Page 133 of 350
PDF/HTML Page 161 of 378
single page version
तथा ऐसा कहा हैः
हवे शक्रमर्जितं तद्वर्द्धमानपुरुहूतमिंद्रंमाहरिति स्वाहा। ओऽम् नग्नं सुधीरं दिग्वाससं ब्रह्मगर्ब्भं
सनातनं उपैमि वीरं पुरुषमर्हंतमादित्यवर्णं तमसः परस्तात स्वाहा। ओऽम् स्वस्तिन इन्द्रो वृद्धश्रवा
स्वस्तिनः पूषा विश्ववेदाः स्वस्तिनस्तार्क्ष्यों अरिष्टनेमि स्वस्तिनो बृहस्पतिर्दधातु।
दीर्घायुस्त्वायुबलायुर्वा शुभाजातायु। ओऽम् रक्ष रक्ष अरिष्टनेमिः स्वाहा। वामदेव
शान्त्यर्थमनुविधीयते सोऽस्माकं अरिष्टनेमिः स्वाहा।
इच्छुक हो वह पक्षपात छोड़कर सच्चे जैनधर्मको अंगीकार करो।
निषेध किया। वृषभावतारमें वीतराग संयमका मार्ग दिखाया और कृष्णावतारमें परस्त्री रमणादि
विषयकषायादिकका मार्ग दिखाया। अब यह संसारी किसका कहा करे? किसके अनुसार
प्रवर्त्ते? और इन सब अवतारोंको एक बतलाते हैं, परन्तु एक भी कदाचित् किसी प्रकार
कहते हैं व प्रवर्त्तते हैं; तो इसे उनके कहनेकी व प्रवर्त्तनेकी प्रतीति कैसे आये?
आदि कार्य हों तो यह भी मानें, परन्तु वह तो होते नहीं हैं। तथा लड़ना आदि कार्य
करने पर भी क्रोधादि हुए न मानें, तो अलग क्रोधादि कौन हैं जिनका निषेध किया? इसलिये
ऐसा नहीं बनता, पूर्वापर विरोध है। गीतामें वीतरागता बतलाकर लड़नेका उपदेश दिया,
सो यह प्रत्यक्ष विरोध भासित होता है। तथा ऋषीश्वरादिकों द्वारा श्राप दिया बतलाते हैं,
सो ऐसा क्रोध करने पर निंद्यपना कैसे नहीं हुआ? इत्यादि जानना।
Page 134 of 350
PDF/HTML Page 162 of 378
single page version
दिवं गतानि राजेन्द्र अकृत्वा कुलसन्ततिम् ।।१।।
ये कुर्वन्ति वृथास्तेषां तीर्थयात्रां जपस्तपः ।।१।।
वृथा एकादशी प्रोक्ता वृथा जागरणं हरेः।
वृथा च पौष्करी यात्रा कृत्स्नं चान्द्रायणं वृथा ।।२।।
चातुर्मास्ये तु सम्प्राप्ते रात्रिभोज्यं करोति यः।
तस्य शुद्धिर्न विद्येत् चान्द्रायणशतैरपि ।।३।।
रात्रिभोजन व कन्दादि भक्षण स्थापित करते हैं; इस प्रकार विरुद्ध निरूपण करते हैं।
पोषण करनेके अर्थ अन्यथा कहा; सो जहाँ पूर्वापर विरोध हो उनके वचन प्रमाण कैसे करें?
उनके विपरीत वचनके भी श्रद्धानादिक हो जाते हैं, इसलिये अन्यमतका कोई अंग भला देखकर
भी वहाँ श्रद्धानादिक नहीं करना। जिस प्रकार विषमिश्रित भोजन हितकारी नहीं है, उसी
प्रकार जानना।
अन्यमतका आदर करो; परन्तु ऐसा सर्वथा होता ही नहीं; क्योंकि सर्वज्ञके ज्ञानमें कुछ छिपा
नहीं है। इसलिये अन्यमतोंके श्रद्धानादिक छोड़कर जिनमतके दृढ़ श्रद्धानादिक करना।
Page 135 of 350
PDF/HTML Page 163 of 378
single page version
आचारांगादिकके पदोंका प्रमाण अठारह हजार आदि कहा है, सो उनकी विधि मिला दो।
श्लोक हैं। सो यह तो बहुत छोटे शास्त्र हैं, इसलिए बनता नहीं है। तथा आचारांगादिकसे
दशवैकालिकादिका प्रमाण कम कहा है, और तुम्हारे अधिक है, सो किस प्रकार बनता है?
