यमन शरीररूप है सो मुक्त होने पर द्रव्यमनका
सम्बन्ध छूटता ही है, तो जड़ द्रव्यमनका नाम बुद्धि कैसे होगा? तथा मनवत् ही इन्द्रियाँ
जानना। तथा विषयका अभाव हो, तो स्पर्शादि विषयोंका जानना मिटता है, तब ज्ञान किसका
नाम ठहरेगा? और उन विषयोंका अभाव होगा तो लोकका अभाव होगा। तथा सुखका
अभाव कहा, सो सुखके ही अर्थ उपाय करते हैं; उसका जब अभाव होगा, तब उपादेय
कैसे होगा? तथा यदि वहाँ आकुलतामय इन्द्रियजनित सुखका अभाव हुआ कहें तो यह सत्य
है; क्योंकि निराकुलता- लक्षण अतीन्द्रिय सुख तो वहाँ सम्पूर्ण सम्भव है, इसलिये सुखका
अभाव नहीं है। तथा शरीर, दुःख, द्वेषादिकका वहाँ अभाव कहते हैं सो सत्य है।
सहित भेष होते हैं सो आचारादि भेदसे चार प्रकार हैंः
दिखाया है सो विचारना।
हैं।
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जिनका वे चार प्रकारके हैं
यह भेष कार्यकारी नहीं हैं।
धर्मका साधन करना। जैसे कहते हैं कि
यदि वेदमें ही कहीं कुछ, कहीं कुछ निरूपण किया है, तो उसकी प्रमाणता कैसे रही? और
यदि मतवाले ही कहीं कुछ कहीं कुछ निरूपण करते हैं तो तुम परस्पर झगड़, निर्णय करके
एकको वेदका अनुसारी अन्यको वेदसे पराङ्मुख ठहराओ। सो हमें तो यह भासित होता है
ग्रहण करके अलग-अलग मतोंके अधिकारी हुए हैं। परन्तु ऐसे वेदको प्रमाण कैसे करें? तथा
अग्नि पूजनेसे स्वर्ग होता है, सो अग्निको मनुष्यसे उत्तम कैसे मानें? प्रत्यक्ष-विरुद्ध है। तथा
वह स्वर्गदाता कैसे होगी? इसी प्रकार अन्य वेदवचन प्रमाणविरुद्ध हैं। तथा वेदमें ब्रह्मा कहा
है, तो सर्वज्ञ क्यों नहीं मानते? इत्यादि प्रकारसे जैमिनीयमत कल्पित जानना।
मार्गश्चेत्यस्य च व्याख्या क्रमेण श्रूयतामतः।।३६।। वि० वि०
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रूप
बहुत हैं सो दुःखी है; किसीके ज्ञान बहुत है, काम-क्रोधादि अल्प हैं व नहीं हैं सो सुखी
है। इसलिये विज्ञानादिक दुःख नहीं हैं।
तो इनका क्या प्रयोजन है?
इनको भी कहनेका कुछ प्रयोजन नहीं है।
नहीं देता, हम कैसे मानें? तथा बाल-वृद्धादि अवस्थामें एक आत्माका अस्तित्व भासित होता
है; यदि एक नहीं है तो पूर्व-उत्तर कार्यका एक कर्ता कैसे मानते हैं? यदि तू कहेगा
कैसे कहते हैं? क्षणिक है तो जिसका आधार ही क्षणिक है उस संस्कारकी परम्परा कैसे कहते
हैं? तथा सर्व क्षणिक हुआ तब आप भी क्षणिक हुआ। तू ऐसी वासनाको मार्ग कहता है,
वेदनानुभवः संज्ञा निमित्तोद्ग्रहणात्मिका।
संस्कारस्कन्धश्चतुर्भ्योन्ये संस्कारास्त इमे त्रय ।।१५।।
विज्ञानं प्रति विज्ञप्ति........। अ० को० (१)
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तथा तेरे मतमें निरर्थक शास्त्र किसलिये बनाये? उपदेश तो कुछ कर्तव्य द्वारा फल प्राप्त करनेके
अर्थ दिया जाता है। इस प्रकार यह मार्ग मिथ्या है।
हैं; परन्तु ज्ञानादिक अपने स्वरूपका अभाव होने पर तो अपना अभाव होगा, उसका उपाय
करना कैसे हितकारी होगा? हिताहित का विचार करनेवाला तो ज्ञान ही है; सो अपने अभावको
ज्ञानी हित कैसे मानेगा?
उनका निरूपण किस अर्थ किया? प्रत्यक्ष-अनुमान तो जीव आप ही कर लेंगे, तुमने शास्त्र
किसलिये बनाये?
