Panchastikay Sangrah (Hindi). Dharmadravya-astikay aur Adharmadravya-astikay ka vyakhyan; Gatha: 83-99 ; Akashdravya-astikay ka vyakhyan; Choolika.

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१३२
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
सकलपुद्गलविकल्पोपसंहारोऽयम्।
इन्द्रियविषयाः स्पर्शरसगंधवर्णशब्दाश्च, द्रव्येन्द्रियाणि स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुः–श्रोत्राणि, कायाः
औदारिकवैक्रियकाहारकतैजसकार्मणानि, द्रव्यमनः, द्रव्यकर्माणि, नोकर्माणि, विचित्र–
पर्यायोत्पत्तिहेतवोऽनंता अनंताणुवर्गणाः, अनंता असंख्येयाणुवर्गणाः, अनंता संख्येयाणुवर्गणाः द्वय
णुकस्कंधपर्यंताः, परमाणवश्च, यदन्यदपि मूर्तं तत्सर्वं पुद्गलविकल्पत्वेनोपसंहर्तव्य–मिति।।८२।।
–इति पुद्गलद्रव्यास्तिकायव्याख्यानं समाप्तम्।
-----------------------------------------------------------------------------
टीकाः– यह, सर्व पुद्गलभेदोंका उपसंहार है।
स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्दरूप [पाँच] इन्द्रियविषय, स्पर्शन, रसन, ध्राण, चक्षु और
श्रोत्ररूप [पाँच] द्रव्येन्द्रियाँ, औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मणरूप [पाँच] काया,
द्रव्यमन, द्रव्यकर्म, नोकर्म, विचित्र पर्यायोंंकी उत्पत्तिके हेतुभूत [अर्थात् अनेक प्रकारकी पर्यायें उत्पन्न
होनेके कारणभूत]
अनन्त अनन्ताणुक वर्गणाएँ, अनन्त असंख्याताणुक वर्गणाएँ और द्वि–अणुक
स्कन्ध तककी अनन्त संख्याताणुक वर्गणाएँ तथा परमाणु, तथा अन्य भी जो कुछ मूर्त हो वह सब
पुद्गलके भेद रूपसे समेटना।
भावार्थः– वीतराग अतीन्द्रिय सुखके स्वादसे रहित जीवोंको उपभोग्य पंचेन्द्रियविषय, अतीन्द्रिय
आत्मस्वरूपसे विपरीत पाँच इन्द्रियाँ, अशरीर आत्मपदार्थसे प्रतिपक्षभूत पाँच शरीर, मनोगत–
विकल्पजालरहित शुद्धजीवास्तिकायसे विपरीत मन, कर्मरहित आत्मद्रव्यसे प्रतिकूल आठ कर्म और
अमूर्त आत्मस्वभावसे प्रतिपक्षभूत अन्य भी जो कुछ मूर्त हो वह सब पुद्गल जानो।। ८२।।

इस प्रकार पुद्गलद्रव्यास्तिकायका व्याख्यान समाप्त हुआ।
--------------------------------------------------------------------------
लोकमें अनन्त परमाणुओंकी बनी हुई वर्गणाएँ अनन्त हैं, असंख्यात परमाणुओंकी बनी हुई वर्गणाएँ भी अनन्त
हैं और [द्वि–अणुक स्कन्ध, त्रि–अणुक स्कन्ध इत्यादि] संख्यात परमाणुओंकी बनी हुई वर्गणाएँ भी अनन्त हैं।
[अविभागी परमाणु भी अनन्त हैं।]

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१३३
अथ धर्माधर्मद्रव्यास्तिकायव्याख्यानम्।
धम्मत्थिकायमरसं अवण्णगंधं असद्दमप्फासं।
लेगागाढं पुट्ठं पिहुलमसंखादियपदेसं।। ८३।।
धर्मास्तिकायोऽरसोऽवर्णगंधोऽशब्दोऽस्पर्शः।
लेकावगाढः स्पृष्टः पृथुलोऽसंख्यातप्रदेशः।। ८३।।
धर्मस्वरूपाख्यानमेतत्।
धर्मो हि स्पर्शरसगंधवर्णानामत्यंताभावादमूर्तस्वभावः। त्त एव चाशब्दः। स्कल–
लोकाकाशाभिव्याप्यावस्थितत्वाल्लोकावगाढः। अयुतसिद्धप्रदेशत्वात् स्पष्टः। स्वभावादेव सर्वतो
विस्तृतत्वात्पृथुलः। निश्चयनयेनैकप्रदेशोऽपि व्यवहारनयेनासंख्यातप्रदेश इति।। ८३।।
-----------------------------------------------------------------------------
अब धर्मद्रव्यास्तिकाय और अधर्मद्रव्यास्तिकायका व्याख्यान है।
गाथा ८३
अन्वयार्थः– [धर्मास्तिकायः] धर्मास्तिकाय [अस्पर्शः] अस्पर्श, [अरसः] अरस, [अवर्णगंधः]
अगन्ध, अवर्ण और [अशब्दः] अशब्द है; [लोकावगाढः] लोकव्यापक हैः [स्पृष्टः] अखण्ड,
[पृथुलः] विशाल और [असंख्यातप्रदेशः] असंख्यातप्रदेशी है।
टीकाः– यह, धर्मके [धर्मास्तिकायके] स्वरूपका कथन है।
स्पर्श, रस, गंध और वर्णका अत्यन्त अभाव होनेसे धर्म [धर्मास्तिकाय] वास्तवमें
अमूर्तस्वभाववाला है; और इसीलिये अशब्द है; समस्त लोकाकाशमें व्याप्त होकर रहनेसे लोकव्यापक
है;
अयुतसिद्ध प्रदेशवाला होनेसे अखण्ड है; स्वभावसे ही सर्वतः विस्तृत होनेसे विशाल है;
निश्चयनयसे ‘एकप्रदेशी’ होन पर भी व्यवहारनयसे असंख्यातप्रदेशी है।। ८३।।
--------------------------------------------------------------------------
१। युतसिद्ध=जुड़े हुए; संयोगसिद्ध। [धर्मास्तिकायमें भिन्न–भिन्न प्रदेशोंका संयोग हुआ है ऐसा नहीं है, इसलिये
उसमें बीचमें व्यवधान–अन्तर–अवकाश नहीं है ; इसलिये धर्मास्तिकाय अखण्ड है।]

२। एकप्रदेशी=अविभाज्य–एकक्षेत्रवाला। [निश्चयनयसे धर्मास्तिकाय अविभाज्य–एकपदार्थ होनेसे अविभाज्य–
एकक्षेत्रवाला है।]
धर्मास्तिकाय अवर्णगंध, अशब्दरस, अस्पर्श छे;
लोकावगाही, अखंड छे, विस्तृत, असंख्यप्रदेश। ८३।

