Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 68-82 ; Pudgaldravya-astikay ka vyakhyan.

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११२
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
निश्चयेन सुखदुःखरूपात्मपरिणामानां व्यवहारेणेष्टा–निष्टविषयाणां निमित्तमात्रत्वात्पुद्गलकायाः
सुखदुःखरूपं फलं प्रयच्छन्ति। जीवाश्च निश्चयेन
निमित्तमात्रभुतद्रव्यकर्मनिर्वर्तितसुखदुःखरूपात्मपरिणामानां व्यवहारेण
-----------------------------------------------------------------------------

निमित्तमात्र होनेकी अपेक्षासे
निश्चयसे, और ईष्टानिष्ट विषयोंके निमित्तमात्र होनेकी अपेक्षासे
व्यवहारसे सुखदुःखरूप फल देते हैं; तथा जीव निमित्तमात्रभूत द्रव्यकर्मसे निष्पन्न होनेवाले
सुखदुःखरूप आत्मपरिणामोंको भोक्ता होनेकी अपेक्षासे निश्चयसे, और [निमित्तमात्रभूत] द्रव्यकर्मके
उदयसे सम्पादित ईष्टानिष्ट विषयोंके भोक्ता होनेकी अपेक्षासे व्यवहारसे, उसप्रकारका [सुखदुःखरूप]
फल भोगते हैं [अर्थात् निश्चयसे सुखदुःखपरिणामरूप और व्यवहारसे ईष्टानिष्टा विषयरूप फल भोगते
हैं]।
--------------------------------------------------------------------------
[१] सुखदुःखपरिणामोंमें तथा [२] ईष्टानिष्ट विषयोंके संयोगमें शुभाशुभ कर्म निमित्तभूत होते हैं, इसलिये उन
कर्मोंको उनके निमित्तमात्रपनेकी अपेक्षासे ही ‘‘[१] सुखदुःखपरिणामरूप [फल] तथा [२] ईष्टानिष्ट
विषयरूप फल ‘देनेवाला’ ’’ [उपचारसे] कहा जा सकता है। अब, [१] सुखदुःखपरिणाम तो जीवकी
अपनी ही पर्यायरूप होनेसे जीव सुखदुःखपरिणामको तो ‘निश्चयसे’ भोगता हैं, और इसलिये
सुखदुःखपरिणाममें निमित्तभूत वर्तते हुए शुभाशुभ कर्मोंमें भी [–जिन्हेंं ‘‘सुखदुःखपरिणामरूप फल
देनेवाला’’ कहा था उनमें भी] उस अपेक्षासे ऐसा कहा जा सकता हैे कि ‘‘वे जीवको ‘निश्चयसे’
सुखदुःखपरिणामरूप फल देते हैं;’’ तथा [२] ईष्टानिष्ट विषय तो जीवसे बिलकुल भिन्न होनेसे जीव ईष्टानिष्ट
विषयोंको तो ‘व्यवहारसे’ भोगता हैं, और इसलिये ईष्टानिष्ट विषयोंमें निमित्तभूत वर्तते हुए शुभाशुभ कर्मोंमें
भी [–जिन्हेंं ‘‘ईष्टानिष्ट विषयरूप फल देनेवाला ’’ कहा था उनमें भी ] उस अपेक्षासे ऐसा कहा जा
सकता हैे कि ‘‘वे जीवको ‘व्यवहारसे’ ईष्टानिष्ट विषयरूप फल देते हैं।’’
यहाँ [टीकाके दूसरे पैरेमें] जो ‘निश्चय’ और ‘व्यवहार’ ऐसे दो भंग किये हैं वेे मात्र इतना भेद सूचित
करनेके लिये ही किये हैं कि ‘कर्मनिमित्तक सुखदुःखपरिणाम जीवमें होते हैं और कर्मनिमित्तक ईष्टानिष्ट विषय
जीवसे बिल्कुल भिन्न हैं।’ परन्तु यहाँ कहे हुए निश्चयरूपसे भंगसे ऐसा नहीं समझना चाहिये कि ‘पौद्गलिक
कर्म जीवको वास्तवमें फल देता है और जीव वास्तवमें कर्मके दिये हुए फलको भोगता है।’
परमार्थतः कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्यको फल नहीं दे सकता और कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्यके पाससे
फल प्राप्त करके भोग नहीं सकता। यदि परमार्थतः कोई द्रव्य अन्य द्रव्यको फल दे और वह अन्य द्रव्य उसे
भोगे तो दोनों द्रव्य एक हो जायें। यहाँ यह ध्यान रखना खास आवश्यक है कि टीकाके पहले पैरेमें सम्पूर्ण
गाथाके कथनका सार कहते हुए श्री टीकाकार आचार्यदेव स्वयं ही जीवको कर्म द्वारा दिये गये फलका
उपभोग व्यवहारसे ही कहा है, निश्चयसे नहीं।
सुखदुःखके दो अर्थ होते हैः [१] सुखदुःखपरिणाम, और [२] ईष्टानिष्ट विषय। जहाँ ‘निश्चयसे’ कहा है वहाँ
‘सुखदुःखपरिणाम’ ऐसा अर्थ समझना चाहिये और जहाँ ‘व्यवहारसेॐ कहा है वहाँ ‘ईष्टानिष्ट ‘विषयॐ
ऐसा अर्थ समझना चहिये।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
११३
ोर्ंव्यकर्मोदयापादितेष्टानिष्टविषयाणां भोक्तृत्वात्तथाविधं फलं भुञ्जन्ते इति। एतेन जीवस्य
भोक्तृत्वगुणोऽपि व्याख्यातः।। ६७।।
तम्हा कम्मं कत्ता भावेण हि संजुदोध जीवस्स।
भेत्ता हु हवदि जीवो
चेदगभावेण कम्मफलं।। ६८।।
तस्मात्कर्म कर्तृ भावेन हि संयुतमथ जीवस्य।
भेक्ता तु भवति जीवश्चेतकभावेन कर्मफलम्।। ६८।।
कर्तृत्वभोक्तृत्वव्याख्योपसंहारोऽयम्।
त्त एतत् स्थित्त निश्चयेनात्मनः कर्म कर्तृ, व्यवहारेण जीवभावस्य; जीवोऽपि निश्चयेनात्मभावस्य
कर्ता, व्यवहारणे कर्मण इति। यथात्रोभयनयाभ्यां कर्म कर्तृ, तथैकेनापि नयेन न
-----------------------------------------------------------------------------
इससे [इस कथनसे] जीवके भोक्तृत्वगुणका भी व्याख्यान हुआ।। ६७।।
गाथा ६८
अन्वयार्थः– [तस्मात्] इसलिये [अथ जीवस्य भावेन हि संयुक्तम्] जीवके भावसे संयुक्त ऐसा
[कर्म] कर्म [द्रव्यकर्म] [कर्तृ] कर्ता है। [–निश्चयसे अपना कर्ता और व्यवहारसे जीवभावका कर्ता;
परन्तु वह भोक्ता नहीं है]। [भोक्ता तु] भोक्ता तो [जीवः भवति] [मात्र] जीव है [चेतकभावेन]
चेतकभावके कारण [कर्मफलम्] कर्मफलका।
टीकाः– यह, कर्तृत्व और्र भोक्तृत्वकी व्याख्याका उपसंहार है।
इसलिये [पूर्वोक्त कथनसे] ऐसा निश्चित हुआ कि–कर्म निश्चयसे अपना कर्ता है, व्यवहारसे
जीवभावका कर्ता है; जीव भी निश्चयसे अपने भावका कर्ता है, व्यवहारसे कर्मका कर्ता है।
जिस प्रकार यह नयोंसे कर्म कर्ता है, उसी प्रकार एक भी नयसे वह भोक्ता नहीं है।
किसलिये? क्योंकि उसेे चैतन्यपूर्वक अनुभूतिका सद्भाव नहीं है। इसलिये चेतनापने के कारण
--------------------------------------------------------------------------
जो अनुभूति चैतन्यपूर्वक हो उसीको यहाँ भोक्तृत्व कहा है, उसके अतिरिक्त अन्य अनुभूतिको नहीं।

तेथी करम, जीवभावसे संयुक्त कर्ता जाणवुं;
भोक्तापणुं तो जीवने चेतकपणे तत्फल तणुं ६८।

