Moksha-Marg Prakashak (Hindi). ChhaThava Adhyay.

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पाँचवाँ अधिकार ][ १६३
तथा वे ऐसा कहते हैंदेवोंके ऐसा कार्य है, मनुष्योंके नहीं है; क्योंकि मनुष्योंको
प्रतिमा आदि बनानेमें हिंसा होती है। तो उन्हींके शास्त्रोंमें ऐसा कथन है किद्रौपदी रानी
प्रतिमाजीके पूजनादिक जैसे सूर्याभदेवने किये उसी प्रकार करने लगी; इसलिये मनुष्योंके भी
ऐसा कार्य कर्तव्य है।
यहाँ एक यह विचार आया किचैत्यालय, प्रतिमा बनानेकी प्रवृत्ति नहीं थी तो
द्रौपदीने किस प्रकार प्रतिमाका पूजन किया? तथा प्रवृत्ति थी तो बनानेवाले धर्मात्मा थे या
पापी थे? यदि धर्मात्मा थे तो गृहस्थोंको ऐसा कार्य करना योग्य हुआ, और पापी थे तो
वहाँ भोगादिकका प्रयोजन तो था नहीं, किसलिये बनाया? तथा द्रौपदीने वहाँ ‘‘णमोत्थुणं’’
का पाठ किया व पूजनादि किया, सो कुतूहल किया या धर्म किया? यदि कुतूहल किया
तो महापापिनी हुई। धर्ममें कुतूहल कैसा? और धर्म किया तो औरोंको भी प्रतिमाजीकी
स्तुति
पूजा करना युक्त है।
तथा वे ऐसी मिथ्यायुक्ति बनाते हैंजिस प्रकार इन्द्रकी स्थापनासे इन्द्रका कार्य सिद्ध
नहीं है; उसी प्रकार अरहंत प्रतिमासे कार्य सिद्ध नहीं है। सो अरहंत किसीको भक्त मानकर
भला करते हों तब तो ऐसा भी मानें; परन्तु वे तो वीतराग हैं। यह जीव भक्तिरूप अपने
भावोंसे शुभफल प्राप्त करता है। जिस प्रकार स्त्रीके आकाररूप काष्ठ
पाषाणकी मूर्ति देखकर
वहाँ विकाररूप होकर अनुराग करे तो उसको पापबंध होगा; उसी प्रकार अरहंतके आकाररूप
धातु
पाषाणादिककी मूर्ति देखकर धर्मबुद्धि से वहाँ अनुराग करे तो शुभकी प्राप्ति कैसे न
होगी? वहाँ वे कहते हैंबिना प्रतिमा ही हम अरहंतमें अनुराग करके शुभ उत्पन्न करेंगे;
तो इनसे कहते हैंआकार देखनेसे जैसा भाव होता है वैसा परोक्ष स्मरण करनेसे नहीं
होता; इसीसे लोकमें भी स्त्रीके अनुरागी स्त्रीका चित्र बनाते हैं; इसलिये प्रतिमाके अवलम्बन
द्वारा भक्ति विशेष होनेसे विशेष शुभकी प्राप्ति होती है।
फि र कोई कहे प्रतिमाको देखो, परन्तु पूजनादिक करनेका क्या प्रयोजन है?
उत्तरः
जैसे कोई किसी जीवका आकार बनाकर घात करे तो उसे उस जीवकी हिंसा
करने जैसा पाप होता है, व कोई किसीका आकार बनाकर द्वेषबुद्धिसे उसकी बुरी अवस्था
करे तो जिसका आकार बनाया उसकी बुरी अवस्था करने जैसा फल होता है; उसी प्रकार
अरहन्तका आकार बनाकर धर्मानुरागबुद्धिसे पूजनादि करे तो अरहन्तके पूजनादि करने जैसा
शुभ (भाव) उत्पन्न होता है तथा वैसा ही फल होता है। अति अनुराग होने पर प्रत्यक्ष
दर्शन न होनेसे आकार बनाकर पूजनादि करते हैं। इस धर्मानुरागसे महापुण्य होता है।

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१६४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा ऐसा कुतर्क करते हैं किजिसके जिस वस्तुका त्याग हो उसके आगे उस
वस्तुका रखना हास्य करना है; इसलिये चंदनादि द्वारा अरहन्तकी पूजन युक्त नहीं है।
समाधानःमुनिपद लेते ही सर्व परिग्रह त्याग किया था, केवलज्ञान होनेके पश्चात्
तीर्थंकरदेवके समवशरणादि बनाये, छत्रचँवरादि किये, सो हास्य किया या भक्ति की? हास्य
किया तो इन्द्र महापापी हुआ; सो बनता नहीं है। भक्ति की तो पूजनादिकमें भी भक्ति
ही करते हैं। छद्मस्थके आगे त्याग की हुई वस्तुका रखना हास्य करना है; क्योंकि उसके
विक्षिप्तता हो आती है। केवलीके व प्रतिमाके आगे अनुरागसे उत्तम वस्तु रखनेका दोष
नहीं है; उनके विक्षिप्तता नहीं होती। धर्मानुरागसे जीवका भला होता है।
फि र वे कहते हैंप्रतिमा बनानेमें, चैत्यालयादि करानेमें, पूजनादि करानेमें हिंसा होती
है, और धर्म अहिंसा है; इसलिये हिंसा करके धर्म माननेसे महापाप होता है; इसलिए हम
इन कार्योंका निषेध करते हैं।
उत्तरःउन्हींके शास्त्रमें ऐसा वचन हैः
सुच्चा जाणइ कल्लाणं सुच्चा जाणइ पावगं
उभयं पि जाणए सुच्चा जं सेय तं समायर।।।।
यहाँ कल्याण, पाप और उभययह तीनों शास्त्र सुनकर जाने, ऐसा कहा है। सो
उभय तो पाप और कल्याण मिलनेसे होगा, सो ऐसे कार्यका भी होना ठहरा। वहाँ पूछते
हैं
केवल धर्मसे तो उभय हल्का है ही, और केवल पापसे उभय बुरा है या भला है?
यदि बुरा है तो इसमें तो कुछ कल्याणका अंश मिला है, पापसे बुरा कैसे कहें? भला
है, तो केवल पापको छोड़कर ऐसे कार्य करना ठहरा। तथा युक्तिसे भी ऐसा ही सम्भव
है। कोई त्यागी होकर मन्दिरादिक नहीं बनवाता है व सामायिकादिक निरवद्य कार्योंमें प्रवर्तता
है; तो उन्हें छोड़कर प्रतिमादि कराना व पूजनादि करना उचित नहीं है। परन्तु कोई अपने
रहनेके लिए मकान बनाये, उससे तो चैत्यालयादि करानेवाला हीन नहीं है। हिंसा तो हुई,
परन्तु उसके तो लोभ
पापानुरागकी वृद्धि हुई और इसके लोभ छूटकर धर्मानुराग हुआ।
तथा कोई व्यापारादि कार्य करे, उससे तो पूजनादि कार्य करना हीन नहीं है। वहाँ तो
हिंसादि बहुत होते हैं, लोभादि बढ़ता है, पापकी ही प्रवृत्ति है। यहाँ हिंसादिक भी किंचित्
होते हैं, लोभादिक घटते हैं और धर्मानुराग बढ़ता है।
इस प्रकार जो त्यागी न हों, अपने
धनको पापमें खर्चते हों, उन्हें चैत्यालयादि बनवाना योग्य है। और जो निरवद्य सामायिकादि
कार्योंमें उपयोगको न लगा सकें उनको पूजनादि करनेका निषेध नहीं है।

