Chha Dhala (Hindi). Teesaree dhal vishay-suchi; Chauthee dhal vishay-suchi; Panchavee dhal vishay-suchi; Chhathavee dhal vishay-suchi; Pahalee Dhal; MangalAcharan; Gatha: 1: granth rachanAkA uddeshya aur jeevokee IchA,2: gurushikSha sunanekA Adesh tathA sansar-paribhramankA kAran,3: is granthkee pramAnikatA aur nigodakA dukha,4: nigodakA dukha aur vahase nikalkar prApt hui paryAye,5: tiryanchgatime trasparyaykee durlabhatA aur usakA dukh,6: tiryanchgatime asaNgyeeke dukh,7: tiryanchgatime nirbalatA tathA dukh,8: tiryanchgatime dukhakI adhikatA aur narakgatikI praptikA kAran,9: narakokee bhoomee aur nadiyokA varan,10: narakake semal vrukSh tathA shardee-garmeeke dukh,11: narkome anya nArkee, asurkumAr tathA pyAskA varan,12: narakoki bhoomee, Ayu aur manushyagatikee prAptikA varan,13: manushyagatime garbhanivAs tathA prasavkAlke dukha (Dhal 1).

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तीसरी ढाल
आत्महित, सच्चा सुख तथा दो प्रकार से मोक्षमार्गका कथन १ ----- ५३
निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रका स्वरूप ................ २ ----- ५६
व्यवहार सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन)का स्वरूप ................ ३ ----- ५७
जीवके भेद, बहिरात्मा और उत्तम अन्तरात्माका लक्षण .... ४ ----- ५८
मध्यम और जघन्य अन्तरात्मा तथा सकल परमात्मा ....... ५ ---- ६०
निकल परमात्माका लक्षण तथा परमात्माके ध्यानका उपदेश ६ ---- ६२
अजीव–पुद्गल, धर्म और अधर्मद्रव्यके लक्षण तथा भेद .. ७ ---- ६३
आकाश, काल और आस्रवके लक्षण अथवा भेद ........ ८ ----- ६५
आस्रवत्यागका उपदेश और बन्ध, संवर, निर्जराका लक्षण ९ ---- ६७
मोक्षका लक्षण, व्यवहारसम्यक्त्वका लक्षण तथा कारण ... १० --- ७०
सम्यक्त्वके पच्चीस दोष तथा आठ गुण .................. ११ --- ७१
सम्यक्त्वके आठ अंग (गुण) और शंकादि आठ
दोषोंका लक्षण .................................. १२-१३ ७३
मद नामक आठ दोष ................................... १३-१४ ७७
छह अनायतन तथा तीन मूढ़ता दोष ..................... १४ ---- ७९
अव्रती समकितीकी देवों द्वारा पूजा और ज्ञानीकी
गृहस्थपनेमें अप्रीति............................... १५ ---- ८०
सम्यक्त्वकी महिमा, सम्यग्दृष्टिके अनुत्पत्ति स्थान तथा
सर्वोत्तम सुख और सर्व धर्मका मूल...................... १६ ---- ८१
सम्यग्दर्शनके बिना ज्ञान और चारित्र का मिथ्यापना ....... १७ ---- ८३
तीसरी ढालका सारांश........................................... ८५
तीसरी ढालका भेद-संग्रह ........................................ ८७
तीसरी ढालका लक्षण-संग्रह ..................................... ८८