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११४
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
भोक्तृ। कुतः? चैतन्यपूर्वकानुभूतिसद्भावाभावात्। ततश्चेत–नत्वात् केवल एव जीवः कर्मफलभूतानां
कथंचिदात्मनः सुखदुःखपरिणामानां कथंचिदिष्टा–निष्टविषयाणां भोक्ता प्रसिद्ध इति।। ६८।।
एंव कत्ता भोत्ता होज्जं अप्पा सगेहिं कम्मेहिं।
हिडदि पारमपारं संसारं
मोहसंछण्णो।। ६९।।
एंव कर्ता भोक्ता भवन्नात्मा स्वकैः कर्मभिः।
हिंडते पारमपारं संसारं मोहसंछन्नः।। ६९।।
कर्मसंयुक्तत्वमुखेन प्रभुत्वगुणव्याख्यानमेतत्।
एवमयमात्मा प्रकटितप्रभुत्वशक्तिः स्वकैः कर्मभिर्गृहीतकर्तृत्वभोक्तृत्वाधिकारोऽनादिमोहा–
वच्छन्नत्वादुपजातविपरीताभिनिवेशः प्रत्यस्तमितसम्यग्ज्ञानज्योतिः सांतमनंतं वा संसारं
परिभ्रमतीति।। ६९।।
-----------------------------------------------------------------------------
मात्र जीव ही कर्मफलका – कथंचित् आत्माके सुखदुःखपरिणामोंका और कथंचित् ईष्टानिष्ट विषयोंका
– भोक्ता प्रसिद्ध है।। ६८।।
गाथा ६९
अन्वयार्थः– [एवं] इस प्रकार [स्वकैः कर्मभिः] अपने कर्मोंसे [कर्ता भोक्ता भवन्] कर्ता–
भोक्ता होता हुआ [आत्मा] आत्मा [मोहसंछन्नः] मोहाच्छादित वर्तता हुआ [पारम् अपारं संसारं]
सान्त अथवा अनन्त संसारमें [हिंडते] परिभ्रमण करता है।
टीकाः– यह, कर्मसंयुक्तपनेकी मुख्यतासे प्रभुत्वगुणका व्याख्यान है।
इस प्रकार प्रगट प्रभुत्वशक्तिके कारण जिसने अपने कर्मों द्वारा [–निश्चयसे भावकर्मों और
व्यवहारसे द्रव्यकर्मों द्वारा] कर्तृत्व और भोक्तृत्वका अधिकार ग्रहण किया है ऐसे इस आत्माको,
अनादि मोहाच्छादितपनेके कारण विपरीत
अभिनिवेशकी उत्पत्ति होनेसे सम्यग्ज्ञानज्योति अस्त हो
गई है, इसलिये वह सान्त अथवा अनन्त संसारमें परिभ्रमण करता है।

[इस प्रकार जीवके कर्मसहितपनेकी मुख्यतापूर्वक प्रभुत्वगुणका व्याख्यान किया गया।।] ६९।।
--------------------------------------------------------------------------
अभिनिवेश =अभिप्राय; आग्रह।

कर्ता अने भोक्ता थतो ए रीत निज कर्मो वडे
जीव मोहथी आच्छन्न सान्त अनन्त संसारे भमे। ६९।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
११५
उवसंतखीणमोहो मग्गं जिणभासिदेण समुवगदो।
णाणाणुमग्गचारी णिव्वाणपुरं वजदि
धीरो।। ७०।।
उपशांतक्षीणमोहो मार्ग जिनभ षितेन समुपगतः।
ज्ञानानुमार्गचारी निर्वाणपुरं व्रजति धीरः।। ७०।।
कर्मवियुक्तत्वमुखेन प्रभुत्वगुणव्याख्यानमेतत्।

अयमेवात्मा यदि जिनाज्ञया मार्गमुपगम्योपशांतक्षीणमोहत्वात्प्रहीणविपरीताभिनिवेशः
समुद्भिन्नसम्ग्ज्ञानज्योतिः कर्तृत्वभोक्तृत्वाधिकारं परिसमाप्य सम्यक्प्रकटितप्रभुत्वशक्तिर्ज्ञानस्यै–
वानुमार्गेण चरति, तदा विशुद्धात्मतत्त्वोपलंभरूपमपवर्गनगरं विगाहत इति।। ७०।।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा ७०
अन्वयार्थः– [जिनभाषितेन मार्ग समुपगतः] जो [पुरुष] जिनवचन द्वारा मार्गको प्राप्त करके
[उपशांतक्षीणमोहः] उपशांतक्षीणमोह होता हुआ [अर्थात् जिसे दर्शनमोहका उपशम, क्षय अथवा
क्षयोपशम हुआ है ऐसा होता हुआ] [ज्ञानानुमार्गचारी] ज्ञानानुमार्गमें विचरता है [–ज्ञानका
अनुसरण करनेवाले मार्गे वर्तता है], [धीरः] वह धीर पुरुष [निर्वाणपुरं व्रजति] निर्वाणपुरको प्राप्त
होता है।
टीकाः– यह, कर्मवियुक्तपनेकी मुख्यतासे प्रभुत्वगुणका व्याख्यान है।
जब यही आत्मा जिनाज्ञा द्वारा मार्गको प्राप्त करके, उपशांतक्षीणमोहपनेके कारण
[दर्शनमोहके उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमके कारण] जिसे विपरीत अभिनिवेश नष्ट हो जानेसे
सम्यग्ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा होता हुआ, कर्तृत्व और भोक्तृत्वके अधिकारको समाप्त करके
सम्यक्रूपसे प्रगट प्रभुत्वशक्तिवान होता हुआ ज्ञानका ही अनुसरण करनेवाले मार्गमें विचरता है
--------------------------------------------------------------------------
जिनवचनथी लही मार्ग जे, उपशांतक्षीणमोही बने,
ज्ञानानुमार्ग विषे चरे, ते धीर शिवपुरने वरे। ७०।

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११६
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
अथ जीवविकल्पा उच्यन्ते।
एको चेव महप्पा सो दुवियप्पो तिलक्खणो होदि।
चदुचंकमणो भणिदो पंचग्गगुणप्पधाणो य।। ७१।।
छक्कापक्कमजुतो उवउत्तो
सत्तभङ्गसब्भावो।
अट्ठासओ णवट्ठो जीवो दसट्ठाणगो भणिदो।। ७२।।
एक एव महात्मा स द्विविकल्पस्त्रिलक्षणो भवति।
चतुश्चंक्रमणो भणितः पञ्चाग्रगुणप्रधानश्च।। ७१।।
षट्कापक्रमयुक्तः उपयुक्तः सप्तभङ्गसद्भावः।
अष्टाश्रयो नवार्थो जीवो दशस्थानगो भणितः।। ७२।।
-----------------------------------------------------------------------------

[–प्रवर्तता है, परिणमित होता है, आचरण करता है], तब वह विशुद्ध आत्मतत्त्वकी उपलब्धिरूप
अपवर्गनगरको [मोक्षपुरको] प्राप्त करता है।

