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सुखदुःखरूपं फलं प्रयच्छन्ति। जीवाश्च निश्चयेन
निमित्तमात्रभुतद्रव्यकर्मनिर्वर्तितसुखदुःखरूपात्मपरिणामानां व्यवहारेण
निमित्तमात्र होनेकी अपेक्षासे
उदयसे सम्पादित ईष्टानिष्ट विषयोंके भोक्ता होनेकी अपेक्षासे व्यवहारसे, उसप्रकारका [सुखदुःखरूप]
फल भोगते हैं [अर्थात् निश्चयसे सुखदुःखपरिणामरूप और व्यवहारसे ईष्टानिष्टा विषयरूप फल भोगते
हैं]।
विषयरूप फल ‘देनेवाला’ ’’ [उपचारसे] कहा जा सकता है। अब, [१] सुखदुःखपरिणाम तो जीवकी
अपनी ही पर्यायरूप होनेसे जीव सुखदुःखपरिणामको तो ‘निश्चयसे’ भोगता हैं, और इसलिये
सुखदुःखपरिणाममें निमित्तभूत वर्तते हुए शुभाशुभ कर्मोंमें भी [–जिन्हेंं ‘‘सुखदुःखपरिणामरूप फल
देनेवाला’’ कहा था उनमें भी] उस अपेक्षासे ऐसा कहा जा सकता हैे कि ‘‘वे जीवको ‘निश्चयसे’
सुखदुःखपरिणामरूप फल देते हैं;’’ तथा [२] ईष्टानिष्ट विषय तो जीवसे बिलकुल भिन्न होनेसे जीव ईष्टानिष्ट
विषयोंको तो ‘व्यवहारसे’ भोगता हैं, और इसलिये ईष्टानिष्ट विषयोंमें निमित्तभूत वर्तते हुए शुभाशुभ कर्मोंमें
भी [–जिन्हेंं ‘‘ईष्टानिष्ट विषयरूप फल देनेवाला ’’ कहा था उनमें भी ] उस अपेक्षासे ऐसा कहा जा
सकता हैे कि ‘‘वे जीवको ‘व्यवहारसे’ ईष्टानिष्ट विषयरूप फल देते हैं।’’
जीवसे बिल्कुल भिन्न हैं।’ परन्तु यहाँ कहे हुए निश्चयरूपसे भंगसे ऐसा नहीं समझना चाहिये कि ‘पौद्गलिक
कर्म जीवको वास्तवमें फल देता है और जीव वास्तवमें कर्मके दिये हुए फलको भोगता है।’
भोगे तो दोनों द्रव्य एक हो जायें। यहाँ यह ध्यान रखना खास आवश्यक है कि टीकाके पहले पैरेमें सम्पूर्ण
गाथाके कथनका सार कहते हुए श्री टीकाकार आचार्यदेव स्वयं ही जीवको कर्म द्वारा दिये गये फलका
उपभोग व्यवहारसे ही कहा है, निश्चयसे नहीं।
ऐसा अर्थ समझना चहिये।
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भोक्तृत्वगुणोऽपि व्याख्यातः।। ६७।।
भेत्ता हु हवदि जीवो
भेक्ता तु भवति जीवश्चेतकभावेन कर्मफलम्।। ६८।।
परन्तु वह भोक्ता नहीं है]। [भोक्ता तु] भोक्ता तो [जीवः भवति] [मात्र] जीव है [चेतकभावेन]
चेतकभावके कारण [कर्मफलम्] कर्मफलका।
तेथी करम, जीवभावसे संयुक्त कर्ता जाणवुं;
भोक्तापणुं तो जीवने चेतकपणे तत्फल तणुं ६८।
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कथंचिदात्मनः सुखदुःखपरिणामानां कथंचिदिष्टा–निष्टविषयाणां भोक्ता प्रसिद्ध इति।। ६८।।
हिडदि पारमपारं संसारं
हिंडते पारमपारं संसारं मोहसंछन्नः।। ६९।।
वच्छन्नत्वादुपजातविपरीताभिनिवेशः प्रत्यस्तमितसम्यग्ज्ञानज्योतिः सांतमनंतं वा संसारं
परिभ्रमतीति।। ६९।।
– भोक्ता प्रसिद्ध है।। ६८।।
सान्त अथवा अनन्त संसारमें [हिंडते] परिभ्रमण करता है।
