Chha Dhala (Hindi). Gatha: 14: manushyagatime bAl yuvA aur vruddhAvasthAkA dukh,15: devagatime bhavantrikakA dukh (Dhal 1),1: sansAr (chaturgatee)me paribhraman (Dhal 2),2: agruhit mithyAdarshan aur jeev tattvakA lakshan (Dhal 2),3: jeevtattvake vishayme mithyAtva (vipareet shraddhA) (Dhal 2),4: mithyAdrashtikA sareer tatha parvastuo sambadhee vichar (Dhal 2),5: ajeev aur Ashravtattvakee vipareet shraddhA (Dhal 2),6: bandh aur sanvar tattvakee vipareet shraddha (Dhal 2); GathA: 16: devagatime vaimanikdevokA dukh (Dhal 1); Pahalee dhalka saransh; Pahalee dhalka bhed-sangrah; Pahalee dhalka lakshan-sangrah; Vitragataka lakshan; Antar-pradarshan; Pahalee dhalki prashnavali; Doosaree Dhal.

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वहाँ ] (अंग) शरीर (सकुचतैं) सिकोड़कर रहनेसे (त्रास) दुःख
(पायो) पाया, [और ] (निकसत) निकलते समय (जे) जो (घोर)
भयंकर (दुख पाये) दुःख पाये (तिनको) उन दुःखोंको (कहत)
कहनेसे (ओर) अन्त (न आवे) नहीं आ सकता ।
भावार्थ :मनुष्यगतिमें भी यह जीव नौ महीने तक
माताके पेटमें रहा; वहाँ शरीरको सिकोड़कर रहनेसे तीव्र वेदना
सहन की, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता । कभी-कभी तो
माताके पेटसे निकलते समय माताका अथवा पुत्रका अथवा
दोनोंका मरण भी हो जाता है
।।१४।।
मनुष्यगतिमें बाल, युवा और वृद्धावस्थाके दुःख
बालपनेमें ज्ञान न लह्यो, तरुण समय तरुणी-रत रह्यो
अर्धमृतकसम बूढापनो, कैसे रूप लखै आपनो ।।१४।।
अन्वयार्थ :[मनुष्यगतिमें जीव ] (बालपनेमें)
बचपनमें (ज्ञान) ज्ञान (न लह्यो) प्राप्त नहीं कर सका [और ]
(तरुण समय) युवावस्थामें (तरुणी-रत) युवती स्त्रीमें लीन (रह्यो)
रहा, [और ] (बूढ़ापनो) वृद्धावस्था (अर्धमृतकसम) अधमरा जैसा
[रहा, ऐसी दशामें ] (कैसे) किस प्रकार [जीव ] (आपनो) अपना
(रूप) स्वरूप (लखै) देखे-विचारे ।

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भावार्थ :मनुष्यगतिमें भी यह जीव बाल्यावस्थामें
विशेष ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाया, यौवनावस्थामें ज्ञान तो प्राप्त
किया किन्तु स्त्रीके मोह (विषय-भोग)में भूला रहा और
वृद्धावस्थामें इन्द्रियोंकी शक्ति कम हो गई अथवा मरणपर्यंत
पहुँचे, ऐसा कोई रोग लग गया कि, जिससे अधमरा जैसा
पड़ा रहा । इस प्रकार यह जीव तीनों अवस्थाओंमें
आत्मस्वरूपका दर्शन (पहिचान) न कर सका
।।१४।।
देवगतिमें भवनत्रिकका दुःख
कभी अकामनिर्जरा करै, भवनत्रिकमें सुर तन धरै
विषय-चाह-दावानल दह्यो, मरत विलाप करत दुख सह्यो ।।१५।।
अन्वयार्थ :[इस जीवने ] (कभी) कभी
(अकामनिर्जरा) अकामनिर्जरा (करै) की [तो मरनेके पश्चात् ]
(भवनत्रिक) भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषीमें (सुरतन) देवपर्याय
(धरै) धारण की, [परन्तु वहाँ भी ] (विषय-चाह) पाँच इन्द्रियोंके
विषयोंकी इच्छारूपी (दावानल) भयंकर अग्निमें (दह्यो) जलता