[इस प्रकार जीवके कर्मरहितपनेकी मुख्यतापूर्वक प्रभुत्वगुणका व्याख्यान किया गया ।।] ७०।।
अब जीवके भेद कहे जाते हैं।
गाथा ७१–७२
अन्वयार्थः– [सः महात्मा] वह महात्मा [एकः एव] एक ही है, [द्विविकल्पः] दो भेदवाला है
और [त्रिलक्षणः भवति] त्रिलक्षण है; [चतुश्चंक्रमणः] और उसे चतुर्विध भ्रमणवाला [च] तथा
[पञ्चाग्रगुणप्रधानः] पाँच मुख्य गुणोसे प्रधानतावाला [भणितः] कहा है। [उपयुक्तः जीवः] उपयोगी
ऐसा वह जीव [षट्कापक्रमयुक्तः] छह
अपक्रम सहित, [सप्तभंगसद्भावः] सात भंगपूर्वक
सद्भाववान, [अष्टाश्रयः] आठके आश्रयरूप, [नवार्थः] नौ–अर्थरूप और [दशस्थानगः]
दशस्थानगत [भणितः] कहा गया है।
--------------------------------------------------------------------------
अपक्रम=[संसारी जीवको अन्य भवमें जाते हुए] अनुश्रेणी गमन अर्थात् विदिशाओंको छोड़कर गमन।
एक ज महात्मा ते द्विभेद अने त्रिलक्षण उक्त छे,
चउभ्रमणयुत, पंचाग्रगुणपरधान जीव कहेल छे; ७१।
उपयोगी षट–अपक्रमसहित छे, सप्तभंगीसत्त्व छे,
जीव अष्ट–आश्रय, नव–अरथ, दशस्थानगत भाखेल छे। ७२।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
११७
स खलु जीवो महात्मा नित्यचैतन्योपयुक्तत्वादेक एव, ज्ञानदर्शनभेदाद्विविकल्पः,
कर्मफलकार्यज्ञानचेतनाभेदेन लक्ष्यमाणत्वात्रिलक्षणः ध्रौव्योत्पादविनाशभेदेन वा, चतसृषु गतिषु
चंक्रमणत्वाच्चतुश्चंक्रमणः, पञ्चभिः पारिणामिकौदयिकादिभिरग्रगुणैः प्रधानत्वात्पञ्चाग्रगुणप्रधानः,
चतसृषु दिक्षूर्ध्वमधश्चेति भवांतरसंक्रमणषट्केनापक्रमेण युक्तत्वात्षट्कापक्रमयुक्तः, असित–
नास्त्यादिभिः सप्तभङ्गैः सद्भावो यस्येति सप्तभङ्गसद्भावः अष्टानां कर्मणां गुणानां वा आश्रयत्वादष्टाश्रयः,
नवपदार्थरूपेण वर्तनान्नवार्थः, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिसाधारणप्रत्येक–द्वित्रिचतुः पञ्चेन्द्रियरूपेषु
दशसु स्थानेषु गतत्वाद्रशस्थानग इति।। ७१–७२।।
पयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेसबंधेहिं सव्वदो मुक्को।
उड्ढं गच्छदि सेसा विदिसावज्जं गदिं
जंति।। ७३।।
-----------------------------------------------------------------------------
टीकाः– वह जीव महात्मा [१] वास्तवमें नित्यचैतन्य–उपयोगी होनेसे ‘एक ’ ही है; [२]
ज्ञान और दर्शन ऐसे भेदोंके कारण ‘दो भेदवाला’ है; [३] कर्मफलचेतना, कार्यचेतना और
ज्ञानचेतना ऐसे भेदोंं द्वारा अथवा ध्रौव्य, उत्पाद और विनाश ऐसे भेदों द्वारा लक्षित होनेसे ‘त्रिलक्षण
[तीन लक्षणवाला]’ है; [४] चार गतियोंमें भ्रमण करता है इसलिये ‘चतुर्विध भ्रमणवाला’ है; [५]
पारिणामिक औदयिक इत्यादि पाँच मुख्य गुणों द्वारा प्रधानता होनेसे ‘पाँच मुख्य गुणोंसे
प्रधानतावाला’ है; [६] चार दिशाओंमें, ऊपर और नीचे इस प्र्रकार षड्विध भवान्तरगमनरूप
अपक्रमसे युक्त होनेके कारण [अर्थात् अन्य भवमें जाते हुए उपरोक्त छह दिशाओंमें गमन होता है
इसलिये] ‘छह अपक्रम सहित’ है; [७] अस्ति, नास्ति आदि सात भंगो द्वारा जिसका सद्भाव है
ऐसा होनेसे ‘सात भंगपूर्वक सद्भाववान’ है; [८] [ज्ञानावरणीयादि] आठ कर्मोंके अथवा
[सम्यक्त्वादि] आठ गुणोंके आश्रयभूत होनेसे ‘आठके आश्रयरूप’ है; [९] नव पदार्थरूपसे वर्तता
है इसलिये ‘नव–अर्थरूप’ है; [१०] पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, साधारण वनस्पति, प्रत्येक वनस्पति,
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियरूप दश स्थानोमें प्राप्त होनेसे ‘दशस्थानगत’ है।। ७१–
७२।।
--------------------------------------------------------------------------
प्रकृति–स्थिति–परदेश– अनुभवबंधथी परिमुक्तने
गति होय ऊंचे; शेषने विदिशा तजी गति होय छे। ७३।

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११८
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबंधैः सर्वतो मुक्तः।
ऊर्ध्व गच्छति शेषा विदिग्वर्जां गतिं यांति।। ७३।।
बद्धजीवस्य षङ्गतयः कर्मनिमित्ताः। मुक्तस्याप्यूर्ध्वगतिरेका स्वाभाविकीत्यत्रोक्तम्।। ७३।।
–इति जीवद्रव्यास्तिकायव्याख्यानं समाप्तम्।
अथ पुद्गलद्रव्यास्तिकायव्याख्यानम्।
खंधा य खंधदेसा खंधपदेसा य होंति परमाणू।
इदि ते चदुव्वियप्पा पुग्गलकाया
मुणेयव्वा।। ७४।।
स्कंधाश्च स्कंधदेशाः स्कंधप्रदेशाश्च भवन्ति परमाणवः।
इति ते चतुर्विकल्पाः पुद्गलकाया ज्ञातव्याः।। ७४।।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा ७३
अन्वयार्थः– [प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबंधैः] प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और
प्रदेशबन्धसे [सर्वतः मुक्तः] सर्वतः मुक्त जीव [ऊध्वं गच्छति] ऊर्ध्वगमन करता है; [शेषाः] शेष
जीव [भवान्तरमें जाते हुए] [विदिग्वर्जा गतिं यांति] विदिशाएँ छोड़ कर गमन करते हैं।
टीकाः– बद्ध जीवको कर्मनिमित्तक षड्विध गमन [अर्थात् कर्म जिसमें निमित्तभूत हैं ऐसा छह
दिशाओंंमें गमन] होता है; मुक्त जीवको भी स्वाभाविक ऐसा एक ऊर्ध्वगमन होता है। – ऐसा यहाँ
कहा है।
भावार्थः– समस्त रागादिविभाव रहित ऐसा जो शुद्धात्मानुभूतिलक्षण ध्यान उसके बल द्वारा
चतुर्विध बन्धसे सर्वथा मुक्त हुआ जीव भी, स्वाभाविक अनन्त ज्ञानादि गुणोंसे युक्त वर्तता हुआ,
एकसमयवर्ती अविग्रहगति द्वारा [लोकाग्रपर्यंत] स्वाभाविक ऊर्ध्वगमन करता है। शेष संसारी जीव
मरणान्तमें विदिशाएँ छोड़कर पूर्वोक्त षट्–अपक्रमस्वरूप [कर्मनिमित्तक] अनुश्रेणीगमन करते हैं।।
७३।।
इस प्रकार जीवद्रव्यास्तिकायका व्याख्यान समाप्त हुआ।
अब पुद्गलद्रव्यास्तिकायका व्याख्यान है।
--------------------------------------------------------------------------
जडरूप पुद्गलकाय केरा चार भेदो जाणवा;
ते स्कंध तेनो देश, स्ंकधप्रदेश, परमाणु कह्या। ७४।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
११९
पुद्गलद्रव्यविकल्पादेशोऽयम्।
पुद्गलद्रव्याणि हि कदाचित्स्कंधपर्यायेण, कदाचित्स्कंधदेशपर्यायेण,
कदाचित्स्कंधप्रदेशपर्यायेण, कदाचित्परमाणुत्वेनात्र तिष्टन्ति। नान्या गतिरस्ति। इति तेषां
चतुर्विकल्पत्वमिति।। ७४।।
खंधं सयलसमत्थं तस्स दु अद्धं भणंति देसो त्ति।
अद्धद्धं च पदेसो परमाणू चेव अविभागी।। ७५।।
स्कंधः सकलसमस्तस्तस्य त्वर्धं भणन्ति देश इति।
अर्धार्ध च प्रदेशः परमाणुश्चैवाविभागी।। ७५।।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा ७४
अन्वयार्थः– [ते पुद्गलकायाः] पुद्गलकायके [चतुर्विकल्पाः] चार भेद [ज्ञातव्याः] जानना;
[स्कंधाः च] स्कंध, [स्कंधदेशाः] स्कंधदेश [स्कंधप्रदेशाः] स्कंधप्रदेश [च] और [परमाणवः
भवन्ति इति] परमाणुु।
टीकाः– यह, पुद्गलद्रव्यके भेदोंका कथन है।
पुद्गलद्रव्य कदाचित् स्कंधपर्यायसे, कदाचित् स्कंधदेशरूप पर्यायसे, कदाचित् स्कंधप्रदेशरूप
पर्यायसे और कदाचित् परमाणुरूपसे यहाँ [लोकमें] होते हैं; अन्य कोई गति नहीं है। इस प्रकार
उनके चार भेद हैं।। ७४।।
गाथा ७५
अन्वयार्थः– [सकलसमस्तः] सकल–समस्त [पुद्गलपिण्डात्मक सम्पूर्ण वस्तु] वह [स्कंधः]
स्कंध है। [तस्य अर्धं तु] उसके अर्धको [देशः इति भणन्ति] देश कहते हैं, [अर्धाधं च] अर्धका
अर्ध वह [प्रदेशः] प्रदेश है [च] और [अविभागी] अविभागी वह [परमाणुः एव] सचमुच परमाणु
है।
------------------------------------------------------------------------
पूरण–सकळ ते‘स्कंध’ छे ने अर्ध तेनुं ‘देश’ छे,
अर्धार्ध तेनुं ‘प्रदेश’ ने अविभाग ते ‘परमाणु’ छे। ७५।

