Chha Dhala (Hindi). Gatha: 7: nirjara aur mokShake vipareet shraddha tatha agruhit mithyAgyan,8: agruhit mithyA charitra (kuchAritra)kA lakShan (Dhal 2),9: gruhit mithyAdarshan aur kuguruke lakShan (Dhal 2),10: kudev (mithyAdev)ke swaroop (Dhal 2),11,12,13: gruhit mithyAgyAnaka lakShan (Dhal 2),14: gruhit mithyAcharitraka lakShan (Dhal 2),15: mithyAcharitrake tyAg tathA Atmahitme laganeka updesh (Dhal 2),1: Atmahit, sachchA sukh tathA do prakArse mokshamArgkA kathan (Dhal 3),2: noshchya samyagadarshan-gyan-charitrakA swaroop (Dhal 3); Doosaree dhalka saransh; Doosaree dhalka bhed sangrah; Doosaree dhalka lakshan sangrah; Antar-pradarshan; Doosaree dhalki prashnavali; Teesaree Dhal.

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फलानुसार पदार्थोंकी संयोग-वियोगरूप अवस्थाएँ होती हैं ।
मिथ्यादृष्टि जीव उन्हें अनुकूल-प्रतिकूल मानकर उनसे मैं सुखी-
दुःखी हूँ, ऐसी कल्पना द्वारा राग-द्वेष, आकुलता करता है ।
धन, योग्य स्त्री, पुत्रादिका संयोग होनेसे रति करता है; रोग,
निंदा, निर्धनता, पुत्र-वियोगादि होनेसे अरति करता है; पुण्य-
पाप दोनों बन्धनकर्ता हैं; किन्तु ऐसा न मानकर पुण्यको
हितकारी मानता है; तत्त्वदृष्टिसे तो पुण्य-पाप दोनों अहितकर
ही हैं; परन्तु अज्ञानी ऐसा निर्धाररूप नहीं मानता–यह
बन्धतत्त्वकी विपरीत श्रद्धा है ।
(२) संवरतत्त्वकी भूल–निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही
जीवको हितकारी हैं; स्वरूपमें स्थिरता द्वारा रागका जितना
अभाव वह वैराग्य है, और वह सुखके कारणरूप है; तथापि
अज्ञानी जीव उसे कष्टदाता मानता है–यह संवरतत्त्वकी विपरीत
श्रद्धा है
।।।।
निर्जरा और मोक्षकी विपरीत श्रद्धा तथा अगृहीत मिथ्याज्ञान
रोके न चाह निजशक्ति खोय, शिवरूप निराकुलता न जोय
याही प्रतीतिजुत कछुक ज्ञान, सो दुखदायक अज्ञान जान ।।।।

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अन्वयार्थ :[मिथ्यादृष्टि जीव ] (निजशक्ति) अपने
आत्माकी शक्ति (खोय) खोकर (चाह) इच्छाको (न रोके) नहीं
रोकता, और (निराकुलता) आकुलताके अभावको (शिवरूप)
मोक्षका स्वरूप (न जोय) नहीं मानता । (याही) इस (प्रतीतिजुत)
मिथ्या मान्यता सहित (कछुक ज्ञान) जो कुछ ज्ञान है (सो) वह
(दुखदायक) कष्ट देनेवाला (अज्ञान) अगृहीत मिथ्याज्ञान है –ऐसा
(जान) समझना चाहिए ।
भावार्थ :निर्जरातत्त्वमें भूल :–आत्मामें आंशिक
शुद्धिकी वृद्धि तथा अशुद्धिकी हानि होना, इसे संवरपूर्वक
निर्जरा कहा जाता है; यह निश्चयसम्यग्दर्शन पूर्वक ही हो
सकती है । ज्ञानानन्दस्वरूपमें स्थिर होनेसे शुभ-अशुभ इच्छाका
निरोध होता है, वह तप है । तप दो प्रकारका है; (१) बालतप,
(२) सम्यक्तप; अज्ञानदशामें जो तप किया जाता है वह
बालतप है, उससे कभी सच्ची निर्जरा नहीं होती; किन्तु
आत्मस्वरूपमें सम्यक्प्रकारसे स्थिरता-अनुसार जितना शुभ-
अशुभ इच्छाका अभाव होता है वह सच्ची निर्जरा है-सम्यक्तप
है; किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा नहीं मानता । अपनी अनन्त
ज्ञानादि शक्तिको भूलकर पराश्रयमें सुख मानता है, शुभाशुभ
इच्छा तथा पाँच इन्द्रियोंके विषयोंकी चाहको नहीं रोकता–यह
निर्जरातत्त्वकी विपरीत श्रद्धा है ।
(२) मोक्षतत्त्वकी भूल :–पूर्ण निराकुल आत्मिकसुखकी
प्राप्ति अर्थात् जीवकी सम्पूर्ण शुद्धता यह मोक्षका स्वरूप है तथा
वही सच्चा सुख है । किन्तु अज्ञानी ऐसा नहीं मानता ।
मोक्ष होने पर तेजमें तेज मिल जाता है अथवा वहाँ शरीर,

