Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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पाँचवाँ अधिकार ][ १४३
तथा यजुर्वेदमें ऐसा कहा है :
ओऽम् नमो अर्हतो ऋषभाय।
तथा ऐसा कहा हैः
ओऽम् ऋषभपवित्रं पुरुहूतमध्वज्ञं यज्ञेषु नग्नं परमं माहसंस्तुतं वरं शत्रुं जयंतं
पशुरिद्रमाहतिरिति स्वाहा। ओऽम् त्रातारमिंद्रं ऋषभं वदन्ति। अमृतारमिंद्रं हवे सुगतं सुपार्श्वमिंद्रं
हवे शक्रमर्जितं तद्वर्द्धमानपुरुहूतमिंद्रंमाहरिति स्वाहा। ओऽम् नग्नं सुधीरं दिग्वाससं ब्रह्मगर्ब्भं
सनातनं उपैमि वीरं पुरुषमर्हंतमादित्यवर्णं तमसः परस्तात स्वाहा। ओऽम् स्वस्तिन इन्द्रो वृद्धश्रवा
स्वस्तिनः पूषा विश्ववेदाः स्वस्तिनस्तार्क्ष्यों अरिष्टनेमि स्वस्तिनो बृहस्पतिर्दधातु।
दीर्घायुस्त्वायुबलायुर्वा शुभाजातायु। ओऽम् रक्ष रक्ष अरिष्टनेमिः स्वाहा। वामदेव
शान्त्यर्थमनुविधीयते सोऽस्माकं अरिष्टनेमिः स्वाहा।
सो यहाँ जैन तीर्थंकरोंके जो नाम हैं उनके पूजनादि कहे। तथा यहाँ यह भासित
हुआ किइनके पीछे वेदरचना हुई है।
इस प्रकार अन्यमतके ग्रन्थोंकी साक्षीसे भी जिनमतकी उत्तमता और प्राचीनता दृढ़
हुई। तथा जिनमतको देखनेसे वे मत कल्पित ही भासित होते हैं; इसलिये जो अपने हितका
इच्छुक हो वह पक्षपात छोड़कर सच्चे जैनधर्मको अंगीकार करो।
तथा अन्यमतोंमें पूर्वापर विरोध भासित होता है। पहले अवतारमें वेदका उद्धार किया,
वहाँ यज्ञादिकमें हिंसादिकका पोषण किया और बुद्धावतारमें यज्ञके निंदक होकर हिंसादिकका
निषेध किया। वृषभावतारमें वीतराग संयमका मार्ग दिखाया और कृष्णावतारमें परस्त्री रमणादि
विषयकषायादिकका मार्ग दिखाया। अब यह संसारी किसका कहा करे? किसके अनुसार
प्रवर्त्ते? और इन सब अवतारोंको एक बतलाते हैं, परन्तु एक भी कदाचित् किसी प्रकार
कहते हैं व प्रवर्त्तते हैं; तो इसे उनके कहनेकी व प्रवर्त्तनेकी प्रतीति कैसे आये?
तथा कहीं क्रोधादि कषायोंका व विषयोंका निषेध करते हैं, कहीं लड़नेका व विषयादि
सेवनका उपदेश देते हैं; वहाँ प्रारब्ध बतलाते हैं। सो बिना क्रोधादि हुए अपने आप लड़ना
आदि कार्य हों तो यह भी मानें, परन्तु वह तो होते नहीं हैं। तथा लड़ना आदि कार्य
करने पर भी क्रोधादि हुए न मानें, तो अलग क्रोधादि कौन हैं जिनका निषेध किया? इसलिये
ऐसा नहीं बनता, पूर्वापर विरोध है। गीतामें वीतरागता बतलाकर लड़नेका उपदेश दिया,
सो यह प्रत्यक्ष विरोध भासित होता है। तथा ऋषीश्वरादिकों द्वारा श्राप दिया बतलाते हैं,
सो ऐसा क्रोध करने पर निंद्यपना कैसे नहीं हुआ? इत्यादि जानना।
१. यजुर्वेद अ० २५ म० १६ अष्ठ ९१ अ० वर्ग १

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१४४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा ‘‘अपुत्रस्य गतिर्नास्ति’’ ऐसा भी कहते हैं और ‘‘भारत’’ में ऐसा भी कहा हैः
अनेकानि सहस्राणि कुमार ब्रह्मचारिणाम्।
दिवं गतानि राजेन्द्र अकृत्वा कुलसन्ततिम् ।।१।।
यहाँ कुमार ब्रह्मचारियोंको स्वर्ग गये बतलाया; सो यह परस्पर विरोध है। तथा
‘‘ऋषीश्वरभारत’’ में ऐसा कहा हैः
मद्यमांसाशनं रात्रौ भोजन कन्दभक्षणम्।
ये कुर्वन्ति वृथास्तेषां तीर्थयात्रां जपस्तपः ।।१।।
वृथा एकादशी प्रोक्ता वृथा जागरणं हरेः।
वृथा च पौष्करी यात्रा कृत्स्नं चान्द्रायणं वृथा ।।२।।
चातुर्मास्ये तु सम्प्राप्ते रात्रिभोज्यं करोति यः।
तस्य शुद्धिर्न विद्येत् चान्द्रायणशतैरपि ।।३।।
इसमें मद्य-मांसादिकका व रात्रिभोजन व चौमासेमें विशेषरूपसे रात्रिभोजनका व कन्दफल-
भक्षणका निषेध किया; तथा बड़े पुरुषोंको मद्य-मांसादिकका सेवन करना कहते हैं, व्रतादिमें
रात्रिभोजन व कन्दादि भक्षण स्थापित करते हैं; इस प्रकार विरुद्ध निरूपण करते हैं।
इसी प्रकार अनेक पूर्वापर विरुद्ध वचन अन्यमतके शास्त्रोंमें हैं सो क्या किया जाये?
कहीं तो पूर्व-परम्परा जानकर विश्वास करानेके अर्थ यथार्थ कहा और कहीं विषयकषायका
पोषण करनेके अर्थ अन्यथा कहा; सो जहाँ पूर्वापर विरोध हो उनके वचन प्रमाण कैसे करें?
अन्यमतोंमें जो क्षमा, शील, सन्तोषादिकका पोषण करनेवाले वचन हैं वे तो जैन मतमें
पाये जाते हैं, और विपरीत वचन हैं वे उनके कल्पित हैं। जिनमतानुसार वचनोंके विश्वाससे
उनके विपरीत वचनके भी श्रद्धानादिक हो जाते हैं, इसलिये अन्यमतका कोई अंग भला देखकर
भी वहाँ श्रद्धानादिक नहीं करना। जिस प्रकार विषमिश्रित भोजन हितकारी नहीं है, उसी
प्रकार जानना।
तथा यदि कोई उत्तमधर्मका अंग जिनमतमें न पाया जाये और अन्यमतमें पाया जाये,
अथवा किसी निषिद्ध धर्मका अंग जिनमतमें पाया जाये और अन्यत्र न पाया जाये तो
अन्यमतका आदर करो; परन्तु ऐसा सर्वथा होता ही नहीं; क्योंकि सर्वज्ञके ज्ञानमें कुछ छिपा
नहीं है। इसलिये अन्यमतोंके श्रद्धानादिक छोड़कर जिनमतके दृढ़ श्रद्धानादिक करना।