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१२०
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
पुद्गलद्रव्यविकल्पनिर्देशोऽयम्।
अनंतानंतपरमाण्वारब्धोऽप्येकः स्कंधो नाम पर्यायः। तदर्ध स्कंधदेशो नाम पर्यायः। तदर्धार्धं
स्कंधप्रदेशो नाम पर्यायः। एवं भेदवशात् द्वयणुकस्कंधादनंताः स्कंधप्रदेशपर्यायाः निर्विभागैकप्रदेशः
स्कंधस्यांत्यो भेदः परमाणुरेकः। पुनरपि द्वयोः परमाण्वोः संधातादेको द्वयणुकस्कंधपर्यायः। एवं
संधातवशादनंताः स्कंधपर्यायाः। एवं भेदसंधाताभ्यामप्यनंता भवंतीति।। ७५।।
-----------------------------------------------------------------------------
टीकाः– यह, पुद्गल भेदोंका वर्णन है

अनन्तानन्त परमाणुओंसे निर्मित होने पर भी जो एक हो वह स्कंध नामकी पर्याय है; उसकी
आधी स्कंधदेश नामक पर्याय है; आधीकी आधी स्कंधप्रदेश नामकी पर्याय है। इस प्रकार भेदके
कारण [पृथक होनके कारण] द्वि–अणुक स्कंधपर्यंत अनन्त स्कंधप्रदेशरूप पर्यायें होती हैं।
निर्विभाग–एक–प्रदेशवाला, स्कंधका अन्तिम अंश वह एक परमाणु है। [इस प्रकार
भेदसे होनेवाले
पुद्गलविकल्पोंका वर्णन हुआ।]
पुनश्च, दो परमाणुओंके संघातसे [मिलनेसे] एक द्विअणुक–स्कंधरूप पर्याय होती है। इस
प्रकार संघातके कारण [द्विअणुकस्कंधकी भाँति त्रिअणुक–स्कंध, चतुरणुक–स्कंध इत्यादि] अनन्त
स्कंधरूप पर्यायें होती है। [इस प्रकार संघातसे होनेवाले पुद्गलविकल्पका वर्णन हुआ। ]
इस प्रकार भेद–संघात दोनोंसे भी [एक साथ भेद और संघात दोनो होनेसे भी] अनन्त
[स्कंधरूप पर्यायें] होती हैं। [इस प्रकार भेद–संघातसे होनेवाले पुद्गलविकल्पका वर्णन हुआ।।]
७५।।
--------------------------------------------------------------------------
भेदसे होनेभाले पुद्गलविकल्पोंका [पुद्गलभेदोंका] टीकाकार श्री जयसेनाचार्यनेे जो वर्णन किया है उसका
तात्पर्य निम्नानुसार हैः– अनन्तपरमाणुपिंडात्मक घटपटादिरूप जो विवक्षित सम्पूर्ण वस्तु उसे ‘स्कंध’ संज्ञा
हैे। भेद द्वारा उसके जो पुद्गलविकल्प होते हैं वे निम्नोक्त द्रष्टान्तानुसार समझना। मानलो कि १६
परमाणुओंसे निर्मित एक पुद्गलपिण्ड है और वह टूटकर उसके टुकड़े़ होते है। वहाँ १६ परमाणुाोंके पूर्ण
पुद्गलपिण्डको ‘स्कंध’ माने तो ८ परमाणुओंवाला उसका अर्धभागरूप टुकड़ा वह ‘देश’ है, ४
परमाणुओंवाला उसका चतुर्थभागरूप टुकड़ा वह ‘प्रदेश’ है और अविभागी छोटे–से–छोटा टुकड़ा वह
‘परमाणु’ है। पुनश्च, जिस प्रकार १६ परमाणुवाले पूर्ण पिण्डको ‘स्कंध’ संज्ञा है, उसी प्रकार १५ से लेकर
९ परमाणुओं तकके किसी भी टुकड़े़़़को भी ‘स्कंध’ संज्ञा हैे; जिस प्रकार ८ परमाणुओंवाले उसके
अर्धभागरूप टुकड़े़़़को ‘देश’ संज्ञा हैे, उसी प्रकार ७ से लेकर ५ परमाणओुं तकके उसके किसी भी
टुकड़े़़़़को भी ‘देश’ संज्ञा है; जिस प्रकार ४ परमाणुवाले उसके चतुर्थभागरूप टुकड़े़़़़़को ‘प्रदेश’ संज्ञा है,
उसी प्रकार ३ से लेकर २ परमाणु तकके उसके किसी भी टुकड़े़़़़को भी ‘प्रदेश’ संज्ञा है। – इस द्रष्टान्तके
अनुसार, भेद द्वारा होनेवाले पुद्गलविकल्प समझना।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१२१
बादरसुहुमगदाणं खंधाणं पुग्गलो त्ति ववहारो।
ते होंति छप्पयारा तेलोक्कं जेहिं णिप्पण्णं।। ७६।।
बादरसौक्ष्म्यगतानां स्कंधानां पुद्गलः इति व्यवहारः।
ते भवन्ति षट्प्रकारास्त्रैलोक्यं यैः निष्पन्नम्।। ७६।।
स्कंधानां पुद्गलव्यवहारसमर्थनमेतत्।
स्पर्शरसगंधवर्णगुणविशेषैः षट्स्थानपतितवृद्धिहानिभिः पूरणगलनधर्मत्वात् स्कंध–
व्यक्त्याविर्भावतिरोभावाभ्यामपि च पूरणगलनोपपत्तेः परमाणवः पुद्गला इति निश्चीयंते।
स्कंधास्त्वनेकपुद्गलमयैकपर्यायत्वेन पुद्गलेभ्योऽनन्यत्वात्पुद्गला इति
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा ७६
अन्वयार्थः– [बादरसौक्ष्म्यगतानां] बादर और सूक्ष्मरूपसे परिणत [स्कंधानां] स्कंधोंको
[पुद्गलः] ‘पुद्गल’ [इति] ऐसा [व्यवहारः] व्यवहार है। [ते] वे [षट्प्रकाराः भवन्ति] छह
प्रकारके हैं, [यैः] जिनसे [त्रैलोक्यं] तीन लोक [निष्पन्नम्] निष्पन्न है।
टीकाः– स्कंधोंमें ‘पुद्गल’ ऐसा जो व्यवहार है उसका यह समर्थन है।
[१] जिनमें षट्स्थानपतित [छह स्थानोंमें समावेश पानेवाली] वृद्धिहानि होती है ऐसे स्पर्श–
रस–गंध–वर्णरूप गुणविशेषोंके कारण [परमाणु] ‘पूरणगलन’ धर्मवाले होनेसे तथा [२]
स्कंधव्यक्तिके [–स्कंधपर्यायके] आविर्भाव और तिरोभावकी अपेक्षासे भी [परमाणुओंमें]
--------------------------------------------------------------------------
सौ स्कंध बादर–सूक्ष्ममां ‘पुद्गल’ तणो व्यवहार छे;
छ विकल्प छे स्कंधो तणा, जेथी त्रिजग निष्पन्न छे। ७६।

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१२२
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
व्यवह्रियंते, तथैव च बादरसूक्ष्मत्वपरिणामविकल्पैः षट्प्रकारतामापद्य त्रैलोक्यरूपेण निष्पद्य
स्थितवंत इति। तथा हि–बादरबादराः, बादराः, बादरसूक्ष्माः, सूक्ष्मबादराः, सूक्ष्माः, सूक्ष्म–सूक्ष्मा
इति। तत्र छिन्नाः स्वयं संधानासमर्थाः काष्ठपाषाणदयो बादरबादराः। छिन्नाः स्वयं संधानसमर्थाः
क्षीरधृततैलतोयरसप्रभृतयो बादराः। स्थूलोपलंभा अपि छेत्तुं
भेत्तुमादातुमशक्याः
छायातपतमोज्योत्स्त्रादयो बादरसूक्ष्माः। सूक्ष्मत्वेऽपि स्थूलोपलंभाः स्पर्शरसगंधशब्दाः सूक्ष्म–बादराः।
सूक्ष्मत्वेऽपि हि करणानुपलभ्याः कर्मवर्गणादयः सूक्ष्माः। अत्यंतसूक्ष्माः कर्मवर्गणा–भ्योऽधो द्वयणुक
स्कंधपर्यन्ताः सूक्ष्मसूक्ष्मा इति।। ७६।।
-----------------------------------------------------------------------------