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इन्द्रियाँ तथा विषयोंके बिना सुख कैसे हो सकता है? वहाँसे पुनः
अवतार धारण करना पड़ता है –इत्यादि । इसप्रकार मोक्षदशामें
निराकुलता नहीं मानता यह मोक्षतत्त्वकी विपरीत श्रद्धा है ।
(३) अज्ञान :–अगृहीत मिथ्यादर्शनके रहते हुए जो कुछ
ज्ञान हो इसे अगृहीत मिथ्याज्ञान कहते हैं; यह महान दुःखदाता
है । उपदेशादि बाह्य निमित्तोंके आलम्बन द्वारा उसे नवीन ग्रहण
नहीं किया है; किन्तु अनादिकालीन है, इसलिये उसे अगृहीत
(स्वाभाविक-निसर्गज) मिथ्याज्ञान कहते हैं
।।।।
अगृहीत मिथ्याचारित्र (कुचारित्र)का लक्षण
इन जुत विषयनिमें जो प्रवृत्त, ताको जानो मिथ्याचरित्त
यों मिथ्यात्वादि निसर्ग जेह, अब जे गृहीत, सुनिये सु तेह ।।।।
अन्वयार्थ :(जो) जो (विषयनिमें) पाँच इन्द्रियोंके
विषयोंमें (इन जुत) अगृहीत मिथ्यादर्शन तथा अगृहीत मिथ्याज्ञान
सहित (प्रवृत्त) प्रवृत्ति करता है (ताको) उसे (मिथ्याचरित्त)
अगृहीत मिथ्याचारित्र (जानो) समझो । (यों) इस प्रकार (निसर्ग)
अगृहीत (मिथ्यात्वादि) मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और
मिथ्याचारित्रका [वर्णन किया गया ] (अब) अब (जे) जो (गृहीत)
गृहीत [मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्र ] है (तेह) उसे (सुनिये)
सुनो ।
भावार्थ :अगृहीत मिथ्यादर्शन तथा अगृहीत मिथ्याज्ञान
सहित पाँच इन्द्रियोंके विषयमें प्रवृत्ति करना इसे अगृहीत
मिथ्याचारित्र कहा जाता है । इन तीनोंको दुःखका कारण जानकर
तत्त्वज्ञान द्वारा इनका त्याग करना चाहिये
।।।।

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गृहीत मिथ्यादर्शन और कुगुरुके लक्षण
जो कुगुरु कुदेव कुधर्म सेव, पोषैं चिर दर्शनमोह एव
अंतर रागादिक धरैं जेह, बाहर धन अम्बरतैं सनेह ।।।।
गाथा १० (पूर्वार्द्ध)० (पूर्वार्द्ध)
धारैं कुलिंग लहि महतभाव, ते कुगुरु जन्मजल उपलनाव
अन्वयार्थ :(जो) जो (कुगुरु) मिथ्या गुरुकी
(कुदेव) मिथ्या देवकी और (कुधर्म) मिथ्या धर्मकी (सेव) सेवा
करता है, वह (चिर) अति दीर्घकाल तक (दर्शनमोह)
मिथ्यादर्शन (एव) ही (पोषैं) पोषता है । (जेह) जो (अंतर)
अंतरमें (रागादिक) मिथ्यात्व-राग-द्वेष आदि (धरैं) धारण करता
है और (बाहर) बाह्यमें (धन अम्बरतैं) धन तथा वस्त्रादिसे
(सनेह) प्रेम रखता है, तथा (महत भाव) महात्मापनेका भाव
(लहि) ग्रहण करके (कुलिंग) मिथ्यावेषोंको (धारैं) धारण करता
है, वह (कुगुरु) कुगुरु कहलाता है और वह कुगुरु (जन्मजल)
संसाररूपी समुद्रमें (उपलनाव) पत्थरकी नौका समान है ।
भावार्थ :कुगुरु, कुदेव और कुधर्मकी सेवा
करनेसे दीर्घकाल तक मिथ्यात्वका ही पोषण होता है अर्थात्
कुगुरु, कुदेव और कुधर्मका सेवन ही गृहीत मिथ्यादर्शन
कहलाता है ।
परिग्रह दो प्रकारका है; एक अंतरंग और दूसरा बहिरंग;
मिथ्यात्व, राग-द्वेषादि अंतरंग परिग्रह है और वस्त्र, पात्र, धन,
मकानादि बहिरंग परिग्रह हैं । जो वस्त्रादि सहित होने पर भी
अपनेको जिनलिंगधारी मानते हैं वे कुगुरु हैं । ‘‘जिनमार्गमें तीन

