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निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रका स्वरूप ................ २ ----- ५६
व्यवहार सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन)का स्वरूप ................ ३ ----- ५७
जीवके भेद, बहिरात्मा और उत्तम अन्तरात्माका लक्षण .... ४ ----- ५८
मध्यम और जघन्य अन्तरात्मा तथा सकल परमात्मा ....... ५ ---- ६०
निकल परमात्माका लक्षण तथा परमात्माके ध्यानका उपदेश ६ ---- ६२
अजीव–पुद्गल, धर्म और अधर्मद्रव्यके लक्षण तथा भेद .. ७ ---- ६३
आकाश, काल और आस्रवके लक्षण अथवा भेद ........ ८ ----- ६५
आस्रवत्यागका उपदेश और बन्ध, संवर, निर्जराका लक्षण ९ ---- ६७
मोक्षका लक्षण, व्यवहारसम्यक्त्वका लक्षण तथा कारण ... १० --- ७०
सम्यक्त्वके पच्चीस दोष तथा आठ गुण .................. ११ --- ७१
सम्यक्त्वके आठ अंग (गुण) और शंकादि आठ
छह अनायतन तथा तीन मूढ़ता दोष ..................... १४ ---- ७९
अव्रती समकितीकी देवों द्वारा पूजा और ज्ञानीकी
सर्वोत्तम सुख और सर्व धर्मका मूल...................... १६ ---- ८१
सम्यग्दर्शनके बिना ज्ञान और चारित्र का मिथ्यापना ....... १७ ---- ८३
तीसरी ढालका सारांश........................................... ८५
तीसरी ढालका भेद-संग्रह ........................................ ८७
तीसरी ढालका लक्षण-संग्रह ..................................... ८८
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तीसरी ढालकी प्रश्नावली ........................................ ९२
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानमें अन्तर ...................... २ ----- ९५
सम्यग्ज्ञानके भेद, परोक्ष और देशप्रत्यक्षके लक्षण ......... ३ ----- ९७
सकल-प्रत्यक्ष ज्ञानका लक्षण और ज्ञानकी महिमा ......... ४ ----- ९८
ज्ञानी और अज्ञानीके कर्मनाशके विषयमें अन्तर ........... ५ --- १००
ज्ञानके दोष और मनुष्यपर्याय आदिकी दुर्लभता ........... ६ --- १०१
सम्यग्ज्ञानकी महिमा और कारण......................... ७ --- १०३
सम्यग्ज्ञानकी महिमा और विषयेच्छा रोकनेका उपाय....... ८ --- १०५
पुण्य-पापमें हर्ष-विषादका निषेध और तात्पर्यकी बात ..... ९ --- १०६
सम्यक्चारित्रका समय और भेद तथा
अनर्थदंडव्रतके भेद और उनका लक्षण ................... १३ -- ११४
सामायिक, प्रोषध, भोगोपभोगपरिमाण और
चौथी ढालका सारांश ......................................... ११९
चौथी ढालका भेद-संग्रह....................................... १२१
चौथी ढालका लक्षण-संग्रह .................................... १२३
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चौथी ढालकी प्रश्नावली ...................................... १२७
१. अनित्य भावना ..................................... ३ --- १३२
२. अशरण भावना .................................... ४ --- १३३
३. संसार भावना ...................................... ५ --- १३४
४. एकत्व भावना ...................................... ६ --- १३५
५. अन्यत्व भावना ..................................... ७ --- १३६
