इस लोकमें जीवों द्वारा स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, ध्राणेन्द्रिय और चक्षुरिन्द्रिय द्वारा उनके
[–उन इन्द्रियोंके] विषयभूत, स्पर्श–रस–गंध–वर्णस्वभाववाले पदार्थ [–स्पर्श, रस, गंध और वर्ण जिनका स्वभाव है ऐसे पदार्थ] ग्रहण होते हैं [–ज्ञात होते हैं]; और श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा वही पदार्थ उसके [श्रोत्रैन्द्रियके] १विषयहेतुभूत शब्दाकार परिणमित होते हुए ग्रहण होते हैं। वे [वे पदार्थ],
कदाचित् स्थूलस्कन्धपनेको प्राप्त होते हुए, कदाचित् सूक्ष्मत्वको [सूक्ष्मस्कंधपनेको] प्राप्त होते हुए और कदाचित् परमाणुपनेको प्राप्त होते हुए इन्द्रियों द्वारा ग्रहण होते हों या न होते हों, इन्द्रियों द्वारा ग्रहण होनेकी योग्यताका [सदैव] सद्भाव होनेसे ‘मूर्त’ कहलाते हैं।
स्पर्श–रस–गंध–वर्णका अभाव जिसका स्वभाव है ऐसा शेष अन्य समस्त पदार्थसमूह इीनद्रयों
द्वारा ग्रहण होनेकी योग्यताके अभावके कारण ‘अमूर्त’ कहलाता है।
वे दोनों [–पूर्वोक्त दोनों प्रकारके पदार्थ] चित्त द्वारा ग्रहण होनेकी योग्यताके सद्भाववाले हैं;
चित्त– जो कि २ अनियत विषयवाला, ३अज्जाप्यकारी और मतिश्रुतज्ञानके साधनभूत [–मतिज्ञान
तथा श्रुतज्ञानमें निमित्तभूत] है वह–मूर्त तथा अमूर्तको ग्रहण करता है [–जानता है]।। ९९।।
अन्वयार्थः– [कालः परिणामभवः] काल परिणामसे उत्पन्न होता है [अर्थात् व्यवहारकाल का
माप जीव–पुद्गलोंके परिणाम द्वारा होता है]; [परिणामः द्रव्यकालसंभूतः] परिणाम द्रव्यकालसे उत्पन्न होता है।– [द्वयोः एषः स्वभावः] यह, दोनोंका स्वभाव है। [कालः क्षणभुङ्गुरः नियतः] काल क्षणभंगुर तथा नित्य है।
टीकाः– यह, व्यवहारकाल तथा निश्चयकालके स्वरूपका कथन है।
वहाँ, ‘समय’ नामकी जो क्रमिक पर्याय सो व्यवहारकाल है; उसके आधारभूत द्रव्य वह
निश्चयकाल है।
वहाँ, व्यवहारकाल निश्चयकालकी पर्यायरूप होने पर भी जीव–पुद्गलोंके परिणामसे मापा
जाता है – ज्ञात होता है इसलिये ‘जीव–पुद्गलोंके परिणामसे उत्पन्न होनेवाला’ कहलाता है; और जीव–पुद्गलोंके परिणाम बहिरंग–निमित्तभूत द्रव्यकालके सद्भावमें उत्पन्न होनेके कारण ‘द्रव्यकालसे उत्पन्न होनेवाले’ कहलाते हैं। वहाँ तात्पर्य यह है कि – व्यवहारकाल जीव–पुद्गलोंके परिणाम द्वारा
निश्चित होता है; और निश्चयकाल जीव–पुद्गलोंके परिणामकी अन्यथा अनुपपत्ति द्वारा [अर्थात् जीव–पुद्गलोंके परिणाम अन्य प्रकारसे नहीं बन सकते इसलिये] निश्चित होता है।
वहाँ, व्यवहारकाल क्षणभंगी है, क्योंकि सूक्ष्म पर्याय मात्र उतनी ही [–क्षणमात्र जितनी ही,
समयमात्र जितनी ही] है; निश्चयकाल नित्य है, क्योंकि वह अपने गुण–पर्यायोंके आधारभूत द्रव्यरूपसे सदैव अविनाशी है।। १००।।