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लिंग तो श्रद्धापूर्वक हैं । एक तो जिनस्वरूप-निर्ग्रंथ दिगंबर
मुनिलिंग, दूसरा उत्कृष्ट श्रावकरूप दसवीं-ग्यारहवीं प्रतिमाधारी
श्रावकलिंग और तीसरा आर्यिकाओंका रूप–यह स्त्रियोंका
लिंग,–इन तीनके अतिरिक्त कोई चौथा लिंग सम्यग्दर्शन स्वरूप
नहीं है; इसलिये इन तीनके अतिरिक्त अन्य लिंगोंको जो
मानता है, उसे जिनमतकी श्रद्धा नहीं है; किन्तु वह मिथ्यादृष्टि
है । (दर्शनपाहुड गाथा १८)’’ इसलिये जो कुलिंगके धारक हैं,
मिथ्यात्वादि अंतरंग तथा वस्त्रादि बहिरंग परिग्रह सहित हैं,
अपनेको मुनि मानते हैं, मनाते हैं वे कुगुरु हैं । जिस प्रकार
पत्थरकी नौका डूब जाती है तथा उसमें बैठने वाले भी डूबते
हैं; उसीप्रकार कुगुरु भी स्वयं संसार-समुद्रमें डूबते हैं और
उनकी वंदना तथा सेवा-भक्ति करनेवाले भी अनंत संसारमें
डूबते हैं अर्थात् कुगुरुकी श्रद्धा, भक्ति, पूजा, विनय तथा
अनुमोदना करनेसे गृहीत मिथ्यात्वका सेवन होता है और उससे
जीव अनंतकाल तक भव-भ्रमण करता है
।।।।
गाथा १० (उत्तरार्द्ध)० (उत्तरार्द्ध)
कुदेव (मिथ्यादेव)का स्वरूप
जो रागद्वेष मलकरि मलीन, वनिता गदादिजुत चिह्न चीन ।।१०।।
गाथा ११ (पूर्वार्ध) (पूर्वार्ध)
ते हैं कुदेव तिनकी जु सेव, शठ करत न तिन भवभ्रमण छेव
अन्वयार्थ :(जे) जो (राग-द्वेष मलकरि मलीन)

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राग-द्वेषरूपी मैलसे मलिन हैं और (वनिता) स्त्री (गदादि जुत)
गदा आदि सहित (चिह्न चीन) चिह्नोंसे पहिचाने जाते हैं (ते)
वे (कुदेव) झूठे देव हैं, (तिनकी) उन कुदेवोंकी (जु) जो
(शठ) मूर्ख (सेव करत) सेवा करते हैं, (तिन) उनका
(भवभ्रमण) संसारमें भ्रमण करना (न छेव) नहीं मिटता ।
भावार्थ :जो राग और द्वेषरूपी मैलसे मलिन (रागी-
द्वेषी) हैं और स्त्री, गदा, आभूषण आदि चिह्नोंसे जिनको
पहिचाना जा सकता है वे ‘कुदेव’
कहे जाते हैं । जो अज्ञानी
ऐसे कुदेवोंकी सेवा (पूजा, भक्ति और विनय) करते हैं, वे इस
संसारका अन्त नहीं कर सकते अर्थात् अनन्तकाल तक उनका
भवभ्रमण नहीं मिटता
।।१०।।
गाथा ११ (उत्तरार्द्ध) (उत्तरार्द्ध)
कुधर्म और गृहीत मिथ्यादर्शनका संक्षिप्त लक्षण
रागादि भावहिंसा समेत, दर्वित त्रस थावर मरण खेत ।।११।।
जे क्रिया तिन्हैं जानहु कुधर्म, तिन सरधै जीव लहै अशर्म
याकूं गृहीत मिथ्यात्व जान, अब सुन गृहीत जो है अज्ञान ।।१२।।
अन्वयार्थ :(रागादि भावहिंसा) राग-द्वेष आदि
सुदेव–अरिहंत परमेष्ठी; देव–भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और
वैमानिक, कुदेव–हरि, हर शीतलादि; अदेव–पीपल, तुलसी,
लकड़बाबा आदि कल्पितदेव, जो कोई भी सरागी देव-देवी हैं वे
वन्दन-पूजन के योग्य नहीं हैं

