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रु. २०=०० होती है। तथा श्री कुंदकुंद-कहान पारमार्थिक
ट्रस्ट हस्ते स्व. शांतिलाल रतिलाल शाहकी ओरसे ५०
रु. १०=०० रखा गया है।
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रामजीभाई माणेकचन्द दोशीने सम्पादित किया था । हिन्दीमें तो
इस पुस्तककी अनेक आवृत्तियाँ (अन्य संस्थाओं द्वारा) निकल
चुकी हैं । इस आवृत्तिमें प्रकरणके अनुसार भावपूर्ण तथा बालसुबोध
चित्र अंकित किये गये हैं, यह इसकी विशेषता
स्वाध्याय भी कई जगह होती है ।
विषयवस्तुको यथार्थतया समझनेके लिए मुमुक्षुओंको वे प्रवचनोंको
अच्छी तरह सुनना अत्यंत आवश्यक है। वर्तमानयुगमें परमोपकारी
पूज्य गुरुदेवश्री तथा पूज्य बहिनश्री चंपाबहिनके उपकार प्रतापसे
ही हम ऐसे ग्रंथोंको पढ़कर अपना आत्महित साध सकते हैं।
मतके एकांत अभिप्रायोंका निषेध किया गया है, अतः इसका
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बराबर समझ ले।
शाह हिंमतलाल छोटालाल, डॉ. विद्याचंदजी शहा, श्री
मनसुखलाल देसाई, ब्र. हरिलाल जैन तथा श्री कान्तिलाल
हरिलाल शाहने प्रेमपूर्वक सहायता की है, अतः संस्था उन सब
महानुभावोंका आभार मानती है ।
वीर सं. २४९१
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है की मुमुक्षु समाज यह ग्रन्थका अभ्यास करके लाभान्वित होगा
कि सब धर्म-जिज्ञासु इस ग्रन्थका स्वाध्याय करके उसका आशय
समझकर मिथ्यात्वसे अपनी रक्षा करते हुए स्वसन्मुखता द्वारा
सम्यक्पना प्राप्त करें ।
पू. गुरुदेवश्रीका
१२०वाँ जन्मोत्सव
ता. २६-४-२००९
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धर्मतत्त्वके अच्छे ज्ञाता थे । उन्होंने परमार्थ जकड़ी, फु टकर अनेक
पद तथा प्रस्तुत ग्रंथ छहढालाकी रचना की है । अपनी कवितामें
सरल शब्दों द्वारा सागरको गागरमें भरनेका प्रयत्न किया है ।
उनके शब्द रुचिक र हैं, भाव उल्लास देनेवाला है । उनके पदोंका
भाव मनन करने योग्य है, जो कि जैनसिद्धान्तके जिज्ञासुओंके
लिए बहुत उपयोगी है ।
और जैन परीक्षालयोंके पठन-क्रममें स्थान दिया गया है । सर्व
सज्जनोंसे मेरी प्रार्थना है कि इस ग्रंथका सर्वत्र प्रचार करें और
आत्महितमें अग्रसर होनेके प्रयत्नमें सावधान रहें ।
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नित्य पाठ करते हैं। जैन पाठशालाओंकी यह एक पाठय पुस्तक
है। ग्रन्थकारने संवत् १८९१की वैशाख शुक्ला ३, (अक्षय-
तृतीया)के दिन इस ग्रन्थकी रचना पूर्ण की थी। इस ग्रन्थमें
धर्मका स्वरूप संक्षेपमें भलीभाँति समझाया गया है; और वह भी
ऐसी सरल सुबोध भाषामें कि बालकसे लेकर वृद्ध तक सभी
सरलतापूर्वक समझ सकें।
इसमें मिथ्यादर्शनके कारणरूप जीवकी अनादिसे चली आ रही
सात भूलोंका स्वरूप दिया गया है; वह संक्षेपमें निम्नानुसार है
हलन-चलन मुझसे होता है; शरीर (इन्द्रियोंमें)के द्वारा मैं
जानता हूँ, सुखको भोगता हूँ, शरीर निरोग हो तो मुझे लाभ
हो
भूल है।
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अजीवतत्त्वकी भूल है।
भूल है।
वे दोनों अनिष्ट हैं
समझमें न आये ऐसा मानता है। वह संवरतत्त्वकी भूल है।