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अन्तर-प्रदर्शन................................................... ९१
तीसरी ढालकी प्रश्नावली ........................................ ९२
चौथी ढाल
सम्यग्ज्ञानका लक्षण और उसका समय ................... १ ----- ९४
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानमें अन्तर ...................... २ ----- ९५
सम्यग्ज्ञानके भेद, परोक्ष और देशप्रत्यक्षके लक्षण ......... ३ ----- ९७
सकल-प्रत्यक्ष ज्ञानका लक्षण और ज्ञानकी महिमा ......... ४ ----- ९८
ज्ञानी और अज्ञानीके कर्मनाशके विषयमें अन्तर ........... ५ --- १००
ज्ञानके दोष और मनुष्यपर्याय आदिकी दुर्लभता ........... ६ --- १०१
सम्यग्ज्ञानकी महिमा और कारण......................... ७ --- १०३
सम्यग्ज्ञानकी महिमा और विषयेच्छा रोकनेका उपाय....... ८ --- १०५
पुण्य-पापमें हर्ष-विषादका निषेध और तात्पर्यकी बात ..... ९ --- १०६
सम्यक्चारित्रका समय और भेद तथा
अहिंसाणुव्रत और सत्याणुव्रतका लक्षण ........... १० -- १०८
अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत, परिग्रहपरिमाणाणुव्रत
तथा दिग्व्रतका लक्षण ............................ ११ -- ११०
देशव्रत (देशावगाशिक) नामक गुणव्रतका लक्षण ......... १२ -- ११३
अनर्थदंडव्रतके भेद और उनका लक्षण ................... १३ -- ११४
सामायिक, प्रोषध, भोगोपभोगपरिमाण और
अतिथिसंविभागव्रत .............................. १४ -- ११६
निरतिचार श्रावक व्रत पालन करनेका फल ............... १५ -- ११७
चौथी ढालका सारांश ......................................... ११९
चौथी ढालका भेद-संग्रह....................................... १२१
चौथी ढालका लक्षण-संग्रह .................................... १२३

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चौथी ढालका अन्तर-प्रदर्शन ................................... १२६
चौथी ढालकी प्रश्नावली ...................................... १२७
पाँचवीं ढाल
भावनाओंके चिंतवनका कारण, उसके
अधिकारी और उसका फल ...................... १ --- १३०
भावनाओंका फल और मोक्षसुखकी प्राप्तिका समय ....... २ --- १३१
१. अनित्य भावना ..................................... ३ --- १३२
२. अशरण भावना .................................... ४ --- १३३
३. संसार भावना ...................................... ५ --- १३४
४. एकत्व भावना ...................................... ६ --- १३५
५. अन्यत्व भावना ..................................... ७ --- १३६
६. अशुचि भावना ..................................... ८ --- १३८
७. आस्रव भावना ..................................... ९ --- १३९
८. संवर भावना ....................................... १० -- १४१
९. निर्जरा भावना ...................................... ११ -- १४२
१०. लोक भावना ..................................... १२ -- १४३
११. बोधिदुर्लभ भावना ................................ १३ -- १४४
१२. धर्म भावना....................................... १४ -- १४५
आत्मानुभवपूर्वक भावलिंगी मुनिका स्वरूप .............. १५ -- १४६
पाँचवीं ढालका सारांश ........................................ १४७
पाँचवीं ढालका भेद-संग्रह ..................................... १४८
पाँचवीं ढालका लक्षण-संग्रह ................................... १४९
अन्तर-प्रदर्शन................................................. १५१
पाँचवीं ढालकी प्रश्नावली ..................................... १५१

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छठवीं ढाल
अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य महाव्रतके लक्षण ........ १ --- १५३
परिग्रहत्याग महाव्रत, ईर्या समिति और भाषा समिति ...... २ --- १५५
एषणा, आदान-निक्षेपण और प्रतिष्ठापन समिति .......... ३ --- १५८
मुनियोंकी तीन गुप्ति और पाँच इन्द्रियों पर विजय ......... ४ --- १६०
मुनियोंके छह आवश्यक और शेष सात मूलगुण .......... ५ --- १६२
मुनियोंके शेष गुण तथा राग-द्वेषका अभाव ............... ६ --- १६३
मुनियोंके तप, धर्म, विहार तथा स्वरूपाचरणचारित्र ....... ७ --- १६६
स्वरूपाचरणचारित्र (शुद्धोपयोग)का वर्णन ................ ८ --- १६९
स्वरूपाचरणचारित्र (शुद्धोपयोग)का वर्णन ................ ९ --- १७१
स्वरूपाचरणचारित्रका लक्षण और निर्विकल्प ध्यान ....... १० -- १७२
स्वरूपाचरणचारित्र और अरिहन्तदशा .................... ११ -- १७४
सिद्धदशाका (सिद्धस्वरूप)का वर्णन ..................... १२ -- १७६
मोक्षदशाका वर्णन ..................................... १३ -- १७८
रत्नत्रयका फल और आत्महितमें प्रवृत्तिका उपदेश ........ १४ -- १७९
अन्तिम सीख .......................................... १५ -- १८१
ग्रन्थ-रचनाका काल और उसमें आधार .................. १६ -- १८३
छठवीं ढालका सारांश......................................... १८३
छठवीं ढालका भेद-संग्रह ....................................... १८५
छठवीं ढालका लक्षण-संग्रह ................................... १८७
अन्तर-प्रदर्शन.................................................. १८९
प्रश्नावली ..................................................... १८९