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पाँचवाँ अधिकार ][ १६५
फि र तुम कहोगेनिरवद्य सामायिकादिक कार्य ही क्यों न करें? धर्ममें काल लगाना;
वहाँ ऐसे कार्य किसलिये करें?
उत्तरःयदि शरीर द्वारा पाप छोड़ने पर ही निरवद्यपना हो, तो ऐसा ही करें; परन्तु
परिणामोंमें पाप छूटने पर निरवद्यपना होता है। सो बिना अवलम्बन सामायिकादिमें जिसके
परिणाम न लगें वह पूजनादि द्वारा वहाँ अपना उपयोग लगाता है। वहाँ नानाप्रकारके आलम्बन
द्वारा उपयोग लग जाता है। यदि वहाँ उपयोगको न लगाये तो पापकार्योंमें उपयोग भटकेगा
और उससे बुरा होगा; इसलिये वहाँ प्रवृत्ति करना युक्त है।
तुम कहते हो कि‘‘धर्मके अर्थ हिंसा करनेसे तो महापाप होता है, अन्यत्र हिंसा
करनेसे थोड़ा पाप होता है’’; सो प्रथम तो यह सिद्धान्तका वचन नहीं है और युक्तिसे भी
नहीं मिलता; क्योंकि ऐसा माननेसे तो इन्द्र जन्मकल्याणकमें बहुत जलसे अभिषेक करता है,
समवशरणमें देव पुष्पवृष्टि करना, चँवर ढालना इत्यादि कार्य करते हैं सो वे महापापी हुए।
यदि तुम कहोगेउनका ऐसा ही व्यवहार है, तो क्रियाका फल तो हुए बिना रहता
नहीं है। यदि पाप है तो इन्द्रादिक तो सम्यग्दृष्टि हैं, ऐसा कार्य किसलिये करेंगे? और
धर्म है तो किसलिये निषेध करते हो?
भला तुम्हींसे पूछते हैंतीर्थंकरकी वन्दनाको राजादिक गये, साधुकी वन्दनाको दूर
भी जाते हैं, सिद्धान्त सुनने आदि करनेके लिये गमनादि करते हैं, वहाँ मार्गमें हिंसा हुई।
तथा साधर्मियोंको भोजन कराते हैं, साधुका मरण होने पर उसका संस्कार करते हैं, साधु
होने पर उत्सव करते हैं, इत्यादि प्रवृत्ति अब भी देखी जाती है; सो यहाँ भी हिंसा होती
है; परन्तु यह कार्य तो धर्मके ही अर्थ हैं, अन्य कोई प्रयोजन नहीं है। यदि यहाँ महापाप
होता है, तो पूर्वकालमें ऐसे कार्य किये उनका निषेध करो। और अब भी गृहस्थ ऐसा
कार्य करते हैं, उनका त्याग करो। तथा यदि धर्म होता है तो धर्मके अर्थ हिंसामें महापाप
बतलाकर किसलिये भ्रममें डालते हो?
इसलिये इस प्रकार मानना युक्त है किजैसे थोड़ा धन ठगाने पर बहुत धनका
लाभ हो तो वह कार्य करना योग्य है; उसी प्रकार थोड़े हिंसादिक पाप होने पर बहुत
धर्म उत्पन्न हो तो वह कार्य करना योग्य है। यदि थोड़े धनके लोभसे कार्य बिगाड़े तो
मूर्ख है; उसी प्रकार थोड़ी हिंसाके भयसे बड़ा धर्म छोड़े तो पापी होता है। तथा कोई
बहुत धन ठगाये और थोड़ा धन उत्पन्न करे, व उत्पन्न नहीं करे तो वह मूर्ख है; उसी
प्रकार बहुत हिंसादि द्वारा बहुत पाप उत्पन्न करे और भक्ति आदि धर्ममें थोड़ा प्रवर्ते व

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१६६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
नहीं प्रवर्ते, तो वह पापी ही होता है। तथा जिस प्रकार बिना ठगाये ही धनका लाभ
होने पर ठगाये तो मूर्ख है; उसी प्रकार निरवद्य धर्मरूप उपयोग होने पर सावद्यधर्ममें उपयोग
लगाना योग्य नहीं है।
इस प्रकार अपने परिणामोंकी अवस्था देखकर भला हो वह करना; परन्तु एकान्त-
पक्ष कार्यकारी नहीं है। तथा अहिंसा ही केवल धर्मका अङ्ग नहीं है; रागादिकोंका घटना
धर्मका मुख्य अङ्ग है। इसलिये जिस प्रकार परिणामोंमें रागादिक घटें वह कार्य करना।
तथा गृहस्थोंको अणुव्रतादिकके साधन हुए बिना ही सामायिक, प्रतिक्रमण, प्रोषध आदि
क्रियाओंका मुख्य आचरण कराते हैं। परन्तु सामायिक तो राग-द्वेषरहित साम्यभाव होने पर
होती है, पाठ मात्र पढ़नेसे व उठना-बैठना करनेसे ही तो होती नहीं है।
फि र कहोगेअन्य कार्य करता उससे तो भला है? सो सत्य; परन्तु सामायिक पाठमें
प्रतिज्ञा तो ऐसी करता है किमन-वचन-काय द्वारा सावद्यको न करूँगा, न कराऊँगा; परन्तु
मनमें तो विकल्प होता ही रहता है, और वचन-कायमें भी कदाचित् अन्यथा प्रवृत्ति होती
है वहाँ प्रतिज्ञाभंग होती है। सो प्रतिज्ञाभंग करनेसे तो न करना भला है; क्योंकि प्रतिज्ञाभंग
महापाप है।
फि र हम पूछते हैंकोई प्रतिज्ञा भी नहीं करता और भाषापाठ पढ़ता है, उसका
अर्थ जानकर उसमें उपयोग रखता है। कोई प्रतिज्ञा करे उसे तो भलीभाँति पालता नहीं
है और प्राकृतादिकके पाठ पढ़ता है; उसके अर्थका अपनेको ज्ञान नहीं है, बिना अर्थ जाने
वहाँ उपयोग नहीं रहता तब उपयोग अन्यत्र भटकता है। ऐसे इन दोनोंमें विशेष धर्मात्मा
कौन? यदि पहलेको कहोगे, तो ऐसा ही उपदेश क्यों नहीं देते? तथा दूसरेको कहोगे तो
प्रतिज्ञाभंगका पाप हुआ व परिणामोंके अनुसार धर्मात्मापना नहीं ठहरा; परन्तु पाठादि करनेके
अनुसार ठहरा।
इसलिये अपना उपयोग जिस प्रकार निर्मल हो वह कार्य करना। सध सके वह प्रतिज्ञा
करना। जिसका अर्थ जाने वह पाठ पढ़ना। पद्धति द्वारा नाम रखानेमें लाभ नहीं है।
तथा प्रतिक्रमण नाम पूर्वदोष निराकरण करनेका है; परन्तु ‘‘मिच्छामि दुक्कड़ं’’ इतना
कहनेसे ही तो दुष्कृत मिथ्या नहीं होते; किये हुए दुष्कृत मिथ्या होने योग्य परिणाम होने
पर ही दुष्कृत मिथ्या होते हैं; इसलिये पाठ ही कार्यकारी नहीं है।

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पाँचवाँ अधिकार ][ १६७
तथा प्रतिक्रमणके पाठमें ऐसा अर्थ है किबारह व्रतादिकमें जो दुष्कृत लगे हों वे
मिथ्या हों; परन्तु व्रत धारण किए बिना ही उनका प्रतिक्रमण करना कैसे सम्भव है? जिसके
उपवास न हो, वह उपवासमें लगे दोषका निराकरण करे तो असम्भवपना होगा।
इसलिये यह पाठ पढ़ना किस प्रकार बनता है?
तथा प्रोषधमें भी सामायिकवत् प्रतिज्ञा करके पालन नहीं करते; इसलिये पूर्वोक्त ही
दोष है। तथा प्रोषध नाम तो पर्वका है; सो पर्वके दिन भी कितने कालतक पापक्रिया
करता है, पश्चात् प्रोषधधारी होता है। जितने काल बने उतने काल साधन करनेका तो
दोष नहीं है; परन्तु प्रोषधका नाम करे सो युक्त नहीं है। सम्पूर्ण पर्वमें निरवद्य रहने पर
ही प्रोषध होता है। यदि थोड़े भी कालसे प्रोषध नाम हो तो सामायिकको भी प्रोषध कहो,
नहीं तो शास्त्रमें प्रमाण बतलाओ कि
जघन्य प्रोषधका इतना काल है। यह तो बड़ा नाम
रखकर लोगों को भ्रममें डालनेका प्रयोजन भासित होता है।
तथा आखड़ी लेनेका पाठ तो अन्य कोई पढ़ता है, अंगीकार अन्य करता है। परन्तु
पाठमें तो ‘‘मेरे त्याग है’’ ऐसा वचन है; इसलिये जो त्याग करे उसीको पाठ पढ़ना चाहिये।
यदि पाठ न आये तो भाषासे ही कहे; परन्तु पद्धतिके अर्थ यह रीति है।
तथा प्रतिज्ञा ग्रहण करने-करानेकी तो मुख्यता है और यथाविधि पालनेकी शिथिलता
है, व भाव निर्मल होनेका विवेक नहीं है। आर्तपरिणामोंसे व लोभादिकसे भी उपवासादि
करके वहाँ धर्म मानता है; परन्तु फल तो परिणामोंसे होता है।
इत्यादि अनेक कल्पित बातें करते हैं; सो जैनधर्ममें सम्भव नहीं हैं।
इस प्रकार यह जैनमें श्वेताम्बर मत है वह भी देवादिकका व तत्त्वोंका व मोक्षमार्गादिका
अन्यथा निरूपण करता है; इसलिये मिथ्यादर्शनादिकका पोषक है सो त्याज्य है।
सच्चे जिनधर्मका स्वरूप आगे कहते हैं; उसके द्वारा मोक्षमार्गमें प्रवर्तना योग्य है।
वहाँ प्रवर्तनेसे तुम्हारा कल्याण होगा।
इति श्री मोक्षमार्गप्रकाशक शास्त्रमें अन्यमत निरूपक
पाँचवाँ अधिकार समाप्त हुआ ।।।।