अनादि मोहाच्छादितपनेके कारण विपरीत
[इस प्रकार जीवके कर्मसहितपनेकी मुख्यतापूर्वक प्रभुत्वगुणका व्याख्यान किया गया।।] ६९।।
कर्ता अने भोक्ता थतो ए रीत निज कर्मो वडे
जीव मोहथी आच्छन्न सान्त अनन्त संसारे भमे। ६९।
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णाणाणुमग्गचारी णिव्वाणपुरं वजदि
ज्ञानानुमार्गचारी निर्वाणपुरं व्रजति धीरः।। ७०।।
अयमेवात्मा यदि जिनाज्ञया मार्गमुपगम्योपशांतक्षीणमोहत्वात्प्रहीणविपरीताभिनिवेशः
समुद्भिन्नसम्ग्ज्ञानज्योतिः कर्तृत्वभोक्तृत्वाधिकारं परिसमाप्य सम्यक्प्रकटितप्रभुत्वशक्तिर्ज्ञानस्यै–
वानुमार्गेण चरति, तदा विशुद्धात्मतत्त्वोपलंभरूपमपवर्गनगरं विगाहत इति।। ७०।।
क्षयोपशम हुआ है ऐसा होता हुआ] [ज्ञानानुमार्गचारी] ज्ञानानुमार्गमें विचरता है [–ज्ञानका
अनुसरण करनेवाले मार्गे वर्तता है], [धीरः] वह धीर पुरुष [निर्वाणपुरं व्रजति] निर्वाणपुरको प्राप्त
होता है।
सम्यग्ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा होता हुआ, कर्तृत्व और भोक्तृत्वके अधिकारको समाप्त करके
सम्यक्रूपसे प्रगट प्रभुत्वशक्तिवान होता हुआ ज्ञानका ही अनुसरण करनेवाले मार्गमें विचरता है
ज्ञानानुमार्ग विषे चरे, ते धीर शिवपुरने वरे। ७०।
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चदुचंकमणो भणिदो पंचग्गगुणप्पधाणो य।। ७१।।
छक्कापक्कमजुतो उवउत्तो
चतुश्चंक्रमणो भणितः पञ्चाग्रगुणप्रधानश्च।। ७१।।
षट्कापक्रमयुक्तः उपयुक्तः सप्तभङ्गसद्भावः।
अष्टाश्रयो नवार्थो जीवो दशस्थानगो भणितः।। ७२।।
[–प्रवर्तता है, परिणमित होता है, आचरण करता है], तब वह विशुद्ध आत्मतत्त्वकी उपलब्धिरूप
अपवर्गनगरको [मोक्षपुरको] प्राप्त करता है।
[इस प्रकार जीवके कर्मरहितपनेकी मुख्यतापूर्वक प्रभुत्वगुणका व्याख्यान किया गया ।।] ७०।।
[पञ्चाग्रगुणप्रधानः] पाँच मुख्य गुणोसे प्रधानतावाला [भणितः] कहा है। [उपयुक्तः जीवः] उपयोगी
ऐसा वह जीव [षट्कापक्रमयुक्तः] छह
दशस्थानगत [भणितः] कहा गया है।
चउभ्रमणयुत, पंचाग्रगुणपरधान जीव कहेल छे; ७१।
उपयोगी षट–अपक्रमसहित छे, सप्तभंगीसत्त्व छे,
जीव अष्ट–आश्रय, नव–अरथ, दशस्थानगत भाखेल छे। ७२।
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चंक्रमणत्वाच्चतुश्चंक्रमणः, पञ्चभिः पारिणामिकौदयिकादिभिरग्रगुणैः प्रधानत्वात्पञ्चाग्रगुणप्रधानः,
चतसृषु दिक्षूर्ध्वमधश्चेति भवांतरसंक्रमणषट्केनापक्रमेण युक्तत्वात्षट्कापक्रमयुक्तः, असित–
नास्त्यादिभिः सप्तभङ्गैः सद्भावो यस्येति सप्तभङ्गसद्भावः अष्टानां कर्मणां गुणानां वा आश्रयत्वादष्टाश्रयः,
नवपदार्थरूपेण वर्तनान्नवार्थः, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिसाधारणप्रत्येक–द्वित्रिचतुः पञ्चेन्द्रियरूपेषु
