Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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पाँचवाँ अधिकार ][ १२३
ज्योति मिल जाती है; सो यह भी मिथ्या है। दीपककी ज्योति तो मूर्तिक अचेतन है, ऐसी ज्योति
वहाँ कैसे सम्भव है? तथा ज्योतिमें ज्योति मिलने पर यह ज्योति रहती है या विनष्ट हो जाती है?
यदि रहती है तो ज्योति बढ़ती जायगी, तब ज्योतिमें हीनाधिकपना होगा; और विनष्ट हो जाती
है तो अपनी सत्ता नष्ट हो ऐसा कार्य उपादेय कैसे मानें? इसलिये ऐसा भी बनता नहीं है।
तथा एक मोक्ष ऐसा कहते हैं किआत्मा ब्रह्म ही है, मायाका आवरण मिटने पर मुक्ति
ही है; सो यह भी मिथ्या है। यह मायाके आवरण सहित था तब ब्रह्मसे एक था कि अलग था?
यदि एक था तो ब्रह्म ही मायारूप हुआ और अलग था तो माया दूर होने पर ब्रह्ममें मिलता है
तब इसका अस्तित्व रहता है या नहीं? यदि रहता है तो सर्वज्ञको तो इसका अस्तित्व अलग भासित
होगा; तब संयोग होनेसे मिले कहो, परन्तु परमार्थसे तो मिले नहीं हैं। तथा अस्तित्व नहीं रहता
है तो अपना अभाव होना कौन चाहेगा? इसलिये यह भी नहीं बनता।
तथा कितने ही एक प्रकारसे मोक्षको ऐसा भी कहते हैं किबुद्धि आदिकका नाश
होने पर मोक्ष होता है। सो शरीरके अंगभूत मन, इन्द्रियोंके आधीन ज्ञान नहीं रहा। काम-
क्रोधादिक दूर होने पर तो ऐसा कहना बनता है; और वहाँ चेतनाका भी अभाव हुआ मानें
तो पाषाणादि समान जड़ अवस्थाको कैसे भला मानें? तथा भला साधन करनेसे तो जानपना
बढ़ता है, फि र बहुत भला साधन करने पर जानपनेका अभाव होना कैसे मानें? तथा लोकमें
ज्ञानकी महंततासे जड़पनेकी तो महंतता नहीं है; इसलिये यह नहीं बनता।
इसी प्रकार अनेक प्रकार कल्पना द्वारा मोक्षको बतलाते हैं सो कुछ यथार्थ तो जानते
नहीं हैं; संसारअवस्थाकी मुक्तिअवस्थामें कल्पना करके अपनी इच्छानुसार बकते हैं।
इस प्रकार वेदान्तादि मतोंमें अन्यथा निरूपण करते हैं।
मुस्लिममत सम्बन्धी विचार
तथा इसी प्रकार मुसलमानोंके मतमें अन्यथा निरूपण करते हैं। जिस प्रकार वे ब्रह्मको
सर्वव्यापी, एक, निरंजन, सर्वका कर्ता-हर्ता मानते हैं; उसी प्रकार यह खुदाको मानते हैं। तथा
जैसे वे अवतार हुए मानते हैं वैसे ही यह पैगम्बर हुए मानते हैं। जिस प्रकार वे पुण्य-पापका
लेखा लेना, यथायोग्य दण्डादिक देना ठहराते हैं; उसी प्रकार यह खुदाको ठहराते हैं। तथा
जिस प्रकार वे गाय आदिको पूज्य कहते हैं; उसी प्रकार यह सूअर आदिको कहते हैं। सब
तिर्यंचादिक हैं। तथा जिस प्रकार वे ईश्वरकी भक्तिसे मुक्ति कहते हैं; उसी प्रकार यह खुदाकी
भक्तिसे कहते हैं। तथा जिसप्रकार वे कहीं दयाका पोषण, कहीं हिंसाका पोषण करते हैं; उसी
प्रकार यह भी कहीं महर करनेका, कहीं कतल करनेका पोषण करते हैं। तथा जिस प्रकार

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१२४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
वे कहीं तपश्चरण करनेका, कहीं विषय-सेवनका पोषण करते हैं; उसी प्रकार यह भी पोषण
करते हैं। तथा जिस प्रकार वे कहीं मांस-मदिरा, शिकार आदिका निषेध करते हैं, कहीं उत्तम
पुरुषों द्वारा उनका अंगीकार करना बतलाते हैं; उसी प्रकार यह भी उनका निषेध व अंगीकार
करना बतलाते हैं। ऐसे अनेक प्रकारसे समानता पायी जाती है। यद्यपि नामादिक और हैं;
तथापि प्रयोजनभूत अर्थकी एकता पायी जाती है।
तथा ईश्वर, खुदा आदि मूल श्रद्धानकी तो एकता है और उत्तर श्रद्धानमें बहुत ही
विशेष हैं; वहाँ उनसे भी यह विपरीतरूप विषयकषायके पोषक, हिंसादि पापके पोषक,
प्रत्यक्षादि प्रमाणसे विरुद्ध निरूपण करते हैं।
इसलिये मुसलमानोंका मत महा विपरीतरूप जानना।
इस प्रकार इस क्षेत्र-कालमें जिन-जिन मतोंकी प्रचुर प्रवृत्ति है उनका मिथ्यापना प्रगट
किया।
यहाँ कोई कहे कियह मत मिथ्या हैं तो बड़े राजादिक व बड़े विद्यावान् इन
मतोंमें कैसे प्रवर्तते हैं?
समाधानःजीवोंके मिथ्यावासना अनादिसे है सो इनमें मिथ्यात्वका ही पोषण है। तथा
जीवोंको विषयकषायरूप कार्योंकी चाह वर्तती है सो इनमें विषयकषायरूप कार्योंका ही पोषण है।
तथा राजादिकोंका व विद्यावानोंका ऐसे धर्ममें विषयकषायरूप प्रयोजन सिद्ध होता है। तथा जीव
तो लोकनिंद्यपनाको भी लाँघकर, पाप भी जानकर, जिन कार्योंको करना चाहे उन कार्योंको करते
धर्म बतलायें तो ऐसे धर्ममें कौन नहीं लगेगा? इसलिये इन धर्मोंकी विशेष प्रवृत्ति है।
तथा कदाचित् तू कहेगाइन धर्मोंमें विरागता, दया इत्यादि भी तो कहते हैं? सो
जिस प्रकार झोल दिये बिना खोटा द्रव्य (सिक्का) नहीं चलता; उसी प्रकार सचको मिलाये
बिना झूठ नहीं चलता; परन्तु सर्वके हित प्रयोजनमें विषयकषायका ही पोषण किया है।
जिस प्रकार गीतामें उपदेश देकर युद्ध करनेका प्रयोजन प्रगट किया, वेदान्तमें शुद्ध निरूपण
करके स्वच्छन्द होनेका प्रयोजन दिखाया; उसी प्रकार अन्य जानना। तथा यह काल तो
निकृष्ट है, सो इसमें तो निकृष्ट धर्मकी ही प्रवृत्ति विशेष होती है।
देखो, इसकालमें मुसलमान बहुत प्रधान हो गये, हिन्दू घट गये; हिन्दुओंमें और तो
बढ़ गये, जैनी घट गये। सो यह कालका दोष है।
इस प्रकार इस क्षेत्रमें इस काल मिथ्याधर्मकी प्रवृत्ति बहुत पायी जाती है।