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१३४
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
अगुरुगलघुगेहिं सया तेहिं अणंतेहिं परिणदं णिच्चं।
गदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं सयमकज्जं।। ८४।।
अगुरुकलघुकैः सदा तैः अनंतैः परिणतः नित्यः।
गतिक्रियायुक्तानां कारणभूतः स्वयमकार्यः।। ८४।।
धर्मस्यैवावशिष्टस्वरूपाख्यानमेतत्।
अपि च धर्मः अगुरुलघुभिर्गुणैरगुरुलघुत्वाभिधानस्य स्वरूपप्रतिष्ठत्वनिबंधनस्य स्वभाव–
स्याविभागपरिच्छेदैः प्रतिसमयसंभवत्षट्स्थानपतितवृद्धिहानिभिरनंतैः सदा परिणतत्वादुत्पाद–
व्ययवत्त्वेऽपि स्वरूपादप्रच्यवनान्नित्यः। गतिक्रियापरिणतानामुदा–
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा ८४
अन्वयार्थः– [अनंतः तैः अगुरुकलघुकैः] वह [धर्मास्तिकाय] अनन्त ऐसे जो अगुरुलघु [गुण,
अंश] उन–रूप [सदा परिणतः] सदैव परिणमित होता है, [नित्यः] नित्य है, [गतिक्रियायुक्तानां]
गतिक्रियायुक्तको [कारणभूतः] कारणभूत [निमित्तरूप] है और [स्वयम् अकार्यः] स्वयं अकार्य है।
टीकाः– यह, धर्मके ही शेष स्वरूपका कथन है।
पुनश्च, धर्म [धर्मास्तिकाय] अगुरुलघुगुणोंरूपसे अर्थात् अगुरुलघुत्व नामका जो
स्वरूपप्रतिष्ठत्वके कारणभूत स्वभाव उसके अविभाग परिच्छेदोंरूपसे – जो कि प्रतिसमय होनेवाली
षट्स्थानपतित वृद्धिहानिवाले अनन्त हैं उनके रूपसे – सदा परिणमित होनेसे उत्पादव्ययवाला है,
--------------------------------------------------------------------------
१। गुण=अंश; अविभाग परिच्छेद [सर्व द्रव्योंकी भाँति धर्मास्तिकायमें अगुरुलघुत्व नामका स्वभाव है। वह स्वभाव
धर्मास्तिकायको स्वरूपप्रतिष्ठत्वके [अर्थात् स्वरूपमें रहनेके] कारणभूत है। उसके अविभाग परिच्छेदोंको यहाँ
अगुरुलघु गुण [–अंश] कहे हैं।]
२। षट्स्थानपतित वृद्धिहानि=छह स्थानमें समावेश पानेवाली वृद्धिहानि; षट्गुण वृद्धिहानि। [अगुरुलघुत्वस्वभावके
अनन्त अंशोंमें स्वभावसे ही प्रतिसमय षट्गुण वृद्धिहानि होती रहती है।]

जे अगुरुलधुक अनन्त ते–रूप सर्वदा ए परिणमे,
छे नित्य, आप अकार्य छे, गतिपरिणमितने हेतु छे। ८४।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१३५
स्ीनाविनाभूतसहायमात्रत्वात्कारणभूतः। स्वास्तित्वमात्रनिर्वृत्तत्वात् स्वयमकार्य इति।। ८४।।
उदयं जह मच्छाणं गमणाणुग्गहकरं हवदि लोए।
त्ह जीवपुग्गलोणं धम्मं दव्वं वियाणाहि।। ८५।।
उदकं यथा मत्स्यानां गमनानुग्रहकरं भवति लोके।
त्था जीवपुद्गलानां धर्मद्रव्यं विजानीहि।। ८५।।
-----------------------------------------------------------------------------
तथापि स्वरूपसे च्युत नहीं होता इसलिये नित्य है; गतिक्रियापरिणतको [गतिक्रियारूपसे परिणमित
होनेमें जीव–पुद्गलोंको]
उदासीन अविनाभावी सहायमात्र होनेसे [गतिक्रियापरिणतको] कारणभूत
है; अपने अस्तित्वमात्रसे निष्पन्न होनेके कारण स्वयं अकार्य है [अर्थात् स्वयंसिद्ध होनेके कारण
किसी अन्यसे उत्पन्न नहीं हुआ है इसलिये किसी अन्य कारणके कार्यरूप नहीं है]।। ८४।।
गाथा ८५
अन्वयार्थः– [यथा] जिस प्रकार[लोके] जगतमें [उदकं] पानी [मत्स्यानां] मछलियोंको
[गमनानुग्रहकरं भवति] गमनमें अनुग्रह करता है, [तथा] उसी प्रकार [धर्मद्रव्यं] धर्मद्रव्य
[जीवपुद्गलानां] जीव–पुद्गलोंको गमनमें अनुग्रह करता है [–निमित्तभूत होता है] ऐसा
[विजानीहि] जानो।
--------------------------------------------------------------------------
१। जिस प्रकार सिद्धभगवान, उदासीन होने पर भी, सिद्धगुणोंके अनुरागरूपसे परिणमत भव्य जीवोंको
सिद्धगतिके सहकारी कारणभूत है, उसी प्रकार धर्म भी, उदासीन होने पर भी, अपने–अपने भावोंसे ही
गतिरूप परिणमित जीव–पुद्गलोंको गतिका सहकारी कारण है।

२। यदि कोई एक, किसी दूसरेके बिना न हो, तो पहलेको दूसरेका अविनाभावी कहा जाता है। यहाँ धर्मद्रव्यको
‘गतिक्रियापरिणतका अविनाभावी सहायमात्र’ कहा है। उसका अर्थ है कि – गतिक्रियापरिणत जीव–पुद्गल
न हो तो वहाँ धर्मद्रव्य उन्हें सहायमात्ररूप भी नहीं है; जीव–पुद्गल स्वयं गतिक्रियारूपसे परिणमित होते हों
तभी धर्मद्रव्य उन्हेंे उदासीन सहायमात्ररूप [निमित्तमात्ररूप] है, अन्यथा नहीं।
ज्यम जगतमां जळ मीनने अनुग्रह करे छे गमनमां,
त्यम धर्म पण अनुग्रह करे जीव–पुद्गलोने गमनमां। ८५।

