Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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दूसरा अधिकार ][ २३
ऐसा आगममें कहा है तथा युक्तिसे भी ऐसा ही संभव है किकर्मके निमित्त बिना
पहले जीवको रागादिक कहे जायें तो रागादिक जीवका एक स्वभाव हो जायें; क्योंकि
परनिमित्तके बिना हो उसीका नाम स्वभाव है।
इसलिये कर्मका सम्बन्ध अनादि ही मानना।
यहाँ प्रश्न है कि
न्यारे-न्यारे द्रव्य और अनादिसे उनका सम्बन्धऐसा कैसे संभव है?
समाधान :जैसे मूल ही से जलदूधका, सोनाकिट्टिकका, तुषकणका तथा
तेलतिलका सम्बन्ध देखा जाता है, नवीन इनका मिलाप हुआ नहीं है; वैसे ही अनादिसे
जीवकर्मका सम्बन्ध जानना, नवीन इनका मिलाप हुआ नहीं है। फि र तुमने कहा‘कैसे
संभव है?’ अनादिसे जिस प्रकार कई भिन्न द्रव्य हैं, वैसे ही कई मिले द्रव्य हैं; इस प्रकार
संभव होनेमें कुछ विरोध तो भासित नहीं होता।
फि र प्रश्न है किसम्बन्ध अथवा संयोग कहना तो तब संभव है जब पहले भिन्न
हों और फि र मिलें। यहाँ अनादिसे मिले जीव-कर्मोंका सम्बन्ध कैसे कहा है?
समाधान :अनादिसे तो मिले थे; परन्तु बादमें भिन्न हुए तब जाना कि भिन्न थे
तो भिन्न हुए, इसलिये पहले भी भिन्न ही थेइस प्रकार अनुमानसे तथा केवलज्ञानसे प्रत्यक्ष
भिन्न भासित होते हैं। इससे, उनका बन्धन होने पर भी भिन्नपना पाया जाता है। तथा
उस भिन्नताकी अपेक्षा उनका सम्बन्ध अथवा संयोग कहा है; क्योंकि नये मिले, या मिले
ही हों, भिन्न द्रव्योंके मिलापमें ऐसे ही कहना संभव है।
इस प्रकार इन जीव-कर्मका अनादि सम्बन्ध है।
जीव और कर्मों की भिन्नता
वहाँ जीवद्रव्य तो देखने-जाननेरूप चेतनागुणका धारक है तथा इन्द्रियगम्य न होने
योग्य अमूर्त्तिक है, संकोच-विस्तार शक्तिसहित असंख्यातप्रदेशी एकद्रव्य है। तथा कर्म है वह
चेतनागुणरहित जड़ है और मूर्त्तिक है, अनन्त पुद्गलपरमाणुओंका पिण्ड है, इसलिए एकद्रव्य
नहीं है। इस प्रकार ये जीव और कर्म हैं
इनका अनादिसम्बन्ध है, तो भी जीवका कोई
प्रदेश कर्मरूप नहीं होता और कर्मका कोई परमाणु जीवरूप नहीं होता; अपने-अपने लक्षणको
धारण किये भिन्न-भिन्न ही रहते हैं। जैसे सोने-चाँदीका एक स्कंध हो, तथापि पीतादि गुणोंको
धारण किए सोना भिन्न रहता है और श्वेतादि गुणोंको धारण किये चाँदी भिन्न रहती है
वैसे भिन्न जानना।

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२४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
अमूर्तिक आत्मासे मूर्तिक कर्मोंका बंधान किस प्रकार होता है?
यहाँ प्रश्न है किमूर्तिक-मूर्तिकका तो बंधान होना बने, अमूर्तिक-मूर्तिकका बंधान
कैसे बने?
समाधानःजिस प्रकार व्यक्तइन्द्रियगम्य नहीं हैं, ऐसे सूक्ष्म पुद्गल तथा व्यक्त-
इन्द्रियगम्य हैं, ऐसे स्थूल पुद्गलउनका बंधान होना मानते हैं; उसी प्रकार जो इन्द्रियगम्य
होने योग्य नहीं है, ऐसा अमूर्तिक आत्मा और इन्द्रियगम्य होने योग्य मूर्तिक कर्मइनका
भी बंधान होना मानना। तथा इस बंधानमें कोई किसीको करता तो है नहीं। जब तक
बंधान रहे तब तक साथ रहें
बिछुड़ें नहीं और कारण-कार्यपना उनके बना रहे; इतना ही
यहाँ बंधान जानना। सो मूर्तिक-अमूर्तिकके इस प्रकार बंधान होनेमें कुछ विरोध है नहीं।
इस प्रकार जैसे एक जीवको अनादि कर्मसम्बन्ध कहा उसी प्रकार भिन्न-भिन्न अनंत
जीवों के जानना।
घाति-अघाति कर्म और उनका कार्य
तथा वे कर्म ज्ञानावरणादि भेदोंसे आठ प्रकारके हैं। वहाँ चार घातिया कर्मोंके निमित्तसे
तो जीवके स्वभावका घात होता है। ज्ञानावरण-दर्शनावरणसे तो जीवके स्वभाव जो ज्ञान-
दर्शन उनकी व्यक्त्तता नहीं होती; उन कर्मोंके क्षयोपशमके अनुसार किंचित् ज्ञान-दर्शनकी
व्यक्त्तता रहती है। तथा मोहनीयसे जो जीवके स्वभाव नहीं हैं ऐसे मिथ्याश्रद्धान व क्रोध,
मान, माया, लोभादिक कषाय उनकी व्यक्त्तता होती है। तथा अन्तरायसे जीवका स्वभाव,
दीक्षा लेने की सामर्थ्यरूप वीर्य उसकी व्यक्त्तता नहीं होती; उसके क्षयोपशमके अनुसार किंचित्
शक्ति होती है।
इस प्रकार घातिया कर्मोके निमित्तसे जीवके स्वभावका घात अनादि ही से हुआ है।
ऐसा नहीं है कि पहले तो स्वभावरूप शुद्ध आत्मा था, पश्चात् कर्म-निमित्तसे स्वभावघात होनेसे
अशुद्ध हुआ।
यहाँ तर्क है किघात नाम तो अभावका है; सो जिसका पहले सद्भाव हो उसका
अभाव कहना बनता है। यहाँ स्वभावका तो सद्भाव है ही नहीं, घात किसका किया?
समाधान :जीवमें अनादि ही से ऐसी शक्ति पायी जाती है कि कर्मका निमित्त न
हो तो केवलज्ञानादि अपने स्वभावरूप प्रवर्तें; परन्तु अनादि ही से कर्मका सम्बन्ध पाया जाता
है, इसलिये उस शक्तिकी व्यक्तता नहीं हुई। अतः शक्ति-अपेक्षा स्वभाव है, उसका व्यक्त्त
न होने देनेकी अपेक्षा घात किया कहते हैं।

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दूसरा अधिकार ][ २५
तथा चार अघातिया कर्म हैं, उनके निमित्तसे इस आतमाको बाह्य सामग्रीका सम्बन्ध
बनता है। वहाँ वेदनीयसे तो शरीरमें अथवा शरीरसे बाह्य नानाप्रकार सुख-दुःखके कारण
परद्रव्योंका संयोग जुड़ता है; आयुसे अपनी स्थिति-पर्यन्त प्राप्त शरीरका सम्बन्ध नहीं छूट
सकता; नामसे गति, जाति, शरीरादिक उत्पन्न होते हैं; और गोत्रसे उच्च-नीच कुलकी प्राप्ति
होती है।
इस प्रकार अघाति कर्मोंसे बाह्य सामग्री एकत्रित होती है, उसके द्वारा मोहउदयका
सहकार होने पर जीव सुखी-दुःखी होता है। और शरीरादिकके सम्बन्धसे जीवके
अमूर्त्तत्वादिस्वभाव अपने स्व-अर्थको नहीं करते
जैसे कोई शरीरको पकड़े तो आत्मा भी
पकड़ा जाये। तथा जब तक कर्मका उदय रहता है तब तक बाह्य सामग्री वैसी ही बनी
रहे, अन्यथा नहीं हो सके
ऐसा इन अघाति कर्मोंका निमित्त जानना।
निर्बल जड़ कर्मों द्वारा जीवके स्वभावका घात तथा बाह्य सामग्री मिलना
यहाँ कोई प्रश्न करे किकर्म तो जड़ हैं, कुछ बलवान नहीं हैं; उनसे जीवके
स्वभावका घात होना व बाह्य सामग्रीका मिलना कैसे संभव है?
समाधानःयदि कर्म स्वयं कर्त्ता होकर उद्यमसे जीवके स्वभावका घात करे, बाह्य
सामग्रीको मिलावे तब तो कर्मके चेतनापना भी चाहिये और बलवानपना भी चाहिये; सो तो
है नहीं, सहज ही निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। जब उन कर्मोंका उदयकाल हो; उसकालमें
स्वयं ही आत्मा स्वभावरूप परिणमन नहीं करता, विभावरूप परिणमन करता है, तथा जो
अन्य द्रव्य हैं वै वैसे ही सम्बन्धरूप होकर परिणमित होते हैं।
जैसेकिसी पुरुषके सिर पर मोहनधूल पड़ी है उससे वह पुरुष पागल हुआ; वहाँ
उस मोहनधूलको ज्ञान भी नहीं था और बलवानपना भी नहीं था, परन्तु पागलपना उस
मोहनधूल ही से हुआ देखते हैं। वहाँ मोहनधूलका तो निमित्त है और पुरुष स्वयं ही पागल
हुआ परिणमित होता है
ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक बन रहा है।
तथा जिस प्रकार सूर्यके उदयके कालमें चकवा-चकवियोंका संयोग होता है; वहाँ रात्रिमें
किसीने द्वेषबुद्धिसे बलजबरी करके अलग नहीं किये हैं, दिनमें किसीने करुणाबुद्धिसे लाकर
मिलाये नहीं हैं, सूर्योदयका निमित्त पाकर स्वयं ही मिलते हैं। ऐसा निमित्त-नैमित्तिक बन
रहा है। उस ही प्रकार कर्मका भी निमित्त-नैमित्तिक भाव जानना।
इस प्रकार कर्मके उदयसे
अवस्था है।

