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ऐसा कार्य कर्तव्य है।
पापी थे? यदि धर्मात्मा थे तो गृहस्थोंको ऐसा कार्य करना योग्य हुआ, और पापी थे तो
वहाँ भोगादिकका प्रयोजन तो था नहीं, किसलिये बनाया? तथा द्रौपदीने वहाँ ‘‘णमोत्थुणं’’
का पाठ किया व पूजनादि किया, सो कुतूहल किया या धर्म किया? यदि कुतूहल किया
तो महापापिनी हुई। धर्ममें कुतूहल कैसा? और धर्म किया तो औरोंको भी प्रतिमाजीकी
स्तुति
भला करते हों तब तो ऐसा भी मानें; परन्तु वे तो वीतराग हैं। यह जीव भक्तिरूप अपने
भावोंसे शुभफल प्राप्त करता है। जिस प्रकार स्त्रीके आकाररूप काष्ठ
धातु
द्वारा भक्ति विशेष होनेसे विशेष शुभकी प्राप्ति होती है।
उत्तरः
करे तो जिसका आकार बनाया उसकी बुरी अवस्था करने जैसा फल होता है; उसी प्रकार
अरहन्तका आकार बनाकर धर्मानुरागबुद्धिसे पूजनादि करे तो अरहन्तके पूजनादि करने जैसा
शुभ (भाव) उत्पन्न होता है तथा वैसा ही फल होता है। अति अनुराग होने पर प्रत्यक्ष
दर्शन न होनेसे आकार बनाकर पूजनादि करते हैं। इस धर्मानुरागसे महापुण्य होता है।
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ही करते हैं। छद्मस्थके आगे त्याग की हुई वस्तुका रखना हास्य करना है; क्योंकि उसके
विक्षिप्तता हो आती है। केवलीके व प्रतिमाके आगे अनुरागसे उत्तम वस्तु रखनेका दोष
नहीं है; उनके विक्षिप्तता नहीं होती। धर्मानुरागसे जीवका भला होता है।
इन कार्योंका निषेध करते हैं।
हैं
है, तो केवल पापको छोड़कर ऐसे कार्य करना ठहरा। तथा युक्तिसे भी ऐसा ही सम्भव
है। कोई त्यागी होकर मन्दिरादिक नहीं बनवाता है व सामायिकादिक निरवद्य कार्योंमें प्रवर्तता
है; तो उन्हें छोड़कर प्रतिमादि कराना व पूजनादि करना उचित नहीं है। परन्तु कोई अपने
रहनेके लिए मकान बनाये, उससे तो चैत्यालयादि करानेवाला हीन नहीं है। हिंसा तो हुई,
परन्तु उसके तो लोभ
हिंसादि बहुत होते हैं, लोभादि बढ़ता है, पापकी ही प्रवृत्ति है। यहाँ हिंसादिक भी किंचित्
होते हैं, लोभादिक घटते हैं और धर्मानुराग बढ़ता है।
कार्योंमें उपयोगको न लगा सकें उनको पूजनादि करनेका निषेध नहीं है।
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परिणाम न लगें वह पूजनादि द्वारा वहाँ अपना उपयोग लगाता है। वहाँ नानाप्रकारके आलम्बन
द्वारा उपयोग लग जाता है। यदि वहाँ उपयोगको न लगाये तो पापकार्योंमें उपयोग भटकेगा
और उससे बुरा होगा; इसलिये वहाँ प्रवृत्ति करना युक्त है।
नहीं मिलता; क्योंकि ऐसा माननेसे तो इन्द्र जन्मकल्याणकमें बहुत जलसे अभिषेक करता है,
समवशरणमें देव पुष्पवृष्टि करना, चँवर ढालना इत्यादि कार्य करते हैं सो वे महापापी हुए।
धर्म है तो किसलिये निषेध करते हो?