है कि
कथन निकाल लें तो वहाँ सम्बन्ध नहीं मिलेगा
ऐसे वचन हैं। परन्तु ऐसे वचन तो तभी सम्भव हैं जब और कोई कर्ता हो। इसलिये
यह सूत्र गणधरकृत नहीं हैं, औरके बनाये गये हैं। गणधर के नामसे कल्पित-रचनाको प्रमाण
कराना चाहते हैं; परन्तु विवेकी तो परीक्षा करके मानते हैं, कहा ही तो नहीं मानते।
Page 136 of 350
PDF/HTML Page 164 of 378
single page version
हैं। तथा इन सूत्रोंमें विश्वास करनेके अर्थ जो जिनमत
स्वरूप तो ऐसा कहते हैंः
विपरीत लिंगका धारक कैसे रहेगा? श्रद्धान होने के पश्चात् महाव्रतादि अंगीकार करने पर
सम्यक्चारित्र होता है, वह अन्यलिंगमें किसप्रकार बनेगा? यदि अन्यलिंगमें भी सम्यक्चारित्र होता
है तो जैनलिंग अन्यलिंग समान हुआ, इसलिए अन्यलिंगीको मोक्ष कहना मिथ्या है।
यदि कहोगे
तो बाह्यत्याग करनेकी ही प्रतिज्ञा करते हैं, त्याग किये बिना महाव्रत नहीं होते। महाव्रत
बिना छट्ठा आदि गुणस्थान नहीं होता; तो फि र मोक्ष कैसे होगा? इसलिए गृहस्थको मोक्ष
कहना मिथ्यावचन है।
Page 137 of 350
PDF/HTML Page 165 of 378
single page version
धर्म उत्पन्न कर सकता है। तथा स्त्रीके निःशंक एकान्तमें ध्यान धरना और सर्व परिग्रहादिकका
त्याग करना सम्भव नहीं है।
यदि भाववेदी है तो हम मानते ही हैं; तथा द्रव्यवेदी है तो पुरुष-स्त्रीवेदी तो लोकमें प्रचुर
दिखाई देते हैं, और नपुंसक तो कोई विरले दिखते हैं; तो एक समयमें मोक्ष जाने वाले
इतने नपुंसक कैसे सम्भव हैं? इसलिये द्रव्यवेदकी अपेक्षा कथन नहीं बनता।
हो।
परिणाम नहीं हो सकते। तथा गोत्रकर्मका उदय तो पंचम गुणस्थानपर्यन्त ही है; ऊपरके
गुणस्थान चढ़े बिना मोक्ष कैसे होगा? यदि कहोगे
यदि उनके कुल- अपेक्षा उच्च गोत्रका उदय कहोगे तो चाण्डालादिकके भी कुल-अपेक्षा ही
नीच गोत्रका उदय कहो। उसका सद्भाव तुम्हारे सूत्रोंमें भी पंचम गुणस्थानपर्यन्त ही कहा
है। सो कल्पित कहनेमें पूर्वापर विरोध होगा ही होगा; इसलिये शूद्रोंको मोक्ष कहना मिथ्या
है।
करने पर मिथ्या भासित होता है।
Page 138 of 350
PDF/HTML Page 166 of 378
single page version
तो नहीं होतीं। यदि प्रमाणविरुद्ध भी हों तो आकाशके फू ल, गधेके सींग इत्यादिका होना
भी बनेगा; सो सम्भव नहीं है। वे अछेरा कहते हैं सो प्रमाणविरुद्ध हैं। किसलिये? सो
कहते हैंः
तथा तीर्थंकरके हुआ कहें तो गर्भकल्याणक किसीके घर हुआ, जन्म-कल्याणक किसीके घर
हुआ। कुछ दिन रत्नवृष्टि आदि किसीके घर हुए, कुछ दिन किसीके घर हुए। सोलह स्वप्न
किसीको आये, पुत्र किसीको हुआ, इत्यादि असंभव भासित होता है। तथा माताएँ तो दो
हुईं और पिता तो एक ब्राह्मण ही रहा। जन्मकल्याणादिमें उसका सन्मान नहीं किया, अन्य
कल्पित पिताका सन्मान किया। इस प्रकार तीर्थंकरके दो पिताका कहना महाविपरीत भाषित
होता है। सर्वोत्कृष्ट पद धारकके लिए ऐसे वचन सुनना भी योग्य नहीं है।
यह कार्य हुआ। सो ऐसे निकृष्ट कालमें जब ऐसा नहीं होता तब वहाँ होना कैसे सम्भव
है? इसलिये यह मिथ्या है।
बनती। तथा तीर्थंकरके नग्नलिंग ही कहते हैं, सो स्त्रीके नग्नपना संभव नहीं है। इत्यादि
विचार करनेसे असंभव भासित होता है।
अनन्तकालमें जो बात हो वह भी कहते हैं। जैसे
इसलिये यह मिथ्या है।
तथा वे कहते हैं
Page 139 of 350
PDF/HTML Page 167 of 378
single page version
नहीं हैं, अन्यके होते थे सो महन्तोंके हुए; इसलिये कालदोष कहा है। गर्भहरणादि कार्य
प्रत्यक्ष-अनुमानादिसे विरुद्ध हैं, उनका होना कैसे सम्भव है?