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१६८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
छठवाँ अधिकार
कुदेव, कुगुरु और कुधर्मका प्रतिषेध
दोहामिथ्या देवादिक भजें, हो है मिथ्याभाव
तज तिनकों सांचे भजो, यह हित-हेत-उपाव।।
अर्थःअनादिसे जीवोंके मिथ्यादर्शनादिक भाव पाये जाते हैं, उनकी पुष्टताका कारण
कुदेव-कुगुरु-कुधर्मसेवन है; उसका त्याग होने पर मोक्षमार्गमें प्रवृत्ति होती है; इसलिये इनका
निरूपण करते हैं।
कुदेवका निरूपण और उनके श्रद्धानादिका निषेध
वहाँ, जो हितके कर्ता नहीं हैं और उन्हें भ्रमसे हितका कर्ता जानकर सेवन करें
सो कुदेव हैं।
उनका सेवन तीन प्रकारके प्रयोजनसहित करते हैं। कहीं तो मोक्षका प्रयोजन है,
कहीं परलोकका प्रयोजन है, और कहीं इसलोकका प्रयोजन है; सो प्रयोजन तो सिद्ध नहीं
होते, कुछ विशेष हानि होती है; इसलिये उनका सेवन मिथ्याभाव है। वह बतलाते हैंः
अन्यमतोंमें जिनके सेवनसे मुक्तिका होना कहा है, उन्हें कितने ही जीव मोक्षके अर्थ
सेवन करते हैं, परन्तु मोक्ष होता नहीं है। उनका वर्णन पहले अन्यमत अधिकारमें कहा
ही है। तथा अन्यमतमें कहे देवोंको कितने ही
‘‘परलोकमें सुख होगा दुःख नहीं होगा’’
ऐसे प्रयोजनसहित सेवन करते हैं। सो ऐसी सिद्धि तो पुण्य उपजाने और पाप न उपजानेसे
होती है; परन्तु आप तो पाप उपजाता है और कहता है
ईश्वर हमारा भला करेगा, तो
वहाँ अन्याय ठहरा; क्योंकि किसीको पापका फल दे, किसीको न दे ऐसा तो होता है नहीं।
जैसे अपने परिणाम करेगा वैसा ही फल पायेगा; ईश्वर किसीका बुरा-भला करनेवाला नहीं
है।

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छठवाँ अधिकार ][ १६९
तथा उन देवोंका सेवन करते हुए उन देवोंका तो नाम देते हैं और अन्य जीवोंकी
हिंसा करते हैं तथा भोजन, नृत्यादि द्वारा अपनी इन्द्रियोंका विषय पोषण करते हैं; सो
पापपरिणामोंका फल तो लगे बिना रहेगा नहीं। हिंसा विषय-कषायोंको सब पाप कहते हैं
और पापका फल भी सब बुरा ही मानते हैं; तथा कुदेवोंके सेवनमें हिंसा-विषयादिकका ही
अधिकार है; इसलिये कुदेवोंके सेवनसे परलोकमें भला नहीं होता।
व्यन्तरादिका स्वरूप और उनके पूजनेका निषेध
तथा बहुतसे जीव इस पर्यायसम्बन्धी, शत्रुनाशादिक व रोगादिक मिटाने, धनादिककी
व पुत्रादिककी प्राप्ति, इत्यादि दुःख मिटाने व सुख प्राप्त करनेके अनेक प्रयोजन सहित
कुदेवादिका सेवन करते हैं; हनुमानादिकको पूजते हैं; देवियोंको पूजते हैं; गनगौर, सांझी आदि
बनाकर पूजते हैं; चौथ, शीतला, दहाड़ी आदि को पूजते हैं; भूत-प्रेत, पितर, व्यन्तरादिकको
पूजते हैं; सूर्य-चन्द्रमा, शनिश्चरादि ज्योतिषियोंको पूजते हैं; पीर-पैगंबरादिकको पूजते हैं; गाय,
घोड़ा आदि तिर्यंचोंको पूजते हैं; अग्नि-जलादिकको पूजते हैं; शस्त्रादिकको पूजते हैं; अधिक
क्या कहें, रोड़ा इत्यादिकको भी पूजते हैं।
सो इस प्रकार कुदेवादिकका सेवन मिथ्यादृष्टिसे होता है; क्योंकि प्रथम तो वह जिनका
सेवन करता है उनमेंसे कितने ही तो कल्पनामात्र देव हैं; इसलिये उनका सेवन कार्यकारी
कैसे होगा? तथा कितने ही व्यन्तरादिक हैं; सो वे किसीका भला-बुरा करनेको समर्थ नहीं
हैं। यदि वे ही समर्थ होंगे तो वे ही कर्ता ठहरेंगे; परन्तु उनके करनेसे कुछ होता दिखाई
नहीं देता; प्रसन्न होकर धनादिक नहीं दे सकते और द्वेषी होकर बुरा नहीं कर सकते।
यहाँ कोई कहेदुःख देते तो देखे जाते हैं; माननेसे दुःख देना रोक देते हैं?
उत्तरःइसके पापका उदय हो, तब उनके ऐसी ही कुतूहलबुद्धि होती है, उससे
वे चेष्टा करते हैं, चेष्टा करनेसे यह दुःखी होता है। तथा वे कुतूहलसे कुछ कहें और
यह उनका कहा हुआ न करे, तो वे चेष्टा करते रुक जाते हैं; तथा इसे शिथिल जानकर
कुतूहल करते रहते हैं। यदि इसके पुण्यका उदय हो तो कुछ कर नहीं सकते।
ऐसा भी देखा जाता हैकोई जीव उनको नहीं पूजते, व उनकी निन्दा करते हैं
व वे भी उससे द्वेष करते हैं, परन्तु उसे दुःख नहीं दे सकते। ऐसा भी कहते देखे जाते
हैं कि
अमुक हमको नहीं मानता, परन्तु उस पर हमारा कुछ वश नहीं चलता। इसलिये
व्यन्तरादिक कुछ करनेमें समर्थ नहीं हैं, इसके पुण्य-पापसे ही सुख-दुःख होता है; उनके मानने-
पूजनेसे उलटा रोग लगता है, कुछ कार्यसिद्धि नहीं होती।

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१७० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा ऐसा जाननाजो कल्पित देव हैं उनका भी कहीं अतिशय, चमत्कार देखा
जाता है, वह व्यन्तरादिक द्वारा किया होता है। कोई पूर्वपर्यायमें उनका सेवक था, पश्चात्
मरकर व्यन्तरादि हुआ, वहीं किसी निमित्तसे ऐसी बुद्धि हुई, तब वह लोकमें उनको सेवन
करनेकी प्रवृत्ति करानेके अर्थ कोई चमत्कार दिखाता है। जगत भोला; किंचित् चमत्कार देखकर
इस कार्यमें लग जाता है। जिस प्रकार जिनप्रतिमादिकका भी अतिशय होना सुनते व देखते
हैं सो जिनकृत नहीं है, जैनी व्यन्तरादिक होते हैं; उसी प्रकार कुदेवोंका कोई चमत्कार होता
है, वह उनके अनुचर व्यन्तरादिक द्वारा किया होता है ऐसा जानना।
तथा अन्यमतमें परमेश्वरने भक्तोंकी सहाय की व प्रत्यक्ष दर्शन दिये इत्यादि कहते
हैं; वहाँ कितनी ही तो कल्पित बातें कही हैं। कितने ही उनके अनुचर व्यन्तरादिक द्वारा
किये गये कार्योंको परमेश्वरके किये कहते हैं। यदि परमेश्वरके किये हों तो परमेश्वर तो
त्रिकालज्ञ है, सर्वप्रकार समर्थ है; भक्तको दुःख किसलिये होने देगा? तथा आज भी देखते
हैं कि
म्लेच्छ आकर भक्तोंको उपद्रव करते हैं, धर्म-विध्वंस करते हैं, मूर्तिको विघ्न करते
हैं। यदि परमेश्वरको ऐसे कार्योंका ज्ञान न हो तो सर्वज्ञपना नहीं रहेगा। जाननेके पश्चात्
भी सहाय न करे तो भक्तवत्सलता गई और सामर्थ्यहीन हुआ। तथा साक्षीभूत रहता है
तो पहले भक्तोंको सहाय की कहते हैं वह झूठ है; क्योंकि उसकी तो एकसी वृत्ति है।
फि र यदि कहोगेवैसी भक्ति नहीं है; तो म्लेच्छोंसे तो भले हैं, और मूर्ति आदि
तो उसीकी स्थापना थी, उसे तो विध्न नहीं होने देना था? तथा म्लेच्छपापियोंका उदय
होता है सो परमेश्वरका किया है या नहीं? यदि परमेश्वरका किया है; तो निन्दकोंको सुखी
करता है, भक्तोंको दुःख देनेवाले पैदा करता है, वहाँ भक्तवत्सलपना कैसे रहा? और
परमेश्वरका किया नहीं होता, तो परमेश्वर सामर्थ्यहीन हुआ; इसलिये परमेश्वरकृत कार्य नहीं
है। कोई अनुचर
व्यन्तरादिक ही चमत्कार दिखलाता हैऐसा ही निश्चय करना।
यहाँ कोई पूछे किकोई व्यन्तर अपना प्रभुत्व कहता है, अप्रत्यक्षको बतला देता
है, कोई कुस्थान निवासादिक बतलाकर अपनी हीनता कहता है, पूछते हैं सो नहीं बतलाता,
भ्रमरूप वचन कहता है, औरोंको अन्यथा परिणमित करता है, दुःख देता है
इत्यादि विचित्रता
किस प्रकार है?
उत्तरःव्यन्तरोंमें प्रभुत्वकी अधिकताहीनता तो है, परन्तु जो कुस्थानमें निवासादिक
बतलाकर हीनता दिखलाते हैं वह तो कुतूहलसे वचन कहते हैं। व्यन्तर बालककी भाँति
कुतूहल करते रहते हैं। जिस प्रकार बालक कुतूहल द्वारा अपनेको हीन दिखलाता है, चिढ़ाता