गाथा १०१
अन्वयार्थः– [कालः इति च व्यपदेशः] ‘काल’ ऐसा व्यपदेश [सद्गावप्ररूपकः] सद्भावका
प्ररूपक है इसलिये [नित्यः भवति] काल [निश्चयकाल] नित्य है। [उत्पन्नध्वंसी अपरः] उत्पन्नध्वंसी ऐसा जो दूसरा काल [अर्थात् उत्पन्न होते ही नष्ट होनेवाला जो व्यवहारकाल] वह [दीर्धांतरस्थायी] [क्षणिक होने पर भी प्रवाहअपेक्षासे] दीर्ध स्थितिका भी [कहा जाता] है।
टीकाः–कालके ‘नित्य’ और ‘क्षणिक’ ऐसे दो विभागोंका यह कथन है।
‘यह काल है, यह काल है’ ऐसा करके जिस द्रव्यविशेषका सदैव व्यपदेश [निर्देश, कथन]
किया जाता है, वह [द्रव्यविशेष अर्थात् निश्चयकालरूप खास द्रव्य] सचमुच अपने सद्भावको प्रगट करता हुआ नित्य है; और जो उत्पन्न होते ही नष्ट होता है, वह [व्यवहारकाल] सचमुच उसी द्रव्यविशेषकी ‘समय’ नामक पर्याय है। वह क्षणभंगुर होने पर भी अपनी संततिको [प्रवाहको] दर्शाता है इसलिये उसे नयके बलसे ‘दीर्घ काल तक टिकनेवाला’ कहनेमें दोष नहीं है; इसलिये आवलिका, पल्योपम, सागरोपम इत्यादि व्यवहारका निषेध नहीं किया जाता।
इस प्रकार यहाँ ऐसा कहा है कि–निश्चयकाल द्रव्यरूप होनेसे नित्य है, व्यवहारकाल
पर्यायरूप होनेसे क्षणिक है।। १०१।।
गाथा १०२
अन्वयार्थः– [एते] यह [कालाकाशे] काल, आकाश [धर्माधर्मौर्] धर्म, अधर्म, [पुद्गलाः]
पुद्गल [च] और [जीवाः] जीव [सब] [द्रव्यसंज्ञां लभंते] ‘द्रव्य’ संज्ञाको प्राप्त करते हैं;
[कालस्य तु] परंतु कालको [कायत्वम्] कायपना [न अस्ति] नहीं है।
टीकाः– यह, कालको द्रव्यपनेके विधानका और अस्तिकायपनेके निषेधका कथन है [अर्थात्
कालको द्रव्यपना है किन्तु अस्तिकायपना नहींं है ऐसा यहाँ कहा है]।
जिस प्रकार वास्तवमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाशको द्रव्यके समस्त लक्षणोंका
सद्भाव होनेसे वे ‘द्रव्य’ संज्ञाको प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार काल भी [उसे द्रव्यके समस्त लक्षणोंका सद्भाव होनेसे] ‘द्रव्य’ संज्ञाको प्राप्त करता है। इस प्रकार छह द्रव्य हैं। किन्तु जिस प्रकार जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाशको १द्वि–आदि प्रदेश जिसका लक्षण है ऐसा
अस्तिकायपना है, उस प्रकार कालाणुओंको– यद्यपि उनकी संख्या लोकाकाशके प्रदेशोंं जितनी [असंख्य] है तथापि – एकप्रदेशीपनेके कारण अस्तिकायपना नहीं है। और ऐसा होनेसे ही [अर्थात् काल अस्तिकाय न होनेसे ही] यहाँ पंचास्तिकायके प्रकरणमें मुख्यरूपसे कालका कथन नहीं किया गया है; [परन्तु] जीव–पुद्गलोंके परिणाम द्वारा जो ज्ञात होती है – मापी जाती है ऐसी उसकी पर्याय होनेसे तथा जीव–पुद्गलोंके परिणामकी अन्यथा अनुपपत्ति द्वारा जिसका अनुमान होता है ऐसा वह द्रव्य होनेसे उसे यहाँ २अन्तर्भूत किया गया है।। १०२।।