दशसु स्थानेषु गतत्वाद्रशस्थानग इति।। ७१–७२।।
उड्ढं गच्छदि सेसा विदिसावज्जं गदिं
ज्ञानचेतना ऐसे भेदोंं द्वारा अथवा ध्रौव्य, उत्पाद और विनाश ऐसे भेदों द्वारा लक्षित होनेसे ‘त्रिलक्षण
[तीन लक्षणवाला]’ है; [४] चार गतियोंमें भ्रमण करता है इसलिये ‘चतुर्विध भ्रमणवाला’ है; [५]
पारिणामिक औदयिक इत्यादि पाँच मुख्य गुणों द्वारा प्रधानता होनेसे ‘पाँच मुख्य गुणोंसे
प्रधानतावाला’ है; [६] चार दिशाओंमें, ऊपर और नीचे इस प्र्रकार षड्विध भवान्तरगमनरूप
अपक्रमसे युक्त होनेके कारण [अर्थात् अन्य भवमें जाते हुए उपरोक्त छह दिशाओंमें गमन होता है
इसलिये] ‘छह अपक्रम सहित’ है; [७] अस्ति, नास्ति आदि सात भंगो द्वारा जिसका सद्भाव है
ऐसा होनेसे ‘सात भंगपूर्वक सद्भाववान’ है; [८] [ज्ञानावरणीयादि] आठ कर्मोंके अथवा
[सम्यक्त्वादि] आठ गुणोंके आश्रयभूत होनेसे ‘आठके आश्रयरूप’ है; [९] नव पदार्थरूपसे वर्तता
है इसलिये ‘नव–अर्थरूप’ है; [१०] पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, साधारण वनस्पति, प्रत्येक वनस्पति,
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियरूप दश स्थानोमें प्राप्त होनेसे ‘दशस्थानगत’ है।। ७१–
७२।।
गति होय ऊंचे; शेषने विदिशा तजी गति होय छे। ७३।
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ऊर्ध्व गच्छति शेषा विदिग्वर्जां गतिं यांति।। ७३।।
इदि ते चदुव्वियप्पा पुग्गलकाया
इति ते चतुर्विकल्पाः पुद्गलकाया ज्ञातव्याः।। ७४।।
जीव [भवान्तरमें जाते हुए] [विदिग्वर्जा गतिं यांति] विदिशाएँ छोड़ कर गमन करते हैं।
कहा है।
एकसमयवर्ती अविग्रहगति द्वारा [लोकाग्रपर्यंत] स्वाभाविक ऊर्ध्वगमन करता है। शेष संसारी जीव
मरणान्तमें विदिशाएँ छोड़कर पूर्वोक्त षट्–अपक्रमस्वरूप [कर्मनिमित्तक] अनुश्रेणीगमन करते हैं।।
७३।।
ते स्कंध तेनो देश, स्ंकधप्रदेश, परमाणु कह्या। ७४।
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चतुर्विकल्पत्वमिति।। ७४।।
अद्धद्धं च पदेसो परमाणू चेव अविभागी।। ७५।।
अर्धार्ध च प्रदेशः परमाणुश्चैवाविभागी।। ७५।।
भवन्ति इति] परमाणुु।
उनके चार भेद हैं।। ७४।।
अर्ध वह [प्रदेशः] प्रदेश है [च] और [अविभागी] अविभागी वह [परमाणुः एव] सचमुच परमाणु
है।
अर्धार्ध तेनुं ‘प्रदेश’ ने अविभाग ते ‘परमाणु’ छे। ७५।
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स्कंधस्यांत्यो भेदः परमाणुरेकः। पुनरपि द्वयोः परमाण्वोः संधातादेको द्वयणुकस्कंधपर्यायः। एवं
संधातवशादनंताः स्कंधपर्यायाः। एवं भेदसंधाताभ्यामप्यनंता भवंतीति।। ७५।।
अनन्तानन्त परमाणुओंसे निर्मित होने पर भी जो एक हो वह स्कंध नामकी पर्याय है; उसकी