‘पूरण – गलन’ घटित होनेसे परमाणु निश्चयसे ‘
पुद्गल’ हैं। स्कंध तो अनेकपुद्गलमय
एकपर्यायपनेके कारण पुद्गलोंसे अनन्य होनेसे व्यवहारसे ‘पुद्गल’ है; तथा [वे] बादरत्व और
सूक्ष्मत्वरूप परिणामोंके भेदों द्वारा छह प्रकारोंको प्राप्त करके तीन लोकरूप होकर रहे हैं। वे छह
प्रकारके स्कंध इस प्रकार हैंः– [१] बादरबादर; [२] बादर; [३] बादरसूक्ष्म; [४] सूक्ष्मबादर; [५]
सूक्ष्म; [६] सूक्ष्मसूक्ष्म। वहाँ, [१] काष्ठपाषाणादिक [स्कंध] जो कि छेदन होनेपर स्वयं नहीं जुड़
सकते वे [घन पदार्थ] ‘बादरबादर’ हैं; [२] दूध, घी, तेल, जल, रस आदि [स्कंध] जो कि
छेदन होनेपर स्वयं जुड़ जाते हैं वे [प्रवाही पदार्थ] ‘बादर’ है; [३] छाया, धूप, अंधकार, चांदनी
आदि [स्कंध] जो कि स्थूल ज्ञात होनेपर भी जिनका छेदन, भेदन अथवा [हस्तादि द्वारा] ग्रहण
नहीं किया जा सकता वे ‘बादरसूक्ष्म’ हैं; [४] स्पर्श–रस–गंध–शब्द जो कि सूक्ष्म होने पर भी
स्थूल ज्ञात होते हैं [अर्थात् चक्षकोु छोड़कर चार इन्द्रियोंंके विषयभूत स्कंध जो कि आँखसे दिखाई
न देने पर भी स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा स्पर्श किया जा सकता हैे] जीभ द्वारा जिनका स्वाद लिया जा
सकता हैे, नाकसे सूंंधा जा सकता हैे अथवा कानसे सुना जा सकता हैे वे ‘सूक्ष्मबादर’ हैं; [५]
कर्मवर्गणादि [स्कंध] कि जिन्हें सूक्ष्मपना है तथा जो इन्द्रियोंसे ज्ञात न हों ऐसे हैं वे ‘सूक्ष्म’ हैं;
[६] कर्मवर्गणासे नीचेके [कर्मवर्गणातीत द्विअणुक–स्कंध तकके [स्कंध] जो कि अत्यन्त सूक्ष्म हैं वे
‘सूक्ष्मसूक्ष्म’ हैं।। ७६।।
--------------------------------------------------------------------------
१। जिसमें [स्पर्श–रस–गंध–वर्णकी अपेक्षासे तथा स्कंधपर्यायकी अपेक्षासे] पूरण और गलन हो वह पुद्गल है।
पूरण=पुरना; भरना; पूर्ति; पुष्टि; वृद्धि। गलन=गलना; क्षीण होना; कृशता; हानिः न्यूनताः [[१] परमाणुओंके
विशेष गुण जो स्पर्श–रस–गंध–वर्ण हैं उनमें होनेवाली षट्स्थानपतित वृद्धि वह पूरण है और षट्स्थानपतित
हानि वह गलन है; इसलिये इस प्रकार परमाणु पूरण–गलनधर्मवाले हैं। [२] परमाणुओंमें स्कंधरूप पर्यायका
आविर्भाव होना सो पूरण है और तिरोभाव होना वह गलन हैे; इस प्रकार भी परमाणुओंमें पूरणगलन घटित
होता है।]
२। स्कंध अनेकपरमाणुमय है इसलिये वह परमाणुओंसे अनन्य है; और परमाणु तो पुद्गल हैं; इसलिये स्कंध भी
व्यवहारसे ‘पुद्गल’ हैं।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१२३
सव्वेसिं खंधाणं जो अंतो तं वियाण परमाणू।
सो सस्सदो असद्दो एक्को अविभागी मुत्तिभवो।। ७७।।
सर्वेषां स्कंधानां योऽन्त्यस्तं विजानीहि परमाणुम्।
स शाश्वतोऽशब्दः एकोऽविभागी भूर्तिभवः।। ७७।।
परमाणुव्याख्येयम्।
उक्तानां स्कंधरूपपर्यायाणां योऽन्त्यो भेदः स परमाणुः। स तु पुनर्विभागाभावाद–विभागी,
निर्विभागैकप्रदेशत्वादेकः, मूर्तद्रव्यत्वेन सदाप्यविनश्वरत्वान्नित्यः,
अनादिनिधनरूपादिपरिणामोत्पन्नत्वान्मूर्तिभवः, रूपादिपरिणामोत्पन्नत्वेऽपि शब्दस्य
परमाणुगुणत्वाभावात्पुद्गलस्कंधपर्यायत्वेन वक्ष्यमाणत्वाच्चाशब्दो निश्चीयत इति।। ७७।।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा ७७
अन्वयार्थः– [सर्वषां स्कंधानां] सर्व स्कंधोंका [यः अन्त्यः] जो अन्तिम भाग [तं] उसे
[परमाणुम् विजानीहि] परमाणु जानो। [सः] वह [अविभागी] अविभागी, [एकः] एक, [शाश्वतः],
शाश्वत [मूर्तिभवः] मूर्तिप्रभव [मूर्तरूपसे उत्पन्न होनेवाला] और [अशब्दः] अशब्द है।
टीकाः– यह, परमाणुकी व्याख्या है।
पूर्वोक्त स्कंधरूप पर्यायोंका जो अन्तिम भेद [छोटे–से–छोटा अंश] वह परमाणु है। और वह
तो, विभागके अभावके कारण अविभागी है; निर्विभाग–एक–प्रदेशी होनेसे एक है; मूर्तद्रव्यरूपसे सदैव
अविनाशी होनेसे नित्य है; अनादि–अनन्त रूपादिके परिणामसे उत्पन्न होनेके कारण
मूर्तिप्रभव है;
और रूपादिके परिणामसे उत्पन्न होने पर भी अशब्द है ऐसा निश्चित है, क्योंकि शब्द परमाणुका गुण
नहीं है तथा उसका[शब्दका] अब [७९ वीं गाथामें] पुद्गलस्कंधपर्यायरूपसे कथन है।। ७७।।
--------------------------------------------------------------------------
मूर्तिप्रभव = मूर्तपनेरूपसे उत्पन्न होनेवाला अर्थात् रूप–गन्ध–रस स्पर्शके परिणामरूपसे जिसका उत्पाद
होता है ऐसा।[मूर्ति = मूर्तपना]
जे अंश अंतिम स्कंधोनो, परमाणु जानो तेहने;
ते एकने अविभाग, शाश्वत, मूर्तिप्रभव, अशब्द छे। ७७।

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१२४
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
आदेसमेत्तमुत्तो धादुचदुक्कस्स कारणं जो दु।
सो णेओ परमाणू परिणामगुणो सयमसद्रे।। ७८।।