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१३६
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
धर्मस्य गतिहेतुत्वे द्रष्टांतोऽयम्।
य्थोदकं स्वयमगच्छदगमयच्च स्वयमेव गच्छतां मत्स्यानामुदासीनाविनाभूतसहाय–
कारणमात्रत्वेन गमनमनुगृह्णाति, तथा धर्मोऽपि स्वयमगच्छन् अगमयंश्च
स्वयमेव गच्छतां जीवपुद्गलानामुदासीनाविनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन गमनमुनगृह्णाति इति।।८५।।
जह हवदि धम्मदव्वं तह तं जाणेह दव्वमधमक्खं।
ठिदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं तु
पुढवीव।। ८६।।
यथा भवति धर्मद्रव्यं तथा तज्जानीहि द्रव्यमधर्माख्यम्।
स्थितिक्रियायुक्तानां कारणभूतं तु पृथिवीव।। ८६।।
-----------------------------------------------------------------------------
टीकाः– यह, धर्मके गतिहेतुत्वका द्रष्टान्त है।
जिस प्रकार पानी स्वयं गमन न करता हुआ और [परको] गमन न कराता हुआ, स्वयमेव
गमन करती हुई मछलियोंको उदासीन अविनाभावी सहायरूप कारणमात्ररूपसे गमनमें अनुग्रह करता
है, उसी प्रकार धर्म [धर्मास्तिकाय] भी स्वयं गमन न करता हुआ ऐर [परको] गमन न कराता
हुआ, स्वयमेव गमन करते हुए जीव–पुद्गलोंको उदासीन अविनाभावी सहायरूप कारणमात्ररूपसे
गमनमें
अनुग्रह करता है।। ८५।।
गाथा ८६
अन्वयार्थः– [यथा] जिस प्रकार [धर्मद्रव्यं भवति] धर्मद्रव्य है [तथा] उसी प्रकार
[अधर्माख्यम् द्रव्यम्] अधर्म नामका द्रव्य भी [जानीहि] जानो; [तत् तु] परन्तु वह
[गतिक्रियायुक्तको कारणभूत होनेके बदले] [स्थितिक्रियायुक्तानाम्] स्थितिक्रियायुक्तको [पृथिवी
इव] पृथ्वीकी भाँति [कारणभूतम्] कारणभूत है [अर्थात् स्थितिक्रियापरिणत जीव–पुद्गलोंको
निमित्तभूत है]।
--------------------------------------------------------------------------
गमनमें अनुग्रह करना अर्थात् गमनमें उदासीन अविनाभावी सहायरूप [निमित्तरूप] कारणमात्र होना।
ज्यम धर्मनामक द्रव्य तेम अधर्मनामक द्रव्य छे;
पण द्रव्य आ छे पृथ्वी माफक हेतु थितिपरिणमितने। ८६।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१३७
अधर्मस्वरूपाख्यानमेतत्।
यथा धर्मः प्रज्ञापितस्तथाधर्मोपि प्रज्ञापनीयः। अयं तु विशेषः। स गतिक्रियायुक्ता–
नामुदकवत्कारणभूत; एषः पुनः स्थितिक्रियायुक्तानां पृथिवीवत्कारणभूतः। यथा पृथिवी स्वयं पूर्वमेव
तिष्ठंती परमस्थापयंती च स्वयेव तिष्ठतामश्वादीना मुदासीना–विनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन
स्थितिमनुगृह्णाति तथाऽधर्माऽपि स्वयं पूर्वमेव तिष्ठन् परमस्थापयंश्च स्वयमेव तिष्ठतां
जीवपुद्गलानामुदासीनाविनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन स्थितिमनुगृह्णातीति।।८६।।
जादो अलोगलोगो जेसिं सब्भावदो य गमणठिदी।
दो वि य मया विभत्ता अविभत्ता लोयमेत्ता य।। ८७।।
जातमलोकलोकं ययोः सद्भावतश्च गमनस्थिती।
द्वावपि च मतौ विभक्तावविभक्तौ लोकमात्रौ च।। ८७।।
-----------------------------------------------------------------------------
टीकाः– यह, अधर्मके स्वरूपका कथन है।
जिस प्रकार धर्मका प्रज्ञापन किया गया, उसी प्रकार अधर्मका भी प्रज्ञापन करने योग्य है।
परन्तु यह [निम्नोक्तानुसार] अन्तर हैः वह [–धर्मास्तिकाय] गतिक्रियायुक्तको पानीकी भाँति
कारणभूत है और यह [अधर्मास्तिकाय] स्थितिक्रियायुक्तको पृथ्वीकी भाँति कारणभूत है। जिस प्रकार
पृथ्वी स्वयं पहलेसे ही स्थितिरूप [–स्थिर] वर्तती हुई तथा परको स्थिति [–स्थिरता] नहीं
कराती हुई, स्वयमेव स्थितिरूपसे परिणमित होते हुए अश्वादिकको उदासीन अविनाभावी सहायरूप
कारणमात्रके रूपमें स्थितिमें अनुग्रह करती है, उसी प्रकार अधर्म [अधर्मास्तिकाय] भी स्वयं पहलेसे
ही स्थितिरूपसे वर्तता हुआ और परको स्थिति नहीं कराता हुआ, स्वयमेव स्थितिरूप परिणमित
होते हुए जीव–पुद्गलोंको उदासीन अविनाभावी सहायरूप कारणमात्रके रूपमें स्थितिमें अनुग्रह
करता है।। ८६।।
गाथा ८७
अन्वयार्थः– [गमनस्थिती] [जीव–पुद्गलकी] गति–स्थिति [च] तथा [अलोकलोकं]
अलोक और लोकका विभाग, [ययोः सद्भावतः] उन दो द्रव्योंके सद्भावसे [जातम्] होता है। [च]
और [द्वौ अपि] वे दोनों [विभक्तौ] विभक्त, [अविभक्तौ] अविभक्त [च] और [लोकमात्रौ]
लोकप्रमाण [मतौ] कहे गये हैं।
--------------------------------------------------------------------------
धर्माधरम होवाथी लोक–अलोक ने स्थितिगति बने;
ते उभय भिन्न–अभिन्न छे ने सकळलोकप्रमाण छे। ८७।

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१३८
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
धर्माधर्मसद्भावे हेतूपन्यासोऽयम्
धर्माधर्मौ विद्येते। लोकालोकविभागान्यथानुपपत्तेः। जीवादिसर्वपदार्थानामेकत्र वृत्तिरूपो
लोकः। शुद्धैकाकाशवृत्तिरूपोऽलोकः। तत्र जीवपुद्गलौ स्वरसत एव गतितत्पूर्व–स्थितिपरिणामापन्नौ।
तयोर्यदि गतिपरिणामं तत्पूर्वस्थितिपरिणामं वा स्वयमनुभवतोर्बहिरङ्गहेतू धर्माधर्मो न भवेताम्, तदा
तयोर्निरर्गलगतिस्थितिपरिणामत्वादलोकेऽपि वृत्तिः केन वार्येत। ततो न लोकालोकविभागः सिध्येत।
धर्माधर्मयोस्तु जीवपुद्गलयोर्गतितत्पूर्वस्थित्योर्बहिरङ्गहेतुत्वेन सद्भावेऽभ्युपगम्यमाने लोकालोकविभागो
जायत इति। किञ्च धर्माधर्मो द्वावपि परस्परं
पृथग्भूतास्तित्वनिर्वृत्तत्वाद्विभक्तौ।
एकक्षेत्रावगाढत्वादभिक्तौ। निष्क्रियत्वेन सकललोकवर्तिनो–
र्जीवपुद्गलयोर्गतिस्थित्युपग्रहकरणाल्लोकमात्राविति।। ८७।।
-----------------------------------------------------------------------------
टीकाः– यह, धर्म और अधर्मके सद्भावकी सिद्धि लिये हेतु दर्शाया गया है।
धर्म और अधर्म विद्यमान है, क्योंकि लोक और अलोकका विभाग अन्यथा नहीं बन सकता।
जीवादि सर्व पदार्थोंके एकत्र–अस्तित्वरूप लोक है; शुद्ध एक आकाशके अस्तित्वरूप अलोक है।
वहाँ, जीव और पुद्गल स्वरससे ही [स्वभावसे ही] गतिपरिणामको तथा गतिपूर्वक
स्थितिपरिणामको प्राप्त होते हैं। यदि गतिपरिणाम अथवा गतिपूर्वक स्थितिपरिणामका स्वयं अनुभव
करनेवाले उन जीव–पुद्गलको बहिरंग हेतु धर्म और अधर्म न हो, तो जीव–पुद्गलके
निरर्गल
गतिपरिणाम और स्थितिपरिणाम होनेसे अलोकमें भी उनका [जीव –पुद्गलका] होना किससे
निवारा जा सकता है? [किसीसे नहीं निवारा जा सकता।] इसलिये लोक और अलोकका विभाग
सिद्ध नहीं होता। परन्तु यदि जीव–पुद्गलकी गतिके और गतिपूर्वक स्थितिके बहिरंग हेतुओंंके
रूपमें धर्म और अधर्मका सद्भाव स्वीकार किया जाये तो लोक और अलोकका विभाग [सिद्ध]
होता है । [इसलिये धर्म और अधर्म विद्यमान है।] और [उनके सम्बन्धमें विशेष विवरण यह है
कि], धर्म और अधर्म दोनों परस्पर पृथग्भूत अस्तित्वसे निष्पन्न होनेसे विभक्त [भिन्न] हैं;
एकक्षेत्रावगाही होनेसे अविभक्त [अभिन्न] हैं; समस्त लोकमें विद्यमान जीव –पुद्गलोंको गतिस्थितिमें
निष्क्रियरूपसे अनुग्रह करते हैं इसलिये [–निमित्तरूप होते हैं इसलिये] लोकप्रमाण हैं।। ८७।।
--------------------------------------------------------------------------
निरर्गल=निरंकुश; अमर्यादित।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१३९
ण य गच्छदि धम्मत्थी गमणं ण करेदि अण्णदवियस्स।
हवदि गदि स्स प्पसरो जीवाणं पुग्गलाणं
च।। ८८।।
न च गच्छति धर्मास्तिको गमनं न करोत्यन्यद्रव्यस्य।
भवति गतेः सः प्रसरो जीवानां पुद्गलानां च।। ८८।।
धर्माधर्मयोर्गतिस्थितिहेतुत्वेऽप्यंतौदासीन्याख्यापनमेतत्।
यथा हि गतिपरिणतः प्रभञ्जनो वैजयंतीनां गतिपरिणामस्य हेतुकर्ताऽवलोक्यते न तथा धर्मः।
स खलु निष्क्रियत्वात् न कदाचिदपि गतिपरिणाममेवापद्यते। कुतोऽस्य सहकारित्वेन परेषां
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा ८८
अन्वयार्थः– [धर्मास्तिकः] धर्मास्तिकाय [न गच्छति] गमन नहीं करता [च] और
[अन्यद्रव्यस्य] अन्य द्रव्यको [गमनं न करोति] गमन नहीं कराता; [सः] वह, [जीवानां पुद्गलानां
च] जीवों तथा पुद्गलोंको [गतिपरिणाममें आश्रयमात्ररूप होनेसे] [गतेः प्रसरः] गतिका उदासीन
प्रसारक [अर्थात् गतिप्रसारमें उदासीन निमित्तभूत] [भवति] है।
टीकाः– धर्म और अधर्म गति और स्थितिके हेतु होने पर भी वे अत्यन्त उदासीन हैं ऐसा यहाँ
कथन है।
जिस प्रकार गतिपरिणत पवन ध्वजाओंके गतिपरिणामका हेतुकर्ता दिखाई देता है, उसी
प्रकार धर्म [जीव–पुद्गलोंके गतिपरिणामका हेतुकर्ता] नहीं है। वह [धर्म] वास्तवमें निष्क्रिय
--------------------------------------------------------------------------
धर्मास्ति गमन करे नही, न करावतो परद्रव्यने;
जीव–पुद्गलोना गतिप्रसार तणो उदासीन हेतु छे। ८८।