बात मनःपर्ययज्ञानीके बिना जान नहीं सकता, तो केवलीके मनकी सर्वार्थसिद्धिके देव किस
प्रकार जानेंगे? तथा केवलीके भावमनका तो अभाव है, द्रव्यमन जड़-आकारमात्र है, उत्तर
किसने दिया? इसलिये यह मिथ्या है।
शरीरको क्षुधा लगती है, आत्मा तद्रूप नहीं होता; तो क्षुधादिकका उपाय आहारादिक किसलिये
ग्रहण किया कहते हो? क्षुधादिसे पीड़ित हो तभी आहार ग्रहण करेगा। फि र कहोगे
किसी जीवके होता देखा जाता है। तथा आहार है वह प्रकृतिउदयसे नहीं है, क्षुधासे पीड़ित
होने पर ही ग्रहण करता है। तथा आत्मा पवनादिको प्रेरित करे तभी निगलना होता है,
इसलिये विहारवत् आहार नहीं है।
साताके उदयसे कहे जाते हैं। आहारादिका ग्रहण सातावेदनीयके उदयसे स्वयमेव हो ऐसा
तो है नहीं; यदि ऐसा हो तो सातावेदनीयका मुख्य उदय देवोंके है, वे निरन्तर आहार क्यों
नहीं करते? तथा महामुनि उपवासादि करें उनके साताका भी उदय और निरन्तर भोजन
करनेवालोंको असाताका भी उदय सम्भव है।
Page 140 of 350
PDF/HTML Page 168 of 378
single page version
उनके आहारादि मानते हैं।
है, तारतम्यमें सद्भाव कहा जाता है। जैसे
कहा जाता है। उसी प्रकार केवलीके असाताका उदय अतिमन्द है; क्योंकि एक-एक कांडकमें
अनन्तवें भाग-अनुभाग रहते हैं; ऐसे बहुत अनुभागकांडकोंसे व गुणसंक्रमणादिसे सत्तामें
असातावेदनीयका अनुभाग अत्यन्त मन्द हुआ है, उसके उदयमें ऐसी क्षुधा व्यक्त नहीं होती जो
शरीरको क्षीण करे। और मोहके अभावसे क्षुधादिकजनित दुःख भी नहीं है; इसलिये क्षुधादिकका
अभाव कहा जाता है और तारतम्यमें उसका सद्भाव कहा जाता है।
मन्द उदय होने पर भी बहुत काल पश्चात् किंचित् आहार
शरीर आहार बिना देशेन्यूनकोटिपूर्व पर्यन्त उत्कृष्टरूपसे कैसे रहता है?