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पाँचवाँ अधिकार ][ १२५
अन्यमत निरूपित तत्त्व-विचार
अब, पण्डितपनेके बलसे कल्पित युक्तियों द्वारा नाना मत स्थापित हुए हैं, उनमें जो
तत्त्वादिक माने जाते हैं, उनका निरूपण करते हैंः
सांख्यमत
वहाँ सांख्यमतमें पच्चीस तत्त्व मानते हैं। सो कहते हैंसत्त्व, रज, तमः यह तीन
गुण कहते हैं। वहाँ सत्त्व द्वारा प्रसाद (प्रसन्न) होता है, रजोगुण द्वारा चित्त की चंचलता होती
है, तमोगुण द्वारा मूढ़ता होती है, इत्यादि लक्षण कहते हैं। इनरूप अवस्थाका नाम प्रकृति है;
तथा उससे बुद्धि उत्पन्न होती है; उसीका नाम महतत्त्व है, उससे अहंकार उत्पन्न होता है; उससे
सोलह मात्रा होती हैं। वहाँ पाँच तो ज्ञान इन्द्रियाँ होती हैं
स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र
तथा एक मन होता है। तथा पाँच कर्म इन्द्रियाँ होती हैंवचन, चरण, हस्त, लिंग, गुदा।
तथा पाँच तन्मात्रा होती हैंरूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द। तथा रूपसे अग्नि, रस से जल,
गन्ध से पृथ्वी, स्पर्श से पवन, शब्द से आकाशइस प्रकार हुए कहते हैं। इस प्रकार चौबीस
तत्त्व तो प्रकृतिस्वरूप हैं; इनसे भिन्न निर्गुण कर्ता-भोता एक पुरुष है।
इस प्रकार पच्चीस तत्त्व कहते हैं सो यह कल्पित हैं; क्योंकि राजसादिक गुण आश्रय
बिना कैसे होंगे? इनका आश्रय तो चेतन द्रव्य ही सम्भव है। तथा इनसे बुद्धि हुई कहते
हैं सो बुद्धि नाम तो ज्ञानका है और ज्ञानगुणधारी पदार्थमें यह होती देखी जाती है, तो
इससे ज्ञान हुआ कैसे मानें? कोई कहे
बुद्धि अलग है, ज्ञान अलग है, तब मन तो पहले
सोलह मात्रामें कहा और ज्ञान अलग कहोगे तो बुद्धि किसका नाम ठहरेगा? तथा उससे
अहंकार हुआ कहा सो परवस्तु में ‘‘मैं करता हूँ’’ ऐसा माननेका नाम अहंकार है, साक्षीभूत
जाननेसे तो अहंकार होता नहीं है, तो ज्ञानसे उत्पन्न कैसे कहा जाता है?
तथा अहंकार द्वारा सोलह मात्राएँ कहीं, उनमें पाँच ज्ञानइन्द्रियाँ कहीं, सो शरीरमें
नेत्रादि आकाररूप द्रव्येन्द्रियाँ हैं वे तो पृथ्वी आदिवत् जड़ देखी जाती हैं और वर्णादिकके
जाननेरूप भावइन्द्रियाँ हैं सो ज्ञानरूप हैं, अहंकारका क्या प्रयोजन है? कोई-किसीको अहंकार
बुद्धिरहित देखनेमें आता है? वहाँ अहंकार द्वारा उत्पन्न होना कैसे सम्भव है? तथा मन
कहा, सो इन्द्रियवत् ही मन है; क्योंकि द्रव्यमन शरीररूप है, भावमन ज्ञानरूप है। तथा
पाँच कर्मइन्द्रिय कहते हैं सो यह तो शरीरके अंग हैं, मूर्तिक हैं। अमूर्तिक अहंकारसे इनका
उत्पन्न होना कैसे मानें?
१. प्रकृतमहांस्तताऽहंकारस्तरमाद्गणश्च षोडशकः।
तस्मादपि षोडशकात्पंचभ्यः पंच भूतानि।। (सांख्य का० १२)

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१२६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा कर्म इन्द्रियाँ पाँच ही तो नहीं हैं, शरीर के सर्व अंग कार्यकारी हैं। तथा
वर्णन तो सर्व जीवाश्रित है, मनुष्याश्रित ही तो नहीं है, इसलिये सूंड, पूंछ इत्यादि अंग
भी कर्मइन्द्रियाँ हैं; पाँचकी ही संख्या किसलिये कहते हैं?
तथा स्पर्शादिक पाँच तन्मात्रा कहीं, सो रूपादि कुछ अलग वस्तु नहीं हैं, वे तो
परमाणुओं से तन्मय गुण हैं; वे अलग कैसे उत्पन्न हुए? तथा अहंकार तो अमूर्तिक जीव
का परिणाम है, इसलिये यह मूर्तिक गुण कैसे उत्पन्न हुए मानें?
तथा इन पाँचोंसे अग्नि आदि उत्पन्न कहते हैं सो प्रत्यक्ष झूठ है। रूपादिक और अग्नि
आदिकके तो सहभूत गुण-गुणी सम्बन्ध है, कथनमात्र भिन्न है, वस्तुभेद नहीं है। किसी प्रकार
कोई भिन्न होते भासित नहीं होते, कथनमात्रसे भेद उत्पन्न करते हैं। इसलिये रूपादिसे अग्नि
आदि उत्पन्न हुए कैसे कहें? तथा कहनेमें भी गुणीमें गुण हैं, गुणसे गुणी उत्पन्न हुआ कैसे मानें?
तथा इनसे भिन्न एक पुरुष कहते हैं, परन्तु उसका स्वरूप अवक्तव्य कहकर प्रत्युत्तर
नहीं करते, तो कौन समझे? कैसा है, कहाँ है, कैसे कर्ता-हर्ता है, सो बतला। जो बतलायेगा
उसीमें विचार करनेसे अन्यथापना भासित होगा।
इस प्रकार सांख्यमत द्वारा कल्पित तत्त्व मिथ्या जानना।
तथा पुरुषको प्रकृतिसे भिन्न जाननेका नाम मोक्षमार्ग कहते हैं; सो प्रथम तो प्रकृति और
पुरुष कोई है ही नहीं तथा मात्र जाननेसे ही तो सिद्धि होती नहीं है; जानकर रागादिक मिटाने पर
सिद्धि होती है। परन्तु इस प्रकार जाननेसे कुछ रागादिक नहीं घटते। प्रकृतिका कर्त्तव्य माने, आप
अकर्त्ता रहे; तो किसलिये आप रागादिक कम करेगा? इसलिये यह मोक्षमार्ग नहीं है।
तथा प्रकृति-पुरुषका भिन्न होना उसे मोक्ष कहते हैं। सो पच्चीस तत्त्वोंमें चौबीस तत्त्व
तो प्रकृति सम्बन्धी कहे, एक पुरुष भिन्न कहा; सो वे तो भिन्न हैं ही; और कोई जीव
पदार्थ पच्चीस तत्त्वोंमें कहा ही नहीं। तथा पुरुषको ही प्रकृतिका संयोग होने पर जीव संज्ञा
होती है तो पुरुष न्यारे-न्यारे प्रकृतिसहित हैं, पश्चात् साधन द्वारा कोई पुरुष प्रकृतिरहित
होता है
ऐसा सिद्ध हुआ, एक पुरुष न ठहरा।
तथा प्रकृति पुरुषकी भूल है या किसी व्यंतरीवत् भिन्न ही है, जो जीवको आ लगती
है? यदि उसकी भूल है तो प्रकृतिसे इन्द्रियादिक व स्पर्शादिक तत्त्व उत्पन्न हुए कैसे मानें?
और अलग है तो वह भी एक वस्तु है, सर्व कर्तव्य उसका ठहरा। पुरुषका कुछ कर्तव्य
ही नहीं रहा, तब किसलिये उपदेश देते हैं?
इस प्रकार यह मोक्ष मानना मिथ्या है।

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पाँचवाँ अधिकार ][ १२७
तथा वहाँ प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम यह तीन प्रमाण कहते हैं; परन्तु उनके सत्य-
असत्यका निर्णय जैनके न्यायग्रंथोंसे जानना।
तथा इस सांख्यमतमें कोई तो ईश्वर को मानते नहीं हैं, कितने ही एक पुरुष को
ईश्वर मानते हैं, कितने ही शिवको, कितने ही नारायणको देव मानते हैं। अपनी इच्छानुसार
कल्पना करते हैं, कुछ निश्चय नहीं है। तथा इस मतमें कितने ही जटा धारण करते हैं,
कितने ही चोटी रखते हैं, कितने ही मुण्डित होते हैं, कितने ही कत्थई वस्त्र पहिनते हैं;
इत्यादि अनेक प्रकारसे भेष धारण करके तत्त्वज्ञानके आश्रयसे महन्त कहलाते हैं।
इस प्रकार सांख्यमतका निरूपण किया।
शिवमत
तथा शिवमतमें दो भेद हैंनैयायिक, वैशेषिक।
नैयायिकमत
वहाँ नैयायिकमतमें सोलह तत्त्व कहते हैंप्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त,
सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितंडा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रहस्थान।
वहाँ प्रमाण चार प्रकारके कहते हैंप्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, उपमा। तथा आत्मा, देह,
अर्थ, बुद्धि इत्यादि प्रमेय कहते हैं। तथा ‘‘यह क्या है?’’ उसका नाम संशय है। जिसके
अर्थ प्रवृत्ति हो सो प्रयोजन है। जिसे वादी-प्रतिवादी मानें सो दृष्टान्त है। दृष्टान्त द्वारा जिसे
ठहरायें वह सिद्धान्त है। तथा अनुमानके प्रतिज्ञा आदि पाँच अंग वह अवयव हैं। संशय
दूर होने पर किसी विचारसे ठीक हो सो तर्क है। पश्चात् प्रतीतिरूप जानना सो निर्णय है।
आचार्य-शिष्यमें पक्ष-प्रतिपक्ष द्वारा अभ्यास सो वाद है। जाननेकी इच्छारूप कथामें जो छल,
जाति आदि दूषण हो सो जल्प है। प्रतिपक्ष रहित वाद सो वितंडा है। सच्चे हेतु नहीं हैं
ऐसे असिद्ध आदि भेदसहित हेत्वाभास है। छलसहित वचन सो छल है। सच्चे दूषण नहीं हैं
ऐसे दूषणाभास सो जाति है। जिससे प्रतिवादीका निग्रह हो सो निग्रहस्थान है।
इस प्रकार संशयादि तत्त्व कहे हैं, सो यह कोई वस्तुस्वरूप तत्त्व तो हैं नहीं। ज्ञानका
निर्णय करनेको व वाद द्वारा पांडित्य प्रगट करनेको कारणभूत विचाररूप तत्त्व कहे हैं; सो
इनसे परमार्थकार्य क्या होगा? काम-क्रोधादि भावको मिटाकर निराकुल होना सो कार्य है;
वह प्रयोजन तो यहाँ कुछ दिखाया नहीं है; पंडिताईकी नाना युक्तियाँ बनाईं, सो यह भी
एक चातुर्य है; इसलिये यह तत्त्वभूत नहीं हैं।
फि र कहोगेइनको जाने बिना प्रयोजनभूत तत्त्वोंका निर्णय नहीं कर सकते, इसलिये
यह तत्त्व कहे हैं; सो ऐसी परम्परा तो व्याकरणवाले भी कहते हैं किव्याकरण पढ़नेसे