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रहा [और ] (मरत) मरते समय (विलाप करत) रो-रो कर (दुख)
दुःख (सह्यो) सहन किया ।
भावार्थ :जब कभी इस जीवने अकाम निर्जरा की, तब
मरकर उस निर्जराके प्रभावसे (भवनत्रिक) भवनवासी, व्यंतर और
ज्योतिषी देवोंमेंसे किसी एकका शरीर धारण किया । वहाँ भी अन्य
देवोंका वैभव देखकर पंचेन्द्रियोंके विषयोंकी इच्छारूपी अग्निमें
जलता रहा । फि र मंदारमालाको मुरझाते देखकर तथा शरीर और
आभूषणोंकी कान्ति क्षीण होते देखकर अपना मृत्युकाल निकट है–
ऐसा अवधिज्ञान द्वारा जानकर ‘‘हाय ! अब यह भोग मुझे भोगनेको
नहीं मिलेंगे !’’ ऐसे विचारसे रो-रोकर अनेक दुःख सहन
किये
।।१५।।
अकाम निर्जरा यह सिद्ध करती है कि कर्मके उदयानुसार
ही जीव विकार नहीं करता, किन्तु चाहे जैसे कर्मोदय होने पर
भी जीव स्वयं पुरुषार्थ कर सकता है ।
देवगतिमें वैमानिक देवोंका दुःख
जो विमानवासी हू थाय, सम्यग्दर्शन बिन दुख पाय
तहँतें चय थावर तन धरै, यों परिवर्तन पूरे करै ।।१६।।

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अन्वयार्थ :(जो) यदि (विमानवासी) वैमानिक देव
(हू) भी (थाय) हुआ [तो वहाँ ] (सम्यग्दर्शन) सम्यग्दर्शन (बिन)
बिना (दुख) दुःख (पाय) प्राप्त किया [और ] (तहँतैं) वहाँसे (चय)
मरकर (थावर तन) स्थावर जीवका शरीर (धरै) धारण करता है;
(यों) इस प्रकार [यह जीव ] (परिवर्तन) पाँच परावर्तन (पूरे करै)
पूर्ण करता रहता है ।
भावार्थ :यह जीव वैमानिक देवोंमें भी उत्पन्न हुआ;
किन्तु वहाँ इसने सम्यग्दर्शनके बिना दुःख उठाये और वहाँसे भी
मरकर पृथ्वीकायिक आदि स्थावरों
के शरीर धारण किये; अर्थात्
पुनः तिर्यंचगतिमें जा गिरा । इस प्रकार यह जीव अनादिकालसे
संसारमें भटक रहा है और पाँच परावर्तन कर रहा है
।।१६।।
सार
संसारकी कोई भी गति सुखदायक नहीं है ।
निश्चयसम्यग्दर्शनसे ही पंच परावर्तनरूप संसार समाप्त होता है ।
अन्य किसी कारणसे–दया, दानादिके शुभरागसे भी संसार नहीं
टूटता । संयोग सुख-दुःखका कारण नहीं है, किन्तु मिथ्यात्व
(परके साथ एकत्वबुद्धि-कर्ताबुद्धि, शुभरागसे धर्म होता है, शुभराग
हितकर है ऐसी मान्यता) ही दुःखका कारण है । सम्यग्दर्शन
सुखका कारण है ।
पहली ढालका सारांश
तीन लोक में जो अनंत जीव हैं, वे सब सुख चाहते हैं
और दुःखसे डरते हैं; किन्तु अपना यथार्थ स्वरूप समझें, तभी
मिथ्यादृष्टि देव मरकर एकेन्द्रिय होता है, सम्यग्दृष्टि नहीं

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सुखी हो सकते हैं । चार गतियोंके संयोग कि सी भी सुख-दुःखके
कारण नहीं हैं; तथापि परमें एकत्वबुद्धि द्वारा इष्ट-अनिष्टपना
मानकर जीव स्वयं दुःखी होता है; और वहाँ भ्रमवश होकर कैसे
संयोगके आश्रयसे विकार करता है, यह संक्षेपमें कहा है ।
. तिर्यंचगतिके दुःखोंका वर्णनयह जीव निगोदमें
अनंतकाल तक रहकर, वहाँ एक श्वासमें अठारह बार जन्म-मरण
धारण करके अकथनीय वेदना सहन करता है । वहाँसे निकलकर
अन्य स्थावर पर्यायें धारण करता है । त्रसपर्याय तो चिन्तामणि-
रत्नके समान अति दुर्लभतासे प्राप्त होती है । वहाँ भी विकलत्रय
शरीर धारण करके अत्यन्त दुःख सहन करता है । कदाचित्
असंज्ञी पंचेन्द्रिय हुआ तो मनके बिना दुःख प्राप्त करता है । संज्ञी
हो तो वहाँ भी निर्बल प्राणी बलवान प्राणी द्वारा सताया जाता
है । बलवान जीव दूसरोंको दुःख देकर महान पापका बंध करते
हैं और छेदन, भेदन, भूख, प्यास, शीत, उष्णता आदिके
अकथनीय दुःखोंको प्राप्त होते हैं ।
. नरकगतिके दुःखजब कभी जीव अशुभ-पाप
परिणामोंसे मृत्यु प्राप्त करते हैं, तब नरकमें जाते हैं । वहाँकी
मिट्टीका एक कण भी इस लोकमें आ जाये तो उसकी दुर्गंधसे
कई कोसोंके संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव मर जायें । उस धरतीको छूनेसे
भी असह्य वेदना होती है । वहाँ वैतरणी नदी, सेमलवृक्ष, शीत,
उष्णता तथा अन्न-जलके अभावसे स्वतः महान दुःख होता है ।
जब बिलोंमें औंधे मुँह लटकते हैं, तब अपार वेदना होती है ।
फि र दूसरे नारकी उसे देखते ही कुत्तेकी भाँति उस पर टूट
पड़ते हैं और मारपीट करते हैं । तीसरे नरक तक अम्ब और