कारण [पृथक होनके कारण] द्वि–अणुक स्कंधपर्यंत अनन्त स्कंधप्रदेशरूप पर्यायें होती हैं।
निर्विभाग–एक–प्रदेशवाला, स्कंधका अन्तिम अंश वह एक परमाणु है। [इस प्रकार
स्कंधरूप पर्यायें होती है। [इस प्रकार संघातसे होनेवाले पुद्गलविकल्पका वर्णन हुआ। ]
७५।।
हैे। भेद द्वारा उसके जो पुद्गलविकल्प होते हैं वे निम्नोक्त द्रष्टान्तानुसार समझना। मानलो कि १६
परमाणुओंसे निर्मित एक पुद्गलपिण्ड है और वह टूटकर उसके टुकड़े़ होते है। वहाँ १६ परमाणुाोंके पूर्ण
पुद्गलपिण्डको ‘स्कंध’ माने तो ८ परमाणुओंवाला उसका अर्धभागरूप टुकड़ा वह ‘देश’ है, ४
परमाणुओंवाला उसका चतुर्थभागरूप टुकड़ा वह ‘प्रदेश’ है और अविभागी छोटे–से–छोटा टुकड़ा वह
‘परमाणु’ है। पुनश्च, जिस प्रकार १६ परमाणुवाले पूर्ण पिण्डको ‘स्कंध’ संज्ञा है, उसी प्रकार १५ से लेकर
९ परमाणुओं तकके किसी भी टुकड़े़़़को भी ‘स्कंध’ संज्ञा हैे; जिस प्रकार ८ परमाणुओंवाले उसके
अर्धभागरूप टुकड़े़़़को ‘देश’ संज्ञा हैे, उसी प्रकार ७ से लेकर ५ परमाणओुं तकके उसके किसी भी
टुकड़े़़़़को भी ‘देश’ संज्ञा है; जिस प्रकार ४ परमाणुवाले उसके चतुर्थभागरूप टुकड़े़़़़़को ‘प्रदेश’ संज्ञा है,
उसी प्रकार ३ से लेकर २ परमाणु तकके उसके किसी भी टुकड़े़़़़को भी ‘प्रदेश’ संज्ञा है। – इस द्रष्टान्तके
अनुसार, भेद द्वारा होनेवाले पुद्गलविकल्प समझना।
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ते होंति छप्पयारा तेलोक्कं जेहिं णिप्पण्णं।। ७६।।
ते भवन्ति षट्प्रकारास्त्रैलोक्यं यैः निष्पन्नम्।। ७६।।
स्कंधास्त्वनेकपुद्गलमयैकपर्यायत्वेन पुद्गलेभ्योऽनन्यत्वात्पुद्गला इति
प्रकारके हैं, [यैः] जिनसे [त्रैलोक्यं] तीन लोक [निष्पन्नम्] निष्पन्न है।
स्कंधव्यक्तिके [–स्कंधपर्यायके] आविर्भाव और तिरोभावकी अपेक्षासे भी [परमाणुओंमें]
छ विकल्प छे स्कंधो तणा, जेथी त्रिजग निष्पन्न छे। ७६।
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स्थितवंत इति। तथा हि–बादरबादराः, बादराः, बादरसूक्ष्माः, सूक्ष्मबादराः, सूक्ष्माः, सूक्ष्म–सूक्ष्मा
इति। तत्र छिन्नाः स्वयं संधानासमर्थाः काष्ठपाषाणदयो बादरबादराः। छिन्नाः स्वयं संधानसमर्थाः
क्षीरधृततैलतोयरसप्रभृतयो बादराः। स्थूलोपलंभा अपि छेत्तुं
सूक्ष्मत्वेऽपि हि करणानुपलभ्याः कर्मवर्गणादयः सूक्ष्माः। अत्यंतसूक्ष्माः कर्मवर्गणा–भ्योऽधो द्वयणुक
स्कंधपर्यन्ताः सूक्ष्मसूक्ष्मा इति।। ७६।।
‘पूरण – गलन’ घटित होनेसे परमाणु निश्चयसे ‘
सूक्ष्मत्वरूप परिणामोंके भेदों द्वारा छह प्रकारोंको प्राप्त करके तीन लोकरूप होकर रहे हैं। वे छह
प्रकारके स्कंध इस प्रकार हैंः– [१] बादरबादर; [२] बादर; [३] बादरसूक्ष्म; [४] सूक्ष्मबादर; [५]