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२६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
नवीन बन्ध विचार
वहाँ नवीन बन्ध कैसे होता है सो कहते हैंः-जैसे सूर्यका प्रकाश है सो मेघपटलसे
जितना व्यक्त्त नहीं है उतनेका तो उस कालमें अभाव है, तथा उस मेघपटलके मन्दपनेसे
जितना प्रकाश प्रगट है वह उस सूर्यके स्वभावका अंश है
मेघपटलजनित नहीं है। उसी
प्रकार जीवका ज्ञान-दर्शन-वीर्य स्वभाव है; वह ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तरायके निमित्तसे
जितना व्यक्त्त नहीं है उतनेका तो उस कालमें अभाव है। तथा उन कर्मोंके क्षयोपशमसे
जितने ज्ञान, दर्शन, वीर्य प्रगट हैं वह उस जीवके स्वभावका अंश ही है, कर्मजनित
औपाधिकभाव नहीं है। सो ऐसे स्वभावके अंशका अनादिसे लेकर कभी अभाव नहीं होता।
इस ही के द्वारा जीवके जीवत्वपने का निश्चय किया जाता है कि यह देखनेवाली जाननेवाली
शक्तिको धरती हुई वस्तु है वही आत्मा है।
तथा इस स्वभावसे नवीन कर्मका बन्ध नहीं होता; क्योंकि निजस्वभाव ही बन्धका
कारण हो तो बन्धका छूटना कैसे हो? तथा उन कर्मोंके उदयसे जितने ज्ञान, दर्शन, वीर्य
अभावरूप हैं उनसे भी बन्ध नहीं है; क्योंकि स्वयं ही का अभाव होने पर अन्यको कारण
कैसे हों? इसलिये ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तरायके निमित्तसे उत्पन्न भाव नवीन कर्मबन्धके
कारण नहीं हैं।
तथा मोहनीय कर्मके द्वारा जीवको अयथार्थ-श्रद्धानरूप मिथ्यात्वभाव होता है तथा क्रोध,
मान, माया, लोभादिक कषाय होते हैं। वे यद्यपि जीवके अस्तित्वमय हैं, जीवसे भिन्न नहीं
हैं, जीव ही उनका कर्त्ता है, जीवके परिणमनरूप ही वे कार्य हैं; तथापि उनका होना मोहकर्मके
निमित्तसे ही है, कर्मनिमित्त दूर होने पर उनका अभाव ही होता है, इसलिये वे जीवके
निजस्वभाव नहीं, औपाधिक भाव हैं। तथा उन भावों द्वारा नवीन बन्ध होता है; इसलिये
मोहके उदयसे उत्पन्न भाव बन्धके कारण हैं।
तथा अघातिकर्मोंके उदयसे बाह्य सामग्री मिलती है, उसमें शरीरादिक तो जीवके
प्रदेशोंसे एकक्षेत्रावगाही होकर एक बंधानरूप होते हैं और धन, कुटुम्बादिक आत्मासे भिन्नरूप
हैं, इसलिये वे सब बन्धके कारण नहीं हैं; क्योंकि परद्रव्य बन्धका कारण नहीं होता। उनमें
आत्माको ममत्वादिरूप मिथ्यात्वादिभाव होते हैं वही बन्धका कारण जानना।
योग और उससे होनेवाले प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध
तथा इतना जानना कि नामकर्मके उदयसे शरीर, वचन और मन उत्पन्न होते हैं; उनकी
चेष्टाके निमित्तसे आत्माके प्रदेशोंका चंचलपना होता है, उससे आत्मा को पुद्गलवर्गणासे एक

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बन्धान होनेकी शक्ति होती है, उसका नाम योग है। उसके निमित्तसे प्रति समय कर्मरूप
होने योग्य अनन्त परमाणुओं का ग्रहण होता है। वहाँ अल्पयोग हो तो थोड़े परमाणुओंका
ग्रहण होता है और बहुत योग हो तो बहुत परमाणुओंका ग्रहण होता है। तथा एक समयमें
जो पुद्गलपरमाणु ग्रहण करे उनमें ज्ञानावरणादि मूलप्रकृतियोंका और उनकी उत्तरप्रकृतियोंका
जैसे सिद्धान्तमें कहा वैसे बटवारा होता है। उस बटवारेके अनुसार परमाणु उन प्रकृतियोंरूप
स्वयं ही परिणमित होते हैं।
विशेष इतना कि योग दो प्रकारका हैशुभयोग, अशुभयोग। वहाँ धर्मके अंगोंमें
मन-वचन-कायकी प्रवृत्ति होने पर तो शुभयोग होता है और अधर्मके अंगोंमें उनकी प्रवृत्ति
होने पर अशुभयोग होता है। वहाँ शुभयोग हो या अशुभयोग हो, सम्यक्त्व प्राप्त किये
बिना घातियाकर्मोंकी तो सर्व प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता ही रहता है। किसी समय किसी
भी प्रकृतिका बन्ध हुए बिना नहीं रहता। इतना विशेष है कि मोहनीयके हास्य-शोक युगलमें,
रति-अरति युगलमें, तीनों वेदोंमें एक कालमें एक-एक ही प्रकृतिका बन्ध होता है।
तथा अघातियाकर्मोंकी प्रकृतियोंमें शुभयोग होने पर सातावेदनीय आदि पुण्यप्रकृतियोंका
बन्ध होता है, अशुभयोग होने पर असातावेदनीय आदि पापप्रकृतियोंका बन्ध होता है, मिश्रयोग
होने पर कितनी ही पुण्यप्रकृतियोंका तथा कितनी ही पापप्रकृतियोंका बन्ध होता है।
इस प्रकार योगके निमित्तसे कर्मोंका आगमन होता है। इसलिये योग है वह आस्रव
है। तथा उसके द्वारा ग्रहण हुए कर्मपरमाणुओंका नाम प्रदेश है, उनका बन्ध हुआ और
उनमें मूल-उत्तर प्रकृतियोंका विभाग हुआ; इसलिये योगों द्वारा प्रदेशबन्ध तथा प्रकृतिबन्धका
होना जानना।
कषायसे स्थिति और अनुभाग बन्ध
तथा मोहके उदयसे मिथ्यात्व क्रोधादिक भाव होते हैं, उन सबका नाम सामान्यतः
कषाय है। उससे उन कर्मप्रकृतियों की स्थिति बँधती है। वहाँ जितनी स्थिति बँधे उसमें
आबाधाकालको छोड़कर पश्चात् जब तक बँधी स्थिति पूर्ण हो तब तक प्रति समय उस
प्रकृति का उदय आता ही रहता है। वहाँ देव-मनुष्य-तिर्यंचायुके बिना अन्य सर्व घातिया-
अघातिया प्रकृतियोंका, अल्प कषाय होने पर थोड़ा स्थितिबन्ध होता है, बहुत कषाय होने
पर बहुत स्थितिबन्ध होता है। इन तीन आयुका अल्प कषायसे बहुत और बहुत कषायसे
अल्प स्थितिबन्ध जानना।

