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(पायो) पाया, [और ] (निकसत) निकलते समय (जे) जो (घोर)
भयंकर (दुख पाये) दुःख पाये (तिनको) उन दुःखोंको (कहत)
कहनेसे (ओर) अन्त (न आवे) नहीं आ सकता ।
सहन की, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता । कभी-कभी तो
माताके पेटसे निकलते समय माताका अथवा पुत्रका अथवा
दोनोंका मरण भी हो जाता है
(तरुण समय) युवावस्थामें (तरुणी-रत) युवती स्त्रीमें लीन (रह्यो)
रहा, [और ] (बूढ़ापनो) वृद्धावस्था (अर्धमृतकसम) अधमरा जैसा
[रहा, ऐसी दशामें ] (कैसे) किस प्रकार [जीव ] (आपनो) अपना
(रूप) स्वरूप (लखै) देखे-विचारे ।
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किया किन्तु स्त्रीके मोह (विषय-भोग)में भूला रहा और
वृद्धावस्थामें इन्द्रियोंकी शक्ति कम हो गई अथवा मरणपर्यंत
पहुँचे, ऐसा कोई रोग लग गया कि, जिससे अधमरा जैसा
पड़ा रहा । इस प्रकार यह जीव तीनों अवस्थाओंमें
आत्मस्वरूपका दर्शन (पहिचान) न कर सका
(भवनत्रिक) भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषीमें (सुरतन) देवपर्याय
(धरै) धारण की, [परन्तु वहाँ भी ] (विषय-चाह) पाँच इन्द्रियोंके
विषयोंकी इच्छारूपी (दावानल) भयंकर अग्निमें (दह्यो) जलता
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दुःख (सह्यो) सहन किया ।
ज्योतिषी देवोंमेंसे किसी एकका शरीर धारण किया । वहाँ भी अन्य
देवोंका वैभव देखकर पंचेन्द्रियोंके विषयोंकी इच्छारूपी अग्निमें
जलता रहा । फि र मंदारमालाको मुरझाते देखकर तथा शरीर और
आभूषणोंकी कान्ति क्षीण होते देखकर अपना मृत्युकाल निकट है–
ऐसा अवधिज्ञान द्वारा जानकर ‘‘हाय ! अब यह भोग मुझे भोगनेको
नहीं मिलेंगे !’’ ऐसे विचारसे रो-रोकर अनेक दुःख सहन
किये
भी जीव स्वयं पुरुषार्थ कर सकता है ।
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बिना (दुख) दुःख (पाय) प्राप्त किया [और ] (तहँतैं) वहाँसे (चय)
मरकर (थावर तन) स्थावर जीवका शरीर (धरै) धारण करता है;
(यों) इस प्रकार [यह जीव ] (परिवर्तन) पाँच परावर्तन (पूरे करै)
पूर्ण करता रहता है ।
मरकर पृथ्वीकायिक आदि स्थावरों
संसारमें भटक रहा है और पाँच परावर्तन कर रहा है
अन्य किसी कारणसे–दया, दानादिके शुभरागसे भी संसार नहीं
टूटता । संयोग सुख-दुःखका कारण नहीं है, किन्तु मिथ्यात्व
(परके साथ एकत्वबुद्धि-कर्ताबुद्धि, शुभरागसे धर्म होता है, शुभराग
हितकर है ऐसी मान्यता) ही दुःखका कारण है । सम्यग्दर्शन
सुखका कारण है ।
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कारण नहीं हैं; तथापि परमें एकत्वबुद्धि द्वारा इष्ट-अनिष्टपना
मानकर जीव स्वयं दुःखी होता है; और वहाँ भ्रमवश होकर कैसे
संयोगके आश्रयसे विकार करता है, यह संक्षेपमें कहा है ।
धारण करके अकथनीय वेदना सहन करता है । वहाँसे निकलकर
अन्य स्थावर पर्यायें धारण करता है । त्रसपर्याय तो चिन्तामणि-
रत्नके समान अति दुर्लभतासे प्राप्त होती है । वहाँ भी विकलत्रय
शरीर धारण करके अत्यन्त दुःख सहन करता है । कदाचित्
असंज्ञी पंचेन्द्रिय हुआ तो मनके बिना दुःख प्राप्त करता है । संज्ञी
हो तो वहाँ भी निर्बल प्राणी बलवान प्राणी द्वारा सताया जाता
है । बलवान जीव दूसरोंको दुःख देकर महान पापका बंध करते
हैं और छेदन, भेदन, भूख, प्यास, शीत, उष्णता आदिके