तथा साधर्मियोंको भोजन कराते हैं, साधुका मरण होने पर उसका संस्कार करते हैं, साधु
होने पर उत्सव करते हैं, इत्यादि प्रवृत्ति अब भी देखी जाती है; सो यहाँ भी हिंसा होती
है; परन्तु यह कार्य तो धर्मके ही अर्थ हैं, अन्य कोई प्रयोजन नहीं है। यदि यहाँ महापाप
होता है, तो पूर्वकालमें ऐसे कार्य किये उनका निषेध करो। और अब भी गृहस्थ ऐसा
कार्य करते हैं, उनका त्याग करो। तथा यदि धर्म होता है तो धर्मके अर्थ हिंसामें महापाप
बतलाकर किसलिये भ्रममें डालते हो?
धर्म उत्पन्न हो तो वह कार्य करना योग्य है। यदि थोड़े धनके लोभसे कार्य बिगाड़े तो
मूर्ख है; उसी प्रकार थोड़ी हिंसाके भयसे बड़ा धर्म छोड़े तो पापी होता है। तथा कोई
बहुत धन ठगाये और थोड़ा धन उत्पन्न करे, व उत्पन्न नहीं करे तो वह मूर्ख है; उसी
प्रकार बहुत हिंसादि द्वारा बहुत पाप उत्पन्न करे और भक्ति आदि धर्ममें थोड़ा प्रवर्ते व
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होने पर ठगाये तो मूर्ख है; उसी प्रकार निरवद्य धर्मरूप उपयोग होने पर सावद्यधर्ममें उपयोग
लगाना योग्य नहीं है।
धर्मका मुख्य अङ्ग है। इसलिये जिस प्रकार परिणामोंमें रागादिक घटें वह कार्य करना।
होती है, पाठ मात्र पढ़नेसे व उठना-बैठना करनेसे ही तो होती नहीं है।
है वहाँ प्रतिज्ञाभंग होती है। सो प्रतिज्ञाभंग करनेसे तो न करना भला है; क्योंकि प्रतिज्ञाभंग
महापाप है।
है और प्राकृतादिकके पाठ पढ़ता है; उसके अर्थका अपनेको ज्ञान नहीं है, बिना अर्थ जाने
वहाँ उपयोग नहीं रहता तब उपयोग अन्यत्र भटकता है। ऐसे इन दोनोंमें विशेष धर्मात्मा
कौन? यदि पहलेको कहोगे, तो ऐसा ही उपदेश क्यों नहीं देते? तथा दूसरेको कहोगे तो
प्रतिज्ञाभंगका पाप हुआ व परिणामोंके अनुसार धर्मात्मापना नहीं ठहरा; परन्तु पाठादि करनेके
अनुसार ठहरा।
पर ही दुष्कृत मिथ्या होते हैं; इसलिये पाठ ही कार्यकारी नहीं है।
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उपवास न हो, वह उपवासमें लगे दोषका निराकरण करे तो असम्भवपना होगा।
तथा प्रोषधमें भी सामायिकवत् प्रतिज्ञा करके पालन नहीं करते; इसलिये पूर्वोक्त ही
करता है, पश्चात् प्रोषधधारी होता है। जितने काल बने उतने काल साधन करनेका तो
दोष नहीं है; परन्तु प्रोषधका नाम करे सो युक्त नहीं है। सम्पूर्ण पर्वमें निरवद्य रहने पर
ही प्रोषध होता है। यदि थोड़े भी कालसे प्रोषध नाम हो तो सामायिकको भी प्रोषध कहो,
नहीं तो शास्त्रमें प्रमाण बतलाओ कि
यदि पाठ न आये तो भाषासे ही कहे; परन्तु पद्धतिके अर्थ यह रीति है।
करके वहाँ धर्म मानता है; परन्तु फल तो परिणामोंसे होता है।
इस प्रकार यह जैनमें श्वेताम्बर मत है वह भी देवादिकका व तत्त्वोंका व मोक्षमार्गादिका
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निरूपण करते हैं।
होते, कुछ विशेष हानि होती है; इसलिये उनका सेवन मिथ्याभाव है। वह बतलाते हैंः
ही है। तथा अन्यमतमें कहे देवोंको कितने ही
होती है; परन्तु आप तो पाप उपजाता है और कहता है
