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मिथ्यादृष्टि जीव उन्हें अनुकूल-प्रतिकूल मानकर उनसे मैं सुखी-
दुःखी हूँ, ऐसी कल्पना द्वारा राग-द्वेष, आकुलता करता है ।
धन, योग्य स्त्री, पुत्रादिका संयोग होनेसे रति करता है; रोग,
निंदा, निर्धनता, पुत्र-वियोगादि होनेसे अरति करता है; पुण्य-
पाप दोनों बन्धनकर्ता हैं; किन्तु ऐसा न मानकर पुण्यको
हितकारी मानता है; तत्त्वदृष्टिसे तो पुण्य-पाप दोनों अहितकर
ही हैं; परन्तु अज्ञानी ऐसा निर्धाररूप नहीं मानता–यह
बन्धतत्त्वकी विपरीत श्रद्धा है ।
अभाव वह वैराग्य है, और वह सुखके कारणरूप है; तथापि
अज्ञानी जीव उसे कष्टदाता मानता है–यह संवरतत्त्वकी विपरीत
श्रद्धा है
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रोकता, और (निराकुलता) आकुलताके अभावको (शिवरूप)
मोक्षका स्वरूप (न जोय) नहीं मानता । (याही) इस (प्रतीतिजुत)
मिथ्या मान्यता सहित (कछुक ज्ञान) जो कुछ ज्ञान है (सो) वह
(दुखदायक) कष्ट देनेवाला (अज्ञान) अगृहीत मिथ्याज्ञान है –ऐसा
(जान) समझना चाहिए ।
निर्जरा कहा जाता है; यह निश्चयसम्यग्दर्शन पूर्वक ही हो
सकती है । ज्ञानानन्दस्वरूपमें स्थिर होनेसे शुभ-अशुभ इच्छाका
निरोध होता है, वह तप है । तप दो प्रकारका है; (१) बालतप,
(२) सम्यक्तप; अज्ञानदशामें जो तप किया जाता है वह
बालतप है, उससे कभी सच्ची निर्जरा नहीं होती; किन्तु
आत्मस्वरूपमें सम्यक्प्रकारसे स्थिरता-अनुसार जितना शुभ-
अशुभ इच्छाका अभाव होता है वह सच्ची निर्जरा है-सम्यक्तप
है; किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा नहीं मानता । अपनी अनन्त
ज्ञानादि शक्तिको भूलकर पराश्रयमें सुख मानता है, शुभाशुभ
इच्छा तथा पाँच इन्द्रियोंके विषयोंकी चाहको नहीं रोकता–यह
निर्जरातत्त्वकी विपरीत श्रद्धा है ।
वही सच्चा सुख है । किन्तु अज्ञानी ऐसा नहीं मानता ।
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अवतार धारण करना पड़ता है –इत्यादि । इसप्रकार मोक्षदशामें
निराकुलता नहीं मानता यह मोक्षतत्त्वकी विपरीत श्रद्धा है ।
है । उपदेशादि बाह्य निमित्तोंके आलम्बन द्वारा उसे नवीन ग्रहण
नहीं किया है; किन्तु अनादिकालीन है, इसलिये उसे अगृहीत
(स्वाभाविक-निसर्गज) मिथ्याज्ञान कहते हैं
सहित (प्रवृत्त) प्रवृत्ति करता है (ताको) उसे (मिथ्याचरित्त)
अगृहीत मिथ्याचारित्र (जानो) समझो । (यों) इस प्रकार (निसर्ग)
अगृहीत (मिथ्यात्वादि) मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और
मिथ्याचारित्रका [वर्णन किया गया ] (अब) अब (जे) जो (गृहीत)
गृहीत [मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्र ] है (तेह) उसे (सुनिये)
सुनो ।
मिथ्याचारित्र कहा जाता है । इन तीनोंको दुःखका कारण जानकर
तत्त्वज्ञान द्वारा इनका त्याग करना चाहिये
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करता है, वह (चिर) अति दीर्घकाल तक (दर्शनमोह)
मिथ्यादर्शन (एव) ही (पोषैं) पोषता है । (जेह) जो (अंतर)
अंतरमें (रागादिक) मिथ्यात्व-राग-द्वेष आदि (धरैं) धारण करता
