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स्कंधत्वमापन्नाः कदाचित्सूक्ष्मत्वमापन्नाः कदाचित्परमाणुत्वमापन्नाः इन्द्रियग्रहणयोग्यतासद्भावाद्
गृह्यमाणा अगृह्यमाणा वा मूर्ता इत्युच्यंते। शेषमितरत् समस्तमप्यर्थजातं स्पर्शरस–
गंधवर्णाभावस्वभावमिन्द्रियग्रहणयोग्यताया अभावादमूर्तमित्युच्यते। चित्तग्रहणयोग्यतासद्भाव–
भाग्भवति तदुभयमपि, चितं, ह्यनियतविषयमप्राप्यकारि मतिश्रुतज्ञानसाधनीभूतं मूर्तममूर्तं च
समाददातीति।। ९९।।
जिनका स्वभाव है ऐसे पदार्थ] ग्रहण होते हैं [–ज्ञात होते हैं]; और श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा वही पदार्थ
उसके [श्रोत्रैन्द्रियके]
और कदाचित् परमाणुपनेको प्राप्त होते हुए इन्द्रियों द्वारा ग्रहण होते हों या न होते हों, इन्द्रियों
द्वारा ग्रहण होनेकी योग्यताका [सदैव] सद्भाव होनेसे ‘मूर्त’ कहलाते हैं।
हैं।
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दोण्हं एस सहावो कालो खणभंगुरो णियदो।। १००।।
द्वयोरेष स्वभावः कालः क्षणभङ्गुरो नियतः।। १००।।
इत्युपगीयते, जीवपुद्गलानां परिणामस्तु बहिरङ्गनिमित्तभूतद्रव्यकालसद्भावे सति संभूतत्वाद्र्रव्य–
उत्पन्न होता है।– [द्वयोः एषः स्वभावः] यह, दोनोंका स्वभाव है। [कालः क्षणभुङ्गुरः नियतः] काल
क्षणभंगुर तथा नित्य है।
जीव–पुद्गलोंके परिणाम बहिरंग–निमित्तभूत द्रव्यकालके सद्भावमें उत्पन्न होनेके कारण ‘द्रव्यकालसे
उत्पन्न होनेवाले’ कहलाते हैं। वहाँ तात्पर्य यह है कि – व्यवहारकाल जीव–पुद्गलोंके परिणाम द्वारा
–आ छे स्वभावो उभयना; क्षणभंगी ने ध्रुव काळ छे। १००।
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कालस्तु तत्परिणामान्यथानुपपत्त्येति। तत्र क्षणभङ्गी व्यवहारकालः सूक्ष्मपर्यायस्य तावन्मात्रत्वात्,
नित्यो निश्चयकालः खगुणपर्यायाधारद्रव्यत्वेन सर्वदैवाविनश्वरत्वादिति।। १००।।
उप्पण्णप्पद्धंसी अवरो दीहंतरट्ठाई।। १०१।।
उत्पन्नप्रध्वंस्यपरो दीर्धांतरस्थायी।। १०१।।
जीव–पुद्गलोंके परिणाम अन्य प्रकारसे नहीं बन सकते इसलिये] निश्चित होता है।
द्रव्यरूपसे सदैव अविनाशी है।। १००।।
ऐसा जो दूसरा काल [अर्थात् उत्पन्न होते ही नष्ट होनेवाला जो व्यवहारकाल] वह
[दीर्धांतरस्थायी] [क्षणिक होने पर भी प्रवाहअपेक्षासे] दीर्ध स्थितिका भी [कहा जाता] है।
उत्पन्नध्वंसी अन्य जे ते दीर्धस्थायी पण ठरे। १०१।
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समयाख्यः पर्याय इति। स तूत्संगितक्षणभंगोऽप्युपदर्शित–स्वसंतानो
नयबलाद्रीर्धातरस्थाय्युपगीयमानो न दुष्यति; ततो न खल्वावलिकापल्योपम–सागरोपमादिव्यवहारो
विप्रतिषिध्यते। तदत्र निश्चयकालो नित्यः द्रव्यरूपत्वात्, व्यवहारकालः क्षणिकः पर्यायरूपत्वादिति।।
१०१।।
लब्भंति दव्वसण्णं कालस्स दु णत्थि कायत्तं।। १०२।।