जैसे अपने परिणाम करेगा वैसा ही फल पायेगा; ईश्वर किसीका बुरा-भला करनेवाला नहीं
है।
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पापपरिणामोंका फल तो लगे बिना रहेगा नहीं। हिंसा विषय-कषायोंको सब पाप कहते हैं
और पापका फल भी सब बुरा ही मानते हैं; तथा कुदेवोंके सेवनमें हिंसा-विषयादिकका ही
अधिकार है; इसलिये कुदेवोंके सेवनसे परलोकमें भला नहीं होता।
कुदेवादिका सेवन करते हैं; हनुमानादिकको पूजते हैं; देवियोंको पूजते हैं; गनगौर, सांझी आदि
बनाकर पूजते हैं; चौथ, शीतला, दहाड़ी आदि को पूजते हैं; भूत-प्रेत, पितर, व्यन्तरादिकको
पूजते हैं; सूर्य-चन्द्रमा, शनिश्चरादि ज्योतिषियोंको पूजते हैं; पीर-पैगंबरादिकको पूजते हैं; गाय,
घोड़ा आदि तिर्यंचोंको पूजते हैं; अग्नि-जलादिकको पूजते हैं; शस्त्रादिकको पूजते हैं; अधिक
क्या कहें, रोड़ा इत्यादिकको भी पूजते हैं।
कैसे होगा? तथा कितने ही व्यन्तरादिक हैं; सो वे किसीका भला-बुरा करनेको समर्थ नहीं
हैं। यदि वे ही समर्थ होंगे तो वे ही कर्ता ठहरेंगे; परन्तु उनके करनेसे कुछ होता दिखाई
नहीं देता; प्रसन्न होकर धनादिक नहीं दे सकते और द्वेषी होकर बुरा नहीं कर सकते।
यह उनका कहा हुआ न करे, तो वे चेष्टा करते रुक जाते हैं; तथा इसे शिथिल जानकर
कुतूहल करते रहते हैं। यदि इसके पुण्यका उदय हो तो कुछ कर नहीं सकते।
हैं कि
पूजनेसे उलटा रोग लगता है, कुछ कार्यसिद्धि नहीं होती।
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मरकर व्यन्तरादि हुआ, वहीं किसी निमित्तसे ऐसी बुद्धि हुई, तब वह लोकमें उनको सेवन
करनेकी प्रवृत्ति करानेके अर्थ कोई चमत्कार दिखाता है। जगत भोला; किंचित् चमत्कार देखकर
इस कार्यमें लग जाता है। जिस प्रकार जिनप्रतिमादिकका भी अतिशय होना सुनते व देखते
हैं सो जिनकृत नहीं है, जैनी व्यन्तरादिक होते हैं; उसी प्रकार कुदेवोंका कोई चमत्कार होता
है, वह उनके अनुचर व्यन्तरादिक द्वारा किया होता है ऐसा जानना।
किये गये कार्योंको परमेश्वरके किये कहते हैं। यदि परमेश्वरके किये हों तो परमेश्वर तो
त्रिकालज्ञ है, सर्वप्रकार समर्थ है; भक्तको दुःख किसलिये होने देगा? तथा आज भी देखते
हैं कि
भी सहाय न करे तो भक्तवत्सलता गई और सामर्थ्यहीन हुआ। तथा साक्षीभूत रहता है
तो पहले भक्तोंको सहाय की कहते हैं वह झूठ है; क्योंकि उसकी तो एकसी वृत्ति है।
करता है, भक्तोंको दुःख देनेवाले पैदा करता है, वहाँ भक्तवत्सलपना कैसे रहा? और
परमेश्वरका किया नहीं होता, तो परमेश्वर सामर्थ्यहीन हुआ; इसलिये परमेश्वरकृत कार्य नहीं
है। कोई अनुचर
भ्रमरूप वचन कहता है, औरोंको अन्यथा परिणमित करता है, दुःख देता है
कुतूहल करते रहते हैं। जिस प्रकार बालक कुतूहल द्वारा अपनेको हीन दिखलाता है, चिढ़ाता
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चेष्टा करते हैं। यदि कुस्थानके ही निवासी हों तो उत्तमस्थानमें आते हैं; वहाँ किसके लानेसे
आते हैं? अपने आप आते हैं तो अपनी शक्ति होने पर कुस्थानमें किसलिये रहते हैं?
