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व्यवहार-मोक्षमार्ग (सुनिये) सुनो कि जो व्यवहारमोक्षमार्ग
(नियतको) निश्चय-मोक्षमार्गका (हेतु) निमित्तकारण (होई) है ।
आत्माको परवस्तुओंसे भिन्न जानना (ज्ञान करना) उसे निश्चय-
सम्यग्ज्ञान कहा जाता है । तथा परद्रव्योंका आलम्बन छोड़कर
आत्म-स्वरूपमें एकाग्रतासे मग्न होना वह निश्चय सम्यक्चारित्र
(यथार्थ आचरण) कहलाता है । अब आगे व्यवहार-मोक्षमार्गका
कथन करते हैं; क्योंकि जब निश्चय-मोक्षमार्ग हो तब व्यवहार-
मोक्षमार्ग निमित्तरूपमें कैसा होता है वह जानना चाहिये
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(निर्जरा) निर्जरा, (अरु) और (मोक्ष) मोक्ष (तत्त्व) यह सात तत्त्व
(कहे) कहे हैं; (तिनको) उन सबकी (ज्योंका त्यों) यथावत्-
यथार्थरूपसे (सरधानो) श्रद्धा करो । (सोई) इस प्रकार श्रद्धा
करना सो (समकित व्यवहारी) व्यवहारसे सम्यग्दर्शन है । अब (इन
रूप) इन सात तत्त्वोंके रूपका (बखानो) वर्णन करते हैं; (तिनको)
उन्हें (सामान्य विशेषैं) संक्षेपसे तथा विस्तारसे (सुन) सुनकर
(उर) मनमें (ि
सम्यग्दर्शन न हो उसे व्यवहार सम्यग्दर्शन भी नहीं हो सकता ।
निश्चयश्रद्धासहित सात तत्त्वोंकी विकल्प-रागरहित श्रद्धाको
व्यवहारसम्यग्दर्शन कहा जाता है ।
४७७ तथा पुरुषार्थसिद्धयुपाय गाथा २२)
निश्चयमोक्षमार्गमें कैसा निमित्त होता है वह बतलानेके लिये यहाँ
तीसरी गाथा कही है; किन्तु उसका ऐसा अर्थ नहीं है
कि–निश्चयसम्यक्त्व बिना व्यवहारसम्यक्त्व हो सकता है
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जीव (त्रिधा) तीन प्रकारके (है) हैं; [उनमें ] (देह जीवको) शरीर
और आत्माको (एक गिने) एक मानते हैं वे (बहिरातम) बहिरात्मा
हैं [और वे बहिरात्मा ] (तत्त्वमुधा) यथार्थ तत्त्वोंसे अजान अर्थात्
तत्त्वमूढ़ मिथ्यादृष्टि हैं । (आतमज्ञानी) आत्माको परवस्तुओंसे भिन्न
जानकर यथार्थ निश्चय करनेवाले (अन्तरआतम) अन्तरात्मा
[कहलाते हैं; वे ] (उत्तम) उत्तम (मध्यम) मध्यम और (जघन)
जघन्य –ऐसे (त्रिविध) तीन प्रकारके हैं; [उनमें ] (द्विविध)
अंतरंग तथा बहिरंग –ऐसे दो प्रकारके (संगबिन) परिग्रह रहित
(शुध उपयोगी) शुद्ध उपयोगी (निजध्यानी) आत्मध्यानी (मुनि)
दिगम्बर मुनि (उत्तम) उत्तम अन्तरात्मा हैं ।
एक मानते हैं, उन्हें बहिरात्मा कहते हैं; वे तत्त्वमूढ़ मिथ्यादृष्टि हैं ।
जो शरीर आत्माको अपने भेदविज्ञानसे भिन्न-भिन्न मानते हैं, वे
अन्तरात्मा अर्थात् सम्यग्दृष्टि हैं । अन्तर आत्माके तीन भेद
हैं–उत्तम, मध्यम और जघन्य । उनमें अंतरंग तथा बहिरंग दोनों
प्रकारके परिग्रहसे रहित सातवेंसे लेकर बारहवें गुणस्थान तक
वर्तते हुए शुद्ध-उपयोगी आत्मध्यानी दिगम्बर मुनि उत्तम अन्तरात्मा
हैं
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मध्यम अन्तरात्मा हैं तथा (देशव्रती) दो कषायके अभाव सहित ऐसे
पंचमगुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि श्रावक (मध्यम) मध्यम (अन्तर-
आतम) अन्तरात्मा (हैं) हैं और (अविरत) व्रतरहित (समदृष्टि)
सम्यग्दृष्टि जीव (जघन) जघन्य अन्तरात्मा (कहे) कहलाते हैं;