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२८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा उस कषाय द्वारा ही उन कर्मप्रकृतियोंमें अनुभाग शक्तिका विशेष होता है।
वहाँ जैसा अनुभागबन्ध हो वैसा ही उदयकालमें उन प्रकृतियोंका बहुत या थोड़ा फल उत्पन्न
होता है। वहाँ घाति कर्मोंकी सर्वप्रकृतियोंमें तथा अघाति कर्मोंकी पापप्रकृतियोंमें तो अल्प
कषाय होने पर अल्प अनुभाग बँधता है, बहुत कषाय होने पर बहुत अनुभाग बँधता है;
तथा पुण्य-प्रकृतियोंमें अल्प कषाय होने पर बहुत अनुभाग बँधता है, बहुत कषाय होने पर
थोड़ा अनुभाग बँधता है।
इस प्रकार कषायों द्वारा कर्मप्रकृतियोंके स्थितिअनुभागका विशेष हुआ; इसलिये
कषायों द्वारा स्थितिबन्ध, अनुभागबन्धका होना जानना।
यहाँ जिस प्रकार बहुत मदिरा भी है और उसमें थोड़े कालपर्यन्त थोड़ी उन्मत्तता
उत्पन्न करने की शक्ति हो तो वह मदिरा हीनपनेको प्राप्त है, तथा यदि थोड़ी भी मदिरा
है और उसमें बहुत कालपर्यन्त बहुत उन्मत्तता उत्पन्न करनेकी शक्ति है तो वह मदिरा
अधिकपनेको प्राप्त है; उसी प्रकार बहुत भी कर्मप्रकृतियों के परमाणु हैं और उनमें थोड़े
कालपर्यन्त थोड़ा फल देनेकी शक्ति है तो वे कर्मप्रकृतियाँ हीनताको प्राप्त हैं, तथा थोड़े भी
कर्मप्रकृतियोंके परमाणु हैं और उनमें बहुत कालपर्यन्त बहुत फल देनेकी शक्ति है, तो वे
कर्मप्रकृतियाँ अधिकपनेको प्राप्त हैं।
इसलिए योगों द्वारा हुए प्रकृतिबन्धप्रदेशबन्ध बलवान् नहीं हैं, कषायों द्वारा किया
गया स्थितिबन्ध अनुभागबन्ध ही बलवान् है; इसलिये मुख्यरूपसे कषायको ही बन्धका कारण
जानना। जिन्हें बन्ध नहीं करना हो वे कषाय नहीं करें।
ज्ञानहीन जड़पुद्गल परमाणुओंका यथायोग्य प्रकृतिरूप परिणमन
अब यहाँ कोई प्रश्न करे किपुद्गल परमाणु तो जड़ हैं; उन्हें कुछ ज्ञान नहीं
हैं; तो वे कैसे यथायोग्य प्रकृतिरूप होकर परिणमन करते हैं?
समाधानःजैसे भूख होने पर मुख द्वारा ग्रहण किया हुआ भोजनरूप पुद्गलपिण्ड
मांस, शुक्र, शोणित आदि धातुरूप परिणमित होता है। तथा उस भोजनके परमाणुओंमें
यथायोग्य किसी धातुरूप थोड़े और किसी धातुरूप बहुत परमाणु होते हैं। तथा उनमें कई
परमाणुओंका सम्बन्ध बहुत काल रहता है, कइयोंका थोड़े काल रहता है। तथा उन
परमाणुओंमें कई तो अपने कार्यको उत्पन्न करनेकी बहुत शक्ति रखते हैं, कई थोड़ी शक्ति
रखते हैं। वहाँ ऐसा होनेमें कोई भोजनरूप पुद्गलपिण्डको ज्ञान तो नहीं है कि मैं इस
प्रकार परिणमन करूँ तथा और भी कोई परिणमन करानेवाला नहीं है; ऐसा ही निमित्त-
नैमित्तिकभाव हो रहा है, उससे वैसे ही परिणमन पाया जाता है।

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दूसरा अधिकार ][ २९
उसी प्रकार कषाय होने पर योगद्वारसे किया हुआ कर्मवर्गणारूप पुद्गलपिण्ड
ज्ञानावरणादि प्रकृतिरूप परिणमित होता है। तथा उन कर्मपरमाणुओंमें यथायोग्य किसी
प्रकृतिरूप थोड़े और किसी प्रकृतिरूप बहुत परमाणु होते हैं। तथा उनमें कई परमाणुओंका
सम्बन्ध बहुत काल और कइयोंका थोड़े काल रहता है। तथा उन परमाणुओंमें कई तो
अपने कार्यको उत्पन्न करनेकी बहुत शक्ति रखते हैं और कई थोड़ी शक्ति रखते हैं। वहाँ
ऐसा होनेमें किसी कर्मवर्गणारूप पुद्गलपिण्डको ज्ञान तो है नहीं कि मैं इस प्रकार परिणमन
करूँ तथा और भी कोई परिणमन करानेवाला नहीं है; ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक भाव बन
रहा है, उससे वैसे ही परिणमन पाया जाता है।
ऐसे तो लोकमें निमित्त-नैमित्तिक बहुत ही बन रहे हैं। जैसे मंत्रनिमित्तसे जलादिकमें
रोगादि दूर करनेकी शक्ति होती है तथा कंकरी आदिमें सर्पादि रोकनेकी शक्ति होती है; उसी
प्रकार जीवभावके निमित्तसे पुद्गलपरमाणुओंमें ज्ञानावरणादिरूप शक्ति होती है। यहाँ विचार
कर अपने उद्यमसे कार्य करे तो ज्ञान चाहिये, परन्तु वैसा निमित्त बनने पर स्वयमेव वैसे
परिणमन हो तो वहाँ ज्ञानका कुछ प्रयोजन नहीं है।
इस प्रकार नवीन बन्ध होनेका विधान जानना।
सत्तारूप कर्मोंकी अवस्था
अब, जो परमाणु कर्मरूप परिणमित हुए हैं, उनका जब तक उदयकाल न आये
तब तक जीवके प्रदेशोंसे एकक्षेत्रावगाहरूप बंधान रहता है। वहाँ जीवभावके निमित्तसे कई
प्रकृतियोंकी अवस्थाका पलटना भी हो जाता है। वहाँ कई अन्य प्रकृतियोंके परमाणु थे
वे संक्रमणरूप होकर अन्य प्रकृतियोंके परमाणु हो जायें। तथा कई प्रकृतियोंकी स्थिति और
अनुभाग बहुत थे सो अपकर्षण होकर थोड़े हो जायें, तथा कई प्रकृतियोंकी स्थिति एवं
अनुभाग थोड़े थे सो उत्कर्षण होकर बहुत हो जायें। इस प्रकार पूर्वमें बँधे हुए परमाणुओंकी
भी जीवभावोंका निमित्त पाकर अवस्था पलटती है और निमित्त न बने तो नहीं पलटे, ज्योंकी
त्यों रहे।
इस प्रकार सत्तारूप कर्म रहते हैं।
कर्मोंकी उदयरूप अवस्था
तथा जब कर्मप्रकृतियोंका उदयकाल आये तब स्वयमेव उन प्रकृतियोंके अनुभागके
अनुसार कार्य बने, कर्म उन कार्योंको उत्पन्न नहीं करते। उनका उदयकाल आने पर वह
कार्य बनता है
इतना ही निमित्त-नैमित्तिक संबंध जानना। तथा जिस समय फल उत्पन्न