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श्रीसद्गुरुदेवाय नमः
अध्यात्मप्रेमी कविवर पण्डित दौलतरामजी कृत
छहढाला
(सुबोध टीका)
पहली ढाल
मंगलाचरण
(सोरठा)
तीन भुवनमें सार, वीतराग विज्ञानता
शिवस्वरूप शिवकार, नमहूँ त्रियोग सम्हारिकैं ।।।।
अन्वयार्थ :(वीतराग ) राग-द्वेष रहित, (विज्ञानता)
केवलज्ञान, (तीन भुवनमें) तीन लोकमें, (सार) उत्तम वस्तु
(शिवस्वरूप) आनन्दस्वरूप [और ] (शिवकार) मोक्ष प्राप्त
करानेवाला है; [उसे मैं ] (त्रियोग) तीन योगसे (सम्हारिकैं)
सावधानी पूर्वक (नमहूँ ) नमस्कार करता हूँ ।
नोट– इस ग्रन्थमें सर्वत्र ( ) यह चिह्न मूल ग्रन्थके पदका है और
[ ] इस चिह्न का प्रयोग संधि मिलानेके लिये किया गया है

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भावार्थ : राग-द्वेषरहित ‘‘केवलज्ञान’’ ऊर्ध्व, मध्य
और अधो– इन तीन लोकमें उत्तम, आनन्दस्वरूप तथा मोक्षदायक

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अन्वयार्थ :(त्रिभुवनमें) तीनों लोकमें (जे ) जो
(अनन्त) अनन्त (जीव) प्राणी [हैं वे ] (सुख) सुखकी (चाहैं) इच्छा
करते हैं और (दुखतैं) दुःखसे (भयवन्त) डरते हैं, (तातैं) इसलिये
(गुरु) आचार्य (करुणा) दया (धार) करके (दुखहारी) दुःखका
नाश करनेवाली और (सुखकार) सुखको देनेवाली (सीख) शिक्षा
(कहैं) कहते हैं ।
भावार्थ :तीन लोकमें जो अनन्त जीव (प्राणी) हैं, वे
दुःखसे डरते हैं और सुखको चाहते हैं, इसलिये आचार्य दुःखका
नाश करनेवाली तथा सुख देनेवाली शिक्षा देते हैं
।।।।
है; इसलिये मैं (दौलतराम) अपने त्रियोग अर्थात् मन-वचन-काय
द्वारा सावधानी पूर्वक उस वीतराग (१८ दोषरहित ) स्वरूप
केवलज्ञानको नमस्कार करता हूँ
।।
ग्रन्थ-रचनाका उद्देश्य और जीवोंकी इच्छा
जे त्रिभुवनमें जीव अनन्त, सुख चाहैं दुखतैं भयवन्त
तातैं दुखहारी सुखकार, कहैं सीख गुरु करुणा धार ।।।।