इसलिये इनका ठिकाना तो जहाँ उत्पन्न होते हैं वहाँ इस पृथ्वीके नीचे व ऊपर है सो मनोज्ञ
है। कुतूहलके लिये जो चाहें सो कहते हैं। यदि इनको पीड़ा होती हो तो रोते-रोते हँसने
कैसे लग जाते हैं?
व कोई प्रबल उसे मना करे तब रह जाता है व आप ही रह जाता हैः
जाता है, क्योंकि वैक्रियक शरीरका जलना आदि सम्भव नहीं है।
हैं। अल्प ज्ञान हो तो अन्य महत् ज्ञानीसे पूछ आकर जवाब देते हैं। अपनेको अल्प
ज्ञान हो व इच्छा न हो तो पूछने पर उसका उत्तर नहीं देते
उसका स्मरणमात्र रहता है, इसलिये वहाँ इच्छा द्वारा आप कुछ चेष्टा करें तो कहते हैं,
पूर्व जन्मकी बातें कहते हैं; कोई अन्य बात पूछे तो अवधिज्ञान तो थोड़ा है, बिना जाने
किस प्रकार कहें? जिसका उत्तर आप न दे सकें व इच्छा न हो, वहाँ मान
चरित्र दिखाते हैं। अन्य जीवके शरीरको रोगादियुक्त करते हैं।
उसके पुण्य-पापके अनुसार परिणमित कर सकते हैं। उसके पुण्यका उदय हो तो आप
रोगादिरूप परिणमित नहीं कर सकता, और पाप-उदय हो तो उसका इष्ट कार्य नहीं कर
सकता।
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यहाँ कोई कहे
ही होता है; इसलिये उनका मानना-पूजना कार्यकारी नहीं है, बुरा करानेवाला है। तथा
व्यन्तरादिक मनवाते हैं, पुजवाते हैं
कहते। यदि उनको प्रयोजन ही हो, तो न मानने
अर्थ नैवेद्यादिक देते हैं, उसे ग्रहण क्यों नहीं करते? व औरोंको भोजनादि करानेको क्यों
कहते हैं? इसलिये उनके कुतूहलमात्र क्रिया है। अपनेमें उनके कुतूहलका स्थान होने पर
दुःख होगा, हीनता होगी; इसलिये उनको मानना-पूजना योग्य नहीं है।
व्यन्तर होते हैं, वे तो ऐसा नहीं कहते, वे तो अपने संस्काररूप ही वचन कहते हैं; इसलिये
सर्व व्यन्तरोंकी गति इसी प्रकार होती तो भी समान प्रार्थना करें; परन्तु ऐसा नहीं है। ऐसा
जानना।
तथा सूर्य, चन्द्रमा, ग्रहादिक ज्योतिषी हैं; उनको पूजते हैं वह भी भ्रम है। सूर्यादिकको
होती है; सो प्रकाशवान् तो अन्य रत्नादिक भी होते हैं; अन्य कोई ऐसा लक्षण नहीं है
जिससे उसे परमेश्वरका अंश मानें। तथा चन्द्रमादिकको धनादिककी प्राप्तिके अर्थ पूजते हैं;
परन्तु उनके पूजनसे ही धन होता हो तो सर्व दरिद्री इस कार्यको करें, इसलिये यह मिथ्याभाव
हैं। तथा ज्योतिषके विचारसे बुरे ग्रहादिक आने पर उनकी पूजनादि करते हैं, इसके अर्थ
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बायें आने पर सुख-दुःख होनेके आगामी ज्ञानको कारण होते हैं, कुछ सुख-दुःख देनेको समर्थ
नहीं हैं; उसी प्रकार ग्रहादिक स्वयमेव गमनादिक करते हैं, और प्राणीके यथासम्भव योगको
प्राप्त होने पर सुख-दुःख होनेके आगामी ज्ञानको कारण होते हैं, कुछ सुख-दुःख देनेके समर्थ
नहीं हैं। कोई तो उनका पूजनादि करते हैं इनको भी इष्ट नहीं होता; कोई नहीं करता
उसके भी इष्ट होता है; इसलिये उनका पूजनादि करना मिथ्याभाव है।