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३० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
हुआ उसके अनन्तर समयमें उन कर्मरूप पुद्गलोंको अनुभाग शक्तिका अभाव होनेसे
कर्मत्वपनेका अभाव होता है, वे पुद्गल अन्य पर्यायरूप परिणमित होते हैं
इसका नाम
सविपाक निर्जरा है।
इस प्रकार प्रति समय उदय होकर कर्म खिरते हैं।
कर्मत्वपनेकी नास्ति होनेके पीछे वे परमाणु उसी स्कंधमें रहें या अलग हो जायें, कुछ
प्रयोजन नहीं रहता। यहाँ इतना जानना किःइस जीवको प्रति समय अनन्त परमाणु बँधते
हैं; वहाँ एक समयमें बँधे हुए परमाणु आबाधाकालको छोड़कर अपनी स्थितिके जितने समय
हों उनमें क्रमसे उदयमें आते हैं। तथा बहुत समयोंमें बँधे परमाणु जो कि एक समयमें उदय
आने योग्य हैं वे इकट्ठे होकर उदयमें आते हैं। उन सब परमाणुओंका अनुभाग मिलकर जितना
अनुभाग हो उतना फल उस कालमें उत्पन्न होता है। तथा अनेक समयोंमें बँधे परमाणु बंधसमयसे
लेकर उदयसमय पर्यन्त कर्मरूप अस्तित्वको धारण कर जीवसे सम्बन्धस्वरूप रहते हैं।
इसप्रकार कर्मोंकी बन्धउदयसत्तारूप अवस्था जानना। वहाँ प्रतिसमय एक
समयप्रबद्धमात्र परमाणु बँधते हैं तथा एकसमयप्रबद्धमात्रकी निर्जरा होती। ड़ेढ-गुणहानिसे गुणित
समयप्रबद्धमात्र सदाकाल सत्तामें रहते हैं।
सो इन सबका विशेष आगे कर्म अधिकारमें लिखेंगे वहाँसे जानना।
द्रव्यकर्म व भावकर्मका स्वरूप और प्रवृत्ति
तथा इस प्रकार एक कर्म है सो परमाणुरूप अनन्त पुद्गलद्रव्योंसे उत्पन्न किया हुआ
कार्य है, इसलिये उसका नाम द्रव्यकर्म है। तथा मोहके निमित्तसे मिथ्यात्वक्रोधादिरूप जीवके
परिणाम हैं वह अशुद्धभावसे उत्पन्न किया हुआ कार्य है, इसलिये इसका नाम भावकर्म है।
द्रव्यकर्मके निमित्तसे भावकर्म होता है और भावकर्मके निमित्तसे द्रव्यकर्मका बन्ध होता है।
तथा द्रव्यकर्मसे भावकर्म और भावकर्मसे द्रव्यकर्म
इसी प्रकार परस्पर कारणकार्यभावसे
संसारचक्रमें परिभ्रमण होता है।
इतना विशेष जानना किःतीव्र - मंद बन्ध होनेसे या संक्रमणादि होनेसे या एककालमें
बँधे अनेककालमें या अनेककालमें बँधे एककालमें उदय आनेमें किसी कालमें तीव्र उदय आये
तब तीव्रकषाय हो, तब तीव्र ही नवीन बन्ध हो; तथा किसी कालमें मन्द उदय आये तब
मन्द कषाय हो, तब मंद ही बन्ध हो। तथा उन तीव्र
- मंद कषायों हीके अनुसार पूर्व बँधे
कर्मोंका भी संक्रमणादिक हो तो हो।
इस प्रकार अनादिसे लगाकर धाराप्रवाहरूप द्रव्यकर्म और भावकर्मकी प्रवृत्ति जानना।

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दूसरा अधिकार ][ ३१
नोकर्मका स्वरूप और प्रवृत्ति
तथा नामकर्मके उदयसे शरीर होता है वह द्रव्यकर्मवत् किंचित् सुख - दुःखका कारण
है, इसलिये शरीरको नोकर्म कहते हैं। यहाँ नो शब्द ईषत् (अल्प) वाचक जानना। सो
शरीर पुद्गलपरमाणुओंका पिण्ड है और द्रव्यइन्द्रिय, द्रव्यमन, श्वासोच्छ्वास तथा वचन
ये भी शरीर ही के अंग हैं; इसलिये उन्हें भी पुद्गलपरमाणुओंके पिण्ड जानना।
इस प्रकार शरीरके और द्रव्यकर्मके सम्बन्ध सहित जीवके एकक्षेत्रावगाहरूप बंधान
होता है। सो शरीरके जन्म-समयसे लेकर जितनी आयुकी स्थिति हो उतने काल तक शरीरका
सम्बन्ध रहता है। तथा आयु पूर्ण होने पर मरण होता है तब उस शरीरका सम्बन्ध छूटता
है, शरीर-आत्मा अलग-अलग हो जाते हैं। तथा उसके अनन्तर समयमें अथवा दूसरे, तीसरे,
चौथे समय जीव कर्मोदयके निमित्तसे नवीन शरीर धारण करता है; वहाँ भी अपनी आयुपर्यंत
उसी प्रकार सम्बन्ध रहता है, फि र मरण होता है तब उससे सम्बन्ध छूटता है। इसी प्रकार
पूर्व शरीरका छोड़ना और नवीन शरीरका ग्रहण करना अनुक्रमसे हुआ करता है।
तथा यह आत्मा यद्यपि असंख्यातप्रदेशी है तथापि संकोच-विस्तार शक्तिसे शरीरप्रमाण
ही रहता है; विशेष इतना कि समुद्घात होने पर शरीरसे बाहर भी आत्माके प्रदेश फै लते
हैं और अन्तराल समयमें पूर्व शरीर छोड़ा था, उस प्रमाण रहते हैं।
तथा इस शरीरके अंगभूत द्रव्यइन्द्रिय और मन उनकी सहायतासे जीवके जानपनेकी
प्रवृत्ति होती है। तथा शरीरकी अवस्थाके अनुसार मोहके उदयसे जीव सुखी-दुःखी होता
है। तथा कभी तो जीवकी इच्छाके अनुसार शरीर प्रवर्तता है, कभी शरीरकी अवस्थाके
अनुसार जीव प्रवर्तता है; कभी जीव अन्यथा इच्छारूप प्रवर्तता है, पुद्गल अन्यथा अवस्थारूप
प्रवर्तता है।
इस प्रकार इस नोकर्मकी प्रवृत्ति जानना।
नित्यनिगोद और इतरनिगोद
वहाँ अनादिसे लेकर प्रथम तो इस जीवके नित्यनिगोदरूप शरीरका सम्बन्ध पाया
जाता है, वहाँ नित्यनिगोद शरीरको धारण करके आयु पूर्ण होने पर मरकर फि र नित्यनिगोद
शरीरको धारण करता है, फि र आयु पूर्ण कर मरकर नित्यनिगोद शरीर ही को धारण
करता है। इसीप्रकार अनन्तानन्त प्रमाण सहित जीवराशि है सो अनादिसे वहाँ ही जन्म-
मरण किया करती है।

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३२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा वहाँसे छह महीना आठ समयमें छहसौ आठ जीव निकलते हैं, वे निकलकर
अन्य पर्यायों को धारण करते हैं। वे पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन, प्रत्येक वनस्पतिरूप एकेन्द्रिय
पर्यायोंमें तथा दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय पर्यायों में अथवा नारक, तिर्यंच, मनुष्य,
देवरूप पंचेन्द्रिय पर्यायोंमें भ्रमण करते हैं। वहाँ कितने ही काल भ्रमण कर फि र निगोद
पर्यायको प्राप्त करे सो उसका नाम इतरनिगोद है।
तथा वहाँ कितने ही काल रहकर वहाँसे निकलकर अन्य पर्यायोंमें भ्रमण करते हैं।
वहाँ परिभ्रमण करनेका उत्कृष्ट काल पृथ्वी आदि स्थावरोंमें असंख्यात कल्पमात्र है, और
द्वीन्द्रियादि पंचेन्द्रिय पर्यन्त त्रसोंमें साधिक दो हजार सागर है, इतरनिगोदमें ढाई
पुद्गलपरावर्तनमात्र है जो कि अनन्तकाल है। इतरनिगोदसे निकलकर कोई स्थावर पर्याय
प्राप्त करके फि र निगोद जाते हैं।
इस प्रकार एकेन्द्रिय पर्यायोंमें उत्कृष्ट परिभ्रमणकाल असंख्यात पुद्गलपरावर्तनमात्र है
तथा जघन्य तो सर्वत्र एक अंतर्मूहूर्त काल है। इस प्रकार अधिकांश तो एकेन्द्रिय पर्यायोंका
ही धारण करना है, अन्य पर्यायोंकी प्राप्ति तो काकतालीयन्यायवत् जानना।
इस प्रकार इस जीवको अनादिसे ही कर्मबन्धनरूप रोग हुआ है।
इति कर्मबन्धननिदान वर्णनम्।
कर्मबन्धनरूप रोगके निमित्तसे होनेवाली जीवकी अवस्था
इस कर्मबन्धनरूप रोगके निमित्त से जीवकी कैसी अवस्था हो रही है सो कहते हैंः
ज्ञानावरणदर्शनावरण कर्मोदयजन्य अवस्था
प्रथम तो इस जीवका स्वभाव चैतन्य है, वह सबके सामान्य-विशेष स्वरूपको प्रकाशित
करनेवाला है। जो उनका स्वरूप हो वैसा अपनेको प्रतिभासित हो, उसी का नाम चैतन्य है।
वहाँ सामान्यस्वरूप प्रतिभासित होने का नाम दर्शन है, विशेषस्वरूप प्रतिभासित होनेका नाम ज्ञान
है। ऐसे स्वभाव द्वारा त्रिकालवर्ती सर्वगुण-पर्यायसहित सर्व पदार्थोंको प्रत्यक्ष युगपत् बिना किसी
सहायताके देखे
जाने ऐसी शक्ति आत्मामें सदा काल है; परन्तु अनादिसे ही ज्ञानावरण,
दर्शनावरणका सम्बन्ध हैउसके निमित्तसे इस शक्तिका व्यक्तपना नहीं होता। उन कर्मोंके
क्षयोपशमसे किंचित् मतिज्ञानश्रुतज्ञान पाया जाता है और कदाचित् अवधिज्ञान भी पाया जाता
है, अचक्षुदर्शन पाया जाता है और कदाचित् चक्षुदर्शन व अवधिदर्शन भी पाया जाता है।
इनकी भी प्रवृत्ति कैसी है सो दिखाते हैं।