सूक्ष्म; [६] सूक्ष्मसूक्ष्म। वहाँ, [१] काष्ठपाषाणादिक [स्कंध] जो कि छेदन होनेपर स्वयं नहीं जुड़
सकते वे [घन पदार्थ] ‘बादरबादर’ हैं; [२] दूध, घी, तेल, जल, रस आदि [स्कंध] जो कि
छेदन होनेपर स्वयं जुड़ जाते हैं वे [प्रवाही पदार्थ] ‘बादर’ है; [३] छाया, धूप, अंधकार, चांदनी
आदि [स्कंध] जो कि स्थूल ज्ञात होनेपर भी जिनका छेदन, भेदन अथवा [हस्तादि द्वारा] ग्रहण
नहीं किया जा सकता वे ‘बादरसूक्ष्म’ हैं; [४] स्पर्श–रस–गंध–शब्द जो कि सूक्ष्म होने पर भी
स्थूल ज्ञात होते हैं [अर्थात् चक्षकोु छोड़कर चार इन्द्रियोंंके विषयभूत स्कंध जो कि आँखसे दिखाई
न देने पर भी स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा स्पर्श किया जा सकता हैे] जीभ द्वारा जिनका स्वाद लिया जा
सकता हैे, नाकसे सूंंधा जा सकता हैे अथवा कानसे सुना जा सकता हैे वे ‘सूक्ष्मबादर’ हैं; [५]
कर्मवर्गणादि [स्कंध] कि जिन्हें सूक्ष्मपना है तथा जो इन्द्रियोंसे ज्ञात न हों ऐसे हैं वे ‘सूक्ष्म’ हैं;
[६] कर्मवर्गणासे नीचेके [कर्मवर्गणातीत द्विअणुक–स्कंध तकके [स्कंध] जो कि अत्यन्त सूक्ष्म हैं वे
‘सूक्ष्मसूक्ष्म’ हैं।। ७६।।
विशेष गुण जो स्पर्श–रस–गंध–वर्ण हैं उनमें होनेवाली षट्स्थानपतित वृद्धि वह पूरण है और षट्स्थानपतित
हानि वह गलन है; इसलिये इस प्रकार परमाणु पूरण–गलनधर्मवाले हैं। [२] परमाणुओंमें स्कंधरूप पर्यायका
आविर्भाव होना सो पूरण है और तिरोभाव होना वह गलन हैे; इस प्रकार भी परमाणुओंमें पूरणगलन घटित
होता है।]
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सो सस्सदो असद्दो एक्को अविभागी मुत्तिभवो।। ७७।।
स शाश्वतोऽशब्दः एकोऽविभागी भूर्तिभवः।। ७७।।
अनादिनिधनरूपादिपरिणामोत्पन्नत्वान्मूर्तिभवः, रूपादिपरिणामोत्पन्नत्वेऽपि शब्दस्य
परमाणुगुणत्वाभावात्पुद्गलस्कंधपर्यायत्वेन वक्ष्यमाणत्वाच्चाशब्दो निश्चीयत इति।। ७७।।
शाश्वत [मूर्तिभवः] मूर्तिप्रभव [मूर्तरूपसे उत्पन्न होनेवाला] और [अशब्दः] अशब्द है।
अविनाशी होनेसे नित्य है; अनादि–अनन्त रूपादिके परिणामसे उत्पन्न होनेके कारण
नहीं है तथा उसका[शब्दका] अब [७९ वीं गाथामें] पुद्गलस्कंधपर्यायरूपसे कथन है।। ७७।।
होता है ऐसा।[मूर्ति = मूर्तपना]
ते एकने अविभाग, शाश्वत, मूर्तिप्रभव, अशब्द छे। ७७।
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सो णेओ परमाणू परिणामगुणो सयमसद्रे।। ७८।।
आदेशमात्रमूर्त्तः धातुचतुष्कस्य कारणं यस्तु।
स ज्ञेयः परमाणुः। परिणामगुणः स्वयमशब्दः।। ७८।।
[सः] वह [परमाणुः ज्ञेयः] परमाणु जानना – [परिणामगुणः] जो कि परिणामगुणवाला है और
[स्वयम् अशब्दः] स्वयं अशब्द है।
प्रकार द्रव्य और गुणके अभिन्न प्रदेश होनेसे, जो परमाणुका प्रदेश है, वही स्पर्शका है, वही रसका