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भावहिंसा (समेत) सहित तथा (त्रस-थावर) त्रस और स्थावर
(मरण खेत) मरणका स्थान (दर्वित) द्रव्यहिंसा (समेत) सहित
(जे) जो (क्रिया) क्रियाएँ [ हैं ] (तिन्हैं) उन्हें (कुधर्म) मिथ्याधर्म
(जानहु) जानना चाहिये । (तिन) उनकी (सरधै) श्रद्धा करनेसे
(जीव) आत्मा-प्राणी (लहै अशर्म) दुःख पाते हैं । (याकूं) इस
कुगुरु, कुदेव और कुधर्मका श्रद्धान करनेको (गृहीत मिथ्यात्व)
गृहीत मिथ्यादर्शन जानना, (अब गृहीत) अब गृहीत (अज्ञान)
मिथ्याज्ञान (जो है) जिसे कहा जाता है उसका वर्णन (सुन)
सुनो ।
भावार्थ :जिस धर्ममें मिथ्यात्व तथा रागादिरूप
भावहिंसा और त्रस तथा स्थावर जीवोंके घातरूप द्रव्यहिंसाको
धर्म माना जाता है, उसे कुधर्म कहते हैं । जो जीव उस
कुधर्मकी श्रद्धा करता है वह दुःख प्राप्त करता है । ऐसे मिथ्या
गुरु, देव और धर्मकी श्रद्धा करना उसे ‘‘गृहीत मिथ्यादर्शन’’
कहते हैं । वह परोपदेश आदि बाह्य कारणके आश्रयसे ग्रहण
किया जाता है; इसलिये ‘‘गृहीत’’ कहलाता है । अब गृहीत
मिथ्याज्ञानका वर्णन किया जाता है
।।११।।

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गृहीत मिथ्याज्ञानका लक्षण
एकान्तवाद-दूषित समस्त, विषयादिक पोषक अप्रशस्त
कपिलादि-रचित श्रुतको अभ्यास, सो है कुबोध बहु देन त्रास ।।१३।।
अन्वयार्थ :(एकान्तवाद) एकान्तरूप कथनसे
(दूषित) मिथ्या [और ] (विषयादिक) पाँच इन्द्रियोंके विषय
आदिकी (पोषक) पुष्टि करनेवाले (कपिलादि रचित) कल्पनाओं
द्वारा स्वेच्छाचारी आदिके रचे हुए (अप्रशस्त) मिथ्या (समस्त)
समस्त (श्रुतको) शास्त्रोंका (अभ्यास) पढ़ना-पढ़ाना, सुनना और
सुनाना (सो) वह (कुबोध) मिथ्याज्ञान [है; वह ] (बहु) बहुत
(त्रास) दुःखको (देन) देनेवाला है ।
भावार्थ :(१) वस्तु अनेक धर्मात्मक है; उसमेंसे किसी
भी एक ही धर्मको पूर्ण वस्तु कहनेके कारणसे दूषित (मिथ्या) तथा
विषय-कषायादिकी पुष्टि करनेवाले कुगुरुओंके रचे हुए सर्व
प्रकारके मिथ्या शास्त्रोंको धर्म बुद्धिसे लिखना-लिखाना, पढ़ना-
पढ़ाना, सुनना और सुनाना उसे गृहीत मिथ्याज्ञान कहते हैं ।
(२) जो शास्त्र जगतमें सर्वथा नित्य, एक, अद्वैत और
सर्वव्यापक ब्रह्ममात्र वस्तु है, अन्य कोई पदार्थ नहीं है–ऐसा वर्णन

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करता है, वह शास्त्र एकान्तवादसे दूषित होनेके कारण कुशास्त्र
है ।
(३) वस्तुको सर्वथा क्षणिक-अनित्य बतलायें, अथवा (४)
गुण-गुणी सर्वथा भिन्न हैं, किसी गुणके संयोगसे वस्तु है ऐसा
कथन करें, अथवा (५) जगतका कोई कर्ता-हर्ता तथा नियंता है
ऐसा वर्णन करें, अथवा (६) दया, दान, महाव्रतादिक शुभराग –जो
कि पुण्यास्रव है, पराश्रय है उससे तथा साधुको आहार देनेके
शुभभावसे संसार परित (अल्प, मर्यादित) होना बतलायें तथा
उपदेश देनेके शुभभावसे परमार्थरूप धर्म होता है –इत्यादि अन्य
धर्मियोंके ग्रंथोंमें जो विपरीत कथन हैं, वे एकान्त और अप्रशस्त
होनेके कारण कुशास्त्र हैं; क्योंकि उनमें प्रयोजनभूत सात तत्त्वोंकी
यथार्थता नहीं है । जहाँ एक तत्त्वकी भूल हो, वहाँ सातों तत्त्वकी
भूल होती ही है, ऐसा समझना चाहिये
।।१३।।
गृहीत मिथ्याचारित्रका लक्षण
जो ख्याति लाभ पूजादि चाह, धरि करन विविध विध देहदाह
आतम-अनात्मके ज्ञानहीन, जे जे करनी तन करन छीन ।।१४।।
अन्वयार्थ :(जो) जो (ख्याति) प्रसिद्धि (लाभ) लाभ
तथा (पूजादि) मान्यता और आदर-सन्मान आदिकी (चाह धरि)
इच्छा करके (देहदाह) शरीरको कष्ट देनेवाली (आतम अनात्मके)
आत्मा और परवस्तुओंके (ज्ञानहीन) भेदज्ञानसे रहित (तन)
शरीरको (छीन) क्षीण (करन) करनेवाली (विविध विध) अनेक
प्रकारकी (जे जे करनी) जो-जो क्रियाएँ हैं, वे सब (मिथ्याचारित्र)
मिथ्याचारित्र हैं ।