(तीनों) यह तीनों (शिवमगचारी) मोक्षमार्ग पर चलनेवाले हैं ।
(सकल निकल) सकल और निकलके भेदसे (परमातम) परमात्मा
(द्वैविध) दो प्रकारके हैं (तिनमें) उनमें (घाति) चार घातिकर्मोंको
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(निहारी) जानने-देखनेवाले (श्री अरिहन्त) अरहन्त परमेष्ठी
(सकल) शरीरसहित (परमातम) परमात्मा हैं ।
तो उस शुद्धोपयोगरूप द्वारा स्वयं अपना अनुभव करते हैं, किसीको
इष्ट-अनिष्ट मानकर राग-द्वेष नहीं करते, हिंसादिरूप
अशुभोपयोगका तो अस्तित्व ही जिनके नहीं रहा है–ऐसी अन्तरंग-
दशा सहित बाह्य दिगम्बर सौम्य मुद्राधारी हुए हैं और छठवें प्रमत्त-
संयत गुणस्थानके समय अट्ठाईस मूलगुणोंका अखण्डरूपसे पालन
करते हैं वे, तथा जो अनन्तानुबन्धी एवं अप्रत्याख्यानावरणी ऐसी दो
कषायके अभावसहित सम्यग्दृष्टि श्रावक हैं वे मध्यम अन्तरात्मा हैं,
अर्थात् छठवें और पाँचवें गुणस्थानवर्ती जीव मध्यम अन्तरात्मा हैं।
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समयमें युगपत् अर्थात् (एकसाथ) जानने-देखनेवाले, सबके ज्ञाता-
द्रष्टा हैं, इससे निश्चित होता है कि–जिस प्रकार सर्वज्ञका ज्ञान
व्यवस्थित है; उसीप्रकार उनके ज्ञानके ज्ञेय–सर्वद्रव्य–छहों द्रव्योंकी
त्रैकालिक क्रमबद्ध पर्यायें भी निश्चित-व्यवस्थित हैं, कोई पर्याय
उल्टी-सीधी अथवा अव्यवस्थित नहीं होती, ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव
मानता है । जिसकी ऐसी मान्यता (–निर्णय) नहीं होती, उसे स्व-
पर पदार्थोंका निश्चय न होनेसे शुभाशुभ विकार और परद्रव्यके साथ
कर्ताबुद्धि-एकताबुद्धि होती ही है; इसलिये वह जीव बहिरात्मा
है
औदारिक शरीरादि नोकर्म–ऐसे तीन प्रकारके (कर्ममल) कर्मरूपी
मैलसे (वर्जित) रहित, (अमल) निर्मल और (महन्ता) महान
(सिद्ध) सिद्ध परमेष्ठी (निकल) निकल (परमातम) परमात्मा हैं ।
वे (अनन्त) अपरिमित (शर्म) सुख (भोगैं) भोगते हैं । इन तीनोंमें
(बहिरातमता) बहिरात्मपनेको (हेय) छोड़ने योग्य (जानि) जानकर
और (तजि) उसे छोड़कर (अन्तर आतम) अन्तरात्मा (हूजै) होना
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(ध्याय) ध्यान करना चाहिए; (जो) जिसके द्वारा (नित) अर्थात्
निरंतर (आनन्द) आनन्द (पूजै) प्राप्त किया जाता है ।
परमात्मा कहलाते हैं; वे अक्षय अनन्तकाल तक अनन्तसुखका
अनुभव करते हैं । इन तीनमें बहिरात्मपना मिथ्यात्वसहित होनेके
कारण हेय (छोड़ने योग्य) है; इसलिये आत्महितैषियोंको चाहिये
कि उसे छोड़कर, अन्तरात्मा (सम्यग्दृष्टि) बनकर परमात्मपना प्राप्त
करें; क्योंकि उससे सदैव सम्पूर्ण और निरंतर अनन्त आनन्द
(मोक्ष)की प्राप्ति होती है
पाँच भेद हैं; (जाके पंच वरन-रस) जिसके पाँच वर्ण और रस,
दो गन्ध और (वसू) आठ (फ रस) स्पर्श (हैं) होते हैं, वह
पुद्गलद्रव्य है । जो (जिय) जीवको [और ] (पुद्गलको)
पुद्गलको (चलन सहाई) चलनेमें निमित्त [और ] (अनरूपी)
अमूर्तिक है वह (धर्म) धर्मद्रव्य है तथा (तिष्ठत) गतिपूर्वक
स्थितिपरिणामको प्राप्त [जीव और पुद्गलको ] (सहाई) निमित्त