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अन्वयार्थ :(भवि) हे भव्य जीवो ! (जो) यदि
(अपनो) अपना (कल्यान) हित (चाहो )चाहते हो [तो ] (ताहि)
गुरुकी वह शिक्षा (मन) मनको (थिर) स्थिर (आन) करके (सुनो)
सुनो [कि इस संसारमें प्रत्येक प्राणी ] (अनादि) अनादिकालसे
(मोह महामद) मोहरूपी महामदिरा (पियो) पीकर, (आपको)
अपने आत्माको (भूल) भूलकर (वादि) व्यर्थ (भरमत) भटक रहा
है ।
भावार्थ :हे भद्र प्राणियों ! यदि अपना हित चाहते हो
तो, अपने मनको स्थिर करके यह शिक्षा सुनो । जिस प्रकार कोई
शराबी मनुष्य तेज शराब पीकर, नशेमें चकचूर होकर, इधर-उधर
डगमगाकर गिरता है; उसीप्रकार यह जीव अनादि-कालसे मोहमें
गुरुशिक्षा सुननेका आदेश तथा संसार-परिभ्रमणका कारण
ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्यान
मोह महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि ।।।।

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फँसकर, अपनी आत्माके स्वरूपको भूलकर चारों गतियोंमें जन्म-
मरण धारण करके भटक रहा है
।।।।
इस ग्रन्थकी प्रामाणिकता और निगोदका दुःख
तास भ्रमनकी है बहु कथा, पै कछु कहूँ कही मुनि यथा
काल अनन्त निगोद मँझार, बीत्यो एकेन्द्री तन धार ।।।।
अन्वयार्थ :(तास) उस संसारमें (भ्रमनकी)
भटकनेकी (कथा) कथा (बहु) बड़ी (है) है (पै) तथापि (यथा)
जैसी (मुनि) पूर्वाचार्योंने (कही) कही है [तदनुसार मैं भी ]
(कछु) थोड़ी-सी (कहूँ) कहता हूँ [कि इस जीवका ] (निगोद
मँझार) निगोदमें (एकेन्द्री) एकेन्द्रिय जीवके (तन) शरीर (धार)
धारण करके (अनंत) अनंत (काल) काल (वीत्यो) व्यतीत हुआ
है ।
भावार्थ :संसारमें जन्म-मरण धारण करनेकी कथा बहुत
बड़ी है; तथापि जिस प्रकार पूर्वाचार्योंने अपने अन्य ग्रन्थोंमें कही
है, तदनुसार मैं (दौलतराम) भी इस ग्रन्थमें थोड़ी-सी कहता हूँ ।
इस जीवने नरकसे भी निकृष्ट निगोदमें एकेन्द्रिय जीवके शरीर
धारण किये अर्थात् साधारण वनस्पतिकायमें उत्पन्न होकर वहाँ
अनंतकाल व्यतीत किया है
।।।।
निगोदका दुःख और वहाँसे निकलकर प्राप्तकी हुई पर्यायें
एक श्वासमें अठदस बार, जनम्यो मरयो भरयो दुखभार
निकसि भूमि जलपावक भयो, पवन प्रत्येक वनस्पति थयो ।।।।

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अन्वयार्थ :[निगोदमें यह जीव ] (एक श्वासमें) एक
साँसमें (अठदस बार) अठारह बार (जनम्यो) जनमा और (मरयो)
मरा [तथा ] (दुखभार) दुःखोंके समूह (भरयो) सहन किये [और
वहाँसे ] (निकसि) निकलकर (भूमि) पृथ्वीकायिक जीव, (जल)
जलकायिक जीव, (पावक) अग्निकायिक जीव (भयो) हुआ, तथा
(पवन) वायुकायिक जीव [और ] (प्रत्येक वनस्पति) प्रत्येक
वनस्पतिकायिक जीव (थयो) हुआ ।
भावार्थ :निगोद [साधारण वनस्पति ]में इस जीवने एक
श्वासमात्र (जितने) समयमें अठारह बार जन्म और मरण करके
भयंकर दुःख सहन किये हैं, और वहाँसे निकलकर पृथ्वीकायिक,
जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक तथा प्रत्येक वनस्पति-
कायिक जीव
के रूपमें उत्पन्न हुआ है ।।।।
१ नया शरीर धारण करना वर्तमान शरीरका त्याग
३ निगोदसे निकलकर ऐसी पर्यायें धारण करनेका कोई निश्चित क्रम
नहीं है; निगोदसे एकदम मनुष्य पर्याय भी प्राप्त हो सकती है जैसे
कि–भरत चक्रवर्ती के ३२ हजार पुत्रों ने निगोदसे सिधी मनुष्य पर्याय
प्राप्त की और मोक्ष गये

