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पर्यायोत्पत्तिहेतवोऽनंता अनंताणुवर्गणाः, अनंता असंख्येयाणुवर्गणाः, अनंता संख्येयाणुवर्गणाः द्वय
णुकस्कंधपर्यंताः, परमाणवश्च, यदन्यदपि मूर्तं तत्सर्वं पुद्गलविकल्पत्वेनोपसंहर्तव्य–मिति।।८२।।
द्रव्यमन, द्रव्यकर्म, नोकर्म, विचित्र पर्यायोंंकी उत्पत्तिके हेतुभूत [अर्थात् अनेक प्रकारकी पर्यायें उत्पन्न
होनेके कारणभूत]
पुद्गलके भेद रूपसे समेटना।
विकल्पजालरहित शुद्धजीवास्तिकायसे विपरीत मन, कर्मरहित आत्मद्रव्यसे प्रतिकूल आठ कर्म और
अमूर्त आत्मस्वभावसे प्रतिपक्षभूत अन्य भी जो कुछ मूर्त हो वह सब पुद्गल जानो।। ८२।।
इस प्रकार पुद्गलद्रव्यास्तिकायका व्याख्यान समाप्त हुआ।
[अविभागी परमाणु भी अनन्त हैं।]
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लेगागाढं पुट्ठं पिहुलमसंखादियपदेसं।। ८३।।
लेकावगाढः स्पृष्टः पृथुलोऽसंख्यातप्रदेशः।। ८३।।
विस्तृतत्वात्पृथुलः। निश्चयनयेनैकप्रदेशोऽपि व्यवहारनयेनासंख्यातप्रदेश इति।। ८३।।
[पृथुलः] विशाल और [असंख्यातप्रदेशः] असंख्यातप्रदेशी है।
है;
उसमें बीचमें व्यवधान–अन्तर–अवकाश नहीं है ; इसलिये धर्मास्तिकाय अखण्ड है।]
२। एकप्रदेशी=अविभाज्य–एकक्षेत्रवाला। [निश्चयनयसे धर्मास्तिकाय अविभाज्य–एकपदार्थ होनेसे अविभाज्य–
लोकावगाही, अखंड छे, विस्तृत, असंख्यप्रदेश। ८३।
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गदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं सयमकज्जं।। ८४।।
गतिक्रियायुक्तानां कारणभूतः स्वयमकार्यः।। ८४।।
व्ययवत्त्वेऽपि स्वरूपादप्रच्यवनान्नित्यः। गतिक्रियापरिणतानामुदा–
गतिक्रियायुक्तको [कारणभूतः] कारणभूत [निमित्तरूप] है और [स्वयम् अकार्यः] स्वयं अकार्य है।
अगुरुलघु गुण [–अंश] कहे हैं।]
जे अगुरुलधुक अनन्त ते–रूप सर्वदा ए परिणमे,
छे नित्य, आप अकार्य छे, गतिपरिणमितने हेतु छे। ८४।
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त्ह जीवपुग्गलोणं धम्मं दव्वं वियाणाहि।। ८५।।
त्था जीवपुद्गलानां धर्मद्रव्यं विजानीहि।। ८५।।
होनेमें जीव–पुद्गलोंको]
किसी अन्यसे उत्पन्न नहीं हुआ है इसलिये किसी अन्य कारणके कार्यरूप नहीं है]।। ८४।।
[जीवपुद्गलानां] जीव–पुद्गलोंको गमनमें अनुग्रह करता है [–निमित्तभूत होता है] ऐसा
[विजानीहि] जानो।
गतिरूप परिणमित जीव–पुद्गलोंको गतिका सहकारी कारण है।
२। यदि कोई एक, किसी दूसरेके बिना न हो, तो पहलेको दूसरेका अविनाभावी कहा जाता है। यहाँ धर्मद्रव्यको
न हो तो वहाँ धर्मद्रव्य उन्हें सहायमात्ररूप भी नहीं है; जीव–पुद्गल स्वयं गतिक्रियारूपसे परिणमित होते हों
तभी धर्मद्रव्य उन्हेंे उदासीन सहायमात्ररूप [निमित्तमात्ररूप] है, अन्यथा नहीं।
त्यम धर्म पण अनुग्रह करे जीव–पुद्गलोने गमनमां। ८५।