है, वही गंधका है, वही रूपका है। इसलिये किसी परमाणुमें गंधगुण कम हो, किसी परमाणुमें
गंधगुण और रसगुण कम हो, किसी परमाणुमें गंधगुण, रसगुण और रूपगुण कम हो,
ते जाणवो परमाणु– जे परिणामी, आप अशब्द छे। ७८।
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गंधगुणे, क्वचित् गंधरसगुणयोः, क्वचित् गंधरसरूपगुणेषु अपकृष्यमाणेषु तदविभक्तप्रदेशः परमाणुरेव
विनश्यतीति। न तदपकर्षो युक्तः। ततः पृथिव्यप्तेजोवायुरूपस्य धातुचतुष्कस्यैक एव परमाणुः कारणं
परिणामवशात् विचित्रो हि परमाणोः परिणामगुणः क्वचित्कस्यचिद्गुणस्य व्यक्ताव्यक्तत्वेन विचित्रां
परिणतिमादधाति। यथा च तस्य परिणामवशादव्यक्तो गंधादिगुणोऽस्तीति प्रतिज्ञायते न तथा
शब्दोऽप्यव्यक्तोऽस्तीति ज्ञातुं शक्यते शक्यते तस्यैकप्रदेशस्यानेकप्रदेशात्मकेन शब्देन
सहैकत्वविरोधादिति।। ७८।।
तो उस गुणसे अभिन्न प्रदेशी परमाणु ही विनष्ट हो जायेगा। इसलिये उस गुणकी न्यूनता युक्त
[उचित] नहीं है। [किसी भी परमाणुमें एक भी गुण कम हो तो उस गुणके साथ अभिन्न प्रदेशी
परमाणु ही नष्ट हो जायेगा; इसलिये समस्त परमाणु समान गुणवाले ही है, अर्थात् वे भिन्न भिन्न
जातिके नहीं हैं।] इसलिये पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुरूप चार धातुओंका, परिणामके कारण, एक
ही परमाणु कारण है [अर्थात् परमाणु एक ही जातिके होने पर भी वे परिणामके कारण चार
धातुओंके कारण बनते हैं]; क्योंकि विचित्र ऐसा परमाणुका परिणामगुण कहीं किसी गुणकी
शब्दके साथ एकत्व होनेमें विरोध है।। ७८।।
अव्यक्त होता है ; अग्निमें स्पर्श और वर्ण व्यक्त होते हैं और शेष दो अव्यक्त होते हैं ; वायुमें स्पर्श व्यक्त
होता है और शेष तीन अव्यक्त होते हैं।]
२। जिस प्रकार परमाणुमें गंधादिगुण भले ही अव्यक्तरूपसे भी होते तो अवश्य हैं; उसी प्रकार परमाणुमें शब्द भी
है।
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स्पृष्टेषु तेषु जायते शब्द उत्पादिको नियतः।। ७९।।
समुत्पद्यमानत्वात् स्कंधप्रभवः, यतो हि परस्पराभिहतेषु महास्कंधेषु शब्दः समुपजायते।
शब्द उत्पन्न होता है; [नियतः उत्पादिकः] इस प्रकार वह [शब्द] नियतरूपसे उत्पाद्य हैं।
साधनभूत [–बाह्य कारणभूत] महास्कन्धों द्वारा तथाविध परिणामरूप [शब्दपरिणामरूप] उत्पन्न
स्कंधाभिधाते शब्द ऊपजे, नियमथी उत्पाद्य छे। ७९।
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शब्दत्वेनस्वयं व्यपरिणमंत इति शब्दस्य नियतमुत्पाद्यत्वात् स्कंधप्रभवत्वमिति।। ७९।।
बात विशेष समझाई जाती हैः– एकदूसरेमें प्रविष्ट होकर सर्वत्र व्याप्त होकर स्थित ऐसी जो
स्वभावनिष्पन्न ही [–अपने स्वभावसे ही निर्मित्त], अनन्तपरमाणुमयी शब्दयोग्य–वर्गणाओंसे समस्त