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पाँचवाँ अधिकार ][ १४५
श्वेताम्बरमत विचार
तथा कालदोषसे कषायी जीवों द्वारा जिनमतमें कल्पित रचना की है। सो बतलाते हैंः
श्वेताम्बर मतवाले किसीने सूत्र बनाये उन्हें गणधरके बनाये कहते हैं। सो उनसे पूछते
हैंगणधरने आचारांगादिक बनाये हैं सो तुम्हारे वर्त्तमानमें पाये जाते हैं, इतने प्रमाणसहित बनाये
थे या बहुत प्रमाणसहित बनाये थे? यदि इतने प्रमाणसहित ही बनाये थे तो तुम्हारे शास्त्रोंमें
आचारांगादिकके पदोंका प्रमाण अठारह हजार आदि कहा है, सो उनकी विधि मिला दो।
पदका प्रमाण क्या? यदि विभक्तिके अन्तको पद कहोगे तो कहे हुए प्रमाणसे बहुत पद
हो जायेंगे, और यदि प्रमाण पद कहोगे तो उस पदके साधिक (किंचित् अधिक) इक्यावन करोड़
श्लोक हैं। सो यह तो बहुत छोटे शास्त्र हैं, इसलिए बनता नहीं है। तथा आचारांगादिकसे
दशवैकालिकादिका प्रमाण कम कहा है, और तुम्हारे अधिक है, सो किस प्रकार बनता है?
फि र कहोगे‘‘आचारांगादिक बड़े थे; कालदोष जानकर उन्हीमेंसे कितने ही सूत्र
निकालकर यह शास्त्र बनाये हैं।’’ तब प्रथम तो टूटक ग्रन्थ प्रमाण नहीं है। तथा ऐसा नियम
है कि
बड़ा ग्रन्थ बनाये तो उसमें सर्व वर्णन विस्तारसहित करते हैं और छोटा ग्रन्थ बनाये
तो यहाँ संक्षिप्त वर्णन करते हैं, परन्तु सम्बन्ध टूटता नहीं है और किसी बड़े ग्रन्थमेंसे थोड़ासा
कथन निकाल लें तो वहाँ सम्बन्ध नहीं मिलेगा
कथनका अनुक्रम टूट जायगा। परन्तु तुम्हारे
सूत्रोंमें तो कथादिकका भी सम्बन्ध मिलता भासित होता हैटूटकपना भासित नहीं होता।
तथा अन्य कवियोंसे गणधर की बुद्धि तो अधिक होगी, उनके बनाये ग्रन्थोंमें थोड़े
शब्दोंमें बहुत अर्थ होना चाहिये; परन्तु अन्य कवियों जैसी भी गम्भीरता नहीं है।
तथा जो ग्रन्थ बनाये वह अपना नाम ऐसा नहीं रखता कि‘‘अमुक कहता है,’’
‘‘मैं कहता हूँ’’ ऐसा कहता है; परन्तु तुम्हारे सूत्रोंमें ‘‘हे गौतम!’’ व ‘‘गौतम कहते है’’
ऐसे वचन हैं। परन्तु ऐसे वचन तो तभी सम्भव हैं जब और कोई कर्ता हो। इसलिये
यह सूत्र गणधरकृत नहीं हैं, औरके बनाये गये हैं। गणधर के नामसे कल्पित-रचनाको प्रमाण
कराना चाहते हैं; परन्तु विवेकी तो परीक्षा करके मानते हैं, कहा ही तो नहीं मानते।
तथा वे ऐसा भी कहते है किगणधर सूत्रोंके अनुसार कोई दशपूर्वधारी हुए हैं,
उन्होंने यह सूत्र बनाये हैं। वहाँ पूछते हैंयदि नये ग्रन्थ बनाये हैं तो नया नाम रखना
था, अंगादिकके नाम किसलिये रखे? जैसेकोई बड़े शाहूकारकी कोठीके नामसे अपना
शाहूकारा प्रगट करेऐसा यह कार्य हुआ। सच्चेको तो जिस प्रकार दिगम्बरमें ग्रन्थोंके और

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१४६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
नाम रखे तथा अनुसारी पूर्वग्रन्थोंका कहा; उसी प्रकार कहना योग्य था। अंगादिकके नाम
रखकर गणधरकृतका भ्रम किसलिये उत्पन्न किया? इसलिये गणधरके, पूर्वधारीके वचन नहीं
हैं। तथा इन सूत्रोंमें विश्वास करनेके अर्थ जो जिनमत
अनुसार कथन है वह तो सत्य
है ही; दिगम्बर भी उसी प्रकार कहते हैं।
तथा जो कल्पित रचना की है, उसमें पूर्वापर विरुद्धपना व प्रत्यक्षादि प्रमाणमें
विरुद्धपना भासित होता है वही बतलाते हैंः
अन्यलिंगसे मुक्तिका निषेध
अन्यलिंगीके व गृहस्थके व स्त्रीके व चाण्डालादि शूद्रोंके साक्षात् मुक्तिकी प्राप्ति होना
मानते हैं, सो बनता नहीं है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी एकता मोक्षमार्ग है; परन्तु सम्यग्दर्शनका
स्वरूप तो ऐसा कहते हैंः
अरहन्तो महादेवो जावज्जीवं सुसाहणो गुरुणो
जिणपण्णत्तं तत्तं ए सम्मत्तं मए गहियं ।।।।
सो अन्यलिंगीके अरहन्तदेव, साधु, गुरु, जिनप्रणीत तत्त्वका मानना किस प्रकार सम्भव
है? जब सम्यक्त्व भी न होगा तो मोक्ष कैसे होगा?
यदि कहोगेअंतरङ्गमें श्रद्धान होनेसे उनके सम्यक्त्व होता है; सो विपरीत लिंग धारककी
प्रशंसादिके करने पर भी सम्यक्त्वको अतिचार कहा है, तो सच्चा श्रद्धान होनेके पश्चात् आप
विपरीत लिंगका धारक कैसे रहेगा? श्रद्धान होने के पश्चात् महाव्रतादि अंगीकार करने पर
सम्यक्चारित्र होता है, वह अन्यलिंगमें किसप्रकार बनेगा? यदि अन्यलिंगमें भी सम्यक्चारित्र होता
है तो जैनलिंग अन्यलिंग समान हुआ, इसलिए अन्यलिंगीको मोक्ष कहना मिथ्या है।
गृहस्थमुक्ति निषेध
तथा गृहस्थको मोक्ष कहते हैं; सो हिंसादिक सर्व सावद्ययोगका त्याग करने पर
सम्यक्चारित्र होता है, तब सर्व सावद्ययोगका त्याग करने पर गृहस्थपना कैसे सम्भव है?
यदि कहोगे
अतरंग त्याग हुआ है, तो यहाँ तो तीनों योग द्वारा त्याग करते हैं, तो काय
द्वारा त्याग कैसे हुआ? तथा बाह्य परिग्रहादिक रखने पर भी महाव्रत होते हैं; सो महाव्रतोंमें
तो बाह्यत्याग करनेकी ही प्रतिज्ञा करते हैं, त्याग किये बिना महाव्रत नहीं होते। महाव्रत
बिना छट्ठा आदि गुणस्थान नहीं होता; तो फि र मोक्ष कैसे होगा? इसलिए गृहस्थको मोक्ष
कहना मिथ्यावचन है।

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पाँचवाँ अधिकार ][ १४७
स्त्रीमुक्तिका निषेध
तथा स्त्रीको मोक्ष कहते हैं; सो जिससे सप्तम नरक गमनयोग्य पाप न हो सके, उससे
मोक्ष का कारण शुद्धभाव कैसे होगा? क्योंकि जिसके भाव दृढ़ हों, वही उत्कृष्ट पाप व
धर्म उत्पन्न कर सकता है। तथा स्त्रीके निःशंक एकान्तमें ध्यान धरना और सर्व परिग्रहादिकका
त्याग करना सम्भव नहीं है।
यदि कहोगेएक समयमें पुरुषवेदी व स्त्रीवेदी व नपुंसकवेदीको सिद्धि होना सिद्धान्तमें
कही है, इसलिये स्त्रीको मोक्ष मानते हैं। परन्तु यहाँ वह भाववेदी है या द्रव्यवेदी है?
यदि भाववेदी है तो हम मानते ही हैं; तथा द्रव्यवेदी है तो पुरुष-स्त्रीवेदी तो लोकमें प्रचुर
दिखाई देते हैं, और नपुंसक तो कोई विरले दिखते हैं; तो एक समयमें मोक्ष जाने वाले
इतने नपुंसक कैसे सम्भव हैं? इसलिये द्रव्यवेदकी अपेक्षा कथन नहीं बनता।
तथा यदि कहोगेनववें गुणस्थान तक वेद कहे हैं; सो भी भाववेदकी अपेक्षा ही
कथन है। द्रव्यवेदकी अपेक्षा हो तो चौदहवें गुणस्थानपर्यन्त वेदका सद्भाव कहना सम्भव
हो।
इसलिये स्त्रीको मोक्षका कहना मिथ्या है।
शूद्रमुक्तिका निषेध
तथा शूद्रोंको मोक्ष कहते हैं; परन्तु चाण्डालादिकको उत्तम कु लवाला गृहस्थ
सन्मानादिकपूर्वक दानादिक कैसे देंगे? लोकविरुद्ध होता है। तथा नीच कुलवालोंके उत्तम
परिणाम नहीं हो सकते। तथा गोत्रकर्मका उदय तो पंचम गुणस्थानपर्यन्त ही है; ऊपरके
गुणस्थान चढ़े बिना मोक्ष कैसे होगा? यदि कहोगे
संयम धारण करनेके पश्चात् उसके उच्च
गोत्रका उदय कहते हैं; तो संयम धारण करनेन करनेकी अपेक्षासे नीच-उच्च गोत्रका उदय
ठहरा। ऐसा होनेसे असंयमी मनुष्य, तीर्थंकर, क्षत्रियादिकको भी नीच गोत्रका उदय ठहरेगा।
यदि उनके कुल- अपेक्षा उच्च गोत्रका उदय कहोगे तो चाण्डालादिकके भी कुल-अपेक्षा ही
नीच गोत्रका उदय कहो। उसका सद्भाव तुम्हारे सूत्रोंमें भी पंचम गुणस्थानपर्यन्त ही कहा
है। सो कल्पित कहनेमें पूर्वापर विरोध होगा ही होगा; इसलिये शूद्रोंको मोक्ष कहना मिथ्या
है।
इस प्रकार उन्होंने सर्वको मोक्षकी प्राप्ति कही; सो उसका प्रयोजन यह है कि सर्वको
भला मानना, मोक्षकी लालच देना और अपने कल्पित मतकी प्रवृत्ति करना। परन्तु विचार
करने पर मिथ्या भासित होता है।