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स्वयमेव गच्छतां जीवपुद्गलानामुदासीनाविनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन गमनमुनगृह्णाति इति।।८५।।
ठिदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं तु
स्थितिक्रियायुक्तानां कारणभूतं तु पृथिवीव।। ८६।।
है, उसी प्रकार धर्म [धर्मास्तिकाय] भी स्वयं गमन न करता हुआ ऐर [परको] गमन न कराता
हुआ, स्वयमेव गमन करते हुए जीव–पुद्गलोंको उदासीन अविनाभावी सहायरूप कारणमात्ररूपसे
गमनमें
[गतिक्रियायुक्तको कारणभूत होनेके बदले] [स्थितिक्रियायुक्तानाम्] स्थितिक्रियायुक्तको [पृथिवी
इव] पृथ्वीकी भाँति [कारणभूतम्] कारणभूत है [अर्थात् स्थितिक्रियापरिणत जीव–पुद्गलोंको
निमित्तभूत है]।
पण द्रव्य आ छे पृथ्वी माफक हेतु थितिपरिणमितने। ८६।
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यथा धर्मः प्रज्ञापितस्तथाधर्मोपि प्रज्ञापनीयः। अयं तु विशेषः। स गतिक्रियायुक्ता–
तिष्ठंती परमस्थापयंती च स्वयेव तिष्ठतामश्वादीना मुदासीना–विनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन
स्थितिमनुगृह्णाति तथाऽधर्माऽपि स्वयं पूर्वमेव तिष्ठन् परमस्थापयंश्च स्वयमेव तिष्ठतां
जीवपुद्गलानामुदासीनाविनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन स्थितिमनुगृह्णातीति।।८६।।
दो वि य मया विभत्ता अविभत्ता लोयमेत्ता य।। ८७।।
द्वावपि च मतौ विभक्तावविभक्तौ लोकमात्रौ च।। ८७।।
कारणभूत है और यह [अधर्मास्तिकाय] स्थितिक्रियायुक्तको पृथ्वीकी भाँति कारणभूत है। जिस प्रकार
पृथ्वी स्वयं पहलेसे ही स्थितिरूप [–स्थिर] वर्तती हुई तथा परको स्थिति [–स्थिरता] नहीं
कराती हुई, स्वयमेव स्थितिरूपसे परिणमित होते हुए अश्वादिकको उदासीन अविनाभावी सहायरूप
कारणमात्रके रूपमें स्थितिमें अनुग्रह करती है, उसी प्रकार अधर्म [अधर्मास्तिकाय] भी स्वयं पहलेसे
ही स्थितिरूपसे वर्तता हुआ और परको स्थिति नहीं कराता हुआ, स्वयमेव स्थितिरूप परिणमित
होते हुए जीव–पुद्गलोंको उदासीन अविनाभावी सहायरूप कारणमात्रके रूपमें स्थितिमें अनुग्रह
करता है।। ८६।।
और [द्वौ अपि] वे दोनों [विभक्तौ] विभक्त, [अविभक्तौ] अविभक्त [च] और [लोकमात्रौ]
लोकप्रमाण [मतौ] कहे गये हैं।
ते उभय भिन्न–अभिन्न छे ने सकळलोकप्रमाण छे। ८७।
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तयोर्यदि गतिपरिणामं तत्पूर्वस्थितिपरिणामं वा स्वयमनुभवतोर्बहिरङ्गहेतू धर्माधर्मो न भवेताम्, तदा
तयोर्निरर्गलगतिस्थितिपरिणामत्वादलोकेऽपि वृत्तिः केन वार्येत। ततो न लोकालोकविभागः सिध्येत।
धर्माधर्मयोस्तु जीवपुद्गलयोर्गतितत्पूर्वस्थित्योर्बहिरङ्गहेतुत्वेन सद्भावेऽभ्युपगम्यमाने लोकालोकविभागो
जायत इति। किञ्च धर्माधर्मो द्वावपि परस्परं