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१४०
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
गतिपरिणामस्य हेतुकर्तृत्वम्। किंतु सलिल–मिव मत्स्यानां
जीवपुद्गलानामाश्रयकारणमात्रत्वेनोदासीन एवासौ गतेः प्रसरो भवति। अपि च यथा
गतिपूर्वस्थितिपरिणतस्तुङ्गोऽश्ववारस्य स्थितिपरिणामस्य हेतुकर्तावलोक्यते न तथाऽधर्मः। स खलु
निष्क्रियत्वात् न कदाचिदपि गतिपूर्वस्थितिपरिणाममेवापद्यते। कुतोऽस्य सहस्थायित्वेन परेषां
गतिपूर्वस्थितिपरिणामस्य हेतुकर्तृत्वम्। किं तु पृथिवीवत्तुरङ्गस्य जीवपुद्गलानामाश्रय–
कारणमात्रत्वेनोदासीन एवासौ गतिपूर्वस्थितेः प्रसरो भवतीति।। ८८।।
-----------------------------------------------------------------------------
होनेसे कभी गतिपरिणामको ही प्राप्त नहीं होता; तो फिर उसे [परके] सहकारीके रूपमें परके
गतिपरिणामका हेतुकतृत्व कहाँसे होगा? [नहीं हो सकता।] किन्तु जिस प्रकार पानी मछलियोंका
[गतिपरिणाममें] मात्र आश्रयरूप कारणके रूपमें गतिका उदासीन ही प्रसारक हैे, उसी प्रकार धर्म
जीव–पुद्गलोंकी [गतिपरिणाममें] मात्र आश्रयरूप कारणके रूपमें गतिका उदासीन ही प्रसारक
[अर्थात् गतिप्रसारका उदासीन ही निमित्त] है।
और [अधर्मास्तिकायके सम्बन्धमें भी ऐसा है कि] – जिस प्रकार गतिपूर्वकस्थितिपरिणत अश्व
सवारके [गतिपूर्वक] स्थितिपरिणामका हेतुकर्ता दिखाई देता है, उसी प्रकार अधर्म [जीव–
पुद्गलोंके गतिपूर्वक स्थितिपरिणामका हेतुकर्ता] नही है। वह [अधर्म] वास्तवमें निष्क्रिय होनेसे
कभी गतिपूर्वक स्थितिपरिणामको ही प्राप्त नहीं होता; तो फिर उसे [परके]
सहस्थायीके रूपमें
गतिपूर्वक स्थितिपरिणामका हेतुकतृत्व कहाँसे होगा? [नहीं हो सकता।] किन्तु जिस प्रकार पृथ्वी
अश्वको [गतिपूर्वक स्थितिपरिणाममें] मात्र आश्रयरूप कारणके रूपमें गतिपूर्वक स्थितिकी उदासीन
ही प्रसारक है, उसी प्रकार अधर्म जीव–पुद्गलोंको [गतिपूर्वक स्थितिपरिणाममें] मात्र आश्रयरूप
कारणके रूपमें गतिपूर्वक स्थितिका उदासीन ही प्रसारक [अर्थात् गतिपूर्वक–स्थितिप्रसारका
उदासीन ही निमित्त] है।। ८८।।
--------------------------------------------------------------------------
१। सहकारी=साथमें कार्य करनेवाला अर्थात् साथमें गति करनेवाला। ध्वजाके साथ पवन भी गति करता है
इसलिये यहाँ पवनको [ध्वजाके] सहकारीके रूपमें हेतुकर्ता कहा है; और जीव–पुद्गलोंके साथ धर्मास्तिकाय
गमन न करके [अर्थात् सहकारी न बनकर], मात्र उन्हेें [गतिमें] आश्रयरूप कारण बनता है इसलिये
धर्मास्तिकायको उदासीन निमित्त कहा है। पवनको हेतुकर्ता कहा उसका यह अर्थ कभी नहीं समझना कि
पवन ध्वजाओंको गतिपरिणाम कराता होगा। उदासीन निमित्त हो या हेतुकर्ता हो– दोनों परमें अकिंचित्कर हैं।
उनमें मात्र उपरोक्तानुसार ही अन्तर है। अब अगली गाथाकी टीकामें आचार्यदेव स्वयं ही कहेंगे कि ‘वास्तवमें
समस्त गतिस्थितिमान पदार्थ अपने परिणामोंसे ही निश्चयसे गतिस्थिति करते है।’इसलिये ध्वजा, सवार
इत्यादि सब, अपने परिणामोंसे ही गतिस्थिति करते है, उसमें धर्म तथा पवन, और अधर्म तथा अश्व
अविशेषरूपसे अकिंचित्कर हैं ऐसा निर्णय करना।]
२। सहस्थायी=साथमें स्थिति [स्थिरता] करनेवाला। [अश्व सवारके साथ स्थिति करता है, इसलिये यहाँ
अश्वको सवारके सहस्थायीके रूपमें सवारके स्थितिपरिणामका हेतुकर्ता कहा है। अधर्मास्तिकाय तो गतिपूर्वक
स्थितिको प्राप्त होने वाले जीव–पुद्गलोंके साथ स्थिति नहीं करता, पहलेही स्थित हैे; इस प्रकार वह
सहस्थायी न होनेसे जीव–पुद्गलोंके गतिपूर्वक स्थितिपरिणामका हेतुकर्ता नहीं है।]