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भावार्थ :शरीर और आत्माका भेद-विज्ञान न होनेसे जो
यश, धन-सम्पत्ति, आदर-सत्कार आदिकी इच्छासे मानादि
कषायके वशीभूत होकर शरीरको क्षीण करनेवाली अनेक प्रकारकी
क्रियाएँ करता है, उसे ‘‘गृहीत मिथ्याचारित्र’’ कहते हैं
।।१४।।
मिथ्याचारित्रके त्यागका तथा आत्महितमें लगनेका उपदेश
ते सब मिथ्याचारित्र त्याग, अब आतमके हितपंथ लाग
जगजाल-भ्रमणको देहु त्याग, अब दौलत ! निज आतम सुपाग ।।१५।।
अन्वयार्थ :(ते) उस (सब) समस्त (मिथ्याचारित्र)
मिथ्याचारित्रको (त्याग) छोड़कर (अब) अब (आतमके) आत्माके
(हित) कल्याणके (पंथ) मार्गमें (लाग) लग जाओ, (जगजाल)
संसाररूपी जालमें (भ्रमणको) भटकना (देहु त्याग) छोड़ दो,

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(दौलत) हे दौलतराम ! (निज आतम) अपने आत्मामें (अब) अब
(सुपाग) भली-भाँति लीन हो जाओ ।
भावार्थ :आत्महितैषी जीवको निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-
चारित्र ग्रहण करके गृहीत मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र तथा अगृहीत
मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रका त्याग करके आत्मकल्याणके मार्गमें
लगना चाहिये । श्री पण्डित दौलतराम जी अपने आत्माको
सम्बोधन करके कहते हैं कि –हे आत्मन् ! पराश्रयरूप संसार
अर्थात् पुण्य-पापमें भटकना छोड़कर सावधानीसे आत्मस्वरूपमें
लीन हो
।।१५।।
दूसरी ढालका सारांश
(१) यह जीव मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रके
वश होकर चार गतियोंमें परिभ्रमण करके प्रतिसमय अनन्त दुःख
भोग रहा है । जब तक देहादिसे भिन्न अपने आत्माकी सच्ची प्रतीति
तथा रागादिका अभाव न करे, तब तक सुख-शान्ति और आत्माका
उद्धार नहीं हो सकता ।
(२) आत्महितके लिए (सुखी होनेके लिये) प्रथम (१) सच्चे
देव, गुरु और धर्मकी यथार्थ प्रतीति, (२) जीवादि सात तत्त्वोंकी
यथार्थ प्रतीति, (३) स्व-परके स्वरूपकी श्रद्धा, (४) निज
शुद्धात्माके प्रतिभासरूप आत्माकी श्रद्धा,–इन चार लक्षणोंके
अविनाभावसहित सत्य श्रद्धा (निश्चय सम्यग्दर्शन) जब तक जीव
प्रगट न करे, तब तक जीव (आत्माका) उद्धार नहीं हो सकता
अर्थात् धर्मका प्रारम्भ भी नहीं हो सकता और तब तक आत्माको
अंशमात्र भी सच्चा अतीन्द्रिय सुख प्रगट नहीं होता ।

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(३) सात तत्त्वोंकी मिथ्याश्रद्धा करना उसे मिथ्यादर्शन
कहते हैं । अपने स्वतंत्र स्वरूपकी भूलका कारण आत्मस्वरूपमें
विपरीत श्रद्धा होनेसे ज्ञानावरणी आदि द्रव्यकर्म, शरीरादि नोकर्म
तथा पुण्य-पाप-रागादि मलिनभावोंमें एकताबुद्धि-कर्ताबुद्धि है और
इसलिये शुभराग तथा पुण्य हितकर है; शरीरादि परपदार्थोंकी
अवस्था (क्रिया) मैं कर सकता हूँ, पर मुझे लाभ-हानि कर सकता
है, तथा मैं परका कुछ कर सकता हूँ–ऐसी मान्यताके कारण उसे
सत्-असत्का विवेक होता ही नहीं । सच्चा सुख तथा हितरूप
श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र अपने आत्माके ही आश्रयसे होते हैं, इस
बातकी भी उसे खबर नहीं होती ।
(४) पुनश्च, कुदेव-कुगुरु-कुशास्त्र और कुधर्मकी श्रद्धा,
पूजा, सेवा तथा विनय करनेकी जो-जो प्रवृत्ति है वह अपने
मिथ्यात्वादि महान दोषोंको पोषण करनेेवाली होनेसे दुःखदायक
है, अनन्त संसार-भ्रमणका कारण है । जो जीव उसका सेवन
करता है, उसे कर्तव्य समझता है वह दुर्लभ मनुष्य-जीवनको
नष्ट करता है ।
(५) अगृहीत मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र जीवको
अनादिकालसे होते हैं, फि र वह मनुष्य होनेके पश्चात् कुशास्त्रका
अभ्यास करके अथवा कुगुरुका उपदेश स्वीकार करके गृहीत
मिथ्याज्ञान-मिथ्याश्रद्धा धारण करता है, तथा कुमतका अनुसरण
करके मिथ्याक्रिया करता है; वह गृहीत मिथ्याचारित्र है । इसलिये
जीवको भली-भाँति सावधान होकर गृहीत तथा अगृहीत–दोनों
प्रकारके मिथ्याभाव छोड़ने योग्य हैं, तथा उनका यथार्थ निर्णय
करके निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट करना चाहिये । मिथ्याभावोंका सेवन