६. अशुचि भावना ..................................... ८ --- १३८
७. आस्रव भावना ..................................... ९ --- १३९
८. संवर भावना ....................................... १० -- १४१
९. निर्जरा भावना ...................................... ११ -- १४२
१०. लोक भावना ..................................... १२ -- १४३
११. बोधिदुर्लभ भावना ................................ १३ -- १४४
१२. धर्म भावना....................................... १४ -- १४५
आत्मानुभवपूर्वक भावलिंगी मुनिका स्वरूप .............. १५ -- १४६
पाँचवीं ढालका सारांश ........................................ १४७
पाँचवीं ढालका भेद-संग्रह ..................................... १४८
पाँचवीं ढालका लक्षण-संग्रह ................................... १४९
अन्तर-प्रदर्शन................................................. १५१
पाँचवीं ढालकी प्रश्नावली ..................................... १५१
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परिग्रहत्याग महाव्रत, ईर्या समिति और भाषा समिति ...... २ --- १५५
एषणा, आदान-निक्षेपण और प्रतिष्ठापन समिति .......... ३ --- १५८
मुनियोंकी तीन गुप्ति और पाँच इन्द्रियों पर विजय ......... ४ --- १६०
मुनियोंके छह आवश्यक और शेष सात मूलगुण .......... ५ --- १६२
मुनियोंके शेष गुण तथा राग-द्वेषका अभाव ............... ६ --- १६३
मुनियोंके तप, धर्म, विहार तथा स्वरूपाचरणचारित्र ....... ७ --- १६६
स्वरूपाचरणचारित्र (शुद्धोपयोग)का वर्णन ................ ८ --- १६९
स्वरूपाचरणचारित्र (शुद्धोपयोग)का वर्णन ................ ९ --- १७१
स्वरूपाचरणचारित्रका लक्षण और निर्विकल्प ध्यान ....... १० -- १७२
स्वरूपाचरणचारित्र और अरिहन्तदशा .................... ११ -- १७४
सिद्धदशाका (सिद्धस्वरूप)का वर्णन ..................... १२ -- १७६
मोक्षदशाका वर्णन ..................................... १३ -- १७८
रत्नत्रयका फल और आत्महितमें प्रवृत्तिका उपदेश ........ १४ -- १७९
अन्तिम सीख .......................................... १५ -- १८१
ग्रन्थ-रचनाका काल और उसमें आधार .................. १६ -- १८३
छठवीं ढालका सारांश......................................... १८३
छठवीं ढालका भेद-संग्रह ....................................... १८५
छठवीं ढालका लक्षण-संग्रह ................................... १८७
अन्तर-प्रदर्शन.................................................. १८९
प्रश्नावली ..................................................... १८९
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(शिवस्वरूप) आनन्दस्वरूप [और ] (शिवकार) मोक्ष प्राप्त
करानेवाला है; [उसे मैं ] (त्रियोग) तीन योगसे (सम्हारिकैं)
सावधानी पूर्वक (नमहूँ ) नमस्कार करता हूँ ।
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(कहैं) कहते हैं ।
नाश करनेवाली तथा सुख देनेवाली शिक्षा देते हैं
द्वारा सावधानी पूर्वक उस वीतराग (१८ दोषरहित ) स्वरूप
केवलज्ञानको नमस्कार करता हूँ
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गुरुकी वह शिक्षा (मन) मनको (थिर) स्थिर (आन) करके (सुनो)