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अम्बरीष आदि नामके संक्लिष्ट परिणामी असुरकुमार देव जाकर
नारकियोंको अवधिज्ञानके द्वारा पूर्वभवोंके विरोधका स्मरण कराके
परस्पर लड़वाते हैं; तब एक-दूसरेके द्वारा कोल्हूमें पिलना,
अग्निमें जलना, आरेसे चीरा जाना, कढ़ाईमें उबलना, टुकड़े-
टुकड़े कर डालना आदि अपार दुःख उठाते हैं–ऐसी वेदनाएँ
निरन्तर सहना पड़ती हैं; तथापि क्षणमात्र साता नहीं मिलती;
क्योंकि टुकड़े-टुकड़े हो जाने पर भी शरीर पारेकी भाँति पुनः
मिलकर ज्योंका त्यों हो जाता है । वहाँ आयु पूर्ण हुए बिना मृत्यु
नहीं होती । नरकमें ऐसे दुःख कमसे कम दस हजार वर्ष तक
तो सहने पड़े हैं; किन्तु यदि उत्कृष्ट आयुका बंध हुआ तो तेतीस
सागरोपम वर्ष तक शरीरका अन्त नहीं होता ।
. मनुष्यगतिके दुःखकिसी विशेष पुण्यकर्मके उदयसे
यह जीव जब कभी मनुष्य पर्याय प्राप्त करता है, तब नौ महीने
तक तो माताके उदरमें ही पड़ा रहता है, वहाँ शरीरको
सिकोड़कर रहनेसे महान कष्ट उठाना पड़ता है । वहाँसे निकलते
समय जो अपार वेदना होती है, उसका तो वर्णन भी नहीं किया
जा सकता । फि र बचपनमें ज्ञानके बिना, युवावस्थामें विषय-
भोगोंमें आसक्त रहनेसे तथा वृद्धावस्थामें इन्द्रियोंकी शिथिलता
अथवा मरणपर्यंत क्षयरोग आदिमें रुकनेके कारण आत्मदर्शनसे
विमुख रहता है और आत्मोद्धारका मार्ग प्राप्त नहीं कर पाता ।
. देवगतिके दुःखयदि कोई शुभकर्मके उदयसे देव
भी हुआ, तो दूसरे बड़े देवोंका वैभव और सुख देखकर मन ही
मन दुःखी होता रहता है । कदाचित् वैमानिक देव भी हुआ, तो
वहाँ भी सम्यक्त्वके बिना आत्मिक शांति प्राप्त नहीं कर पाता तथा

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अंत समयमें मंदारमाला मुरझा जानेसे, आभूषण और शरीरकी
कान्ति क्षीण होनेसे मृत्युको निकट आया जानकर महान दुःखी
होता है, और आर्तध्यान करके, हाय-हाय करके मरता है । फि र
एकेन्द्रिय जीव तक होता है अर्थात् पुनः तिर्यंचगतिमें जा पहुँचता
है । इस प्रकार चारों गतियोंमें जीवको कहीं भी सुख-शांति नहीं
मिलती । इस कारण अपने मिथ्यात्वभावोंके कारण ही निरन्तर
संसारचक्रमें परिभ्रमण करता रहता है ।
पहली ढालका भेद-संग्रह
एकेन्द्रिय :–पृथ्वीकायिक जीव, अपकायिक जीव, अग्निकायिक
जीव, वायुकायिक जीव और वनस्पतिकायिक जीव ।
गति :–मनुष्यगति, तिर्यंचगति, देवगति और नरकगति ।
जीव :–संसारी और मुक्त ।
त्रस :–द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ।
देव :–भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक ।
पंचेन्द्रिय :–संज्ञी और असंज्ञी ।
योग :–मन, वचन और काय अथवा द्रव्य और भाव ।
लोक :–ऊर्ध्व, मध्य, अधो ।
वनस्पति :–साधारण और प्रत्येक ।
वैमानिक :–कल्पोत्पन्न, कल्पातीत ।
संसारी :–त्रस और स्थावर अथवा एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय,
चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ।

