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ममत्व नहीं करते, तथा जो परद्रव्य व उनके स्वभाव ज्ञानमें प्रतिभाषित होते हैं उन्हें जानते
तो हैं, परन्तु इष्ट-अनिष्ट मानकर उनमें राग-द्वेष नहीं करते; शरीरकी अनेक अवस्थाएँ होती
हैं, बाह्य नाना निमित्त बनते हैं, परन्तु वहाँ कुछ भी सुख-दुःख नहीं मानते; तथा अपने
योग्य बाह्य क्रिया जैसे बनती हैं वैसे बनती हैं, खींचकर उनको नहीं करते; तथा अपने
उपयोगको बहुत नहीं भ्रमाते हैं, उदासीन होकर निश्चलवृत्तिको धारण करते हैं; तथा कदाचित्
मंदरागके उदयसे शुभोपयोग भी होता है
उदयका अभाव होनेसे हिंसादिरूप अशुभोपयोग परिणतिका तो अस्तित्व ही नहीं रहा है; तथा
ऐसी अन्तरंग (अवस्था) होने पर बाह्य दिगम्बर सौम्यमुद्राधारी हुए हैं, शरीरका सँवारना आदि
विक्रियाओंसे रहित हुए हैं, वनखण्डादिमें वास करते हैं, अट्ठाईस मूलगुणोंका अखण्डित पालन
करते हैं; बाईस परीषहोंको सहन करते हैं, बारह प्रकारके तपोंको आदरते हैं, कदाचित्
ध्यानमुद्रा धारण करके प्रतिमावत् निश्चल होते हैं, कदाचित् अध्ययनादिक बाह्य धर्मक्रियाओंमें
प्रवर्तते हैं, कदाचित् मुनिधर्मके सहकारी शरीरकी स्थितिके हेतु योग्य आहार-विहारादि क्रियाओंमें
सावधान होते हैं।
धर्मके लोभी अन्य जीव-याचक उनको देखकर राग अंशके उदयसे करुणाबुद्धि हो तो उनको
धर्मोपदेश देते हैं, जो दीक्षाग्राहक हैं उनको दीक्षा देते हैं, जो अपने दोषोंको प्रगट करते
हैं, उनको प्रायश्चित्त विधिसे शुद्ध करते हैं।
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कदाचित् कषाय अंशके उदयसे वहाँ उपयोग स्थिर न रहे तो उन शास्त्रोंको स्वयं पढ़ते हैं
तथा अन्य धर्मबुद्धियोंको पढ़ाते हैं।
भागे नहीं वैसे उपयोगको सधाते हैं और बाह्यमें उनके साधनभूत तपश्चरणादि क्रियाओंमें प्रवर्तते
हैं तथा कदाचित् भक्ति
हैं, परन्तु रागादि विकारोंसे व ज्ञानकी हीनतासे तो जीव निन्दायोग्य होते हैं और रागादिककी
हीनतासे व ज्ञानकी विशेषतासे स्तुतियोग्य होते हैं; सो अरहंत-सिद्धोंके तो सम्पूर्ण रागादिकी
हीनता और ज्ञानकी विशेषता होनेसे सम्पूर्ण वीतराग-विज्ञानभाव संभव है और आचार्य,
उपाध्याय तथा साधुओंको एकदेश रागादिककी हीनता और ज्ञानकी विशेषता होनेसे एकदेश
वीतराग-विज्ञान संभव है।
पुनश्च, ये जो अरहंतादिक पद हैं उनमें ऐसा जानना कि
तथा चौदहवें गुणस्थानके अनंतर समयसे लेकर सिद्ध नाम जानना। पुनश्च, जिनको आचार्यपद
हुआ हो वे संघमें रहें अथवा एकाकी आत्मध्यान करें अथवा एकाविहारी हों अथवा आचार्योंमें
भी प्रधानताको प्राप्त करके गणधरपदवीके धारक हों
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हैं। तथा जो पदवीधारक नहीं हैं वे सर्व मुनि साधुसंज्ञाके धारक जानना।
साधारण हैं, परन्तु शब्दनयसे उनका अक्षरार्थ वैसे किया जाता है। समभिरूढ़नयसे पदवीकी
अपेक्षा ही आचार्यादिक नाम जानना। जिसप्रकार शब्दनयसे जो गमन करे उसे गाय कहते
हैं, सो गमन तो मनुष्यादिक भी करते हैं; परन्तु समभिरूढ़नयसे पर्याय-अपेक्षा नाम है। उसही
प्रकार यहाँ समझना।
किया है।