र्जीवपुद्गलयोर्गतिस्थित्युपग्रहकरणाल्लोकमात्राविति।। ८७।।
वहाँ, जीव और पुद्गल स्वरससे ही [स्वभावसे ही] गतिपरिणामको तथा गतिपूर्वक
स्थितिपरिणामको प्राप्त होते हैं। यदि गतिपरिणाम अथवा गतिपूर्वक स्थितिपरिणामका स्वयं अनुभव
करनेवाले उन जीव–पुद्गलको बहिरंग हेतु धर्म और अधर्म न हो, तो जीव–पुद्गलके
निवारा जा सकता है? [किसीसे नहीं निवारा जा सकता।] इसलिये लोक और अलोकका विभाग
सिद्ध नहीं होता। परन्तु यदि जीव–पुद्गलकी गतिके और गतिपूर्वक स्थितिके बहिरंग हेतुओंंके
रूपमें धर्म और अधर्मका सद्भाव स्वीकार किया जाये तो लोक और अलोकका विभाग [सिद्ध]
होता है । [इसलिये धर्म और अधर्म विद्यमान है।] और [उनके सम्बन्धमें विशेष विवरण यह है
कि], धर्म और अधर्म दोनों परस्पर पृथग्भूत अस्तित्वसे निष्पन्न होनेसे विभक्त [भिन्न] हैं;
एकक्षेत्रावगाही होनेसे अविभक्त [अभिन्न] हैं; समस्त लोकमें विद्यमान जीव –पुद्गलोंको गतिस्थितिमें
निष्क्रियरूपसे अनुग्रह करते हैं इसलिये [–निमित्तरूप होते हैं इसलिये] लोकप्रमाण हैं।। ८७।।
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हवदि गदि स्स प्पसरो जीवाणं पुग्गलाणं
भवति गतेः सः प्रसरो जीवानां पुद्गलानां च।। ८८।।
च] जीवों तथा पुद्गलोंको [गतिपरिणाममें आश्रयमात्ररूप होनेसे] [गतेः प्रसरः] गतिका उदासीन
प्रसारक [अर्थात् गतिप्रसारमें उदासीन निमित्तभूत] [भवति] है।
जीव–पुद्गलोना गतिप्रसार तणो उदासीन हेतु छे। ८८।
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गतिपूर्वस्थितिपरिणतस्तुङ्गोऽश्ववारस्य स्थितिपरिणामस्य हेतुकर्तावलोक्यते न तथाऽधर्मः। स खलु
निष्क्रियत्वात् न कदाचिदपि गतिपूर्वस्थितिपरिणाममेवापद्यते। कुतोऽस्य सहस्थायित्वेन परेषां
गतिपूर्वस्थितिपरिणामस्य हेतुकर्तृत्वम्। किं तु पृथिवीवत्तुरङ्गस्य जीवपुद्गलानामाश्रय–
कारणमात्रत्वेनोदासीन एवासौ गतिपूर्वस्थितेः प्रसरो भवतीति।। ८८।।
[गतिपरिणाममें] मात्र आश्रयरूप कारणके रूपमें गतिका उदासीन ही प्रसारक हैे, उसी प्रकार धर्म
जीव–पुद्गलोंकी [गतिपरिणाममें] मात्र आश्रयरूप कारणके रूपमें गतिका उदासीन ही प्रसारक
[अर्थात् गतिप्रसारका उदासीन ही निमित्त] है।
पुद्गलोंके गतिपूर्वक स्थितिपरिणामका हेतुकर्ता] नही है। वह [अधर्म] वास्तवमें निष्क्रिय होनेसे
कभी गतिपूर्वक स्थितिपरिणामको ही प्राप्त नहीं होता; तो फिर उसे [परके]
अश्वको [गतिपूर्वक स्थितिपरिणाममें] मात्र आश्रयरूप कारणके रूपमें गतिपूर्वक स्थितिकी उदासीन
ही प्रसारक है, उसी प्रकार अधर्म जीव–पुद्गलोंको [गतिपूर्वक स्थितिपरिणाममें] मात्र आश्रयरूप
कारणके रूपमें गतिपूर्वक स्थितिका उदासीन ही प्रसारक [अर्थात् गतिपूर्वक–स्थितिप्रसारका
उदासीन ही निमित्त] है।। ८८।।
गमन न करके [अर्थात् सहकारी न बनकर], मात्र उन्हेें [गतिमें] आश्रयरूप कारण बनता है इसलिये