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पहली ढालका लक्षण-संग्रह
अकामनिर्जरा :–सहन करनेकी अनिच्छा होने पर भी जीव रोग,
क्षुधादि सहन करता है । तीव्र कर्मोदयमें युक्त न होकर
जीव पुरुषार्थ द्वारा मंदकषायरूप परिणमित हो वह ।
अग्निकायिक :–अग्नि ही जिसका शरीर होता है ऐसा जीव ।
असंज्ञी :–शिक्षा और उपदेश ग्रहण करनेकी शक्ति रहित जीवको
असंज्ञी कहते हैं ।
इन्द्रिय :–आत्माके चिह्नको इन्द्रिय कहते हैं ।
एकेन्द्रिय :–जिसे एक स्पर्शनेन्द्रिय ही होती है ऐसा जीव ।
गति नामकर्म :–जो कर्म जीवके आकार नारकी, तिर्यंच, मनुष्य
तथा देव जैसे बनाता है ।
गति :–जिसके उदयसे जीव दूसरी पर्याय (भव) प्राप्त करता है ।
चिन्तामणि :–जो इच्छा करने मात्रसे इच्छित वस्तु प्रदान करता
है, ऐसा रत्न ।
तिर्यंचगति :–तिर्यंचगति नामकर्मके उदयसे तिर्यंचोंमें जन्म धारण
करना ।
देवगति :–देवगति नामकर्मके उदयसे देवोंमें जन्म धारण करना ।
नरक :–पापकर्मके उदयमें युक्त होनेके कारण जिस स्थानमें जन्म
लेते ही जीव असह्य एवं अपरिमित वेदनाका अनुभव
करने लगता है तथा दूसरे नारकियों द्वारा सताये जानेके
कारण दुःखका अनुभव करता है, तथा जहाँ तीव्र द्वेष-

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पूर्ण जीवन व्यतीत होता है–वह स्थान । जहाँ पर क्षणभर
भी ठहरना नहीं चाहता ।
नरकगति :–नरकगति नामकर्मके उदयसे नरकमें जन्म लेना ।
निगोद :–साधारण नामकर्मके उदयसे एक शरीरके आश्रयसे
अनंतानंत जीव समान रूपसे जिसमें रहते हैं, मरते हैं
और पैदा होते हैं, उस अवस्थावाले जीवोंको निगोद
कहते हैं ।
नित्यनिगोद :–जहाँके जीवोंने अनादिकालसे आजतक त्रसपर्याय
प्राप्त नहीं की ऐसी जीवराशि; किन्तु भविष्यमें वे जीव
त्रसपर्याय प्राप्त कर सकते हैं ।
परिवर्तन :–द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप संसारचक्रमें
परिभ्रमण ।
पंचेन्द्रिय :–जिनके पाँच इन्द्रियाँ होती हैं ऐसे जीव ।
पृथ्वीकायिक :–पृथ्वी ही जिन जीवोंका शरीर है वे ।
प्रत्येकवनस्पति :–जिसमें एक शरीरका स्वामी एक जीव होता है
ऐसे वृक्ष, फल आदि ।
भव्य :–तीनकालमें किसी भी समय रत्नत्रय-प्राप्तिकी योग्यता
रखनेवाले जीवको भव्य कहा जाता है ।
मन :–हित-अहितका विचार तथा शिक्षा और उपदेश ग्रहण
करनेकी शक्ति सहित ज्ञान-विशेषको भावमन कहते हैं ।
हृदयस्थानमें आठ पंखुड़ियोंवाले कमलकी आकृति
समान जो पुद्गलपिण्ड
उसे जड़-मन अर्थात् द्रव्य-
मन कहते हैं ।

