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परनिमित्तके बिना हो उसीका नाम स्वभाव है।
यहाँ प्रश्न है कि
संभव होनेमें कुछ विरोध तो भासित नहीं होता।
उस भिन्नताकी अपेक्षा उनका सम्बन्ध अथवा संयोग कहा है; क्योंकि नये मिले, या मिले
ही हों, भिन्न द्रव्योंके मिलापमें ऐसे ही कहना संभव है।
चेतनागुणरहित जड़ है और मूर्त्तिक है, अनन्त पुद्गलपरमाणुओंका पिण्ड है, इसलिए एकद्रव्य
नहीं है। इस प्रकार ये जीव और कर्म हैं
धारण किये भिन्न-भिन्न ही रहते हैं। जैसे सोने-चाँदीका एक स्कंध हो, तथापि पीतादि गुणोंको
धारण किए सोना भिन्न रहता है और श्वेतादि गुणोंको धारण किये चाँदी भिन्न रहती है
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बंधान रहे तब तक साथ रहें
दर्शन उनकी व्यक्त्तता नहीं होती; उन कर्मोंके क्षयोपशमके अनुसार किंचित् ज्ञान-दर्शनकी
व्यक्त्तता रहती है। तथा मोहनीयसे जो जीवके स्वभाव नहीं हैं ऐसे मिथ्याश्रद्धान व क्रोध,
मान, माया, लोभादिक कषाय उनकी व्यक्त्तता होती है। तथा अन्तरायसे जीवका स्वभाव,
दीक्षा लेने की सामर्थ्यरूप वीर्य उसकी व्यक्त्तता नहीं होती; उसके क्षयोपशमके अनुसार किंचित्
शक्ति होती है।
अशुद्ध हुआ।
है, इसलिये उस शक्तिकी व्यक्तता नहीं हुई। अतः शक्ति-अपेक्षा स्वभाव है, उसका व्यक्त्त
न होने देनेकी अपेक्षा घात किया कहते हैं।
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परद्रव्योंका संयोग जुड़ता है; आयुसे अपनी स्थिति-पर्यन्त प्राप्त शरीरका सम्बन्ध नहीं छूट
सकता; नामसे गति, जाति, शरीरादिक उत्पन्न होते हैं; और गोत्रसे उच्च-नीच कुलकी प्राप्ति
होती है।
अमूर्त्तत्वादिस्वभाव अपने स्व-अर्थको नहीं करते
रहे, अन्यथा नहीं हो सके
है नहीं, सहज ही निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। जब उन कर्मोंका उदयकाल हो; उसकालमें
स्वयं ही आत्मा स्वभावरूप परिणमन नहीं करता, विभावरूप परिणमन करता है, तथा जो
अन्य द्रव्य हैं वै वैसे ही सम्बन्धरूप होकर परिणमित होते हैं।
मोहनधूल ही से हुआ देखते हैं। वहाँ मोहनधूलका तो निमित्त है और पुरुष स्वयं ही पागल
हुआ परिणमित होता है
मिलाये नहीं हैं, सूर्योदयका निमित्त पाकर स्वयं ही मिलते हैं। ऐसा निमित्त-नैमित्तिक बन
रहा है। उस ही प्रकार कर्मका भी निमित्त-नैमित्तिक भाव जानना।
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जितना प्रकाश प्रगट है वह उस सूर्यके स्वभावका अंश है
जितना व्यक्त्त नहीं है उतनेका तो उस कालमें अभाव है। तथा उन कर्मोंके क्षयोपशमसे
जितने ज्ञान, दर्शन, वीर्य प्रगट हैं वह उस जीवके स्वभावका अंश ही है, कर्मजनित
औपाधिकभाव नहीं है। सो ऐसे स्वभावके अंशका अनादिसे लेकर कभी अभाव नहीं होता।
इस ही के द्वारा जीवके जीवत्वपने का निश्चय किया जाता है कि यह देखनेवाली जाननेवाली