इष्ट हो उसका नाम परमेष्ट है। पंच जो परमेष्ट उनका समाहार-समुदाय उसका नाम पंचपरमेष्टी
जानना।
नमि, नेमि, पार्श्व, वर्द्धमान नामके धारक चौबीस तीर्थंकर इस भरतक्षेत्रमें वर्तमान धर्मतीर्थके
नायक हुए हैं; गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, निर्वाण कल्याणकोंमें इन्द्रादिकों द्वारा विशेष पूज्य होकर
अब सिद्धालयमें विराजमान हैं; उन्हें हमारा नमस्कार हो।
देवयश, अजितवीर्य नामके धारक बीस तीर्थंकर पंचमेरु सम्बन्धी विदेह क्षेत्रोंमें वर्तमानमें
केवलज्ञान सहित विराजमान हैं; उन्हें हमारा नमस्कार हो।
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जैसे तीर्थंकर
हैं; जीवको तत्त्वज्ञानका कारण हैं, इसलिये उपकारी हैं; उन्हें हमारा नमस्कार हो।
हूँ, तथा जो किंचित् विनय करने योग्य हैं, उनकी यथायोग्य विनय करता हूँ।
अब, वे अरहंतादिक इष्ट कैसे हैं सो विचार करते हैंः
सिद्धि हो वही अपना इष्ट है। सो हमारे इस अवसरमें वीतराग-विशेषज्ञानका होना वही प्रयोजन
है, क्योंकि उसके द्वारा निराकुल सच्चे सुखकी प्राप्ति होती है और सर्व आकुलतारूप दुःखका
नाश होता है।
अपने स्वभावके घातक जो ज्ञानावरणादि घातिया कर्म हैं; उनका संक्लेश परिणामों द्वारा तो
तीव्र बन्ध होता है, और विशुद्ध परिणामों द्वारा मंद बंध होता है, तथा विशुद्ध परिणाम
प्रबल हों तो पूर्वकालमें जो तीव्र बंध हुआ था उसको भी मंद करता है। शुद्ध परिणामों
द्वारा बंध नहीं होता, केवल उनकी निर्जरा ही होती है। अरहंतादिके प्रति स्तवनादिरूप जो
भाव होते हैं, वे कषायोंकी मंदता सहित ही होते हैं, इसलिये वे विशुद्ध परिणाम हैं। पुनश्च,
समस्त कषाय मिटानेका साधन हैं, इसलिये शुद्ध परिणामका कारण हैं; सो ऐसे परिणामोंसे
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अंशोंमें वह हीन हो उतने अंशोंमें यह प्रगट होता है।
हैं।
जो असाता आदि पापप्रकृतियोंका बन्ध हुआ था उन्हें भी मन्द करता है अथवा नष्ट करके
पुण्यप्रकृतिरूप परिणमित करता है; और उस पुण्यका उदय होने पर स्वयमेव इन्द्रियसुखकी
कारणभूत सामग्री प्राप्त होती है तथा पापका उदय दूर होने पर स्वयमेव दुःखकी कारणभूत
सामग्री दूर हो जाती है।
सामग्रियोंका संयोग कराते हैं और दुःखकी कारणभूत सामग्रियोंको दूर करते हैं।
भी अपना हित नहीं होता; क्योंकि यह आत्मा कषायभावोंसे बाह्य सामग्रियोंमें इष्ट
इच्छा करना और दुःखसे डरना यह भ्रम है।
अरहंतादिककी भक्ति करनेसे ऐसे प्रयोजन तो स्वयमेव ही सिद्ध होते हैं।
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अर्थात् गाले, दूर करे उसका नाम मंगल है। इस प्रकार उनके द्वारा पूर्वोक्त प्रकारसे दोनों
कार्योंकी सिद्धि होती है, इसलिये उनके परम मंगलपना संभव है।
ऐसे मंगलोंसे मोह मंद हो जाये तो वैसा विपरीत कार्य कैसे बने ? तथा हम भी ग्रन्थ करते
हैं उसमें मोहकी मंदताके कारण वीतराग तत्त्वज्ञानका पोषण करनेवाले अर्थोंको धरेंगे (रखेंगे);
उसकी निर्विघ्न समाप्ति ऐसे मंगल करनेसे ही हो। यदि ऐसे मंगल न करें तो मोहकी तीव्रता
रहे, तब ऐसा उत्तम कार्य कैसे बने ?