धर्मास्तिकायको उदासीन निमित्त कहा है। पवनको हेतुकर्ता कहा उसका यह अर्थ कभी नहीं समझना कि
पवन ध्वजाओंको गतिपरिणाम कराता होगा। उदासीन निमित्त हो या हेतुकर्ता हो– दोनों परमें अकिंचित्कर हैं।
उनमें मात्र उपरोक्तानुसार ही अन्तर है। अब अगली गाथाकी टीकामें आचार्यदेव स्वयं ही कहेंगे कि ‘वास्तवमें
समस्त गतिस्थितिमान पदार्थ अपने परिणामोंसे ही निश्चयसे गतिस्थिति करते है।’इसलिये ध्वजा, सवार
इत्यादि सब, अपने परिणामोंसे ही गतिस्थिति करते है, उसमें धर्म तथा पवन, और अधर्म तथा अश्व
अविशेषरूपसे अकिंचित्कर हैं ऐसा निर्णय करना।]
स्थितिको प्राप्त होने वाले जीव–पुद्गलोंके साथ स्थिति नहीं करता, पहलेही स्थित हैे; इस प्रकार वह
सहस्थायी न होनेसे जीव–पुद्गलोंके गतिपूर्वक स्थितिपरिणामका हेतुकर्ता नहीं है।]
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ते सगपरिणामेहिं दु गमणं ठाणं च कुव्वंति।। ८९।।
ते स्वकपरिणामैस्तु गमनं स्थानं च कुर्वन्ति।। ८९।।
स्थितिरेव न गतिः। तत एकेषामपि गतिस्थितिदर्शनादनुमीयते न तौ तयोर्मुख्यहेतू। किं तु
व्यवहारनयव्यवस्थापितौ उदासीनौ। कथमेवं गतिस्थितिमतां पदार्थोनां गतिस्थिती भवत इति
स्थिति होती है उन्हींको फिर गति होती है]। [ते तु] वे [गतिस्थितिमान पदार्थ] तो
[स्वकपरिणामैः] अपने परिणामोंसे [गमनं स्थानं च] गति और स्थिति [कुर्वन्ति] करते हैं।
गति ही रहना चाहिये, स्थिति नहीं होना चाहिये, और जिन्हें स्थिति हो उन्हें स्थिति ही रहना
चाहिये, गति नहीं होना चाहिये। किन्तु एकको ही [–उसी एक पदार्थको] गति और स्थिति देखनेमे
आती है; इसलिये अनुमान हो सकता है कि वे [धर्म–अधर्म] गति–स्थितिके मुख्य हेतु नहीं हैं,
किन्तु व्यवहारनयस्थापित [व्यवहारनय द्वारा स्थापित – कथित] उदासीन हेतु हैं।
ते सर्व निज परिणामथी ज करे गतिस्थितिभावने। ८९।
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यद्रदाति विवरमखिलं तल्लोके भवत्याकाशम्।। ९०।।
अवकाश [ददाति] देता है, [तद्] वह [आकाशम् भवति] आकाश है।
अवकाश दे छे पूर्ण, ते आकाशनामक द्रव्य छे। ९०।
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तत्तो अणण्णमण्णं आयासं अंतवदिरित्तं।। ९१।।
ततोऽनन्यदन्यदाकाशमंतव्यतिरिक्तम्।। ९१।।
उससे [लोकसे] [अनन्यत् अन्यत्] अनन्य तथा अन्य है।
लोकाकाशमें–यद्यपि वह लोकाकाश मात्र असंख्यप्रदेशी ही है तथापि अवकाश प्राप्त करते हैं।
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उड्ढंगदिप्पधाणा सिद्धा चिट्ठंति
ऊर्ध्वंगतिप्रधानाः सिद्धाः तिष्ठन्ति कथं तत्र।। ९२।।
स्थितिहेतु भी हो] तो [ऊर्ध्वंगतिप्रधानाः सिद्धाः] ऊर्ध्वगतिप्रधान सिद्ध [तत्र] उसमें [आकाशमें]
[कथम्] क्यों [तिष्ठन्ति] स्थिर हों? [आगे गमन क्यों न करें?]