२। अन्तर्भूत करना=भीतर समा लेना; समाविष्ट करना; समावेश करना [इस ‘पंचास्तिकायसंग्रह नामक शास्त्रमें
कालका मुख्यरूपसे वर्णन नहीं है, पाँच अस्तिकायोंका मुख्यरूपसे वर्णन है। वहाँ जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकायके परिणामोंका वर्णन करते हुए, उन परिणामोंं द्वारा जिसके परिणाम ज्ञात होते है– मापे जाते हैं उस पदार्थका [कालका] तथा उन परिणामोंकी अन्यथा अनुपपत्ति द्वारा जिसका अनुमान होता है उस पदार्थका [कालका] गौणरूपसे वर्णन करना उचित है – ऐसा मानकर यहाँ पंचास्तिकायप्रकरणमें गौणरूपसे कालके वर्णनका समावेश किया गया है।]
अन्वयार्थः– [एवम्] इस प्रकार [प्रवचनसारं] प्रवचनके सारभूत [पञ्चास्तिकायसंग्रहं]
‘पंचास्तिकायसंग्रह’को [विज्ञाय] जानकर [यः] जो [रागद्वेषौ] रागद्वेषको [मुञ्चति] छोड़ता है, [सः] वह [दुःखपरिमोक्षम् गाहते] दुःखसे परिमुक्त होता है।
टीकाः– यहाँ पंचास्तिकायके अवबोधका फल कहकर पंचास्तिकायके व्याख्यानका उपसंहार
किया गया है।
वास्तवमें सम्पूर्ण [द्वादशांगरूपसे विस्तीर्ण] प्रवचन काल सहित पंचास्तिकायसे अन्य कुछ भी
प्रतिपादित नहीं करता; इसलिये प्रवचनका सार ही यह ‘पंचास्तिकायसंग्रह’ है। जो पुरुष समस्तवस्तुतत्त्वका कथन करनेवाले इस ‘पंचास्तिकायसंग्रह’ को १अर्थतः २अर्थीरूपसे जानकर,
इसीमें कहे हुए जीवास्तिकायमें १अन्तर्गत स्थित अपनेको [निज आत्माको] स्वरूपसे अत्यन्त
विशुद्ध चैतन्यस्वभाववाला निश्चित करके २परस्पर कार्यकारणभूत ऐसे अनादि रागद्वेषपरिणाम और
कर्मबन्धकी परम्परासे जिसमें ३स्वरूपविकार ४आरोपित है ऐसा अपनेको [निज आत्माको] उस
काल अनुभवमें आता देखकर, उस काल विवेकज्योति प्रगट होनेसे [अर्थात् अत्यन्त विशुद्ध चैतन्यस्वभावका और विकारका भेदज्ञान उसी काल प्रगट प्रवर्तमान होनेसे] कर्मबन्धकी परम्पराका प्रवर्तन करनेवाली रागद्वेषपरिणतिको छोड़ता है, वह पुरुष, वास्तवमें जिसका ५स्नेह जीर्ण होता
जाता है ऐसा, जघन्य ६स्नेहगुणके सन्मुख वर्तते हुए परमाणुकी भाँति भावी बन्धसे पराङ्मुख वर्तता
हुआ, पूर्व बन्धसे छूटता हुआ, अग्नितप्त जलकी ७दुःस्थिति समान जो दुःख उससे परिमुक्त होता
१। जीवास्तिकायमें स्वयं [निज आत्मा] समा जाता है, इसलिये जैसा जीवास्तिकायके स्वरूपका वर्णन किया
गया है वैसा ही अपना स्वरूप है अर्थात् स्वयं भी स्वरूपसे अत्यन्त विशुद्ध चैतन्यस्वभाववाला है।
२। रागद्वेषपरिणाम और कर्मबन्ध अनादि कालसे एक–दूसरेको कार्यकारणरूप हैं।
३। स्वरूपविकार = स्वरूपका विकार। [स्वरूप दो प्रकारका हैः [१] द्रव्यार्थिक नयके विषयभूत स्वरूप, और