उसके भी सुख नहीं दिखाई देता, पापका उदय दिखाई देता है
हो उसके बिना कमाए भी धन दिखाई देता है और ऋण दिखाई नहीं देता, तथा जिसके
पूर्वमें ऋण बहुत हो उसके धन कमाने पर भी ऋण दिखाई देता है धन दिखाई नहीं देता;
परन्तु विचार करनेसे कमाना तो धनहीका कारण है, ऋणका कारण नहीं है। उसी प्रकार
जिसके पूर्वमें बहुत पुण्य बंध हुआ हो उसके यहाँ ऐसा मंगल किये बिना भी सुख दिखाई
देता है, पापका उदय दिखाई नहीं देता। और जिसके पूर्वमें बहुत पापबंध हुआ हो उसके
यहाँ ऐसा मंगल करने पर भी सुख दिखाई नहीं देता, पापका उदय दिखाई देता है; परन्तु
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क्या कारण ? उसका समाधानः
निमित्त नहीं बनता और जिसके पुण्यका उदय हो उसको दण्डका निमित्त नहीं बनता।
किसी देवादिकको किसी कालमें होता है। इसलिये यदि उनका जानपना न हो तो कैसे सहाय
करें अथवा दण्ड दें ? और जानपना हो, तब स्वयंको जो अतिमंदकषाय हो तो सहाय करनेके
या दण्ड देनेके परिणाम ही नहीं होते, तथा तीव्रकषाय हो तो धर्मानुराग नहीं हो सकता,
तथा मध्यमकषायरूप वह कार्य करनेके परिणाम हुए और अपनी शक्ति न हो तो क्या करें ?