लभंते द्रव्यसंज्ञां कालस्य तु नास्ति कायत्वम्।। १०२।।
करता हुआ नित्य है; और जो उत्पन्न होते ही नष्ट होता है, वह [व्यवहारकाल] सचमुच उसी
द्रव्यविशेषकी ‘समय’ नामक पर्याय है। वह क्षणभंगुर होने पर भी अपनी संततिको [प्रवाहको]
दर्शाता है इसलिये उसे नयके बलसे ‘दीर्घ काल तक टिकनेवाला’ कहनेमें दोष नहीं है; इसलिये
आवलिका, पल्योपम, सागरोपम इत्यादि व्यवहारका निषेध नहीं किया जाता।
छे ‘द्रव्य’ संज्ञा सर्वने, कायत्व छे नहि काळने । १०२।
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अस्तिकायत्वं, न तथा लोकाकाशप्रदेशसंख्यानामपि कालाणूनामेक–प्रदेशत्वादस्त्यस्तिकायत्वम्। अत
एव च पञ्चास्तिकायप्रकरणे न हीह मुख्यत्वेनोपन्यस्तः कालः।
जीवपुद्गलपरिणामावच्छिद्यमानपर्यायत्वेन तत्परिणामान्यथानुपपत्यानुमीयमानद्रव्यत्वेना–
त्रैवांतर्भावितः।। १०२।।
लक्षणोंका सद्भाव होनेसे] ‘द्रव्य’ संज्ञाको प्राप्त करता है। इस प्रकार छह द्रव्य हैं। किन्तु जिस
प्रकार जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाशको
[असंख्य] है तथापि – एकप्रदेशीपनेके कारण अस्तिकायपना नहीं है। और ऐसा होनेसे ही [अर्थात्
काल अस्तिकाय न होनेसे ही] यहाँ पंचास्तिकायके प्रकरणमें मुख्यरूपसे कालका कथन नहीं किया
गया है; [परन्तु] जीव–पुद्गलोंके परिणाम द्वारा जो ज्ञात होती है – मापी जाती है ऐसी उसकी
पर्याय होनेसे तथा जीव–पुद्गलोंके परिणामकी अन्यथा अनुपपत्ति द्वारा जिसका अनुमान होता है
ऐसा वह द्रव्य होनेसे उसे यहाँ
२। अन्तर्भूत करना=भीतर समा लेना; समाविष्ट करना; समावेश करना [इस ‘पंचास्तिकायसंग्रह नामक शास्त्रमें
पुद्गलास्तिकायके परिणामोंका वर्णन करते हुए, उन परिणामोंं द्वारा जिसके परिणाम ज्ञात होते है– मापे जाते
हैं उस पदार्थका [कालका] तथा उन परिणामोंकी अन्यथा अनुपपत्ति द्वारा जिसका अनुमान होता है उस
पदार्थका [कालका] गौणरूपसे वर्णन करना उचित है – ऐसा मानकर यहाँ पंचास्तिकायप्रकरणमें गौणरूपसे
कालके वर्णनका समावेश किया गया है।]
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जो मुयदि रागदासे सो गाहदि दुक्खपरिमोक्खं।। १०३।।
यो मुञ्चति रागद्वेषौ स गाहते दुःखपरिमोक्षम्।। १०३।।
र्थितयावबुध्यात्रैव जीवास्तिकायांतर्गतमात्मानं स्वरूपेणात्यंतविशुद्धचैतन्यस्वभावं निश्चित्य पर–
[सः] वह [दुःखपरिमोक्षम् गाहते] दुःखसे परिमुक्त होता है।
समस्तवस्तुतत्त्वका कथन करनेवाले इस ‘पंचास्तिकायसंग्रह’ को
२। अर्थीरूपसे=गरजीरूपसे; याचकरूपसे; सेवकरूपसे; कुछ प्राप्त करने के प्रयोजनसे [अर्थात् हितप्राप्तिके
जे जीव छोडे रागद्वेष, लहे सकलदुखमोक्षने। १०३।
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तदात्वेऽनुभूयमानमवलोक्य तत्कालोन्मीलितविवेकज्योतिः कर्मबंधसंतति–प्रवर्तिकां