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दूसरा अधिकार ][ ३३
मतिज्ञानकी पराधीन प्रवृत्ति
वहाँ प्रथम तो मतिज्ञान है; वह शरीरके अंगभूत जो जीभ, नासिका, नयन, कान,
स्पर्शन ये द्रव्यइन्द्रियाँ और हृदयस्थानमें आठ पँखुरियोंके फू ले कमलके आकारका द्रव्यमन
इनकी सहायतासे ही जानता है। जैसेजिसकी दृष्टि मंद हो वह अपने नेत्र द्वारा ही देखता
है, परन्तु चश्मा लगाने पर ही देखता है, बिना चश्मेके नहीं देख सकता। उसी प्रकार आत्माका
ज्ञान मंद है, वह अपने ज्ञानसे ही जानता है, परन्तु द्रव्यइन्द्रिय तथा मनका सम्बन्ध होने
पर ही जानता है, उनके बिना नहीं जान सकता। तथा जिस प्रकार नेत्र तो जैसेके तैसे
हैं, परन्तु चश्मेमें कुछ दोष हुआ हो तो नहीं देख सकता अथवा थोड़ा दीखता है या औरका
और दीखता है; उसी प्रकार अपना क्षयोपशम तो जैसाका तैसा है, परन्तु द्रव्यइन्द्रिय तथा
मनके परमाणु अन्यथा परिणमित हुए हों तो जान नहीं सकता अथवा थोड़ा जानता है अथवा
औरका और जानता है। क्योंकि द्रव्यइन्द्रिय तथा मनरूप परमाणुओंके परिणमनको और
मतिज्ञानको निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है, इसलिये उनके परिणमनके अनुसार ज्ञानका परिणमन
होता है। उसका उदाहरण
जैसे मनुष्यादिकको बाल-वृद्धअवस्थामें द्रव्यइन्द्रिय तथा मन
शिथिल हो तब जानपना भी शिथिल होता है; तथा जैसे शीत वायु आदिके निमित्तसे
स्पर्शनादि इन्द्रियोंके और मनके परमाणु अन्यथा हों तब जानना नहीं होता अथवा थोड़ा जानना
होता है।
तथा इस ज्ञानको और बाह्य द्रव्योंको भी निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध पाया जाता है।
उसका उदाहरणजैसे नेत्रइन्द्रियको अंधकारके परमाणु अथवा फू ला आदिके परमाणु या
पाषाणादिके परमाणु आड़े आ जायें तो देख नहीं सकती। तथा लाल कांच आड़ा आ जाये
तो सब लाल दीखता है, हरित आड़ा आये तो हरित दीखता है
इस प्रकार अन्यथा जानना
होता है।
तथा दूरबीन, चश्मा इत्यादि आड़े आ जायें तो बहुत दीखने लग जाता है। प्रकाश,
जल, हिलव्वी काँच इत्यादिके परमाणु आड़े आयें तो भी जैसेका तैसा दीखता है। इसप्रकार
अन्य इन्द्रियों तथा मनके भी यथासम्भव जानना। मंत्रादिके प्रयोगसे अथवा मदिरापानादिकसे
अथवा भूतादिकके निमित्तसे नहीं जानना, थोड़ा जानना या अन्यथा जानना होता है। इस
प्रकार यह ज्ञान बाह्यद्रव्यके भी आधीन जानना।
तथा इस ज्ञान द्वारा जो जानना होता है वह अस्पष्ट जानना होता है; दूरसे कैसा
ही जानता है, समीपसे कैसा ही जानता है, तत्काल कैसा ही जानता है, जाननेमें बहुत देर

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३४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
हो जाये तब कैसा ही जानता है, किसीको संशय सहित जानता है, किसीको अन्यथा जानता
है, किसीको किंचित् जानता है
इत्यादि रूपसे निर्मल जानना नहीं हो सकता।
इस प्रकार यह मतिज्ञान पराधीनता सहित इन्द्रियमन द्वारसे प्रवर्तता है। उन इन्द्रियों
द्वारा तो जितने क्षेत्रका विषय हो उतने क्षेत्रमें जो वर्तमान स्थूल अपने जानने योग्य पुद्गलस्कन्ध
हों उन्हींको जानता है। उनमें भी अलग-अलग इन्द्रियों द्वारा अलग-अलग कालमें किसी स्कन्धके
स्पर्शादिकका जानना होता है। तथा मन द्वारा अपने जानने योग्य किंचित्मात्र त्रिकाल सम्बन्धी
दूर क्षेत्रवर्ती अथवा समीप क्षेत्रवर्ती रूपी-अरूपी द्रव्यों और पर्यायोंको अत्यन्त अस्पष्टरूपसे जानता
है। सो भी इन्द्रियों द्वारा जिसका ज्ञान हुआ हो अथवा जिसका अनुमानादिक किया हो उस
ही को जान सकता है। तथा कदाचित् अपनी कल्पना ही से असत्को जानता है। जैसे स्वप्नमें
अथवा जागते हुए भी जो कदाचित् कहीं नहीं पाये जाते ऐसे आकारादिकका चिंतवन करता
है और जैसे नहीं हैं वैसे मानता है। इस प्रकार मन द्वारा जानना होता है। सो यह इन्द्रियों
व मन द्वारा जो ज्ञान होता है, उसका नाम मतिज्ञान है।
यहाँ पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन, वनस्पतिरूप एकेन्द्रियोंके स्पर्श ही का ज्ञान है; लट,
शंख आदि दो इन्द्रिय जीवोंको स्पर्श, रसका ज्ञान है; कीड़ी, मकोड़ा आदि तीन इन्द्रिय जीवोंकों
स्पर्श, रस, गंधका ज्ञान है; भ्रमर, मक्षिका, पतंगादिक चौइन्द्रिय जीवोंको स्पर्श, रस, गंध,
वर्णका ज्ञान है; मच्छ, गाय, कबूतर इत्यादिक तिर्यंच और मनुष्य, देव, नारकी यह पंचेन्द्रिय
हैं
इन्हें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्दोंका ज्ञान है। तिर्यंचोंमें कई संज्ञी हैं, कई असंज्ञी
हैं। वहाँ संज्ञियोंके मनजनित ज्ञान है, असंज्ञियोंको नहीं है। तथा मनुष्य, देव, नारकी संज्ञी
ही हैं, उन सबके मनजनित ज्ञान पाया जाता है।
इस प्रकार मतिज्ञानकी प्रवृत्ति जानना।
श्रुतज्ञानकी पराधीन प्रवृत्ति
अब, मतिज्ञान द्वारा जिस अर्थको जाना हो उसके सम्बन्धसे अन्य अर्थको जिसके
द्वारा जाना जाये सो श्रुतज्ञान है। वह दो प्रकारका है १. अक्षरात्मक २. अनक्षरात्मक।
जैसे ‘घट’, यह दो अक्षर सुने या देखे वह तो मतिज्ञान हुआ; उनके सम्बन्धसे घट-पदार्थका
जानना हुआ सो श्रुतज्ञान है। इस प्रकार अन्य भी जानना। यह तो अक्षरात्मक श्रुतज्ञान
है। तथा जैसे स्पर्श द्वारा शीतका जानना हुआ वह तो मतिज्ञान है; उसके सम्बन्धसे ‘यह
हितकारी नहीं है, इसलिये भाग जाना’ इत्यादिरूप ज्ञान हुआ सो श्रुतज्ञान है। इस प्रकार
अन्य भी जानना। यह अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान है।