नहीं। जिस प्रकार केवलज्ञान होनेसे पूर्व केश, नख बढ़ते थे, अब नहीं बढ़ते; छाया होती थी
अब नहीं होती; शरीरमें निगोद थी, उसका अभाव हुआ। बहुत प्रकारसे जैसे शरीरकी अवस्था
अन्यथा हुई; उसी प्रकार आहार बिना भी शरीर जैसेका तैसा रहे, ऐसी भी अवस्था हुई। प्रत्यक्ष
देखो, औरोंको जरा व्याप्त हो तब शरीर शिथिल हो जाता है, इनका आयुपर्यन्त शरीर शिथिल
नहीं होता; इसलिये अन्य मनुष्योंकी और इनके शरीरकी समानता सम्भव नहीं है।
Page 141 of 350
PDF/HTML Page 169 of 378
single page version
उदय मंद होनेसे मिटी, और प्रतिसमय परमऔदारिक शरीरवर्गणाका ग्रहण होता है सो वह
नोकर्म-आहार है; इसलिए ऐसी-ऐसी वर्गणाका ग्रहण होता है जिससे क्षुधादिक व्याप्त न हों
और शरीर शिथिल न हो। सिद्धान्तमें इसीकी अपेक्षा केवलीको आहार कहा है।
है और शरीर क्षीण रहता है। तथा पवनादि साधनेवाले बहुत काल तक आहार नहीं लेते और
शरीर पुष्ट बना रहता है, व ऋद्धिधारी मुनि उपवासादि करते हैं तथापि शरीर पुष्ट बना रहता
है; फि र केवलीके तो सर्वोत्कृष्टपना है, उनके अन्नादिक बिना शरीर पुष्ट बना रहता है तो क्या
आश्चर्य हुआ? तथा केवली कैसे आहारको जायेंगे? कैसे याचना करेंगे?
थी उसका कैसे निर्वाह होगा? जीव अंतराय सर्वत्र प्रतिभासित हो वहाँ कैसे आहार ग्रहण
करेंगे? इत्यादि विरुद्धता भासित होती है। तथा वे कहते हैं
प्रकार विरुद्धता उत्पन्न होती है।
रहा और अतिशय नहीं हुआ तो इन्द्रादि द्वारा पूज्यपना कैसे शोभा देगा? तथा निहार कैसे
करते हैं, कहाँ करते हैं? कोई सम्भवित बातें नहीं हैं। तथा जिस प्रकार रागादियुक्त छद्मस्थके
क्रिया होती है, उसी प्रकार केवलीके क्रिया ठहराते हैं।
किस प्रकार बनता है? तथा केवलीके नमस्कारादि क्रिया ठहराते हैं, परन्तु अनुराग बिना
वन्दना सम्भव नहीं है। तथा गुणाधिकको वन्दना संभव है, परन्तु उनसे कोई गुणाधिक रहा
नहीं है सो कैसे बनती है?
Page 142 of 350
PDF/HTML Page 170 of 378
single page version
हाट जैसी रचना करनेमें भी समर्थ नहीं है, जिससे हाटका आश्रय लेना पड़े?
अनेक विपरीतता प्ररूपित करते हैं। केवली शुद्ध केवलज्ञान-दर्शनमय रागादिकरहित हुए हैं
उनके अघातियोंके उदयसे संभवित क्रिया कोई होती है; परन्तु उनके मोहादिकका अभाव
हुआ है, इसलिये उपयोग जुड़नेसे जो क्रिया हो सकती है वह संभव नहीं है। पाप-प्रकृतिका
अनुभाग अत्यन्त मंद हुआ है, ऐसा मन्द अनुभाग अन्य किसीके नहीं है; इसलिये अन्य जीवोंके
पाप-उदयसे जो क्रिया होती देखी जाती है, वह केवलीके नहीं होती।
यदि हैं तो त्याग करनेके पश्चात् किसलिये रखते हैं? और नहीं हैं तो वस्त्रादिक गृहस्थ
रखते हैं, उन्हें भी परिग्रह मत कहो? सुवर्णादिकको परिग्रह कहो।
नहीं किया है, परिग्रहका त्याग किया है। तथा अन्नादिकका संग्रह करना तो परिग्रह है,
भोजन करने जाये वह परिग्रह नहीं है। तथा वस्त्रादिकका संग्रह करना व पहिनना वह
सर्वत्र ही परिग्रह है, सो लोकमें प्रसिद्ध है।
Page 143 of 350
PDF/HTML Page 171 of 378
single page version