रागद्वेषपरिणतिमत्यस्यति, स खलु जीर्यमाणस्नेहो जघन्यस्नेहगुणाभिमुखपरमाणु–
बद्भाविबंधपराङ्मुखः पूर्वबंधात्प्रच्यवमानः शिखितप्तोदकदौस्थ्यानुकारिणो दुःखस्य परिमोक्षं विगाहत
इति।। १०३।।
चैतन्यस्वभावका और विकारका भेदज्ञान उसी काल प्रगट प्रवर्तमान होनेसे] कर्मबन्धकी परम्पराका
प्रवर्तन करनेवाली रागद्वेषपरिणतिको छोड़ता है, वह पुरुष, वास्तवमें जिसका
२। रागद्वेषपरिणाम और कर्मबन्ध अनादि कालसे एक–दूसरेको कार्यकारणरूप हैं।
३। स्वरूपविकार = स्वरूपका विकार। [स्वरूप दो प्रकारका हैः [१] द्रव्यार्थिक नयके विषयभूत स्वरूप, और
होता है, द्रव्यार्थिक नयके विषयभूत स्वरूपमें नहीं; वह [द्रव्यार्थिक नयके विषयभूत] स्वरूप तो सदैव अत्यन्त
विशुद्ध चैतन्यात्मक है।]
४। आरोपित = [नया अर्थात् औपाधिकरूपसे] किया गया। [स्फटिकमणिमें औपाधिकरूपसे होनेवाली रंगित
५। स्नेह = रागादिरूप चिकनाहट।
६। स्नेह = स्पर्शगुणकी पर्यायरूप चिकनाहट। [जिस प्रकार जघन्य चिकनाहटके सन्मुख वर्तता हुआ परमाणु
है।]
७। दुःस्थिति = अशांत स्थिति [अर्थात् तले–उपर होना, खद्बद् होना]ः अस्थिरता; खराब–बुरी स्थिति। [जिस
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पसमियरागद्दोसो हवदि हदपरापरो
प्रशमितरागद्वेषो भवति हतपरापरो जीवः।। १०४।।
रागद्वेषौ प्रशाम्यतः। ततः उत्तरः पूर्वश्च बंधो विनश्यति। ततः पुनर्बंधहेतुत्वाभावात् स्वरूपस्थो नित्यं
प्रतपतीति।। १०४।।
हतमोह होकर [–जिसे दर्शनमोहका क्षय हुआ हो ऐसा होकर], [प्रशमितरागद्वेषः] रागद्वेषको
प्रशमित [निवृत्त] करके, [हतपरापरः भवति] उत्तर और पूर्व बन्धका जिसे नाश हुआ है ऐसा
होता है ।
परिचयके कारण ज्ञानज्योति प्रगट होती है; अतः रागद्वेष प्रशमित होते हैं – निवृत्त होते हैं; अतः
उत्तर और पूर्व [–पीछेका और पहलेका] बन्ध विनष्ट होता है; अतः पुनः बन्ध होनेके हेतुत्वका
अभाव होनेसे स्वरूपस्थरूपसे सदैव तपता है––प्रतापवन्त वर्तता है [अर्थात् वह जीव सदैव
स्वरूपस्थित रहकर परमानन्दज्ञानादिरूप परिणमित है]।। १०४।।
प्रशमावी रागद्वेष, जीव उत्तर–पूरव विरहित बने। १०४।
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श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ।
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शुद्धं बुधानामिह तत्त्वमुक्तम्।
पदार्थभङ्गेन कृतावतारं
प्रकीर्त्यते संप्रति वर्त्म तस्य।। ७।।
तेसिं पयत्थभंगं मग्गं मोक्खस्स
द्वारा उपोद्घात करके [–नव पदार्थरूप भेद द्वारा प्रारम्भ करके] उसके मार्गका [–शुद्धात्मतत्त्वके
मार्गका अर्थात् उसके मोक्षके मार्गका] वर्णन किया जाता है। [७]
भाखुं पदार्थविकल्प तेम ज मोक्ष केरा मार्गने। १०५।
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तेषां पदार्थभङ्गं मार्गं मोक्षस्य वक्ष्यामि।। १०५।।