तथा देवी-दहाड़ी आदि हैं; वे कितनी ही तो व्यन्तरी व ज्योतिषिनी हैं, उनका अन्यथा
करते हैं।
नहीं है। यदि सम्यक्त्वसे ही पूजते हैं तो सर्वार्थसिद्धिके देव, लौकान्तिक देव उन्हें ही क्यों
न पूजें? फि र कहोगे
अधिकार नहीं है, यह तो झूठी मान्यता है। तथा जिस प्रकार प्रतिहारादिकके मिलाने पर
राजासे मिलते हैं; उसी प्रकार यह तीर्थंकरसे नहीं मिलाते। वहाँ तो जिसके भक्ति हो वही
तीर्थंकरके दर्शनादिक करता है, कुछ किसीके आधीन नहीं है।
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तीव्र मिथ्यात्वभावसे जिनमतमें भी ऐसी विपरीत प्रवृत्तिका मानना होता है।
तथा गाय, सर्पादि तिर्यंच हैं वे प्रत्यक्ष ही अपनेसे हीन भासित होते हैं; उनका
स्थावर हैं; वे तिर्यंचोंसे अत्यन्त हीन अवस्थाको प्राप्त देखे जाते हैं। तथा शस्त्र, दवात आदि
अचेतन हैं; वे सर्वशक्तिसे हीन प्रत्यक्ष भासित होते हैं, उनमें पूज्यपनेका उपचार भी सम्भव
नहीं है।
देखो तो मिथ्यात्वकी महिमा! लोकमें अपनेसे नीचेको नमन करनेमें अपनेको निंद्य मानते
जिससे प्रयोजन सिद्ध होता जाने, उसकी सेवा करते हैं और मोहित होकर ‘‘कुदेवोंसे मेरा
प्रयोजन कैसे सिद्ध होगा’’
इष्टकार्य हो जाये तो कहता है
है
होगा; परन्तु ऐसा दिखाई नहीं देता। जिस प्रकार किसीके शीतलाको बहुत मानने पर भी
पुत्रादि मरते देखे जाते हैं, किसीके बिना माने भी जीते देखे जाते हैं; इसलिये शीतलाका
मानना किंचित् कार्यकारी नहीं है।
यहाँ कोई कहे
आगामी दुःख पाते हैं, यह बिगाड़ है।
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होंगे?
पाप है; इसलिये जैसे पुण्यबन्ध हो, पापबन्ध न हो; वह करना। तथा यदि कर्म-उदयका
भी निश्चय न हो और इष्ट-अनिष्टके बाह्य कारणोंके संयोग-वियोगका उपाय करे; परन्तु कुदेवको
माननेसे इष्ट-अनिष्टबुद्धि दूर नहीं होती, केवल वृद्धिको प्राप्त होती है; तथा उससे पुण्यबंध
भी नहीं होता, पापबंध होता है। तथा कुदेव किसीको धनादिक देते या छुड़ा लेते नहीं
देखे जाते, इसलिये ये बाह्य कारण भी नहीं हैं। इनकी मान्यता किस अर्थ की जाती है?
जब अत्यन्त भ्रमबुद्धि हो, जीवादि तत्त्वोंके श्रद्धान-ज्ञानका अंश भी न हो, और राग-द्वेषकी
अति तीव्रता हो; तब जो कारण नहीं हैं उन्हें भी इष्ट-अनिष्टका कारण मानते हैं, तब कुदेवोंकी
मान्यता होती है।
अंग धारण करके बड़े धर्मात्मा कहलाते हैं, बड़े धर्मात्मा योग्य क्रिया कराते हैं
कषायादि छूटने पर जैसे धर्मको धारण करे वैसा ही अपना पद मानना योग्य है।
कुलमें उत्पन्न होनेसे ही उच्चपना रहे, तो मांसभक्षणादि करने पर भी उसे उच्च ही मानो;
सो वह बनता नहीं है। भारत ग्रन्थमें भी अनेक ब्राह्मण कहे हैं। वहाँ ‘‘जो ब्राह्मण होकर
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तो ऐसी हीन संज्ञा किसलिये दी है?