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मनुष्यगति :–मनुष्यगति नामकर्मके उदयसे मनुष्योंमें जन्म लेना
अथवा उत्पन्न होना ।
मेरु :–जम्बूद्वीपके विदेहक्षेत्रमें स्थित एक लाख योजन ऊँचा एक
पर्वत विशेष ।
मोह :–परके साथ एकत्वबुद्धि सो मिथ्यात्व मोह है; यह मोह
अपरिमित है तथा अस्थिरतारूप रागादि सो चारित्रमोह
है; यह मोह परिमित है ।
लोक :–जिसमें जीवादि छह द्रव्य स्थित हैं, उसे लोक अथवा
लोकाकाश कहते हैं ।
विमानवासी :–स्वर्ग और ग्रैवेयक आदिके देव ।
वीतरागका लक्षण
जन्म, जरा, तृषा, क्षुधा, विस्मय, आरत, खेद
रोग, शोक, मद१०, मोह११, भय१२, निद्रा१३, चिन्ता१४, स्वेद१५।।
राग१६, द्वेष१७, अरु मरण१८ जुत, ये अष्टादश दोष ।
नाहिं होत जिस जीवके, वीतराग सो होय ।।
श्वास :–
रक्तकी गति प्रमाण समय, कि जो एक मिनटमें ८०
बारसे कुछ अंश कम चलती है ।
सागर :–दो हजार कोस गहरे तथा इतने ही चौड़े गोलाकार
गड्ढेको, कैंचीसे जिसके दो टुकड़े न हो सकें ऐसे तथा
एकसे सात दिनकी उम्रके उत्तम भोगभूमिके मेंढेके
बालोंसे भर दिया जाये । फि र उसमेंसे सौ-सौ वर्षके
अंतरसे एक बाल निकाला जाये । जितने कालमें उन

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सब बालोंको निकाल दिया जाये उसे ‘‘व्यवहारपल्य’’
कहते हैं; व्यवहारपल्यसे असंख्यातगुने समयको
‘‘उद्धारपल्य’’ और उद्धारपल्यसे असंख्यातगुने कालको
‘‘अद्धापल्य’’ कहते हैं । दस कोड़ाकोड़ी (१० करोड़+
१० करोड़) अद्धापल्योंका एक सागर होता है ।
संज्ञी :–शिक्षा तथा उपदेश ग्रहण कर सकनेकी शक्तिवाले मन
सहित प्राणी ।
स्थावर :–थावर नामकर्मके उदय सहित पृथ्वी-जल-अग्नि-वायु
तथा वनस्पतिकायिक जीव ।
अन्तर-प्रदर्शन
(१) त्रस जीवोंको त्रस नामकर्मका उदय होता है; परन्तु
स्थावर जीवोंको स्थावर नामकर्मका उदय होता है । –दोनोंमें यह
अन्तर है ।
नोट–त्रस और स्थावरोंमें, चल सकते हैं और नहीं चल
सकते– इस अपेक्षासे अन्तर बतलाना ठीक नहीं है; क्योंकि ऐसा
माननेसे गमनरहित अयोगी केवलीमें स्थावरका लक्षण तथा गमन-
सहित पवन आदि एकेन्द्रिय जीवोंमें त्रसका लक्षण मिलनेसे
अतिव्याप्तिदोष आता है ।
(२) साधारणके आश्रयसे अनन्त जीव रहते हैं; किन्तु
प्रत्येकके आश्रयसे एक ही जीव रहता है ।
(३) संज्ञी तो शिक्षा और उपदेश ग्रहण कर सकता है;
किन्तु असंज्ञी नहीं ।

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नोट–किन्हींका भी अन्तर बतलानेके लिये सर्वत्र इस
शैलीका अनुकरण करना चाहिये; मात्र लक्षण बतलानेसे अन्तर
नहीं निकलता ।
पहली ढालकी प्रश्नावली
(१) असंज्ञी, ऊर्ध्वलोक, एकेन्द्रिय, कर्म, गति, चतुरिन्द्रिय,
त्रस, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, अधोलोक, पंचेन्द्रिय, प्रत्येक, मध्यलोक,
वीतराग, वैक्रियिक शरीर, साधारण और स्थावरके लक्षण
बतलाओ ।
(२) साधारण (निगोद) और प्रत्येकमें, त्रस और स्थावरमें,
संज्ञी और असंज्ञीमें अन्तर बतलाओ ।
(३) असंज्ञी तिर्यंच, त्रस, देव, निर्बल, निगोद, पशु,
बाल्यावस्था, भवनत्रिक, मनुष्य, यौवन, वृद्धावस्था, वैमानिक,
सबल, संज्ञी, स्थावर, नरकगति, नरकसम्बन्धी भूख, प्यास, सर्दी,
गर्मी, भूमिस्पर्श तथा असुरकुमारोंके दुःख; अकाम निर्जराका फल,
असुरकुमारोंका कार्य तथा गमन; नारकीके शरीरकी विशेषता और
अकालमृत्युका अभाव, मंदारमाला, वैतरणी तथा शीतसे लोहेके
गोलेका गल जाना–इनका स्पष्ट वर्णन करो ।
(४) अनादिकालसे संसारमें परिभ्रमण, भवनत्रिकमें उत्पन्न
होना तथा स्वर्गोंमें दुःखका कारण बतलाओ ।
(५) असुरकुमारोंका गमन, सम्पूर्ण जीवराशि, गर्भ
निवासका समय, यौवनावस्था, नरककी आयु, निगोदवासका समय,
निगोदियाकी इन्द्रियाँ, निगोदियाकी आयु, निगोदमें एक श्वासमें
जन्म-मरण तथा श्वासका परिमाण बतलाओ ।