पदार्थविकल्पो मोक्षस्य मार्गश्च वक्तव्यत्वेन प्रतिज्ञात इति।। १०५।।
मोक्षस्य भवति मार्गो भव्यानां लब्धबुद्धीनाम्।। १०६।।
नव पदार्थरूप भेद] तथा [मोक्षस्य मार्गं] मोक्षका मार्ग [वक्ष्यामि] कहूँगा।
पंचास्तिकायका पदार्थभेद [अर्थात् छह द्रव्योंका नव पदार्थरूप भेद] तथा मोक्षका मार्ग कहनेकी इन
गाथासूत्रमें प्रतिज्ञा की गई है।। १०५।।
ते होय छे निर्वाणमारग लब्धबुद्धि भव्यने। १०६।
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लब्धबुद्धीनामेव नालब्धबुद्धीनां, क्षीणकषायत्वे भवत्येव न कषायसहितत्वेभवतीत्यष्टधा नियमोऽत्र
द्रष्टव्यः।। १०६।।
भव्यजीवोंको [मोक्षस्य मार्गः] मोक्षका मार्ग [भवति] होता है।
है ऐसा समझना]।। १०६।।
२। लब्धबुद्धि = जिन्होंने बुद्धि प्राप्त की हो ऐसे।
३। क्षीणकषायपनेमें ही = क्षीणकषायपना होते ही ; क्षीणकषायपना हो तभी। [सम्यक्त्वज्ञानयुक्त चारित्र – जो
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चारित्तं समभावो विसयेसु
चारित्रं समभावो विषयेषु विरूढमार्गाणाम्।। १०७।।
तत्त्वमें] जिनका मार्ग विशेष रूढ हुआ है उन्हें [विषयेषु] विषयोंके प्रति वर्तता हुआ [समभावः]
समभाव [चारित्रम्] वह चारित्र है।
है ऐसा भावान्तर [–नव पदार्थोंके श्रद्धानरूप भाव] वह सम्यग्दर्शन है।]
वधु रूढ मार्ग थतां विषयमां साम्य ते चारित्र छे। १०७।
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सम्यग्दर्शनज्ञानसन्निधानादमार्गेभ्यः समग्रेभ्यः परिच्युत्य स्वतत्त्वे विशेषेण रूढमार्गाणां सता–
मिन्द्रियानिन्द्रियविषयभूतेष्वर्थेषु रागद्वेषपूर्वकविकाराभावान्निर्विकारावबोधस्वभावः समभावश्चारित्रं,
तदात्वायतिरमणीयमनणीयसोऽपुनर्भवसौख्यस्यैकबीजम्। इत्येष त्रिलक्षणो मोक्षमार्गः पुरस्ता–
न्निश्चयव्यवहाराभ्यां व्याख्यास्यते। इह तु सम्यग्दर्शनज्ञानयोर्विषयभूतानां नवपदार्थानामु–
पोद्धातहेतुत्वेन सूचित इति।। १०७।।
आत्मतत्त्वके
हैं] ऐसे उन ‘भावों’ का ही [–नव पदार्थोंका ही], मिथ्यादर्शनके उदयकी निवृत्ति होने पर, जो
सम्यक् अध्यवसाय [सत्य समझ, यथार्थ अवभास, सच्चा अवबोध] होना, वह सम्यग्ज्ञान है – जो
कि [सम्यग्ज्ञान] कुछ अंशमें ज्ञानचेतनाप्रधान आत्मतत्त्वकी उपलब्धिका [अनुभूतिका] बीज है।
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके सद्भावके कारण समस्त अमार्गोंसे छूटकर जो स्वतत्त्वमें विशेषरूपसे
उस कालमें और आगामी कालमें रमणीय है और अपुनर्भवके [मोक्षके] महा सौख्यका एक बीज है।
१। विनिश्चय = निश्चय; द्रढ़ निश्चय।
२। जिस प्रकार नावमें बैठे हुए किसी मनुष्यको नावकी गतिके संस्कारवश, पदार्थ विपरीत स्वरूपसे समझमें आते
भी गतिमान समझमें आते हैं], उसी प्रकार जीवको मिथ्यादर्शनके उदयवश नव पदार्थ विपरीत स्वरूपसे
समझमें आते हैं।
समभाव वह चारित्र है ]।