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१४८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
अछेरोंका निराकरण
तथा उनके शास्त्रोंमें ‘‘अछेरा’’ कहते हैं। वहाँ कहते हैंहुण्डावसर्पिणीके निमित्तसे
हुए हैं, इनको छेड़ना नहीं। सो कालदोषसे कितनी ही बातें होती हैं, परन्तु प्रमाणविरुद्ध
तो नहीं होतीं। यदि प्रमाणविरुद्ध भी हों तो आकाशके फू ल, गधेके सींग इत्यादिका होना
भी बनेगा; सो सम्भव नहीं है। वे अछेरा कहते हैं सो प्रमाणविरुद्ध हैं। किसलिये? सो
कहते हैंः
वर्द्धमान जिन कुछ काल ब्राह्मणीके गर्भमें रहे, फि र क्षत्रियाणीके गर्भमें बढ़े ऐसा कहते
हैं। सो किसीका गर्भ किसीके रख देना प्रत्यक्ष भासित नहीं होता, अनुमानादिकमें नहीं आता।
तथा तीर्थंकरके हुआ कहें तो गर्भकल्याणक किसीके घर हुआ, जन्म-कल्याणक किसीके घर
हुआ। कुछ दिन रत्नवृष्टि आदि किसीके घर हुए, कुछ दिन किसीके घर हुए। सोलह स्वप्न
किसीको आये, पुत्र किसीको हुआ, इत्यादि असंभव भासित होता है। तथा माताएँ तो दो
हुईं और पिता तो एक ब्राह्मण ही रहा। जन्मकल्याणादिमें उसका सन्मान नहीं किया, अन्य
कल्पित पिताका सन्मान किया। इस प्रकार तीर्थंकरके दो पिताका कहना महाविपरीत भाषित
होता है। सर्वोत्कृष्ट पद धारकके लिए ऐसे वचन सुनना भी योग्य नहीं है।
तथा तीर्थंकरके भी ऐसी अवस्था हुई तो सर्वत्र ही अन्य स्त्रीका गर्भ अन्य स्त्रीको
रख देना ठहरेगा। तो जैसे वैष्णव अनेक प्रकारसे पुत्र-पुत्रीका उत्पन्न होना बतलाते हैं वैसा
यह कार्य हुआ। सो ऐसे निकृष्ट कालमें जब ऐसा नहीं होता तब वहाँ होना कैसे सम्भव
है? इसलिये यह मिथ्या है।
तथा मल्लि तीर्थंकरको कन्या कहते हैं। परन्तु मुनि, देवादिककी सभामें स्त्रीका स्थिति
करना, उपदेश देना सम्भव नहीं है; व स्त्रीपर्याय हीन है सो उत्कृष्ट तीर्थंकर- पदधारीके नहीं
बनती। तथा तीर्थंकरके नग्नलिंग ही कहते हैं, सो स्त्रीके नग्नपना संभव नहीं है। इत्यादि
विचार करनेसे असंभव भासित होता है।
तथा हरिक्षेत्रके भोगभूमियाको नरकमें गया कहते हैं। सो बन्ध वर्णनमें तो
भोगभूमियाको देवगति, देवायुका ही बन्ध कहते हैं, नरक कैसे गया? सिद्धान्तमें तो
अनन्तकालमें जो बात हो वह भी कहते हैं। जैसे
तीसरे नरकपर्यन्त तीर्थंकर प्रकृतिका
सत्व कहा, भोगभूमियाके नरकायु गतिका बन्ध नहीं कहा। सो केवली भूलते तो नहीं हैं;
इसलिये यह मिथ्या है।
इस प्रकार सर्व अछेरे असम्भव जानना।
तथा वे कहते हैं
इनको छेड़ना नहीं; सो झूठ कहनेवाला इसी प्रकार कहता है।

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पाँचवाँ अधिकार ][ १४९
तथा यदि कहोगेदिगम्बरमें जिस प्रकार तीर्थंकरके पुत्री, चक्रवर्तीका मानभंग इत्यादि
कार्य कालदोषसे हुआ कहते हैं; उसी प्रकार यह भी हुए। परन्तु यह कार्य तो प्रमाणविरुद्ध
नहीं हैं, अन्यके होते थे सो महन्तोंके हुए; इसलिये कालदोष कहा है। गर्भहरणादि कार्य
प्रत्यक्ष-अनुमानादिसे विरुद्ध हैं, उनका होना कैसे सम्भव है?
तथा अन्य भी बहुत ही कथन प्रमाणविरुद्ध कहते हैं। जैसे कहते हैंसर्वार्थसिद्धिके
देव मनसे ही प्रश्न करते हैं, केवली मनसे ही उत्तर देते हें; परन्तु सामान्य जीवके मनकी
बात मनःपर्ययज्ञानीके बिना जान नहीं सकता, तो केवलीके मनकी सर्वार्थसिद्धिके देव किस
प्रकार जानेंगे? तथा केवलीके भावमनका तो अभाव है, द्रव्यमन जड़-आकारमात्र है, उत्तर
किसने दिया? इसलिये यह मिथ्या है।
इसप्रकार अनेक प्रमाणविरुद्ध कथन किये हैं, इसलिये उनके आगम कल्पित जानना।
श्वेताम्बरमत कथित देव-गुरु-धर्मका अन्यथा स्वरूप
तथा वे श्वेताम्बर मतवाले देव-गुरु-धर्मका स्वरूप अन्यथा निरूपित करते हैंः
देवका अन्यथा स्वरूप
वहाँ केवलीके क्षुधादिक दोष कहते हैं सो यह देवका स्वरूप अन्यथा है, कारण कि
क्षुधादिक दोष होनेसे आकुलता होगी तब अनन्तसुख किस प्रकार बनेगा? फि र यदि कहोगे
शरीरको क्षुधा लगती है, आत्मा तद्रूप नहीं होता; तो क्षुधादिकका उपाय आहारादिक किसलिये
ग्रहण किया कहते हो? क्षुधादिसे पीड़ित हो तभी आहार ग्रहण करेगा। फि र कहोगे
जिस प्रकार कर्मोदयसे विहार होता है उसी प्रकार आहारग्रहण होता है। सो विहार तो
विहायोगति प्रकृतिके उदयसे होता है और पीड़ाका उपाय नहीं है तथा वह बिना इच्छा भी
किसी जीवके होता देखा जाता है। तथा आहार है वह प्रकृतिउदयसे नहीं है, क्षुधासे पीड़ित
होने पर ही ग्रहण करता है। तथा आत्मा पवनादिको प्रेरित करे तभी निगलना होता है,
इसलिये विहारवत् आहार नहीं है।
यदि कहोगेसातावेदनीयके उदयसे आहारग्रहण होता है, सो भी बनता नहीं है।
यदि जीव क्षुधादिसे पीड़ित हो, पश्चात् आहारादिक ग्रहणसे सुख माने, उसके आहारादिक
साताके उदयसे कहे जाते हैं। आहारादिका ग्रहण सातावेदनीयके उदयसे स्वयमेव हो ऐसा
तो है नहीं; यदि ऐसा हो तो सातावेदनीयका मुख्य उदय देवोंके है, वे निरन्तर आहार क्यों
नहीं करते? तथा महामुनि उपवासादि करें उनके साताका भी उदय और निरन्तर भोजन
करनेवालोंको असाताका भी उदय सम्भव है।

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१५० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
इसलिये जिस प्रकार बिना इच्छा विहायोगतिके उदयसे विहार सम्भव है, उसी प्रकार
बिना इच्छा केवल सातावेदनीयके ही उदयसे आहारका ग्रहण सम्भव नहीं है।
फि र वे कहते हैंसिद्धान्तमें केवलीके क्षुधादिक ग्यारह परीषह कहे हैं, इसलिये उनके
क्षुधाका सद्भाव सम्भव है। तथा आहारादिक बिना उसकी उपशांतता कैसे होगी? इसलिये
उनके आहारादि मानते हैं।
समाधानःकर्मप्रकृतियोंका उदय मन्द-तीव्र भेदसहित होता है। वहाँ अति मन्द उदय
होनेसे उस उदयजनित कार्यकी व्यक्तता भासित नहीं होती; इसलिये मुख्यरूपसे अभाव कहा जाता
है, तारतम्यमें सद्भाव कहा जाता है। जैसे
नवमें गुणस्थानमें वेदादिकका उदय मन्द है, वहाँ
मैथुनादि क्रिया व्यक्त नहीं है; इसलिये वहाँ ब्रह्मचर्य ही कहा है। तारतम्यमें मैथुनादिकका सद्भाव
कहा जाता है। उसी प्रकार केवलीके असाताका उदय अतिमन्द है; क्योंकि एक-एक कांडकमें
अनन्तवें भाग-अनुभाग रहते हैं; ऐसे बहुत अनुभागकांडकोंसे व गुणसंक्रमणादिसे सत्तामें
असातावेदनीयका अनुभाग अत्यन्त मन्द हुआ है, उसके उदयमें ऐसी क्षुधा व्यक्त नहीं होती जो
शरीरको क्षीण करे। और मोहके अभावसे क्षुधादिकजनित दुःख भी नहीं है; इसलिये क्षुधादिकका
अभाव कहा जाता है और तारतम्यमें उसका सद्भाव कहा जाता है।
तथा तूने कहाआहारादिक बिना उसकी उपशांतता कैसे होगी? परन्तु आहारादिकसे
उपशांत होने योग्य क्षुधा लगे तो मन्द उदय कैसे रहा? देव, भोगभूमिया आदिकके किंचित्
मन्द उदय होने पर भी बहुत काल पश्चात् किंचित् आहार
ग्रहण होता है तो इनके अतिमंद
उदय हुआ है, इसलिये इनके आहारका अभाव सम्भव है।
फि र वह कहता हैदेव, भोगभूमियोंका तो शरीर ही वैसा है कि जिन्हें भूख थोड़ी
और बहुत काल पश्चात् लगती है, उनका तो शरीर कर्मभूमिका औदारिक है; इसलिये इनका
शरीर आहार बिना देशेन्यूनकोटिपूर्व पर्यन्त उत्कृष्टरूपसे कैसे रहता है?
समाधानःदेवादिकका भी शरीर वैसा है; सो कर्मके ही निमित्तसे है। यहाँ केवलज्ञान
होने पर ऐसा ही कर्मका उदय हुआ, जिससे शरीर ऐसा हुआ कि उसको भूख प्रगट होती ही
नहीं। जिस प्रकार केवलज्ञान होनेसे पूर्व केश, नख बढ़ते थे, अब नहीं बढ़ते; छाया होती थी
अब नहीं होती; शरीरमें निगोद थी, उसका अभाव हुआ। बहुत प्रकारसे जैसे शरीरकी अवस्था
अन्यथा हुई; उसी प्रकार आहार बिना भी शरीर जैसेका तैसा रहे, ऐसी भी अवस्था हुई। प्रत्यक्ष
देखो, औरोंको जरा व्याप्त हो तब शरीर शिथिल हो जाता है, इनका आयुपर्यन्त शरीर शिथिल
नहीं होता; इसलिये अन्य मनुष्योंकी और इनके शरीरकी समानता सम्भव नहीं है।
तथा यदि तू कहेगादेवादिकके आहार ही ऐसा है जिससे बहुत कालकी भूख मिट