इत्यादि लिंगरूप बौद्धमतके भिक्षुक हैं; सो क्षणिकको भेष धारण करनेका क्या प्रयोजन? परन्तु
महंतताके अर्थ कल्पित निरूपण करना और भेष धारण करना होता है।
है, इससे परे कुछ नहीं है ऐसा मानते हैं। योगाचारोंके आचारसहित बुद्धि पायी जाती है;
तथा माध्यमिक हैं वे पदार्थके आश्रय बिना ज्ञानको ही मानते हैं। वे अपनी-अपनी कल्पना
करते हैं; परन्तु विचार करने पर कुछ ठिकानेकी बात नहीं है।
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कैसे करता है?
हैं; इन्हें कैसे न मानें? और मोक्षका होना अनुमानमें आता है। क्रोधादिक दोष किसीके
हीन हैं, किसीके अधिक हैं; तो मालूम होता है किसीके इनकी नास्ति भी होती होगी।
और ज्ञानादि गुण किसीके हीन, किसीके अधिक भासित होते हैं; इसलिये मालूम होता है
किसीके सम्पूर्ण भी होते होंगे। इसप्रकार जिसके समस्त दोषकी हानि, गुणोंकी प्राप्ति हो;
वही मोक्ष-अवस्था है।
बिना ही यत्न निरोगता रहती है
तू उसका नाम पवन कहता है। परन्तु पवन तो भींत आदिसे अटकती है, आत्मा मुँदा
(बन्द) होने पर भी अटकता नहीं है; इसलिये पवन कैसे मानें?
सबका जानना तेरे नहीं है, तू इतना ही लोक किस प्रकार कहता है?
जो प्रत्यक्ष भिन्न-भिन्न देखे जाते हैं। तथा एक शरीरमें पृथ्वी आदि तो भिन्न-भिन्न भासित
होते हैं, चेतना एक भासित होती है। यदि पृथ्वी आदिके आधारसे चेतना हो तो हाड़,
रक्त, उच्छ्वासादिकके अलग-अलग चेतना होगी। तथा हाथ आदिको काटने पर जिस प्रकार
उसके साथ वर्णादिक रहते हैं, उसी प्रकार चेतना भी रहेगी। तथा अहंकार, बुद्धि तो चेतनाके
हैं, सो पृथ्वी आदिरूप शरीर तो यहाँ ही रहा, तब व्यंतरादि पर्यायमें पूर्वपर्यायका अहंपना
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सो यह जानना किसके साथ गया? जिसके साथ जानना गया वही आत्मा है।
उपदेश दिया? तू कहेगा
आदि होता है; तू इनको छुड़ाकर क्या भला करता है? विषयासक्त जीवोंको सुहाती बातें
कहकर अपना व औरोंका बुरा करनेका भय नहीं है; स्वच्छन्द होकर विषयसेवनके अर्थ ऐसी
युक्ति बनाता है।
एक जिनमत है सो ही सत्यार्थका प्ररूपक है, सर्वज्ञ
आगे विशेष लिखेंगे सो जानना।
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प्रयोजन ही भिन्न-भिन्न हैं सो बतलाते हैंः
पोषणको प्रयोजन है; क्योंकि कल्पित रचना कषायी जीव ही करते हैं और अनेक युक्तियाँ
बनाकर कषायभावका ही पोषण करते हैं। जैसे
जाननेसे ही सिद्धि होना मानने द्वारा, मीमांसक कषायजनित आचरणको धर्म मानने द्वारा, बौद्ध
क्षणिक मानने द्वारा, चार्वाक परलोकादि न मानने द्वारा
हैं; तो उस छलसे अन्य किसी कषायका पोषण करते हैं। जिस प्रकार
विषय-कषायका पोषण करते हैं; तथा जैनधर्ममें देव-गुरु-धर्मादिकका स्वरूप वीतराग ही निरूपण
करके केवल वीतरागताका ही पोषण करते हैं
शेषः कामविडंबितो हि विषयान् मोक्तुं न मोक्तुं क्षमः
इनमें एक ही हितकारी है और वह वीतरागभाव ही है; जिसके होनेसे तत्काल आकुलता
है। शेष लोग तो दुर्निवार कामदेवके वाणरूप सर्पोंके विषसे मूर्छित हुए हैं जो कामकी विडम्बनासे
न तो विषयोंको भलीभाँति भोग ही सकते हैं और न छोड़ ही सकते हैं।
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सभी मतवाले कहते हैं। सरागभाव होने पर तत्काल आकुलता होती है, निंदनीय होता है,
और आगामी बुरा होना भासित होता है। इसलिये जिसमें वीतरागभावका प्रयोजन है ऐसा
जैनमत ही इष्ट है। जिसमें सरागभावके प्रयोजन प्रगट किये हैं ऐसे अन्यमत अनिष्ट हैं इन्हें
समान कैसे मानें?