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१४१
विज्जदि जेसिं गमणं ठाणं पुण तेसिमेव संभवदि।
ते सगपरिणामेहिं दु गमणं ठाणं च कुव्वंति।। ८९।।
विद्यते येषां गमनं स्थानं पुनस्तेषामेव संभवति।
ते स्वकपरिणामैस्तु गमनं स्थानं च कुर्वन्ति।। ८९।।
धर्माधर्मयोरौदासीन्ये हेतूपन्यासोऽयम्।
धर्मः किल न जीवपुद्गलानां कदाचिद्गतिहेतुत्वमभ्यस्यति, न कदाचित्स्थितिहेतुत्वमधर्मः। तौ हि
परेषां गतिस्थित्योर्यदि मुख्यहेतू स्यातां तदा येषां गतिस्तेषां गतिरेव न स्थितिः, येषां स्थितिस्तेषां
स्थितिरेव न गतिः। तत एकेषामपि गतिस्थितिदर्शनादनुमीयते न तौ तयोर्मुख्यहेतू। किं तु
व्यवहारनयव्यवस्थापितौ उदासीनौ। कथमेवं गतिस्थितिमतां पदार्थोनां गतिस्थिती भवत इति

-----------------------------------------------------------------------------
गाथा ८९
अन्वयार्थः– [येषां गमनं विद्यते] [धर्म–अधर्म गति–स्थितिके मुख्य हेतु नहीं हैं, क्योंकि]
जिन्हें गति होती है [तेषाम् एव पुनः स्थानं संभवति] उन्हींको फिर स्थिति होती है [और जिन्हें
स्थिति होती है उन्हींको फिर गति होती है]। [ते तु] वे [गतिस्थितिमान पदार्थ] तो
[स्वकपरिणामैः] अपने परिणामोंसे [गमनं स्थानं च] गति और स्थिति [कुर्वन्ति] करते हैं।
टीकाः– यह, धर्म और अधर्मकी उदासीनताके सम्बन्धमें हेतु कहा गया है।
वास्तवमें [निश्चयसे] धर्म जीव–पुद्गलोंको कभी गतिहेतु नहीं होता, अधर्म कभी स्थितिहेतु
नहीं होता; क्योंकि वे परको गतिस्थितिके यदि मुख्य हेतु [निश्चयहेतु] हों, तो जिन्हें गति हो उन्हें
गति ही रहना चाहिये, स्थिति नहीं होना चाहिये, और जिन्हें स्थिति हो उन्हें स्थिति ही रहना
चाहिये, गति नहीं होना चाहिये। किन्तु एकको ही [–उसी एक पदार्थको] गति और स्थिति देखनेमे
आती है; इसलिये अनुमान हो सकता है कि वे [धर्म–अधर्म] गति–स्थितिके मुख्य हेतु नहीं हैं,
किन्तु व्यवहारनयस्थापित [व्यवहारनय द्वारा स्थापित – कथित] उदासीन हेतु हैं।
--------------------------------------------------------------------------
रे! जेमने गति होय छे, तेओ ज वळी स्थिर थाय छे;
ते सर्व निज परिणामथी ज करे गतिस्थितिभावने। ८९।

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१४२
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
चेत्, सर्वे हि गतिस्थितिमंतः पदार्थाः स्वपरिणामैरेव निश्चयेन गतिस्थिती कुर्वंतीति।। ८९।।
–इति धर्माधर्मद्रव्यास्तिकायव्याख्यानं समाप्तम्।
अथ आकाशद्रव्यास्तिकायव्याख्यानम्।
सव्वेसिं जीवाणं सेसासं तह य पुग्गलाणं च।
जं देदि विवरमखिलं तं लोगे हवदि आगासं।। ९०।।
सर्वेषां जीवानां शेषाणां तथैव पुद्गलानां च।
यद्रदाति विवरमखिलं तल्लोके भवत्याकाशम्।। ९०।।
-----------------------------------------------------------------------------
प्रश्नः– ऐसा हो तो गतिस्थितिमान पदार्थोंको गतिस्थिति किस प्रकार होती है?
उत्तरः– वास्तवमें समस्त गतिस्थितिमान पदार्थ अपने परिणामोंसे ही निश्चयसे गतिस्थिति करते
हैं।। ८९।।
इस प्रकार धर्मद्रव्यास्तिकाय और अधर्मद्रव्यास्तिकायका व्याख्यान समाप्त हुआ।
अब आकाशद्रव्यास्तिकायका व्याख्यान है।
गाथा ९०
अन्वयार्थः– [लोके] लोकमें [जीवानाम्] जीवोंको [च] और [पुद्गलानाम्] पुद्गलोंको [तथा
एव] वैसे ही [सर्वेषाम् शेषाणाम्] शेष समस्त द्रव्योंको [यद्] जो [अखिलं विवरं] सम्पूर्ण
अवकाश [ददाति] देता है, [तद्] वह [आकाशम् भवति] आकाश है।
--------------------------------------------------------------------------
जे लोकमां जीव–पुद्गलोने, शेष द्रव्य समस्तने
अवकाश दे छे पूर्ण, ते आकाशनामक द्रव्य छे। ९०।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१४३
आकाशस्वरूपाख्यानमेतत्।
षड्द्रव्यात्मके लोके सर्वेषां शेषद्रव्याणां यत्समस्तावकाशनिमित्तं विशुद्धक्षेत्ररूपं
तदाकाशमिति।। ९०।।
जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा य लोगदोणण्णा।
तत्तो अणण्णमण्णं आयासं अंतवदिरित्तं।। ९१।।
जीवाः पुद्गलकायाः धर्माधर्मोंं च लोकतोऽनन्ये।
ततोऽनन्यदन्यदाकाशमंतव्यतिरिक्तम्।। ९१।।
लोकाद्बहिराकाशसूचनेयम्।
जीवादीनि शेषद्रव्याण्यवधृतपरिमाणत्वाल्लोकादनन्यान्येव। आकाशं त्वनंतत्वाल्लोकाद–
नन्यदन्यच्चेति।। ९१।।
-----------------------------------------------------------------------------
टीकाः– यह, आकाशके स्वरूपका कथन है।
षट्द्रव्यात्मक लोकमें शेष सभी द्रव्योंको जो परिपूर्ण अवकाशका निमित्त
है, वह आकाश है– जो कि [आकाश] विशुद्धक्षेत्ररूप है।। ९०।।
गाथा ९१
अन्वयार्थः– [जीवाः पुद्गलकायाः धर्माधर्मौ च] जीव, पुद्गलकाय, धर्म , अधर्म [तथा काल]
[लोकतः अनन्ये] लोकसे अनन्य है; [अंतव्यतिरिक्तम् आकाशम्] अन्त रहित ऐसा आकाश [ततः]
उससे [लोकसे] [अनन्यत् अन्यत्] अनन्य तथा अन्य है।
टीकाः– यह, लोकके बाहर [भी] आकाश होनेकी सूचना है।
जीवादि शेष द्रव्य [–आकाशके अतिरिक्त द्रव्य] मर्यादित परिमाणवाले होनेके कारण लोकसे
--------------------------------------------------------------------------
१। निश्चयनयसे नित्यनिरंजन–ज्ञानमय परमानन्द जिनका एक लक्षण है ऐसे अनन्तानन्त जीव, उनसे अनन्तगुने
पुद्गल, असंख्य कालाणु और असंख्यप्रदेशी धर्म तथा अधर्म– यह सभी द्रव्य विशिष्ट अवगाहगुण द्वारा
लोकाकाशमें–यद्यपि वह लोकाकाश मात्र असंख्यप्रदेशी ही है तथापि अवकाश प्राप्त करते हैं।