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पाँचवाँ अधिकार ][ १५१
जाये, परन्तु इनकी भूख काहेसे मिटी और शरीर पुष्ट किस प्रकार रहा? तो सुन, असाताका
उदय मंद होनेसे मिटी, और प्रतिसमय परमऔदारिक शरीरवर्गणाका ग्रहण होता है सो वह
नोकर्म-आहार है; इसलिए ऐसी-ऐसी वर्गणाका ग्रहण होता है जिससे क्षुधादिक व्याप्त न हों
और शरीर शिथिल न हो। सिद्धान्तमें इसीकी अपेक्षा केवलीको आहार कहा है।
तथा अन्नादिकका आहार तो शरीरकी पुष्टताका मुख्य कारण नहीं है। प्रत्यक्ष देखो, कोई
थोड़ा आहार ग्रहण करता है और शरीर बहुत पुष्ट होता है; कोई बहुत आहार ग्रहण करता
है और शरीर क्षीण रहता है। तथा पवनादि साधनेवाले बहुत काल तक आहार नहीं लेते और
शरीर पुष्ट बना रहता है, व ऋद्धिधारी मुनि उपवासादि करते हैं तथापि शरीर पुष्ट बना रहता
है; फि र केवलीके तो सर्वोत्कृष्टपना है, उनके अन्नादिक बिना शरीर पुष्ट बना रहता है तो क्या
आश्चर्य हुआ? तथा केवली कैसे आहारको जायेंगे? कैसे याचना करेंगे?
तथा वे आहारको जायें तो समवसरण खाली कैसे रहेगा? अथवा अन्यका ला देना
ठहराओगे तो कौन ला देगा? उनके मनकी कौन जानेगा? पूर्वमें उपवासादिकी प्रतिज्ञा की
थी उसका कैसे निर्वाह होगा? जीव अंतराय सर्वत्र प्रतिभासित हो वहाँ कैसे आहार ग्रहण
करेंगे? इत्यादि विरुद्धता भासित होती है। तथा वे कहते हैं
आहार ग्रहण करते हैं, परन्तु
किसीको दिखाई नहीं देता। सो आहारग्रहणको निंद्य जाना, तब उसका न देखना अतिशयमें
लिखा है; सो उनके निंद्यपना तो रहा, और दूसरे नहीं देखते हैं तो क्या हुआ? ऐसे अनेक
प्रकार विरुद्धता उत्पन्न होती है।
तथा अन्य अविवेकताकी बातें सुनोकेवलीके निहार कहते हैं, रोगादिक हुए कहते
हैं और कहते हैंकिसीने तेजोलेश्या छोड़ी उससे वर्द्धमानस्वामीके पेठूंगाका (पेचिसका) रोग
हुआ, उससे बहुत बार निहार होने लगा। यदि तीर्थंकर केवलीके भी ऐसे कर्मका उदय
रहा और अतिशय नहीं हुआ तो इन्द्रादि द्वारा पूज्यपना कैसे शोभा देगा? तथा निहार कैसे
करते हैं, कहाँ करते हैं? कोई सम्भवित बातें नहीं हैं। तथा जिस प्रकार रागादियुक्त छद्मस्थके
क्रिया होती है, उसी प्रकार केवलीके क्रिया ठहराते हैं।
वर्द्धमानस्वामीके उपदेशमें ‘‘हे गौतम!’’ ऐसा बारम्बार कहना ठहराते हैं; परन्तु उनके
तो अपने कालमें सहज दिव्यध्वनि होती है, वहाँ सर्वको उपदेश होता है, गौतमको सम्बोधन
किस प्रकार बनता है? तथा केवलीके नमस्कारादि क्रिया ठहराते हैं, परन्तु अनुराग बिना
वन्दना सम्भव नहीं है। तथा गुणाधिकको वन्दना संभव है, परन्तु उनसे कोई गुणाधिक रहा
नहीं है सो कैसे बनती है?

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१५२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा हाटमें समवसरण उतरा कहते हैं, सो इन्द्रकृत समवसरण हाटमें किस प्रकार
रहेगा? इतनी रचनाका समावेश वहाँ कैसे होगा? तथा हाटमें किसलिये रहें? क्या इन्द्र
हाट जैसी रचना करनेमें भी समर्थ नहीं है, जिससे हाटका आश्रय लेना पड़े?
तथा कहते हैंकेवली उपदेश देनेको गये, सो घर जाकर उपदेश देना अतिरागसे
होता है और वह मुनिको भी सम्भव नहीं है तो केवलीको कैसे होगा? इसी प्रकार वहाँ
अनेक विपरीतता प्ररूपित करते हैं। केवली शुद्ध केवलज्ञान-दर्शनमय रागादिकरहित हुए हैं
उनके अघातियोंके उदयसे संभवित क्रिया कोई होती है; परन्तु उनके मोहादिकका अभाव
हुआ है, इसलिये उपयोग जुड़नेसे जो क्रिया हो सकती है वह संभव नहीं है। पाप-प्रकृतिका
अनुभाग अत्यन्त मंद हुआ है, ऐसा मन्द अनुभाग अन्य किसीके नहीं है; इसलिये अन्य जीवोंके
पाप-उदयसे जो क्रिया होती देखी जाती है, वह केवलीके नहीं होती।
इस प्रकार केवली भगवानके सामान्य मनुष्य जैसी क्रियाका सद्भाव कहकर देवके
स्वरूपको अन्यथा प्ररूपित करते हैं।
गुरुका अन्यथा स्वरूप
तथा गुरुके स्वरूपको अन्यथा प्ररूपित करते हैं। मुनिके वस्त्रादिक चौदह उपकरण
कहते हैं, सो हम पूछते हैंमुनिको निर्ग्रन्थ कहते हैं, और मुनिपद लेते समय नव प्रकारके
सर्व परिग्रहका त्याग करके महाव्रत अंगीकार करते हैं; सो यह वस्त्रादिक परिग्रह हैं या नहीं?
यदि हैं तो त्याग करनेके पश्चात् किसलिये रखते हैं? और नहीं हैं तो वस्त्रादिक गृहस्थ
रखते हैं, उन्हें भी परिग्रह मत कहो? सुवर्णादिकको परिग्रह कहो।
तथा यदि कहोगेजिस प्रकार क्षुधाके अर्थ आहार ग्रहण करते हैं, उसी प्रकार शीत
उष्णादिकके अर्थ वस्त्रादिक ग्रहण करते हैं; परन्तु मुनिपद अंगीकार करते हुए आहारका त्याग
नहीं किया है, परिग्रहका त्याग किया है। तथा अन्नादिकका संग्रह करना तो परिग्रह है,
भोजन करने जाये वह परिग्रह नहीं है। तथा वस्त्रादिकका संग्रह करना व पहिनना वह
सर्वत्र ही परिग्रह है, सो लोकमें प्रसिद्ध है।
फि र कहोगेशरीरकी स्थितिके अर्थ वस्त्रादिक रखते हैं; ममत्व नहीं है इससे इनको
परिग्रह नहीं कहते, सो श्रद्धानमें तो जब सम्यग्दृष्टि हुआ तभी समस्त परद्रव्योंमें ममत्वका अभाव
१. पात्र-१, पात्रबन्ध-२, पात्र केसरीकर-३, पटलिकाएँ ४-५, रजस्त्राण-६, गोच्छक-७, रजोहरण-८,
मुखवस्त्रिका-९, दो सूती कपड़े १०-११, एक ऊ नी कपड़ा-१२, मात्रक-१३, चोलपट्ट-१४।
देखो, बृ० कल्पसूत्र उ० भाग ३ गा० ३९६२ से ३९६५ तक।