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छठवाँ अधिकार ][ १७१
है, गाली सुनाता है, ऊँचे स्वरमें रोता है, बादमें हँसने लग जाता है; उसी प्रकार व्यन्तर
चेष्टा करते हैं। यदि कुस्थानके ही निवासी हों तो उत्तमस्थानमें आते हैं; वहाँ किसके लानेसे
आते हैं? अपने आप आते हैं तो अपनी शक्ति होने पर कुस्थानमें किसलिये रहते हैं?
इसलिये इनका ठिकाना तो जहाँ उत्पन्न होते हैं वहाँ इस पृथ्वीके नीचे व ऊपर है सो मनोज्ञ
है। कुतूहलके लिये जो चाहें सो कहते हैं। यदि इनको पीड़ा होती हो तो रोते-रोते हँसने
कैसे लग जाते हैं?
इतना ही किमंत्रादिककी अचिंत्यशक्ति है; सो किसी सच्चे मन्त्रके निमित्त-नैमित्तिक
सम्बन्ध हो तो उसके किंचित् गमनादिक नहीं हो सकते, व किंचित् दुःख उत्पन्न होता है,
व कोई प्रबल उसे मना करे तब रह जाता है व आप ही रह जाता हैः
इत्यादि मन्त्रकी
शक्ति है, परन्तु जलाना आदि नहीं होता। मन्त्रवाले जलाया कहते हैं; वह फि र प्रगट हो
जाता है, क्योंकि वैक्रियक शरीरका जलना आदि सम्भव नहीं है।
व्यन्तरोंके अवधिज्ञान किसीको अल्प क्षेत्र-काल जाननेका है, किसीको बहुत है। वहाँ
उनके इच्छा हो और अपनेको ज्ञान बहुत हो तो अप्रत्यक्षको पूछने पर उसका उत्तर देते
हैं। अल्प ज्ञान हो तो अन्य महत् ज्ञानीसे पूछ आकर जवाब देते हैं। अपनेको अल्प
ज्ञान हो व इच्छा न हो तो पूछने पर उसका उत्तर नहीं देते
ऐसा जानना। अल्पज्ञानवाले
व्यन्तरादिकको उत्पन्न होनेके पश्चात् कितने काल ही पूर्वजन्मका ज्ञान हो सकता है, फि र
उसका स्मरणमात्र रहता है, इसलिये वहाँ इच्छा द्वारा आप कुछ चेष्टा करें तो कहते हैं,
पूर्व जन्मकी बातें कहते हैं; कोई अन्य बात पूछे तो अवधिज्ञान तो थोड़ा है, बिना जाने
किस प्रकार कहें? जिसका उत्तर आप न दे सकें व इच्छा न हो, वहाँ मान
कुतूहलादिकसे
उत्तर नहीं देते व झूठ बोलते हैंऐसा जानना।
देवोंमें ऐसी शक्ति है किअपने व अन्यके शरीरको व पुद्गल-स्कन्धको जैसी इच्छा
हो तदनुसार परिणमित करते हैं; इसलिये नाना आकारादिरूप आप होते हैं, व अन्य नाना
चरित्र दिखाते हैं। अन्य जीवके शरीरको रोगादियुक्त करते हैं।
यहाँ इतना है किअपने शरीरको व अन्य पुद्गल-स्कन्धोंको जितनी शक्ति हो उतने
ही परिणमित कर सकते हैं; इसलिये सर्वकार्य करनेकी शक्ति नहीं है। अन्य जीवके शरीरादिको
उसके पुण्य-पापके अनुसार परिणमित कर सकते हैं। उसके पुण्यका उदय हो तो आप
रोगादिरूप परिणमित नहीं कर सकता, और पाप-उदय हो तो उसका इष्ट कार्य नहीं कर
सकता।

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१७२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
इस प्रकार व्यन्तरादिककी शक्ति जानना।
यहाँ कोई कहे
इतनी शक्ति जिनमें पायी जाये उनके मानने-पूजनेमें क्या दोष?
उत्तरःअपने पापका उदय होनेसे सुख नहीं दे सकते, पुण्यका उदय होनेसे दुःख
नहीं दे सकते; तथा उनको पूजनेसे कोई पुण्यबन्ध नहीं होता, रागादिककी वृद्धि होनेसे पाप
ही होता है; इसलिये उनका मानना-पूजना कार्यकारी नहीं है, बुरा करानेवाला है। तथा
व्यन्तरादिक मनवाते हैं, पुजवाते हैं
वह कुतूहल करते हैं; कुछ विशेष प्रयोजन नहीं रखते।
जो उनको माने-पूजे, उसीसे कुतूहल करते रहते हैं; जो नहीं मानते-पूजते उनसे कुछ नहीं
कहते। यदि उनको प्रयोजन ही हो, तो न मानने
- पूजनेवालेको बहुत दुःखी करें; परन्तु जिनके
न मानने - पूजनेका निश्चय है, उससे कुछ भी कहते दिखाई नहीं देते। तथा प्रयोजन तो
क्षुधादिककी पीड़ा हो तब हो; परन्तु वह उनके व्यक्त होती नहीं है। यदि हो तो इनके
अर्थ नैवेद्यादिक देते हैं, उसे ग्रहण क्यों नहीं करते? व औरोंको भोजनादि करानेको क्यों
कहते हैं? इसलिये उनके कुतूहलमात्र क्रिया है। अपनेमें उनके कुतूहलका स्थान होने पर
दुःख होगा, हीनता होगी; इसलिये उनको मानना-पूजना योग्य नहीं है।
तथा कोई पूछे कि व्यन्तर ऐसा कहते हैंगया आदिमें पिंडदान करो तो हमारी
गति होगी, हम फि र नहीं आयेंगे। सो क्या है?
उत्तरःजीवोंके पूर्वभवका संस्कार तो रहता ही है। व्यन्तरोंको भी पूर्वभवके
स्मरणादिसे विशेष संस्कार है; इसलिये पूर्वभवमें ऐसी ही वासना थीगयादिकमें पिंडदानादि
करने पर गति होती है, इसलिये ऐसे कार्य करनेको कहते हैं। यदि मुसलममान आदि मरकर
व्यन्तर होते हैं, वे तो ऐसा नहीं कहते, वे तो अपने संस्काररूप ही वचन कहते हैं; इसलिये
सर्व व्यन्तरोंकी गति इसी प्रकार होती तो भी समान प्रार्थना करें; परन्तु ऐसा नहीं है। ऐसा
जानना।
इस प्रकार व्यन्तरादिकका स्वरूप जानना।
तथा सूर्य, चन्द्रमा, ग्रहादिक ज्योतिषी हैं; उनको पूजते हैं वह भी भ्रम है। सूर्यादिकको
परमेश्वरका अंश मानकर पूजते हैं, परन्तु उसको तो एक प्रकाशकी ही अधिकता भासित
होती है; सो प्रकाशवान् तो अन्य रत्नादिक भी होते हैं; अन्य कोई ऐसा लक्षण नहीं है
जिससे उसे परमेश्वरका अंश मानें। तथा चन्द्रमादिकको धनादिककी प्राप्तिके अर्थ पूजते हैं;
परन्तु उनके पूजनसे ही धन होता हो तो सर्व दरिद्री इस कार्यको करें, इसलिये यह मिथ्याभाव
हैं। तथा ज्योतिषके विचारसे बुरे ग्रहादिक आने पर उनकी पूजनादि करते हैं, इसके अर्थ