[२] पर्यायार्थिक नयके विषयभूत स्वरूप। जीवमें जो विकार होता है वह पर्यायार्थिक नयके विषयभूत स्वरूपमें होता है, द्रव्यार्थिक नयके विषयभूत स्वरूपमें नहीं; वह [द्रव्यार्थिक नयके विषयभूत] स्वरूप तो सदैव अत्यन्त विशुद्ध चैतन्यात्मक है।]
४। आरोपित = [नया अर्थात् औपाधिकरूपसे] किया गया। [स्फटिकमणिमें औपाधिकरूपसे होनेवाली रंगित
दशाकी भाँति जीवमें औपाधिकरूपसे विकारपर्याय होती हुई कदाचित् अनुभवमें आती है।]
५। स्नेह = रागादिरूप चिकनाहट।
६। स्नेह = स्पर्शगुणकी पर्यायरूप चिकनाहट। [जिस प्रकार जघन्य चिकनाहटके सन्मुख वर्तता हुआ परमाणु
भावी बन्धसे पराङ्मुख है, उसी प्रकार जिसके रागादि जीर्ण होते जाते हैं ऐसा पुरुष भावी बन्धसे पराङ्मुख है।]
अन्वयार्थः– [जीवः] जीव [एतद् अर्थं ज्ञात्वा] इस अर्थको जानकर [–इस शास्त्रके अर्थंभूत
शुद्धात्माको जानकर], [तदनुगमनोद्यतः] उसके अनुसरणका उद्यम करता हुआ [निहतमोहः] हतमोह होकर [–जिसे दर्शनमोहका क्षय हुआ हो ऐसा होकर], [प्रशमितरागद्वेषः] रागद्वेषको प्रशमित [निवृत्त] करके, [हतपरापरः भवति] उत्तर और पूर्व बन्धका जिसे नाश हुआ है ऐसा होता है ।
टीकाः– इस, दुःखसे विमुक्त होनेके क्रमका कथन है।
प्रथम, कोई जीव इस शास्त्रके अर्थभूत शुद्धचैतन्यस्वभाववाले [निज] आत्माको जानता है;
अतः [फिर] उसीके अनुसरणका उद्यम करता है; अतः उसे द्रष्टिमोहका क्षय होता है; अतः स्वरूपके परिचयके कारण ज्ञानज्योति प्रगट होती है; अतः रागद्वेष प्रशमित होते हैं – निवृत्त होते हैं; अतः उत्तर और पूर्व [–पीछेका और पहलेका] बन्ध विनष्ट होता है; अतः पुनः बन्ध होनेके हेतुत्वका अभाव होनेसे स्वरूपस्थरूपसे सदैव तपता है––प्रतापवन्त वर्तता है [अर्थात् वह जीव सदैव स्वरूपस्थित रहकर परमानन्दज्ञानादिरूप परिणमित है]।। १०४।।
[प्रथम, श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव पहले श्रुतस्कन्धमें क्या कहा गया है और दूसरे श्रुतस्कन्धमें
क्या कहा जाएगा वह श्लोक द्वारा अति संक्षेपमें दर्शाते हैंः]
[श्लोकार्थः–] यहाँ [इस शास्त्रके प्रथम श्रुतस्कन्धमें] द्रव्यस्वरूपके प्रतिपादन द्वारा बुद्ध
पुरुषोंको [बुद्धिमान जीवोंको] शुद्ध तत्त्व [शुद्धात्मतत्त्व] का उपदेश दिया गया। अब पदार्थभेद द्वारा उपोद्घात करके [–नव पदार्थरूप भेद द्वारा प्रारम्भ करके] उसके मार्गका [–शुद्धात्मतत्त्वके मार्गका अर्थात् उसके मोक्षके मार्गका] वर्णन किया जाता है। [७]
[अब इस द्वितीय श्रुतस्कन्धमें श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवविरचित गाथासूत्रका प्रारम्भ किया
अन्वयार्थः–[अपुनर्भवकारणं] अपुनर्भवके कारण [महावीरम्] श्री महावीरको [शिरसा