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तिर्यंचगतिमें त्रसपर्यायकी दुर्लभता और उसका दुःख
दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणि, त्यों पर्याय लही त्रसतणी
लट पिपील अलि आदि शरीर, धर-धर मरयो सही बहु पीर ।।।।
अन्वयार्थ :(ज्यों) जिस प्रकार (चिन्तामणि)
चिन्तामणिरत्न (दुर्लभ) कठिनाईसे (लहि) प्राप्त होता है (त्यों)
उसीप्रकार (त्रसतणी) त्रसकी (पर्याय) पर्याय [भी बड़ी
कठिनाईसे ] (लही) प्राप्त हुई । [वहाँ भी ] (लट) इल्ली
(पिपील) चींटी (अलि) भँवरा (आदि) इत्यादिके (शरीर) शरीर
(धर धर ) बारम्बार धारण करके (मरयो) मरणको प्राप्त हुआ
[और ] (बहु पीर) अत्यन्त पीड़ा (सही) सहन की ।
भावार्थ :जिस प्रकार चिन्तामणिरत्न बड़ी कठिनाईसे
प्राप्त होता है; उसीप्रकार इस जीवने त्रसकी पर्याय बड़ी
कठिनतासे प्राप्त की । उस त्रस पर्यायमें भी लट (इल्ली) आदि
दो इन्द्रिय जीव, चींटी आदि तीन इन्द्रिय जीव और भँवरा
आदि चार इन्द्रिय जीवके शरीर धारण करके मरा और अनेक
दुःख सहन किये
।।।।

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तिर्यंचगतिमें असंज्ञी तथा संज्ञीके दुःख
कबहूँ पंचेन्द्रिय पशु भयो, मन बिन निपट अज्ञानी थयो
सिंहादिक सैनी ह्वै क्रूर, निबल पशु हति खाये भूर ।।।।
अन्वयार्थ :[यह जीव ] (कबहूँ) कभी (पंचेन्द्रिय)
पंचेन्द्रिय (पशु) तिर्यंच (भयो) हुआ [तो ] (मन बिन) मनके बिना
(निपट) अत्यन्त (अज्ञानी) मूर्ख (थयो) हुआ [और ] (सैनी) संज्ञी
[भी ] (ह्वै) हुआ [तो ] (सिंहादिक) सिंह आदि (क्रूर) क्रूर जीव
(ह्वै) होकर (निबल) अपनेसे निर्बल, (भूर) अनेक (पशु) तिर्यंच
(हति) मार-मारकर (खाये) खाये ।
भावार्थ :यह जीव कभी पंचेन्द्रिय असंज्ञी पशु भी हुआ
तो मनरहित होनेसे अत्यन्त अज्ञानी रहा और कभी संज्ञी हुआ तो
सिंह आदि क्रूर-निर्दय होकर, अनेक निर्बल जीवोंको मार-मारकर
खाया तथा घोर अज्ञानी हुआ
।।।।

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तिर्यंचगतिमें निर्बलता तथा दुःख
कबहूँ आप भयो बलहीन, सबलनि करि खायो अतिदीन
छेदन भेदन भूख पियास, भार-वहन हिम आतप त्रास ।।।।
अन्वयार्थ :[यह जीव तिर्यंच गतिमें ] (कबहूँ) कभी
(आप) स्वयं (बलहीन) निर्बल (भयो) हुआ [तो ] (अतिदीन)
असमर्थ होनेसे (सबलनि करि) अपनेसे बलवान प्राणियों द्वारा
(खायो) खाया गया [और ] (छेदन) छेदा जाना, (भेदन) भेदा
जाना, (भूख) भूख (पियास) प्यास, (भार-वहन) बोझ ढोना,
(हिम) ठण्ड (आतप) गर्मी [आदिके ] (त्रास) दुःख सहन किये ।
भावार्थ :यह जीव तिर्यंचगतिमें किसी समय निर्बल