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दूसरा अधिकार ][ ३५
वहाँ एकेन्द्रियादिक असंज्ञी जीवोंको तो अनक्षरात्मक ही श्रुतज्ञान है और संज्ञी
पंचेन्द्रियोंके दोनों हैं। यह श्रुतज्ञान है सो अनेक प्रकारसे पराधीन ऐसे मतिज्ञानके भी आधीन
है तथा अन्य अनेक कारणोंके आधीन है; इसलिए महा पराधीन जानना।
अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञानकी प्रवृत्ति
अब, अपनी मर्यादाके अनुसार क्षेत्र-कालका प्रमाण लेकर रूपी पदार्थोंको स्पष्टरूपसे
जिसके द्वारा जाना जाय वह अवधिज्ञान है। वह देव, नारकियोंमें तो सबको पाया जाता
है और संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच तथा मनुष्योंके भी किसीको पाया जाता है। असंज्ञी-पर्यंत
जीवोंके यह होता ही नहीं है। सो यह भी शरीरादिक पुद्गलोंके आधीन है। अवधिके
तीन भेद हैं
१. देशावधि, २. परमावधि, ३. सर्वावधि। इनमें थोड़े क्षेत्र-कालकी मर्यादा
लेकर किंचित्मात्र रूपी पदार्थोंको जाननेवाला देशावधि है, सो ही किसी जीवके होता है।
तथा परमावधि, सर्वावधि और मनःपर्ययये ज्ञान मोक्षमार्गमें प्रगट होते हैं; केवलज्ञान
मोक्षरूप है, इसलिये इस अनादि संसार-अवस्थामें इनका सद्भाव ही नहीं है।
इस प्रकार तो ज्ञानकी प्रवृत्ति पायी जाती है।
चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवलदर्शनकी प्रवृत्ति
अब, इन्द्रिय तथा मनको स्पर्शादिक विषयोंका सम्बन्ध होनेसे प्रथम कालमें मतिज्ञानसे
पूर्व जो सत्तामात्र अवलोकनरूप प्रतिभास होता है उसका नाम चक्षुदर्शन तथा अचक्षुदर्शन
है। वहाँ नेत्र-इन्द्रिय द्वारा दर्शन होनेका नाम तो चक्षुदर्शन है; वह तो चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय
जीवोंको ही होता है। तथा स्पर्शन, रसना, घ्राण, श्रोत्र
इन चार इन्द्रियों और मन द्वारा
जो दर्शन होता है उसका नाम अचक्षुदर्शन है; वह यथायोग्य एकेन्द्रियादि जीवोंको होता है।
अब, अवधिके विषयोंका सम्बन्ध होने पर अवधिज्ञानके पूर्व जो सत्तामात्र अवलोकनरूप
प्रतिभास होता है उसका नाम अवधिदर्शन है। यह जिनके अवधिज्ञान सम्भव है उन्हींको
होता है।
यह चक्षु, अचक्षु, अवधिदर्शन है सो मतिज्ञान व अवधिज्ञानवत् पराधीन जानना।
तथा केवलदर्शन मोक्षस्वरूप है उसका यहाँ सद्भाव ही नहीं है।
इस प्रकार दर्शनका सद्भाव पाया जाता है।

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३६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
ज्ञान-दर्शनोपयोगादिकी प्रवृत्ति
इस प्रकार ज्ञानदर्शनका सद्भाव ज्ञानावरण, दर्शनावरणके क्षयोपशमके अनुसार होता
है। जब क्षयोपशम थोड़ा होता है तब ज्ञानदर्शनकी शक्ति थोड़ी होती है; जब बहुत होता
है तब बहुत होती है। तथा क्षयोपशमसे शक्ति तो ऐसी बनी रहती है, परन्तु परिणमन द्वारा
एक जीवको एक कालमें एक विषयका ही देखना और जानना होता है। इस परिणमन ही
का नाम उपयोग है। वहाँ एक जीवको एक कालमें या तो ज्ञानोपयोग होता है या दर्शनोपयोग
होता है। तथा एक उपयोगके भी एक भेदकी प्रवृत्ति होती है। जैसे
मतिज्ञान हो तब अन्य
ज्ञान नहीं होता। तथा एक भेदमें भी एक विषयमें ही प्रवृत्ति होती है। जैसेस्पर्शको जानता
है तब रसादिकको नहीं जानता। तथा एक विषयमें भी उसे किसी एक अङ्गमें ही प्रवृत्ति होती
है। जैसे
उष्ण स्पर्शको जानता है तब रूक्षादिकको नहीं जानता।
इस प्रकार एक जीवको एक कालमें एक ज्ञेय अथवा दृश्यमें ज्ञान अथवा दर्शनका
परिणमन जानना। ऐसा ही दिखाई देता है। जब सुननेमें उपयोग लगा हो तब नेत्रके समीप
स्थित भी पदार्थ नहीं दीखता। इस ही प्रकार अन्य प्रवृत्ति देखी जाती है।
तथा परिणमनमें शीघ्रता बहुत है। इससे किसी कालमें ऐसा मान लेते हैं कि युगपत्
भी अनेक विषयोंका जानना तथा देखना होता है, किन्तु युगपत् होता नहीं है, क्रममें ही
होता है, संस्कारबलसे उनका साधन रहता है। जैसे
कौएके नेत्रके दो गोलक हैं, पुतली
एक है वह फि रती शीघ्र है, उससे दोनों गोलकोंका साधन करती है; उसी प्रकार इस जीवके
द्वार तो अनेक हैं और उपयोग एक है, वह फि रता शीघ्र है, उससे सर्व द्वारोंका साधन
रहता है।
यहाँ प्रश्न है किएक कालमें एक विषयका जानना अथवा देखना होता है तो
इतना ही क्षयोपशम हुआ कहो, बहुत क्यों कहते हो? और तुम कहते हो कि क्षयोपशमसे
शक्ति होती है, तो शक्ति तो आत्मामें केवलज्ञान
दर्शनकी भी पाई जाती है।
समाधानःजैसे किसी पुरुषके बहुत ग्रामोंमें गमन करनेकी शक्ति है। तथा उसे किसीने
रोका और यह कहा कि पाँच ग्रामोंमें जाओ, परन्तु एक दिनमें एक ग्रामको जाओ। वहाँ उस
पुरुषके बहुत ग्राम जानेकी शक्ति तो द्रव्य-अपेक्षा पाई जाती है; अन्य कालमें सामर्थ्य हो, परन्तु
वर्तमान सामर्थ्यरूप नहीं है
क्योंकि वर्तमानमें पाँच ग्रामोंसे अधिक ग्रामोंमें गमन नहीं कर
सकता। तथा पाँच ग्रामोंमें जानेकी पर्याय-अपेक्षा वर्त्तमान सामर्थ्यरूप शक्ति है, क्योंकि उनमें गमन
कर सकता है; तथा व्यक्तता एक दिनमें एक ग्रामको गमन करनेकी ही पाई जाती है।

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दूसरा अधिकार ][ ३७
उसी प्रकार इस जीवके सर्वको देखनेजाननेकी शक्ति है। तथा उसे कर्मने रोका
इतना क्षयोपशम हुआ कि स्पर्शादिक विषयोंको जानो या देखो, परन्तु एक कालमें एक ही
को जानो या देखो। वहाँ इस जीवको सर्वको देखने-जाननेकी शक्ति तो द्रव्य-अपेक्षा पाई
जाती है; अन्य कालमें सामर्थ्य हो, परन्तु वर्तमान सामर्थ्यरूप नहीं है, क्योंकि अपने योग्य
विषयोंसे अधिक विषयोंको देख
जान नहीं सकता। तथा अपने योग्य विषयोंको देखने
जाननेकी पर्याय-अपेक्षा वर्तमान सामर्थ्यरूप शक्ति है, क्योंकि उन्हें देख-जान सकता है; तथा
व्यक्तता एक कालमें एक ही को देखने या जाननेकी पाई जाती है।
यहाँ फि र प्रश्न है किऐसा तो जाना; परन्तु क्षयोपशम तो पाया जाता है और
बाह्य इन्द्रियादिकका अन्यथा निमित्त होने पर देखनाजानना नहीं होता या थोड़ा होता है,
या अन्यथा होता है सो ऐसा होने पर कर्म ही का निमित्त तो नहीं रहा?
समाधानःजैसे रोकनेवालेने यह कहा कि पाँच ग्रामोंमेंसे एक ग्रामको एक दिनमें जाओ,
परन्तु इन किंकरोंको साथ लेकर जाओ। वहाँ वे किंकर अन्यथा परिणमित हों तो जाना न
हो या थोड़ा जाना हो या अन्यथा जाना हो; उसी प्रकार कर्मका ऐसा ही क्षयोपशम हुआ है
कि इतने विषयोंमें एक विषयको एक कालमें देखो या जानो; परन्तु इतने बाह्य द्रव्योंका निमित्त
होने पर देखो
जानो। वहाँ वे बाह्य द्रव्य अन्यथा परिणमित हों तो देखनाजानना न हो या
थोड़ा हो या अन्यथा हो। ऐसा यह कर्मके क्षयोपशम ही का विशेष है, इसलिये कर्म ही का
निमित्त जानना। जैसे किसीको अंधकारके परमाणु आड़े आने पर देखना नहीं हो; उल्लू, बिल्ली
आदिको उनके आड़े आने पर भी देखना होता है
सो ऐसा यह क्षयोपशम ही का विशेष
है। जैसा-जैसा क्षयोपशम होता है वैसा-वैसा ही देखनाजानना होता है।
इस प्रकार इस जीवके क्षयोपशमज्ञानकी प्रवृत्ति पाई जाती है।
तथा मोक्षमार्गमें अवधि
मनःपर्यय होते हैं वे भी क्षयोपशमज्ञान ही हैं, उनको भी
इसी प्रकार एक कालमें एकको प्रतिभासित करना तथा परद्रव्यका आधीनपना जानना। तथा
जो विशेष है सो विशेष जानना।
इस प्रकार ज्ञानावरणदर्शनावरणके उदयके निमित्तसे बहुत ज्ञानदर्शनके अंशोंका तो
अभाव है और उनके क्षयोपशमसे थोड़े अंशोंका सद्भाव पाया जाता है।
मोहनीय कर्मोदयजन्य अवस्था
इस जीवको मोहके उदयसे मिथ्यात्व और कषायभाव होते हैं।