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(६) त्रसपर्यायकी दुर्लभता १-२-३-४-५ इन्द्रिय जीव,
तथा शीतसे लोहेका गोला गल जानेको दृष्टांत द्वारा समझाओ ।
(७) बुरे परिणामोंसे प्राप्त होने योग्य गति, ग्रन्थरचयिता,
जीव-कर्म सम्बन्ध, जीवोंकी इच्छित तथा अनिच्छित वस्तु,
नमस्कृत वस्तु, नरक की नदी, नरकमें जानेवाले असुरकुमार,
नारकीका शरीर, निगोदियाका शरीर, निगोदसे निकलकर प्राप्त
होनेवाली पर्यायें, नौ महीनेसे कम समय तक गर्भमें रहनेवाले,
मिथ्यात्वी वैमानिककी भविष्यकालीन पर्याय, माता-पिता रहित
जीव, सर्वाधिक दुःखका स्थान और संक्लेश परिणाम सहित मृत्यु
होनेके कारण प्राप्त होने योग्य गतिका नाम बतलाओ ।
(८) अपनी इच्छानुसार किसी शब्द, चरण अथवा छंदका
अर्थ या भावार्थ कहो । पहली ढालका सारांश समझाओ, गतियोंके
दुःखों पर एक लेख लिखो अथवा कहकर सुनाओ

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दूसरी ढाल
पद्धरि छन्द (१५ मात्रा)
संसार (चतुर्गति)में परिभ्रमणका कारण
ऐसे मिथ्या-दृग-ज्ञान-चर्णवश, भ्रमत भरत दुख जन्म-मर्ण
तातैं इनको तजिये सुजान, सुन तिन संक्षेप कहूँ बखान ।।।।
अन्वयार्थ :[यह जीव ] (मिथ्यादृग-ज्ञान-चर्णवश)
मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रके वश होकर (ऐसे)
इस प्रकार (जन्म-मरण) जन्म और मरणके (दुख) दुःखोंको
(भरत) भोगता हुआ [चारों गतियोंमें ] (भ्रमत) भटकता फि रता
है । (तातैं) इसलिये (इनको) इन तीनोंको (सुजान) भली-भाँति

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जानकर (तजिये) छोड़ देना चाहिये । [इसलिए ] इन तीनोंका
(संक्षेप) संक्षेपसे (कहूँ बखान) वर्णन करता हूँ, उसे (सुन)
सुनो ।
भावार्थ :इस चरणसे ऐसा समझना चाहिये कि
मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्रसे ही जीवको दुःख होता है अर्थात्
शुभाशुभ रागादि विकार तथा परके साथ एकत्वकी श्रद्धा, ज्ञान
और मिथ्या आचरणसे ही जीव दुःखी होता है; क्योंकि कोई संयोग
सुख-दुःखका कारण नहीं हो सकता –ऐसा जानकर सुखार्थीको
इन मिथ्याभावोंका त्याग करना चाहिये । इसलिये मैं यहाँ संक्षेपमें
उन तीनोंका वर्णन करता हूँ
।।।।
अगृहीत-मिथ्यादर्शन और जीवतत्त्वका लक्षण
जीवादि प्रयोजनभूत तत्त्व, सरधैं तिनमांहि विपर्ययत्व
चेतनको है उपयोग रूप, बिनमूरत चिन्मूरत अनूप ।।।।
अन्वयार्थ :(जीवादि) जीव, अजीव, आस्रव, बंध,
संवर, निर्जरा और मोक्ष (प्रयोजनभूत) प्रयोजनभूत (तत्त्व) तत्त्व
हैं, (तिनमांहि) उनमें (विपर्ययत्व) विपरीत (सरधैं) श्रद्धा करना