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छठवाँ अधिकार ][ १७३
दानादिक देते हैं; सो जिस प्रकार हिरनादिक स्वयमेव गमनादिक करते हैं, और पुरुषके दायें-
बायें आने पर सुख-दुःख होनेके आगामी ज्ञानको कारण होते हैं, कुछ सुख-दुःख देनेको समर्थ
नहीं हैं; उसी प्रकार ग्रहादिक स्वयमेव गमनादिक करते हैं, और प्राणीके यथासम्भव योगको
प्राप्त होने पर सुख-दुःख होनेके आगामी ज्ञानको कारण होते हैं, कुछ सुख-दुःख देनेके समर्थ
नहीं हैं। कोई तो उनका पूजनादि करते हैं इनको भी इष्ट नहीं होता; कोई नहीं करता
उसके भी इष्ट होता है; इसलिये उनका पूजनादि करना मिथ्याभाव है।
यहाँ कोई कहेदेना तो पुण्य है सो भला ही है?
उत्तरःधर्मके अर्थ देना पुण्य है। यह तो दुःखके भयसे व सुखके लोभसे देते
हैं, इसलिये पाप ही है।
इत्यादिक अनेक प्रकारसे ज्योतिषी देवोंको पूजते हैं सो मिथ्या है।
तथा देवी-दहाड़ी आदि हैं; वे कितनी ही तो व्यन्तरी व ज्योतिषिनी हैं, उनका अन्यथा
स्वरूप मानकर पूजनादि करते हैं। कितनी ही कल्पित हैं; सो उनकी कल्पना करके पूजनादि
करते हैं।
इस प्रकार व्यन्तरादिकके पूजनेका निषेध किया।
क्षेत्रपाल, पद्मावती आदि पूजनेका निषेध
यहाँ कोई कहेक्षेत्रपाल, दहाड़ी, पद्मावती आदि देवी, यक्ष-यक्षिणी आदि जो
जिनमतका अनुसरण करते हैं उनके पूजनादि करनेमें दोष नहीं है?
उत्तरःजिनमतमें संयम धारण करनेसे पूज्यपना होता है; और देवोंके संयम होता
ही नहीं। तथा इनको सम्यक्त्वी मानकर पूजते हैं सो भवनत्रिकमें सम्यक्त्वकी भी मुख्यता
नहीं है। यदि सम्यक्त्वसे ही पूजते हैं तो सर्वार्थसिद्धिके देव, लौकान्तिक देव उन्हें ही क्यों
न पूजें? फि र कहोगे
इनके जिनभक्ति विशेष है; भक्तिकी विशेषता सौधर्म इन्द्रके भी है,
वह सम्यग्दृष्टि भी है; उसे छोड़कर इन्हें किसलिये पूजें? फि र यदि कहोगेजिस प्रकार
राजाके प्रतिहारादिक हैं, उसी प्रकार तीर्थंकरके क्षेत्रपालादिक हैं; परन्तु समवसरणादिमें इनका
अधिकार नहीं है, यह तो झूठी मान्यता है। तथा जिस प्रकार प्रतिहारादिकके मिलाने पर
राजासे मिलते हैं; उसी प्रकार यह तीर्थंकरसे नहीं मिलाते। वहाँ तो जिसके भक्ति हो वही
तीर्थंकरके दर्शनादिक करता है, कुछ किसीके आधीन नहीं है।
तथा देखो अज्ञानता! आयुधादि सहित रौद्रस्वरूप है जिनका, उनकी गा-गाकर भक्ति

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१७४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
करते हैं। सो जिनमतमें भी रौद्ररूप पूज्य हुआ तो यह भी अन्य मतके समान हुआ।
तीव्र मिथ्यात्वभावसे जिनमतमें भी ऐसी विपरीत प्रवृत्तिका मानना होता है।
इस प्रकार क्षेत्रपालादिकको भी पूजना योग्य नहीं है।
तथा गाय, सर्पादि तिर्यंच हैं वे प्रत्यक्ष ही अपनेसे हीन भासित होते हैं; उनका
तिरस्कारादि कर सकते हैं, उनकी निंद्यदशा प्रत्यक्ष देखी जाती है। तथा वृक्ष, अग्नि, जलादिक
स्थावर हैं; वे तिर्यंचोंसे अत्यन्त हीन अवस्थाको प्राप्त देखे जाते हैं। तथा शस्त्र, दवात आदि
अचेतन हैं; वे सर्वशक्तिसे हीन प्रत्यक्ष भासित होते हैं, उनमें पूज्यपनेका उपचार भी सम्भव
नहीं है।
इसलिये इनका पूजना महा मिथ्याभाव है। इनको पूजनेसे प्रत्यक्ष व अनुमान
द्वारा कुछ भी फलप्राप्ति भासित नहीं होती; इसलिये इनको पूजना योग्य नहीं है।
इस प्रकार सर्व ही कुदेवोंको पूजना-मानना निषिद्ध है।
देखो तो मिथ्यात्वकी महिमा! लोकमें अपनेसे नीचेको नमन करनेमें अपनेको निंद्य मानते
हैं, और मोहित होकर रोड़ों तकको पूजते हुए भी निंद्यपना नहीं मानते। तथा लोकमें तो
जिससे प्रयोजन सिद्ध होता जाने, उसकी सेवा करते हैं और मोहित होकर ‘‘कुदेवोंसे मेरा
प्रयोजन कैसे सिद्ध होगा’’
ऐसा बिना विचारे ही कुदेवोंका सेवन करते हैं। तथा कुदेवोंका
सेवन करते हुए हजारों विघ्न होते हैं उन्हें तो गिनता नहीं है और किसी पुण्यके उदयसे
इष्टकार्य हो जाये तो कहता है
इसके सेवनसे यह कार्य हुआ। तथा कुदेवादिकका सेवन
किये बिना जो इष्ट कार्य हों, उन्हें तो गिनता नहीं है और कोई अनिष्ट हो जाये तो कहता
है
इसका सेवन नहीं किया, इसलिये अनिष्ट हुआ। इतना नहीं विचारता किइन्हींके
आधीन इष्ट-अनिष्ट करना हो तो जो पूजते हैं उनके इष्ट होगा, नहीं पूजते उनके अनिष्ट
होगा; परन्तु ऐसा दिखाई नहीं देता। जिस प्रकार किसीके शीतलाको बहुत मानने पर भी
पुत्रादि मरते देखे जाते हैं, किसीके बिना माने भी जीते देखे जाते हैं; इसलिये शीतलाका
मानना किंचित् कार्यकारी नहीं है।
इसी प्रकार सर्व कुदेवोंका मानना किंचित् कार्यकारी नहीं है।
यहाँ कोई कहे
कार्यकारी नहीं है तो न हो, उनके माननेसे बिगाड़ भी तो नहीं
होता?
उत्तरःयदि बिगाड़ न हो तो हम किसलिये निषेध करें? परन्तु एक तो मिथ्यात्वादि
दृढ़ होनेसे मोक्षमार्ग दुर्लभ हो जाता है, यह बड़ा बिगाड़ है; और दूसरे पापबन्ध होनेसे
आगामी दुःख पाते हैं, यह बिगाड़ है।