आदेशमात्रमूर्त्तः धातुचतुष्कस्य कारणं यस्तु।
स ज्ञेयः परमाणुः। परिणामगुणः स्वयमशब्दः।। ७८।।
परमाणूनां जात्यंतरत्वनिरासोऽयम्।
परमणोर्हि मूर्तत्वनिबंधनभूताः स्पर्शरसंगधवर्णा आदेशमात्रेणैव भिद्यंते; वस्तुवस्तु यथा तस्य स
एव प्रदेश आदिः स एव मध्यं, स एवांतः इति, एवं द्रव्यगुणयोरविभक्तप्रदेशत्वात् य एव परमाणोः
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा ७८
अन्वयार्थः– [यः तु] जो [आदेशमात्रमूर्तः] आदेशमात्रसे मूर्त है। [अर्थात् मात्र भेदविवक्षासे
मूर्तत्ववाला कहलाता है] और [धातुचतुष्कस्य कारणं] जो [पृथ्वी आदि] चार धातुओंका कारण है
[सः] वह [परमाणुः ज्ञेयः] परमाणु जानना – [परिणामगुणः] जो कि परिणामगुणवाला है और
[स्वयम् अशब्दः] स्वयं अशब्द है।
टीकाः– परमाणु भिन्न भिन्न जातिके होनेका यह खण्डन है।
मूर्तत्वके कारणभूत स्पर्श–रस–गंध–वर्णका, परमाणुसे आदेशमात्र द्वारा ही भेद किया जाता
हैे; वस्तुतः तो जिस प्रकार परमाणुका वही प्रदेश आदि है, वही मध्य है और वही अन्त है; उसी
प्रकार द्रव्य और गुणके अभिन्न प्रदेश होनेसे, जो परमाणुका प्रदेश है, वही स्पर्शका है, वही रसका
है, वही गंधका है, वही रूपका है। इसलिये किसी परमाणुमें गंधगुण कम हो, किसी परमाणुमें
गंधगुण और रसगुण कम हो, किसी परमाणुमें गंधगुण, रसगुण और रूपगुण कम हो,
--------------------------------------------------------------------------
आदेश=कथन [मात्र भेदकथन द्वारा ही परमाणुसे स्पर्श–रस–गंध–वर्णका भेद किया जाता है, परमार्थतः तो
परमाणुसे स्पर्श–रस–गंध–वर्णका अभेद है।]
आदेशमत्रश्थी मूर्त, धातुचतुष्कनो छे हेतु जे,
ते जाणवो परमाणु– जे परिणामी, आप अशब्द छे। ७८।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१२५
प्रदेशः, स एव स्पर्शस्य, स एव रसस्य, स एव गंधस्य, स एव रूपस्येति। ततः क्वचित्परमाणौ
गंधगुणे, क्वचित् गंधरसगुणयोः, क्वचित् गंधरसरूपगुणेषु अपकृष्यमाणेषु तदविभक्तप्रदेशः परमाणुरेव
विनश्यतीति। न तदपकर्षो युक्तः। ततः पृथिव्यप्तेजोवायुरूपस्य धातुचतुष्कस्यैक एव परमाणुः कारणं
परिणामवशात् विचित्रो हि परमाणोः परिणामगुणः क्वचित्कस्यचिद्गुणस्य व्यक्ताव्यक्तत्वेन विचित्रां
परिणतिमादधाति। यथा च तस्य परिणामवशादव्यक्तो गंधादिगुणोऽस्तीति प्रतिज्ञायते न तथा
शब्दोऽप्यव्यक्तोऽस्तीति ज्ञातुं शक्यते शक्यते तस्यैकप्रदेशस्यानेकप्रदेशात्मकेन शब्देन
सहैकत्वविरोधादिति।। ७८।।
-----------------------------------------------------------------------------

तो उस गुणसे अभिन्न प्रदेशी परमाणु ही विनष्ट हो जायेगा। इसलिये उस गुणकी न्यूनता युक्त
[उचित] नहीं है। [किसी भी परमाणुमें एक भी गुण कम हो तो उस गुणके साथ अभिन्न प्रदेशी
परमाणु ही नष्ट हो जायेगा; इसलिये समस्त परमाणु समान गुणवाले ही है, अर्थात् वे भिन्न भिन्न
जातिके नहीं हैं।] इसलिये पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुरूप चार धातुओंका, परिणामके कारण, एक
ही परमाणु कारण है [अर्थात् परमाणु एक ही जातिके होने पर भी वे परिणामके कारण चार
धातुओंके कारण बनते हैं]; क्योंकि विचित्र ऐसा परमाणुका परिणामगुण कहीं किसी गुणकी
व्यक्ताव्यक्तता द्वारा विचित्र परिणतिको धारण करता है।
और जिस प्रकार परमाणुको परिणामके कारण अव्यक्त गंधादिगुण हैं ऐसा ज्ञात होता है उसी
प्रकार शब्द भी अव्यक्त है ऐसा नहीं जाना जा सकता, क्योंकि एकप्रदेशी परमाणुको अनेकप्रदेशात्मक
शब्दके साथ एकत्व होनेमें विरोध है।। ७८।।
--------------------------------------------------------------------------
१। व्यक्ताव्यक्तता=व्यक्तता अथवा अव्यक्तता; प्रगटता अथवा अप्रगटता। [पृथ्वीमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ण यह
चारों गुण व्यक्त [अर्थात् व्यक्तरूपसे परिणत] होते हैं; पानीमें स्पर्श, रस, और वर्ण व्यक्त होते हैं और गंध
अव्यक्त होता है ; अग्निमें स्पर्श और वर्ण व्यक्त होते हैं और शेष दो अव्यक्त होते हैं ; वायुमें स्पर्श व्यक्त
होता है और शेष तीन अव्यक्त होते हैं।]

२। जिस प्रकार परमाणुमें गंधादिगुण भले ही अव्यक्तरूपसे भी होते तो अवश्य हैं; उसी प्रकार परमाणुमें शब्द भी
अव्यक्तरूपसे रहता होगा ऐसा नहीं है, शब्द तो परमाणुमें व्यक्तरूपसे या अव्यक्तरूपसे बिलकुल होता ही नहीं
है।

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१२६
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
सद्रे खंधप्पभवो खंधो परमाणुसंगसंधादो।
पुट्ठेसु तेसु जायदि सद्दो उप्पादिगो णियदो।। ७९।।
शब्द स्कंधप्रभवः स्कंधः परमाणुसङ्गसङ्गातः।
स्पृष्टेषु तेषु जायते शब्द उत्पादिको नियतः।। ७९।।
शब्दस्य पद्गलस्कंधपर्यायत्वख्यापनमेतत्।
इह हि बाह्यश्रवणेन्द्रियावलम्बितो भावेन्द्रियपरिच्छेद्यो ध्वनिः शब्दः। स खलु स्व–
रूपेणानंतपरमाणूनामेकस्कंधो नाम पर्यायः। बहिरङ्गसाधनीभूतमहास्कंधेभ्यः तथाविधपरिणामेन
समुत्पद्यमानत्वात् स्कंधप्रभवः, यतो हि परस्पराभिहतेषु महास्कंधेषु शब्दः समुपजायते।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा ७९
अन्वयार्थः– [शब्दः स्कंधप्रभवः] शब्द स्कंधजन्य है। [स्कंधः परमाणुसङ्गसङ्गातः] स्कंध
परमाणुदलका संघात है, [तेषु स्पृष्टेषु] और वे स्कंध स्पर्शित होनेसे– टकरानेसे [शब्दः जायते]
शब्द उत्पन्न होता है; [नियतः उत्पादिकः] इस प्रकार वह [शब्द] नियतरूपसे उत्पाद्य हैं।
टीकाः– शब्द पुद्गलस्कंधपर्याय है ऐसा यहाँ दर्शाया है।
इस लोकमें, बाह्य श्रवणेन्द्रिय द्वारा अवलम्बित भावेन्द्रिय द्वारा जानने–योग्य ऐसी जो ध्वनि
वह शब्द है। वह [शब्द] वास्तवमें स्वरूपसे अनन्त परमाणुओंके एकस्कंधरूप पर्याय है। बहिरंग
साधनभूत [–बाह्य कारणभूत] महास्कन्धों द्वारा तथाविध परिणामरूप [शब्दपरिणामरूप] उत्पन्न
--------------------------------------------------------------------------
१। शब्द श्रवणेंद्रियका विषय है इसलिये वह मूर्त है। कुछ लोग मानते हैं तदनुसार शब्द आकाशका गुण नहीं है,
क्योंकि अमूर्त आकाशका अमूर्त गुण इन्द्रियका विषय नहींं हो सकता।
छे शब्द स्कंधोत्पन्न; स्कंधो अणुसमूहसंधात छे,
स्कंधाभिधाते शब्द ऊपजे, नियमथी उत्पाद्य छे। ७९।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१२७
किं च स्वभावनिर्वृत्ताभिरेवानंतपरमाणुमयीभिः शब्दयोग्यवर्गणाभिरन्योन्यमनुप्रविश्य
समंततोऽभिव्याप्य पूरितेऽपि सकले लोके। यत्र यत्र बहिरङ्गकारणसामग्री समदेति तत्र तत्र ताः
शब्दत्वेनस्वयं व्यपरिणमंत इति शब्दस्य नियतमुत्पाद्यत्वात् स्कंधप्रभवत्वमिति।। ७९।।
-----------------------------------------------------------------------------
होनेसे वह स्कन्धजन्य हैं, क्योंकि महास्कन्ध परस्पर टकरानेसे शब्द उत्पन्न होता है। पुनश्च यह
बात विशेष समझाई जाती हैः– एकदूसरेमें प्रविष्ट होकर सर्वत्र व्याप्त होकर स्थित ऐसी जो
स्वभावनिष्पन्न ही [–अपने स्वभावसे ही निर्मित्त], अनन्तपरमाणुमयी शब्दयोग्य–वर्गणाओंसे समस्त
लोक भरपूर होने पर भी जहाँ–जहाँ बहिरंगकारण सामग्री उदित होती है वहाँ–वहाँ वे वर्गणाएँ
शब्दरूपसे स्वयं परिणमित होती हैं; इस प्रकार शब्द नित्यतरूपसे [अवश्य] उत्पाद्य है; इसलिये
वह स्कन्धजन्य है।। ७९।।
--------------------------------------------------------------------------
१। शब्दके दो प्रकार हैंः [१] प्रायोगिक और [२] वैश्रसिक। पुरुषादिके प्रयोगसे उत्पन्न होनेवाले शब्द वह
प्रायोगिक हैं और मेघादिसे उत्पन्न होनेवाले शब्द वैश्रसिक हैं।
अथवा निम्नोक्तानुसार भी शब्दके दो प्रकार हैंः– [१] भाषात्मक और [२] अभाषात्मक। उनमें भाषात्मक
शब्द द्विविध हैंं – अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक। संस्कृतप्राकृतादिभाषारूपसे वह अक्षरात्मक हैं और
द्वींन्द्रियादिक जीवोंके शब्दरूप तथा [केवलीभगवानकी] दिव्य ध्वनिरूपसे वह अनक्षरात्मक हैं। अभाषात्मक
शब्द भी द्विविध हैं – प्रायोगिक और वैश्रिसिक। वीणा, ढोल, झांझ, बंसरी आदिसे उत्पन्न होता हुआ
प्रायोगिक है और मेघादिसे उत्पन्न होता हुआ वैश्रसिक है।
किसी भी प्रकारका शब्द हो किन्तु सर्व शब्दोंका उपादानकारण लोकमें सर्वत्र व्याप्त शब्दयोग्य वर्गणाएँ ही
हैे; वे वर्गणाएँ ही स्वयमेव शब्दरूपसे परिणमित होती हैं, जीभ–ढोल–मेध आदि मात्र निमित्तभूत हैं।