अकथनीय दुःखोंको प्राप्त होते हैं ।
मिट्टीका एक कण भी इस लोकमें आ जाये तो उसकी दुर्गंधसे
कई कोसोंके संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव मर जायें । उस धरतीको छूनेसे
भी असह्य वेदना होती है । वहाँ वैतरणी नदी, सेमलवृक्ष, शीत,
उष्णता तथा अन्न-जलके अभावसे स्वतः महान दुःख होता है ।
जब बिलोंमें औंधे मुँह लटकते हैं, तब अपार वेदना होती है ।
फि र दूसरे नारकी उसे देखते ही कुत्तेकी भाँति उस पर टूट
पड़ते हैं और मारपीट करते हैं । तीसरे नरक तक अम्ब और
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नारकियोंको अवधिज्ञानके द्वारा पूर्वभवोंके विरोधका स्मरण कराके
परस्पर लड़वाते हैं; तब एक-दूसरेके द्वारा कोल्हूमें पिलना,
अग्निमें जलना, आरेसे चीरा जाना, कढ़ाईमें उबलना, टुकड़े-
टुकड़े कर डालना आदि अपार दुःख उठाते हैं–ऐसी वेदनाएँ
निरन्तर सहना पड़ती हैं; तथापि क्षणमात्र साता नहीं मिलती;
क्योंकि टुकड़े-टुकड़े हो जाने पर भी शरीर पारेकी भाँति पुनः
मिलकर ज्योंका त्यों हो जाता है । वहाँ आयु पूर्ण हुए बिना मृत्यु
नहीं होती । नरकमें ऐसे दुःख कमसे कम दस हजार वर्ष तक
तो सहने पड़े हैं; किन्तु यदि उत्कृष्ट आयुका बंध हुआ तो तेतीस
सागरोपम वर्ष तक शरीरका अन्त नहीं होता ।
तक तो माताके उदरमें ही पड़ा रहता है, वहाँ शरीरको
सिकोड़कर रहनेसे महान कष्ट उठाना पड़ता है । वहाँसे निकलते
समय जो अपार वेदना होती है, उसका तो वर्णन भी नहीं किया
जा सकता । फि र बचपनमें ज्ञानके बिना, युवावस्थामें विषय-
भोगोंमें आसक्त रहनेसे तथा वृद्धावस्थामें इन्द्रियोंकी शिथिलता
अथवा मरणपर्यंत क्षयरोग आदिमें रुकनेके कारण आत्मदर्शनसे
विमुख रहता है और आत्मोद्धारका मार्ग प्राप्त नहीं कर पाता ।
मन दुःखी होता रहता है । कदाचित् वैमानिक देव भी हुआ, तो
वहाँ भी सम्यक्त्वके बिना आत्मिक शांति प्राप्त नहीं कर पाता तथा
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कान्ति क्षीण होनेसे मृत्युको निकट आया जानकर महान दुःखी
होता है, और आर्तध्यान करके, हाय-हाय करके मरता है । फि र
एकेन्द्रिय जीव तक होता है अर्थात् पुनः तिर्यंचगतिमें जा पहुँचता
है । इस प्रकार चारों गतियोंमें जीवको कहीं भी सुख-शांति नहीं
मिलती । इस कारण अपने मिथ्यात्वभावोंके कारण ही निरन्तर
संसारचक्रमें परिभ्रमण करता रहता है ।
जीव :–संसारी और मुक्त ।
त्रस :–द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ।
देव :–भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक ।
पंचेन्द्रिय :–संज्ञी और असंज्ञी ।
योग :–मन, वचन और काय अथवा द्रव्य और भाव ।
लोक :–ऊर्ध्व, मध्य, अधो ।
वनस्पति :–साधारण और प्रत्येक ।
वैमानिक :–कल्पोत्पन्न, कल्पातीत ।
संसारी :–त्रस और स्थावर अथवा एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय,
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जीव पुरुषार्थ द्वारा मंदकषायरूप परिणमित हो वह ।
असंज्ञी :–शिक्षा और उपदेश ग्रहण करनेकी शक्ति रहित जीवको
एकेन्द्रिय :–जिसे एक स्पर्शनेन्द्रिय ही होती है ऐसा जीव ।
गति नामकर्म :–जो कर्म जीवके आकार नारकी, तिर्यंच, मनुष्य
चिन्तामणि :–जो इच्छा करने मात्रसे इच्छित वस्तु प्रदान करता
नरक :–पापकर्मके उदयमें युक्त होनेके कारण जिस स्थानमें जन्म