किसी धर्मात्माकी सहाय करते हैं अथवा किसी अधर्मीको दण्ड देते हैं।
इच्छाको छोड़कर हमने तो एक वीतराग-विशेषज्ञान होने के अर्थी होकर अरहंतादिकको
नमस्कारादिरूप मंगल किया है।
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तो सर्वत्र सर्वदा ऐसे प्रवर्तते हैं। इसीलिये कहा है कि
निधन पद है सो जीवको बतलानेवाला है। इस प्रकार अपने-अपने सत्य अर्थके प्रकाशक
अनेक पद उनका जो समुदाय सो श्रुत जानना। पुनश्च, जिस प्रकार मोती तो स्वयंसिद्ध
हैं, उनमेंसे कोई थोड़े मोतियोंको, कोई बहुत मोतियोंको, कोई किसी प्रकार, कोई किसी प्रकार
गूँथकर गहना बनाते हैं; उसी प्रकार पद तो स्वयंसिद्ध हैं, उनमेंसे कोई थोड़े पदोंको, कोई
बहुत पदोंको, कोई किसी प्रकार, कोई किसी प्रकार गूँथकर ग्रंथ बनाते हैं। यहाँ मैं भी
उन सत्यार्थपदोंको मेरी बुद्धि अनुसार गूँथकर ग्रंथ बनाता हूँ; मेरी मतिसे कल्पित झूठे अर्थके
सूचक पद इसमें नहीं गूँथता हूँ। इसलिये यह ग्रंथ प्रमाण जानना।
दिव्यध्वनि द्वारा ऐसा उपदेश होता है जिससे अन्य जीवोंको पदोंका एवं अर्थोंका ज्ञान होता
है; उसके अनुसार गणधरदेव अंगप्रकीर्णरूप ग्रन्थ गूँथते हैं तथा उनके अनुसार अन्य-अन्य
आचार्यादिक नानाप्रकार ग्रंथादिककी रचना करते हैं। उनका कोई अभ्यास करते हैं, कोई
उनको कहते हैं, कोई सुनते हैं।
दिव्यध्वनि द्वारा उपदेश दिया। उसको सुननेका निमित्त पाकर गौतम नामक गणधरने अगम्य
अर्थोंको भी जानकर धर्मानुरागवश अंगप्रकीर्णकोंकी रचना की। फि र वर्द्धमानस्वामी तो मुक्त
हुए। वहाँ पीछे इस पंचमकालमें तीन केवली हुए।
तक द्वादशांगके पाठी श्रुतकेवली रहे और फि र उनका भी अभाव हुआ। फि र कुछ काल
तक थोड़े अंगोंके पाठी रहे, पीछे उनका भी अभाव हुआ। तब आचार्यादिकों द्वारा उनके
अनुसार बनाए गए ग्रन्थ तथा अनुसारी ग्रन्थोंके अनुसार बनाए गये ग्रन्थ उनकी ही प्रवृत्ति
रही। उनमें भी कालदोषसे दुष्टों द्वारा कितने ही ग्रन्थोंकी व्युच्छत्ति हुई तथा महान ग्रन्थोंका
अभ्यासादि न होनेसे व्युच्छत्ति हुई। तथा कितने ही महान ग्रन्थ पाये जाते हैं, उनका बुद्धिकी
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अपनी बुद्धि द्वारा अभ्यास करने योग्य पाये जाते हैं, उनमें भी कुछ ग्रन्थोंका ही
अभ्यास बनता है। ऐसे इस निकृष्ट कालमें उत्कृष्ट जैनमतका घटना तो हुआ, परन्तु
इस परम्परा द्वारा अब भी जैन-शास्त्रोंमें सत्य अर्थका प्रकाशन करनेवाले पदोंका सद्भाव
प्रवर्तमान है।
उपयोगी ग्रन्थोंका किंचित् अभ्यास करके टीकासहित समयसार, पंचास्तिकाय, प्रवचनसार,
नियमसार, गोम्मटसार, लब्धिसार, त्रिलोकसार, तत्त्वार्थसूत्र इत्यादि शास्त्र और क्षपणासार,
पुरुषार्थसिद्धयुपाय, अष्टपाहुड़, आत्मानुशासन आदि शास्त्र और श्रावक
हमें इच्छा हुई है, इसलिये हम यह ग्रन्थ बना रहे हैं। इसमें भी अर्थसहित उन्हीं पदोंका
प्रकाशन होता है। इतना तो विशेष है कि
पद लिखते हैं; परन्तु अर्थमें व्यभिचार कुछ नहीं है।
फलरूप नरक