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कर-करके, संसारमें भटककर, अनन्त जन्म धारण करके
अनन्तकाल गँवा दिया; इसलिये अब सावधान होकर आत्मोद्धार
करना चाहिये ।
दूसरी ढालका भेद-संग्रह
इन्द्रियविषय :–स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द ।
तत्त्व :–जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ।
द्रव्य :–जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ।
मिथ्यादर्शन :–गृहीत, अगृहीत ।
मिथ्याज्ञान :–गृहीत (बाह्यकारण प्राप्त), अगृहीत (निसर्गज) ।
मिथ्याचारित्र :– गृहीत और अगृहीत ।
महादुःख :–स्वरूप सम्बन्धी अज्ञान; मिथ्यात्व ।
विमानवासी :–कल्पोपपन्न और कल्पातीत ।
दूसरी ढालका लक्षण-संग्रह
अनेकान्त :–प्रत्येक वस्तुमें वस्तुपनेको प्रमाणित–निश्चित
करनेवाली अस्तित्व-नास्तित्व आदि परस्पर-विरुद्ध दो
शक्तियोंका एकसाथ प्रकाशित होना । (आत्मा सदैव स्व-
रूपसे है और पर-रूपसे नहीं है, ऐसी जो दृष्टि वह
अनेकान्तदृष्टि है ।)
अमूर्तिक :–रूप, रस, गंध और स्पर्शरहित वस्तु ।
आत्मा :–जानने-देखने अथवा ज्ञान-दर्शन शक्तिवाली वस्तुको
आत्मा कहा जाता है । जो सदा जाने और जानने रूप
परिणमित हो उसे जीव अथवा आत्मा कहते हैं ।

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उपयोग :– जीवकी ज्ञान-दर्शन अथवा जानने-देखनेकी शक्तिका
व्यापार ।
एकान्तवाद :– अनेक धर्मोंकी सत्ताकी अपेक्षा न रखकर वस्तुका
एक ही रूपसे निरूपण करना ।
दर्शनमोह :–आत्माके स्वरूपकी विपरीत श्रद्धा ।
द्रव्यहिंसा :–त्रस और स्थावर प्राणियोंका घात करना ।
भावहिंसा :–मिथ्यात्व तथा राग-द्वेषादि विकारोंकी उत्पत्ति ।
मिथ्यादर्शन :–जीवादि तत्त्वोंकी विपरीत श्रद्धा ।
मूर्तिक :– रूप, रस, गन्ध और स्पर्श सहित वस्तु ।
अन्तर-प्रदर्शन
(१) आत्मा और जीवमें कोई अन्तर नहीं है, मात्र पर्यायवाची शब्द
हैं ।
(२) अगृहीत (निसर्गज) तो उपदेशादिकके निमित्त बिना होता है;
परन्तु गृहीतमें उपदेशादि निमित्त होते हैं ।
*अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति
तेषामेवोत्पत्तिर्हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।।४४।।
(पुरुषार्थसिद्धि० )
अर्थ– वास्तवमें रागादि भावोंका प्रगट न होना सो अहिंसा है और रागादि
भावोंकी उत्पत्ति होना सो हिंसा हैऐसा जैनशास्त्रका संक्षिप्त
रहस्य है