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पाँचवाँ अधिकार ][ १५३
हुआ; उस अपेक्षासे चौथा गुणस्थान ही परिग्रह रहित कहो। तथा प्रवृत्तिमें ममत्व नहीं है
तो कैसे ग्रहण करते हैं? इसलिए वस्त्रादिकका ग्रहण
धारण छूटेगा तभी निष्परिग्रह होगा।
फि र कहोगेवस्त्रादिकको कोई ले जाये तो क्रोध नहीं करते व क्षुधादिक लगे तो
उन्हें बेचते नहीं हैं व वस्त्रादिक पहिनकर प्रमाद नहीं करते; परिणामोंकी स्थिरता द्वारा धर्म
ही साधन करते हैं, इसलिए ममत्व नहीं है। सो बाह्य क्रोध भले न करो, परन्तु जिसके
ग्रहणमें इष्टबुद्धि होगी उसके वियोगमें अनिष्टबुद्धि होगी ही होगी। यदि इष्टबुद्धि नहीं है तो
उसके अर्थ याचना किसलिये करते हैं? तथा बेचते नहीं हैं, सो धातु रखनेसे अपनी हीनता
जानकर नहीं बेचते। परन्तु जिस प्रकार धनादिका रखना है उसी प्रकार वस्त्रादिका रखना
है। लोकमें परिग्रहके चाहक जीवोंको दोनोंकी इच्छा है; इसलिए चोरादिकके भयादिकके कारण
दोनों समान हैं। तथा परिणामोंकी स्थिरता द्वारा धर्म साधनसे ही परिग्रहपना न हो, तो किसीको
बहुत ठंड लगेगी वह रजाई रखकर परिणामोंकी स्थिरता करेगा और धर्म साधेगा; सो उसे
भी निष्परिग्रह कहो? इस प्रकार गृहस्थधर्म
मुनिधर्ममें विशेष क्या रहेगा? जिसके परिषह
सहनेकी शक्ति न हो, वह परिग्रह रखकर धर्मसाधन करे उसका नाम गृहस्थधर्म; और जिसके
परिणमन निर्मल होनेसे परिषहसे व्याकुल नहीं होते, वह परिग्रह न रखे और धर्मसाधन करे
उसका नाम मुनिधर्म
इतना ही विशेष है।
फि र कहोगेशीतादिके परिषहसे व्याकुल कैसे नहीं होंगे? परन्तु व्याकुलता तो
मोहउदयके निमित्तसे हैं; और मुनिके छठवें आदि गुणस्थानोंमें तीन चौकड़ीका उदय नहीं है
तथा संज्वलनके सर्वघाती स्पर्द्धकोंका उदय नहीं है, देशघाती स्पर्द्धकोंका उदय है, सो उनका
कुछ बल नहीं है। जैसे वेदक सम्यग्दृष्टिको सम्यग्मोहनीयका उदय है, परन्तु सम्यक्त्वका घात
नहीं कर सकता; उसी प्रकार देशघाती संज्वलनका उदय परिणामोंको व्याकुल नहीं कर सकता।
अहो! मुनियोंके और दूसरेंके परिणामोंकी समानता नहीं है। और सबके सर्वघाती उदय है,
इनके देशघातीका उदय है, इसलिये दूसरोंके जैसे परिणाम होते हैं वैसे इनके कदापि नहीं
होते। जिनके सर्वघाती कषायोंका उदय हो वे गृहस्थ ही रहते हैं और जिनके देशघातीका
उदय हो वे मुनिधर्म अंगीकार करते हैं; उनके परिणाम शीतादिकसे व्याकुल नहीं होते, इसलिये
वस्त्रादिक नहीं रखते।
फि र कहोगेजैनशास्त्रोंमें मुनि चौदह उपकरण रखेऐसा कहा है; सो तुम्हारे ही
शास्त्रोंमें कहा है, दिगम्बर जैनशास्त्रोंमें तो कहा नहीं है; वहाँ तो लंगोट मात्र परिग्रह रहने
पर ग्यारहवीं प्रतिमाके धारीको श्रावक ही कहा है।

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१५४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
अब यहाँ विचार करो किदोंनोंमें कल्पित वचन कौन हैं? प्रथम तो कल्पित रचना
कषायी हो वह करता है; तथा कषायी हो वही नीचपदमें उच्चपद प्रगट करता है। यहाँ
दिगम्बर में वस्त्रादि रखनेसे धर्म होता ही नहीं है
ऐसा तो नहीं कहा, परन्तु वहाँ श्रावकधर्म
कहा है; श्वेताम्बरमें मुनिधर्म कहा है। इसलिए यहाँ जिसने नीची क्रिया होने पर उच्चत्व
किया वही कषायी है। इस कल्पित कथनसे अपनेको वस्त्रादि रखने पर भी लोग मुनि मानने
लगें; इसलिये मानकषायका पोषण किया और दूसरोंको सुगमक्रियामें उच्चपद होना दिखाया,
इसलिये बहुत लोग लग गये। जो कल्पित मत हुए हैं वे इसी प्रकार हुए हैं। इसलिए
कषायी होकर वस्त्रादि होने पर मुनिपना कहा है सो पूर्वोक्त युक्तिमें विरुद्ध भासित होता
है; इसलिये यह कल्पित वचन हैं, ऐसा जानना।
फि र कहोगेदिगम्बरमें भी शास्त्र, पींछी आदि उपकरण मुनिके कहे हैं; उसी प्रकार
हमारे चौदह उपकरण कहे हैं?
समाधानःजिससे उपकार हो उसका नाम उपकरण है। सो यहाँ शीतादिककी वेदना
दूर करनेसे उपकरण ठहरायें तो सर्व परिग्रह-सामग्री उपकरण नाम प्राप्त करे, परन्तु धर्म में
उनका प्रयोजन? वे तो पाप के कारण हैं; धर्ममें तो जो धर्मके उपकारी हों उनका नाम
उपकरण है। वहाँ शास्त्र
ज्ञानका कारण, पींछीदयाका कारण, कमण्डलशौचका कारण
है, सो यह तो धर्मके उपकारी हुए, वस्त्रादिक किस प्रकार धर्मके उपकारी होंगे? वे तो
शरीरसुखके अर्थ ही धारण किए जाते हैं।
और सुनो, यदि शास्त्र रखकर महंतता दिखायें, पीछीसे बुहारी दें, कमण्डलसे जलादिक
पियें व मैल उतारें, तो शास्त्रादिक भी परिग्रह ही हैं; परन्तु मुनि ऐसे कार्य नहीं करते।
इसलिये धर्मके साधनको परिग्रह संज्ञा नहीं है; भोगके साधनको परिग्रह संज्ञा होती है ऐसा
जानना।
फि र कहोगेकमण्डलसे तो शरीरका ही मल दूर करते हैं; परन्तु मुनि मल दूर करनेकी
इच्छासे कमण्डल नहीं रखते हैं। शास्त्र पढ़ना आदि कार्य करते हैं, वहाँ मललिप्त हों तो
उनकी अविनय होगी, लोकनिंद्य होंगे; इसलिए इस धर्मके अर्थ कमण्डल रखते हैं। इसप्रकार
पींछी आदि उपकरण सम्भवित हैं, वस्त्रादिको उपकरण संज्ञा सम्भव नहीं है।
काम, अरति आदि मोहके उदयसे विकार बाह्य प्रगट हों, तथा शीतादि सहे नहीं
जायें, इसलिए विकार ढँकनेको व शीतादि मिटानेको वस्त्रादि रखते हैं और मानके उदयसे
अपनी महंतता भी चाहते हैं, इसलिये उन्हें कल्पित युक्ति द्वारा उपकरण ठहराया है।