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परिग्रहको त्यागकर महामंदकषायी हुए हैं; उनके उस मंदकषायके कारण किंचित् शुभोपयोग
ही की प्रवृत्ति पाई जाती है और कुछ प्रयोजन ही नहीं है। तथा श्रद्धानी गृहस्थ भी कोई
ग्रन्थ बनाते हैं वे भी तीव्रकषायी नहीं होते। यदि उनके तीव्रकषाय हो तो सर्व कषायोंका
जिस-तिस प्रकारसे नाश करनेवाला जो जिनधर्म उसमें रुचि कैसे होती ? अथवा जो कोई
मोहके उदयसे अन्य कार्यों द्वारा कषाय पोषण करता है तो करो; परन्तु जिन-आज्ञा भंग
करके अपनी कषायका पोषण करे तो जैनीपना नहीं रहता।
ठगा जाता है; तथा उसकी परम्परा भी नहीं चलती, शीघ्र ही कोई झूठे मोतियोंका निषेध
करता है। उसी प्रकार कोई सत्यार्थ पदोंके समूहरूप जैनशास्त्रमें असत्यार्थ पद मिलाये; परन्तु
जैनशास्त्रोंके पदोंमें तो कषाय मिटानेका तथा लौकिक कार्य घटानेका प्रयोजन है, और उस
पापीने जो असत्यार्थ पद मिलाये हैं, उनमें कषायका पोषण करनेका तथा लौकिक-कार्य साधनेका
प्रयोजन है, इस प्रकार प्रयोजन नहीं मिलता; इसलिये परीक्षा करके ज्ञानी ठगाता भी नहीं,
कोई मूर्ख हो वही जैनशास्त्रके नामसे ठगा जाता है, तथा उसकी परम्परा भी नहीं चलती,
शीघ्र ही कोई उन असत्यार्थ पदोंका निषेध करता है।
तो परम्परा चले ?
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और उसहीके अनुसार ग्रन्थ बनाते हैं; इसलिये उन ग्रन्थोंमें तो असत्यार्थ पद कैसे गूँथे जायें ?
तथा जो अन्य आचार्यादिक ग्रन्थ बनाते हैं, वे भी यथायोग्य सम्यग्ज्ञानके धारक हैं और
वे मूल ग्रन्थोंकी परम्परासे ग्रन्थ बनाते हैं। दूसरी बात यह है कि
प्रमाणसे ठीक गूँथते हैं। इसलिये प्रथम तो ऐसी सावधानीमें असत्यार्थ पद गूँथे जाते नहीं,
और कदाचित् स्वयंको पूर्व ग्रन्थोंके पदोंका अर्थ अन्यथा ही भासित हो तथा अपनी प्रमाणतामें
भी उसी प्रकार आ जाये तो उसका कुछ सारा (वश) नहीं है; परन्तु ऐसा किसीको ही
भासित होता है सब ही को तो नहीं, इसलिये जिन्हें सत्यार्थ भासित हुआ हो वे उसका
निषेध करके परम्परा नहीं चलते देते।
तो जैनशास्त्रोंमें प्रसिद्ध कथन है। और जिनको भ्रमसे अन्यथा जानने पर भी जिन-आज्ञा
माननेसे जीवका बुरा न हो, ऐसे कोई सूक्ष्म अर्थ हैं; उनमेंसे किसीको कोई अन्यथा प्रमाणतामें
लाये तो भी उसका विशेष दोष नहीं है।
ग्रन्थोंमें वर्णन है वैसा ही वर्णन करेंगे। अथवा कहीं पूर्व ग्रन्थोंमें सामान्य गूढ वर्णन था,
उसका विशेष प्रगट करके वर्णन यहाँ करेंगे। सो इसप्रकार वर्णन करनेमें मैं तो बहुत सावधानी
रखूँगा। सावधानी करने पर भी कहीं सूक्ष्म अर्थका अन्यथा वर्णन हो जाय तो विशेष बुद्धिमान
हों, वे उसे सँवारकर शुद्ध करें
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तो उस मार्गमें स्वयं गमन कर उन दुःखोंसे मुक्त हों। सो मोक्षमार्ग एक वीतरागभाव है;
इसलिये जिन शास्त्रोंमें किसी प्रकार राग-द्वेष-मोहभावोंका निषेध करके वीतरागभावका प्रयोजन
प्रगट किया हो उन्हीं शास्त्रोंका पढ़ने
हैं; क्योंकि जिन राग-द्वेष-मोह भावोंसे जीव अनादिसे दुःखी हुआ उनकी वासना जीवको