होंगे, इसलिये करुणाभावसे यथार्थ निरूपण किया है। कोई बिना दोष दुःख पाता हो, विरोध
उत्पन्न करे, तो हम क्या करें? जैसे
हो तो क्या करें? इसी प्रकार यदि पापियोंके भयसे धर्मोपदेश न दें तो जीवोंका भला कैसे
होगा? ऐसा तो कोई उपदेश है नहीं जिससे सभी चैन पायें? तथा वे विरोध उत्पन्न करते
हैं; सो विरोध तो परस्पर करे तो होता है; परन्तु हम लड़ेंगे नहीं, वे आप ही उपशांत
हो जायेंगे। हमें तो अपने परिणामोंका फल होगा।
हो तो वीतरागभाव होने पर ही महंतपना भासित हो; परन्तु जो जीव वीतरागी नहीं हैं और
अपनी महंतता चाहते हैं, उन्होंने सरागभाव होने पर भी महंतता मनानेके अर्थ कल्पित युक्ति
द्वारा अन्यथा निरूपण किया है। वे अद्वैतब्रह्मादिकके निरूपण द्वारा जीव-अजीवके और
स्वच्छन्दवृत्तिके पोषण द्वारा आस्रव-संवरादिकके और सकषायीवत् व अचेतनवत् मोक्ष कहने
द्वारा मोक्षके अयथार्थ श्रद्धानका पोषण करते हैं; इसलिये अन्यमतोंका अन्यथापना प्रगट किया
है। इनका अन्यथापना भासित हो तो तत्त्वश्रद्धानमें रुचिवान हो, और उनकी युक्तिसे भ्रम
उत्पन्न न हो।
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तथा दुर्वासाऋषिकृत ‘‘महिम्निस्तोत्र’’ में ऐसा कहा हैः
कर्त्तार्हन् पुरुषो हरिश्च सविता बुद्धः शिवस्त्वं गुरुः ।।१।।
बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्त्तेति नैयायिकाः।
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सोऽयं वो विदधातु वांछितफलं त्रैलोक्यनाथः प्रभु
यहाँ कोई कहे
ईश्वर मानें। जैसे
माने? उसी प्रकार जैनी सच्चे देवादिका निरूपण करता है, अन्यमती झूठे निरूपित करता
है; वहाँ अन्यमती अपनी समान महिमाके अर्थ सर्वको समान कहता है, परन्तु जैनी कैसे
माने?
जिनमाता जिनेन्द्रा च शारदा हंसवाहिनी ।।१।।
तथा ‘‘गणेश पुराण’’ में ऐसा कहा है
तथा ‘‘भागवत’’ के पंचमस्कंधमें
कर्म कहकर उपासना करते हैं; वह त्रैलोक्यनाथ प्रभु तुम्हारे मनोरथों को सफल करें।
३. भागवत स्कंध ५, अध्याय ५, २९।
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की ऐसा कहते हैं। सो जिस प्रकार राम-कृष्णादि अवतारोंके अनुसार अन्यमत हैं, उसी प्रकार
ऋषभावतारके अनुसार जैनमत है; इस प्रकार तुम्हारे मत ही द्वारा जैनमत प्रमाण हुआ।
प्रवृत्तियोंको समान माननेसे धर्म-अधर्मका विशेष नहीं रहेगा और विशेष माननेसे जो भली हो
वह अंगीकार करना।
सहज ही हुए।
प्रतिभासित होते हैं।
तेनैव तपसाकृष्टः शिवः प्रत्यक्षतां गतः ।।१।।
पद्मासनमासीनः श्याममूर्तिर्दिगम्बरः।
नेमिनाथः शिवेत्येवं नाम चक्रेअस्य वामनः ।।२।।
कलिकाले महाघोरे सर्व पापप्रणाशकः।
दर्शनात्स्पर्शनादेव कोटियज्ञफलप्रदः ।।३।।
तो जैनी प्रत्यक्ष मानते हैं; सो प्रमाण ठहरा।
ऋषीणामाश्रमादेव मुक्तिमार्गस्य कारणम्।।१।।
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नादविन्दुकलाक्रान्तं चन्द्रमण्डलसन्निभम् ।।१।।
एतद्देवि परं तत्त्वं यो विजनातितत्त्वतः।
संसारबन्धनं छित्वा स गच्छेत्परमां गतिम् ।।२।।
मुनेरर्हत्सुभक्तस्य तत्फलं जायते कलौ ।।१।।
चक्षुष्मान् यशस्वी वाभिचन्द्रोअथ प्रसेनजित् ।।१।।
मरुदेवी च नाभिश्च भरते कुल सत्तमाः।
अष्टमो मरुदेव्यां तु नाभेर्जात उरक्रमः ।।२।।
दर्शयन् वर्त्म वीराणां सुरसुरनमस्कृतः।
नीतित्रितयकर्त्ता यो युगादौ प्रथमो जिनः ।।३।।
युगके आदिसे ही है, और प्रमाणभूत कैसे न कहें?