४। उपोद्घात = प्रस्तावना [सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र मोक्षमार्ग है। मोक्षमार्गके प्रथम दो अंग जो सम्यग्दर्शन
और सम्यग्ज्ञान उनके विषय नव पदार्थ हैं; इसलिये अब अगली गाथाओंमें नव पदार्थोंका व्यख्यान किया जाता
है। मोक्षमार्गका विस्तृत व्यख्यान आगे जायेगा। यहाँ तो नव पदार्थोंके व्यख्यानकी प्रस्तावना के हेतुरूपसे उसकी
मात्र सूचना दी गई है।]
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संवरणं णिज्जरणं बंधो
संवरनिर्जरबंधा मोक्षश्च ते अर्थाः।। १०८।।
पुद्गलास्तिकः, धर्मास्तिकः, अधर्मास्तिकः, आकाशास्तिकः, कालद्रव्यञ्चेति। इमौ हि जीवाजीवौ
पृथग्भूतास्तित्वनिर्वृत्तत्वेन
निर्जरा, बन्ध [च] और [मोक्षः] मोक्ष–[ते अर्थाः ] वह [नव] पदार्थ हैं।
पुद्गलास्तिक, धर्मास्तिक, अधर्मास्तिक, आकाशास्तिक और कालद्रव्य। यह जीव और अजीव
[दोनों] पृथक् अस्तित्व द्वारा निष्पन्न होनेसे भिन्न जिनके स्वभाव हैं ऐसे [दो] मूल पदार्थ हैं ।
आसरव, संवर, निर्जरा, वळी बंध, मोक्ष–पदार्थ छे। १०८।
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जीवस्य, तन्निमित्तः कर्मपरिणामः पुद्गलानाञ्च पुण्यम्। अशुभपरिणामो जीवस्य, तन्निमित्तः कर्म–
परिणामः पुद्गलानाञ्च पापम्। मोहरागद्वेषपरिणामो जीवस्य, तन्निमित्तः कर्मपरिणामो योगद्वारेण
प्रविशतां पुद्गलानाञ्चास्रवः। मोहरागद्वेषपरिणामनिरोधो जीवस्य, तन्निमित्तः कर्मपरिणामनिरोधो
योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानाञ्च संवरः। कर्मवीर्यशातनसमर्थो बहिरङ्गांतरङ्गतपोभिर्बृंहित–शुद्धोपयोगो
जीवस्य, तदनुभावनीरसीभूतानामेकदेशसंक्षयः समुपात्तकर्मपुद्गलानाञ्च निर्जरा।
मोहरागद्वेषस्निग्धपरिणामो जीवस्य, तन्निमित्तेन कर्मत्वपरिणतानां जीवेन सहान्योन्यसंमूर्च्छनं
पुद्गलानाञ्च बंधः। अत्यंतशुद्धात्मोपलम्भो जीवस्य, जीवेन सहात्यंत–
ऐसे पुद्गलोंके कर्मपरिणाम [–शुभकर्मरूप परिणाम] वह पुण्य हैं। जीवके अशुभ परिणाम [वह पाप
हैं] तथा वे [अशुभ परिणाम] जिसका निमित्त हैं ऐसे पुद्गलोंके कर्मपरिणाम [–अशुभकर्मरूप
परिणाम] वह पाप हैं। जीवके मोहरागद्वेषरूप परिणाम [वह आस्रव हैं] तथा वे [मोहरागद्वेषरूप
परिणाम] जिसका निमित्त हैं ऐसे जो योगद्वारा प्रविष्ट होनेवाले पुद्गलोंके कर्मपरिणाम वह आस्रव
हैं। जीवके मोहरागद्वेषरूप परिणामका निरोध [वह संवर हैं] तथा वह [मोहरागद्वेषरूप परिणामका
निरोध] जिसका निमित्त हैं ऐसा जो योगद्वारा प्रविष्ट होनेवाले पुद्गलोंके कर्मपरिणामका निरोध वह
संवर है। कर्मके वीर्यका [–कर्मकी शक्तिका]
[–वृद्धिको प्राप्त शुद्धोपयोगके निमित्तसे] नीरस हुए ऐसे उपार्जित कर्मपुद्गलोंका एकदेश
परिणामके] निमित्तसे कर्मरूप परिणत पुद्गलोंका जीवके साथ अन्योन्य अवगाहन [–विशिष्ट शक्ति
सहित एकक्षेत्रावगाहसम्बन्ध] वह बन्ध है। जीवकी अत्यन्त शुद्ध आत्मोपलब्धि [वह मोक्ष है] तथा