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पाँचवाँ अधिकार ][ १५५
तथा घर-घर याचना करके आहार लाना ठहराते हैं। सो पहले तो यह पूछते हैं
कियाचना धर्मका अङ्ग है या पापका अङ्ग है? यदि धर्मका अङ्ग है तो माँगनेवाले सर्व
धर्मात्मा हुए; और पापका अङ्ग है तो मुनिके किस प्रकार सम्भव है?
फि र यदि तू कहेगालोभसे कुछ धनादिककी याचना करें तो पाप हो; यह तो धर्म
साधनके अर्थ शरीरकी स्थिरता करना चाहते हैं, इसलिये आहारादिककी याचना करते हैं?
समाधानः आहारादिसे धर्म नहीं होता, शरीरका सुख होता है; इसलिये शरीरसुखके
अर्थ अतिलोभ होने पर याचना करते हैं। यदि अतिलोभ न होता तो आप किसलिये माँगता?
वे ही देते तो देते, न देते तो न देते। तथा अतिलोभ हुआ वही पाप हुआ, तब मुनिधर्म
नष्ट हुआ; दूसरा धर्म क्या साधेगा?
अब वह कहता हैमनमें तो आहारकी इच्छा हो और याचना न करे तो माया-
कषाय हुई; और याचना करने में हीनता आती है सो गर्वके कारण याचना न करे तो
मानकषाय हुई। आहार लेना था सो माँग लिया, इसमें अतिलोभ क्या हुआ और इससे
मुनिधर्म किस प्रकार नष्ट हुआ? सो कहो।
उससे कहते हैंजैसे किसी व्यापारीको कमानेकी इच्छा मन्द है सो दुकान पर तो
बैठे और मनमें व्यापार करनेकी इच्छा भी है; परन्तु किसीसे वस्तु लेन-देनरूप व्यापार के
अर्थ प्रार्थना नहीं करता है, स्वयमेव कोई आये तो अपनी विधि मिलने पर व्यापार करता
है तो उसके लोभकी मन्दता है, माया व मान नहीं है। माया, मानकषाय तो तब होगी
जब छल करनेके अर्थ व अपनी महंतताके अर्थ ऐसा स्वांग करे। परन्तु अच्छे व्यापारीके
ऐसा प्रयोजन नहीं है, इसलिये उनके माया-मान नहीं कहते। उसी प्रकार मुनियोंके
आहारादिककी इच्छा मन्द है। वे आहार लेने आते हैं, मनमें आहार लेनेकी इच्छा भी है,
परन्तु आहारके अर्थ प्रार्थना नहीं करते; स्वयमेव कोई दे तो अपनी विधि मिलने पर आहार
लेते हैं, वहाँ उनके लोभकी मन्दता है, माया व मान नहीं है। माया
मान तो तब होगा
जब छल करनेके अर्थ व महंतताके अर्थ ऐसा स्वांग करें, परन्तु मुनियोंके ऐसे प्रयोजन हैं
नहीं, इसलिये उनके माया
मान नहीं है। यदि इसी प्रकार मायामान हो, तो जो मन ही
द्वारा पाप करते हैं, वचनकाय द्वारा नहीं करते; उन सबके माया ठहरेगी और जो उच्चपदवीके
धारक नीचवृत्ति अंगीकार नहीं करते उन सबके मान ठहरेगाऐसा अनर्थ होगा।
तथा तूने कहा‘‘आहार मांगनेमें अतिलोभ क्या हुआ?’’ सो अति कषाय हो तब
लोकनिंद्य कार्य अंगीकार करके भी मनोरथ पूर्ण करना चाहता है; और माँगना लोकनिंद्य है,

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१५६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
उसे भी अंगीकार करके आहारकी इच्छा पूर्ण करनेकी चाह हुई, इसलिये यहाँ अतिलोभ हुआ।
तथा तूने कहा‘‘मुनिधर्म कैसे नष्ट हुआ?’’ परन्तु मुनिधर्ममें ऐसी तीव्रकषाय सम्भव
नहीं है। तथा किसीके आहार देनेका परिणाम नहीं था और इसने उसके घरमें जाकर याचना
की; वहाँ उसको संकोच हुआ और न देने पर लोकनिंद्य होनेका भय हुआ, इसलिये उसे
आहार दिया, परन्तु उसके (दातारके) अंतरंग प्राण पीड़ित होनेसे हिंसाका सद्भाव आया।
यदि आप उसके घरमें न जाते, उसीके देनेका उपाय होता तो देता, उसे हर्ष होता। यह
तो दबाकर कार्य कराना हुआ। तथा अपने कार्यके अर्थ याचनारूप वचन है वह पापरूप
है; सो यहाँ असत्य वचन भी हुआ। तथा उसके देनेकी इच्छा नहीं थी, इसने याचना की,
तब उसने अपनी इच्छासे नहीं दिया, संकोचसे दिया इसलिये अदत्तग्रहण भी हुआ। तथा
गृहस्थके घरमें स्त्री जैसी-तैसी बैठी थी और यह चला गया, सो वहाँ ब्रह्मचर्यकी बाड़का
भंग हुआ। तथा आहार लाकर कितने काल तक रखा; आहारादिके रखनेको पात्रादिक रखे
वह परिग्रह हुआ। इस प्रकार पाँच महाव्रतोंका भंग होनेसे मुनिधर्म नष्ट होता है
मुनिको
याचनासे आहार लेना युक्त नहीं है।
फि र वह कहता हैमुनिके बाईस परीषहोंमें याचनापरीषह कहा है; सो माँगे बिना
उस परीषहका सहना कैसे होगा?
समाधानःयाचना करनेका नाम याचनापरीषह नहीं है। याचना न करनेका नाम
याचनापरीषह है। जैसेअरति करनेका नाम अरतिपरीषह नहीं है; अरति न करनेका नाम
अरतिपरीषह हैऐसा जानना। यदि याचना करना परीषह ठहरे तो रंकादि बहुत याचना
करते हैं, उनके बहुत धर्म होगा। और कहोगेमान घटानेके कारण इसे परीषह कहते
हैं, तो किसी कषाय-कार्यके अर्थ कोई कषाय छोड़ने पर भी पापी ही होता है। जैसे
कोई लोभके अर्थ अपने अपमानको न गिने तो उसके लोभकी तीव्रता है, उस अपमान करानेसे
भी महापाप होता है। और आपके कुछ इच्छा नहीं है, कोई स्वयमेव अपमान करे तो उसके
महाधर्म है; परन्तु यहाँ तो भोजनके लोभके अर्थ याचना करके अपमान कराया इसलिये पाप
ही है, धर्म नहीं है। तथा वस्त्रादिकके अर्थ भी याचना करता है, परन्तु वस्त्रादिक कोई
धर्मका अंग नहीं है, शरीरसुखका कारण है, इसलिये पूर्वोक्त प्रकारसे उसका निषेध जानना।
देखो, अपने धर्मरूप उच्चपदको याचना करके नीचा करते हैं सो उसमें धर्मकी हीनता होती
है।
इत्यादि अनेक प्रकारसे मुनिधर्ममें याचना आदि सम्भव नहीं है; परन्तु ऐसी असम्भवित
क्रियाके धारकको साधु - गुरु कहते हैं। इसलिये गुरुका स्वरूप अन्यथा कहते हैं।

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पाँचवाँ अधिकार ][ १५७
धर्मका अन्यथा स्वरूप
तथा धर्मका स्वरूप अन्यथा कहते हैं। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र इनकी एकता मोक्षमार्ग
है, वही धर्म हैपरन्तु उसका स्वरूप अन्यथा प्ररूपित करते हैं। सो कहते हैंः
तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शन है; उसकी तो प्रधानता नहीं है। आप जिस प्रकार
अरहंतदेवसाधुगुरुदयाधर्मका निरूपण करते हैं उसके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं।
वहाँ प्रथम तो अर्हंतादिकका स्वरूप अन्यथा कहते हैं; इतने ही श्रद्धानसे तत्त्वश्रद्धान हुए
बिना सम्यक्त्व कैसे होगा? इसलिये मिथ्या कहते हैं।
तथा तत्त्वोंके भी श्रद्धानको सम्यक्त्व कहते हैं तो प्रयोजनसहित तत्त्वोंका श्रद्धान नहीं
कहते। गुणस्थानमार्गणादिरूप जीवका, अणुस्कन्धादिरूप अजीवका, पाप-पुण्यके स्थानोंका,
अविरति आदि आस्रवोंका, व्रतादिरूप संवरका, तपश्चरणादिरूप निर्जराका, सिद्ध होनेके
लिंगादिके भेदोंसे मोक्षका स्वरूप जिस प्रकार उनके शास्त्रोंमें कहा है उस प्रकार सीख लेना;
और केवलीका वचन प्रमाण है
ऐसे तत्त्वार्थश्रद्धानसे सम्यक्त्व हुआ मानते हैं।
सो हम पूछते हैं किग्रैवेयक जानेवाले द्रव्यलिंगी मुनिके ऐसा श्रद्धान होता है या
नहीं? यदि होता है तो उसे मिथ्यादृष्टि किसलिये कहते हैं? और नहीं होता है तो उसने
तो जैनलिंग धर्मबुद्धिसे धारण किया है, उसके देवादिकी प्रतीति कैसे नहीं हुई? और उसके
बहुत शास्त्राभ्यास है सो उसने जीवादिके भेद कैसे नहीं जाने? और अन्यमतका लवलेश
भी अभिप्रायमें नहीं है, उसको अरहंत वचनकी कैसे प्रतीति नहीं हुई? इसलिये उसके ऐसा
श्रद्धान होता है; परन्तु सम्यक्त्व नहीं हुआ। तथा नारकी, भोग-भूमिया, तिर्यंच आदिको ऐसा
श्रद्धान होनेका निमित्त नहीं है, तथापि उनके बहुत कालपर्यंत सम्यक्त्व रहता है, इसलिये
उनके ऐसा श्रद्धान नहीं होता, तब भी सम्यक्त्व हुआ है।
इसलिये सम्यक्श्रद्धानका स्वरूप यह नहीं है। सच्चा स्वरूप है उसका वर्णन आगे करेंगे
सो जानना।
तथा उनके शास्त्रोंका अभ्यास करना उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं; परन्तु द्रव्यलिंगी मुनिके
शास्त्राभ्यास होने पर भी मिथ्याज्ञान कहा है, असंयत सम्यग्दृष्टिका विषयादिरूप जानना उसे
सम्यग्ज्ञान कहा है।
इसलिये यह स्वरूप नहीं है। सच्चा स्वरूप आगे कहेंगे सो जानना।
तथा उनके द्वारा निरूपित अणुव्रत-महाव्रतादिरूप श्रावक-यतिका धर्म धारण करनेसे
सम्यक्चारित्र हुआ मानते हैं; परन्तु प्रथम तो व्रतादिका स्वरूप अन्यथा कहते हैं वह कुछ