है और (बाहर) बाह्यमें (धन अम्बरतैं) धन तथा वस्त्रादिसे
(सनेह) प्रेम रखता है, तथा (महत भाव) महात्मापनेका भाव
(लहि) ग्रहण करके (कुलिंग) मिथ्यावेषोंको (धारैं) धारण करता
है, वह (कुगुरु) कुगुरु कहलाता है और वह कुगुरु (जन्मजल)
संसाररूपी समुद्रमें (उपलनाव) पत्थरकी नौका समान है ।
कुगुरु, कुदेव और कुधर्मका सेवन ही गृहीत मिथ्यादर्शन
कहलाता है ।
मकानादि बहिरंग परिग्रह हैं । जो वस्त्रादि सहित होने पर भी
अपनेको जिनलिंगधारी मानते हैं वे कुगुरु हैं । ‘‘जिनमार्गमें तीन
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मुनिलिंग, दूसरा उत्कृष्ट श्रावकरूप दसवीं-ग्यारहवीं प्रतिमाधारी
श्रावकलिंग और तीसरा आर्यिकाओंका रूप–यह स्त्रियोंका
लिंग,–इन तीनके अतिरिक्त कोई चौथा लिंग सम्यग्दर्शन स्वरूप
नहीं है; इसलिये इन तीनके अतिरिक्त अन्य लिंगोंको जो
मानता है, उसे जिनमतकी श्रद्धा नहीं है; किन्तु वह मिथ्यादृष्टि
है । (दर्शनपाहुड गाथा १८)’’ इसलिये जो कुलिंगके धारक हैं,
मिथ्यात्वादि अंतरंग तथा वस्त्रादि बहिरंग परिग्रह सहित हैं,
अपनेको मुनि मानते हैं, मनाते हैं वे कुगुरु हैं । जिस प्रकार
पत्थरकी नौका डूब जाती है तथा उसमें बैठने वाले भी डूबते
हैं; उसीप्रकार कुगुरु भी स्वयं संसार-समुद्रमें डूबते हैं और
उनकी वंदना तथा सेवा-भक्ति करनेवाले भी अनंत संसारमें
डूबते हैं अर्थात् कुगुरुकी श्रद्धा, भक्ति, पूजा, विनय तथा
अनुमोदना करनेसे गृहीत मिथ्यात्वका सेवन होता है और उससे
जीव अनंतकाल तक भव-भ्रमण करता है
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गदा आदि सहित (चिह्न चीन) चिह्नोंसे पहिचाने जाते हैं (ते)
वे (कुदेव) झूठे देव हैं, (तिनकी) उन कुदेवोंकी (जु) जो
(शठ) मूर्ख (सेव करत) सेवा करते हैं, (तिन) उनका
(भवभ्रमण) संसारमें भ्रमण करना (न छेव) नहीं मिटता ।
पहिचाना जा सकता है वे ‘कुदेव’
संसारका अन्त नहीं कर सकते अर्थात् अनन्तकाल तक उनका
भवभ्रमण नहीं मिटता
वैमानिक, कुदेव–हरि, हर शीतलादि; अदेव–पीपल, तुलसी,
लकड़बाबा आदि कल्पितदेव, जो कोई भी सरागी देव-देवी हैं वे
वन्दन-पूजन के योग्य नहीं हैं
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(मरण खेत) मरणका स्थान (दर्वित) द्रव्यहिंसा (समेत) सहित
(जे) जो (क्रिया) क्रियाएँ [ हैं ] (तिन्हैं) उन्हें (कुधर्म) मिथ्याधर्म
(जानहु) जानना चाहिये । (तिन) उनकी (सरधै) श्रद्धा करनेसे
(जीव) आत्मा-प्राणी (लहै अशर्म) दुःख पाते हैं । (याकूं) इस
कुगुरु, कुदेव और कुधर्मका श्रद्धान करनेको (गृहीत मिथ्यात्व)
गृहीत मिथ्यादर्शन जानना, (अब गृहीत) अब गृहीत (अज्ञान)
मिथ्याज्ञान (जो है) जिसे कहा जाता है उसका वर्णन (सुन)
सुनो ।
धर्म माना जाता है, उसे कुधर्म कहते हैं । जो जीव उस
कुधर्मकी श्रद्धा करता है वह दुःख प्राप्त करता है । ऐसे मिथ्या
गुरु, देव और धर्मकी श्रद्धा करना उसे ‘‘गृहीत मिथ्यादर्शन’’
कहते हैं । वह परोपदेश आदि बाह्य कारणके आश्रयसे ग्रहण
किया जाता है; इसलिये ‘‘गृहीत’’ कहलाता है । अब गृहीत