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पशु हुआ तो स्वयं असमर्थ होनेके कारण अपनेसे बलवान
प्राणियों द्वारा खाया गया; तथा उस तिर्यंचगतिमें छेदा जाना,
भेदा जाना, भूख, प्यास, बोझ ढोना, ठण्ड, गर्मी आदिके दुःख
भी सहन किये
।।।।
तिर्यंचके दुःखकी अधिकता और नरक गतिकी प्राप्तिका कारण
बध बंधन आदिक दुख घने, कोटि जीभतैं जात न भने
अति संक्लेश भावतैं मरयो, घोर श्वभ्रसागरमें परयो ।।।।
अन्वयार्थ :[इस तिर्यंचगतिमें जीवने अन्य भी ] (बध)
मारा जाना, (बंधन) बँधना (आदिक) आदि (घने) अनेक (दुख)
दुःख सहन किये; [वे ] (कोटि) करोड़ों (जीभतैं) जीभोंसे (भने न
जात) नहीं कहे जा सकते । [इस कारण ] (अति संक्लेश) अत्यन्त
बुरे (भावतैं) परिणामोंसे (मरयो) मरकर (घोर) भयानक
(श्वभ्रसागर) नरकरूपी समुद्र (परयो) जा गिरा ।
भावार्थ :इस जीवने तिर्यंचगतिमें मारा जाना, बँधना
आदि अनेक दुःख सहन किये; जो करोड़ों जीभोंसे भी नहीं कहे

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जा सकते और अंतमें इतने बुरे परिणामों (आर्तध्यान)से मरा कि
जिसे बड़ी कठिनतासे पार किया जा सके, ऐसे समुद्रसमान घोर
नरकमें जा पहुँचा
।।।।
नरकोंकी भूमि और नदियोंका वर्णन
तहाँ भूमि परसत दुख इसो, बिच्छू सहस डसे नहिं तिसो
तहाँ राध-श्रोणितवाहिनी, कृमिकुलकलित, देहदाहिनी ।।।।
अन्वयार्थ :(तहाँ) उस नरकमें (भूमि) धरती
(परसत) स्पर्श करनेसे (इसो) ऐसा (दुख) दुःख होता है [कि ]
(सहस) हजारों (बिच्छू) बिच्छू (डसे) डंक मारें; तथापि (नहिं
तिसो) उसके समान दुःख नहीं होता [तथा ] (तहाँ) वहाँ
[नरकमें ] (राध-श्रोणितवाहिनी) रक्त और मवाद बहानेवाली नदी
[वैतरणी नामकी नदी ] है जो (कृमि-कुल-कलित) छोटे-छोटे क्षुद्र
कीड़ोंसे भरी है तथा (देह-दाहिनी) शरीरमें दाह उत्पन्न करनेवाली
है ।
भावार्थ :उन नरकोंकी भूमिका स्पर्शमात्र करनेसे
नारकियोंको इतनी वेदना होती है कि हजारों बिच्छू एकसाथ डंक
मारें, तब भी उतनी वेदना न हो तथा उस नरकमें रक्त, मवाद