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१२८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
अर्थका निर्णय होता है, व भोजनादिकके अधिकारी भी कहते हैं किभोजन करनेसे शरीर
की स्थिरता होने पर तत्त्वनिर्णय करनेमें समर्थ होते हैं; सो ऐसी युक्ति कार्यकारी नहीं है।
तथा यदि कहोगे किव्याकरण, भोजनादिक तो अवश्य तत्त्वज्ञानको कारण नहीं
हैं, लौकिक कार्य साधनेको कारण हैं; सो जैसे यह हैं उसी प्रकार तुम्हारे कहे तत्त्व भी
लौकिक (कार्य) साधनेको ही कारण होते हैं। जिस प्रकार इन्द्रियादिकके जाननेको प्रत्यक्षादि
प्रमाण कहा, व स्थाणु-पुरुषादिमें संशयादिकका निरूपण किया। इसलिये जिनको जाननेसे
अवश्य काम-क्रोधादि दूर हों, निराकुलता उत्पन्न हो, वे ही तत्त्व कार्यकारी हैं।
फि र कहोगे किप्रमेय तत्त्वमें आत्मादिकका निर्णय होता है सो कार्यकारी है; सो
प्रमेय तो सर्व ही वस्तु है, प्रमिति का विषय नहीं है ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है; इसलिये
प्रमेय तत्त्व किसलिये कहे? आत्मा आदि तत्त्व कहना थे।
तथा आत्मादिकका भी स्वरूप अन्यथा प्ररूपित किया है ऐसा पक्षपात रहित विचार
करने पर भासित होता है। जैसे आत्माके दो भेद कहते हैंपरमात्मा, जीवात्मा। वहाँ
परमात्माको सर्वका कर्त्ता बतलाते हैं। वहाँ ऐसा अनुमान करते हैं कियह जगत कर्त्ता द्वारा
उत्पन्न हुआ है, क्योंकि यह कार्य है। जो कार्य है वह कर्त्ता द्वारा उत्पन्न है जैसेघटादिक।
परन्तु यह अनुमानाभास है; क्योंकि ऐसा अनुमानान्तर सम्भव है। यह सर्व जगत कर्ता द्वारा
उत्पन्न नहीं है, क्योंकि इसमें अकार्यरूप पदार्थ भी हैं। जो अकार्य हैं सो कर्ता द्वारा उत्पन्न
नहीं हैं, जैसे
सूर्य बिम्बादिक। क्योंकि अनेक पदार्थोंके समुदायरूप जगतमें कोई पदार्थ कृत्रिम
हैं सो मनुष्यादिक द्वारा किये होते हैं, कोई अकृत्रिम हैं सो उनका कोई कर्ता नहीं है। यह
प्रत्यक्षादि प्रमाणके अगोचर हैं, इसलिये ईश्वरको कर्ता मानना मिथ्या है।
तथा जीवात्माको प्रत्येक शरीर भिन्न-भिन्न कहते हैं, सो यह सत्य है; परन्तु मुक्त होनेके
पश्चात् भी भिन्न ही मानना योग्य है। विशेष तो पहले कहा ही है।
इसी प्रकार अन्य तत्त्वोंको मिथ्या प्ररूपित करते हैं।
तथा प्रमाणादिकके स्वरूपकी भी अन्यथा कल्पना करते हैं वह जैन ग्रंथोंसे परीक्षा
करने पर भासित होता है।
इस प्रकार नैयायिक मतमें कहे कल्पित तत्त्व जानना।
वैशेषिकमत
तथा वैशेषिकमतमें छह तत्त्व कहे हैं। द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय।

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पाँचवाँ अधिकार ][ १२९
वहाँ द्रव्य नौ प्रकार हैंपृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा,
मन। वहाँ पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुके परमाणु भिन्न-भिन्न हैं; वे परमाणु नित्य हैं; उनसे
कार्यरूप पृथ्वी आदि होते हैं सो अनित्य हैं। परन्तु ऐसा कहना प्रत्यक्षादिसे विरुद्ध है।
ईन्धनरूप पृथ्वी आदिके परमाणु अग्निरूप होते देखे जाते हैं, अग्नि के परमाणु राखरूप पृथ्वी
होते देखे जाते हैं। जलके परमाणु मुक्ताफल (मोती) रूप पृथ्वी होते देखे जाते हैं। फि र
यदि तू कहेगा
वे परमाणु चले जाते हैं, दूसरे ही परमाणु उन रूप होते हैं, सो प्रत्यक्षको
असत्य ठहराता है। ऐसी कोई प्रबल युक्ति कह तो इसी प्रकार मानें, परन्तु केवल कहनेसे
ही ऐसा ठहरता नहीं है। इसलिये सब परमाणुओंकी एक पुद्गलरूप मूर्तिक जाति है, वह
पृथ्वी आदि अनेक अवस्थारूप परिणमित होती है।
तथा इन पृथ्वी आदिका कहीं पृथक् शरीर ठहराते हैं, सो मिथ्या ही है; क्योंकि
उसका कोई प्रमाण नहीं है। और पृथ्वी आदि तो परमाणुपिण्ड हैं; इनका शरीर अन्यत्र,
यह अन्यत्र
ऐसा सम्भव नहीं है, इसलिये यह मिथ्या है। तथा जहाँ पदार्थ अटके नहीं
ऐसी जो पोल उसे आकाश कहते हैं; क्षण, पल आदिको काल कहते हैं; सो यह दोनों
ही अवस्तु हैं, यह सत्तारूप पदार्थ नहीं हैं। पदार्थोंके क्षेत्र-परिणमनादिकका पूर्वापर विचार
करनेके अर्थ इनकी कल्पना करते हैं। तथा दिशा कुछ है ही नहीं; आकाशमें खण्डकल्पना
द्वारा दिशा मानते हैं। तथा आत्मा दो प्रकार से कहते हैं; सो पहले निरूपण किया ही
है। तथा मन कोई पृथक् पदार्थ नहीं है। भावमन तो ज्ञानरूप है सो आत्माका स्वरूप
है, द्रव्यमन परमाणुओंका पिण्ड है सो शरीरका अंग है। इस प्रकार यह द्रव्य कल्पित जानना।
तथा चौबीस गुण कहते हैंस्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द, संख्या, विभाग, संयोग,
परिणाम, पृथक्त्व, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, धर्म, अधर्म, प्रयत्न, संस्कार,
द्वेष, स्नेह, गुरुत्व, द्रव्यत्व। सो इनमें स्पर्शादिक गुण तो परमाणुओंमें पाये जाते हैं; परन्तु
पृथ्वीको गंधवती ही कहना, जलको शीत स्पर्शवान ही कहना इत्यादि मिथ्या है; क्योंकि किसी
पृथ्वीमें गंधकी मुख्यता भासित नहीं होती, कोई जल उष्ण देखा जाता है
इत्यादि प्रत्यक्षादिसे
विरुद्ध है। तथा शब्दको आकाशका गुण कहते हैं सो मिथ्या है; शब्द तो भींत आदिसे
रुकता है, इसलिये मूर्तिक है और आकाश अमूर्तिक सर्वव्यापी है। भींतमें आकाश रहे और
शब्दगुण प्रवेश न कर सके, यह कैसे बनेगा? तथा संख्यादिक हैं सो वस्तुमें तो कुछ हैं
नहीं, अन्य पदार्थकी अपेक्षा अन्य पदार्थकी हीनाधिकता जाननेको अपने ज्ञानमें संख्यादिककी
कल्पना द्वारा विचार करते हैं। तथा बुद्धि आदि है सो आत्माका परिणमन है, वहाँ बुद्धि
नाम ज्ञानका है तो आत्माका गुण है ही, और मनका नाम है तो मन तो द्रव्योंमें कहा ही