मिथ्याज्ञानका वर्णन किया जाता है
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आदिकी (पोषक) पुष्टि करनेवाले (कपिलादि रचित) कल्पनाओं
द्वारा स्वेच्छाचारी आदिके रचे हुए (अप्रशस्त) मिथ्या (समस्त)
समस्त (श्रुतको) शास्त्रोंका (अभ्यास) पढ़ना-पढ़ाना, सुनना और
सुनाना (सो) वह (कुबोध) मिथ्याज्ञान [है; वह ] (बहु) बहुत
(त्रास) दुःखको (देन) देनेवाला है ।
विषय-कषायादिकी पुष्टि करनेवाले कुगुरुओंके रचे हुए सर्व
प्रकारके मिथ्या शास्त्रोंको धर्म बुद्धिसे लिखना-लिखाना, पढ़ना-
पढ़ाना, सुनना और सुनाना उसे गृहीत मिथ्याज्ञान कहते हैं ।
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है ।
कथन करें, अथवा (५) जगतका कोई कर्ता-हर्ता तथा नियंता है
ऐसा वर्णन करें, अथवा (६) दया, दान, महाव्रतादिक शुभराग –जो
कि पुण्यास्रव है, पराश्रय है उससे तथा साधुको आहार देनेके
शुभभावसे संसार परित (अल्प, मर्यादित) होना बतलायें तथा
उपदेश देनेके शुभभावसे परमार्थरूप धर्म होता है –इत्यादि अन्य
धर्मियोंके ग्रंथोंमें जो विपरीत कथन हैं, वे एकान्त और अप्रशस्त
होनेके कारण कुशास्त्र हैं; क्योंकि उनमें प्रयोजनभूत सात तत्त्वोंकी
यथार्थता नहीं है । जहाँ एक तत्त्वकी भूल हो, वहाँ सातों तत्त्वकी
भूल होती ही है, ऐसा समझना चाहिये
इच्छा करके (देहदाह) शरीरको कष्ट देनेवाली (आतम अनात्मके)
आत्मा और परवस्तुओंके (ज्ञानहीन) भेदज्ञानसे रहित (तन)
शरीरको (छीन) क्षीण (करन) करनेवाली (विविध विध) अनेक
प्रकारकी (जे जे करनी) जो-जो क्रियाएँ हैं, वे सब (मिथ्याचारित्र)
मिथ्याचारित्र हैं ।
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कषायके वशीभूत होकर शरीरको क्षीण करनेवाली अनेक प्रकारकी
क्रियाएँ करता है, उसे ‘‘गृहीत मिथ्याचारित्र’’ कहते हैं
(हित) कल्याणके (पंथ) मार्गमें (लाग) लग जाओ, (जगजाल)
संसाररूपी जालमें (भ्रमणको) भटकना (देहु त्याग) छोड़ दो,
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(सुपाग) भली-भाँति लीन हो जाओ ।
मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रका त्याग करके आत्मकल्याणके मार्गमें
लगना चाहिये । श्री पण्डित दौलतराम जी अपने आत्माको
सम्बोधन करके कहते हैं कि –हे आत्मन् ! पराश्रयरूप संसार
अर्थात् पुण्य-पापमें भटकना छोड़कर सावधानीसे आत्मस्वरूपमें
लीन हो
भोग रहा है । जब तक देहादिसे भिन्न अपने आत्माकी सच्ची प्रतीति
तथा रागादिका अभाव न करे, तब तक सुख-शान्ति और आत्माका
उद्धार नहीं हो सकता ।
यथार्थ प्रतीति, (३) स्व-परके स्वरूपकी श्रद्धा, (४) निज
शुद्धात्माके प्रतिभासरूप आत्माकी श्रद्धा,–इन चार लक्षणोंके
अविनाभावसहित सत्य श्रद्धा (निश्चय सम्यग्दर्शन) जब तक जीव
प्रगट न करे, तब तक जीव (आत्माका) उद्धार नहीं हो सकता
अर्थात् धर्मका प्रारम्भ भी नहीं हो सकता और तब तक आत्माको
अंशमात्र भी सच्चा अतीन्द्रिय सुख प्रगट नहीं होता ।
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विपरीत श्रद्धा होनेसे ज्ञानावरणी आदि द्रव्यकर्म, शरीरादि नोकर्म