२। उत्पाद्य=उत्पन्न कराने योग्य; जिसकी उत्पत्तिमें अन्य कोई निमित्त होता है ऐसा।

३। स्कन्धजन्य=स्कन्धों द्वारा उत्पन्न हो ऐसाः जिसकी उत्पत्तिमें स्कन्ध निमित्त होते हैं ऐसा। [समस्त लोकमें
सर्वत्र व्याप्त अनन्तपरमाणुमयी शब्दयोग्य वर्गणाएँ स्वयमेव शब्दरूप परिणमित होने पर भी वायु–गला–तालुं–
जिव्हा–ओष्ठ, द्यंटा–मोगरी आदि महास्कन्धोंका टकराना वह बहिरंगकारणसामग्री है अर्थात् शब्दरूप
परिणमनमें वे महास्कन्ध निमित्तभूत हैं इसलिये उस अपेक्षासे [निमित्त–अपेक्षासे] शब्दको व्यवहारसे
स्कन्धजन्य कहा जाता है।]

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१२८
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
णिच्चो णाणवकासो ण सावकासो पदेसदो भेदा।
खंधाणं पि य कत्ता
पविहत्ता कालसंखाणं।। ८०।।
नित्यो नानवकाशो न सावकाशः प्रदेशतो भेत्ता।
स्कंधानामपि च कर्ता प्रविभक्ता कालसंख्यायाः।। ८०।।
परमाणोरेकप्रदेशत्वख्यापनमेतत्।
परमाणुंः स खल्वेकेन प्रदेशेन रूपादिगुणसामान्यभाजा सर्वदैवाविनश्वरत्वान्नित्यः। एकेन प्रदेशेन
पदविभक्तवृत्तीनां स्पर्शादिगुणानामवकाशदानान्नानवकाशः।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा ८०
अन्वयार्थः– [प्रदेशतः] प्रदेश द्वारा [नित्यः] परमाणु नित्य है, [न अनवकाशः] अनवकाश
नहीं है, [न सावकाशः] सावकाश नहीं है, [स्कंधानाम् भेत्ता] स्कन्धोंका भेदन करनेवाला [अपि च
कर्ता] तथा करनेवाला है और [कालसंख्यायाः प्रविभक्ता] काल तथा संख्याको विभाजित करनेवाला
है [अर्थात् कालका विभाजन करता है और संख्याका माप करता है]।
टीकाः– यह, परमाणुके एकप्रदेशीपनेका कथन है।
जो परमाणु है, वह वास्तवमें एक प्रदेश द्वारा – जो कि रूपादिगुणसामान्यवाला है उसके
द्वारा – सदैव अविनाशी होनेसे नित्य है; वह वास्तवमें एक प्रदेश द्वारा उससे [–प्रदेशसे] अभिन्न
अस्तित्ववाले स्पर्शादिगुणोंको अवकाश देता है इसलिये
अनवकाश नहीं है; वह वास्तवमें एक प्रदेश
द्वारा [उसमें] द्वि–आदि प्रदेशोंका अभाव होनेसे, स्वयं ही आदि, स्वयं ही मध्य और स्वयं ही अंत
होनेके कारण [अर्थात् निरंश होनेके कारण], सावकाश नहीं है; वह वास्तवमें एक प्रदेश द्वारा
स्कंधोंके भेदका निमित्त होनेसे [अर्थात् स्कंधके बिखरने – टूटनेका निमित्त होनेसे] स्कंधोंका भेदन
करनेवाला है; वह वास्तवमें एक प्रदेश द्वारा स्कंधके संघातका निमित्त होनेसे [अर्थात् स्कन्धके
मिलनेका –रचनाका निमित्त होनेसे] स्कंधोंका कर्ता है; वह वास्तवमें एक प्रदेश द्वारा – जो कि
एक
--------------------------------------------------------------------------
नहि अनवकाश, न सावकाश प्रदेशथी, अणु शाश्वतो,
भेत्ता रचयिता स्कंधनो, प्रविभागी संख्या–काळनो। ८०।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१२९
एकेन प्रदेशेन द्वयादिप्रदेशाभावादात्मादिनात्ममध्येनात्मांतेन न सावकाशः। एकेन प्रदेशेन स्कंधानां
भेदनिमित्तत्वात् स्कंधानां भेत्ता। ऐकन प्रदेशेन स्कंधसंघातनिमित्तत्वात्स्कंधानां कर्ता एकेन
प्रदेशेनैकाकाशप्रदेशातिवर्तितद्नतिपरिणामापन्नेन समयलक्षणकालविभागकरणात् कालस्य प्रविभक्ता।
एकेन प्रदेशेन तत्सूत्रत्रितद्वयादिभेदपूर्विकायाः स्कंधेषु द्रव्यसंख्यायाः एकेन प्रदेशेन
तदवच्छिन्नैकाकाशप्रदेश–
-----------------------------------------------------------------------------
आकाशप्रदेशका अतिक्रमण करनेवाले [–लाँघनेवाले] अपने गतिपरिणामको प्राप्त होता है उसके
द्वारा –‘समय’ नामक कालका विभाग करता है इसलिये कालका विभाजक है; वह वास्तवमें एक
प्रदेश द्वारा संख्याका भी
विभाजक है क्योंकि [१] वह एक प्रदेश द्वारा उसके रचे जानेवाले दो
आदि भेदोंसे लेकर [तीन अणु, चार अणु, असंख्य अणु इत्यादि] द्रव्यसंख्याके विभाग स्कंधोंमें
करता है, [२] वह एक प्रदेश द्वारा उसकी जितनी मर्यादावाले एक ‘
आकाशप्रदेश’ से लेकर [दो
आकाशप्रदेश, तीन आकाशप्रदेश, असंख्य आकाशप्रदेश इत्यादि] क्षेत्रसंख्याके विभाग करता है, [३]
वह एक प्रदेश द्वारा, एक आकाशप्रदेशका अतिक्रम करनेवाले उसके गतिपरिणाम जितनी मर्यादावाले
समय’ से लेकर [दोसमय, तीन समय, असंख्य समय इत्यादि] कालसंख्याके विभाग करता है,
और [४] वह एक प्रदेश द्वारा उसमें विवर्तन पानेवाले [–परिवर्तित, परिणमित] जघन्य
वर्णादिभावको जाननेवाले ज्ञानसे लेकर भावसंख्याके विभाग करता है।। ८०।।
--------------------------------------------------------------------------
१। विभाजक = विभाग करनेवाला; मापनेवाला। [स्कंधोंमें द्रव्यसंख्याका माप [अर्थात् वे कितने अणुओं–
परमाणुओंसे बने हैं ऐसा माप] करनेमें अणुओंकी–परमाणुओंकी–अपेक्षा आती है, अर्थात् वैसा माप परमाणु
द्वारा होता है। क्षेत्रका मापका एकक ‘आकाशप्रदेश’ है और आकाशप्रदेशकी व्याख्यामें परमाणुकी अपेक्षा आती
है; इसलिये क्षेळका माप भी परमाणु द्वारा होता है। कालके माप एकक ‘समय’ है और समयकी व्याख्यामें
परमाणुकी अपेक्षा आती है; इसलिये कालका माप भी परमाणु द्वारा होता है। ज्ञानभावके [ज्ञानपर्यायके]
मापका एकक ‘परमाणुमेंं परिणमित जघन्य वर्णादिभावको जाने उतना ज्ञान’ है और उसमें परमाणुकी अपेक्षा
आती है; इसलिये भावका [ज्ञानभावका] माप भी परमाणु द्वारा होता है। इस प्रकार परमाणु द्रव्य, क्षेत्र, काल
और भाव माप करनेके लिये गज समान है]