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१५८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
पहले गुरु वर्णनमें कहा है। तथा द्रव्यलिंगीके महाव्रत होने पर भी सम्यक्चारित्र नहीं होता,
और उनके मतके अनुसार गृहस्थादिकके महाव्रतादि बिना अंगीकार किये भी सम्यक्चारित्र
होता है।
इसलिये यह स्वरूप नहीं है। सच्चा स्वरूप दूसरा है सो आगे कहेंगे।
यहाँ वे कहते हैं
द्रव्यलिंगीके अन्तरंगमें पूर्वोक्त श्रद्धानादिक नहीं हुए, बाह्य ही हुए
हैं, इसलिये सम्यक्त्वादि नहीं हुए।
उत्तर :यदि अंतरंग नहीं है और बाह्य धारण करता है, तो वह कपटसे धारण
करता है। और उसके कपट हो तो ग्रैवेयक कैसे जाये? वह तो नरकादिमें जायेगा। बन्ध
तो अन्तरंग परिणामों से होता है; इसलिए अंतरंग जैनधर्मरूप परिणाम हुए बिना ग्रैवेयक
जाना सम्भव नहीं है।
तथा व्रतादिरूप शुभोपयोगसे ही देवका बन्ध मानते हैं और उसीको मोक्षमार्ग मानते
हैं, सो बन्धमार्ग मोक्षमार्गको एक किया; परन्तु यह मिथ्या है।
तथा व्यवहारधर्ममें अनेक विपरीतताएँ निरूपित करते हैं। निंदकको मारनेमें पाप नहीं
है ऐसा कहते हैं; परन्तु अन्यमती निन्दक तीर्थंकरादिकके होने पर भी हुए; उनको इन्द्रादिक
मारते नहीं हैं; यदि पाप न होता तो इन्द्रादिक क्यों नहीं मारते? तथा प्रतिमाजी के आभरणादि
बनाते हैं; परन्तु प्रतिबिम्ब तो वीतरागभाग बढ़ानेके लिए स्थापित किया था, आभरणादि बनानेसे
अन्यमतकी मूर्त्तिवत् यह भी हुए। इत्यादि कहाँ तक कहें? अनेक अन्यथा निरूपण करते
हैं।
इस प्रकार श्वेताम्बर मत कल्पित जानना। यहाँ सम्यग्दर्शनादिकके अन्यथा निरूपणसे
मिथ्यादर्शनादिककी ही पुष्टता होती है; इसलिये उसका श्रद्धानादि नहीं करना।
ढूँढ़कमत विचार
तथा इन श्वेताम्बरोंमें ही ढूंढिये प्रगट हुए हैं; वे अपनेको सच्चा धर्मात्मा मानते हैं,
सो भ्रम है। किसलिये? सो कहते हैं :
कितने ही भेष धारण करके साधु कहलाते हैं; परन्तु उनके ग्रन्थोंके अनुसार भी
व्रत, समिति, गुप्ति आदिका साधन भासित नहीं होता। और देखो! मन-वचन-काय, कृत-
कारित-अनुमोदनासे सर्व सावद्ययोग त्याग करनेकी प्रतिज्ञा करते हैं; बादमें पालन नहीं करते,
बालकको व भोलेको व शूद्रादिकको भी दीक्षा देते हैं। इस प्रकार त्याग करते हैं और

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पाँचवाँ अधिकार ][ १५९
त्याग करते हुए कुछ विचार नहीं करते किक्या त्याग करता हूँ? बादमें पालन भी नहीं
करते और उन्हें सब साधु मानते हैं।
तथा यह कहता हैबादमें धर्मबुद्धि हो जायेगी तब तो उसका भला होगा? परन्तु
पहले ही दीक्षा देनेवालेने प्रतिज्ञा भंग होती जानकर भी प्रतिज्ञा करायी, तथा इसने प्रतिज्ञा
अंगीकार करके भंग की, सो यह पाप किसे लगा? बादमें धर्मात्मा होनेका निश्चय कैसा?
तथा जो साधुका धर्म अंगीकार करके यथार्थ पालन न करे उसे साधु मानें या न मानें?
यदि मानें तो जो साधु मुनिनाम धारण करते हैं और भ्रष्ट हैं उन सबको साधु मानो। न
मानें तो इनके साधुपना नहीं रहा। तुम जैसे आचरणसे साधु मानते हो उसका भी पालन
किसी विरलेके पाया जाता है; सबको साधु किसलिये मानते हो?
यहाँ कोई कहेहम तो जिसके यथार्थ आचरण देखेंगे उसे साधु मानेंगे, और को
नहीं मानेंगे। उससे पूछते हैंएक संघमें बहुत भेषी हैं; वहाँ जिसके यथार्थ आचरण मानते
हो, वह औरोंको साधु मानता है या नहीं मानता? यदि मानता है तो तुमसे भी अश्रद्धानी
हुआ, उसे पूज्य कैसे मानते हो? और नहीं मानता तो उससे साधुका व्यवहार किसलिये
वर्तता है? तथा आप तो उन्हें साधु न मानें और अपने संघमें रखकर औरोंसे साधु मानवाकर
औरोंको अश्रद्धानी करता है ऐसा कपट किसलिये करता है? तथा तुम जिसको साधु नहीं
मानोगे तब अन्य जीवोंको भी ऐसा ही उपदेश करोगे कि
‘इनको साधु मत मानो,’ इससे
तो धर्मपद्धतिमें विरोध होता है। और जिसको तुम साधु मानते हो उससे भी तुम्हारा विरोध
हुआ, क्योंकि वह उसे साधु मानता है। तथा तुम जिसके यथार्थ आचरण मानते हो, वहाँ
भी विचारकर देखो; वह भी यथार्थ मुनिधर्मका पालन नहीं करता है।
कोई कहेअन्य भेषधारियोंसे तो बहुत अच्छे हैं, इसलिये हम मानते हैं; परन्तु
अन्यमतोंमें तो नानाप्रकारके भेष सम्भव हैं, क्योंकि वहाँ रागभावका निषेध नहीं है। इस
जैनमतमें तो जैसा कहा है, वैसा ही होने पर साधुसंज्ञा होती है।
यहाँ कोई कहेशील-संयमादि पालते हैं, तपश्चरणादि करते हैं; सो जितना करें उतना
ही भला है?
समाधानःयह सत्य है, धर्म थोड़ा भी पाला हुआ भला ही है; परन्तु प्रतिज्ञा तो
बड़े धर्मकी करें और पालें थोड़ा, तो वहाँ प्रतिज्ञाभंगसे महापाप होता है। जैसे कोई उपवास
की प्रतिज्ञा करके एक बार भोजन करे तो उसके बहुत भोजनका संयम होने पर भी प्रतिज्ञा
भंगसे पापी कहते हैं, उसी प्रकार मुनिधर्मकी प्रतिज्ञा करके कोई किंचित् धर्म न पाले, तो