शक्तिको धरती हुई वस्तु है वही आत्मा है।
अभावरूप हैं उनसे भी बन्ध नहीं है; क्योंकि स्वयं ही का अभाव होने पर अन्यको कारण
कैसे हों? इसलिये ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तरायके निमित्तसे उत्पन्न भाव नवीन कर्मबन्धके
कारण नहीं हैं।
हैं, जीव ही उनका कर्त्ता है, जीवके परिणमनरूप ही वे कार्य हैं; तथापि उनका होना मोहकर्मके
निमित्तसे ही है, कर्मनिमित्त दूर होने पर उनका अभाव ही होता है, इसलिये वे जीवके
निजस्वभाव नहीं, औपाधिक भाव हैं। तथा उन भावों द्वारा नवीन बन्ध होता है; इसलिये
मोहके उदयसे उत्पन्न भाव बन्धके कारण हैं।
हैं, इसलिये वे सब बन्धके कारण नहीं हैं; क्योंकि परद्रव्य बन्धका कारण नहीं होता। उनमें
आत्माको ममत्वादिरूप मिथ्यात्वादिभाव होते हैं वही बन्धका कारण जानना।
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होने योग्य अनन्त परमाणुओं का ग्रहण होता है। वहाँ अल्पयोग हो तो थोड़े परमाणुओंका
ग्रहण होता है और बहुत योग हो तो बहुत परमाणुओंका ग्रहण होता है। तथा एक समयमें
जो पुद्गलपरमाणु ग्रहण करे उनमें ज्ञानावरणादि मूलप्रकृतियोंका और उनकी उत्तरप्रकृतियोंका
जैसे सिद्धान्तमें कहा वैसे बटवारा होता है। उस बटवारेके अनुसार परमाणु उन प्रकृतियोंरूप
स्वयं ही परिणमित होते हैं।
होने पर अशुभयोग होता है। वहाँ शुभयोग हो या अशुभयोग हो, सम्यक्त्व प्राप्त किये
बिना घातियाकर्मोंकी तो सर्व प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता ही रहता है। किसी समय किसी
भी प्रकृतिका बन्ध हुए बिना नहीं रहता। इतना विशेष है कि मोहनीयके हास्य-शोक युगलमें,
रति-अरति युगलमें, तीनों वेदोंमें एक कालमें एक-एक ही प्रकृतिका बन्ध होता है।
होने पर कितनी ही पुण्यप्रकृतियोंका तथा कितनी ही पापप्रकृतियोंका बन्ध होता है।
उनमें मूल-उत्तर प्रकृतियोंका विभाग हुआ; इसलिये योगों द्वारा प्रदेशबन्ध तथा प्रकृतिबन्धका
होना जानना।
आबाधाकालको छोड़कर पश्चात् जब तक बँधी स्थिति पूर्ण हो तब तक प्रति समय उस
प्रकृति का उदय आता ही रहता है। वहाँ देव-मनुष्य-तिर्यंचायुके बिना अन्य सर्व घातिया-
अघातिया प्रकृतियोंका, अल्प कषाय होने पर थोड़ा स्थितिबन्ध होता है, बहुत कषाय होने
पर बहुत स्थितिबन्ध होता है। इन तीन आयुका अल्प कषायसे बहुत और बहुत कषायसे
अल्प स्थितिबन्ध जानना।
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होता है। वहाँ घाति कर्मोंकी सर्वप्रकृतियोंमें तथा अघाति कर्मोंकी पापप्रकृतियोंमें तो अल्प
कषाय होने पर अल्प अनुभाग बँधता है, बहुत कषाय होने पर बहुत अनुभाग बँधता है;
तथा पुण्य-प्रकृतियोंमें अल्प कषाय होने पर बहुत अनुभाग बँधता है, बहुत कषाय होने पर
थोड़ा अनुभाग बँधता है।