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(३) मिथ्यात्व और मिथ्यादर्शनमें कोई अन्तर नहीं है; मात्र दोनों
पर्यायवाचक शब्द हैं ।
(४) सुगुरुमें मिथ्यात्वादि दोष नहीं होते; किन्तु कुगुरुमें होते हैं ।
विद्यागुरु तो सुगुरु और कुगुरुसे भिन्न व्यक्ति हैं । मोक्षमार्गके
प्रसंगमें तो मोक्षमार्गके प्रदर्शक सुगुरुसे तात्पर्य है ।
दूसरी ढालकी प्रश्नावली
(१) अगृहीत-मिथ्याचारित्र, अगृहीत-मिथ्याज्ञान, अगृहीत-
मिथ्यादर्शन, कुदेव, कुगुरु, कुधर्म, गृहीत-मिथ्यादर्शन,
गृहीत-मिथ्याज्ञान, गृहीत-मिथ्याचारित्र एवं जीवादि छह
द्रव्य–इन सबके लक्षण बतलाओ ।
(२) मिथ्यात्व और मिथ्यादर्शनमें, अगृहीत और गृहीतमें, आत्मा
और जीवमें तथा सुगुरु, कुगुरु और विद्यागुरुमें क्या अन्तर
है, वह बतलाओ ।
(३) अगृहीतका नामान्तर, आत्महितका मार्ग, एकेन्द्रियको ज्ञान न
माननेसे हानि, कुदेवादिकी सेवासे हानि; दूसरी ढालमें कही
हुई वास्तविकता, मृत्युकालमें जीव निकलते हुए दिखाई नहीं
देता उसका कारण, मिथ्यादृष्टिकी रुचि, मिथ्यादृष्टिकी
अरुचि, मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रकी सत्ताका काल;
मिथ्यादृष्टिको दुःख देनेवाली वस्तु, मिथ्या-धार्मिक कार्य
करने-कराने वा उसमें सम्मत होनेसे हानि तथा सात
तत्त्वोंकी विपरीत श्रद्धाके प्रकारादिका स्पष्ट वर्णन करो ।
(४) आत्महित, आत्मशक्तिका विस्मरण, गृहीत मिथ्यात्व,
जीवतत्त्वकी पहिचान न होनेमें किसका दोष है, तत्त्वका

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प्रयोजन, दुःख, मोक्षसुखकी अप्राप्ति और संसार-परिभ्रमणके
कारण दर्शाओ ।
(५) मिथ्यादृष्टिका आत्मा, जन्म और मरण, कष्टदायक वस्तु आदि
सम्बन्धी विचार प्रगट करो ।
(६) कुगुरु, कुदेव और मिथ्याचारित्र आदिके दृष्टान्त दो ।
आत्महितरूप धर्मके लिये प्रथम व्यवहार होता है या निश्चय ?
(७) कुगुरु तथा कुधर्मका सेवन और रागादिभाव आदिका फल
बतलाओ । मिथ्यात्व पर एक लेख लिखो । अनेकान्त क्या
है ? राग तो बाधक ही है, तथापि व्यवहार मोक्षमार्गको
अर्थात् (शुभरागको) निश्चयका हेतु क्यों कहा है?
(८) अमुक शब्द, चरण अथवा छन्दका अर्थ और भावार्थ
बतलाओ । दूसरी ढालका सारांश समझाओ ।
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तीसरी ढाल

नरेन्द्र छन्द (जोगीरासा)
आत्महित, सच्चा सुख तथा दो प्रकार से मोक्षमार्गका कथन
आतमको हित है सुख, सो सुख आकुलता बिन कहिये
आकुलता शिवमांहि न तातैं, शिवमग लाग्यो चहिये ।।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरन शिव, मग सो द्विविध विचारो
जो सत्यारथ-रूप सो निश्चय, कारण सो व्यवहारो ।।।।
अन्वयार्थ :(आतमको) आत्माका (हित) कल्याण
(है) है (सुख) सुखकी प्राप्ति, (सो सुख) वह सुख (आकुलता बिन)

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आकुलता रहित (कहिये) कहा जाता है । (आकुलता) आकुलता
(शिवमांहि) मोक्षमें (न) नहीं है, (तातैं) इसलिये (शिवमग)
मोक्षमार्गमें (लाग्यो) लगना (चहिये) चाहिये । (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-
चरन) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र इन तीनोंकी एकता वह (शिवमग)
मोक्षका मार्ग है । (सो) उस मोक्षमार्गका (द्विविध) दो प्रकारसे
(विचारो) विचार करना चाहिये कि (जो) जो (सत्यारथरूप)
वास्तविक स्वरूप है (सो) वह (निश्चय) निश्चय-मोक्षमार्ग है और
(कारण) जो निश्चय-मोक्षमार्गका निमित्तकारण है (सो) उसे
(व्यवहारो) व्यवहार-मोक्षमार्ग कहते हैं ।
भावार्थ :(१) सम्यक्चारित्र निश्चयसम्यग्दर्शन-
ज्ञानपूर्वक ही होता है । जीवको निश्चयसम्यग्दर्शनके साथ ही
सम्यक् भावश्रुतज्ञान होता है और निश्चयनय तथा व्यवहारनय
–यह दोनों सम्यक् श्रुतज्ञानके अवयव (अंश) हैं; इसलिये
मिथ्यादृष्टिको निश्चय या व्यवहारनय हो ही नहीं सकते; इसलिये
‘‘व्यवहार प्रथम होता है और निश्चयनय बादमें प्रगट होता
है’’–ऐसा माननेवालेको नयोंके स्वरूपका यथार्थ ज्ञान नहीं है ।
(२) तथा नय निरपेक्ष नहीं होते । निश्चयसम्यग्दर्शन प्रगट
होनेसे पूर्व यदि व्यवहारनय हो तो निश्चयनयकी अपेक्षारहित
निरपेक्षनय हुआ और यदि पहले अकेला व्यवहारनय हो तो
अज्ञानदशामें सम्यग्नय मानना पड़ेगा; किन्तु ‘‘निरपेक्षानयाः मिथ्या
सापेक्षावस्तु तेऽर्थकृत’’ (आप्तमीमांसा श्लोक–१०८) ऐसा
आगमका वचन है; इसलिये अज्ञानदशामें किसी जीवको
व्यवहारनय नहीं हो सकता; किन्तु व्यवहाराभास अथवा
निश्चयाभासरूप मिथ्यानय हो सकता है ।