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और छोटे-छोटे कीड़ोंसे भरी हुई, शरीरमें दाह उत्पन्न करनेवाली
एक वैतरणी नदी है, जिसमें शांतिलाभकी इच्छासे नारकी जीव
कूदते हैं; किन्तु वहाँ तो पीड़ा अधिक भयंकर हो जाती है ।
(जीवोंको दुःख होनेका मूलकारण तो उनकी शरीरके साथ
ममता तथा एकत्वबुद्धि ही है; धरतीका स्पर्श आदि तो मात्र निमित्त
कारण है । )
।।१०।।
नरकोंके सेमल वृक्ष तथा सर्दी-गर्मीके दुःख
सेमर तरु दलजुत असिपत्र, असि ज्यों देह विदारैं तत्र
मेरु समान लोह गलि जाय, ऐसी शीत उष्णता थाय ।।१०।।
अन्वयार्थ :(तत्र) उन नरकोंमें (असिपत्र ज्यों)
तलवारकी धारकी भाँति तीक्ष्ण (दलजुत) पत्तोंवाले (सेमर तरु)
सेमलके वृक्ष [हैं, जो ] (देह) शरीरको (असि ज्यों) तलवारकी
भाँति (विदारैं) चीर देते हैं, [और ] (तत्र) वहाँ [उस नरकमें ]
(ऐसी) ऐसी (शीत) ठण्ड [और ] (उष्णता) गरमी (थाय) होती
है [कि ] (मेरु समान) मेरु पर्वतके बराबर (लोह) लोहेका गोला
भी (गलि) गल (जाय) सकता है ।
भावार्थ :उन नरकोंमें
अनेक सेमलके वृक्ष हैं, जिनके पत्ते
तलवारकी धारके समान तीक्ष्ण होते
हैं । जब दुःखी नारकी छाया
मिलनेकी आशा लेकर उस वृक्षके
नीचे जाता है, तब उस वृक्षके पत्ते
गिरकर उसके शरीरको चीर देते
हैं । उन नरकोंमें इतनी गरमी होती

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है कि एक लाख योजन ऊँचे सुमेरु पर्वतके बराबर लोहेका पिण्ड
भी पिघल
जाता है; तथा इतनी ठण्ड पड़ती है कि सुमेरुके समान
लोहेका गोला भी गल जाता है । जिस प्रकार लोकमें कहा जाता
है कि ठण्डके मारे हाथ अकड़ गये, हिम गिरनेसे वृक्ष या अनाज
मेरुसम लोहपिण्डं, सीदं उण्हे विलम्मि पक्खितं ।
ण लहदि तलप्पदेशं, विलीयदे मयणखण्डं वा ।।
मेरुसम लोहपिण्डं, उण्हं सीदे विलम्मि पक्खितं ।
ण लहदि तलं पदेशं, विलीयदे लवणखण्डं वा ।।
अर्थ–जिस प्रकार गर्मीमें मोम पिघल जाता है; (बहने लगता है;)
उसी प्रकार सुमेरु पर्वतके बराबर लोहेका गोला गर्म बिलमें फें का
जाये तो वह बीचमें ही पिघलने लगता है
तथा जिस प्रकार ठण्ड और बरसातमें नमक गल जाता है, (पानी
बन जाता है,) उसीप्रकार सुमेरुके बराबर लोहेका गोला ठण्डे
बिलमें फें का जाये तो बीचमें ही गलने लगता है
पहले, दूसरे,
तीसरे और चौथे नरककी भूमि गर्म है; पाँचवें नरक में ऊ परकी
भूमि गर्म तथा नीचे तीसरा भाग ठण्डा है
छठवें तथा सातवें
नरककी भूमि ठण्डी है