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१६० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
उसे शील-संयमादि होने पर भी पापी कहते हैं। और जैसे एकत (एकाशन)की प्रतिज्ञा करके
एकबार भोजन करे तो धर्मात्मा ही है; उसी प्रकार अपना श्रावकपद धारण करके थोड़ा
भी धर्म साधन करे तो धर्मात्मा ही है। यहाँ ऊँचा नाम रखकर नीची क्रिया करनेमें पापीपना
सम्भव है। यथायोग्य नाम धारण करके धर्मक्रिया करनेसे तो पापीपना होता नहीं है; जितना
धर्मसाधन करे उतना ही भला है।
यहाँ कोई कहेपंचमकालके अंतपर्यन्त चतुर्विध संघका सद्भाव कहा है। इनको
साधु न मानें तो किसको मानें?
उत्तरःजिस प्रकार इस कालमें हंसका सद्भाव कहा है, और गम्यक्षेत्रमें हंस दिखाई
नहीं देते, तो औरोंको तो हंस माना नहीं जाता; हंसका लक्षण मिलने पर ही हंस माने जाते
हैं, उसी प्रकार इस कालमें साधुका सद्भाव है, और गम्यक्षेत्रमें साधु दिखाई नहीं देते, तो
औरोंको तो साधु माना नहीं जाता; साधुका लक्षण मिलने पर ही साधु माने जाते हैं। तथा
इनका प्रचार भी थोड़े ही क्षेत्रमें दिखाई देता है, वहाँसे दूरके क्षेत्रमें साधुका सद्भाव कैसे
मानें? यदि लक्षण मिलने पर मानें तो यहाँ भी इसी प्रकार मानो। और बिना लक्षण मिले
ही मानें तो वहाँ अन्य कुलिंगी हैं इन्हीको साधु मानो। इस प्रकार विपरीतता होती है,
इसलिये बनता नहीं है।
कोई कहेइस पंचमकालमें इस प्रकार भी साधुपद होता है; तो ऐसा सिद्धान्त-वचन
बतलाओ। बिना ही सिद्धान्त तुम मानते हो तो पापी होगे। इस प्रकार अनेक युक्ति द्वारा
इनके साधुपना बनता नहीं है; और साधुपने बिना साधु मानकर गुरु माननेसे मिथ्यादर्शन होता
है; क्योंकि भले साधुको गुरु माननेसे ही सम्यग्दर्शन होता है।
प्रतिमाधारी श्रावक न होनेकी मान्यताका निषेध
तथा श्रावकधर्मकी अन्यथा प्रवृत्ति कराते हैं। त्रसहिंसा एवं स्थूल मृषादिक होने पर
भी जिसका कुछ प्रयोजन नहीं है ऐसा किंचित् त्याग कराके उसे देशव्रती हुआ कहते हैं,
और वह त्रसघातादिक जिसमें हो ऐसा कार्य करता है; सो देशव्रत गुणस्थानमें तो ग्यारह
अविरति कहे हैं, वहाँ त्रसघात किस प्रकार सम्भव है? तथा ग्यारह प्रतिमाभेद श्रावकके
हैं, उनमें दसवीं-ग्यारहवीं प्रतिमाधारक श्रावक तो कोई होता ही नहीं और साधु होता है।
पूछे तब कहते हैंप्रतिमाधारी श्रावक इस काल नहीं हो सकते। सो देखो, श्रावकधर्म
तो कठिन और मुनिधर्म सुगमऐसा विरुद्ध कहते हैं। तथा ग्यारहवीं प्रतिमाधारीको थोड़ा
परिग्रह, मुनिको बहुत परिग्रह बतलाते हैं सो सम्भवित वचन नहीं हैं। फि र कहते हैं

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पाँचवाँ अधिकार ][ १६१
यह प्रतिमा तो थोड़े ही काल पालन कर छोड़ देते हैं; परन्तु यह कार्य उत्तम है तो धर्मबुद्धि
ऊँची क्रियाको किसलिये छोड़ेगा और नीचा कार्य है तो किसलिये अंगीकार करेगा? यह
सम्भव ही नहीं है।
तथा कुदेव-कुगुरुको नमस्कारादि करनेसे भी श्रावकपना बतलाते हैं। कहते हैं
धर्मबुद्धिसे तो नहीं वन्दते हैं, लौकिक व्यवहार है; परन्तु सिद्धान्तमें तो उनकी प्रशंसास्तवनको
भी सम्यक्त्वका अतिचार कहते हैं और गृहस्थोंका भला मनानेके अर्थ वन्दना करने पर भी
कुछ नहीं कहते।
फि र कहोगेभय, लज्जा, कुतूहलादिसे वन्दते हैं, तो इन्हीं कारणोंसे कुशीलादि सेवन
करने पर भी पाप मत कहो, अंतरंगमें पाप जानना चाहिये। इस प्रकार तो सर्व आचारोंमें
विरोध होगा।
देखो, मिथ्यात्व जैसे महापापको प्रवृत्ति छुड़ानेकी तो मुख्यता नहीं है और पवनकायकी
हिंसा ठहराकर खुले मुँह बोलना छुड़ानेकी मुख्यता पायी जाती है; सो यह क्रमभंग उपदेश
है। तथा धर्मके अंग अनेक हैं, उनमें एक परजीवकी दयाको मुख्य कहते हैं, उसका भी
विवेक नहीं है। जलका छानना, अन्नका शोधना, सदोष वस्तुका भक्षण न करना, हिंसादिरूप
व्यवहार न करना इत्यादि उसके अंगोंकी तो मुख्यता नहीं है।
मुखपट्टी आदिका निषेध
तथा पट्टीका बाँधना, शौचादिक थोड़ा करना, इत्यादि कार्योंकी मुख्यता करते हैं; परन्तु
मैलयुक्त पट्टीके थूकके सम्बन्धसे जीव उत्पन्न होते हैं, उनका तो यत्न नहीं है और पवनकी
हिंसाका यत्न बतलाते हैं। सो नासिका द्वारा बहुत पवन निकलती है उसका तो यत्न करते
ही नहीं। तथा उनके शास्त्रानुसार बोलनेका ही यत्न किया है तो सर्वदा किसलिये रखते
हैं? बोलें तब यत्न कर लेना चाहिये। यदि कहें
भूल जाते हैं; तो इतनी भी याद नहीं
रहती तब अन्य धर्म साधन कैसे होगा? शौचादिक थोड़े करें, सो सम्भवित शौच तो मुनि
भी करते हैं; इसलिये गृहस्थको अपने योग्य शौच करना चाहिये। स्त्री-संगमादि करके शौच
किये बिना सामायिकादि क्रिया करनेसे अविनय, विक्षिप्तता आदि द्वारा पाप उत्पन्न होता है।
इस प्रकार जिनकी मुख्यता करते हैं उनका भी ठिकाना नहीं है। और कितने ही दया के
अंग योग्य पालते हैं, हरितकाय आदिका त्याग करते हैं। जल थोड़ा गिराते हैं; इनका हम
निषेध नहीं करते।

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१६२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
मूर्तिपूजा निषेधका निराकरण
तथा इस अहिंसाका एकान्त पकड़कर प्रतिमा, चैत्यालय, पूजनादि क्रियाका उत्थापन
करते हैं; सो उन्हींके शास्त्रोंमें प्रतिमा आदिका निरूपण है, उसे आग्रहसे लोप करते हैं।
भगवती सूत्रमें ऋद्धिधारी मुनिका निरूपण है वहाँ मेरुगिरि आदिमें जाकर ‘‘तत्थ चेययाइं वंदई’’
ऐसा पाठ है। इसका अर्थ यह है कि
वहाँ चैत्योंकी वंदना करते हैं। और चैत्य नाम
प्रतिमाका प्रसिद्ध है। तथा वे हठसे कहते हैंचैत्य शब्दके ज्ञानादिक अनेक अर्थ होते
हैं, इसलिये अन्य अर्थ है, प्रतिमाका अर्थ नहीं है। इससे पूछते हैंमेरुगिरि नन्दीश्वर द्वीपमें
जा-जाकर वहाँ चैत्य वन्दना की, सो वहाँ ज्ञानादिककी वन्दना करनेका अर्थ कैसे सम्भव है?
ज्ञानादिककी वन्दना तो सर्वत्र सम्भव है। जो वन्दनायोग्य चैत्य वहाँ सम्भव हो और सर्वत्र
सम्भव न हो वहाँ उसे वन्दना करनेका विशेष सम्भव है और ऐसा सम्भवित अर्थ प्रतिमा
ही है; और चैत्य शब्दका मुख्य अर्थ प्रतिमा ही है, सो प्रसिद्ध है। इसी अर्थ द्वारा चैत्यालय
नाम सम्भव है; उसे हठ करके किसलिये लुप्त करें?
तथा नन्दीश्वर द्वीपादिकमें जाकर देवादिक पूजनादि क्रिया करते हैं, उसका व्याख्यान
उनके जहाँ-तहाँ पाया जाता है। तथा लोकमें जहाँ-तहाँ अकृत्रिम प्रतिमाका निरूपण है।
सो वह रचना अनादि है, वह रचना भोग
कुतूहलादिके अर्थ तो है नहीं। और इन्द्रादिकोंके
स्थानोंमें निष्प्रयोजन रचना सम्भव नहीं है। इसलिये इन्द्रादिक उसे देखकर क्या करते हैं?
या तो अपने मन्दिरोंमें निष्प्रयोजन रचना देखकर उससे उदासीन होते होंगे, वहाँ दुःखी होते
होंगे, परन्तु यह सम्भव नहीं है। या अच्छी रचना देखकर विषयोंका पोषण करते होंगे,
परन्तु अरहन्तकी मूर्ति द्वारा सम्यग्दृष्टि अपना विषय पोषण करें यह भी सम्भव नहीं है।
इसलिये वहाँ उनकी भक्ति आदि ही करते हैं, यही सम्भव है।
उनके सूर्याभदेवका व्याख्यान है; वहाँ प्रतिमाजीको पूजनेका विशेष वर्णन किया है।
उसे गोपनेके अर्थ कहते हैंदेवोंका ऐसा ही कर्तव्य है। सो सच है, परन्तु कर्तव्यका तो
फल होता है; वहाँ धर्म होता है या पाप होता है? यदि धर्म होता है तो अन्यत्र पाप होता
था यहाँ धर्म हुआ; इसे औरोंके सदृश कैसे कहें? यह तो योग्य कार्य हुआ। और पाप होता
है तो वहाँ ‘‘णमोत्थुणं’’ का पाठ पढ़ा; सो पापके ठिकाने ऐसा पाठ किसलिये पढ़ा?
तथा एक विचार यहाँ यह आया कि‘‘णमोत्थुणं’’ के पाठमें तो अरहन्तकी भक्ति
है; सो प्रतिमाजीके आगे जाकर यह पाठ पढ़ा, इसलिये प्रतिमाजीके आगे जो अरहंतभक्तिकी
क्रिया है वह करना युक्त हुई।