निर्जरातत्त्वकी भूल है।
भोगना पड़ता है अर्थात् चारों गतियोंमें मनुष्य, देव, तिर्यंच और
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सुख मानते हैं, किन्तु वह भ्रमणा है
प्रतिकूल, इष्ट-अनिष्ट नहीं है तथा संयोगसे किसीको सुख-दुःख
हो ऐसा नहीं है। किन्तु विपरीत श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र एवं
पुरुषार्थसे जीव भूल करता है और उसके कारण दुःखी होता
है। सच्चे पुरुषार्थसे भूलको हटाकर सम्यक्श्रद्धा
अवस्थाको टालकर दो इन्द्रियसे पंचेन्द्रियकी पर्याय प्राप्त करना
दुर्लभ है और उसमें भी मनुष्यभवकी प्राप्ति तो अति-दीर्घकालमें
होती है अर्थात् जीव मनुष्यभव नहिंवत् प्राप्त कर पाता है।
कर सकता है; किन्तु मनुष्य पर्यायमें भी या तो धर्मका यथार्थ
विचार नहीं करता, या फि र धर्मके नाम पर चलनेवाली अनेक
मिथ्या-मान्यताओंमेंसे किसी न किसी मिथ्या-मान्यताको ग्रहण
करके कुदेव, कुगुरु तथा कुशास्त्रके चक्रमें फँस जाता है, अथवा
तो ‘‘सर्व धर्म समान हैं’’
विशालबुद्धि मानकर और अभिमानका सेवन करता है। कभी वह
जीव सुदेव, सुगुरु और सुशास्त्रका बाह्यस्वरूप समझता है,
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इसलिए पुनः पुनः संसार-सागरमें भटककर अपना अधिक काल
निगोदगति
सकता हूँ, पर मेरा कर सकता है, परसे मुझे लाभ या हानि
होते हैं
मिथ्यादर्शन कहा जाता है। मिथ्यादर्शनके फलस्वरूप जीव क्रोध,
मान, माया, लोभ
किन्तु उनका मूल मिथ्यादर्शनरूप महापाप है, उसे वे नहीं
जानते; तो फि र उसका निवारण कैसे करें ?
तथा चोरी, किन्तु इन व्यसनोंसे भी बढ़कर महापाप मिथ्यात्वका
सेवन है, इसलिए जैनधर्म सर्वप्रथम मिथ्यात्वको छोड़नेका उपदेश
देता है, किन्तु अधिकांश उपदेशक, प्रचारक और अगुरु
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मिथ्यात्वको टालनेका उपदेश कहाँसे दे सकते हैं ? वे ‘‘पुण्य’’को
धर्ममें सहायक मानकर उसके उपदेशकी मुख्यता देते हैं और
इसप्रकार धर्मके नाम पर महामिथ्यात्वरूपी पापका अव्यक्तरूपसे
पोषण करते हैं। जीव इस भूलको टाल सके इस हेतु इसकी
तीसरी तथा चौथी ढालमें सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञानका स्वरूप
दिया गया है। इसका यह अर्थ नहीं कि जीव शुभके बदले अशुभ
भाव करे, किन्तु शुभभावको वास्तवमें धर्म अथवा धर्ममें सहायक
नहीं मानना चाहिये। यद्यपि निचली दशामें शुभभाव हुए बिना नहीं
रहता, किन्तु उसे सच्चा धर्म मानना वह मिथ्यात्वरूप महापाप है।
जो शुभभाव होता है उसे वे धर्म नहीं मानते, किन्तु बन्धका कारण
मानते हैं। जितना राग दूर होता है तथा सम्यग्दर्शन-ज्ञानकी जो
दृढ़ता होती है, उसे वे धर्म मानते हैं; इसलिए उनके संवर-निर्जरा
होती है। अज्ञानीजन जो शुभभावको धर्म अथवा धर्ममें सहायक
मानते हैं, इसलिए उन्हें सच्ची भावना नहीं होती।
शुभभावरूप अणुव्रत या महाव्रत होते हैं, किन्तु उनमें होनेवाले
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द्वारा उस त्रिकाली शुद्ध अखण्ड चैतन्यस्वरूप आत्माको ‘निश्चय’
कहा जाता है, आत्माका वह त्रिकाली सामान्यस्वभाव