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छठवाँ अधिकार ][ १७५
यहाँ पूछे किमिथ्यात्वादिभाव तो अतत्त्व-श्रद्धानादि होने पर होते हैं और पापबन्ध
खोटे (बुरे) कार्य करनेसे होता है; सो उनके माननेसे मिथ्यात्वादिक व पापबन्ध किस प्रकार
होंगे?
उत्तरःप्रथम तो परद्रव्योंको इष्ट-अनिष्ट मानना ही मिथ्या है, क्योंकि कोई द्रव्य
किसीका मित्र-शत्रु है नहीं। तथा जो इष्ट-अनिष्ट पदार्थ पाये जाते हैं उसका कारण पुण्य-
पाप है; इसलिये जैसे पुण्यबन्ध हो, पापबन्ध न हो; वह करना। तथा यदि कर्म-उदयका
भी निश्चय न हो और इष्ट-अनिष्टके बाह्य कारणोंके संयोग-वियोगका उपाय करे; परन्तु कुदेवको
माननेसे इष्ट-अनिष्टबुद्धि दूर नहीं होती, केवल वृद्धिको प्राप्त होती है; तथा उससे पुण्यबंध
भी नहीं होता, पापबंध होता है। तथा कुदेव किसीको धनादिक देते या छुड़ा लेते नहीं
देखे जाते, इसलिये ये बाह्य कारण भी नहीं हैं। इनकी मान्यता किस अर्थ की जाती है?
जब अत्यन्त भ्रमबुद्धि हो, जीवादि तत्त्वोंके श्रद्धान-ज्ञानका अंश भी न हो, और राग-द्वेषकी
अति तीव्रता हो; तब जो कारण नहीं हैं उन्हें भी इष्ट-अनिष्टका कारण मानते हैं, तब कुदेवोंकी
मान्यता होती है।
ऐसे तीव्र मिथ्यात्वादि भाव होने पर मोक्षमार्ग अति दुर्लभ हो जाता है।
कुगुरुका निरूपण और उसके श्रद्धानादिकका निषेध
आगे कुगुरुके श्रद्धानादिकका निषेध करते हैंः
जो जीव विषय-कषायादि अधर्मरूप तो परिणमित होते हैं, और मानादिकसे अपनेको
धर्मात्मा मानते हैं, धर्मात्माके योग्य नमस्कारादि क्रिया कराते हैं, अथवा किंचित् धर्मका कोई
अंग धारण करके बड़े धर्मात्मा कहलाते हैं, बड़े धर्मात्मा योग्य क्रिया कराते हैं
इस प्रकार
धर्मका आश्रय करके बड़ा मनवाते हैं, वे सब कुगुरु जानना; क्योंकि धर्मपद्धतिमें तो विषय-
कषायादि छूटने पर जैसे धर्मको धारण करे वैसा ही अपना पद मानना योग्य है।
कुलादि अपेक्षा गुरुपनेका निषेध
वहाँ कितने ही तो कुल द्वारा अपनेको गुरु मानते हैं। उनमें कुछ ब्राह्मणादिक तो
कहते हैंहमारा कुल ही ऊँचा है, इसलिये हम सबके गुरु हैं। परन्तु कुलकी उच्चता तो
धर्म साधनेसे है। यदि उच्च कुलमें होकर हीन आचरण करे तो उसे उच्च कैसे मानें? यदि
कुलमें उत्पन्न होनेसे ही उच्चपना रहे, तो मांसभक्षणादि करने पर भी उसे उच्च ही मानो;
सो वह बनता नहीं है। भारत ग्रन्थमें भी अनेक ब्राह्मण कहे हैं। वहाँ ‘‘जो ब्राह्मण होकर

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१७६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
चांडाल कार्य करे, उसे चांडाल ब्राह्मण कहना’’-ऐसा कहा है। यदि कुलसे ही उच्चपना हो
तो ऐसी हीन संज्ञा किसलिये दी है?
तथा वैष्णवशास्त्रोंमें ऐसा भी कहते हैंवेदव्यासादिक मछली आदिसे उत्पन्न हुए हैं।
वहाँ कुलका अनुक्रम किस प्रकार रहा? तथा मूल उत्पत्ति तो ब्रह्मासे कहते हैं; इसलिये सबका
एक कुल है, भिन्न कुल कैसे रहा? तथा उच्चकुलकी स्त्रीके नीचकुलके पुरुषसे व नीचकुलकी
स्त्रीके उच्चकुलके पुरुषसे संगम होनेसे सन्तति होती देखी जाती है; वहाँ कुलका प्रमाण किस
प्रकार रहा? यदि कदाचित् कहोगे
ऐसा है तो उच्चनीचकुलके विभाग किसलिये मानते
हो? सो लौकिक कार्योंमें असत्य प्रवृत्ति भी सम्भव है, धर्मकार्यमें तो असत्यता सम्भव नहीं
है; इसलिये धर्मपद्धतिमें कुल-अपेक्षा महन्तपना सम्भव नहीं है। धर्मसाधनसे ही महन्तपना होता
है। ब्राह्मणादि कुलोंमें महन्तपना है सो धर्मप्रवृत्तिसे है; धर्मप्रवृत्तिको छोड़कर हिंसादि पापमें
प्रवर्तनेसे महन्तपना किस प्रकार रहेगा?
तथा कोई कहते हैं किहमारे बड़े भक्त हुए हैं, सिद्ध हुए हैं, धर्मात्मा हुए हैं;
हम उनकी सन्ततिमें हैं, इसलिए हम गुरु हैं। परन्तु उन बड़ोंके बड़े तो ऐसे उत्तम थे
नहीं; यदि उनकी सन्ततिमें उत्तमकार्य करनेसे उत्तम मानते हो तो उत्तमपुरुषकी सन्ततिमें जो
उत्तमकार्य न करे, उसे उत्तम किसलिये मानते हो? शास्त्रोंमें व लोकमें यह प्रसिद्ध है कि
पिता शुभकार्य करके उच्चपद प्राप्त करता है, पुत्र अशुभकार्य करके नीचपदको प्राप्त करता
है; पिता अशुभ कार्य करके नीचपदको प्राप्त करता है, पुत्र शुभकार्य करके उच्चपदको प्राप्त
करता है। इसलिये बड़ोंकी अपेक्षा महन्त मानना योग्य नहीं है।
इस प्रकार कुल द्वारा गुरुपना मानना मिथ्याभाव जानना।
तथा कितने ही पट्ट द्वारा गुरुपना मानते हैं। पूर्वकालमें कोई महन्त पुरुष हुआ हो,
उसकी गादी पर जो शिष्यप्रतिशिष्य होते आये हों, उनमें उस महत्पुरुष जैसे गुण न होने
पर भी गुरुपना मानते हैं। यदि ऐसा ही हो तो उस गादीमें कोई परस्त्रीगमनादि महापापकार्य
करेगा वह भी धर्मात्मा होगा, सुगतिको प्राप्त होगा; परन्तु यह सम्भव नहीं है। और पापी
है तो गादीका अधिकार कहाँ रहा? जो गुरुपद योग्य कार्य करे वही गुरु है।
तथा कितने ही पहले तो स्त्री आदिके त्यागी थे; बादमें भ्रष्ट होकर विवाहादि कार्य
करके गृहस्थ हुए, उनकी सन्तति अपनेको गुरु मानती है; परन्तु भ्रष्ट होनेके बाद गुरुपना
किस प्रकार रहा? अन्य गृहस्थोंके समान यह भी हुए। इतना विशेष हुआ कि यह भ्रष्ट
होकर गृहस्थ हुए; इन्हें मूल गृहस्थधर्मी गुरु कैसे मानें?

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छठवाँ अधिकार ][ १७७
तथा कितने ही अन्य तो सर्व पापकार्य करते हैं एक स्त्रीसे विवाह नहीं करते और
इसी अंग द्वारा गुरुपना मानते हैं। परन्तु एक अब्रह्म ही तो पाप नहीं है, हिंसा, परिग्रहादिक
भी पाप हैं; उन्हें करते हुए धर्मात्मा-गुरु किस प्रकार मानें? तथा वह धर्मबुद्धिसे विवाहादिकका
त्यागी नहीं हुआ है; परन्तु किसी आजीविका व लज्जा आदि प्रयोजनके लिये विवाह नहीं
करता । यदि धर्मबुद्धि होती तो हिंसादिक किसलिये बढ़ाता? तथा जिसके धर्मबुद्धि नहीं है
उसके शीलकी भी दृढ़ता नहीं रहती, और विवाह नहीं करता तब परस्त्री
गमनादि महापाप
उत्पन्न करता है। ऐसी क्रिया होने पर गुरुपना मानना महा भ्रष्टबुद्धि है।
तथा कितने ही किसी प्रकारका भेष धारण करनेसे गुरुपना मानते हैं; परन्तु भेष
धारण करनेसे कौनसा धर्म हुआ कि जिससे धर्मात्मा-गुरु मानें? वहाँ कोई टोपी लगाते हैं,
कोई गुदड़ी रखते हैं, कोई चोला पहिनते हैं, कोई चादर ओढ़ते हैं, कोई लाल वस्त्र रखते
हैं, कोई श्वेत वस्त्र रखते हैं, कोई भगवा रखते हैं, कोई टाट पहिनते हैं, कोई मृगछाल
रखते हैं, कोई राख लगाते हैं
इत्यादि अनेक स्वांग बनाते हैं। परन्तु यदि शीत-उष्णादिक
नहीं सहे जाते थे, लज्जा नहीं छूटी थी, तो पगड़ी जामा इत्यादिक प्रवृत्तिरूप वस्त्रादिकका
त्याग किसलिये किया? उनको छोड़कर ऐसे स्वाँग बनानेमें कौनसा अंग हुआ? गृहस्थोंको
ठगनेके अर्थ ऐसे भेष जानना। यदि गृहस्थ जैसा अपना स्वाँग रखे तो गृहस्थ ठगे कैसे
जायेंगे? और इन्हें उनके द्वारा आजीविका व धनादिक व मानादिकका प्रयोजन साधना है;
इसलिये ऐसे स्वांग बनाते हैं। भोला जगत उस स्वाँगको देखकर ठगाता है और धर्म हुआ
मानता है; परन्तु यह भ्रम है। यही कहा हैः
जह कुवि वेस्सारत्तो मुसिज्जमाणो विमण्णए हरिसं
तह मिच्छवेसमुसिया गयं पि ण मुणंति धम्म-णिहिं।।।।
(उपदेशसिद्धान्तरत्नमाला)
अर्थःजैसे कोई वेश्यासक्त पुरुष धनादिकको ठगाते हुए भी हर्ष मानते हैं; उसी
प्रकार मिथ्याभेष द्वारा ठगे गये जीव नष्ट होते हुए धर्मधनको नहीं जानते हैं।
भावार्थःइन मिथ्याभेषवाले जीवोंकी सुश्रुषा आदिसे अपना धर्मधन नष्ट होता है
उसका विषाद नहीं है, मिथ्याबुद्धिसे हर्ष करते हैं। वहाँ कोई तो मिथ्याशास्त्रोंमें जो वेष
निरूपण किये हैं उनको धारण करते हैं; परन्तु उन शास्त्रोंके कर्ता पापियों ने सुगम क्रिया
करनेसे उच्चपद प्ररूपित करनेमें हमारी मान्यता होगी, अन्य जीव इस मार्गमें लग जायेंगे, इस
अभिप्रायसे मिथ्या
उपदेश दिया है। उसकी परम्परासे विचाररहित जीव इतना भी विचार