है और उसमें बहुत कालपर्यन्त बहुत उन्मत्तता उत्पन्न करनेकी शक्ति है तो वह मदिरा
अधिकपनेको प्राप्त है; उसी प्रकार बहुत भी कर्मप्रकृतियों के परमाणु हैं और उनमें थोड़े
कालपर्यन्त थोड़ा फल देनेकी शक्ति है तो वे कर्मप्रकृतियाँ हीनताको प्राप्त हैं, तथा थोड़े भी
कर्मप्रकृतियोंके परमाणु हैं और उनमें बहुत कालपर्यन्त बहुत फल देनेकी शक्ति है, तो वे
कर्मप्रकृतियाँ अधिकपनेको प्राप्त हैं।
जानना। जिन्हें बन्ध नहीं करना हो वे कषाय नहीं करें।
यथायोग्य किसी धातुरूप थोड़े और किसी धातुरूप बहुत परमाणु होते हैं। तथा उनमें कई
परमाणुओंका सम्बन्ध बहुत काल रहता है, कइयोंका थोड़े काल रहता है। तथा उन
परमाणुओंमें कई तो अपने कार्यको उत्पन्न करनेकी बहुत शक्ति रखते हैं, कई थोड़ी शक्ति
रखते हैं। वहाँ ऐसा होनेमें कोई भोजनरूप पुद्गलपिण्डको ज्ञान तो नहीं है कि मैं इस
प्रकार परिणमन करूँ तथा और भी कोई परिणमन करानेवाला नहीं है; ऐसा ही निमित्त-
नैमित्तिकभाव हो रहा है, उससे वैसे ही परिणमन पाया जाता है।
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प्रकृतिरूप थोड़े और किसी प्रकृतिरूप बहुत परमाणु होते हैं। तथा उनमें कई परमाणुओंका
सम्बन्ध बहुत काल और कइयोंका थोड़े काल रहता है। तथा उन परमाणुओंमें कई तो
अपने कार्यको उत्पन्न करनेकी बहुत शक्ति रखते हैं और कई थोड़ी शक्ति रखते हैं। वहाँ
ऐसा होनेमें किसी कर्मवर्गणारूप पुद्गलपिण्डको ज्ञान तो है नहीं कि मैं इस प्रकार परिणमन
करूँ तथा और भी कोई परिणमन करानेवाला नहीं है; ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक भाव बन
रहा है, उससे वैसे ही परिणमन पाया जाता है।
प्रकार जीवभावके निमित्तसे पुद्गलपरमाणुओंमें ज्ञानावरणादिरूप शक्ति होती है। यहाँ विचार
कर अपने उद्यमसे कार्य करे तो ज्ञान चाहिये, परन्तु वैसा निमित्त बनने पर स्वयमेव वैसे
परिणमन हो तो वहाँ ज्ञानका कुछ प्रयोजन नहीं है।
प्रकृतियोंकी अवस्थाका पलटना भी हो जाता है। वहाँ कई अन्य प्रकृतियोंके परमाणु थे
वे संक्रमणरूप होकर अन्य प्रकृतियोंके परमाणु हो जायें। तथा कई प्रकृतियोंकी स्थिति और
अनुभाग बहुत थे सो अपकर्षण होकर थोड़े हो जायें, तथा कई प्रकृतियोंकी स्थिति एवं
अनुभाग थोड़े थे सो उत्कर्षण होकर बहुत हो जायें। इस प्रकार पूर्वमें बँधे हुए परमाणुओंकी
भी जीवभावोंका निमित्त पाकर अवस्था पलटती है और निमित्त न बने तो नहीं पलटे, ज्योंकी
त्यों रहे।
कार्य बनता है
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कर्मत्वपनेका अभाव होता है, वे पुद्गल अन्य पर्यायरूप परिणमित होते हैं
कर्मत्वपनेकी नास्ति होनेके पीछे वे परमाणु उसी स्कंधमें रहें या अलग हो जायें, कुछ
हों उनमें क्रमसे उदयमें आते हैं। तथा बहुत समयोंमें बँधे परमाणु जो कि एक समयमें उदय
आने योग्य हैं वे इकट्ठे होकर उदयमें आते हैं। उन सब परमाणुओंका अनुभाग मिलकर जितना