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३८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
दर्शनमोहरूप जीवकी अवस्था
वहाँ दर्शनमोहके उदयसे तो मिथ्यात्वभाव होता है, उससे यह जीव अन्यथा प्रतीतिरूप
अतत्त्वश्रद्धान करता है। जैसा है वैसा तो नहीं मानता और जैसा नहीं है वैसा मानता
है। अमूर्तिक प्रदेशोंका पुंज, प्रसिद्ध ज्ञानादि गुणोंका धारी अनादिनिधन वस्तु आप है; और
मूर्तिक पुद्गलद्रव्योंका पिण्ड प्रसिद्ध ज्ञानादिकोंसे रहित जिनका नवीन संयोग हुआ ऐसे
शरीरादिक पुद्गल पर हैं; इनके संयोगरूप नानाप्रकारकी मनुष्य, तिर्यंचादिक पर्यायें होती हैं
उन पर्यायोंमें अहंबुद्धि धारण करता है, स्व-परका भेद नहीं कर सकता, जो पर्याय प्राप्त
करे उस ही को आपरूप मानता है।
तथा उस पर्यायमें ज्ञानादिक हैं वे तो अपने गुण हैं, और रागादिक हैं वे अपनेको
कर्मनिमित्तसे औपाधिकभाव हुए हैं, तथा वर्णादिक हैं वे शरीरादिक पुद्गलके गुण हैं, और
शरीरादिकमें वर्णादिकोंका तथा परमाणुओंका नानाप्रकार पलटना होता है वह पुद्गलकी अवस्था
है; सो इन सब ही को अपना स्वरूप जानता है, स्वभाव
परभावका विवेक नहीं हो सकता।
तथा मनुष्यादिक पर्यायोंमें कुटुम्ब-धनादिकका सम्बन्ध होता है वे प्रत्यक्ष अपनेसे भिन्न
हैं तथा वे अपने आधीन नहीं परिणमित होते तथापि उनमें ममकार करता है कि ये मेरे
हैं। वे किसी प्रकार भी अपने होते नहीं, यह ही अपनी मान्यतासे ही अपने मानता है।
तथा मनुष्यादि पर्यायों में कदाचित् देवादिकका या तत्त्वोंका अन्यथा स्वरूप जो कल्पित किया
उसकी तो प्रतीति करता है, परन्तु यथार्थ स्वरूप जैसा है वैसी प्रतीति नहीं करता।
इस प्रकार दर्शनमोहके उदयसे जीवको अतत्त्वश्रद्धानरूप मिथ्यात्वभाव होता है। जहाँ
तीव्र उदय होता है वहाँ सत्यश्रद्धानसे बहुत विपरीत श्रद्धान होता है। जब मंद उदय होता
है तब सत्यश्रद्धानसे थोड़ा विपरीत श्रद्धान होता है।
चारित्रमोहरूप जीवकी अवस्था
जब चारित्रमोहके उदयसे इस जीवको कषायभाव होता है तब यह देखतेजानते हुए
भी परपदार्थोंमें इष्ट-अनिष्टपना मानकर क्रोधादिक करता है।
वहाँ क्रोधका उदय होने पर पदार्थोंमें अनिष्टपना मानकर उनका बुरा चाहता है।
कोई मन्दिरादि अचेतन पदार्थ बुरे लगें तब तोड़ने-फोड़ने इत्यादि रूपसे उनका बुरा चाहता
है तथा शत्रु आदि सचेतन पदार्थ बुरे लगें तब उन्हें वध-बन्धनादिसे या मारनेसे दुःख उत्पन्न
करके उनका बुरा चाहता है। तथा आप स्वयं अथवा अन्य सचेतन-अचेतन पदार्थ किसी
प्रकार परिणमित हुए, अपनेको वह परिणमन बुरा लगा तब अन्यथा परिणमित कराके उस
परिणमनका बुरा चाहता है।

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दूसरा अधिकार ][ ३९
इसप्रकार क्रोधसे बुरा चाहनेकी इच्छा तो हो, बुरा होना भवितव्य आधीन है।
तथा मानका उदय होने पर पदार्थमें अनिष्टपना मानकर उसे नीचा करना चाहता है,
स्वयं ऊँचा होना चाहता है; मल, धूल आदि अचेतन पदार्थोंमें घृणा तथा निरादर आदिसे
उनकी हीनता, अपनी उच्चता चाहता है। तथा पुरुषादिक सचेतन पदार्थोंको झुकाना, अपने
आधीन करना इत्यादिरूपसे अपनी हीनता, उनकी उच्चता चाहता है। तथा स्वयं लोकमें जैसे
उच्च दिखे वैसे श्रृंगारादि करना तथा धन खर्च करना इत्यादिरूपसे औरोंको हीन दिखाकर
स्वयं उच्च होना चाहता है। तथा अन्य कोई अपनेसे उच्च कार्य करे उसे किसी उपायसे
नीचा दिखाता है और स्वयं नीचा कार्य करे उसे उच्च दिखाता है।
इसप्रकार मानसे अपनी महंतताकी इच्छा तो हो, महंतता होना भवितव्य आधीन है।
तथा मायाका उदय होने पर किसी पदार्थको इष्ट मानकर नाना प्रकारके छलों द्वारा
उसकी सिद्धि करना चाहता है। रत्न, सुवर्णादिक अचेतन पदार्थोंकी तथा स्त्री, दासी दासादि
सचेतन पदार्थोंकी सिद्धिके अर्थ अनेक छल करता है। ठगनेके अर्थ अपनी अनेक अवस्थाएँ
करता है तथा अन्य अचेतन-सचेतन पदार्थोंकी अवस्था बदलता है। इत्यादि रूप छलसे अपना
अभिप्राय सिद्ध करना चाहता है।
इस प्रकार मायासे इष्टसिद्धिके अर्थ छल तो करे, परन्तु इष्टसिद्धि होना भवितव्य आधीन
है।
तथा लोभका उदय होने पर पदार्थोंको इष्ट मानकर उनकी प्राप्ति चाहता है।
वस्त्राभरण, धन-धान्यादि अचेतन पदार्थोंकी तृष्णा होती है; तथा स्त्री-पुत्रादिक चेतन पदार्थोंकी
तृष्णा होती है। तथा अपनेको या अन्य सचेतन-अचेतन पदार्थोंको कोई परिणमन होना इष्ट
मानकर उन्हें उस परिणमनस्वरूप परिणमित करना चाहता है।
उस प्रकार लोभसे इष्टप्राप्तिकी इच्छा तो हो, परन्तु इष्टप्राप्ति होना भवितव्यके आधीन है।
इस प्रकार क्रोधादिके उदयसे आत्मा परिणमित होता है।
वहाँ ये कषाय चार प्रकारके हैं। १. अनन्तानुबन्धी, २. अप्रत्याख्यानावरण,
३.प्रत्याख्यानावरण, ४. संज्वलन। वहाँ (जिनका उदय होने पर आत्माको सम्यक्त्व न हो,
स्वरूपाचरणचारित्र न हो सके वे अनन्तानुबन्धी कषाय हैं।
) जिनका उदय होने पर देशचारित्र
यह पंक्ति मूल प्रतिमें नहीं है।