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१७८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
नहीं करते किसुगमक्रियासे उच्चपद होना बतलाते हैं सो यहाँ कुछ दगा है। भ्रमसे उनके
कहे हुए मार्गमें प्रवर्तते हैं।
तथा कोई शास्त्रोंमें तो कठिन मार्ग निरूपित किया है वह तो सधेगा नहीं और अपना
ऊँचा नाम धराये बिना लोग मानेंगे नहीं; इस अभिप्रायसे यति, मुनि, आचार्य, उपाध्याय,
साधु, भट्टारक, संन्यासी, योगी, तपस्वी, नग्न
इत्यादि नाम तो ऊँचा रखते हैं और इनके
आचारोंको साध नहीं सकते; इसलिये इच्छानुसार नाना वेष बनाते हैं। तथा कितने ही अपनी
इच्छानुसार ही नवीन नाम धारण करते हैं और इच्छानुसार ही वेष बनाते हैं।
इस प्रकार अनेक वेष धारण करनेसे गुरुपना मानते हैं; सो यह मिथ्या है।
यहाँ कोई पूछे कि
वेष तो बहुत प्रकारके दिखते हैं, उनमें सच्चे-झूठे वेषकी पहिचान
किस प्रकार होगी?
समाधानःजिन वेषोंमें विषय-कषायोंका किंचित् लगाव नहीं है वे वेष सच्चे हैं।
वे सच्चे वेष तीन प्रकारके हैं; अन्य सर्व वेष मिथ्या हैं।
वही ‘‘षट्पाहुड़’’में कुन्दकुन्दाचार्यने कहा हैः
एगं जिणस्स रूवं विदियं उक्किट्ठसावयाणं तु
अवरट्ठियाण तइयं चउत्थ पुण लिंगदंसणं णत्थि।।१८।। (दर्शनपाहुड़)
अर्थःएक तो जिनस्वरूप निर्ग्रंथ दिगम्बर मुनिलिंग, दूसरा उत्कृष्ट श्रावकोंका रूप
दशवीं, ग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावकका लिंग, तीसरा आर्यिकाओंका रूपयह स्त्रियोंका लिंग
ऐसे यह तीन लिंग तो श्रद्धानपूर्वक हैं तथा चौथा कोई लिंग सम्यग्दर्शन-स्वरूप नहीं है।
भावार्थः
इन तीन लिंगके अतिरिक्त अन्य लिंगको जो मानता है वह श्रद्धानी नहीं है,
मिथ्यादृष्टि है। तथा इन वेषियोंमें कितने ही वेषी अपने वेषकी प्रतीति करानेके अर्थ किंचित्
धर्मके अंगको भी पालते हैं। जिस प्रकार खोटा रुपया चलानेवाला उसमें चाँदीका अंश भी
रखता है; उसी प्रकार धर्मका कोई अंग दिखाकर अपना उच्चपद मानते हैं।
यहाँ कोई कहे किजो धर्मसाधन किया उसका तो फल होगा?
उत्तरःजिस प्रकार उपवासका नाम रखाकर कणमात्र भी भक्षण करे तो पापी है,
और एकात (एकाशन)का नाम रखाकर किंचित् कम भोजन करे तब भी धर्मात्मा है; उसी
प्रकार उच्च पदवीका नाम रखाकर उसमें किंचित् भी अन्यथा प्रवर्ते तो महापापी है, और
नीची पदवीका नाम रखकर किंचित् भी धर्मसाधन करे तो धर्मात्मा है। इसलिये धर्मसाधन

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छठवाँ अधिकार ][ १७९
तो जितना बने उतना ही करना, कुछ दोष नहीं है; परन्तु ऊँचा धर्मात्मा नाम रखकर नीचक्रिया
करनेसे महापाप ही होता है।
वही ‘‘षट्पाहुड़’’ में कुन्दकुन्दाचार्यने कहा हैः
जहजायरूवसरिसो तिलतुसमेत्तं ण गिहदि हत्थेसु
जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदम् ।।१८।। (सूत्रपाहुड़)
अर्थःमुनिपद वह यथाजातरूप सद्दश है। जैसा जन्म होते हुए था वैसा नग्न है।
सो वह मुनि अर्थ यानी धन-वस्त्रादिक वस्तुएँ उनमें तिलके तुषमात्र भी ग्रहण नहीं करता।
यदि कदाचित् अल्प
बहुत ग्रहण करे तो उससे निगोद जाता है।
सो यहाँ देखो, गृहस्थपनेमें बहुत परिग्रह रखकर कुछ प्रमाण करे तो भी स्वर्ग-मोक्षका
अधिकारी होता है और मुनिपनेमें किंचित् परिग्रह अंगीकार करने पर भी निगोदगामी होता
है। इसलिये ऊँचा नाम रखाकर नीची प्रवृत्ति युक्त नहीं है।
देखो, हुंडावसर्पिणी कालमें यह कलिकाल वर्त रहा है। इसके दोषसे जिनमतमें मुनिका
स्वरूप तो ऐसा है जहाँ बाह्याभ्यन्तर परिग्रहका लगाव नहीं है, केवल अपने आत्माका आपरूप
अनुभवन करते हुए शुभाशुभभावोंसे उदासीन रहते हैं; और अब विषय-कषायासक्त जीव मुनिपद
धारण करते हैं; वहाँ सर्व सावद्यके त्यागी होकर पंचमहाव्रतादि अंगीकार करते हैं, श्वेत-
रक्तादि वस्त्रोंको ग्रहण करते हैं, भोजनादिमें लोलुप होते हैं, अपनी पद्धति बढ़ानेके उद्यमी
होते हैं व कितने ही धनादिक भी रखते हैं, हिंसादिक करते हैं व नाना आरम्भ करते हैं।
परन्तु अल्प परिग्रह ग्रहण करनेका फल निगोद कहा है, तब ऐसे पापोंका फल तो अनन्त
संसार होगा ही होगा।
लोगोंकी अज्ञानता तो देखो, कोई एक छोटी भी प्रतिज्ञा भंग करे उसे तो पापी
कहते हैं और ऐसी बड़ी प्रतिज्ञा भंग करते देखकर भी गुरु मानते हैं, उनका मुनिवत्
सन्मानादिक करते हैं; सो शास्त्रमें कृत, कारित, अनुमोदनाका फल कहा है; इसलिये उनको
भी वैसा ही फल लगता है।
मुनिपद लेनेका क्रम तो यह हैपहले तत्त्वज्ञान होता है, पश्चात् उदासीन परिणाम
होते हैं, परिषहादिक सहनेकी शक्ति होती है; तब वह स्वयमेव मुनि होना चाहता है और
तब श्रीगुरु मुनिधर्म अंगीकार कराते हैं।
यह कैसी विपरीतता है कितत्त्वज्ञानरहित विषय-कषायासक्त जीवोंको मायासे व लोभ
दिखाकर मुनिपद देना, पश्चात् अन्यथा प्रवृत्ति कराना; सो यह बड़ा अन्याय है।