अभिवंद्य] शिरसा वन्दन करके, [तेषां पदार्थभङ्गं] उनका पदार्थभेद [–काल सहित पंचास्तिकायका नव पदार्थरूप भेद] तथा [मोक्षस्य मार्गं] मोक्षका मार्ग [वक्ष्यामि] कहूँगा।
टीकाः–यह, आप्तकी स्तुतिपूर्वक प्रतिज्ञा है।
प्रवर्तमान महाधर्मतीर्थके मूल कर्तारूपसे जो अपुनर्भवके कारण हैं ऐसे भगवान, परम
भट्टारक, महादेवाधिदेव श्री वर्धमानस्वामीकी, सिद्धत्वके निमित्तभूत भावस्तुति करके, काल सहित पंचास्तिकायका पदार्थभेद [अर्थात् छह द्रव्योंका नव पदार्थरूप भेद] तथा मोक्षका मार्ग कहनेकी इन गाथासूत्रमें प्रतिज्ञा की गई है।। १०५।।
अन्वयार्थः– [भावानां] भावोंका [–नव पदार्थोंका] [श्रद्धानं] श्रद्धान [सम्यक्त्वं] वह
सम्यक्त्व है; [तेषाम् अधिगमः] उनका अवबोध [ज्ञानम्] वह ज्ञान है; [विरूढमार्गाणाम्] [निज तत्त्वमें] जिनका मार्ग विशेष रूढ हुआ है उन्हें [विषयेषु] विषयोंके प्रति वर्तता हुआ [समभावः] समभाव [चारित्रम्] वह चारित्र है।
टीकाः–यह, सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रकी सूचना है।
काल सहित पंचास्तिकायके भेदरूप नव पदार्थ वे वास्तवमें ‘भाव’ हैं। उन ‘भावों’ का
मिथ्यादर्शनके उदयसे प्राप्त होनेवाला जो अश्रद्धान उसके अभावस्वभाववाला जो १भावान्तर–श्रद्धान
[अर्थात् नव पदार्थोंका श्रद्धान], वह सम्यग्दर्शन है– जो कि [सम्यग्दर्शन] शुद्धचैतन्यरूप
१। भावान्तर = भावविशेष; खास भाव; दूसरा भाव; भिन्न भाव। [नव पदार्थोंके अश्रद्धानका अभाव जिसका स्वभाव है ऐसा भावान्तर [–नव पदार्थोंके श्रद्धानरूप भाव] वह सम्यग्दर्शन है।]
‘भावो’ तणी श्रद्धा सुदर्शन, बोध तेनो ज्ञान छे, वधु रूढ मार्ग थतां विषयमां साम्य ते चारित्र छे। १०७।
आत्मतत्त्वके १विनिश्चयका बीज है। २नौकागमनके संस्कारकी भाँति मिथ्यादर्शनके उदयके कारण जो
स्वरूपविपर्ययपूर्वक अध्यवसित होते हैं [अर्थात् विपरीत स्वरूपसे समझमें आते हैं – भासित होते हैं] ऐसे उन ‘भावों’ का ही [–नव पदार्थोंका ही], मिथ्यादर्शनके उदयकी निवृत्ति होने पर, जो सम्यक् अध्यवसाय [सत्य समझ, यथार्थ अवभास, सच्चा अवबोध] होना, वह सम्यग्ज्ञान है – जो कि [सम्यग्ज्ञान] कुछ अंशमें ज्ञानचेतनाप्रधान आत्मतत्त्वकी उपलब्धिका [अनुभूतिका] बीज है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके सद्भावके कारण समस्त अमार्गोंसे छूटकर जो स्वतत्त्वमें विशेषरूपसे
३रूढ़ मार्गवाले हुए हैं उन्हें इन्द्रिय और मनके विषयभूत पदार्थोंके प्रति रागद्वेषपूर्वक विकारके
अभावके कारण जो निर्विकारज्ञानस्वभाववाला समभाव होता है, वह चारित्र है – जो कि [चारित्र] उस कालमें और आगामी कालमें रमणीय है और अपुनर्भवके [मोक्षके] महा सौख्यका एक बीज है।