द्रव्यार्थिकनयसे आत्माका स्वरूप है, उस त्रैकालिक शुद्धताकी
ओर उन्मुखतासे जीवकी जो शुद्ध पर्याय प्रगट होती है उसे
निश्चयनयसे मोक्षमार्ग कहा जाता है फि र भी वह आत्माका
पर्याय (अंश-भेद) होनेसे उसे ‘व्यवहार’ कहा जाता है, वह
सद्भुतव्यवहार है; और अपनी वर्तमान पर्यायमें जो विकारका
अंश रहता है वह पर्याय(अंश-भेद) असद्भूतव्यवहारनयका विषय
है। असद्भुतव्यवहार जीवका परमार्थस्वरूप न होनेसे दूर हो
सकता है और इसलिए निश्चयनयसे वह जीवका स्वरूप नहीं
है
मानते हैं और व्यवहार करते-करते भविष्यमें निश्चय (शुद्धभाव
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हैं। वह साधकजीवको नीचली दशामें जो शुभराग सहित चारित्र
होता है उसको सरागचारित्र या व्यवहार चारित्र भी कहा गया
है । लेकिन उसमें जो शुद्धिका अंश है वह उपली शुद्धिरूप
निश्चय वीतराग चारित्रका कारण होनेसे शास्त्रोंमें उस शुद्धिके
साथ वर्तते रागको भी उपचारसे उपली शुद्धिका कारण
व्यवहारसे कहा जाता है । क्योंकि उस जीवको अल्प समयमें
शुभभावरूप कचाश दूर होकर पूर्णशुद्धता प्रगट होती है।
साध्य
क्रमशः शुद्धता होती जाती है। यह दोनों पर्यायें होनेसे वह
पर्यायार्थिकनयका विषय है। इस ग्रन्थमें कुछ स्थानों पर निश्चय
और व्यवहार शब्दोंका प्रयोग किया गया है, वहाँ उनका अर्थ
इसीप्रकार समझना चाहिए। व्यवहार (शुभभाव)का व्यय वह
साधक और निश्चय (शुद्धभाव)का उत्पाद वह साध्य
साध्य’’
नाम है; क्योंकि बाह्य संयोग-वियोग, शरीर, राग, देव-गुरु-
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मानता है कि अपने अन्तरसे ही अर्थात् अपने त्रैकालिक शुद्ध
चैतन्यस्वरूपके आश्रयसे ही अपनेको लाभ हो सकता है।
परमात्मा वह आत्माकी सम्पूर्ण शुद्ध दशा है। इनके अतिरिक्त
अन्य अनेक विषय इस ग्रन्थमें लिए गये हैं; उन सबको
सावधानीपूर्वक समझना आवश्यक है।
कारण है। इसके उपरान्त शास्त्राभ्यासमें निम्नोक्त बातोंका ध्यान
रहना चाहिये :
(२) सम्यग्दर्शन प्राप्त किये बिना किसी भी जीवको सच्चे व्रत,
क्रिया प्रथम पाँचवें गुणस्थानमें शुभभावरूपसे होती है।
दृष्टिमें वह हेय होनेसे वह उससे कदापि हितरूप धर्मका होना
नहीं मानता।
होगा ऐसा नहीं मानता; क्योंकि अनन्त वीतरागदेवोंने उसे बन्धका
कारण कहा है।
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नहीं कर सकता, उस पर प्रभाव नहीं डाल सकता, उसकी
सहायता या उपकार नहीं कर सकता; उसे मार या जिला नहीं
सकता
होने पर होता है, तथा वह श्रद्धान द्रव्यानुयोगका अभ्यास करनेसे
होता है। इसलिए प्रथम द्रव्यानुयोगके अनुसार श्रद्धान करके
सम्यग्दृष्टि बनना चाहिए।
किन्तु पहले गुणस्थानमें सच्चे व्रत, तप आदि नहीं होते।
प्रतिक्रमणादिक क्रियाएँ करते हैं; उन्हें छोड़ देंगे।
है, सत्का श्रवण या अध्ययन करनेसे जीवोंको कभी हानि हो ही
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अज्ञानी,
उपस्थित नहीं होता। यदि व्रत करनेवाले ज्ञानी होंगे तो
छद्मस्थदशामें वे व्रतका त्याग करके अशुभमें जायेंगे
है
यथासम्भव शुद्धि
संस्थाके कई ग्रन्थोंके और आत्मधर्म-पत्रके अनुवादक है; अच्छी
तरह अनुवाद करनेके लिए उन्हें धन्यवाद !