लोक भरपूर होने पर भी जहाँ–जहाँ बहिरंगकारण सामग्री उदित होती है वहाँ–वहाँ वे वर्गणाएँ
द्वींन्द्रियादिक जीवोंके शब्दरूप तथा [केवलीभगवानकी] दिव्य ध्वनिरूपसे वह अनक्षरात्मक हैं। अभाषात्मक
शब्द भी द्विविध हैं – प्रायोगिक और वैश्रिसिक। वीणा, ढोल, झांझ, बंसरी आदिसे उत्पन्न होता हुआ
प्रायोगिक है और मेघादिसे उत्पन्न होता हुआ वैश्रसिक है।
२। उत्पाद्य=उत्पन्न कराने योग्य; जिसकी उत्पत्तिमें अन्य कोई निमित्त होता है ऐसा।
३। स्कन्धजन्य=स्कन्धों द्वारा उत्पन्न हो ऐसाः जिसकी उत्पत्तिमें स्कन्ध निमित्त होते हैं ऐसा। [समस्त लोकमें
जिव्हा–ओष्ठ, द्यंटा–मोगरी आदि महास्कन्धोंका टकराना वह बहिरंगकारणसामग्री है अर्थात् शब्दरूप
परिणमनमें वे महास्कन्ध निमित्तभूत हैं इसलिये उस अपेक्षासे [निमित्त–अपेक्षासे] शब्दको व्यवहारसे
स्कन्धजन्य कहा जाता है।]
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खंधाणं पि य कत्ता
स्कंधानामपि च कर्ता प्रविभक्ता कालसंख्यायाः।। ८०।।
कर्ता] तथा करनेवाला है और [कालसंख्यायाः प्रविभक्ता] काल तथा संख्याको विभाजित करनेवाला
है [अर्थात् कालका विभाजन करता है और संख्याका माप करता है]।
अस्तित्ववाले स्पर्शादिगुणोंको अवकाश देता है इसलिये
होनेके कारण [अर्थात् निरंश होनेके कारण], सावकाश नहीं है; वह वास्तवमें एक प्रदेश द्वारा
स्कंधोंके भेदका निमित्त होनेसे [अर्थात् स्कंधके बिखरने – टूटनेका निमित्त होनेसे] स्कंधोंका भेदन
करनेवाला है; वह वास्तवमें एक प्रदेश द्वारा स्कंधके संघातका निमित्त होनेसे [अर्थात् स्कन्धके
मिलनेका –रचनाका निमित्त होनेसे] स्कंधोंका कर्ता है; वह वास्तवमें एक प्रदेश द्वारा – जो कि
एक
भेत्ता रचयिता स्कंधनो, प्रविभागी संख्या–काळनो। ८०।
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भेदनिमित्तत्वात् स्कंधानां भेत्ता। ऐकन प्रदेशेन स्कंधसंघातनिमित्तत्वात्स्कंधानां कर्ता एकेन
प्रदेशेनैकाकाशप्रदेशातिवर्तितद्नतिपरिणामापन्नेन समयलक्षणकालविभागकरणात् कालस्य प्रविभक्ता।
एकेन प्रदेशेन तत्सूत्रत्रितद्वयादिभेदपूर्विकायाः स्कंधेषु द्रव्यसंख्यायाः एकेन प्रदेशेन
तदवच्छिन्नैकाकाशप्रदेश–
द्वारा –‘समय’ नामक कालका विभाग करता है इसलिये कालका विभाजक है; वह वास्तवमें एक
प्रदेश द्वारा संख्याका भी
करता है, [२] वह एक प्रदेश द्वारा उसकी जितनी मर्यादावाले एक ‘
वह एक प्रदेश द्वारा, एक आकाशप्रदेशका अतिक्रम करनेवाले उसके गतिपरिणाम जितनी मर्यादावाले
‘
वर्णादिभावको जाननेवाले ज्ञानसे लेकर भावसंख्याके विभाग करता है।। ८०।।
द्वारा होता है। क्षेत्रका मापका एकक ‘आकाशप्रदेश’ है और आकाशप्रदेशकी व्याख्यामें परमाणुकी अपेक्षा आती
है; इसलिये क्षेळका माप भी परमाणु द्वारा होता है। कालके माप एकक ‘समय’ है और समयकी व्याख्यामें