और अपने–अपने लक्षणों द्वारा ईतर द्रव्योंका जीवोंसे भिन्नपना है ऐसा समझना।
तो ऊर्ध्वगतिपरधान सिद्धो केम तेमां स्थिति लहे? ९२।
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कृतस्तत्राकाशे तिष्ठंति इति।। ९२।।
तम्हा गमणट्ठाणं आयासे
तस्माद्गमनस्थानमाकाशे जानीहि नास्तीति।। ९३।।
साधनरूप सामग्री होने पर भी क्यों [–किस कारण] उसमें–आकाशमें–स्थिर हों? ९२।।
गति–स्थिति आकाशमें नहीं होती [अर्थात् गतिस्थितिहेतुत्व आकाशमें नहीं है] [इति जानीहि] ऐसा
जानो।
अलोकका विभाग करनेवाले धर्म तथा अधर्मको ही गति तथा स्थितिके हेतु मानना।। ९३।।
ते कारणे जाणो–गतिस्थिति आभमां होती नथी। ९३।
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प्रसजत्यलोकहानिर्लोकस्य चांतपरिवृद्धिः।। ९४।।
नाकाशं गतिस्थितिहेतुः लोकालोकसीमव्यवस्थायास्तथोपपत्तेः। यदि गति– स्थित्योराकाशमेव
निमित्तमिष्येत्, तदा तस्य सर्वत्र सद्भावाज्जीवपुद्गलानां गतिस्थित्योर्निः सीमत्वात्प्रतिक्षणमलोको
हीयते, पूर्वं पूर्वं व्यवस्थाप्यमानश्चांतो लोकस्योत्तरोत्तरपरिवृद्धया विघटते। ततो न तत्र तद्धेतुरिति।।
९४।।
[लोकस्य अंतपरिवृद्धि] लोकके अन्तकी वृद्धिका [प्रसजति] प्रसंग आए।
सर्वत्र होनेके कारण जीव–पुद्गलोंकी गतिस्थितिकी कोई सीमा नहीं रहनेसे प्रतिक्षण अलोककी हानि
तो हानि थाय अलोकनी, लोकान्त
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इदि जिणवरेहिं भणिदं लोगसहावं सुणंताणं।। ९५।।
इति जिनवरैः भणितं लोकस्वभावं शृण्वताम्।। ९५।।
पुधगुवलद्धिविसेसा करिंति
जायेगा [अर्थात् पहले–पहले निश्चित हुआ लोकका अन्त फिर–फिर आगे बढ़ते जानेसे लोकका अन्त
ही नही बन सकेगा]। इसलिये आकाशमें गति–स्थितिका हेतुत्व नहीं है।। ९४।।
लोकस्वभावके श्रोताओंसे [जिनवरैः भणितम्] जिनवरोंने कहा है।
भाख्युं जिनोए आम लोकस्वभावना श्रोता प्रति। ९५।
वळी भिन्नभिन्न विशेषथी, एकत्व ने अन्यत्व छे। ९६।
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पृथगुपलब्धिविशेषाणि कुवैत्येकत्वमन्यत्वम्।। ९६।।
लभ्यमानेनान्यत्वभाञ्ज्येव भवंतीति।। ९६।।
[भिन्न–भिन्न] विशेषवाले होनेसे [एकत्वम् अन्यत्वम्] एकत्व तथा अन्यत्वको [कुर्वंति] करते
और अवगाहहेतुत्वरूप [पृथक्–उपलब्ध विशेष द्वारा] तथा [२] निश्चयसे