बिना सिखलाये ही थी और इन शास्त्रों द्वारा उन्हींका पोषण किया, भला होनेकी क्या
शिक्षा दी ? जीवका स्वभाव घात ही किया। इसलिये ऐसे शास्त्रोंका पढ़ने
तो स्वयं ही से हीनबुद्धिके धारक हैं, उन्हें किसी युक्ति द्वारा श्रद्धानी कैसे करे? और श्रद्धान
ही सर्व धर्मका मूल है
पुनश्च, वक्ता कैसा होना चाहिये कि जो सम्यग्ज्ञान द्वारा सर्व प्रकारके व्यवहार-निश्चयादिरूप
व्याख्यानका अभिप्राय पहिचानता हो; क्योंकि यदि ऐसा न हो तो कहीं अन्य प्रयोजनसहित
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होना चाहिये कि जिसे जिनआज्ञा भंग करनेका भय बहुत हो; क्योंकि यदि ऐसा नहीं हो
तो कोई अभिप्राय विचार कर सूत्रविरुद्ध उपदेश देकर जीवोंका बुरा करे। सो ही कहा
हैः
उसे तो कुछ श्रोताओंके अभिप्रायके अनुसार व्याख्यान करके अपना प्रयोजन साधनेका ही
साधन रहे। तथा श्रोताओंसे वक्ताका पद उच्च है; परन्तु यदि वक्ता लोभी हो तो वक्ता
स्वयं हीन हो जाय और श्रोता उच्च हो।
पुनश्च, वक्ता कैसा होना चाहिये कि जो स्वयं ही नाना प्रश्न उठाकर स्वयं ही उत्तर दे;
अथवा अन्य जीव अनेक प्रकारसे बहुत बार प्रश्न करें तो मिष्ट वचन द्वारा जिस प्रकार
उनका संदेह दूर हो उसी प्रकार समाधान करे। यदि स्वयंमें उत्तर देनेकी सामर्थ्य न हो
तो ऐसा कहे कि इसका मुझे ज्ञान नहीं है; क्योंकि यदि ऐसा न हो तो श्रोताओंका
संदेह दूर नहीं होगा, तब कल्याण कैसे होगा ? और जिनमतकी प्रभावना भी नहीं हो
सकेगी।
करे ? वह जिनधर्मको लजाये। पुनश्च, वक्ता कैसा होना चाहिये कि जिसका कुल हीन न
हो, अंग हीन न हो, स्वर भंग न हो, मिष्ट वचन हो, प्रभुत्व हो; जिससे लोकमें मान्य
हो
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प्रास्ताशः प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः
ब्रूयाद्धर्मकथां गणी गुणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः
पहले ही जिसने उत्तर देखा हो, बाहुल्यतासे प्रश्नोंको सहनेवाला हो, प्रभु हो, परकी तथा
परके द्वारा अपनी निन्दारहितपनेसे परके मनको हरनेवाला हो, गुणनिधान हो, स्पष्ट मिष्ट जिसके
वचन हों
ऐसा भी हो; परन्तु अध्यात्मरस द्वारा यथार्थ अपने स्वरूपका अनुभव जिसको न हुआ हो
वह जिनधर्मका मर्म नहीं जानता, पद्धतिहीसे वक्ता होता है। अध्यात्मरसमय सच्चे जिनधर्मका
स्वरूप उसके द्वारा कैसे प्रगट किया जाये ? इसलिये आत्मज्ञानी हो तो सच्चा वक्तापना होता
है, क्योंकि प्रवचनसारमें ऐसा कहा है कि
धारक हैं तथा अवधि, मनःपर्यय, केवलज्ञानके धनी वक्ता हैं, उन्हें महान वक्ता जानना।
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धारक मुनि अथवा श्रावक उनके मुखसे तो शास्त्र सुनना योग्य है, और पद्धतिबुद्धिसे अथवा
शास्त्र सुननेके लोभसे श्रद्धानादिगुणरहित पापी पुरुषोंके मुखसे शास्त्र सुनना उचित नहीं है।
कहा है किः
सुनना योग्य है।
भाव होते हैं उनका क्या फल लगेगा ? जीव दुःखी हो रहा है सो दुःख दूर होनेका क्या
उपाय है ?