अनुभाग हो उतना फल उस कालमें उत्पन्न होता है। तथा अनेक समयोंमें बँधे परमाणु बंधसमयसे
लेकर उदयसमय पर्यन्त कर्मरूप अस्तित्वको धारण कर जीवसे सम्बन्धस्वरूप रहते हैं।
समयप्रबद्धमात्र सदाकाल सत्तामें रहते हैं।
द्रव्यकर्मके निमित्तसे भावकर्म होता है और भावकर्मके निमित्तसे द्रव्यकर्मका बन्ध होता है।
तथा द्रव्यकर्मसे भावकर्म और भावकर्मसे द्रव्यकर्म
तब तीव्रकषाय हो, तब तीव्र ही नवीन बन्ध हो; तथा किसी कालमें मन्द उदय आये तब
मन्द कषाय हो, तब मंद ही बन्ध हो। तथा उन तीव्र
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शरीर पुद्गलपरमाणुओंका पिण्ड है और द्रव्यइन्द्रिय, द्रव्यमन, श्वासोच्छ्वास तथा वचन
सम्बन्ध रहता है। तथा आयु पूर्ण होने पर मरण होता है तब उस शरीरका सम्बन्ध छूटता
है, शरीर-आत्मा अलग-अलग हो जाते हैं। तथा उसके अनन्तर समयमें अथवा दूसरे, तीसरे,
चौथे समय जीव कर्मोदयके निमित्तसे नवीन शरीर धारण करता है; वहाँ भी अपनी आयुपर्यंत
उसी प्रकार सम्बन्ध रहता है, फि र मरण होता है तब उससे सम्बन्ध छूटता है। इसी प्रकार
पूर्व शरीरका छोड़ना और नवीन शरीरका ग्रहण करना अनुक्रमसे हुआ करता है।
हैं और अन्तराल समयमें पूर्व शरीर छोड़ा था, उस प्रमाण रहते हैं।
है। तथा कभी तो जीवकी इच्छाके अनुसार शरीर प्रवर्तता है, कभी शरीरकी अवस्थाके
अनुसार जीव प्रवर्तता है; कभी जीव अन्यथा इच्छारूप प्रवर्तता है, पुद्गल अन्यथा अवस्थारूप
प्रवर्तता है।
शरीरको धारण करता है, फि र आयु पूर्ण कर मरकर नित्यनिगोद शरीर ही को धारण
करता है। इसीप्रकार अनन्तानन्त प्रमाण सहित जीवराशि है सो अनादिसे वहाँ ही जन्म-
मरण किया करती है।
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पर्यायोंमें तथा दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय पर्यायों में अथवा नारक, तिर्यंच, मनुष्य,
देवरूप पंचेन्द्रिय पर्यायोंमें भ्रमण करते हैं। वहाँ कितने ही काल भ्रमण कर फि र निगोद
पर्यायको प्राप्त करे सो उसका नाम इतरनिगोद है।
द्वीन्द्रियादि पंचेन्द्रिय पर्यन्त त्रसोंमें साधिक दो हजार सागर है, इतरनिगोदमें ढाई
पुद्गलपरावर्तनमात्र है जो कि अनन्तकाल है। इतरनिगोदसे निकलकर कोई स्थावर पर्याय
प्राप्त करके फि र निगोद जाते हैं।
ही धारण करना है, अन्य पर्यायोंकी प्राप्ति तो काकतालीयन्यायवत् जानना।
इति कर्मबन्धननिदान वर्णनम्।
वहाँ सामान्यस्वरूप प्रतिभासित होने का नाम दर्शन है, विशेषस्वरूप प्रतिभासित होनेका नाम ज्ञान
है। ऐसे स्वभाव द्वारा त्रिकालवर्ती सर्वगुण-पर्यायसहित सर्व पदार्थोंको प्रत्यक्ष युगपत् बिना किसी
सहायताके देखे
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ज्ञान मंद है, वह अपने ज्ञानसे ही जानता है, परन्तु द्रव्यइन्द्रिय तथा मनका सम्बन्ध होने