–ऐसे इस त्रिलक्षण [सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रात्मक] मोक्षमार्गका आगे निश्चय और व्यवहारसे
व्याख्यान किया जाएगा। यहाँ तो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके विषयभूत नव पदार्थोंके ४उपोद्घातके
यहाँ ‘संस्कारादि’के बदले जहाँ तक सम्भव है ‘संस्कारादिव’ होना चाहिये ऐसा लगता है। १। विनिश्चय = निश्चय; द्रढ़ निश्चय। २। जिस प्रकार नावमें बैठे हुए किसी मनुष्यको नावकी गतिके संस्कारवश, पदार्थ विपरीत स्वरूपसे समझमें आते
हैं [अर्थात् स्वयं गतिमान होने पर भी स्थिर हो ऐसा समझमें आता है और वृक्ष, पर्वत आदि स्थिर होने पर भी गतिमान समझमें आते हैं], उसी प्रकार जीवको मिथ्यादर्शनके उदयवश नव पदार्थ विपरीत स्वरूपसे समझमें आते हैं।
३। रूढ़ = पक्का; परिचयसे द्रढ़ हुआ। [सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके कारण जिनका स्वतत्त्वगत मार्ग विशेष
रूढ़़ हुआ है उन्हें इन्द्रियमनके विषयोंके प्रति रागद्वेषके अभावके कारण वर्तता हुआ निर्विकारज्ञानस्वभावी समभाव वह चारित्र है ]।
४। उपोद्घात = प्रस्तावना [सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र मोक्षमार्ग है। मोक्षमार्गके प्रथम दो अंग जो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान उनके विषय नव पदार्थ हैं; इसलिये अब अगली गाथाओंमें नव पदार्थोंका व्यख्यान किया जाता है। मोक्षमार्गका विस्तृत व्यख्यान आगे जायेगा। यहाँ तो नव पदार्थोंके व्यख्यानकी प्रस्तावना के हेतुरूपसे उसकी मात्र सूचना दी गई है।]
अन्वयार्थः–[जीवाजीवौ भावौ] जीव और अजीव–दो भाव [अर्थात् मूल पदार्थ] तथा
[तयोः] उन दो के [पुण्यं] पुण्य, [पापं च] पाप, [आस्रवः] आस्रव, [संवरनिर्जरबंधः] संवर, निर्जरा, बन्ध [च] और [मोक्षः] मोक्ष–[ते अर्थाः ] वह [नव] पदार्थ हैं।
टीकाः–यह, पदार्थोंके नाम और स्वरूपका कथन है।
जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष–इस प्रकार नव पदार्थोंके नाम
हैं।
उनमें, चैतन्य जिसका लक्षण है ऐसा जीवास्तिक ही [–जीवास्तिकाय ही] यहाँ जीव है।
चैतन्यका अभाव जिसका लक्षण है वह अजीव है; वह [अजीव] पाँच प्रकारसे पहले कहा ही है– पुद्गलास्तिक, धर्मास्तिक, अधर्मास्तिक, आकाशास्तिक और कालद्रव्य। यह जीव और अजीव [दोनों] पृथक् अस्तित्व द्वारा निष्पन्न होनेसे भिन्न जिनके स्वभाव हैं ऐसे [दो] मूल पदार्थ हैं ।
जीव और पुद्गलके संयोगपरिणामसे उत्पन्न सात अन्य पदार्थ हैं। [उनका संक्षिप्त स्वरूप