तो कैसे ग्रहण करते हैं? इसलिए वस्त्रादिकका ग्रहण
ही साधन करते हैं, इसलिए ममत्व नहीं है। सो बाह्य क्रोध भले न करो, परन्तु जिसके
ग्रहणमें इष्टबुद्धि होगी उसके वियोगमें अनिष्टबुद्धि होगी ही होगी। यदि इष्टबुद्धि नहीं है तो
उसके अर्थ याचना किसलिये करते हैं? तथा बेचते नहीं हैं, सो धातु रखनेसे अपनी हीनता
जानकर नहीं बेचते। परन्तु जिस प्रकार धनादिका रखना है उसी प्रकार वस्त्रादिका रखना
है। लोकमें परिग्रहके चाहक जीवोंको दोनोंकी इच्छा है; इसलिए चोरादिकके भयादिकके कारण
दोनों समान हैं। तथा परिणामोंकी स्थिरता द्वारा धर्म साधनसे ही परिग्रहपना न हो, तो किसीको
बहुत ठंड लगेगी वह रजाई रखकर परिणामोंकी स्थिरता करेगा और धर्म साधेगा; सो उसे
भी निष्परिग्रह कहो? इस प्रकार गृहस्थधर्म
परिणमन निर्मल होनेसे परिषहसे व्याकुल नहीं होते, वह परिग्रह न रखे और धर्मसाधन करे
उसका नाम मुनिधर्म
तथा संज्वलनके सर्वघाती स्पर्द्धकोंका उदय नहीं है, देशघाती स्पर्द्धकोंका उदय है, सो उनका
कुछ बल नहीं है। जैसे वेदक सम्यग्दृष्टिको सम्यग्मोहनीयका उदय है, परन्तु सम्यक्त्वका घात
नहीं कर सकता; उसी प्रकार देशघाती संज्वलनका उदय परिणामोंको व्याकुल नहीं कर सकता।
अहो! मुनियोंके और दूसरेंके परिणामोंकी समानता नहीं है। और सबके सर्वघाती उदय है,
इनके देशघातीका उदय है, इसलिये दूसरोंके जैसे परिणाम होते हैं वैसे इनके कदापि नहीं
होते। जिनके सर्वघाती कषायोंका उदय हो वे गृहस्थ ही रहते हैं और जिनके देशघातीका
उदय हो वे मुनिधर्म अंगीकार करते हैं; उनके परिणाम शीतादिकसे व्याकुल नहीं होते, इसलिये
वस्त्रादिक नहीं रखते।
पर ग्यारहवीं प्रतिमाके धारीको श्रावक ही कहा है।
Page 144 of 350
PDF/HTML Page 172 of 378
single page version
दिगम्बर में वस्त्रादि रखनेसे धर्म होता ही नहीं है
किया वही कषायी है। इस कल्पित कथनसे अपनेको वस्त्रादि रखने पर भी लोग मुनि मानने
लगें; इसलिये मानकषायका पोषण किया और दूसरोंको सुगमक्रियामें उच्चपद होना दिखाया,
इसलिये बहुत लोग लग गये। जो कल्पित मत हुए हैं वे इसी प्रकार हुए हैं। इसलिए
कषायी होकर वस्त्रादि होने पर मुनिपना कहा है सो पूर्वोक्त युक्तिमें विरुद्ध भासित होता
है; इसलिये यह कल्पित वचन हैं, ऐसा जानना।
उनका प्रयोजन? वे तो पाप के कारण हैं; धर्ममें तो जो धर्मके उपकारी हों उनका नाम
उपकरण है। वहाँ शास्त्र
शरीरसुखके अर्थ ही धारण किए जाते हैं।
इसलिये धर्मके साधनको परिग्रह संज्ञा नहीं है; भोगके साधनको परिग्रह संज्ञा होती है ऐसा
जानना।
उनकी अविनय होगी, लोकनिंद्य होंगे; इसलिए इस धर्मके अर्थ कमण्डल रखते हैं। इसप्रकार
पींछी आदि उपकरण सम्भवित हैं, वस्त्रादिको उपकरण संज्ञा सम्भव नहीं है।
अपनी महंतता भी चाहते हैं, इसलिये उन्हें कल्पित युक्ति द्वारा उपकरण ठहराया है।
Page 145 of 350
PDF/HTML Page 173 of 378
single page version
वे ही देते तो देते, न देते तो न देते। तथा अतिलोभ हुआ वही पाप हुआ, तब मुनिधर्म
नष्ट हुआ; दूसरा धर्म क्या साधेगा?