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१४४
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
आगासं अवगासं गमणट्ठिदिकारणेहिं देदि जदि।
उड्ढंगदिप्पधाणा सिद्धा चिट्ठंति
किध तत्थ।। ९२।।
आकाशमवकाशं गमनस्थितिकारणाभ्यां ददाति यदि।
ऊर्ध्वंगतिप्रधानाः सिद्धाः तिष्ठन्ति कथं तत्र।। ९२।।
आकाशस्यावकाशैकहेतोर्गतिस्थितिहेतुत्वशङ्कायां दोषोपन्यासोऽयम्।
-----------------------------------------------------------------------------
अनन्य ही हैं; आकाश तो अनन्त होनेके कारण लोकसे अनन्य तथा अन्य है।। ९१।।
गाथा ९२
अन्वयार्थः– [यदि आकाशम्] यदि आकाश [गमनस्थितिकारणाभ्याम्] गति–स्थितिके कारण
सहित [अवकाशं ददाति] अवकाश देता हो [अर्थात् यदि आकाश अवकाशहेतु भी हो और गति–
स्थितिहेतु भी हो] तो [ऊर्ध्वंगतिप्रधानाः सिद्धाः] ऊर्ध्वगतिप्रधान सिद्ध [तत्र] उसमें [आकाशमें]
[कथम्] क्यों [तिष्ठन्ति] स्थिर हों? [आगे गमन क्यों न करें?]
टीकाः– जो मात्र अवकाशका ही हेतु है ऐसा जो आकाश उसमें गतिस्थितिहेतुत्व [भी]
होनेकी शंका की जाये तो दोष आता है उसका यह कथन है।
--------------------------------------------------------------------------
यहाँ यद्यपि सामान्यरूपसे पदार्थोंका लोकसे अनन्यपना कहा है। तथापि निश्चयसे अमूर्तपना,
केवज्ञानपना,सहजपरमानन्दपना, नित्यनिरंजनपना इत्यादि लक्षणों द्वारा जीवोंको ईतर द्रव्योंसे अन्यपना है
और अपने–अपने लक्षणों द्वारा ईतर द्रव्योंका जीवोंसे भिन्नपना है ऐसा समझना।
अवकाशदायक आभ गति–थितिहेतुता पण जो धरे,
तो ऊर्ध्वगतिपरधान सिद्धो केम तेमां स्थिति लहे? ९२।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१४५
यदि खल्वाकाशमवगाहिनामवगाहहेतुरिव गतिस्थितिमतां गतिस्थितिहेतुरपि स्यात्, तदा
सर्वोत्कृष्टस्वाभाविकोर्ध्वगतिपरिणता भगवंतः सिद्धा बहिरङ्गांतरङ्गसाधनसामग्रयां सत्यामपि
कृतस्तत्राकाशे तिष्ठंति इति।। ९२।।
जम्हा उवरिट्ठाणं सिद्धाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं।
तम्हा गमणट्ठाणं आयासे
जाण णत्थि त्ति।। ९३।।
यस्मादुपरिस्थानं सिद्धानां जिनवरैः प्रज्ञप्तम्।
तस्माद्गमनस्थानमाकाशे जानीहि नास्तीति।। ९३।।
-----------------------------------------------------------------------------
यदि आकाश, जिस प्रकार अवगाहवालोंको अवगाहहेतु है उसी प्रकार, गतिस्थितिवालोंको
गति–स्थितिहेतु भी हो, तो सर्वोत्कृष्ट स्वाभाविक ऊर्ध्वगतिसे परिणत सिद्धभगवन्त, बहिरंग–अंतरंग
साधनरूप सामग्री होने पर भी क्यों [–किस कारण] उसमें–आकाशमें–स्थिर हों? ९२।।
गाथा ९३
अन्वयार्थः– [यस्मात्] जिससे [जिनवरैः] जिनवरोंंंने [सिद्धानाम्] सिद्धोंकी [उपरिस्थानं]
लोकके उपर स्थिति [प्रज्ञप्तम्] कही है, [तस्मात्] इसलिये [गमनस्थानम् आकाशे न अस्ति]
गति–स्थिति आकाशमें नहीं होती [अर्थात् गतिस्थितिहेतुत्व आकाशमें नहीं है] [इति जानीहि] ऐसा
जानो।
टीकाः– [गतिपक्ष सम्बन्धी कथन करनेके पश्चात्] यह, स्थितिपक्ष सम्बन्धी कथन है।
जिससे सिद्धभगवन्त गमन करके लोकके उपर स्थिर होते हैं [अर्थात् लोकके उपर गतिपूर्वक
स्थिति करते हैं], उससे गतिस्थितिहेतुत्व आकाशमें नहीं है ऐसा निश्चय करना; लोक और
अलोकका विभाग करनेवाले धर्म तथा अधर्मको ही गति तथा स्थितिके हेतु मानना।। ९३।।
--------------------------------------------------------------------------
अवगाह=लीन होना; मज्जित होना; अवकाश पाना।
भाखी जिनोए लोकना अगे्र स्थिति सिद्धो तणी,
ते कारणे जाणो–गतिस्थिति आभमां होती नथी। ९३।

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१४६
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
स्थितिपक्षोपन्यासोऽयम्।
यतो गत्वा भगवंतः सिद्धाः लोकोपर्यवतिष्ठंते, ततो गतिस्थितिहेतुत्वमाकाशे नास्तीति
निश्चेतव्यम्। लोकालोकावच्छेदकौ धर्माधर्मावेव गतिस्थितिहेतु मंतव्याविति।। ९३।।
जदि हवदि गमणहेदू आगसं ठाणकारणं तेसिं।
पसजदि अलोगहाणी लोगस्स च अंतपरिवड्ढी।। ९४।।
यदि भवति गमनहेतुराकाशं स्थानकारणं तेषाम्।
प्रसजत्यलोकहानिर्लोकस्य चांतपरिवृद्धिः।। ९४।।
आकाशस्य गतिस्थितिहेतुत्वाभावे हेतूपन्यासोऽयम्।