निम्नानुसार हैः–] जीवके शुभ परिणाम [वह पुण्य हैं] तथा वे [शुभ परिणाम] जिसका निमित्त हैं ऐसे पुद्गलोंके कर्मपरिणाम [–शुभकर्मरूप परिणाम] वह पुण्य हैं। जीवके अशुभ परिणाम [वह पाप हैं] तथा वे [अशुभ परिणाम] जिसका निमित्त हैं ऐसे पुद्गलोंके कर्मपरिणाम [–अशुभकर्मरूप परिणाम] वह पाप हैं। जीवके मोहरागद्वेषरूप परिणाम [वह आस्रव हैं] तथा वे [मोहरागद्वेषरूप परिणाम] जिसका निमित्त हैं ऐसे जो योगद्वारा प्रविष्ट होनेवाले पुद्गलोंके कर्मपरिणाम वह आस्रव हैं। जीवके मोहरागद्वेषरूप परिणामका निरोध [वह संवर हैं] तथा वह [मोहरागद्वेषरूप परिणामका निरोध] जिसका निमित्त हैं ऐसा जो योगद्वारा प्रविष्ट होनेवाले पुद्गलोंके कर्मपरिणामका निरोध वह संवर है। कर्मके वीर्यका [–कर्मकी शक्तिका] १शातन करनेमें समर्थ ऐसा जो बहिरंग और अन्तरंग
[बारह प्रकारके] तपों द्वारा वृद्धिको प्राप्त जीवका शुद्धोपयोग [वह निर्जरा है] तथा उसके प्रभावसे [–वृद्धिको प्राप्त शुद्धोपयोगके निमित्तसे] नीरस हुए ऐसे उपार्जित कर्मपुद्गलोंका एकदेश २संक्षय
वह निर्जरा हैे। जीवके, मोहरागद्वेष द्वारा स्निग्ध परिणाम [वह बन्ध है] तथा उसके [–स्निग्ध परिणामके] निमित्तसे कर्मरूप परिणत पुद्गलोंका जीवके साथ अन्योन्य अवगाहन [–विशिष्ट शक्ति सहित एकक्षेत्रावगाहसम्बन्ध] वह बन्ध है। जीवकी अत्यन्त शुद्ध आत्मोपलब्धि [वह मोक्ष है] तथा कर्मपुद्गलोंका जीवसे अत्यन्त विश्लेष [वियोग] वह मोक्ष है।। १०८।।
अब जीवपदार्थका व्याख्यान विस्तारपूर्वक किया जाता है।
गाथा १०९
अन्वयार्थः– [जीवाः द्विविधाः] जीव दो प्रकारके हैं; [संसारस्थाः निर्वृत्ताः] संसारी और सिद्ध।
[चेतनात्मकाः] वे चेतनात्मक [–चेतनास्वभाववाले] [अपि च] तथा [उपयोगलक्षणाः] उपयोगलक्षणवाले हैं। [देहादेहप्रवीचाराः] संसारी जीव देहमें वर्तनेवाले अर्थात् देहसहित हैं और सिद्ध जीव देहमें नहीं वर्तनेवाले अर्थात् देहरहित हैं।
टीकाः– यह, जीवके स्वरूपका कथन है।
जीव दो प्रकारके हैंः – [१] संसारी अर्थात् अशुद्ध, और [२] सिद्ध अर्थात् शुद्ध। वे दोनों
वास्तवमें चेतनास्वभाववाले हैं और चेतनापरिणामस्वरूप उपयोग द्वारा लक्षित होनेयोग्य [–
पहिचानेजानेयोग्य] हैं। उनमें, संसारी जीव देहमें वर्तनेवाले अर्थात् देहसहित हैं और सिद्ध जीव देहमें नहीं वर्तनेवाले अर्थात् देहरहित हैं।। १०९।।
[च] और [वनस्पतिः] वनस्पतिकाय–[कायाः] यह कायें [जीवसंश्रिताः] जीवसहित हैं। [बहुकाः अपि ते] [अवान्तर जातियोंकी अपेक्षासे] उनकी भारी संख्या होने पर भी वे सभी [तेषाम्] उनमें रहनेवाले जीवोंको [खलु] वास्तवमें [मोहबहुलं] अत्यन्त मोहसे संयुक्त [स्पर्शं ददति] स्पर्श देती हैं [अर्थात् स्पर्शज्ञानमें निमित्त होती हैं]।
टीकाः–यह, [संसारी जीवोंके भेदोमेंसे] पृथ्वीकायिक आदि पाँच भेदोंका कथन है।
१पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजःकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय–ऐसे यह पुद्गलपरिणाम
बन्धवशात् [बन्धके कारण] जीवसहित हैं। २अवान्तर जातिरूप भेद करने पर वे अनेक होने पर भी
वे सभी [पुद्गलपरिणाम], स्पर्शनेन्द्रियावरणके क्षयोपशमवाले जीवोंको बहिरंग स्पर्शनेन्द्रियकी
रचनाभूत वर्तते हुए, कर्मफलचेतनाप्रधानपनेके कारणे अत्यन्त मोह सहित ही स्पर्शोपलब्धि संप्राप्त कराते हैं।। ११०।।
१
गाथा १११
अन्वयार्थः–[तेषु] उनमें, [त्रयः] तीन [पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक]
जीव [स्थावरतनुयोगाः] स्थावर शरीरके संयोगवाले हैं [च] तथा [अनिलानलकायिकाः] वायुकायिक और अग्निकायिक जीव [त्रसाः] त्रस हैं; [मनःपरिणामविरहिताः] वे सब मनपरिणामरहित [एकेन्द्रियाः जीवाः] एकेन्द्रिय जीव [ज्ञेयाः] जानना।। १११।।
स्पर्शनेन्द्रियावरणका [–भावस्पर्शनेन्द्रियके आवरणका] क्षयोपशम होता है और वे–वे कायें बाह्य स्पर्शनेन्द्रियकी रचनारूप होती हैं, इसलिये वे–वे कायें उन–उन जीवोंको स्पर्शकी उपलब्धिमें निमित्तभूत होती हैं। उन जीवोंको होनेवाली स्पर्शोपलब्धि प्रबल मोह सहित ही होती हैं, क्योंकि वे जीव कर्मफलचेतनाप्रधान होते हैं।]
२। वायुकायिक और अग्निकायिक जीवोंको चलनक्रिया देखकर व्यवहारसे त्रस कहा जाता है; निश्चयसे तो वे भी
स्थावरनामकर्माधीनपनेके कारण –यद्यपि उन्हें व्यवहारसे चलन हैे तथापि –स्थावर ही हैं।
त्यां जीव त्रण स्थावरतनु, त्रस जीव अग्नि–समीरना; ए सर्व मनपरिणामविरहित एक–इन्द्रिय जाणवा। १११। आ पृथ्वीकायिक आदि जीवनिकाय पाँच प्रकारना, सघळाय मनपरिणामविरहित जीव एकेन्द्रिय कह्या। ११२।
अन्वयार्थः–[एते] इन [पृथिवीकायिकाद्याः] पृथ्वीकायिक आदि [पञ्चविधाः] पाँच प्रकारके
[जीवनिकायाः] जीवनिकायोंको [मनःपरिणामविरहिताः] मनपरिणामरहित [एकेन्द्रियाः जीवाः] एकेन्द्रिय जीव [भणिताः] [सर्वज्ञने] कहा है।
टीकाः–यह, पृथ्वीकायिक आदि पाँच [–पंचविध] जीवोंके एकेन्द्रियपनेका नियम है।
पृथ्वीकायिक आदि जीव, स्पर्शनेन्द्रियके [–भावस्पर्शनेन्द्रियके] आवरणके क्षयोपशमके कारण
तथा शेष इन्द्रियोंके [–चार भावेन्द्रियोंके] आवरणका उदय तथा मनके [–भावमनके] आवरणका उदय होनेसे, मनरहित एकेन्द्रिय है।। ११२।।
गाथा ११३
अन्वयार्थः– [अंडेषु प्रवर्धमानाः] अंडेमें वृद्धि पानेवाले प्राणी, [गर्भस्थाः] गर्भमें रहे हुए प्राणी
[च] और [मूर्च्छा गताः मानुषाः] मूर्छा प्राप्त मनुष्य, [याद्रशाः] जैसे [बुद्धिपूर्वक व्यापार रहित] हैं, [ताद्रशाः] वैसे [एकेन्द्रियाः जीवाः] एकेन्द्रिय जीव [ज्ञेयाः] जानना।
टीकाः– यह, एकेन्द्रियोंको चैतन्यका अस्तित्व होने सम्बन्धी द्रष्टान्तका कथन है।