तथा पुण्य-पाप-रागादि मलिनभावोंमें एकताबुद्धि-कर्ताबुद्धि है और
इसलिये शुभराग तथा पुण्य हितकर है; शरीरादि परपदार्थोंकी
अवस्था (क्रिया) मैं कर सकता हूँ, पर मुझे लाभ-हानि कर सकता
है, तथा मैं परका कुछ कर सकता हूँ–ऐसी मान्यताके कारण उसे
सत्-असत्का विवेक होता ही नहीं । सच्चा सुख तथा हितरूप
श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र अपने आत्माके ही आश्रयसे होते हैं, इस
बातकी भी उसे खबर नहीं होती ।
मिथ्यात्वादि महान दोषोंको पोषण करनेेवाली होनेसे दुःखदायक
है, अनन्त संसार-भ्रमणका कारण है । जो जीव उसका सेवन
करता है, उसे कर्तव्य समझता है वह दुर्लभ मनुष्य-जीवनको
नष्ट करता है ।
अभ्यास करके अथवा कुगुरुका उपदेश स्वीकार करके गृहीत
मिथ्याज्ञान-मिथ्याश्रद्धा धारण करता है, तथा कुमतका अनुसरण
करके मिथ्याक्रिया करता है; वह गृहीत मिथ्याचारित्र है । इसलिये
जीवको भली-भाँति सावधान होकर गृहीत तथा अगृहीत–दोनों
प्रकारके मिथ्याभाव छोड़ने योग्य हैं, तथा उनका यथार्थ निर्णय
करके निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट करना चाहिये । मिथ्याभावोंका सेवन
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अनन्तकाल गँवा दिया; इसलिये अब सावधान होकर आत्मोद्धार
करना चाहिये ।
तत्त्व :–जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ।
द्रव्य :–जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ।
मिथ्यादर्शन :–गृहीत, अगृहीत ।
मिथ्याज्ञान :–गृहीत (बाह्यकारण प्राप्त), अगृहीत (निसर्गज) ।
मिथ्याचारित्र :– गृहीत और अगृहीत ।
महादुःख :–स्वरूप सम्बन्धी अज्ञान; मिथ्यात्व ।
विमानवासी :–कल्पोपपन्न और कल्पातीत ।
शक्तियोंका एकसाथ प्रकाशित होना । (आत्मा सदैव स्व-
रूपसे है और पर-रूपसे नहीं है, ऐसी जो दृष्टि वह
अनेकान्तदृष्टि है ।)
आत्मा :–जानने-देखने अथवा ज्ञान-दर्शन शक्तिवाली वस्तुको
परिणमित हो उसे जीव अथवा आत्मा कहते हैं ।
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द्रव्यहिंसा :–त्रस और स्थावर प्राणियोंका घात करना ।
मूर्तिक :– रूप, रस, गन्ध और स्पर्श सहित वस्तु ।
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प्रसंगमें तो मोक्षमार्गके प्रदर्शक सुगुरुसे तात्पर्य है ।
गृहीत-मिथ्याज्ञान, गृहीत-मिथ्याचारित्र एवं जीवादि छह
द्रव्य–इन सबके लक्षण बतलाओ ।
है, वह बतलाओ ।
हुई वास्तविकता, मृत्युकालमें जीव निकलते हुए दिखाई नहीं
देता उसका कारण, मिथ्यादृष्टिकी रुचि, मिथ्यादृष्टिकी
अरुचि, मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रकी सत्ताका काल;
मिथ्यादृष्टिको दुःख देनेवाली वस्तु, मिथ्या-धार्मिक कार्य
करने-कराने वा उसमें सम्मत होनेसे हानि तथा सात
तत्त्वोंकी विपरीत श्रद्धाके प्रकारादिका स्पष्ट वर्णन करो ।
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कारण दर्शाओ ।
है ? राग तो बाधक ही है, तथापि व्यवहार मोक्षमार्गको
अर्थात् (शुभरागको) निश्चयका हेतु क्यों कहा है?