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१८० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
इस प्रकार कुगुरुका व उनके सेवनका निषेध किया।
अब इस कथनको दृढ़ करनेके लिये शास्त्रोंकी साक्षी देते हैं।
वहाँ ‘‘उपदेशसिद्धान्तरत्नमाला’’में ऐसा कहा हैः
गुरुणो भट्टा जाया सद्दे थुणि ऊण लिंति दाणाइं
दोण्णवि अमुणियसारा दूसमिसमयम्मि बुड्ढंति।।३१।।
कालदेषसे गुरु जा हैं वे तो भाट हुए; भाटवत् शब्द द्वारा दातारकी स्तुति करके
दानादि ग्रहण करते हैं। सो इस दुःषमकालमें दोनों हीदातार व पात्रसंसारमें डूबते हैं।
तथा वहाँ कहा हैः
सप्पे दिट्ठे णासइ लोओ णहि कोवि किंपि अक्खेइ
जो चयइ कुगुरु सप्पं हा मूढा भणइ तं दुट्ठं।।३६।।
अर्थःसर्पको देखकर कोई भागे, उसे तो लोग कुछ भी नहीं कहते। हाय हाय!
देखो तो, जो कुगुरु सर्पको छोड़ते हैं उसे मूढ़लोग दुष्ट कहते हैं, बुरा बोलते हैं।
सप्पो इक्कं मरणं कुगुरु अणंताइ देह मरणाईं
तो वर सप्पं गहियं मा कुगुरु सेवणं भद्दं।।३७।।
अहो, सर्प द्वारा तो एकबार मरण होता है और कुगुरु अनन्त मरण देता है
अनन्तबार जन्म-मरण कराता है। इसलिये हे भद्र, सर्पका ग्रहण तो भला और कुगुरु-सेवन
भला नहीं है।
वहाँ और भी गाथाएँ यह श्रद्धान दृढ़ करनेको बहुत कही हैं, सो उस ग्रन्थसे जान
लेना।
तथा ‘‘संघपट्ट’’ में ऐसा कहा हैः
क्षुत्क्षामः किल कोपि रंकशिशुकः प्रवृज्य चैत्ये क्वचित्
कृत्वा किंचनपक्षमक्षतकलिः प्राप्तस्तदाचार्यकम्
चित्रं चैत्यगृहे गृहीयति निजे गच्छे कुटुम्बीयति
स्वं शक्रीयति बालिशीयति बुधान् विश्व वराकीयति
।।
अर्थःदेखो, क्षुधासे कृश किसी रंकका बालक कहीं चैत्यालयादिमें दीक्षा धारण करके,
पापरहित न होता हुआ किसी पक्ष द्वारा आचार्यपदको प्राप्त हुआ। वह चैत्यालयमें अपने
गृहवत् प्रवर्तता है, निजगच्छमें कुटुम्बवत् प्रवर्तता है, अपनेको इन्द्रवत् महान मानता है,

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छठवाँ अधिकार ][ १८१
ज्ञानियोंको बालकवत् अज्ञानी मानता है, सर्व गृहस्थोंको रंकवत् मानता है; सो यह बड़ा आश्चर्य
हुआ है।
तथा ‘‘यैर्जातो न च वर्द्धितो न च क्रीतो’’ इत्यादि काव्य है; उसका अर्थ ऐसा है
जिनसे जन्म नहीं हुआ है, बढ़ा नहीं है, मोल नहीं लिया है, देनदार नहीं हुआ हैइत्यादिक
कोई प्रकार सम्बन्ध नहीं है; और गृहस्थोंको वृषभवत् हाँकते हैं, जबरदस्ती दानादिक लेते
हैं; सो हाय हाय! यह जगत् राजासे रहित है, कोई न्याय पूछने वाला नहीं है।
इस प्रकार वहाँ श्रद्धानके पोषक काव्य हैं सो उस ग्रन्थसे जानना।
यहाँ कोई कहता है
यह तो श्वेताम्बरविरचित् उपदेश है, उसकी साक्षी किसलिये दी?
उत्तरःजैसे नीचा पुरुष जिसका निषेध करे, उसका उत्तम पुरुषके तो सहज ही
निषेध हुआ; उसी प्रकार जिनके वस्त्रादिक उपकरण कहे वे ही जिसका निषेध करें, तब
दिगम्बर धर्ममें तो ऐसी विपरीतताका सहज ही निषेध हुआ।
तथा दिगम्बर ग्रन्थोंमें भी इसी श्रद्धानके पोषक वचन हैं।
वहाँ श्री कुन्दकुन्दाचार्यकृत ‘‘षट्पाहुड़’’ में ऐसा कहा हैः
दंसणमूलो धम्मो उवइट्ठो जिणवरेहिं सिस्साणं
तं सोऊण सकण्णे दंसणहीणो ण वंदिव्वो।।।। (दर्शनपाहुड़)
अर्थःसम्यग्दर्शन है मूल जिसका ऐसा जिनवर द्वारा उपदेशित धर्म है; उसे सुनकर
हे कर्णसहित पुरुषो! यह मानो किसम्यक्त्वरहित जीव वंदना योग्य नहीं है। जो आप
कुगुरु है उस कुगुरुके श्रद्धान सहित सम्यक्त्वी कैसे हो सकता है? बिना सम्यक्त्व अन्य
धर्म भी नहीं होता। धर्मके बिना वंदने योग्य कैसे होगा?
फि र कहते हैंः
जे दंसणेसु भट्ठा णाणे भट्ठा चरित्तभट्ठा य
एदे भट्ठा वि भट्ठ सेसं पि जणं विणासंति।।।। (दर्शनपाहुड़)
जो दर्शनमें भ्रष्ट हैं, ज्ञानमें भ्रष्ट हैं, चारित्र-भ्रष्ट हैं; वे जीव भ्रष्टसे भ्रष्ट हैं; और
भी जीव जो उनका उपदेश मानते हैं उन जीवोंका नाश करते हैं, बुरा करते हैं।
फि र कहते हैंः
जे दंसणेसु भट्ठा पाए पाडंति दंसणधराणं
ते होंति लल्लमूआ बोही पुण दुल्लहा तेसिं।।१२।। (दर्शनपाहुड़)

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१८२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
जो आप तो सम्यक्त्वसे भ्रष्ट हैं और सम्यक्त्वधारियोंको अपने पैरों पड़वाना चाहते हैं,
वे लूले-गूँगे होते हैं अर्थात् स्थावर होते हैं तथा उनके बोधकी प्राप्ति महादुर्लभ होती है।
जे वि पडंति च तेसिं जाणंता लज्जागारवभयेण
तेसिं पि णत्थि बोही पावं अणुमोयमाणाणं।।१३।। (दर्शनपाहुड़)
जो जानते हुए भी लज्जा, गारव और भयसे उनके पैरों पड़ते हैं उनके भी बोधि
अर्थात् सम्यक्त्व नहीं है। कैसे हैं वे जीव? पापकी अनुमोदना करते हैं। पापियोंका
सन्मानादिक करनेसे भी उस पापकी अनुमोदनाका फल लगता है।
तथा कहते हैंः
जस्स परिग्गहगहणं अप्पं बहुयं च हवइ लिंगस्स
सो गरहिउ जिणवयणे परिगहरहिओ णिरायारो।।१९।। (सूत्रपाहुड़)
जिस लिंगके थोड़ा व बहुत परिग्रहका अंगीकार हो वह जिनवचनमें निन्दा योग्य है।
परिग्रह रहित ही अनगार होता है।
तथा कहते हैंः
धम्मम्मि णिप्पवासो दोसावासो य इच्छुफु ल्लसमो
णिप्फलणिग्गुणयारो णडसवणो णग्गरूबेण।।७१।। (भावपाहुड़)
अर्थःजो धर्ममें निरुद्यमी है, दोषोंका घर है, इक्षुफू ल समान निष्फल है, गुणके
आचरणसे रहित है; वह नग्नरूपसे नट-श्रमण है, भांडवत् वेशधारी है। अब, नग्न होने
पर भांडका दृष्टांत सम्भव है; परिग्रह रखे तो यह दृष्टान्त भी नहीं बनता।
जे पावमोहियमई लिंगं घेत्तू ण जिणवरिंदाणं
पावं कुणंति पावा ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि।।७८।। (मोक्षपाहुड़)
अर्थःपापसे मोहित हुई है बुद्धि जिनकी; ऐसे जो जीव जिनवरोंका लिंग धारण
करके पाप करते हैं, वे पापमूर्ति मोक्षमार्गमें भ्रष्ट जानना।
तथा ऐसा कहा हैः
जे पंचचेलसत्ता गंथग्गाही य जायणासीला
आधाकम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि।।७९।। (मोक्षपाहुड़)
अर्थःजो पंचप्रकार वस्त्रमें आसक्त हैं, परिग्रहको ग्रहण करानेवाले हैं, याचनासहित
हैं, अधःकर्म दोषोंमें रत हैं; उन्हें मोक्षमार्गमें भ्रष्ट जानना।