करने लगता है तथा दूसरे नारकियों द्वारा सताये जानेके
कारण दुःखका अनुभव करता है, तथा जहाँ तीव्र द्वेष-
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भी ठहरना नहीं चाहता ।
निगोद :–साधारण नामकर्मके उदयसे एक शरीरके आश्रयसे
और पैदा होते हैं, उस अवस्थावाले जीवोंको निगोद
कहते हैं ।
त्रसपर्याय प्राप्त कर सकते हैं ।
पृथ्वीकायिक :–पृथ्वी ही जिन जीवोंका शरीर है वे ।
प्रत्येकवनस्पति :–जिसमें एक शरीरका स्वामी एक जीव होता है
हृदयस्थानमें आठ पंखुड़ियोंवाले कमलकी आकृति
समान जो पुद्गलपिण्ड
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है; यह मोह परिमित है ।
श्वास :–रक्तकी गति प्रमाण समय, कि जो एक मिनटमें ८०
एकसे सात दिनकी उम्रके उत्तम भोगभूमिके मेंढेके
बालोंसे भर दिया जाये । फि र उसमेंसे सौ-सौ वर्षके
अंतरसे एक बाल निकाला जाये । जितने कालमें उन
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कहते हैं; व्यवहारपल्यसे असंख्यातगुने समयको
‘‘उद्धारपल्य’’ और उद्धारपल्यसे असंख्यातगुने कालको
‘‘अद्धापल्य’’ कहते हैं । दस कोड़ाकोड़ी (१० करोड़+
१० करोड़) अद्धापल्योंका एक सागर होता है ।
अन्तर है ।
माननेसे गमनरहित अयोगी केवलीमें स्थावरका लक्षण तथा गमन-
सहित पवन आदि एकेन्द्रिय जीवोंमें त्रसका लक्षण मिलनेसे
अतिव्याप्तिदोष आता है ।
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नहीं निकलता ।
वीतराग, वैक्रियिक शरीर, साधारण और स्थावरके लक्षण
बतलाओ ।
सबल, संज्ञी, स्थावर, नरकगति, नरकसम्बन्धी भूख, प्यास, सर्दी,
गर्मी, भूमिस्पर्श तथा असुरकुमारोंके दुःख; अकाम निर्जराका फल,
असुरकुमारोंका कार्य तथा गमन; नारकीके शरीरकी विशेषता और
अकालमृत्युका अभाव, मंदारमाला, वैतरणी तथा शीतसे लोहेके
गोलेका गल जाना–इनका स्पष्ट वर्णन करो ।
निगोदियाकी इन्द्रियाँ, निगोदियाकी आयु, निगोदमें एक श्वासमें
जन्म-मरण तथा श्वासका परिमाण बतलाओ ।
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नमस्कृत वस्तु, नरक की नदी, नरकमें जानेवाले असुरकुमार,
नारकीका शरीर, निगोदियाका शरीर, निगोदसे निकलकर प्राप्त
होनेवाली पर्यायें, नौ महीनेसे कम समय तक गर्भमें रहनेवाले,
मिथ्यात्वी वैमानिककी भविष्यकालीन पर्याय, माता-पिता रहित
जीव, सर्वाधिक दुःखका स्थान और संक्लेश परिणाम सहित मृत्यु
होनेके कारण प्राप्त होने योग्य गतिका नाम बतलाओ ।
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इस प्रकार (जन्म-मरण) जन्म और मरणके (दुख) दुःखोंको
(भरत) भोगता हुआ [चारों गतियोंमें ] (भ्रमत) भटकता फि रता
है । (तातैं) इसलिये (इनको) इन तीनोंको (सुजान) भली-भाँति
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(संक्षेप) संक्षेपसे (कहूँ बखान) वर्णन करता हूँ, उसे (सुन)
सुनो ।
शुभाशुभ रागादि विकार तथा परके साथ एकत्वकी श्रद्धा, ज्ञान
और मिथ्या आचरणसे ही जीव दुःखी होता है; क्योंकि कोई संयोग
सुख-दुःखका कारण नहीं हो सकता –ऐसा जानकर सुखार्थीको
इन मिथ्याभावोंका त्याग करना चाहिये । इसलिये मैं यहाँ संक्षेपमें
उन तीनोंका वर्णन करता हूँ
हैं, (तिनमांहि) उनमें (विपर्ययत्व) विपरीत (सरधैं) श्रद्धा करना
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(उपयोग) देखना-जानना अथवा दर्शन-ज्ञान है [और वह ]
(बिनमूरत) अमूर्तिक (चिन्मूरत) चैतन्यमय [तथा ] (अनूप) उपमा