सुनो [कि इस संसारमें प्रत्येक प्राणी ] (अनादि) अनादिकालसे
(मोह महामद) मोहरूपी महामदिरा (पियो) पीकर, (आपको)
अपने आत्माको (भूल) भूलकर (वादि) व्यर्थ (भरमत) भटक रहा
है ।
शराबी मनुष्य तेज शराब पीकर, नशेमें चकचूर होकर, इधर-उधर
डगमगाकर गिरता है; उसीप्रकार यह जीव अनादि-कालसे मोहमें
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मरण धारण करके भटक रहा है
जैसी (मुनि) पूर्वाचार्योंने (कही) कही है [तदनुसार मैं भी ]
(कछु) थोड़ी-सी (कहूँ) कहता हूँ [कि इस जीवका ] (निगोद
मँझार) निगोदमें (एकेन्द्री) एकेन्द्रिय जीवके (तन) शरीर (धार)
धारण करके (अनंत) अनंत (काल) काल (वीत्यो) व्यतीत हुआ
है ।
है, तदनुसार मैं (दौलतराम) भी इस ग्रन्थमें थोड़ी-सी कहता हूँ ।
इस जीवने नरकसे भी निकृष्ट निगोदमें एकेन्द्रिय जीवके शरीर
धारण किये अर्थात् साधारण वनस्पतिकायमें उत्पन्न होकर वहाँ
अनंतकाल व्यतीत किया है
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मरा [तथा ] (दुखभार) दुःखोंके समूह (भरयो) सहन किये [और
वहाँसे ] (निकसि) निकलकर (भूमि) पृथ्वीकायिक जीव, (जल)
जलकायिक जीव, (पावक) अग्निकायिक जीव (भयो) हुआ, तथा
(पवन) वायुकायिक जीव [और ] (प्रत्येक वनस्पति) प्रत्येक
वनस्पतिकायिक जीव (थयो) हुआ ।
जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक तथा प्रत्येक वनस्पति-
कायिक जीव
प्राप्त की और मोक्ष गये
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उसीप्रकार (त्रसतणी) त्रसकी (पर्याय) पर्याय [भी बड़ी
कठिनाईसे ] (लही) प्राप्त हुई । [वहाँ भी ] (लट) इल्ली
(पिपील) चींटी (अलि) भँवरा (आदि) इत्यादिके (शरीर) शरीर
(धर धर ) बारम्बार धारण करके (मरयो) मरणको प्राप्त हुआ
[और ] (बहु पीर) अत्यन्त पीड़ा (सही) सहन की ।
कठिनतासे प्राप्त की । उस त्रस पर्यायमें भी लट (इल्ली) आदि
दो इन्द्रिय जीव, चींटी आदि तीन इन्द्रिय जीव और भँवरा
आदि चार इन्द्रिय जीवके शरीर धारण करके मरा और अनेक
दुःख सहन किये
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(निपट) अत्यन्त (अज्ञानी) मूर्ख (थयो) हुआ [और ] (सैनी) संज्ञी
[भी ] (ह्वै) हुआ [तो ] (सिंहादिक) सिंह आदि (क्रूर) क्रूर जीव
(ह्वै) होकर (निबल) अपनेसे निर्बल, (भूर) अनेक (पशु) तिर्यंच
(हति) मार-मारकर (खाये) खाये ।
सिंह आदि क्रूर-निर्दय होकर, अनेक निर्बल जीवोंको मार-मारकर
खाया तथा घोर अज्ञानी हुआ
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असमर्थ होनेसे (सबलनि करि) अपनेसे बलवान प्राणियों द्वारा
(खायो) खाया गया [और ] (छेदन) छेदा जाना, (भेदन) भेदा
जाना, (भूख) भूख (पियास) प्यास, (भार-वहन) बोझ ढोना,
(हिम) ठण्ड (आतप) गर्मी [आदिके ] (त्रास) दुःख सहन किये ।
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प्राणियों द्वारा खाया गया; तथा उस तिर्यंचगतिमें छेदा जाना,
भेदा जाना, भूख, प्यास, बोझ ढोना, ठण्ड, गर्मी आदिके दुःख
भी सहन किये
दुःख सहन किये; [वे ] (कोटि) करोड़ों (जीभतैं) जीभोंसे (भने न
जात) नहीं कहे जा सकते । [इस कारण ] (अति संक्लेश) अत्यन्त
बुरे (भावतैं) परिणामोंसे (मरयो) मरकर (घोर) भयानक
(श्वभ्रसागर) नरकरूपी समुद्र (परयो) जा गिरा ।