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जल गया आदि । यानी अतिशय प्रचंड ठण्डके कारण लोहेमें
चिकनाहट कम हो जानेसे उसका स्कंध बिखर जाता है
।।१०।।
नरकोंमें अन्य नारकी, असुरकुमार तथा प्यासका दुःख
तिल-तिल करैं देहके खण्ड, असुर भिड़ावैं दुष्ट प्रचण्ड
सिन्धुनीरतैं प्यास न जाय, तोपण एक न बूँद लहाय ।।११।।
अन्वयार्थ :[इन नरकोंमें नारकी जीव एक-दूसरेके ]
(देहके) शरीरके (तिल-तिल) तिल्लीके दाने बराबर (खण्ड)
टुकड़े (करें) कर डालते हैं [और ] (प्रचण्ड) अत्यन्त (दुष्ट) क्रूर
(असुर) असुरकुमार जातिके देव [एक-दूसरेके साथ ] (भिड़ावैं)
लड़ाते हैं; [तथा इतनी ] (प्यास) प्यास [लगती है कि ]
(सिन्धुनीर तैं) समुद्र भर पानी पीनेसे भी (न जाय) शांत न हो;
(तो पण) तथापि (एक बूँद) एक बूँद भी (न लहाय) नहीं
मिलती ।
भावार्थ :उन नरकोंमें नारकी एक-दूसरेको दुःख देते
रहते हैं अर्थात् कुत्तोंकी भाँति हमेशा आपसमें लड़ते रहते हैं । वे
एक-दूसरेके शरीरके टुकड़े-टुकड़े कर डालते हैं; तथापि उनके

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शरीर बारम्बार पारेकी भाँति बिखरकर फि र जुड़ जाते हैं ।
संक्लिष्ट परिणामवाले अम्बरीष आदि जातिके असुरकुमार देव
पहले, दूसरे तथा तीसरे नरक तक जाकर वहाँकी तीव्र यातनाओंमें
पड़े हुए नारकियोंको अपने अवधिज्ञानके द्वारा परस्पर बैर
बतलाकर अथवा क्रूरता और कुतूहलसे आपसमें लड़ाते हैं और
स्वयं आनन्दित होते हैं । उन नारकी जीवोंको इतनी महान प्यास
लगती है कि मिल जाये तो पूरे महासागरका जल भी पी जायें;
तथापि तृषा शांत न हो; किन्तु पीनेके लिये जलकी एक बूँद भी
नहीं मिलती
।।११।।
नरकोंकी भूख, आयु और मनुष्यगति प्राप्तिका वर्णन
तीनलोकको नाज जु खाय, मिटै न भूख कणा न लहाय
ये दुख बहु सागर लौं सहै, करम जोगतैं नरगति लहै ।।१२।।
अन्वयार्थ :[उन नरकोंमें इतनी भूख लगती है कि ]
पारा एक धातुके रस समान होता है धरती पर फें कनेसे वह
अमुक अंश में छार-छार होकर बिखर जाता है और पुनः एकत्रित
कर देनेसे एक पिण्डरूप बन जाता है

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(तीन लोकको) तीनों लोकका (नाज) अनाज (जु खाय) खा
जाये; तथापि (भूख) क्षुधा (न मिटै) शांत न हो, [परन्तु खानेके
लिए ] (कणा) एक दाना भी (न लहाय) नहीं मिलता । (ये दुख)
ऐसे दुःख (बहु सागर लौं) अनेक सागरोपम काल तक (सहै)
सहन करता है, (करम जोगतैं) किसी विशेष शुभकर्मके योगसे
(नरगति) मनुष्यगति (लहै) प्राप्त करता है ।
भावार्थ :उन नरकोंमें इतनी तीव्र भूख लगती है कि
यदि मिल जाये तो तीनों लोकका अनाज एक साथ खा जायें;
तथापि क्षुधा शांत न हो; परन्तु वहाँ खानेके लिए एक दाना भी
नहीं मिलता । उन नरकोंमें यह जीव ऐसे अपार दुःख दीर्घकाल
(कमसे कम दस हजार वर्ष और अधिकसे अधिक तेतीस सागरोपम
काल तक) भोगता है । फि र किसी शुभकर्मके उदयसे यह जीव
मनुष्यगति प्राप्त करता है
।।१२।।
मनुष्यगतिमें गर्भनिवास तथा प्रसवकालके दुःख
जननी उदर वस्यो नव मास, अंग सकुचतैं पायो त्रास
निकसत जे दुख पाये घोर, तिनको कहत न आवे ओर ।।१३।।
अन्वयार्थ :[मनुष्यगतिमें भी यह जीव ] (नव मास)
नौ महीने तक (जननी) माताके (उदर) पेटमें (वस्यो) रहा; [तब