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भगवानने उस अधर्मद्रव्यको (बिन-मूर्ति) अमूर्तिक, (निरूपी)
अरूपी कहा है ।
पाँच भेद हैं– पुद्गल, धर्म,
हैं । जो स्वयं गति करते हैं ऐसे जीव और पुद्गलको चलनेमें जो
निमित्तकारण होता है, वह धर्मद्रव्य है तथा जो स्वयं अपने आप
गतिपूर्वक स्थिर रहे हुए जीव और पुद्गलको स्थिर रहनेमें
निमित्तकारण है, वह अधर्मद्रव्य है । जिनेन्द्र भगवानने इन धर्म,
अधर्म द्रव्योंको तथा जो आगे कहे जायेंगे उन आकाश और काल
आनेवाले धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय नामक दो अजीव
द्रव्य समझना चाहिये
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द्रव्य (पिछानो) जानना; (वर्तना) स्वयं प्रवर्तित हो और दूसरोंको
प्रवर्तित होनेमें निमित्त हो वह (नियत) निश्चय कालद्रव्य है; तथा
(निशिदिन) रात्रि, दिवस आदि (व्यवहारकाल) व्यवहारकाल
(परिमानो) जानो । (यों) इस प्रकार (अजीव) अजीवतत्त्वका वर्णन
हुआ । (अब) अब (आस्रव) आस्रवतत्त्व (सुनिये) सुनो । (मन-वच-
काय) मन, वचन और कायाके आलम्बनसे आत्माके प्रदेश चंचल
होनेरूप (त्रियोगा) तीन प्रकारके योग तथा मिथ्यात्व, अविरत,
कषाय (अरु) और (परमाद) प्रमाद (सहित) सहित (उपयोगा)
उपयोग आत्माकी प्रवृत्ति वह (आस्रव) आस्रवतत्त्व कहलाता है ।
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हुआ । अब, आस्रवतत्त्वका वर्णन करते हैं । उसके मिथ्यात्व,
अविरत, प्रमाद, कषाय और योग –ऐसे पाँच भेद हैं
स्निग्धता वह भाव-बन्ध है
जाये तो वह समा जाती है; फि र उसमें शर्करा डाली जाये वह भी
समा जाती है; फि र उसमें सुइयाँ डाली जायें तो वे भी समा जाती
हैं; उसीप्रकार आकाश में भी मुख्य अवगाहन-शक्ति है; इसलिये
उसमें सर्वद्रव्य एक साथ रह सकते हैं
द्रव्योंके परिणमनमें जो निमित्त हो उसे कालद्रव्य कहते हैं
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(इनको) इन मिथ्यात्वादिको (तजिये) छोड़ देना चाहिये (जीव-
प्रदेश) आत्माके प्रदेशोंका (विधि सों) कर्मोंसे (बन्धै) बँधना वह
(बंधन) बन्ध [कहलाता है ] (सो) वह [बन्ध ] (कबहुँ) कभी भी
(न सजिये) नहीं करना चाहिये । (शम) कषायोंका अभाव [और ]
(दम तैं) इन्द्रियों तथा मनको जीतनेसे (कर्म) कर्म (न आवैं)
नहीं आयें वह (संवर) संवरतत्त्व है; (ताहि) उस संवरको
(आदरिये) ग्रहण करना चाहिये । (तपबल तैं) तपकी शक्तिसे
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निर्जरा है । (ताहि) उस निर्जराको (सदा) सदैव (आचरिये) प्राप्त
करना चाहिये ।
दोषरूप मिथ्याभावोंका अभाव करना चाहिये । स्पर्शोंके साथ
पुद्गलोंका बन्ध, रागादिके साथ जीवका बन्ध और अन्योन्यअवगाह
रूप पुद्गल-जीवात्मक बन्ध कहा है । (प्रवचनसार गाथा १७७)
रागपरिणाम मात्र ऐसा जो भावबन्ध है वह द्रव्यबन्धका हेतु होनेसे
वही निश्चयबन्ध है जो छोड़ने योग्य है ।
ऐसे कषायके अभावको शम कहते हैं और दम अर्थात् जो ज्ञेय-
ज्ञायक, संकर दोष टालकर, इन्द्रियोंको जीतकर, ज्ञानस्वभाव द्वारा
अन्य द्रव्यसे अधिक (पृथक् परिपूर्ण) आत्माको जानता है, उसे
निश्चयनयमें स्थित साधु वास्तवमें–जितेन्द्रिय कहते हैं । (समयसार