पर ही जानता है, उनके बिना नहीं जान सकता। तथा जिस प्रकार नेत्र तो जैसेके तैसे
हैं, परन्तु चश्मेमें कुछ दोष हुआ हो तो नहीं देख सकता अथवा थोड़ा दीखता है या औरका
और दीखता है; उसी प्रकार अपना क्षयोपशम तो जैसाका तैसा है, परन्तु द्रव्यइन्द्रिय तथा
मनके परमाणु अन्यथा परिणमित हुए हों तो जान नहीं सकता अथवा थोड़ा जानता है अथवा
औरका और जानता है। क्योंकि द्रव्यइन्द्रिय तथा मनरूप परमाणुओंके परिणमनको और
मतिज्ञानको निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है, इसलिये उनके परिणमनके अनुसार ज्ञानका परिणमन
होता है। उसका उदाहरण
स्पर्शनादि इन्द्रियोंके और मनके परमाणु अन्यथा हों तब जानना नहीं होता अथवा थोड़ा जानना
होता है।
तो सब लाल दीखता है, हरित आड़ा आये तो हरित दीखता है
अन्य इन्द्रियों तथा मनके भी यथासम्भव जानना। मंत्रादिके प्रयोगसे अथवा मदिरापानादिकसे
अथवा भूतादिकके निमित्तसे नहीं जानना, थोड़ा जानना या अन्यथा जानना होता है। इस
प्रकार यह ज्ञान बाह्यद्रव्यके भी आधीन जानना।
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है, किसीको किंचित् जानता है
हों उन्हींको जानता है। उनमें भी अलग-अलग इन्द्रियों द्वारा अलग-अलग कालमें किसी स्कन्धके
स्पर्शादिकका जानना होता है। तथा मन द्वारा अपने जानने योग्य किंचित्मात्र त्रिकाल सम्बन्धी
दूर क्षेत्रवर्ती अथवा समीप क्षेत्रवर्ती रूपी-अरूपी द्रव्यों और पर्यायोंको अत्यन्त अस्पष्टरूपसे जानता
है। सो भी इन्द्रियों द्वारा जिसका ज्ञान हुआ हो अथवा जिसका अनुमानादिक किया हो उस
ही को जान सकता है। तथा कदाचित् अपनी कल्पना ही से असत्को जानता है। जैसे स्वप्नमें
अथवा जागते हुए भी जो कदाचित् कहीं नहीं पाये जाते ऐसे आकारादिकका चिंतवन करता
है और जैसे नहीं हैं वैसे मानता है। इस प्रकार मन द्वारा जानना होता है। सो यह इन्द्रियों
व मन द्वारा जो ज्ञान होता है, उसका नाम मतिज्ञान है।
स्पर्श, रस, गंधका ज्ञान है; भ्रमर, मक्षिका, पतंगादिक चौइन्द्रिय जीवोंको स्पर्श, रस, गंध,
वर्णका ज्ञान है; मच्छ, गाय, कबूतर इत्यादिक तिर्यंच और मनुष्य, देव, नारकी यह पंचेन्द्रिय
हैं
ही हैं, उन सबके मनजनित ज्ञान पाया जाता है।
जानना हुआ सो श्रुतज्ञान है। इस प्रकार अन्य भी जानना। यह तो अक्षरात्मक श्रुतज्ञान
है। तथा जैसे स्पर्श द्वारा शीतका जानना हुआ वह तो मतिज्ञान है; उसके सम्बन्धसे ‘यह
हितकारी नहीं है, इसलिये भाग जाना’ इत्यादिरूप ज्ञान हुआ सो श्रुतज्ञान है। इस प्रकार
अन्य भी जानना। यह अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान है।
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है तथा अन्य अनेक कारणोंके आधीन है; इसलिए महा पराधीन जानना।