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१३० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
था, यहाँ गुण किसलिये कहा? तथा सुखादिक हैं सो आत्मामें कदाचित् पाये जाते हैं, आत्माके
लक्षणभूत तो यह गुण हैं नहीं, अव्याप्तपनेसे लक्षणाभास है। तथा स्निग्धादि पुद्गलपरमाणुमें
पाये जाते हैं, सो स्निग्ध गुरुत्व इत्यादि तो स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा जाने जाते हैं, इसलिये
स्पर्शगुणमें गर्भित हुए, अलग किसलिये कहे? तथा द्रव्यत्वगुण जलमें कहा, सो ऐसे तो अग्नि
आदिमें ऊर्ध्वगमनत्वादि पाये जाते हैं। या तो सर्व कहना थे या सामान्यमें गर्भित करना
थे। इस प्रकार यह गुण कहे वे भी कल्पित हैं।
तथा कर्म पाँच प्रकारके कहते हैंउत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण, यमन; सो
यह तो शरीरकी चेष्टाएँ हैं; इनको अलग कहनेका अर्थ क्या? तथा इतनी ही चेष्टाएँ तो होती
नहीं हैं, चेष्टाएँ तो बहुत ही प्रकारकी होती हैं। तथा इनको अलग ही तत्त्व संज्ञा कही; सो
या तो अलग पदार्थ हों तो उन्हें अलग तत्त्व कहना था, या काम-क्रोधादि मिटानेमें विशेष
प्रयोजनभूत हों तो तत्त्व कहना था; सो दोनों ही नहीं है। और ऐसे ही कह देना हो तो
पाषाणादिककी अनेक अवस्थाएँ होती हैं सो कहा करो, कुछ साध्य नहीं हैं।
तथा सामान्य दो प्रकारसे हैपर और अपर। वहाँ पर तो सत्तारूप है, अपर
द्रव्यत्वादिरूप है। तथा जिनकी नित्य द्रव्यमें प्रवृत्ति हो वे विशेष हैं; अयुतसिद्ध सम्बन्धका
नाम समवाय है। यह सामान्यादिक तो बहुतोंको एक प्रकार द्वारा व एक वस्तुमें भेद-कल्पना
द्वारा व भेदकल्पना अपेक्षा सम्बन्ध माननेसे अपने विचारमें ही होते हैं, कोई अलग पदार्थ
तो हैं नहीं। तथा इनके जाननेसे काम-क्रोधादि मिटानेरूप विशेष प्रयोजनकी भी सिद्धि नहीं
है, इसलिये इनको तत्त्व किसलिये कहा? और ऐसे ही तत्त्व कहना थे तो प्रमेयत्वादि वस्तुके
अनन्त धर्म हैं व सम्बन्ध, आधारादिक कारकोंके अनेक प्रकार वस्तुमें सम्भवित हैं, इसलिये
या तो सर्व कहना थे या प्रयोजन जानकर कहना थे। इसलिये यह सामान्यादिक तत्त्व भी
वृथा ही कहे हैं।
इस प्रकार वैशेषिकों द्वारा कहे तत्त्व कल्पित जानना।
तथा वैशेषिक दो ही प्रमाण मानते हैं
प्रत्यक्ष और अनुमान। सो इनके सत्य-असत्यका
निर्णय जैन न्याय ग्रन्थोंसे जानना।
तथा नैयायिक तो कहते हैंविषय, इन्द्रिय, बुद्धि, शरीर, सुख, दुःखोंके अभावसे
आत्माकी स्थिति सो मुक्ति है। और वैशेषिक कहते हैंचौबीस गुणोंमें बुद्धि आदि नौ गुणोंका
१. देवागम, युक्त्यानुशासन, अष्टसहस्री, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, प्रमाणसंग्रह, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक,
राजवार्तिक, प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रादि दार्शनिक ग्रन्थोंसे जानना चाहिये।

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पाँचवाँ अधिकार ][ १३१
अभाव सो मुक्ति है। यहाँ बुद्धिका अभाव कहा, सो बुद्धि नाम ज्ञानका है और ज्ञानका
अधिकरणपना आत्माका लक्षण कहा था; अब ज्ञानका अभाव होने पर लक्षणका अभाव होनेसे
लक्ष्यका भी अभाव होगा, तब आत्माकी स्थिति किस प्रकार रही? और यदि बुद्धि नाम
मनका है तो भावमन तो ज्ञानरूप है ही, और द्रव्यमन शरीररूप है सो मुक्त होने पर द्रव्यमनका
सम्बन्ध छूटता ही है, तो जड़ द्रव्यमनका नाम बुद्धि कैसे होगा? तथा मनवत् ही इन्द्रियाँ
जानना। तथा विषयका अभाव हो, तो स्पर्शादि विषयोंका जानना मिटता है, तब ज्ञान किसका
नाम ठहरेगा? और उन विषयोंका अभाव होगा तो लोकका अभाव होगा। तथा सुखका
अभाव कहा, सो सुखके ही अर्थ उपाय करते हैं; उसका जब अभाव होगा, तब उपादेय
कैसे होगा? तथा यदि वहाँ आकुलतामय इन्द्रियजनित सुखका अभाव हुआ कहें तो यह सत्य
है; क्योंकि निराकुलता- लक्षण अतीन्द्रिय सुख तो वहाँ सम्पूर्ण सम्भव है, इसलिये सुखका
अभाव नहीं है। तथा शरीर, दुःख, द्वेषादिकका वहाँ अभाव कहते हैं सो सत्य है।
तथा शिवमतमें कर्ता निर्गुण ईश्वर शिव है, उसे देव मानते हैं; सो उसके स्वरूपका
अन्यथापना पूर्वोक्त प्रकारसे जानना। तथा यहाँ भस्म, कोपीन, जटा, जनेऊ इत्यादि चिह्नों
सहित भेष होते हैं सो आचारादि भेदसे चार प्रकार हैंः
शैव, पाशुपत, महाव्रती, कालमुख।
सो यह रागादि सहित हैं, इसलिए सुलिंग नहीं हैं।
इस प्रकार शिवमतका निरूपण किया।
मीमांसकमत
अब मीमांसकमतका स्वरूप कहते हैं। मीमांसक दो प्रकारके हैंःब्रह्मवादी और
कर्मवादी।
वहाँ ब्रह्मवादी तो ‘‘यह सर्व ब्रह्म है, दूसरा नहीं है’’ ऐसा वेदान्तमें अद्वैत ब्रह्मको
निरूपित करते हैं; तथा ‘‘आत्मामें लय होना सो मुक्ति’’ कहते हैं। इनका मिथ्यापना पहले
दिखाया है सो विचारना।
तथा कर्मवादी क्रिया, आचार, यज्ञादिक कार्योंका कर्तव्यपना प्ररूपित करते हैं सो इन
क्रियाओंमें रागादिकका सद्भाव पाया जाता है, इसलिये यह कार्य कुछ भी कार्यकारी नहीं
हैं।
तथा वहाँ ‘भट्ट’ और ‘प्रभाकर’ द्वारा की हुई दो पद्धतियाँ हैं। वहाँ भट्ट तो छह
प्रमाण मानते हैंप्रत्यक्ष, अनुमान, वेद, उपमा, अर्थापत्ति, अभाव। तथा प्रभाकर अभाव
बिना पाँच ही प्रमाण मानते हैं, सो इनका सत्यासत्यपना जैन शास्त्रोंसे जानना।