२। एक परमाणुप्रदेश जितने आकाशके भागको [क्षेत्रको] ‘आकाशप्रदेश’ कहा जात है। वह ‘आकाशप्रदेश’
क्षेत्रका ‘एकक’ है। [गिनतीके लिये, किसी वस्तुके जितने परिमाणको ‘एक माप’ माना जाये, उतने
परिमाणको उस वस्तुका ‘एकक’ कहा जाता है।]

३। परमाणुको एक आकाशप्रदेशेसे दूसरे अनन्तर आकाशप्रदेशमें [मंदगतिसे] जाते हुए जो काल लगता है उसे
‘समय’ कहा जाता है।

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१३०
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
पूर्विकायाः क्षेत्रसंख्यायाः एकेन प्रदेशेनैकाकाशप्रदेशातिवर्तितद्गतिपरिणामावच्छिन्नसमयपूर्विकाया
कालसंख्यायाः ऐकन प्रदेशेन पद्विवर्तिजघन्यवर्णादिभावावबोधपूर्विकाया भावसंख्यायाः प्रविभाग–
करणात् प्रविभक्ता संख्याया अपीति।। ८०।।
एयरसवण्णगंधं दोफासं सद्दकारणमसद्दं।
खंधंतरिदं दव्वं परमाणु
तं वियाणाहि।। ८१।।
एकरसवर्णगंधं द्विस्पर्श शब्दकारणमशब्दम्।
स्कंधांतरितं द्रव्यं परमाणुं तं विजानिहि।। ८१।।
परमाणुद्रव्ये गुणपर्यायवृत्तिप्ररूपणमेतत्।
सर्वत्रापि परमाणौ रसवर्णगंधस्पर्शाः सहभुवो गुणाः। ते च क्रमप्रवृत्तैस्तत्र स्वपर्यायैर्वर्तन्ते। तथा
हि– पञ्चानां रसपर्यायाणामन्यतमेनैकेनैकदा रसो वर्तते।
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गाथा ८१
अन्वयार्थः– [तं परमाणुं] वह परमाणु [एकरसवर्णगंध] एक रसवाला, एक वर्णवाला, एक
गंधवाला तथा [द्विस्पर्शे] दो स्पर्शवाला है, [शब्दकारणम्] शब्दका कारण है, [अशब्दम्] अशब्द
है और [स्कंधांतरितं] स्कन्धके भीतर हो तथापि [द्रव्यं] [परिपूर्ण स्वतंत्र] द्रव्य है ऐसा
[विजानीहि] जानो।
टीकाः– यह, परमाणुद्रव्यमें गुण–पर्याय वर्तनेका [गुण और पर्याय होनेका] कथन है।
सर्वत्र परमाणुमें रस–वर्ण–गंध–स्पर्श सहभावी गुण होते है; और वे गुण उसमें क्रमवर्ती निज
पर्यायों सहित वर्तते हैं। वह इस प्रकारः– पाँच रसपर्यायोमेंसे एक समय कोई एक [रसपर्याय]
सहित रस वर्तता है; पाँच वर्णपर्यायोंमेंसे एक समय किसी एक [वर्णपर्याय] सहित वर्ण वर्तता है ;
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एक ज वरण–रस–गंध ने बे स्पर्शयुत परमाणु छे,
ते शब्दहेतु, अशब्द छे, ने स्कंधमां पण द्रव्य छे। ८१।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१३१
पञ्चानां वर्णपर्यायाणामन्यतमेनैकेनैकदा वर्णो वर्तते। उभयोर्गंधपर्याययोरन्यतरेणैकेनैकदा गंधो वर्तते।
चतुर्णां शीतस्निग्धशीतरूक्षोष्णस्निग्धोष्णरूक्षरूपाणां स्पर्शपर्यायद्वंद्वानामन्यतमेनैकेनैकदा स्पर्शो वर्तते।
एवमयमुक्तगुणवृत्तिः परमाणुः शब्दस्कंधपरिणतिशक्तिस्वभावात् शब्दकारणम्। एकप्रदेशत्वेन
शब्दपर्यायपरिणतिवृत्त्यभावादशब्दः। स्निग्धरूक्षत्वप्रत्ययबंधवशादनेकपरमाण्वेक–
त्वपरिणतिरूपस्कंधांतरितोऽपि स्वभावमपरित्यजन्नुपात्तसंख्यत्वादेक एव द्रव्यमिति।। ८१।।
उवभोज्जमिंदिएहिं य इंदियकाया मणो य कम्माणि।
जं हवदि मुत्तमण्णं तं सव्वं पुग्गलं जाणे।। ८२।।
उपभोग्यमिन्द्रियैश्चेन्द्रियकाया मनश्च कर्माणि।
यद्भवति मूर्तमन्यत् तत्सर्वं पुद्गलं जानीयात्।। ८२।।
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दो गंधपर्यायोंमेंसे एक समय किसी एक [गंधपर्याय] सहित गंध वर्तता है; शीत–स्निग्ध, शीत–रूक्ष,
उष्ण–स्निग्ध और उष्ण–रूक्ष इन चार स्पर्शपर्यायोंके युगलमेंसे एक समय किसी एक युगक सहित
स्पर्श वर्तता है। इस प्रकार जिसमें गुणोंका वर्तन [–अस्तित्व] कहा गया है ऐसा यह परमाणु
शब्दस्कंधरूपसे परिणमित होने की शक्तिरूप स्वभाववाला होनेसे शब्दका कारण है; एकप्रदेशी होनेके
कारण शब्दपर्यायरूप परिणति नही वर्तती होनेसे अशब्द है; और
स्निग्ध–रूक्षत्वके कारण बन्ध
होनेसे अनेक परमाणुओंकी एकत्वपरिणतिरूप स्कन्धके भीतर रहा हो तथापि स्वभावको नहीं
छोड़ता हुआ, संख्याको प्राप्त होनेसे [अर्थात् परिपूर्ण एकके रूपमें पृथक् गिनतीमें आनेसे]
अकेला
ही द्रव्य है।। ८१।।
गाथा ८२
अन्वयार्थः– [इन्द्रियैः उपभोग्यम् च] इन्द्रियोंं द्वारा उपभोग्य विषय, [इन्द्रियकायाः] इन्द्रियाँ, शरीर,
[मनः] मन, [कर्माणि] कर्म [च] और [अन्यत् यत्] अन्य जो कुछ [मूर्त्तं भवति] मूर्त हो [तत्
सर्वं] वह सब [पुद्गलं जानीयात्] पुद्गल जानो।
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१। स्निग्ध–रूक्षत्व=चिकनाई और रूक्षता।

२। यहाँ ऐसा बतलाया है कि स्कंधमें भी प्रत्येक परमाणु स्वयं परिपूर्ण है, स्वतंत्र है, परकी सहायतासे रहित ,
और अपनेसे ही अपने गुणपर्यायमें स्थितहै।

इन्द्रिय वडे उपभोग्य, इन्द्रिय, काय, मन ने कर्म जे,
वळी अन्य जे कंई मूर्त ते सघळुंय पुद्गल जाणजे। ८२।