मानकषाय हुई। आहार लेना था सो माँग लिया, इसमें अतिलोभ क्या हुआ और इससे
मुनिधर्म किस प्रकार नष्ट हुआ? सो कहो।
अर्थ प्रार्थना नहीं करता है, स्वयमेव कोई आये तो अपनी विधि मिलने पर व्यापार करता
है तो उसके लोभकी मन्दता है, माया व मान नहीं है। माया, मानकषाय तो तब होगी
जब छल करनेके अर्थ व अपनी महंतताके अर्थ ऐसा स्वांग करे। परन्तु अच्छे व्यापारीके
ऐसा प्रयोजन नहीं है, इसलिये उनके माया-मान नहीं कहते। उसी प्रकार मुनियोंके
आहारादिककी इच्छा मन्द है। वे आहार लेने आते हैं, मनमें आहार लेनेकी इच्छा भी है,
परन्तु आहारके अर्थ प्रार्थना नहीं करते; स्वयमेव कोई दे तो अपनी विधि मिलने पर आहार
लेते हैं, वहाँ उनके लोभकी मन्दता है, माया व मान नहीं है। माया
नहीं, इसलिये उनके माया
Page 146 of 350
PDF/HTML Page 174 of 378
single page version
की; वहाँ उसको संकोच हुआ और न देने पर लोकनिंद्य होनेका भय हुआ, इसलिये उसे
आहार दिया, परन्तु उसके (दातारके) अंतरंग प्राण पीड़ित होनेसे हिंसाका सद्भाव आया।
यदि आप उसके घरमें न जाते, उसीके देनेका उपाय होता तो देता, उसे हर्ष होता। यह
तो दबाकर कार्य कराना हुआ। तथा अपने कार्यके अर्थ याचनारूप वचन है वह पापरूप
है; सो यहाँ असत्य वचन भी हुआ। तथा उसके देनेकी इच्छा नहीं थी, इसने याचना की,
तब उसने अपनी इच्छासे नहीं दिया, संकोचसे दिया इसलिये अदत्तग्रहण भी हुआ। तथा
गृहस्थके घरमें स्त्री जैसी-तैसी बैठी थी और यह चला गया, सो वहाँ ब्रह्मचर्यकी बाड़का
भंग हुआ। तथा आहार लाकर कितने काल तक रखा; आहारादिके रखनेको पात्रादिक रखे
वह परिग्रह हुआ। इस प्रकार पाँच महाव्रतोंका भंग होनेसे मुनिधर्म नष्ट होता है
भी महापाप होता है। और आपके कुछ इच्छा नहीं है, कोई स्वयमेव अपमान करे तो उसके
महाधर्म है; परन्तु यहाँ तो भोजनके लोभके अर्थ याचना करके अपमान कराया इसलिये पाप
ही है, धर्म नहीं है। तथा वस्त्रादिकके अर्थ भी याचना करता है, परन्तु वस्त्रादिक कोई
धर्मका अंग नहीं है, शरीरसुखका कारण है, इसलिये पूर्वोक्त प्रकारसे उसका निषेध जानना।
देखो, अपने धर्मरूप उच्चपदको याचना करके नीचा करते हैं सो उसमें धर्मकी हीनता होती
है।
Page 147 of 350
PDF/HTML Page 175 of 378
single page version
बिना सम्यक्त्व कैसे होगा? इसलिये मिथ्या कहते हैं।
लिंगादिके भेदोंसे मोक्षका स्वरूप जिस प्रकार उनके शास्त्रोंमें कहा है उस प्रकार सीख लेना;
और केवलीका वचन प्रमाण है
तो जैनलिंग धर्मबुद्धिसे धारण किया है, उसके देवादिकी प्रतीति कैसे नहीं हुई? और उसके
बहुत शास्त्राभ्यास है सो उसने जीवादिके भेद कैसे नहीं जाने? और अन्यमतका लवलेश
भी अभिप्रायमें नहीं है, उसको अरहंत वचनकी कैसे प्रतीति नहीं हुई? इसलिये उसके ऐसा
श्रद्धान होता है; परन्तु सम्यक्त्व नहीं हुआ। तथा नारकी, भोग-भूमिया, तिर्यंच आदिको ऐसा
श्रद्धान होनेका निमित्त नहीं है, तथापि उनके बहुत कालपर्यंत सम्यक्त्व रहता है, इसलिये
उनके ऐसा श्रद्धान नहीं होता, तब भी सम्यक्त्व हुआ है।