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१३२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा वहाँ षटकर्म सहित ब्रह्मसूत्रके धारक, शूद्रके अन्नादिके त्यागी, गृहस्थाश्रम है नाम
जिनका ऐसे भट्ट हैं। तथा वेदान्तमें यज्ञोपवीत रहित, विप्रअन्नादिकके ग्राही, भगवत् है नाम
जिनका वे चार प्रकारके हैं
कुटीचर, बहूदक, हंस, परमहंस। सो यह कुछ त्यागसे संतुष्ट
हुए हैं, परन्तु ज्ञान-श्रद्धानका मिथ्यापना और रागादिकका सद्भाव इनके पाया जाता है; इसलिये
यह भेष कार्यकारी नहीं हैं।
जैमिनीयमत
तथा जैमिनीयमत है; सो इस प्रकार कहते हैंः
सर्वज्ञदेव कोई है नहीं; नित्य वेदवचन हैं उनसे यथार्थ निर्णय होता है। इसलिये
पहले वेदपाठ द्वारा क्रियामें प्रवर्तना वह तो नोदना (प्रेरणा), वही है लक्षण जिसका ऐसे
धर्मका साधन करना। जैसे कहते हैं कि
‘‘स्वः कामोऽग्निं यजेत्’’ स्वर्गाभिलाषी अग्निको
पूजे; इत्यादि निरूपण करते हैं।
यहाँ पूछते हैंशैव, सांख्य, नैयायिकादि सभी वेदको मानते हैं, तुम भी मानते हो;
तुम्हारे व उन सबके तत्त्वादि निरूपणमें परस्पर विरुद्धता पायी जाती है सो क्या कारण है?
यदि वेदमें ही कहीं कुछ, कहीं कुछ निरूपण किया है, तो उसकी प्रमाणता कैसे रही? और
यदि मतवाले ही कहीं कुछ कहीं कुछ निरूपण करते हैं तो तुम परस्पर झगड़, निर्णय करके
एकको वेदका अनुसारी अन्यको वेदसे पराङ्मुख ठहराओ। सो हमें तो यह भासित होता है
वेदमें ही पूर्वापर विरुद्धतासहित निरूपण है। इसलिये उसका अपनी-अपनी इच्छानुसार अर्थ
ग्रहण करके अलग-अलग मतोंके अधिकारी हुए हैं। परन्तु ऐसे वेदको प्रमाण कैसे करें? तथा
अग्नि पूजनेसे स्वर्ग होता है, सो अग्निको मनुष्यसे उत्तम कैसे मानें? प्रत्यक्ष-विरुद्ध है। तथा
वह स्वर्गदाता कैसे होगी? इसी प्रकार अन्य वेदवचन प्रमाणविरुद्ध हैं। तथा वेदमें ब्रह्मा कहा
है, तो सर्वज्ञ क्यों नहीं मानते? इत्यादि प्रकारसे जैमिनीयमत कल्पित जानना।
बौद्धमत
अब बौद्धमतका स्वरूप कहते हैंः
बौद्धमतमें चार आर्यसत्य प्ररूपित करते हैंदुःख, आयतन, समुदाय, मार्ग। वहाँ
दुःखमायतनं चैव ततः समुदयो मतः।
मार्गश्चेत्यस्य च व्याख्या क्रमेण श्रूयतामतः।।३६।। वि० वि०

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पाँचवाँ अधिकार ][ १३३
संसारीके स्कन्धरूप वह दुःख है। वह पाँच प्रकार का हैविज्ञान, वेदना, संज्ञा, संस्कार, रूप।
वहाँ रूपादिकका जानना सो विज्ञान है; सुख-दुःखका अनुभवन करना सो वेदना है;
सोतेका जागना सो संज्ञा है; पढ़ा था उसे याद करना सो संस्कार है; रूपका धारण सो
रूप
है। यहाँ विज्ञानादिकको दुःख कहा सो मिथ्या है; दुःख तो काम-क्रोधादिक हैं, ज्ञान
दुःख नहीं है। यह तो प्रत्यक्ष देखते हैं कि किसीके ज्ञान थोड़ा है और क्रोध-लोभादिक
बहुत हैं सो दुःखी है; किसीके ज्ञान बहुत है, काम-क्रोधादि अल्प हैं व नहीं हैं सो सुखी
है। इसलिये विज्ञानादिक दुःख नहीं हैं।
तथा आयतन बारह कहे हैंपाँच इन्द्रियाँ और उनके शब्दादिक पाँच विषय, एक
मन और एक धर्मायतन। सो यह आयतन किस अर्थ कहे हैं? सबको क्षणिक कहते हैं,
तो इनका क्या प्रयोजन है?
तथा जिससे रागादिकके गण उत्पन्न होते हैं ऐसा आत्मा और आत्मीय है नाम जिसका
सो समुदाय है। वहाँ अहंरूप आत्मा और ममरूप आत्मीय जानना, परन्तु क्षणिक माननेसे
इनको भी कहनेका कुछ प्रयोजन नहीं है।
तथा सर्व संस्कार क्षणिक हैं, ऐसी वासना सो मार्ग है। परन्तु बहुत काल स्थायी कितनी
ही वस्तुएँ प्रत्यक्ष देखी जाती हैं। तू कहेगाएक अवस्था नहीं रहती; सो यह हम भी मानते
हैं। सूक्ष्म पर्याय क्षणस्थायी है। तथा उसी वस्तुका नाश मानते हैं; परन्तु यह तो होता दिखाई
नहीं देता, हम कैसे मानें? तथा बाल-वृद्धादि अवस्थामें एक आत्माका अस्तित्व भासित होता
है; यदि एक नहीं है तो पूर्व-उत्तर कार्यका एक कर्ता कैसे मानते हैं? यदि तू कहेगा
संस्कारसे
है, तो संस्कार किसके हैं? जिसके हैं वह नित्य है या क्षणिक है? नित्य है तो सर्व क्षणिक
कैसे कहते हैं? क्षणिक है तो जिसका आधार ही क्षणिक है उस संस्कारकी परम्परा कैसे कहते
हैं? तथा सर्व क्षणिक हुआ तब आप भी क्षणिक हुआ। तू ऐसी वासनाको मार्ग कहता है,
१. दुःखं संसारिणः स्कन्धास्ते च पश्चप्रकीर्तिताः।
विज्ञानं वेदना संज्ञा संस्कारोरूपमेव च ।।३७।। वि० वि०
२. रूपं पंचेन्द्रियाण्यर्थाः पंचाविज्ञाप्तिरेव च।
तद्विज्ञानाश्रया रूपप्रसादाश्चक्षुरादयाः ।।७।।
वेदनानुभवः संज्ञा निमित्तोद्ग्रहणात्मिका।
संस्कारस्कन्धश्चतुर्भ्योन्ये संस्कारास्त इमे त्रय ।।१५।।
विज्ञानं प्रति विज्ञप्ति........। अ० को० (१)

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१३४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
परन्तु इस मार्गके फलको आप तो प्राप्त करता ही नहीं है, किसलिये इस मार्गमें प्रवर्तता है?
तथा तेरे मतमें निरर्थक शास्त्र किसलिये बनाये? उपदेश तो कुछ कर्तव्य द्वारा फल प्राप्त करनेके
अर्थ दिया जाता है। इस प्रकार यह मार्ग मिथ्या है।
तथा रागादिक ज्ञानसंतानवासनाका उच्छेद अर्थात् निरोध उसे मोक्ष कहते हैं। परन्तु
क्षणिक हुआ तब मोक्ष किसको कहता है? और रागादिकका अभाव होना तो हम भी मानते
हैं; परन्तु ज्ञानादिक अपने स्वरूपका अभाव होने पर तो अपना अभाव होगा, उसका उपाय
करना कैसे हितकारी होगा? हिताहित का विचार करनेवाला तो ज्ञान ही है; सो अपने अभावको
ज्ञानी हित कैसे मानेगा?
तथा बौद्धमतमें दो प्रमाण मानते हैंप्रत्यक्ष और अनुमान। इसके सत्यासत्यका
निरूपण जैनशास्त्रोंसे जानना। तथा यदि ये दो ही प्रमाण हैं तो इनके शास्त्र अप्रमाण हुए,
उनका निरूपण किस अर्थ किया? प्रत्यक्ष-अनुमान तो जीव आप ही कर लेंगे, तुमने शास्त्र
किसलिये बनाये?
तथा वहाँ सुगतको देव मानते हैं और उसका स्वरूप नग्न व विक्रियारूप स्थापित
करते हैं सो बिडम्बनारूप है। तथा कमण्डल और रक्ताम्बरके धारी, पूर्वाह्नमें भोजन करनेवाले
इत्यादि लिंगरूप बौद्धमतके भिक्षुक हैं; सो क्षणिकको भेष धारण करनेका क्या प्रयोजन? परन्तु
महंतताके अर्थ कल्पित निरूपण करना और भेष धारण करना होता है।
इस प्रकार बौद्धों के चार प्रकार हैंवैभाषिक, सौत्रांतिक, योगाचार, माध्यमिक।
वहाँ वैभाषिक तो ज्ञानसहित पदार्थको मानते हैं; सौत्रांतिक प्रत्यक्ष यह दिखाई देता है, यही
है, इससे परे कुछ नहीं है ऐसा मानते हैं। योगाचारोंके आचारसहित बुद्धि पायी जाती है;
तथा माध्यमिक हैं वे पदार्थके आश्रय बिना ज्ञानको ही मानते हैं। वे अपनी-अपनी कल्पना
करते हैं; परन्तु विचार करने पर कुछ ठिकानेकी बात नहीं है।
इस प्रकार बौद्धमतका निरूपण किया।
चार्वाकमत
अब चार्वाकमत का स्वरूप कहते हैंः
कोई सर्वज्ञदेव, धर्म, अधर्म, मोक्ष है नहीं, पुण्य-पापका फल है नहीं, परलोक है
नहीं; यह इन्द्रियगोचर जितना है वह लोक हैऐसा चार्वाक कहता है।
सो वहाँ उससे पूछते हैंसर्वज्ञदेव इस काल-क्षेत्रमें नहीं हैं या सर्वदा सर्वत्र नहीं
हैं? इस काल-क्षेत्रमें तो हम नहीं मानते हैं, परन्तु सर्वकाल-क्षेत्रमें नहीं हैं ऐसा जानना सर्वज्ञके