एक कुल है, भिन्न कुल कैसे रहा? तथा उच्चकुलकी स्त्रीके नीचकुलके पुरुषसे व नीचकुलकी
स्त्रीके उच्चकुलके पुरुषसे संगम होनेसे सन्तति होती देखी जाती है; वहाँ कुलका प्रमाण किस
प्रकार रहा? यदि कदाचित् कहोगे
है; इसलिये धर्मपद्धतिमें कुल-अपेक्षा महन्तपना सम्भव नहीं है। धर्मसाधनसे ही महन्तपना होता
है। ब्राह्मणादि कुलोंमें महन्तपना है सो धर्मप्रवृत्तिसे है; धर्मप्रवृत्तिको छोड़कर हिंसादि पापमें
प्रवर्तनेसे महन्तपना किस प्रकार रहेगा?
नहीं; यदि उनकी सन्ततिमें उत्तमकार्य करनेसे उत्तम मानते हो तो उत्तमपुरुषकी सन्ततिमें जो
उत्तमकार्य न करे, उसे उत्तम किसलिये मानते हो? शास्त्रोंमें व लोकमें यह प्रसिद्ध है कि
पिता शुभकार्य करके उच्चपद प्राप्त करता है, पुत्र अशुभकार्य करके नीचपदको प्राप्त करता
है; पिता अशुभ कार्य करके नीचपदको प्राप्त करता है, पुत्र शुभकार्य करके उच्चपदको प्राप्त
करता है। इसलिये बड़ोंकी अपेक्षा महन्त मानना योग्य नहीं है।
तथा कितने ही पट्ट द्वारा गुरुपना मानते हैं। पूर्वकालमें कोई महन्त पुरुष हुआ हो,
करेगा वह भी धर्मात्मा होगा, सुगतिको प्राप्त होगा; परन्तु यह सम्भव नहीं है। और पापी
है तो गादीका अधिकार कहाँ रहा? जो गुरुपद योग्य कार्य करे वही गुरु है।
किस प्रकार रहा? अन्य गृहस्थोंके समान यह भी हुए। इतना विशेष हुआ कि यह भ्रष्ट
होकर गृहस्थ हुए; इन्हें मूल गृहस्थधर्मी गुरु कैसे मानें?
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भी पाप हैं; उन्हें करते हुए धर्मात्मा-गुरु किस प्रकार मानें? तथा वह धर्मबुद्धिसे विवाहादिकका
त्यागी नहीं हुआ है; परन्तु किसी आजीविका व लज्जा आदि प्रयोजनके लिये विवाह नहीं
करता । यदि धर्मबुद्धि होती तो हिंसादिक किसलिये बढ़ाता? तथा जिसके धर्मबुद्धि नहीं है
उसके शीलकी भी दृढ़ता नहीं रहती, और विवाह नहीं करता तब परस्त्री
कोई गुदड़ी रखते हैं, कोई चोला पहिनते हैं, कोई चादर ओढ़ते हैं, कोई लाल वस्त्र रखते
हैं, कोई श्वेत वस्त्र रखते हैं, कोई भगवा रखते हैं, कोई टाट पहिनते हैं, कोई मृगछाल
रखते हैं, कोई राख लगाते हैं
त्याग किसलिये किया? उनको छोड़कर ऐसे स्वाँग बनानेमें कौनसा अंग हुआ? गृहस्थोंको
ठगनेके अर्थ ऐसे भेष जानना। यदि गृहस्थ जैसा अपना स्वाँग रखे तो गृहस्थ ठगे कैसे
जायेंगे? और इन्हें उनके द्वारा आजीविका व धनादिक व मानादिकका प्रयोजन साधना है;
इसलिये ऐसे स्वांग बनाते हैं। भोला जगत उस स्वाँगको देखकर ठगाता है और धर्म हुआ
मानता है; परन्तु यह भ्रम है। यही कहा हैः
निरूपण किये हैं उनको धारण करते हैं; परन्तु उन शास्त्रोंके कर्ता पापियों ने सुगम क्रिया