सम्यग्ज्ञान कहा है।
तथा उनके द्वारा निरूपित अणुव्रत-महाव्रतादिरूप श्रावक-यतिका धर्म धारण करनेसे
Page 148 of 350
PDF/HTML Page 176 of 378
single page version
और उनके मतके अनुसार गृहस्थादिकके महाव्रतादि बिना अंगीकार किये भी सम्यक्चारित्र
होता है।
यहाँ वे कहते हैं
तो अन्तरंग परिणामों से होता है; इसलिए अंतरंग जैनधर्मरूप परिणाम हुए बिना ग्रैवेयक
जाना सम्भव नहीं है।
मारते नहीं हैं; यदि पाप न होता तो इन्द्रादिक क्यों नहीं मारते? तथा प्रतिमाजी के आभरणादि
बनाते हैं; परन्तु प्रतिबिम्ब तो वीतरागभाग बढ़ानेके लिए स्थापित किया था, आभरणादि बनानेसे
अन्यमतकी मूर्त्तिवत् यह भी हुए। इत्यादि कहाँ तक कहें? अनेक अन्यथा निरूपण करते
हैं।
कारित-अनुमोदनासे सर्व सावद्ययोग त्याग करनेकी प्रतिज्ञा करते हैं; बादमें पालन नहीं करते,
बालकको व भोलेको व शूद्रादिकको भी दीक्षा देते हैं। इस प्रकार त्याग करते हैं और
Page 149 of 350
PDF/HTML Page 177 of 378
single page version
अंगीकार करके भंग की, सो यह पाप किसे लगा? बादमें धर्मात्मा होनेका निश्चय कैसा?
तथा जो साधुका धर्म अंगीकार करके यथार्थ पालन न करे उसे साधु मानें या न मानें?
यदि मानें तो जो साधु मुनिनाम धारण करते हैं और भ्रष्ट हैं उन सबको साधु मानो। न
मानें तो इनके साधुपना नहीं रहा। तुम जैसे आचरणसे साधु मानते हो उसका भी पालन
किसी विरलेके पाया जाता है; सबको साधु किसलिये मानते हो?
हुआ, उसे पूज्य कैसे मानते हो? और नहीं मानता तो उससे साधुका व्यवहार किसलिये
वर्तता है? तथा आप तो उन्हें साधु न मानें और अपने संघमें रखकर औरोंसे साधु मानवाकर
औरोंको अश्रद्धानी करता है ऐसा कपट किसलिये करता है? तथा तुम जिसको साधु नहीं
मानोगे तब अन्य जीवोंको भी ऐसा ही उपदेश करोगे कि
हुआ, क्योंकि वह उसे साधु मानता है। तथा तुम जिसके यथार्थ आचरण मानते हो, वहाँ
भी विचारकर देखो; वह भी यथार्थ मुनिधर्मका पालन नहीं करता है।
जैनमतमें तो जैसा कहा है, वैसा ही होने पर साधुसंज्ञा होती है।
की प्रतिज्ञा करके एक बार भोजन करे तो उसके बहुत भोजनका संयम होने पर भी प्रतिज्ञा
भंगसे पापी कहते हैं, उसी प्रकार मुनिधर्मकी प्रतिज्ञा करके कोई किंचित् धर्म न पाले, तो
Page 150 of 350
PDF/HTML Page 178 of 378
single page version
एकबार भोजन करे तो धर्मात्मा ही है; उसी प्रकार अपना श्रावकपद धारण करके थोड़ा
भी धर्म साधन करे तो धर्मात्मा ही है। यहाँ ऊँचा नाम रखकर नीची क्रिया करनेमें पापीपना
सम्भव है। यथायोग्य नाम धारण करके धर्मक्रिया करनेसे तो पापीपना होता नहीं है; जितना
धर्मसाधन करे उतना ही भला है।
हैं, उसी प्रकार इस कालमें साधुका सद्भाव है, और गम्यक्षेत्रमें साधु दिखाई नहीं देते, तो
औरोंको तो साधु माना नहीं जाता; साधुका लक्षण मिलने पर ही साधु माने जाते हैं। तथा
इनका प्रचार भी थोड़े ही क्षेत्रमें दिखाई देता है, वहाँसे दूरके क्षेत्रमें साधुका सद्भाव कैसे