है और संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच तथा मनुष्योंके भी किसीको पाया जाता है। असंज्ञी-पर्यंत
जीवोंके यह होता ही नहीं है। सो यह भी शरीरादिक पुद्गलोंके आधीन है। अवधिके
तीन भेद हैं
है। वहाँ नेत्र-इन्द्रिय द्वारा दर्शन होनेका नाम तो चक्षुदर्शन है; वह तो चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय
जीवोंको ही होता है। तथा स्पर्शन, रसना, घ्राण, श्रोत्र
होता है।
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एक जीवको एक कालमें एक विषयका ही देखना और जानना होता है। इस परिणमन ही
का नाम उपयोग है। वहाँ एक जीवको एक कालमें या तो ज्ञानोपयोग होता है या दर्शनोपयोग
होता है। तथा एक उपयोगके भी एक भेदकी प्रवृत्ति होती है। जैसे
है। जैसे
स्थित भी पदार्थ नहीं दीखता। इस ही प्रकार अन्य प्रवृत्ति देखी जाती है।
होता है, संस्कारबलसे उनका साधन रहता है। जैसे
द्वार तो अनेक हैं और उपयोग एक है, वह फि रता शीघ्र है, उससे सर्व द्वारोंका साधन
रहता है।
शक्ति होती है, तो शक्ति तो आत्मामें केवलज्ञान
पुरुषके बहुत ग्राम जानेकी शक्ति तो द्रव्य-अपेक्षा पाई जाती है; अन्य कालमें सामर्थ्य हो, परन्तु
वर्तमान सामर्थ्यरूप नहीं है
कर सकता है; तथा व्यक्तता एक दिनमें एक ग्रामको गमन करनेकी ही पाई जाती है।
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को जानो या देखो। वहाँ इस जीवको सर्वको देखने-जाननेकी शक्ति तो द्रव्य-अपेक्षा पाई
जाती है; अन्य कालमें सामर्थ्य हो, परन्तु वर्तमान सामर्थ्यरूप नहीं है, क्योंकि अपने योग्य
विषयोंसे अधिक विषयोंको देख
व्यक्तता एक कालमें एक ही को देखने या जाननेकी पाई जाती है।
हो या थोड़ा जाना हो या अन्यथा जाना हो; उसी प्रकार कर्मका ऐसा ही क्षयोपशम हुआ है
कि इतने विषयोंमें एक विषयको एक कालमें देखो या जानो; परन्तु इतने बाह्य द्रव्योंका निमित्त
होने पर देखो
निमित्त जानना। जैसे किसीको अंधकारके परमाणु आड़े आने पर देखना नहीं हो; उल्लू, बिल्ली
आदिको उनके आड़े आने पर भी देखना होता है
तथा मोक्षमार्गमें अवधि
जो विशेष है सो विशेष जानना।
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है। अमूर्तिक प्रदेशोंका पुंज, प्रसिद्ध ज्ञानादि गुणोंका धारी अनादिनिधन वस्तु आप है; और
मूर्तिक पुद्गलद्रव्योंका पिण्ड प्रसिद्ध ज्ञानादिकोंसे रहित जिनका नवीन संयोग हुआ ऐसे
शरीरादिक पुद्गल पर हैं; इनके संयोगरूप नानाप्रकारकी मनुष्य, तिर्यंचादिक पर्यायें होती हैं
करे उस ही को आपरूप मानता है।
शरीरादिकमें वर्णादिकोंका तथा परमाणुओंका नानाप्रकार पलटना होता है वह पुद्गलकी अवस्था
है; सो इन सब ही को अपना स्वरूप जानता है, स्वभाव
हैं। वे किसी प्रकार भी अपने होते नहीं, यह ही अपनी मान्यतासे ही अपने मानता है।
तथा मनुष्यादि पर्यायों में कदाचित् देवादिकका या तत्त्वोंका अन्यथा स्वरूप जो कल्पित किया