करनेसे उच्चपद प्ररूपित करनेमें हमारी मान्यता होगी, अन्य जीव इस मार्गमें लग जायेंगे, इस
अभिप्रायसे मिथ्या
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साधु, भट्टारक, संन्यासी, योगी, तपस्वी, नग्न
इच्छानुसार ही नवीन नाम धारण करते हैं और इच्छानुसार ही वेष बनाते हैं।
यहाँ कोई पूछे कि
भावार्थः
धर्मके अंगको भी पालते हैं। जिस प्रकार खोटा रुपया चलानेवाला उसमें चाँदीका अंश भी
रखता है; उसी प्रकार धर्मका कोई अंग दिखाकर अपना उच्चपद मानते हैं।
प्रकार उच्च पदवीका नाम रखाकर उसमें किंचित् भी अन्यथा प्रवर्ते तो महापापी है, और
नीची पदवीका नाम रखकर किंचित् भी धर्मसाधन करे तो धर्मात्मा है। इसलिये धर्मसाधन
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करनेसे महापाप ही होता है।
यदि कदाचित् अल्प
है। इसलिये ऊँचा नाम रखाकर नीची प्रवृत्ति युक्त नहीं है।
अनुभवन करते हुए शुभाशुभभावोंसे उदासीन रहते हैं; और अब विषय-कषायासक्त जीव मुनिपद
धारण करते हैं; वहाँ सर्व सावद्यके त्यागी होकर पंचमहाव्रतादि अंगीकार करते हैं, श्वेत-
रक्तादि वस्त्रोंको ग्रहण करते हैं, भोजनादिमें लोलुप होते हैं, अपनी पद्धति बढ़ानेके उद्यमी
होते हैं व कितने ही धनादिक भी रखते हैं, हिंसादिक करते हैं व नाना आरम्भ करते हैं।
परन्तु अल्प परिग्रह ग्रहण करनेका फल निगोद कहा है, तब ऐसे पापोंका फल तो अनन्त
संसार होगा ही होगा।
सन्मानादिक करते हैं; सो शास्त्रमें कृत, कारित, अनुमोदनाका फल कहा है; इसलिये उनको
भी वैसा ही फल लगता है।
तब श्रीगुरु मुनिधर्म अंगीकार कराते हैं।
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अब इस कथनको दृढ़ करनेके लिये शास्त्रोंकी साक्षी देते हैं।
वहाँ ‘‘उपदेशसिद्धान्तरत्नमाला’’में ऐसा कहा हैः
भला नहीं है।
कृत्वा किंचनपक्षमक्षतकलिः प्राप्तस्तदाचार्यकम्
स्वं शक्रीयति बालिशीयति बुधान् विश्व वराकीयति
गृहवत् प्रवर्तता है, निजगच्छमें कुटुम्बवत् प्रवर्तता है, अपनेको इन्द्रवत् महान मानता है,
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हुआ है।
हैं; सो हाय हाय! यह जगत् राजासे रहित है, कोई न्याय पूछने वाला नहीं है।
यहाँ कोई कहता है
दिगम्बर धर्ममें तो ऐसी विपरीतताका सहज ही निषेध हुआ।
वहाँ श्री कुन्दकुन्दाचार्यकृत ‘‘षट्पाहुड़’’ में ऐसा कहा हैः
धर्म भी नहीं होता। धर्मके बिना वंदने योग्य कैसे होगा?
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सन्मानादिक करनेसे भी उस पापकी अनुमोदनाका फल लगता है।
पर भांडका दृष्टांत सम्भव है; परिग्रह रखे तो यह दृष्टान्त भी नहीं बनता।