रहित है ।
करनेसे सम्यग्दर्शन होता है; इसलिये इन सात तत्त्वोंको जानना
आवश्यक है । सातों तत्त्वोंका विपरीत श्रद्धान करना उसे
अगृहीत मिथ्यादर्शन कहते हैं । जीव ज्ञान-दर्शन उपयोगस्वरूप
अर्थात् ज्ञाता-दृष्टा है । अमूर्तिक, चैतन्यमय तथा उपमारहित
है
स्वभाव अथवा परिणाम (न्यारी) भिन्न (है) है; [तथापि मिथ्यादृष्टि
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(विपरीत) विपरीत (मान करि) मानकर (देहमें) शरीरमें (निज)
आत्माकी (पिछान) पहिचान (करे) करता है ।
द्रव्योंसे पृथक् है, किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव आत्माके स्वभावकी यथार्थ
श्रद्धा न करके अज्ञानवश विपरीत मानकर, शरीर ही मैं हूँ, शरीरके
कार्य मैं कर सकता हूँ, मैं अपनी इच्छानुसार शरीरकी व्यवस्था
रख सकता हूँ– ऐसा मानकर शरीरको ही आत्मा मानता है ।
[यह जीवतत्त्वकी विपरीत श्रद्धा है । ]
निर्धन, (राव) राजा हूँ, (मेरे) मेरे यहाँ (धन) रुपया-पैसा आदि
(गृह) घर (गोधन) गाय, भैंस आदि (प्रभाव) बड़प्पन [है; और ]
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बलवान, (दीन) निर्बल, (बेरूप) कुरूप, (सुभग) सुन्दर, (मूरख)
मूर्ख और (प्रवीण) चतुर हूँ ।
शरीर है सो मैं ही हूँ, शरीरके कार्य मैं कर सकता हूँ, शरीर
स्वस्थ हो तो मुझे लाभ हो, बाह्य अनुकूल संयोगोंसे मैं सुखी और
प्रतिकूल संयोगोंसे मैं दुःखी, मैं निर्धन, मैं धनवान, मैं बलवान, मैं
निर्बल, मैं मनुष्य, मैं कुरूप, मैं सुन्दर–ऐसा मानता है; शरीराश्रित
उपदेश तथा उपवासादि क्रियाओंमें अपनत्व मानता है– इत्यादि
परिणाम मानता है, वह जीवतत्त्वकी भूल है
रहने या बिगड़नेसे आत्माका कुछ भी अच्छा-बुरा नहीं होता;
किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव इससे विपरीत मानता है ।
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(दुख देन) दुःख देनेवाले हैं, (तिनहीको) उनकी (सेवत) सेवा
शरीरका नाश (वियोग) होनेसे मैं मर जाऊँगा, (आत्माका मरण
मानता है;) धन, शरीरादि जड़ पदार्थोंमें परिवर्तन होनेसे अपनेमें
इष्ट-अनिष्ट परिवर्तन मानना, शरीरमें क्षुधा-तृषारूप अवस्था होनेसे
मुझे क्षुधा-तृषादि होते हैं; शरीर कटनेसे मैं कट गया–इत्यादि जो
अजीवकी अवस्थाएँ हैं, उन्हें अपनी मानता है यह अजीवतत्त्वकी
भूल है
नहीं कर सकते; तथापि अज्ञानी ऐसा नहीं मानता । परमें कर्तृत्व,
ममत्वरूप मिथ्यात्व तथा राग-द्वेषादि शुभाशुभ आस्रवभाव–यह
प्रत्यक्ष दुःख देनेवाले हैं, बंधके ही कारण हैं, तथापि अज्ञानी जीव
उन्हें सुखकर जानकर सेवन करता है । और शुभभाव भी बन्धका
ही कारण है– आस्रव है, उसे हितकर मानता है । परद्रव्य जीवको
से नहीं मरता और न नवीन उत्पन्न होता है
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उनमें प्रीति-अप्रीति करता है; मिथ्यात्व, राग-द्वेषका स्वरूप नहीं
जानता; पर पदार्थ मुझे सुख-दुःख देते हैं अथवा राग-द्वेष-मोह
कराते हैं –ऐसा मानता है, यह आस्रवतत्त्वकी भूल है ।
मंझार) फलमें (रति) प्रेम (करै) करता है और कर्मबन्धके (अशुभ)
बुरे फलसे (अरति) द्वेष करता है; [तथा जो ] (विराग) राग-द्वेषका
अभाव [अर्थात् अपने यथार्थ स्वभावमें स्थिरतारूप
हितके (हेतु) कारण हैं, (ते) उन्हें (आपको) आत्माको (कष्टदान)
दुःख देनेवाले (लखै) मानता है ।
सच्चा स्वरूप है