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४० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
नहीं होता, इसलिये किंचित् त्याग भी नहीं हो सकता वे अप्रत्याख्यानावरण कषाय हैं। तथा
जिनका उदय होने पर सकलचारित्र नहीं होता, इसलिये सर्वका त्याग नहीं हो सकता वे
प्रत्याख्यानावरण कषाय हैं। तथा जिनका उदय होने पर सकलचारित्रमें दोष उत्पन्न होते रहते
हैं, इसलिये यथाख्यातचारित्र नहीं हो सकता वे संज्वलन कषाय हैं।
अनादि संसार अवस्थामें इन चारों ही का निरन्तर उदय पाया जाता है। परम
कृष्णलेश्यारूप तीव्र कषाय हो वहाँ भी और शुक्ललेश्यारूप मंदकषाय हो वहाँ भी निरंतर
चारों ही का उदय रहता है। क्योंकि तीव्र-मंदकी अपेक्षा अनन्तानुबंधी आदि भेद नहीं हैं,
सम्यक्त्वादिका घात करनेकी अपेक्षा यह भेद हैं। इन्हीं प्रकृतियोंका तीव्र अनुभाग उदय होने
पर तीव्र क्रोधादिक होते हैं, मंद अनुभाग उदय होने पर मंद होते हैं।
तथा मोक्षमार्ग होने पर इन चारोंमेंसे तीन, दो, एकका उदय होता है; फि र चारोंका
अभाव हो जाता है।
तथा क्रोधादिक चारों कषायोंमेंसे एक कालमें एक ही का उदय होता है। इन कषायोंके
परस्पर कारणकार्यपना है। क्रोधसे मानादिक हो जाते हैं, मानसे क्रोधादि हो जाते हैं; इसलिये
किसी कालमें भिन्नता भासित होती है, किसी कालमें भासित नहीं होती।
इस प्रकार कषायरूप परिणमन जानना।
तथा चारित्रमोहके ही उदयसे नोकषाय होती हैं; वहाँ हास्यके उदयसे कहीं इष्टपना
मानकर प्रफु ल्लित होता है, हर्ष मानता है। तथा रतिके उदयसे किसीको इष्ट मानकर प्रीति
करता है, वहाँ आसक्त होता है। तथा अरतिके उदयसे किसीको अनिष्ट मानकर अप्रीति
करता है, वहाँ उद्वेगरूप होता है। तथा शोकके उदयसे कहीं अनिष्टपना मानकर दिलगीर
होता है, विषाद मानता है। तथा भयके उदयसे किसीको अनिष्ट मानकर उससे डरता है,
उसका संयोग नहीं चाहता। तथा जुगुप्साके उदयसे किसी पदार्थको अनिष्ट मानकर उससे
घृणा करता है, उसका वियोग चाहता है।
इस प्रकार ये हास्यादिक छह जानना।
तथा वेदोंके उदयसे काम परिणाम होते हैं। वहाँ स्त्रीवेदके उदयसे पुरुषके साथ रमण
करनेकी इच्छा होती है और पुरुषवेदके उदयसे स्त्रीके साथ रमण करनेकी इच्छा होती है,
तथा नपुंसकवेदके उदयसे युगपत्
दोनोंसे रमण करनेकी इच्छा होती है।
इस प्रकार ये नौ तो नोकषाय हैं। यह क्रोधादि सरीखे बलवान नहीं हैं, इसलिये

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दूसरा अधिकार ][ ४१
इन्हें ईषत् कषाय कहते हैं। यहाँ नो शब्द ईषत्वाचक जानना। इनका उदय उन क्रोधादिकोंके
साथ यथासम्भव होता है।
इस प्रकार मोहके उदयसे मिथ्यात्व और कषायभाव होते हैं, सो ये ही संसारके मूल
कारण हैं। इन्हींसे वर्तमान कालमें जीव दुःखी हैं, और आगामी कर्मबन्धके भी कारण ये
ही हैं। तथा इन्हींका नाम राग-द्वेष-मोह है। वहाँ मिथ्यात्वका नाम मोह है; क्योंकि वहाँ
सावधानीका अभाव है। तथा माया, लोभ कषाय एवं हास्य, रति और तीन वेदोंका नाम
राग है; क्योंकि वहाँ इष्टबुद्धिसे अनुराग पाया जाता है। तथा क्रोध, मान, कषाय और
अरति, शोक, भय जुगुप्साओंका नाम द्वेष है; क्योंकि वहाँ अनिष्टबुद्धिसे द्वेष पाया जाता
है। तथा सामान्यतः सभीका नाम मोह है; क्योंकि इनमें सर्वत्र असावधानी पाई जाती है।
अंतरायकर्मोदयजन्य अवस्था
तथा अन्तरायके उदयसे जीव चाहे सो नहीं होता। दान देना चाहे सो नहीं दे सकता,
वस्तुकी प्राप्ति चाहे सो नहीं होती, भोग करना चाहे सो नहीं होता, उपभोग करना चाहे
सो नहीं होता, अपनी ज्ञानादि शक्तिको प्रगट करना चाहे सो प्रगट नहीं हो सकती। इस
प्रकार अन्तरायके उदयसे जो चाहता है सो नहीं होता, तथा उसीके क्षयोपशमसे किंचित्मात्र
चाहा हुआ भी होता है। चाह तो बहुत है, परन्तु किंचित्मात्र दान दे सकता है, लाभ
होता है, ज्ञानादिक शक्ति प्रगट होती है; वहाँ भी अनेक बाह्य कारण चाहिये।
इस प्रकार घातिकर्मोंके उदयसे जीवकी अवस्था होती है।
वेदनीयकर्मोदयजन्य अवस्था
तथा अघातिकर्मोंमें वेदनीयके उदयसे शरीरमें बाह्य सुख-दुःखके कारण उत्पन्न होते हैं।
शरीरमें आरोग्यपना, शक्तिवानपना इत्यादि तथा क्षुधा, तृषा, रोग, खेद, पीड़ा इत्यादि सुख-
दुःखके कारण होते हैं। बाह्यमें सुहावने ऋतु
पवनादिक, इष्ट स्त्रीपुत्रादिक तथा मित्र
धनादिक; असुहावने ऋतुपवनादिक, अनिष्ट स्त्रीपुत्रादिक तथा शत्रु, दारिद्रय, वध-बन्धनादिक
सुख-दुःखको कारण होते हैं।
यह जो बाह्य कारण कहे हैं उनमें कितने कारण तो ऐसे हैं जिनके निमित्तसे शरीरकी
अवस्था सुख-दुःखको कारण होती है, और वे ही सुख-दुःखको कारण होते हैं तथा कितने
कारण ऐसे हैं तो स्वयं ही सुख-दुःखको कारण होते हैं। ऐसे कारणोंका मिलना वेदनीयके
उदयसे होता है। वहाँ सातावेदनीयसे सुखके कारण मिलते हैं और असातावेदनीयसे दुःखके
कारण मिलते हैं।

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४२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
यहाँ ऐसा जानना कि वे कारण ही सुख-दुःखको उत्पन्न नहीं करते, आत्मा मोहकर्मके
उदयसे स्वयं सुख-दुःख मानता है। वहाँ वेदनीयकर्मके उदयका और मोहकर्मके उदयका ऐसा
ही सम्बन्ध है। जब सातावेदनीयका उत्पन्न किया बाह्य कारण मिलता है तब तो सुख माननेरूप
मोहकर्मका उदय होता है, और जब असातावेदनीयका उत्पन्न किया बाह्य कारण मिलता है
तब दुःख माननेरूप मोहकर्मका उदय होता है।
तथा यही कारण किसीको सुखका, किसीको दुःखका कारण होता है। जैसेकिसीको
सातावेदनीयका उदय होने पर मिला हुआ जैसा वस्त्र सुखका कारण होता है, वैसा ही वस्त्र
किसीको असातावेदनीयका उदय होने पर मिला सो दुःखका कारण होता है। इसलिए बाह्य
वस्तु सुख-दुःखका निमित्तमात्र होती है। सुख-दुःख होता है वह मोहके निमित्तसे होता है।
निर्मोही मुनियोंको अनेक ऋद्धि आदि तथा परीषहादि कारण मिलते हैं तथापि सुख-दुःख उत्पन्न
नहीं होता। मोही जीवको कारण मिलने पर अथवा बिना कारण मिले भी अपने संकल्प
ही से सुख-दुःख हुआ ही करता है। वहाँ भी तीव्र मोहीको जिस कारणके मिलने पर तीव्र
सुख-दुःख होते हैं, वही कारण मिलने पर मंद मोहीको मंद सुख-दुःख होते हैं।
इसलिये सुख-दुःखका मूल बलवान कारण मोहका उदय है। अन्य वस्तुएँ हैं वे बलवान
कारण नहीं हैं; परन्तु अन्य वस्तुओंके और मोही जीवके परिणामोंके निमित्त-नैमित्तिककी मुख्यता
पाई जाती है; उससे मोही जीव अन्य वस्तु ही को सुख-दुःखका कारण मानता है।
इस प्रकार वेदनीयसे सुख-दुःखका कारण उत्पन्न होता है।
आयुकर्मोदयजन्य अवस्था
तथा आयुकर्मके उदयसे मनुष्यादि पर्यायोंकी स्थिति रहती है। जब तक आयुका उदय
रहता है तब तक अनेक रोगादिक कारण मिलने पर भी शरीरसे सम्बन्ध नहीं छूटता। तथा
जब आयुका उदय न हो तब अनेक उपाय करने पर भी शरीरसे सम्बन्ध नहीं रहता, उस
ही काल आत्मा और शरीर पृथक् हो जाते हैं।
इस संसारमें जन्म, जीवन, मरणका कारण आयुकर्म ही है। जब नवीन आयुका उदय
होता है तब नवीन पर्यायमें जन्म होता है। तथा जब तक आयुका उदय रहे तब तक
उस पर्यायरूप प्राणोंके धारणसे जीना होता है। तथा आयुका क्षय हो तब उस पर्यायरूप
प्राण छूटनेसे मरण होता है। सहज ही ऐसा आयुकर्मका निमित्त है; दूसरा कोई उत्पन्न
करनेवाला, क्षय करनेवाला या रक्षा करनेवाला है नहीं
ऐसा निश्चय जानना।