कर्मपुद्गलोंका जीवसे अत्यन्त विश्लेष [वियोग] वह मोक्ष है।। १०८।।
२। संक्षय = सम्यक् प्रकारसे क्षय।
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उवओगलक्खणा वि य देहादेहप्पवीचारा।। १०९।।
उपयोगलक्षणा अपि च देहादेहप्रवीचाराः।। १०९।।
इति।। १०९।।
उपयोगलक्षणवाले हैं। [देहादेहप्रवीचाराः] संसारी जीव देहमें वर्तनेवाले अर्थात् देहसहित हैं और
सिद्ध जीव देहमें नहीं वर्तनेवाले अर्थात् देहरहित हैं।
देहमें नहीं वर्तनेवाले अर्थात् देहरहित हैं।। १०९
उपयोगलक्षण उभय; एक सदेह, एक अदेह छे। १०९।
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देंति खलु मोहबहुलं फासं बहुगा
ददति खलु मोहबहुलं स्पर्शं बहुका अपि ते तेषाम्।। ११०।।
बहिरङ्गस्पर्शनेन्द्रियनिर्वृत्तिभूताः कर्मफलचेतनाप्रधान–
-----------------------------------------------------------------------------
अपि ते] [अवान्तर जातियोंकी अपेक्षासे] उनकी भारी संख्या होने पर भी वे सभी [तेषाम्] उनमें
रहनेवाले जीवोंको [खलु] वास्तवमें [मोहबहुलं] अत्यन्त मोहसे संयुक्त [स्पर्शं ददति] स्पर्श देती
हैं [अर्थात् स्पर्शज्ञानमें निमित्त होती हैं]।
भू–जल–अनल–वायु–वनस्पतिकाय जीवसहित छे;
बहु काय ते अतिमोहसंयुत स्पर्श आपे जीवने। ११०।
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मणपरिणामविरहिदा जीवा एइंदिया
मनःपरिणामविरहिता जीवा एकेन्द्रिया ज्ञेयाः।। १११।।
मणपरिणामविरहिदा जीवा एगेंदिया भणिया।। ११२।।
कराते हैं।। ११०।।
वायुकायिक और अग्निकायिक जीव [त्रसाः] त्रस हैं; [मनःपरिणामविरहिताः] वे सब
मनपरिणामरहित [एकेन्द्रियाः जीवाः] एकेन्द्रिय जीव [ज्ञेयाः] जानना।। १११।।
रचनारूप होती हैं, इसलिये वे–वे कायें उन–उन जीवोंको स्पर्शकी उपलब्धिमें निमित्तभूत होती हैं। उन
जीवोंको होनेवाली स्पर्शोपलब्धि प्रबल मोह सहित ही होती हैं, क्योंकि वे जीव कर्मफलचेतनाप्रधान होते हैं।]
२। वायुकायिक और अग्निकायिक जीवोंको चलनक्रिया देखकर व्यवहारसे त्रस कहा जाता है; निश्चयसे तो वे भी
त्यां जीव त्रण स्थावरतनु, त्रस जीव अग्नि–समीरना;
ए सर्व मनपरिणामविरहित एक–इन्द्रिय जाणवा। १११।
आ पृथ्वीकायिक आदि जीवनिकाय पाँच प्रकारना,
सघळाय मनपरिणामविरहित जीव एकेन्द्रिय कह्या। ११२।
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मनःपरिणामविरहिता जीवा एकेन्द्रिया भणिताः।। ११२।।
पृथिवीकायिकादयो हि जीवाः स्पर्शनेन्द्रियावरणक्षयोपशमात्
जारिसया तारिसया जीवा एगेंदिया
याद्रशास्ताद्रशा जीवा एकेन्द्रिया ज्ञेयाः।। ११३।।
एकेन्द्रिय जीव [भणिताः] [सर्वज्ञने] कहा है।
उदय होनेसे, मनरहित एकेन्द्रिय है।। ११२।।
[ताद्रशाः] वैसे [एकेन्द्रियाः जीवाः] एकेन्द्रिय जीव [ज्ञेयाः] जानना।
तेवा बधा आ पंचविध एकेंद्रि जीवो जाणजे। ११३।