परमाणुकी अपेक्षा आती है; इसलिये कालका माप भी परमाणु द्वारा होता है। ज्ञानभावके [ज्ञानपर्यायके]
मापका एकक ‘परमाणुमेंं परिणमित जघन्य वर्णादिभावको जाने उतना ज्ञान’ है और उसमें परमाणुकी अपेक्षा
आती है; इसलिये भावका [ज्ञानभावका] माप भी परमाणु द्वारा होता है। इस प्रकार परमाणु द्रव्य, क्षेत्र, काल
और भाव माप करनेके लिये गज समान है]
२। एक परमाणुप्रदेश जितने आकाशके भागको [क्षेत्रको] ‘आकाशप्रदेश’ कहा जात है। वह ‘आकाशप्रदेश’
परिमाणको उस वस्तुका ‘एकक’ कहा जाता है।]
३। परमाणुको एक आकाशप्रदेशेसे दूसरे अनन्तर आकाशप्रदेशमें [मंदगतिसे] जाते हुए जो काल लगता है उसे
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कालसंख्यायाः ऐकन प्रदेशेन पद्विवर्तिजघन्यवर्णादिभावावबोधपूर्विकाया भावसंख्यायाः प्रविभाग–
करणात् प्रविभक्ता संख्याया अपीति।। ८०।।
खंधंतरिदं दव्वं परमाणु
स्कंधांतरितं द्रव्यं परमाणुं तं विजानिहि।। ८१।।
है और [स्कंधांतरितं] स्कन्धके भीतर हो तथापि [द्रव्यं] [परिपूर्ण स्वतंत्र] द्रव्य है ऐसा
[विजानीहि] जानो।
सहित रस वर्तता है; पाँच वर्णपर्यायोंमेंसे एक समय किसी एक [वर्णपर्याय] सहित वर्ण वर्तता है ;
ते शब्दहेतु, अशब्द छे, ने स्कंधमां पण द्रव्य छे। ८१।
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चतुर्णां शीतस्निग्धशीतरूक्षोष्णस्निग्धोष्णरूक्षरूपाणां स्पर्शपर्यायद्वंद्वानामन्यतमेनैकेनैकदा स्पर्शो वर्तते।
एवमयमुक्तगुणवृत्तिः परमाणुः शब्दस्कंधपरिणतिशक्तिस्वभावात् शब्दकारणम्। एकप्रदेशत्वेन
शब्दपर्यायपरिणतिवृत्त्यभावादशब्दः। स्निग्धरूक्षत्वप्रत्ययबंधवशादनेकपरमाण्वेक–
त्वपरिणतिरूपस्कंधांतरितोऽपि स्वभावमपरित्यजन्नुपात्तसंख्यत्वादेक एव द्रव्यमिति।। ८१।।
जं हवदि मुत्तमण्णं तं सव्वं पुग्गलं जाणे।। ८२।।
यद्भवति मूर्तमन्यत् तत्सर्वं पुद्गलं जानीयात्।। ८२।।
उष्ण–स्निग्ध और उष्ण–रूक्ष इन चार स्पर्शपर्यायोंके युगलमेंसे एक समय किसी एक युगक सहित
स्पर्श वर्तता है। इस प्रकार जिसमें गुणोंका वर्तन [–अस्तित्व] कहा गया है ऐसा यह परमाणु
शब्दस्कंधरूपसे परिणमित होने की शक्तिरूप स्वभाववाला होनेसे शब्दका कारण है; एकप्रदेशी होनेके
कारण शब्दपर्यायरूप परिणति नही वर्तती होनेसे अशब्द है; और
छोड़ता हुआ, संख्याको प्राप्त होनेसे [अर्थात् परिपूर्ण एकके रूपमें पृथक् गिनतीमें आनेसे]
सर्वं] वह सब [पुद्गलं जानीयात्] पुद्गल जानो।
२। यहाँ ऐसा बतलाया है कि स्कंधमें भी प्रत्येक परमाणु स्वयं परिपूर्ण है, स्वतंत्र है, परकी सहायतासे रहित ,
इन्द्रिय वडे उपभोग्य, इन्द्रिय, काय, मन ने कर्म जे,
वळी अन्य जे कंई मूर्त ते सघळुंय पुद्गल जाणजे। ८२।