और अवगाहहेतुत्वरूप भिन्न–भिन्न हैं तथा [२] उनके प्रदेश भी भिन्न–भिन्न हैं।। ९६।।
२। विशेष=खासियत; विशिष्टता; विशेषता। [व्यवहारसे तथा निश्चयसे धर्म, अधर्म और आकाशके विशेष पृथक्
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मुत्तं पुग्गलदव्वं जीवो खलु चेदणो तेसु।। ९७।।
मूर्तं पुद्गलद्रव्यं जीवः खलु चेतनस्तेषु।। ९७।।
पररूपावेशान्मूर्तोऽपि अमूर्तो धर्मः अमूर्ताऽधर्मः, मूर्तः पुद्गल एवैक इति। अचेतनमाकाशं,
[खलु] वास्तवमें [चेतनः] चेतन है।
चैतन्यका अभाव जिसका स्वभाव है वह अचेतन है। वहाँ आकाश अमूर्त है, काल अमूर्त है, जीव
स्वरूपसे अमूर्त है,
छे मूर्त पुद्गलद्रव्यः तेमां जीव छे चेतन खरे। ९७।
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पुग्गलकरणा जीवा खंधा खलु कालकरणा दु।। ९८।।
पुद्गलकरणा जीवाः स्कंधा खलु कालकरणास्तु।। ९८।।
प्रदेशांतरप्राप्तिहेतुः परिस्पंदनरूपपर्यायः क्रिया। तत्र सक्रिया बहिरङ्गसाधनेन सहभूताः जीवाः,
कालः। जीवानां सक्रियत्वस्य बहिरङ्ग– साधनं कर्मनोकर्मोपचयरूपाः पुद्गला इति ते पुद्गलकरणाः।
अचेतन है, पुद्गल अचेतन है; जीव ही एक चेतन है।। ९७।।
[पुद्गलकरणाः] पुद्गलकरणवाले [–जिन्हें सक्रियपनेमें पुद्गल बहिरंग साधन हो ऐसे] हैं[स्कंधाः
खलु कालकरणाः तु] और स्कन्ध अर्थात् पुद्गल तो कालकरणवाले [–जिन्हें सक्रियपनेमें काल
बहिरंग साधन हो ऐसे] हैं।
पुद्गल सक्रिय हैं। आकाश निष्क्रिय है; धर्म निष्क्रिय है; अधर्म निष्क्रिय है ; काल निष्क्रिय है।
छे काल पुद्गलने करण, पुद्गल करण छे जीवने। ९८।
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कालकरणाः न च कार्मादीनामिव कालस्याभावः। ततो न सिद्धानामिव निष्क्रियत्वं पुद्गलानामिति।।
९८।।
सेसं हवदि अमूत्तं चित्तं उभयं समादियदि।। ९९।।
शेषं भवत्यमूर्तं चितमुभयं समाददाति।। ९९।।
निष्क्रियपना है [अर्थात् सिद्धोंको कर्म–नोकर्मके संचयरूप पुद्गलोंका अभाव होनेसे वे निष्क्रिय हैं।]
पुद्गलोंको सक्रियपनेका बहिरंग साधन
निष्क्रियपना होता है उस प्रकार] पुद्गलोंको निष्क्रियपना नहीं होता।। ९८।।
[उभयं] उन दोनोंको [समाददाति] ग्रहण करता है [जानता है]।
छे जीवने जे विषय इन्द्रियग्राह्य, ते सौ मूर्त छे;
बाकी बधुंय अमूर्त छे; मन जाणतुं ते उभय ने। ९९।