प्रीतिपूर्वक शास्त्र सुनता है; कुछ पूछना हो सो पूछता है; तथा गुरुओंके कहे अर्थको अपने
अन्तरङ्गमें बारम्बार विचारता है और अपने विचारसे सत्य अर्थोंका निश्चय करके जो कर्त्तव्य
हो उसका उद्यमी होता है
प्रश्न करते हैं अथवा परस्पर अनेक प्रश्नोत्तर कर वस्तु का निर्णय करते हैं; शास्त्राभ्यासमें
अति आसक्त हैं; धर्मबुद्धिसे निंद्य कार्योंके त्यागी हुए हैं
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उसे आत्मज्ञान न हुआ हो तो उपदेशका मर्म नहीं समझ सके; इसलिये जो आत्मज्ञान द्वारा
स्वरूपका आस्वादी हुआ है, वह जिनधर्मके रहस्यका श्रोता है। तथा जो अतिशयवन्त बुद्धिसे
अथवा अवधि
होता। तथा जो कुल प्रवृत्तिसे अथवा पद्धतिबुद्धिसे अथवा सहज योग बननेसे शास्त्र सुनते
हैं, अथवा सुनते तो हैं परन्तु कुछ अवधारण नहीं करते; उनके परिणाम अनुसार कदाचित्
पुण्यबन्ध होता है, कदाचित् पापबन्ध होता है। तथा जो मद-मत्सर- भावसे शास्त्र सुनते
हैं अथवा तर्क करनेका ही जिनका अभिप्राय है, तथा जो महंतताके हेतु अथवा किसी
लोभादिक प्रयोजनके हेतुसे शास्त्र सुनते हैं, तथा जो शास्त्र तो सुनते हैं, परन्तु सुहाता नहीं
है
होनेका मार्ग नहीं पाते, तड़प-तड़पकर वहाँ ही दुःख को सहते हैं।
ऐसी इच्छा नहीं है कि मैं मार्ग प्रकाशित करूँ, परन्तु सहज ही उसकी किरणें फै लती हैं, उनके
द्वारा मार्गका प्रकाशन होता है; उसी प्रकार केवली वीतराग हैं, इसलिये उनको ऐसी इच्छा नहीं
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पुद्गल दिव्यध्वनिरूप परिणमित होता है, उसके द्वारा मोक्षमार्गका प्रकाशन होता है।
करुणाबुद्धिसे अंगप्रकीर्णकादिरूप ग्रन्थ वे ही हुए महान् दीपक उनका उद्योत किया।
अन्य ग्रन्थ बनाये। इस प्रकार ग्रन्थ होनेसे ग्रन्थों की परम्परा प्रवर्तती है। मैं भी पूर्व ग्रन्थोंसे
यह ग्रन्थ बनाता हूँ।
सो यह भी ग्रन्थ मोक्षमार्गको प्रकाशित करता है। तथा जिस प्रकार प्रकाशित करने पर
भी जो नेत्ररहित अथवा नेत्रविकार सहित पुरुष हैं उनको मार्ग नहीं सूझता, तो दीपकके
तो मार्गप्रकाशकपनेका अभाव हुआ नहीं है; उसी प्रकार प्रगट करने पर भी जो मनुष्य ज्ञानरहित
हैं अथवा मिथ्यात्वादि विकार सहित हैं उन्हें मोक्षमार्ग नहीं सूझता, तो ग्रंथके तो
मोक्षमार्गप्रकाशकपनेका अभाव हुआ नहीं है।
प्रश्न :
उसके उद्योतसे अपना कार्य करें; उसी प्रकार बड़े ग्रन्थोंका तो प्रकाश बहुत ज्ञानादिकके साधनसे
रहता है, जिनके बहुत ज्ञानादिककी शक्ति नहीं है उनको छोटा ग्रन्थ बना दें तो वे उसका