उसकी तो प्रतीति करता है, परन्तु यथार्थ स्वरूप जैसा है वैसी प्रतीति नहीं करता।
है तब सत्यश्रद्धानसे थोड़ा विपरीत श्रद्धान होता है।
है तथा शत्रु आदि सचेतन पदार्थ बुरे लगें तब उन्हें वध-बन्धनादिसे या मारनेसे दुःख उत्पन्न
करके उनका बुरा चाहता है। तथा आप स्वयं अथवा अन्य सचेतन-अचेतन पदार्थ किसी
प्रकार परिणमित हुए, अपनेको वह परिणमन बुरा लगा तब अन्यथा परिणमित कराके उस
परिणमनका बुरा चाहता है।
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तथा मानका उदय होने पर पदार्थमें अनिष्टपना मानकर उसे नीचा करना चाहता है,
उनकी हीनता, अपनी उच्चता चाहता है। तथा पुरुषादिक सचेतन पदार्थोंको झुकाना, अपने
आधीन करना इत्यादिरूपसे अपनी हीनता, उनकी उच्चता चाहता है। तथा स्वयं लोकमें जैसे
उच्च दिखे वैसे श्रृंगारादि करना तथा धन खर्च करना इत्यादिरूपसे औरोंको हीन दिखाकर
स्वयं उच्च होना चाहता है। तथा अन्य कोई अपनेसे उच्च कार्य करे उसे किसी उपायसे
नीचा दिखाता है और स्वयं नीचा कार्य करे उसे उच्च दिखाता है।
तथा मायाका उदय होने पर किसी पदार्थको इष्ट मानकर नाना प्रकारके छलों द्वारा
सचेतन पदार्थोंकी सिद्धिके अर्थ अनेक छल करता है। ठगनेके अर्थ अपनी अनेक अवस्थाएँ
करता है तथा अन्य अचेतन-सचेतन पदार्थोंकी अवस्था बदलता है। इत्यादि रूप छलसे अपना
अभिप्राय सिद्ध करना चाहता है।
तृष्णा होती है। तथा अपनेको या अन्य सचेतन-अचेतन पदार्थोंको कोई परिणमन होना इष्ट
मानकर उन्हें उस परिणमनस्वरूप परिणमित करना चाहता है।
इस प्रकार क्रोधादिके उदयसे आत्मा परिणमित होता है।
वहाँ ये कषाय चार प्रकारके हैं। १. अनन्तानुबन्धी, २. अप्रत्याख्यानावरण,
स्वरूपाचरणचारित्र न हो सके वे अनन्तानुबन्धी कषाय हैं।
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जिनका उदय होने पर सकलचारित्र नहीं होता, इसलिये सर्वका त्याग नहीं हो सकता वे
प्रत्याख्यानावरण कषाय हैं। तथा जिनका उदय होने पर सकलचारित्रमें दोष उत्पन्न होते रहते
हैं, इसलिये यथाख्यातचारित्र नहीं हो सकता वे संज्वलन कषाय हैं।
चारों ही का उदय रहता है। क्योंकि तीव्र-मंदकी अपेक्षा अनन्तानुबंधी आदि भेद नहीं हैं,
सम्यक्त्वादिका घात करनेकी अपेक्षा यह भेद हैं। इन्हीं प्रकृतियोंका तीव्र अनुभाग उदय होने
पर तीव्र क्रोधादिक होते हैं, मंद अनुभाग उदय होने पर मंद होते हैं।
किसी कालमें भिन्नता भासित होती है, किसी कालमें भासित नहीं होती।
तथा चारित्रमोहके ही उदयसे नोकषाय होती हैं; वहाँ हास्यके उदयसे कहीं इष्टपना
करता है, वहाँ आसक्त होता है। तथा अरतिके उदयसे किसीको अनिष्ट मानकर अप्रीति
करता है, वहाँ उद्वेगरूप होता है। तथा शोकके उदयसे कहीं अनिष्टपना मानकर दिलगीर
होता है, विषाद मानता है। तथा भयके उदयसे किसीको अनिष्ट मानकर उससे डरता है,