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पाँचवाँ अधिकार ][ १३५
बिना किसके हुआ? जो सर्व क्षेत्र-कालकी जाने वही सर्वज्ञ, और नहीं जानता तो निषेध
कैसे करता है?
तथा धर्म-अधर्म लोकमें प्रसिद्ध हैं। यदि वे कल्पित हों तो सर्वजन-सुप्रसिद्ध कैसे
होते? तथा धर्म-अधर्मरूप परिणति होती देखी जाती है, उससे वर्तमानमें ही सुखी-दुःखी होते
हैं; इन्हें कैसे न मानें? और मोक्षका होना अनुमानमें आता है। क्रोधादिक दोष किसीके
हीन हैं, किसीके अधिक हैं; तो मालूम होता है किसीके इनकी नास्ति भी होती होगी।
और ज्ञानादि गुण किसीके हीन, किसीके अधिक भासित होते हैं; इसलिये मालूम होता है
किसीके सम्पूर्ण भी होते होंगे। इसप्रकार जिसके समस्त दोषकी हानि, गुणोंकी प्राप्ति हो;
वही मोक्ष-अवस्था है।
तथा पुण्य-पापका फल भी देखते हैं। कोई उद्यम करने पर भी दरिद्री रहता है,
किसीके स्वयमेव लक्ष्मी होती है; कोई शरीरका यत्न करने पर भी रोगी रहता है, किसीके
बिना ही यत्न निरोगता रहती है
इत्यादि प्रत्यक्ष देखा जाता है; सो इसका कारण कोई
तो होगा? जो इसका कारण वही पुण्य-पाप है।
तथा परलोक भी प्रत्यक्ष-अनुमानसे भासित होता है। व्यंतरादि हैं वे ऐसा कहते देखे
जाते हैं‘‘मैं अमुक था सो देव हुआ हूँ।’’ तथा तू कहेगा‘‘यह तो पवन है’’; सो
हम तो ‘‘मैं हूँ’’ इत्यादि चेतनाभाव जिसके आश्रयसे पाये जाते हैं उसीको आत्मा कहते हैं,
तू उसका नाम पवन कहता है। परन्तु पवन तो भींत आदिसे अटकती है, आत्मा मुँदा
(बन्द) होने पर भी अटकता नहीं है; इसलिये पवन कैसे मानें?
तथा जितना इन्द्रियगोचर है उतना ही लोक कहता है; परन्तु तेरे इन्द्रियगोचर तो
थोड़े से भी योजन दूरवर्ती क्षेत्र और थोड़ा-सा अतीत-अनागत कालऐसे क्षेत्र-कालवर्ती भी
पदार्थ नहीं हो सकते, और दूर देशकी व बहुत कालकी बातें परम्परासे सुनते ही हैं; इसलिये
सबका जानना तेरे नहीं है, तू इतना ही लोक किस प्रकार कहता है?
तथा चार्वाकमतमें कहते हैं किपृथ्वी, अप, तेज, वायु, आकाश मिलनेसे चेतना
हो आती है। सो मरने पर पृथ्वी आदि यहाँ रहे, चेतनावान पदार्थ गया तो व्यंतरादि हुआ;
जो प्रत्यक्ष भिन्न-भिन्न देखे जाते हैं। तथा एक शरीरमें पृथ्वी आदि तो भिन्न-भिन्न भासित
होते हैं, चेतना एक भासित होती है। यदि पृथ्वी आदिके आधारसे चेतना हो तो हाड़,
रक्त, उच्छ्वासादिकके अलग-अलग चेतना होगी। तथा हाथ आदिको काटने पर जिस प्रकार
उसके साथ वर्णादिक रहते हैं, उसी प्रकार चेतना भी रहेगी। तथा अहंकार, बुद्धि तो चेतनाके
हैं, सो पृथ्वी आदिरूप शरीर तो यहाँ ही रहा, तब व्यंतरादि पर्यायमें पूर्वपर्यायका अहंपना

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१३६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
देखा जाता है सो किस प्रकार होता है? तथा पूर्वपर्यायके गुप्त समाचार प्रगट करते हैं,
सो यह जानना किसके साथ गया? जिसके साथ जानना गया वही आत्मा है।
तथा चार्वाकमतमें खाना, पीना, भोग-विलास करना इत्यादि स्वच्छन्द वृत्तिका उपदेश
है; परन्तु ऐसे तो जगत स्वयमेव ही प्रवर्तता है। वहाँ शास्त्रादि बनाकर क्या भला होनेका
उपदेश दिया? तू कहेगा
तपश्चरण, शील, संयमादि छुड़ानेके अर्थ उपदेश दिया; तो इन
कार्योंमें तो कषाय घटनेसे आकुलता घटती है, इसलिये यहीं सुखी होना होता है, तथा यश
आदि होता है; तू इनको छुड़ाकर क्या भला करता है? विषयासक्त जीवोंको सुहाती बातें
कहकर अपना व औरोंका बुरा करनेका भय नहीं है; स्वच्छन्द होकर विषयसेवनके अर्थ ऐसी
युक्ति बनाता है।
इस प्रकार चार्वाकमतका निरूपण किया।
अन्यमत निराकरण उपसंहार
इसी प्रकार अन्य अनेक मत हैं वे झूठी कल्पित युक्ति बनाकर विषय-कषायासक्त
पापी जीवों द्वारा प्रगट किये गये हैं; उनके श्रद्धानादिक द्वारा जीवोंका बुरा होता है। तथा
एक जिनमत है सो ही सत्यार्थका प्ररूपक है, सर्वज्ञ
वीतरागदेव द्वारा भाषित है; उसके
श्रद्धानादिकसे ही जीवोंका भला होता है।
ऐसे जिनमतमें जीवादि तत्त्वोंका निरूपण किया है; प्रत्यक्ष-परोक्ष दो प्रमाण कहे हैं;
सर्वज्ञवीतराग अर्हंतदेव हैं; बाह्य-अभ्यंतर परिग्रहरहित निर्ग्रन्थ गुरु हैं। इनका वर्णन इस ग्रंथमें
आगे विशेष लिखेंगे सो जानना।
यहाँ कोई कहेतुम्हारे राग-द्वेष है, इसलिये तुम अन्यमतका निषेध करके अपने
मतको स्थापित करते हो?
उससे कहते हैंयथार्थ वस्तुका प्ररूपण करनेमें राग-द्वेष नहीं है। कुछ अपना
प्रयोजन विचारकर अन्यथा प्ररूपण करें तो राग-द्वेष नाम पाये।
फि र वह कहता हैयदि राग-द्वेष नहीं है तो अन्यमत बुरे और जैनमत भला ऐसा
किस प्रकार कहते हो? साम्यभाव हो तो सबको समान जानो, मतपक्ष किसलिये करते हो?
उससे कहते हैंबुरेको बुरा कहते हैं, भलेको भला कहते हैं; इसमें राग-द्वेष क्या
किया? तथा बुरे-भले को समान जानना तो अज्ञानभाव है; साम्यभाव नहीं है।
फि र वह कहता है किसर्व मतोंका प्रयोजन तो एक ही है, इसलिये सबको समान
जानना?