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(३) जीव निज ज्ञायकस्वभावके आश्रय द्वारा निश्चयरत्नत्रय
(मोक्षमार्ग) प्रगट करे, तब सर्वज्ञकथित नव तत्त्व, सच्चे देव-
शास्त्र-गुरुकी श्रद्धा सम्बन्धी रागमिश्रित विचार तथा
मन्दकषायरूप शुभभाव–जो कि उस जीवको पूर्वकालमें था, उसे
भूतनैगमनयसे व्यवहारकारण कहा जाता है । (परमात्मप्रकाश,
अध्याय २ गाथा १४ की टीका) । तथा उसी जीवको
निश्चयसम्यग्दर्शनकी भूमिकामें शुभराग और निमित्त किस प्रकारके
होते हैं, उनका सहचरपना बतलानेके लिये वर्तमान शुभरागको
व्यवहारमोक्षमार्ग कहा है, ऐसा कहनेका कारण यह है कि उससे
भिन्न प्रकारके (विरुद्ध) निमित्त उस दशामें किसीको हो नहीं
सकते । –इस प्रकार निमित्त-व्यवहार होता है; तथापि वह यथार्थ
कारण नहीं है ।
(४) आत्मा स्वयं ही सुखस्वरूप है; इसलिये आत्माके
आश्रयसे ही सुख प्रगट हो सकता है; किन्तु किसी निमित्त या
व्यवहारके आश्रयसे सुख प्रगट नहीं हो सकता ।
(५) मोक्षमार्ग तो एक ही है, वह निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञान-
चारित्रकी एकतारूप है । (प्रवचनसार गाथा ८२-१९९ तथा
मोक्षमार्ग प्रकाशक देहली, पृष्ठ ४६२)
(६) अब, ‘‘मोक्षमार्ग तो कहीं दो नहीं हैं; किन्तु मोक्षमार्गका
निरूपण दो प्रकारसे है । जहाँ मोक्षमार्गके रूपमें सच्चे मोक्षमार्गकी
प्ररूपणा की है वह निश्चयमोक्षमार्ग है तथा जहाँ जो मोक्षमार्ग तो
नहीं है; किन्तु मोक्षमार्गका निमित्त है अथवा सहचारी है, वहाँ उसे
उपचारसे मोक्षमार्ग कहें तो वह व्यवहारमोक्षमार्ग है; क्योंकि
निश्चय-व्यवहारका सर्वत्र ऐसा ही लक्षण है अर्थात् यथार्थ निरूपण

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वह निश्चय और उपचार निरूपण वह व्यवहार । इसलिये
निरूपणकी अपेक्षासे दो प्रकारका मोक्षमार्ग जानना । किन्तु एक
निश्चयमोक्षमार्ग है और दूसरा व्यवहारमोक्षमार्ग है–इस प्रकार दो
मोक्षमार्ग मानना मिथ्या है
।।।।
(मोक्षमार्गप्रकाशक देहली पृष्ठ ३६५-३६६)
निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रका स्वरूप
परद्रव्यनतैं भिन्न आपमें रुचि, सम्यक्त्व भला है
आपरूपको जानपनों, सो सम्यग्ज्ञान कला है ।।
आपरूपमें लीन रहे थिर, सम्यग्चारित सोई
अब व्यवहार मोक्षमग सुनिये, हेतु नियतको होई ।।।।
अन्वयार्थ :(आपमें) आत्मामें (परद्रव्यनतैं)
परवस्तुओंसे (भिन्न) भिन्नत्वकी (रुचि) श्रद्धा करना सो (भला)
निश्चय (सम्यक्त्व) सम्यग्दर्शन है; (आपरूपको) आत्माके
स्वरूपको (परद्रव्यनतैं भिन्न) परद्रव्योंसे भिन्न (जानपनों) जानना
(सो) वह (सम्यग्ज्ञान) निश्चय सम्यग्ज्ञान (कला) प्रकाश (है) है ।
(परद्रव्यनतैं भिन्न) परद्रव्योंसे भिन्न ऐसे (आपरूपमें) आत्मस्वरूपमें
(थिर) स्थिरतापूर्वक (लीन रहे) लीन होना सो (सम्यक्चारित)