गाथा–३१)
इन्द्रिय-दमन कहते हैं; परन्तु आहारादि तथा पाँच इन्द्रियोंके
विषयरूप बाह्य वस्तुओंके त्यागरूप जो मन्दकषाय है, उससे
वास्तवमें इन्द्रिय-दमन नहीं होता; क्योंकि वह तो शुभराग है, पुण्य
है, इसलिये बन्धका ही कारण है–ऐसा समझना ।
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आलम्बनानुसार संवर-निर्जरा प्रारम्भ होती है । क्रमशः जितने
अंशमें रागका अभाव हो, उतने अंशमें संवर-निर्जरारूप धर्म होता
है । स्वोन्मुखताके बलसे शुभाशुभ इच्छाका निरोध सो तप है । उस
तपसे निर्जरा होती है ।
कर्मोंका आना स्वयं-स्वतः रुक जाये सो द्रव्यसंवर है ।
भावनिर्जरा है और उस समय खिरने योग्य कर्मोंका अंशतः छूट
जाना सो द्रव्यनिर्जरा है ।
(६) जीव-अजीवको उनके स्वरूप सहित जानकर स्व तथा
जानकर उसे अहितरूप, संवरको पहिचानकर उसे उपादेयरूप
तथा निर्जराको पहिचानकर उसे हितका कारण मानना चाहिये
कर्म आने लगते हैं
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(अवस्था) दशा-पर्याय सो (शिव) मोक्ष कहलाता है । (इहि विध)
कर्मोंका आना रुक जाता है
थोड़े-से कर्म आत्मासे अलग हो जाते हैं
कर्म पृथक् हो जानेसे आत्माकी परिपूर्ण शुद्धदशा (मोक्षदशा) प्रगट
हो जाती है अर्थात् आत्मा मुक्त हो जाता है
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श्रद्धा करना सो (व्यवहारी) व्यवहार (समकित) सम्यग्दर्शन है ।
(जिनेन्द्र) वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी (देव) सच्चे देव
(परिग्रह बिन) चौबीस परिग्रहसे रहित (गुरु) वीतराग गुरु [तथा ]
(सारो) सारभूत (दयाजुत) अहिंसामय (धर्म) जैनधर्म (येहु) इन
सबको (समकितको) सम्यग्दर्शनका (कारण) निमित्तकारण (मान)
जानना चाहिये । सम्यग्दर्शनको उसके (अष्ट) आठ (अंगजुत) अंगों
सहित (धारो) धारण करना चाहिये ।
सम्पूर्ण शुद्धदशा (पर्याय) प्रगट होती है, उसे मोक्ष कहते हैं । वह
दशा अविनाशी तथा अनन्त सुखमय है– इसप्रकार सामान्य और
विशेषरूपसे सात तत्त्वोंकी अचल श्रद्धा करना उसे
व्यवहारसम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) कहते हैं । जिनेन्द्रदेव, वीतरागी
(दिगम्बर जैन) निर्ग्रन्थ गुरु, तथा जिनेन्द्रप्रणीत अहिंसामय धर्म भी
उस व्यवहार सम्यग्दर्शनके कारण हैं अर्थात् इन तीनोंका यथार्थ
श्रद्धान भी व्यवहार सम्यग्दर्शन कहलाता है । उसे निम्नोक्त आठ
अंगों सहित धारण करना चाहिये । व्यवहार सम्यक्त्वीका स्वरूप
पहले, दूसरे तथा तीसरे छंदके भावार्थमें समझाया है ।
निश्चयसम्यक्त्वके बिना मात्र व्यवहारको व्यवहारसम्यक्त्व नहीं कहा
जाता
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(षट्) छह (
रहित होकर (संवेगादिक) संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य और
प्रशममें (चित) मनको (पागो) लगाना चाहिये । अब, सम्यक्त्वके
(अष्ट) आठ (अंग) अंग (अरु) और (पचीसों दोष) पच्चीस
दोषोंको (संक्षेपै) संक्षेपमें (कहिये) कहा जाता है; क्योंकि (बिन
जाने तैं) उन्हें जाने बिना (दोष) दोषोंको (कैसे) किस प्रकार
(तजिये) छोड़ें और (गुननको) गुणोंको किस प्रकार (गहिये) ग्रहण
करें ?