उसका संयोग नहीं चाहता। तथा जुगुप्साके उदयसे किसी पदार्थको अनिष्ट मानकर उससे
घृणा करता है, उसका वियोग चाहता है।
तथा वेदोंके उदयसे काम परिणाम होते हैं। वहाँ स्त्रीवेदके उदयसे पुरुषके साथ रमण
तथा नपुंसकवेदके उदयसे युगपत्
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साथ यथासम्भव होता है।
ही हैं। तथा इन्हींका नाम राग-द्वेष-मोह है। वहाँ मिथ्यात्वका नाम मोह है; क्योंकि वहाँ
सावधानीका अभाव है। तथा माया, लोभ कषाय एवं हास्य, रति और तीन वेदोंका नाम
राग है; क्योंकि वहाँ इष्टबुद्धिसे अनुराग पाया जाता है। तथा क्रोध, मान, कषाय और
अरति, शोक, भय जुगुप्साओंका नाम द्वेष है; क्योंकि वहाँ अनिष्टबुद्धिसे द्वेष पाया जाता
है। तथा सामान्यतः सभीका नाम मोह है; क्योंकि इनमें सर्वत्र असावधानी पाई जाती है।
सो नहीं होता, अपनी ज्ञानादि शक्तिको प्रगट करना चाहे सो प्रगट नहीं हो सकती। इस
प्रकार अन्तरायके उदयसे जो चाहता है सो नहीं होता, तथा उसीके क्षयोपशमसे किंचित्मात्र
चाहा हुआ भी होता है। चाह तो बहुत है, परन्तु किंचित्मात्र दान दे सकता है, लाभ
होता है, ज्ञानादिक शक्ति प्रगट होती है; वहाँ भी अनेक बाह्य कारण चाहिये।
दुःखके कारण होते हैं। बाह्यमें सुहावने ऋतु
कारण ऐसे हैं तो स्वयं ही सुख-दुःखको कारण होते हैं। ऐसे कारणोंका मिलना वेदनीयके
उदयसे होता है। वहाँ सातावेदनीयसे सुखके कारण मिलते हैं और असातावेदनीयसे दुःखके
कारण मिलते हैं।
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ही सम्बन्ध है। जब सातावेदनीयका उत्पन्न किया बाह्य कारण मिलता है तब तो सुख माननेरूप
मोहकर्मका उदय होता है, और जब असातावेदनीयका उत्पन्न किया बाह्य कारण मिलता है
तब दुःख माननेरूप मोहकर्मका उदय होता है।
किसीको असातावेदनीयका उदय होने पर मिला सो दुःखका कारण होता है। इसलिए बाह्य
वस्तु सुख-दुःखका निमित्तमात्र होती है। सुख-दुःख होता है वह मोहके निमित्तसे होता है।
निर्मोही मुनियोंको अनेक ऋद्धि आदि तथा परीषहादि कारण मिलते हैं तथापि सुख-दुःख उत्पन्न
नहीं होता। मोही जीवको कारण मिलने पर अथवा बिना कारण मिले भी अपने संकल्प
ही से सुख-दुःख हुआ ही करता है। वहाँ भी तीव्र मोहीको जिस कारणके मिलने पर तीव्र
सुख-दुःख होते हैं, वही कारण मिलने पर मंद मोहीको मंद सुख-दुःख होते हैं।
पाई जाती है; उससे मोही जीव अन्य वस्तु ही को सुख-दुःखका कारण मानता है।
जब आयुका उदय न हो तब अनेक उपाय करने पर भी शरीरसे सम्बन्ध नहीं रहता, उस
ही काल आत्मा और शरीर पृथक् हो जाते हैं।
उस पर्यायरूप प्राणोंके धारणसे जीना होता है। तथा आयुका क्षय हो तब उस पर्यायरूप
प्राण छूटनेसे मरण होता है। सहज ही ऐसा आयुकर्मका निमित्त है; दूसरा कोई उत्पन्न
करनेवाला, क्षय करनेवाला या रक्षा करनेवाला है नहीं