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[सो अगृहीत मिथ्यादर्शन है । ] (चेतनको) आत्माका (रूप) स्वरूप
(उपयोग) देखना-जानना अथवा दर्शन-ज्ञान है [और वह ]
(बिनमूरत) अमूर्तिक (चिन्मूरत) चैतन्यमय [तथा ] (अनूप) उपमा
रहित है ।
भावार्थ :यथार्थरूपसे शुद्धात्मदृष्टि द्वारा जीव, अजीव,
आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष –इन सात तत्त्वोंकी श्रद्धा
करनेसे सम्यग्दर्शन होता है; इसलिये इन सात तत्त्वोंको जानना
आवश्यक है । सातों तत्त्वोंका विपरीत श्रद्धान करना उसे
अगृहीत मिथ्यादर्शन कहते हैं । जीव ज्ञान-दर्शन उपयोगस्वरूप
अर्थात् ज्ञाता-दृष्टा है । अमूर्तिक, चैतन्यमय तथा उपमारहित
है
।।।।
जीवतत्त्वके विषयमें मिथ्यात्व (विपरीत श्रद्धा)
पुद्गल नभ धर्म अधर्म काल, इनतैं न्यारी है जीव चाल
ताकों न जान विपरीत मान, करि करै देहमें निज पिछान ।।।।
न्वयार्थ :(पुद्गल) पुद्गल (नभ) आकाश (धर्म)
धर्म (अधर्म) अधर्म (काल) काल (इनतैं) इनसे (जीव चाल) जीवका
स्वभाव अथवा परिणाम (न्यारी) भिन्न (है) है; [तथापि मिथ्यादृष्टि

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जीव ] (ताकों) उस स्वभावको (न जान) नहीं जानता और
(विपरीत) विपरीत (मान करि) मानकर (देहमें) शरीरमें (निज)
आत्माकी (पिछान) पहिचान (करे) करता है ।
भावार्थ :पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल –ये
पाँच अजीव द्रव्य हैं । जीव त्रिकाल ज्ञानस्वरूप तथा पुद्गलादि
द्रव्योंसे पृथक् है, किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव आत्माके स्वभावकी यथार्थ
श्रद्धा न करके अज्ञानवश विपरीत मानकर, शरीर ही मैं हूँ, शरीरके
कार्य मैं कर सकता हूँ, मैं अपनी इच्छानुसार शरीरकी व्यवस्था
रख सकता हूँ– ऐसा मानकर शरीरको ही आत्मा मानता है ।
[यह जीवतत्त्वकी विपरीत श्रद्धा है । ]
।।।।
मिथ्यादृष्टिका शरीर तथा परवस्तुओं सम्बन्धी विचार
मैं सुखी दुखी मैं रंक राव, मेरे धन गृह गोधन प्रभाव
मेरे सुत तिय मैं सबल दीन, बेरूप सुभग मूरख प्रवीण ।।।।
अन्वयार्थ :[मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यादर्शनके कारणसे
मानता है कि ] (मैं) मैं (सुखी) सुखी (दुखी) दुःखी, (रंक)
निर्धन, (राव) राजा हूँ, (मेरे) मेरे यहाँ (धन) रुपया-पैसा आदि
(गृह) घर (गोधन) गाय, भैंस आदि (प्रभाव) बड़प्पन [है; और ]

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(मेरे सुत) मेरी संतान तथा (तिय) मेरी स्त्री है; (मैं) मैं (सबल)
बलवान, (दीन) निर्बल, (बेरूप) कुरूप, (सुभग) सुन्दर, (मूरख)
मूर्ख और (प्रवीण) चतुर हूँ ।
भावार्थ :(१) जीवतत्त्वकी भूल–जीव तो त्रिकाल
ज्ञानस्वरूप है, उसे अज्ञानी जीव नहीं जानता-मानता और जो
शरीर है सो मैं ही हूँ, शरीरके कार्य मैं कर सकता हूँ, शरीर
स्वस्थ हो तो मुझे लाभ हो, बाह्य अनुकूल संयोगोंसे मैं सुखी और
प्रतिकूल संयोगोंसे मैं दुःखी, मैं निर्धन, मैं धनवान, मैं बलवान, मैं
निर्बल, मैं मनुष्य, मैं कुरूप, मैं सुन्दर–ऐसा मानता है; शरीराश्रित
उपदेश तथा उपवासादि क्रियाओंमें अपनत्व मानता है– इत्यादि
मिथ्या अभिप्राय द्वारा जो अपने परिणाम नहीं हैं, उन्हें आत्माका
परिणाम मानता है, वह जीवतत्त्वकी भूल है
।।।।
अजीव और आस्रवतत्त्वकी विपरीत श्रद्धा
तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान
रागादि प्रगट ये दुख देन, तिनहीको सेवत गिनत चैन ।।।।
जो शरीरादि पदार्थ दिखाई देते हैं, वे आत्मा से भिन्न हैं; उनके ठीक
रहने या बिगड़नेसे आत्माका कुछ भी अच्छा-बुरा नहीं होता;
किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव इससे विपरीत मानता है ।