नाकाशं गतिस्थितिहेतुः लोकालोकसीमव्यवस्थायास्तथोपपत्तेः। यदि गति– स्थित्योराकाशमेव
निमित्तमिष्येत्, तदा तस्य सर्वत्र सद्भावाज्जीवपुद्गलानां गतिस्थित्योर्निः सीमत्वात्प्रतिक्षणमलोको
हीयते, पूर्वं पूर्वं व्यवस्थाप्यमानश्चांतो लोकस्योत्तरोत्तरपरिवृद्धया विघटते। ततो न तत्र तद्धेतुरिति।।
९४।।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा ९४
अन्वयार्थः– [यदि] यदि [आकाशं] आकाश [तेषाम्] जीव–पुद्गलोंको [गमनहेतुः] गतिहेतु
और [स्थानकारणं] स्थितिहेतु [भवति] हो तो [अलोकहानिः] अलोककी हानिका [च] और
[लोकस्य अंतपरिवृद्धि] लोकके अन्तकी वृद्धिका [प्रसजति] प्रसंग आए।
टीकाः– यहाँ, आकाशको गतिस्थितिहेतुत्वका अभाव होने सम्बन्धी हेतु उपस्थित किया गया है।
आकाश गति–स्थितिका हेतु नहीं है, क्योंकि लोक और अलोककी सीमाकी व्यवस्था इसी
प्रकार बन सकती है। यदि आकाशको ही गति–स्थितिका निमित्त माना जाए, तो आकाशको सद्भाव
सर्वत्र होनेके कारण जीव–पुद्गलोंकी गतिस्थितिकी कोई सीमा नहीं रहनेसे प्रतिक्षण अलोककी हानि
--------------------------------------------------------------------------
नभ होय जो गतिहेतु ने स्थितिहेतु पुद्गल–जीवने।
तो हानि थाय अलोकनी, लोकान्त
पामे वृद्धिने। ९४।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१४७
तम्हा धम्माधम्मा गमणट्ठिदिकारणाणि णागासं।
इदि जिणवरेहिं भणिदं लोगसहावं सुणंताणं।। ९५।।
तस्माद्धर्माधर्मौ गमनस्थितिकारणे नाकाशम्।
इति जिनवरैः भणितं लोकस्वभावं शृण्वताम्।। ९५।।
आकाशस्य गतिस्थितिहेतुत्वनिरासव्याख्योपसंहारोऽयम्।
धर्माधर्मावेव गतिस्थितिकारणे नाकाशमिति।। ९५।।
धम्माधम्मागासा अपुधब्भुदा समाणपरिमाणा।
पुधगुवलद्धिविसेसा करिंति
एगत्तमण्णत्तं।। ९६।।
-----------------------------------------------------------------------------
होगी और पहले–पहले व्यवस्थापित हुआ लोकका अन्त उत्तरोत्तर वृद्धि पानेसे लोकका अन्त ही टूट
जायेगा [अर्थात् पहले–पहले निश्चित हुआ लोकका अन्त फिर–फिर आगे बढ़ते जानेसे लोकका अन्त
ही नही बन सकेगा]। इसलिये आकाशमें गति–स्थितिका हेतुत्व नहीं है।। ९४।।
गाथा ९५
अन्वयार्थः– [तस्मात्] इसलिये [गमनस्थितिकारणे] गति और स्थितिके कारण [धर्माधर्मौ]
धर्म और अधर्म है, [न आकाशम्] आकाश नहीं है। [इति] ऐसा [लोकस्वभावं शृण्वताम्]
लोकस्वभावके श्रोताओंसे [जिनवरैः भणितम्] जिनवरोंने कहा है।
टीकाः– यह, आकाशको गतिस्थितिहेतुत्व होनेके खण्डन सम्बन्धी कथनका उपसंहार है।
धर्म और अधर्म ही गति और स्थितिके कारण हैं, आकाश नहीं।। ९५।।
--------------------------------------------------------------------------
तेथी गतिस्थितिहेतुओ धर्माधरम छे, नभ नही;
भाख्युं जिनोए आम लोकस्वभावना श्रोता प्रति। ९५।
धर्माधरम–नभने समानप्रमाणयुत अपृथक्त्वथी,
वळी भिन्नभिन्न विशेषथी, एकत्व ने अन्यत्व छे। ९६।

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१४८
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
धर्माधर्माकाशान्यपृथग्भूतानि समानपरिमाणानि।
पृथगुपलब्धिविशेषाणि कुवैत्येकत्वमन्यत्वम्।। ९६।।
धर्माधर्मलोकाकाशानामवगाहवशादेकत्वेऽपि वस्तुत्वेनान्यत्वमत्रोक्तम्।
धर्माधर्मलोकाकाशानि हि समानपरिमाणत्वात्सहावस्थानमात्रेणैवैकत्वभाञ्जि। वस्तुतस्तु
व्यवहारेण गतिस्थित्यवगाहहेतुत्वरूपेण निश्चयेन विभक्तप्रदेशत्वरूपेण विशेषेण पृथगुप–
लभ्यमानेनान्यत्वभाञ्ज्येव भवंतीति।। ९६।।
–इति आकाशद्रव्यास्तिकायव्याख्यानं समाप्तम्।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा ९६
अन्वयार्थः– [धर्माधर्माकाशानि] धर्म, अधर्म और आकाश [लोकाकाश] [समानपरिमाणानि]
समान परिमाणवाले [अपृथग्भूतानि] अपृथग्भूत होनेसे तथा [पृथगुपलब्धिविशेषाणि] पृथक–उपलब्ध
[भिन्न–भिन्न] विशेषवाले होनेसे [एकत्वम् अन्यत्वम्] एकत्व तथा अन्यत्वको [कुर्वंति] करते
है।
टीकाः– यहाँ, धर्म, अधर्म और लोकाकाशका अवगाहकी अपेक्षासे एकत्व होने पर भी
वस्तुरूपसे अन्यत्व कहा गया है ।
धर्म, अधर्म और लोकाकाश समान परिमाणवाले होनेके कारण साथ रहने मात्रसे ही [–मात्र
एकक्षेत्रावगाहकी अपेक्षासे ही] एकत्ववाले हैं; वस्तुतः तो [१] व्यवहारसे गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व
और अवगाहहेतुत्वरूप [पृथक्–उपलब्ध विशेष द्वारा] तथा [२] निश्चयसे
विभक्तप्रदेशत्वरूप
पृथक्–उपलब्ध विशेष द्वारा, वे अन्यत्ववाले ही हैं।
भावार्थः– धर्म, अधर्म और लोकाकाशका एकत्व तो मात्र एकक्षेत्रावगाहकी अपेक्षासे ही कहा जा
सकता है; वस्तुरूपसे तो उन्हें अन्यत्व ही है, क्योंकि [१] उनके लक्षण गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व
और अवगाहहेतुत्वरूप भिन्न–भिन्न हैं तथा [२] उनके प्रदेश भी भिन्न–भिन्न हैं।। ९६।।
इस प्रकार आकाशद्रव्यास्तिकायका व्याख्यान समाप्त हुआ।
--------------------------------------------------------------------------
१। विभक्त=भिन्न। [धर्म, अधर्म और आकाशको भिन्नप्रदेशपना है।]

२। विशेष=खासियत; विशिष्टता; विशेषता। [व्यवहारसे तथा निश्चयसे धर्म, अधर्म और आकाशके विशेष पृथक्
उपलब्ध हैं अर्थात् भिन्न–भिन्न दिखाई देते हैं।]

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१४९
अथ चूलिका।
आगासकालजीवा धम्माधम्मा य मुत्तिपरिहीणा।
मुत्तं पुग्गलदव्वं जीवो खलु चेदणो तेसु।। ९७।।
आकाशकालजीवा धर्माधर्मौ च मूर्तिपरिहीनाः।
मूर्तं पुद्गलद्रव्यं जीवः खलु चेतनस्तेषु।। ९७।।
अत्र द्रव्याणां मूर्तामूर्तत्वं चेतनाचेतनत्वं चोक्तम्।
स्पर्शरसगंधवर्णसद्भावस्वभावं मूर्तं, स्पर्शरसगंधवर्णाभावस्वभावममूर्तम्। चैतन्यसद्भाव–स्वभावं
चेतनं, चैतन्याभावस्वभावमचेतनम्। तत्रामूर्तमाकाशं, अमूर्तः कालः, अमूर्तः स्वरूपेण जीवः
पररूपावेशान्मूर्तोऽपि अमूर्तो धर्मः अमूर्ताऽधर्मः, मूर्तः पुद्गल एवैक इति। अचेतनमाकाशं,
-----------------------------------------------------------------------------
अब, चूलिका है।
गाथा ९७
अन्वयार्थः– [आकाशकालजीवाः] आकाश, काल जीव, [धर्माधर्मौ च] धर्म और अधर्म
[मूर्तिपरिहीनाः] अमूर्त है, [पुद्गलद्रव्यं मूर्तं] पुद्गलद्रव्य मूर्त है। [तेषु] उनमें [जीवः] जीव
[खलु] वास्तवमें [चेतनः] चेतन है।
टीकाः– यहाँ द्रव्योंका मूर्तोमूर्तपना [–मूर्तपना अथवा अमूर्तपना] और चेतनाचेतनपना [–
चेतनपना अथवा अचेतनपना] कहा गया है।
स्पर्श–रस–गंध–वर्णका सद्भाव जिसका स्वभाव है वह मूर्त है; स्पर्श–रस–गंध–वर्णका
अभाव जिसका स्वभाव है वह अमूर्त है। चैतन्यका सद्भाव जिसका स्वभाव है वह चेतन है;
चैतन्यका अभाव जिसका स्वभाव है वह अचेतन है। वहाँ आकाश अमूर्त है, काल अमूर्त है, जीव
स्वरूपसे अमूर्त है,
--------------------------------------------------------------------------
१। चूलिका=शास्त्रमें जिसका कथन न हुआ हो उसका व्याख्यान करना अथवा जिसका कथन हो चुका हो उसका
विशेष व्याख्यान करना अथवा दोनोंका यथायोग्य व्याख्यान करना।
आत्मा अने आकाश, धर्म अधर्म, काळ अमूर्त छे,
छे मूर्त पुद्गलद्रव्यः तेमां जीव छे चेतन खरे। ९७।