दोष हैं । संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य और प्रशम सम्यग्दृष्टिको होते
हैं । सम्यक्त्वके अभिलाषी जीवको सम्यक्त्वके इन पच्चीस दोषोंका
त्याग करके उन भावनाओंमें मन लगाना चाहिये । अब सम्यक्त्वके
आठ गुणों (अंगों) और पच्चीस दोषोंका संक्षेपमें वर्णन किया जाता
है; क्योंकि जाने और समझे बिना दोषोंको कैसे छोड़ा जा सकता
है तथा गुणोंको कैसे ग्रहण किया जा सकता है ?
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निःशंकित अंग है; ] २. (वृष) धर्मको (धार) धारण करके (भव-
सुख-वाँछा) सांसारिक सुखोंकी इच्छा (भानै) न करे [सो
निःकांक्षित अंग है; ] ३. (मुनि-तन) मुनियोंके शरीरादि (मलिन)
मैले (देख) देखकर (न घिनावै) घृणा न करना [सो निर्विचिकित्सा
अंग है; ] ४. (तत्त्व-कुतत्त्व) सच्चे और झूठे तत्त्वोंकी (पिछानै)
पहिचान रखे [सो अमूढ़दृष्टि अंग है; ]
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है ]; ६. (कामादिक कर) काम-विकारादिके कारण (वृषतैं) धर्मसे
(चिगते) च्युत होते हुए (निज-परको) अपनेको तथा परको (सु
ि
प्रीति समान (कर) प्रेम रखना [सो वात्सल्य अंग है ] और
(जिनधर्म) जैनधर्मकी (दिपावै) शोभामें वृद्धि करना [सो प्रभावना
अंग है । ] (इन गुणतैं) इन [आठ ] गुणोंसे (विपरीत) उल्टे (वसु)
आठ (दोष) दोष हैं, (तिनको) उन्हें (सतत) हमेशा (खिपावै) दूर
करना चाहिये ।
होना सो निःशंकित अंग कहलाता है ।
(इच्छा न होने पर भी) दुःख सहन करता है; उसीप्रकार वे अपने
पुरुषार्थकी निर्बलतासे गृहस्थदशामें रहते हैं; किन्तु रुचिपूर्वक
भोगोंकी इच्छा नहीं करते; इसलिये उन्हें निःशंकित और
निःकांक्षित अंग होनेमें कोई बाधा नहीं आती ।
२. धर्म सेवन करके उसके बदलेमें सांसारिक सुखोंकी इच्छा
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रखना) सो उपगूहन अंग है ।
कहा जाता है । श्री अमृतचन्द्रसूरिने अपने पुरुषार्थसिद्धयुपायके
२७वें श्लोकमें भी यही कहा है–
स्थिर करना स्थितिकरण अंग है ।
जैनधर्मका प्रभाव प्रगट करना वह प्रभावना अंग है ।
७. अवात्सल्य और ८. अप्रभावना –ये सम्यक्त्वके आठ दोष हैं,
इन्हें सदा दूर करना चाहिये । (१२-१३ पूर्वार्द्ध)