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अन्वयार्थ :[मिथ्यादृष्टि जीव ] (तन) शरीरके
(उपजत) उत्पन्न होनेसे (अपनी) अपना आत्मा (उपज) उत्पन्न
हुआ (जान) ऐसा मानता है और (तन) शरीरके (नशत) नाश
होनेसे (आपको) आत्माका (नाश) मरण हुआ ऐसा (मान) मानता
है । (रागादि) राग, द्वेष, मोहादि (ये) जो (प्रगट) स्पष्ट रूपसे
(दुख देन) दुःख देनेवाले हैं, (तिनहीको) उनकी (सेवत) सेवा
करता हुआ (चैन) सुख (गिनत) मानता है ।
भावार्थ :(१) अजीवतत्त्वकी भूल–मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा
मानता है कि शरीरकी उत्पत्ति (संयोग) होनेसे मैं उत्पन्न हुआ और
शरीरका नाश (वियोग) होनेसे मैं मर जाऊँगा, (आत्माका मरण
मानता है;) धन, शरीरादि जड़ पदार्थोंमें परिवर्तन होनेसे अपनेमें
इष्ट-अनिष्ट परिवर्तन मानना, शरीरमें क्षुधा-तृषारूप अवस्था होनेसे
मुझे क्षुधा-तृषादि होते हैं; शरीर कटनेसे मैं कट गया–इत्यादि जो
अजीवकी अवस्थाएँ हैं, उन्हें अपनी मानता है यह अजीवतत्त्वकी
भूल है
(२) आस्रवतत्त्वकी भूल–जीव अथवा अजीव कोई भी पर
पदार्थ आत्माको किंचित् भी सुख-दुःख, सुधार-बिगाड,़ इष्ट-अनिष्ट
नहीं कर सकते; तथापि अज्ञानी ऐसा नहीं मानता । परमें कर्तृत्व,
ममत्वरूप मिथ्यात्व तथा राग-द्वेषादि शुभाशुभ आस्रवभाव–यह
प्रत्यक्ष दुःख देनेवाले हैं, बंधके ही कारण हैं, तथापि अज्ञानी जीव
उन्हें सुखकर जानकर सेवन करता है । और शुभभाव भी बन्धका
ही कारण है– आस्रव है, उसे हितकर मानता है । परद्रव्य जीवको
आत्मा अमर है; वह विष, अग्नि, शस्त्र, अस्त्र अथवा अन्य किसी
से नहीं मरता और न नवीन उत्पन्न होता है
मरण अर्थात् वियोग
तो मात्र शरीरका ही होता है

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लाभ-हानि नहीं पहुँचा सकते; तथापि उन्हें इष्ट-अनिष्ट मानकर
उनमें प्रीति-अप्रीति करता है; मिथ्यात्व, राग-द्वेषका स्वरूप नहीं
जानता; पर पदार्थ मुझे सुख-दुःख देते हैं अथवा राग-द्वेष-मोह
कराते हैं –ऐसा मानता है, यह आस्रवतत्त्वकी भूल है ।
।।।।
बन्ध और संवरतत्त्वकी विपरीत श्रद्धा
शुभ-अशुभ बंधके फल मँझार, रति-अरति करै निजपद विसार
आतमहितहेतु विराग ज्ञान, ते लखै आपको कष्टदान ।।।।
अन्वयार्थ :[मिथ्यादृष्टि जीव ] (निजपद) आत्माके
स्वरूपको (विसार) भूलकर (बंधके) कर्मबन्धके (शुभ) अच्छे (फल
मंझार) फलमें (रति) प्रेम (करै) करता है और कर्मबन्धके (अशुभ)
बुरे फलसे (अरति) द्वेष करता है; [तथा जो ] (विराग) राग-द्वेषका
अभाव [अर्थात् अपने यथार्थ स्वभावमें स्थिरतारूप
सम्यक्चारित्र ]
और (ज्ञान) सम्यग्ज्ञान [और सम्यग्दर्शन ] (आतमहित) आत्माके
हितके (हेतु) कारण हैं, (ते) उन्हें (आपको) आत्माको (कष्टदान)
दुःख देनेवाले (लखै) मानता है ।
भावार्थ :भावार्थ :(१) बन्धतत्त्वकी भूल– अघाति कर्मके
अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्य ही आत्माका
सच्चा स्वरूप है