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१५०
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
अचेतनः कालः अचेतनो धर्मः अचेतनोऽधर्मः अचेतनः पुद्गलः, चेतनो जीव एवैक इति।। ९७।।
जीवा पुग्गलकाया सह सक्किरिया हवंति ण य सेसा।
पुग्गलकरणा जीवा खंधा खलु कालकरणा दु।। ९८।।
जीवाः पुद्गलकायाः सह सक्रिया भवन्ति न च शेषाः।
पुद्गलकरणा जीवाः स्कंधा खलु कालकरणास्तु।। ९८।।
अत्र सक्रियनिष्क्रियत्वमुक्तम्।
प्रदेशांतरप्राप्तिहेतुः परिस्पंदनरूपपर्यायः क्रिया। तत्र सक्रिया बहिरङ्गसाधनेन सहभूताः जीवाः,
सक्रिया बहिरङ्गसाधनेन सहभूताः पुद्गलाः। निष्क्रियमाकाशं, निष्क्रियो धर्मः, निष्क्रियोऽधर्मः, निष्क्रियः
कालः। जीवानां सक्रियत्वस्य बहिरङ्ग– साधनं कर्मनोकर्मोपचयरूपाः पुद्गला इति ते पुद्गलकरणाः।
-----------------------------------------------------------------------------
पररूपमें प्रवेश द्वारा [–मूर्तद्रव्यके संयोगकी अपेक्षासे] मूर्त भी है, धर्म अमूर्त है, अधर्म
अमूर्त हैे; पुद्गल ही एक मूर्त है। आकाश अचेतन है, काल अचेतन है, धर्म अचेतन है, अधर्म
अचेतन है, पुद्गल अचेतन है; जीव ही एक चेतन है।। ९७।।
गाथा ९८
अन्वयार्थः– [सह जीवाः पुद्गलकायाः] बाह्य करण सहित स्थित जीव और पुद्गल [सक्रियाः
भवन्ति] सक्रिय है, [न च शेषाः] शेष द्रव्य सक्रिय नहीं हैं [निष्क्रिय हैं]; [जीवाः] जीव
[पुद्गलकरणाः] पुद्गलकरणवाले [–जिन्हें सक्रियपनेमें पुद्गल बहिरंग साधन हो ऐसे] हैं[स्कंधाः
खलु कालकरणाः तु] और स्कन्ध अर्थात् पुद्गल तो कालकरणवाले [–जिन्हें सक्रियपनेमें काल
बहिरंग साधन हो ऐसे] हैं।
टीकाः– यहाँ [द्रव्योंंका] सक्रिय–निष्क्रियपना कहा गया है।
प्रदेशान्तरप्राप्तिका हेतु [–अन्य प्रदेशकी प्राप्तिका कारण] ऐसी जो परिस्पंदरूप पर्याय, वह
क्रिया है। वहाँ, बहिरंग साधनके साथ रहनेवाले जीव सक्रिय हैं; बहिरंग साधनके साथ रहनेवाले
पुद्गल सक्रिय हैं। आकाश निष्क्रिय है; धर्म निष्क्रिय है; अधर्म निष्क्रिय है ; काल निष्क्रिय है।
--------------------------------------------------------------------------
१। जीव निश्चयसे अमूर्त–अखण्ड–एकप्रतिभासमय होनेसे अमूर्त है, रागादिरहित सहजानन्द जिसका एक स्वभाव
है ऐसे आत्मतत्त्वकी भावनारहित जीव द्वारा उपार्जित जो मूर्त कर्म उसके संसर्ग द्वारा व्यवहारसे मूर्त भी है।
जीव–पुद्गलो सहभूत छे सक्रिय, निष्क्रिय शेष छे;
छे काल पुद्गलने करण, पुद्गल करण छे जीवने। ९८।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१५१
तदभावान्निःक्रियत्वं सिद्धानाम्। पुद्गलानां सक्रियत्वस्य बहिरङ्गसाधनं परिणामनिर्वर्तकः काल इति ते
कालकरणाः न च कार्मादीनामिव कालस्याभावः। ततो न सिद्धानामिव निष्क्रियत्वं पुद्गलानामिति।।
९८।।
जे खलु इंदियगेज्झा विसया जीवेहि होंति ते मुत्ता।
सेसं हवदि अमूत्तं चित्तं उभयं समादियदि।। ९९।।
ये खलु इन्द्रियग्राह्या विषया जीवैर्भवन्ति ते मूर्तोः।
शेषं भवत्यमूर्तं चितमुभयं समाददाति।। ९९।।
----------------------------------------------------------------------------
जीवोंको सक्रियपनेका बहिरंग साधन कर्म–नोकर्मके संचयरूप पुद्गल है; इसलिये जीव
पुद्गलकरणवाले हैं। उसके अभावके कारण [–पुद्गलकरणके अभावके कारण] सिद्धोंको
निष्क्रियपना है [अर्थात् सिद्धोंको कर्म–नोकर्मके संचयरूप पुद्गलोंका अभाव होनेसे वे निष्क्रिय हैं।]
पुद्गलोंको सक्रियपनेका बहिरंग साधन
परिणामनिष्पादक काल है; इसलिये पुद्गल कालकरणवाले
हैं।
कर्मादिककी भाँति [अर्थात् जिस प्रकार कर्म–नोकर्मरूप पुद्गलोंका अभाव होता है उस
प्रकार] कालका अभाव नहीं होता; इसलिये सिद्धोंकी भाँति [अर्थात् जिस प्रकार सिद्धोंको
निष्क्रियपना होता है उस प्रकार] पुद्गलोंको निष्क्रियपना नहीं होता।। ९८।।
गाथा ९९
अन्वयार्थः– [ये खलु] जो पदार्थ [जीवैः इन्द्रियग्राह्याः विषयाः] जीवोंको इन्द्रियग्राह्य विषय है
[ते मूर्ताः भवन्ति] वे मूर्त हैं और [शेषं] शेष पदार्थसमूह [अमूर्तं भवति] अमूर्त हैं। [चित्तम्] चित्त
[उभयं] उन दोनोंको [समाददाति] ग्रहण करता है [जानता है]।
--------------------------------------------------------------------------
परिणामनिष्पादक=परिणामको उत्पन्न करनेवाला; परिणाम उत्पन्न होनेमें जो निमित्तभूत [बहिरंग साधनभूत]
हैं ऐसा।

छे जीवने जे विषय इन्द्रियग्राह्य, ते सौ मूर्त छे;
बाकी बधुंय अमूर्त छे; मन जाणतुं ते उभय ने। ९९।