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(शिवमांहि) मोक्षमें (न) नहीं है, (तातैं) इसलिये (शिवमग)
मोक्षमार्गमें (लाग्यो) लगना (चहिये) चाहिये । (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-
चरन) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र इन तीनोंकी एकता वह (शिवमग)
मोक्षका मार्ग है । (सो) उस मोक्षमार्गका (द्विविध) दो प्रकारसे
(विचारो) विचार करना चाहिये कि (जो) जो (सत्यारथरूप)
वास्तविक स्वरूप है (सो) वह (निश्चय) निश्चय-मोक्षमार्ग है और
(कारण) जो निश्चय-मोक्षमार्गका निमित्तकारण है (सो) उसे
(व्यवहारो) व्यवहार-मोक्षमार्ग कहते हैं ।
सम्यक् भावश्रुतज्ञान होता है और निश्चयनय तथा व्यवहारनय
–यह दोनों सम्यक् श्रुतज्ञानके अवयव (अंश) हैं; इसलिये
मिथ्यादृष्टिको निश्चय या व्यवहारनय हो ही नहीं सकते; इसलिये
‘‘व्यवहार प्रथम होता है और निश्चयनय बादमें प्रगट होता
है’’–ऐसा माननेवालेको नयोंके स्वरूपका यथार्थ ज्ञान नहीं है ।
निरपेक्षनय हुआ और यदि पहले अकेला व्यवहारनय हो तो
अज्ञानदशामें सम्यग्नय मानना पड़ेगा; किन्तु ‘‘निरपेक्षानयाः मिथ्या
सापेक्षावस्तु तेऽर्थकृत’’ (आप्तमीमांसा श्लोक–१०८) ऐसा
आगमका वचन है; इसलिये अज्ञानदशामें किसी जीवको
व्यवहारनय नहीं हो सकता; किन्तु व्यवहाराभास अथवा
निश्चयाभासरूप मिथ्यानय हो सकता है ।
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शास्त्र-गुरुकी श्रद्धा सम्बन्धी रागमिश्रित विचार तथा
मन्दकषायरूप शुभभाव–जो कि उस जीवको पूर्वकालमें था, उसे
भूतनैगमनयसे व्यवहारकारण कहा जाता है । (परमात्मप्रकाश,
अध्याय २ गाथा १४ की टीका) । तथा उसी जीवको
निश्चयसम्यग्दर्शनकी भूमिकामें शुभराग और निमित्त किस प्रकारके
होते हैं, उनका सहचरपना बतलानेके लिये वर्तमान शुभरागको
व्यवहारमोक्षमार्ग कहा है, ऐसा कहनेका कारण यह है कि उससे
भिन्न प्रकारके (विरुद्ध) निमित्त उस दशामें किसीको हो नहीं
सकते । –इस प्रकार निमित्त-व्यवहार होता है; तथापि वह यथार्थ
कारण नहीं है ।
व्यवहारके आश्रयसे सुख प्रगट नहीं हो सकता ।
मोक्षमार्ग प्रकाशक देहली, पृष्ठ ४६२)
प्ररूपणा की है वह निश्चयमोक्षमार्ग है तथा जहाँ जो मोक्षमार्ग तो
नहीं है; किन्तु मोक्षमार्गका निमित्त है अथवा सहचारी है, वहाँ उसे
उपचारसे मोक्षमार्ग कहें तो वह व्यवहारमोक्षमार्ग है; क्योंकि
निश्चय-व्यवहारका सर्वत्र ऐसा ही लक्षण है अर्थात् यथार्थ निरूपण
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निरूपणकी अपेक्षासे दो प्रकारका मोक्षमार्ग जानना । किन्तु एक
निश्चयमोक्षमार्ग है और दूसरा व्यवहारमोक्षमार्ग है–इस प्रकार दो
मोक्षमार्ग मानना मिथ्या है
निश्चय (सम्यक्त्व) सम्यग्दर्शन है; (आपरूपको) आत्माके
स्वरूपको (परद्रव्यनतैं भिन्न) परद्रव्योंसे भिन्न (जानपनों) जानना
(सो) वह (सम्यग्ज्ञान) निश्चय सम्यग्ज्ञान (कला) प्रकाश (है) है ।
(परद्रव्यनतैं भिन्न) परद्रव्योंसे भिन्न ऐसे (आपरूपमें) आत्मस्वरूपमें
(थिर) स्थिरतापूर्वक (लीन रहे) लीन होना सो (सम्यक्चारित)