वि.सं. २०१७
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ग्रन्थरचनाका उद्देश्य और जीवोंकी इच्छा ................. १ ------ ३
गुरुशिक्षा सुननेका आदेश तथा संसार-परिभ्रमणका कारण २ ------ ४
इस ग्रन्थकी प्रामाणिकता और निगोदका दुःख ............ ३ ------ ५
निगोदका दुःख और वहाँसे निकलकर प्राप्तकी हुई पर्यायें .. ४ ------ ५
तिर्यंचगतिमें त्रस पर्यायकी दुर्लभता और उसका दुःख ..... ५ ------ ७
तिर्यंचगतिमें असंज्ञी तथा संज्ञीके दुःख ................... ६ ------ ८
तिर्यंचगतिमें निर्बलता तथा दुःख ........................ ७ ------ ९
तिर्यंचके दुःखकी अधिकता और
नरकोंके सेमल वृक्ष तथा सर्दी-गर्मीके दुःख .............. १० --- १२
नरकोंमें अन्य नारकी, असुरकुमार तथा प्यासका दुःख .... ११ --- १४
नरकोंकी भूख, आयु और मनुष्यगति प्राप्तिका वर्णन ...... १२ ---- १५
मनुष्यगतिमें गर्भ निवास तथा प्रसवकालके दुःख .......... १३ --- १६
मनुष्यगतिमें बाल, युवा और वृद्धावस्थाके दुःख .......... १४ --- १७
देवगतिमें भवनत्रिकका दुःख ............................ १५ ---- १८
देवगतिमें वैमानिक देवोंका दुःख ........................ १६ ---- १९
सार ............................................................ २०
पहली ढालका सारांश ........................................... २०
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पहली ढालका लक्षण-संग्रह ...................................... २४
वीतरागका लक्षण ............................................... २६
अन्तर-प्रदर्शन................................................... २७
पहली ढालकी प्रश्नावली ........................................ २८
अगृहीत-मिथ्यादर्शन और जीवतत्त्वका लक्षण ............ २ ---- ३१
जीवतत्त्वके विषयमें मिथ्यात्व (विपरीत श्रद्धा) ............ ३ ---- ३२
मिथ्यादृष्टिका शरीर तथा परवस्तुओं सम्बन्धी विचार ...... ४ ---- ३३
अजीव और आस्रवतत्त्वकी विपरीत श्रद्धा ............... ५ ---- ३४
बन्ध और संवरतत्त्वकी विपरीत श्रद्धा .................... ६ ---- ३६
निर्जरा और मोक्षकी विपरीत श्रद्धा तथा अगृहीत मिथ्याज्ञान ७ ---- ३७
अगृहीत मिथ्याचारित्र (कुचारित्र)का लक्षण ............... ८ ----- ३९
गृहीत मिथ्यादर्शन और कुगुरुके लक्षण .................. ९ ---- ४०
कुदेव (मिथ्यादेव)का स्वरूप ............................ १० --- ४१
कुधर्म और गृहीत मिथ्यादर्शनका संक्षिप्त लक्षण ........... ११-१२ ४२
गृहीत मिथ्याज्ञानका लक्षण .............................. १३ --- ४४
गृहीत मिथ्याचारित्रका लक्षण ............................ १४ ---- ४५
मिथ्याचारित्रके त्यागका तथा आत्महितमें लगनेका उपदेश . १५ --- ४६
दूसरी ढालका सारांश ........................................... ४७
दूसरी ढालका भेद-संग्रह ......................................... ४९
दूसरी ढालका लक्षण-संग्रह ...................................... ४९
अन्तर-प्रदर्शन................................................... ५०
दूसरी ढालकी प्रश्नावली......................................... ५१