साधन रखकर उसके प्रकाशसे अपना कार्य करें; इसलिये यह छोटा सुगम ग्रन्थ बनाते हैं।
बनाता हूँ। जिनको व्याकरण-न्यायादिका, नय-प्रमाणादिकका तथा विशेष अर्थोंका ज्ञान नहीं
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अभ्यास बने तो भी यथार्थ अर्थ भासित नहीं होता।
बनाता हूँ।
पीड़ित जीवको सुगम मोक्षमार्गके उपदेशका निमित्त बने और वह अभ्यास न करे तो उसके
अभाग्यकी महिमा हमसे तो नहीं हो सकती। उसकी होनहार ही का विचार करने पर अपनेको
समता आती है। कहा है किः
रहित हैं वे बड़े सुभट हैं।
का श्रद्धान होता है, तत्त्वों का श्रद्धान होने से संयमभाव होता है, और उस आगमसे
आत्मज्ञानकी भी प्राप्ति होती है; तब सहज ही मोक्षकी प्राप्ति होती है।
कल्याण होगा।
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दुःख दूर करने ही का निरन्तर उपाय भी रहता है, परन्तु सच्चा उपाय प्राप्त किये
बिना दुःख दूर नहीं होता और दुःख सहा भी नहीं जाता; इसलिये यह जीव व्याकुल हो
रहा है।
इसे उपदेश देते हैं। वहाँ जैसे वैद्य है सो रोग सहित मनुष्यको प्रथम तो रोगका निदान
बतलाता है कि इस प्रकार यह रोग हुआ है; तथा उस रोगके निमित्तसे उसके जो-जो
अवस्था होती हो वह बतलाता है। उससे निश्चय होता है कि मुझे ऐसा ही रोग है।
फि र उस रोगको दूर करनेका उपाय अनेक प्रकारसे बतलाता है और उस उपायकी उसे
प्रतीति कराता है
है वह बतलाते हैं। उससे जीवको निश्चय होता है कि मुझे ऐसा ही कर्मबन्धन है। तथा
उस कर्मबन्धनके दूर होनेका उपाय अनेक प्रकारसे बतलाते हैं और उस उपायकी इसे प्रतीत
कराते हैं
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अनन्तान्त जीवद्रव्य हैं वे अनादि ही से कर्मबन्धन सहित हैं। ऐसा नहीं है कि पहले जीव
न्यारा था और कर्म न्यारा था, बादमें इनका संयोग हुआ। तो कैसे हैं?
परमाणु भिन्न होते हैं, कितने ही नये मिलते हैं, इस प्रकार मिलना
एकबन्धनरूप है, फि र उनमें कितने ही कर्मपरमाणु भिन्न होते हैं, कितने ही नये मिलते हैं।
वहाँ निमित्तका क्या प्रयोजन है? उसी प्रकार नवीन परमाणुओंका कर्मरूप होना तो रागादिक
ही से होता है और अनादि पद्गलपरमाणुओंकी कर्मरूप ही अवस्था है, वहाँ निमित्तका क्या
प्रयोजन है? तथा यदि अनादिमें भी निमित्त मानें तो अनादिपना रहता नहीं; इसलिये कर्मका
बन्ध अनादि मानना। सो तत्त्वप्रदीपिका प्रवचनसार शास्त्रकी व्याख्यामें जो सामान्यज्ञेयाधिकार
है वहाँ कहा हैः