मानें? यदि लक्षण मिलने पर मानें तो यहाँ भी इसी प्रकार मानो। और बिना लक्षण मिले
ही मानें तो वहाँ अन्य कुलिंगी हैं इन्हीको साधु मानो। इस प्रकार विपरीतता होती है,
इसलिये बनता नहीं है।
इनके साधुपना बनता नहीं है; और साधुपने बिना साधु मानकर गुरु माननेसे मिथ्यादर्शन होता
है; क्योंकि भले साधुको गुरु माननेसे ही सम्यग्दर्शन होता है।
और वह त्रसघातादिक जिसमें हो ऐसा कार्य करता है; सो देशव्रत गुणस्थानमें तो ग्यारह
अविरति कहे हैं, वहाँ त्रसघात किस प्रकार सम्भव है? तथा ग्यारह प्रतिमाभेद श्रावकके
हैं, उनमें दसवीं-ग्यारहवीं प्रतिमाधारक श्रावक तो कोई होता ही नहीं और साधु होता है।
Page 151 of 350
PDF/HTML Page 179 of 378
single page version
ऊँची क्रियाको किसलिये छोड़ेगा और नीचा कार्य है तो किसलिये अंगीकार करेगा? यह
सम्भव ही नहीं है।
कुछ नहीं कहते।
विरोध होगा।
है। तथा धर्मके अंग अनेक हैं, उनमें एक परजीवकी दयाको मुख्य कहते हैं, उसका भी
विवेक नहीं है। जलका छानना, अन्नका शोधना, सदोष वस्तुका भक्षण न करना, हिंसादिरूप
व्यवहार न करना इत्यादि उसके अंगोंकी तो मुख्यता नहीं है।
हिंसाका यत्न बतलाते हैं। सो नासिका द्वारा बहुत पवन निकलती है उसका तो यत्न करते
ही नहीं। तथा उनके शास्त्रानुसार बोलनेका ही यत्न किया है तो सर्वदा किसलिये रखते
हैं? बोलें तब यत्न कर लेना चाहिये। यदि कहें
भी करते हैं; इसलिये गृहस्थको अपने योग्य शौच करना चाहिये। स्त्री-संगमादि करके शौच
किये बिना सामायिकादि क्रिया करनेसे अविनय, विक्षिप्तता आदि द्वारा पाप उत्पन्न होता है।
इस प्रकार जिनकी मुख्यता करते हैं उनका भी ठिकाना नहीं है। और कितने ही दया के
अंग योग्य पालते हैं, हरितकाय आदिका त्याग करते हैं। जल थोड़ा गिराते हैं; इनका हम
निषेध नहीं करते।
Page 152 of 350
PDF/HTML Page 180 of 378
single page version
भगवती सूत्रमें ऋद्धिधारी मुनिका निरूपण है वहाँ मेरुगिरि आदिमें जाकर ‘‘तत्थ चेययाइं वंदई’’
ऐसा पाठ है। इसका अर्थ यह है कि
ज्ञानादिककी वन्दना तो सर्वत्र सम्भव है। जो वन्दनायोग्य चैत्य वहाँ सम्भव हो और सर्वत्र
सम्भव न हो वहाँ उसे वन्दना करनेका विशेष सम्भव है और ऐसा सम्भवित अर्थ प्रतिमा
ही है; और चैत्य शब्दका मुख्य अर्थ प्रतिमा ही है, सो प्रसिद्ध है। इसी अर्थ द्वारा चैत्यालय
नाम सम्भव है; उसे हठ करके किसलिये लुप्त करें?
सो वह रचना अनादि है, वह रचना भोग
या तो अपने मन्दिरोंमें निष्प्रयोजन रचना देखकर उससे उदासीन होते होंगे, वहाँ दुःखी होते
होंगे, परन्तु यह सम्भव नहीं है। या अच्छी रचना देखकर विषयोंका पोषण करते होंगे,
परन्तु अरहन्तकी मूर्ति द्वारा सम्यग्दृष्टि अपना विषय पोषण करें यह भी सम्भव नहीं है।
इसलिये वहाँ उनकी भक्ति आदि ही करते हैं, यही सम्भव है।
था यहाँ धर्म हुआ; इसे औरोंके सदृश कैसे कहें? यह तो योग्य कार्य हुआ। और पाप होता
है तो वहाँ ‘‘णमोत्थुणं’’ का पाठ पढ़ा; सो पापके ठिकाने ऐसा पाठ किसलिये पढ़ा?
क्रिया है वह करना युक्त हुई।