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पाँचवाँ अधिकार ][ १३७
उससे कहते हैंयदि प्रयोजन एक हो तो नाना मत किसलिये कहें? एकमतमें तो
एक प्रयोजनसहित अनेक प्रकार व्याख्यान होता है, उसे अलग मत कौन कहता है? परन्तु
प्रयोजन ही भिन्न-भिन्न हैं सो बतलाते हैंः
अन्यमतोंसे जैनमतकी तुलना
जैनमतमें एक वीतरागभावके पोषणका प्रयोजन है; सो कथाओंमें, लोकादिकके निरूपणमें,
आचरणमें, व तत्त्वोंमें जहाँ-तहाँ वीतरागताकी ही पुष्टि की है। तथा अन्यमतों में सरागभावके
पोषणको प्रयोजन है; क्योंकि कल्पित रचना कषायी जीव ही करते हैं और अनेक युक्तियाँ
बनाकर कषायभावका ही पोषण करते हैं। जैसे
अद्वैत ब्रह्मवादी सर्वको ब्रह्म मानने द्वारा,
सांख्यमती सर्वकार्य प्रकृतिका मानकर अपनेको शुद्ध अकर्ता मानने द्वारा, और शिवमती तत्त्व
जाननेसे ही सिद्धि होना मानने द्वारा, मीमांसक कषायजनित आचरणको धर्म मानने द्वारा, बौद्ध
क्षणिक मानने द्वारा, चार्वाक परलोकादि न मानने द्वारा
विषयभोगादिरूप कषायकार्योंमें स्वच्छन्द
होनेका ही पोषण करते हैं। यद्यपि किसी स्थान पर कोई कषाय घटानेका भी निरूपण करते
हैं; तो उस छलसे अन्य किसी कषायका पोषण करते हैं। जिस प्रकार
गृहकार्य छोड़कर
परमेश्वरका भजन करना ठहराया और परमेश्वरका स्वरूप सरागी ठहराकर उनके आश्रयसे अपने
विषय-कषायका पोषण करते हैं; तथा जैनधर्ममें देव-गुरु-धर्मादिकका स्वरूप वीतराग ही निरूपण
करके केवल वीतरागताका ही पोषण करते हैं
सो यह प्रगट है।
हम क्या कहें? अन्यमती भर्तृहरिने भी वैराग्य-प्रकरणमें ऐसा कहा हैः
एको रागिषु राजते प्रियतमादेहार्द्धधारी हरो,
नीरागेषु जिनो विमुक्तललनासङ्गो न यस्मात्परः
दुर्वारस्मरवाणपन्नगविषव्यासक्तमुग्धो जनः,
शेषः कामविडंबितो हि विषयान् मोक्तुं न मोक्तुं क्षमः
।।।।
इसमें सरागियोंमें महादेवको प्रधान कहा और वीतरागियोंमें जिनदेवको प्रधान कहा है।
तथा सरागभाव और वीतरागभावोंमें परस्पर प्रतिपक्षीपना है। यह दोनों भले नहीं हैं; परन्तु
इनमें एक ही हितकारी है और वह वीतरागभाव ही है; जिसके होनेसे तत्काल आकुलता
१. रागी पुरुषोंमें तो एक महादेव शोभित होता है जिसने अपनी प्रियतमा पार्वतीको आधे शरीरमें धारण कर
रखा है। और वीतरागियोंमें जिनदेव शोभित हैं जिनके समान स्त्रियोंका संग छोड़नेवाला दूसरा कोई नहीं
है। शेष लोग तो दुर्निवार कामदेवके वाणरूप सर्पोंके विषसे मूर्छित हुए हैं जो कामकी विडम्बनासे
न तो विषयोंको भलीभाँति भोग ही सकते हैं और न छोड़ ही सकते हैं।

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१३८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
मिटनेसे स्तुति योग्य होता है। जिससे आगामी भला होना केवल हम ही नहीं कहते, किन्तु
सभी मतवाले कहते हैं। सरागभाव होने पर तत्काल आकुलता होती है, निंदनीय होता है,
और आगामी बुरा होना भासित होता है। इसलिये जिसमें वीतरागभावका प्रयोजन है ऐसा
जैनमत ही इष्ट है। जिसमें सरागभावके प्रयोजन प्रगट किये हैं ऐसे अन्यमत अनिष्ट हैं इन्हें
समान कैसे मानें?
तथा वह कहते हैं कियह तो सच है; परन्तु अन्यमतकी निन्दा करनेसे अन्यमती
दुःखी होंगे, विरोध उत्पन्न होगा; इसलिये निन्दा किसलिये करें?
वहाँ कहते हैं किहम कषायसे निन्दा करें व औरोंको दुःख उपजायें तो हम पापी
ही हैं; परन्तु अन्यमतके श्रद्धानादिसे जीवोंके अतत्त्वश्रद्धान दृढ़ हो, जिससे संसारमें जीव दुःखी
होंगे, इसलिये करुणाभावसे यथार्थ निरूपण किया है। कोई बिना दोष दुःख पाता हो, विरोध
उत्पन्न करे, तो हम क्या करें? जैसे
मदिराकी निन्दा करनेसे कलाल दुःखी हो, कुशीलकी
निन्दा करनेसे वेश्यादिक दुःख पायें, और खोटा-खरा पहिचाननेकी परीक्षा बतलानेसे ठग दुःखी
हो तो क्या करें? इसी प्रकार यदि पापियोंके भयसे धर्मोपदेश न दें तो जीवोंका भला कैसे
होगा? ऐसा तो कोई उपदेश है नहीं जिससे सभी चैन पायें? तथा वे विरोध उत्पन्न करते
हैं; सो विरोध तो परस्पर करे तो होता है; परन्तु हम लड़ेंगे नहीं, वे आप ही उपशांत
हो जायेंगे। हमें तो अपने परिणामोंका फल होगा।
तथा कोई कहेप्रयोजनभूत जीवादिक तत्त्वोंका अन्यथा श्रद्धान करनेसे
मिथ्यादर्शनादिक होते हैं, अन्य मतोंका श्रद्धान करनेसे किस प्रकार मिथ्यादर्शनादिक होंगे?
समाधानअन्यमतोंमें विपरीत युक्ति बनाकर, जीवादिक तत्त्वोंका स्वरूप यथार्थ भासित
न हो यही उपाय किया है; सो किसलिये किया है? जीवादि तत्त्वोंका यथार्थ स्वरूप भासित
हो तो वीतरागभाव होने पर ही महंतपना भासित हो; परन्तु जो जीव वीतरागी नहीं हैं और
अपनी महंतता चाहते हैं, उन्होंने सरागभाव होने पर भी महंतता मनानेके अर्थ कल्पित युक्ति
द्वारा अन्यथा निरूपण किया है। वे अद्वैतब्रह्मादिकके निरूपण द्वारा जीव-अजीवके और
स्वच्छन्दवृत्तिके पोषण द्वारा आस्रव-संवरादिकके और सकषायीवत् व अचेतनवत् मोक्ष कहने
द्वारा मोक्षके अयथार्थ श्रद्धानका पोषण करते हैं; इसलिये अन्यमतोंका अन्यथापना प्रगट किया
है। इनका अन्यथापना भासित हो तो तत्त्वश्रद्धानमें रुचिवान हो, और उनकी युक्तिसे भ्रम
उत्पन्न न हो।
इस प्रकार अन्यमतोंका निरूपण किया।

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पाँचवाँ अधिकार ][ १३९
अन्यमतके ग्रन्थोद्धरणोंसे जैनधर्मकी समीचीनता और प्राचीनता
अब अन्यमतोंके शास्त्रोंकी ही साक्षीसे जिनमतकी समीचीनता व प्राचीनता प्रगट करते
हैंः
‘‘बड़ा योगवासिष्ठ’’ छत्तीस हजार श्लोक प्रमाण है, उसके प्रथम वैराग्यप्रकरणमें
अहंकारनिषेध अध्यायमें वसिष्ठ और रामके संवादमें ऐसा कहा है :
रामोवाच नाहं रामो न मे वांछा भावेषु च न मे मनः।
शांतिमास्थातुमिच्छामि स्वात्मन्येव जिनो यथा ।।१।।
इसमें रामजीने जिन-समान होनेकी इच्छा की, इसलिये रामजीसे जिनदेवका उत्तमपना
प्रगट हुआ और प्राचीनपना प्रगट हुआ।
तथा ‘‘दक्षिणामूर्ति-सहस्रनाम’’ में कहा हैः
शिवोवाचजैनमार्गरतो जैन जिन क्रोधो जितामयः।
यहाँ भगवत्का नाम जैनमार्गमें रत और जैन कहा, सो इसमें जैनमार्गकी प्रधानता
व प्राचीनता प्रगट हुई।
तथा ‘‘वैशम्पायनसहस्रनाम’’ में कहा है :
कालनेमिर्महावीरः शूरः शौरिजिनेश्वरः।
यहाँ भगवानका नाम जिनेश्वर कहा, इसलिये जिनेश्वर भगवान हैं।
तथा दुर्वासाऋषिकृत ‘‘महिम्निस्तोत्र’’ में ऐसा कहा हैः
तत्तद्दर्शनमुख्यशक्तिरिति च त्वं ब्रह्मकर्मेश्वरी।
कर्त्तार्हन् पुरुषो हरिश्च सविता बुद्धः शिवस्त्वं गुरुः ।।१।।
यहाँ‘‘अरहंत तुम हो’’ इस प्रकार भगवन्तकी स्तुति की, इसलिये अरहन्तके
भगवानपना प्रगट हुआ।
तथा ‘‘हनुमन्नाटक’’ में ऐसा कहा है :
यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनः
बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्त्तेति नैयायिकाः।
१. अर्थात् मैं राम नहीं हूँ, मेरी कुछ इच्छा नहीं है और भावों व पदार्थोंमें मेरा मन नहीं है। मैं तो जिनदेवके
समान अपनी आत्मामें ही शान्ति स्थापना करना चाहता हूँ।