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जिसे बड़ी कठिनतासे पार किया जा सके, ऐसे समुद्रसमान घोर
नरकमें जा पहुँचा
[वैतरणी नामकी नदी ] है जो (कृमि-कुल-कलित) छोटे-छोटे क्षुद्र
मारें, तब भी उतनी वेदना न हो तथा उस नरकमें रक्त, मवाद
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एक वैतरणी नदी है, जिसमें शांतिलाभकी इच्छासे नारकी जीव
कूदते हैं; किन्तु वहाँ तो पीड़ा अधिक भयंकर हो जाती है ।
कारण है । )
सेमलके वृक्ष [हैं, जो ] (देह) शरीरको (असि ज्यों) तलवारकी
भाँति (विदारैं) चीर देते हैं, [और ] (तत्र) वहाँ [उस नरकमें ]
(ऐसी) ऐसी (शीत) ठण्ड [और ] (उष्णता) गरमी (थाय) होती
है [कि ] (मेरु समान) मेरु पर्वतके बराबर (लोह) लोहेका गोला
भी (गलि) गल (जाय) सकता है ।
तलवारकी धारके समान तीक्ष्ण होते
हैं । जब दुःखी नारकी छाया
मिलनेकी आशा लेकर उस वृक्षके
नीचे जाता है, तब उस वृक्षके पत्ते
गिरकर उसके शरीरको चीर देते
हैं । उन नरकोंमें इतनी गरमी होती
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भी पिघल
ण लहदि तलप्पदेशं, विलीयदे मयणखण्डं वा ।।
ण लहदि तलं पदेशं, विलीयदे लवणखण्डं वा ।।
उसी प्रकार सुमेरु पर्वतके बराबर लोहेका गोला गर्म बिलमें फें का
जाये तो वह बीचमें ही पिघलने लगता है
बन जाता है,) उसीप्रकार सुमेरुके बराबर लोहेका गोला ठण्डे
बिलमें फें का जाये तो बीचमें ही गलने लगता है
भूमि गर्म तथा नीचे तीसरा भाग ठण्डा है
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चिकनाहट कम हो जानेसे उसका स्कंध बिखर जाता है
टुकड़े (करें) कर डालते हैं [और ] (प्रचण्ड) अत्यन्त (दुष्ट) क्रूर
(असुर) असुरकुमार जातिके देव [एक-दूसरेके साथ ] (भिड़ावैं)
लड़ाते हैं; [तथा इतनी ] (प्यास) प्यास [लगती है कि ]
(सिन्धुनीर तैं) समुद्र भर पानी पीनेसे भी (न जाय) शांत न हो;
(तो पण) तथापि (एक बूँद) एक बूँद भी (न लहाय) नहीं
मिलती ।
एक-दूसरेके शरीरके टुकड़े-टुकड़े कर डालते हैं; तथापि उनके
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पहले, दूसरे तथा तीसरे नरक तक जाकर वहाँकी तीव्र यातनाओंमें
पड़े हुए नारकियोंको अपने अवधिज्ञानके द्वारा परस्पर बैर
बतलाकर अथवा क्रूरता और कुतूहलसे आपसमें लड़ाते हैं और
स्वयं आनन्दित होते हैं । उन नारकी जीवोंको इतनी महान प्यास
लगती है कि मिल जाये तो पूरे महासागरका जल भी पी जायें;
तथापि तृषा शांत न हो; किन्तु पीनेके लिये जलकी एक बूँद भी
नहीं मिलती
कर देनेसे एक पिण्डरूप बन जाता है
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जाये; तथापि (भूख) क्षुधा (न मिटै) शांत न हो, [परन्तु खानेके
लिए ] (कणा) एक दाना भी (न लहाय) नहीं मिलता । (ये दुख)
ऐसे दुःख (बहु सागर लौं) अनेक सागरोपम काल तक (सहै)
सहन करता है, (करम जोगतैं) किसी विशेष शुभकर्मके योगसे
(नरगति) मनुष्यगति (लहै) प्राप्त करता है ।
तथापि क्षुधा शांत न हो; परन्तु वहाँ खानेके लिए एक दाना भी
नहीं मिलता । उन नरकोंमें यह जीव ऐसे अपार दुःख दीर्घकाल
(कमसे कम दस हजार वर्ष और अधिकसे अधिक तेतीस सागरोपम
काल तक) भोगता है । फि र किसी शुभकर्मके उदयसे यह जीव
मनुष्यगति प्राप्त करता है