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१४० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
अर्हन्नित्यथ जैनशासनरतः कर्मेति मीमांसकाः।
सोऽयं वो विदधातु वांछितफलं त्रैलोक्यनाथः प्रभु
।।१।।
यहाँ छहों मतोंमें एक ईश्वर कहा वहाँ अरहन्तदेवके भी ईश्वरपना प्रगट किया।
यहाँ कोई कहे
जिस प्रकार यहाँ सर्व मतोंमें एक ईश्वर कहा, उसी प्रकार तुम
भी मानो।
उससे कहते हैंतुमने यह कहा है, हमने तो नहीं कहा; इसलिए तुम्हारे मतमें
अरहन्तके ईश्वरपना सिद्ध हुआ। हमारे मतमें भी इसी प्रकार कहें तो हम भी शिवादिकको
ईश्वर मानें। जैसे
कोई व्यापारी सच्चे रत्न दिखाये, कोई झूठे रत्न दिखाये; वहाँ झूठे
रत्नोंवाला तो रत्नोंका समान मूल्य लेनेके अर्थ समान कहता है, सच्चे रत्नवाला कैसे समान
माने? उसी प्रकार जैनी सच्चे देवादिका निरूपण करता है, अन्यमती झूठे निरूपित करता
है; वहाँ अन्यमती अपनी समान महिमाके अर्थ सर्वको समान कहता है, परन्तु जैनी कैसे
माने?
तथा ‘‘रुद्रयामलतंत्र’’ में भवानी सहस्रनाममें ऐसा कहा है :
कुण्डासना जगद्धात्री बुद्धमाता जिनेश्वरी।
जिनमाता जिनेन्द्रा च शारदा हंसवाहिनी ।।१।।
यहाँ भवानीके नाम जिनेश्वरी इत्यादि कहे, इसलिये जिनका उत्तमपना प्रगट किया।
तथा ‘‘गणेश पुराण’’ में ऐसा कहा है
‘‘जैनं पशुपतं सांख्यं’’।
तथा ‘‘व्यासकृत सूत्र’’ में ऐसा कहा है :
जैना एकस्मिन्नेव वस्तुनि उभयं प्ररूपयन्ति स्याद्वादिनः
इत्यादि उनके शास्त्रोंमें जैन निरूपण है, इसलिये जैनमतका प्राचीनपना भासित होता है।
तथा ‘‘भागवत’’ के पंचमस्कंधमें
ऋषभावतारका वर्णन है। वहाँ उन्हें करुणामय
१. यह हनुमन्नाटकके मंगलाचरणका तीसरा श्लोक है। इसमें बताया है कि जिसको शैव लोग शिव कहकर,
वेदान्ती ब्रह्म कहकर, बौद्ध बुद्धदेव कहकर, नैयायिक कर्त्ता कहकर, जैनी अर्हन् कहकर और मीमांसक
कर्म कहकर उपासना करते हैं; वह त्रैलोक्यनाथ प्रभु तुम्हारे मनोरथों को सफल करें।
२. प्ररूपयन्ति स्याद्वादिनः इति खरडा प्रतौ पाठः।
३. भागवत स्कंध ५, अध्याय ५, २९।

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पाँचवाँ अधिकार ][ १४१
तृष्णादि रहित, ध्यानमुद्राधारी, सर्वाश्रम द्वारा पूजित कहा है; उनके अनुसार अर्हत राजाने प्रवृत्ति
की ऐसा कहते हैं। सो जिस प्रकार राम-कृष्णादि अवतारोंके अनुसार अन्यमत हैं, उसी प्रकार
ऋषभावतारके अनुसार जैनमत है; इस प्रकार तुम्हारे मत ही द्वारा जैनमत प्रमाण हुआ।
यहाँ इतना विचार और करना चाहियेकृष्णादि अवतारोंके अनुसार विषय-कषायोंकी
प्रवृत्ति होती है; ऋषभावतारके अनुसार वीतराग साम्यभावकी प्रवृत्ति होती है। यहाँ दोनों
प्रवृत्तियोंको समान माननेसे धर्म-अधर्मका विशेष नहीं रहेगा और विशेष माननेसे जो भली हो
वह अंगीकार करना।
तथा ‘‘दशावतार चरित्र’’ में‘‘बद्धवा पद्मासनं यो नयनयुगमिदं न्यस्य नासाग्रदेशे’’
इत्यादि बुद्धावतारका स्वरूप अरहंतदेव समान लिखा है; सो ऐसा स्वरूप पूज्य है तो अरहंतदेव
सहज ही हुए।
तथा ‘‘काशीखंड’’ में देवदास राजाको सम्बोधकर राज्य छुड़ाया; वहाँ नारायण तो
विनयकीर्ति यति हुआ, लक्ष्मीको विनयश्री आर्यिका की, गरुड़को श्रावक कियाऐसा कथन
है। सो जहाँ सम्बोधन करना हुआ वहाँ जैनी भेष बनाया; इसलिए जैन हितकारी प्राचीन
प्रतिभासित होते हैं।
तथा ‘‘प्रभास पुराण’’में ऐसा कहा हैः
भवस्य पश्चिमे भागे वामनेन तपः कृतम्।
तेनैव तपसाकृष्टः शिवः प्रत्यक्षतां गतः ।।१।।
पद्मासनमासीनः श्याममूर्तिर्दिगम्बरः।
नेमिनाथः शिवेत्येवं नाम चक्रेअस्य वामनः ।।२।।
कलिकाले महाघोरे सर्व पापप्रणाशकः।
दर्शनात्स्पर्शनादेव कोटियज्ञफलप्रदः ।।३।।
यहाँ वामनको पद्मासन दिगम्बर नेमिनाथका दर्शन हुआ कहा है; उसीका नाम शिव
कहा है। तथा उसके दर्शनादिकसे कोटियज्ञका फल कहा है, सो ऐसा नेमिनाथका स्वरूप
तो जैनी प्रत्यक्ष मानते हैं; सो प्रमाण ठहरा।
तथा ‘‘प्रभास पुराण’’ में कहा है :
रैवताद्रौ जिनो नेमिर्युगादिर्विमलाचले।
ऋषीणामाश्रमादेव मुक्तिमार्गस्य कारणम्।।१।।

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१४२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
यहाँ नेमिनाथको जिनसंज्ञा कही, उनके स्थानको ऋषिका आश्रम मुक्तिका कारण कहा
और युगादिके स्थानको भी ऐसा ही कहा; इसलिये उत्तम पूज्य ठहरे।
तथा ‘‘नगर पुराण’’ में भवावतार रहस्यमें ऐसा कहा हैः
अकारादिहकारन्तमूर्द्धाधोरेफ संयुतम्।
नादविन्दुकलाक्रान्तं चन्द्रमण्डलसन्निभम् ।।१।।
एतद्देवि परं तत्त्वं यो विजनातितत्त्वतः।
संसारबन्धनं छित्वा स गच्छेत्परमां गतिम् ।।२।।
यहाँ ‘अर्हं’ ऐसे पदको परमतत्त्व कहा है। उसके जाननेसे परमगतिकी प्राप्ति कही;
सो ‘अर्हं’ पद जैनमत उक्त है।
तथा ‘‘नगर पुराण’’ में कहा हैः
दशभिर्भोजितैर्विप्रै यत्फलं जायते कृते।
मुनेरर्हत्सुभक्तस्य तत्फलं जायते कलौ ।।१।।
यहाँ कृतयुगमें दस ब्राह्मणोंको भोजन करनेका जितना फल कहा, उतना फल कलियुगमें
अर्हंतभक्त मुनिको भोजन करानेका कहा है; इसलिये जैनमुनि उत्तम ठहरे।
तथा ‘‘मनुस्मृति’’ में कहा हैः
कुलादिबीजं सर्वेषां प्रथमो विमलवाहनः।
चक्षुष्मान् यशस्वी वाभिचन्द्रोअथ प्रसेनजित् ।।१।।
मरुदेवी च नाभिश्च भरते कुल सत्तमाः।
अष्टमो मरुदेव्यां तु नाभेर्जात उरक्रमः ।।२।।
दर्शयन् वर्त्म वीराणां सुरसुरनमस्कृतः।
नीतित्रितयकर्त्ता यो युगादौ प्रथमो जिनः ।।३।।
यहाँ विमलवाहनादिक मनु कहे, सो जैनमें कुलकरोंके नाम कहे हैं और यहाँ प्रथमजिन
युगके आदिमें मार्गका दर्शक तथा सुरासर द्वारा पूजित कहा; सो इसी प्रकार है तो जैनमत
युगके आदिसे ही है, और प्रमाणभूत कैसे न कहें?
तथा ऋग्वेदमें ऐसा कहा हैः
ओऽम् त्रैलोक्य प्रतिष्ठितान् चतुर्विशतितीर्थंकरान् ऋषभाद्यान् वर्द्धमानान्तान् सिद्धान् शरणं
प्रपद्ये। ओऽम् पवित्र नग्नमुपविस्पृसामहे एषां नग्नं येषां जातं येषां वीरं सुवीरं......इत्यादि।