Chha Dhala (Hindi). Gatha: 3: vyavhAr samyaktva (samygdarshan)kA swaroop (Dhal 3),4: jeevke bhed, bahirAtmA aur antarAtmAkA lakShan (Dhal 3),5: madhyam aur jaghanya antarAtmA tathA sakal paramAtmA (Dhal 3),6: nikal paramAtmAkA lakShan tathA paramAtmAke dhyAnkA upadesh (Dhal 3),7: ajeev-pudgal, dharm aur adharm dravyake lakShan tathA bhed (Dhal 3),8: Akash, kAl aur Ashravke lakShan AthavA bhed (Dhal 3),9: Ashrav tattvakA upadesh aur bandh, sanvar, nirjarAkA lakShan (Dhal 3),10: mokshakA lakShan, vyavahArsamyaktvakA lakShan tathA kAran (Dhal 3),11: samyaktvake pachchis dosh tathA ATh gun (Dhal 3),12,13.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 5 of 11

 

Page 57 of 192
PDF/HTML Page 81 of 216
single page version

background image
निश्चय सम्यक्चारित्र (सोई) है । (अब) अब (व्यवहार मोक्षमग)
व्यवहार-मोक्षमार्ग (सुनिये) सुनो कि जो व्यवहारमोक्षमार्ग
(नियतको) निश्चय-मोक्षमार्गका (हेतु) निमित्तकारण (होई) है ।
भावार्थ :पर पदार्थोंसे त्रिकाल भिन्न ऐसे निज-
आत्माका अटल विश्वास करना उसे निश्चय सम्यग्दर्शन कहते हैं ।
आत्माको परवस्तुओंसे भिन्न जानना (ज्ञान करना) उसे निश्चय-
सम्यग्ज्ञान कहा जाता है । तथा परद्रव्योंका आलम्बन छोड़कर
आत्म-स्वरूपमें एकाग्रतासे मग्न होना वह निश्चय सम्यक्चारित्र
(यथार्थ आचरण) कहलाता है । अब आगे व्यवहार-मोक्षमार्गका
कथन करते हैं; क्योंकि जब निश्चय-मोक्षमार्ग हो तब व्यवहार-
मोक्षमार्ग निमित्तरूपमें कैसा होता है वह जानना चाहिये
।।।।
व्यवहार सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन)का स्वरूप
जीव अजीव तत्त्व अरु आस्रव, बन्ध रु संवर जानो
निर्जर मोक्ष कहे जिन तिनको, ज्यों का त्यों सरधानो ।।
है सोई समकित व्यवहारी, अब इन रूप बखानो
तिनको सुन सामान्य विशेषैं,िद्रढ़ प्रतीत उर आनो ।।।।
अन्वयार्थ :(जिन) जिनेन्द्रदेवने (जीव) जीव,

Page 58 of 192
PDF/HTML Page 82 of 216
single page version

background image
(अजीव) अजीव, (आस्रव) आस्रव, (बन्ध) बन्ध, (संवर) संवर,
(निर्जरा) निर्जरा, (अरु) और (मोक्ष) मोक्ष (तत्त्व) यह सात तत्त्व
(कहे) कहे हैं; (तिनको) उन सबकी (ज्योंका त्यों) यथावत्-
यथार्थरूपसे (सरधानो) श्रद्धा करो । (सोई) इस प्रकार श्रद्धा
करना सो (समकित व्यवहारी) व्यवहारसे सम्यग्दर्शन है । अब (इन
रूप) इन सात तत्त्वोंके रूपका (बखानो) वर्णन करते हैं; (तिनको)
उन्हें (सामान्य विशेषैं) संक्षेपसे तथा विस्तारसे (सुन) सुनकर
(उर) मनमें (ि
द्रढ़) अटल (प्रतीत) श्रद्धा (आनो) करो ।
भावार्थ :(१) निश्चयसम्यग्दर्शनके साथ व्यवहार-
सम्यक्दर्शन कैसे होता है, उसका यहाँ वर्णन है । जिसे निश्चय-
सम्यग्दर्शन न हो उसे व्यवहार सम्यग्दर्शन भी नहीं हो सकता ।
निश्चयश्रद्धासहित सात तत्त्वोंकी विकल्प-रागरहित श्रद्धाको
व्यवहारसम्यग्दर्शन कहा जाता है ।
(२) तत्त्वार्थसूत्रमें ‘‘तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्’’ कहा है,
वह निश्चयसम्यग्दर्शन है । (देखो, मोक्षमार्गप्रकाशक अध्याय ९ पृष्ठ
४७७ तथा पुरुषार्थसिद्धयुपाय गाथा २२)
यहाँ जो सात तत्त्वोंकी श्रद्धा कही है, वह भेदरूप
है–रागसहित है, इसलिये वह व्यवहारसम्यग्दर्शन है ।
निश्चयमोक्षमार्गमें कैसा निमित्त होता है वह बतलानेके लिये यहाँ
तीसरी गाथा कही है; किन्तु उसका ऐसा अर्थ नहीं है
कि–निश्चयसम्यक्त्व बिना व्यवहारसम्यक्त्व हो सकता है
।।।।
जीवके भेद, बहिरात्मा और उत्तम अन्तरात्माका लक्षण
बहिरातम, अन्तरआतम, परमातम जीव त्रिधा है
देह जीवको एक गिने बहिरातम तत्त्वमुधा है ।।

Page 59 of 192
PDF/HTML Page 83 of 216
single page version

background image
उत्तम मध्यम जघन त्रिविधके अन्तर-आतम ज्ञानी
द्विविध संग बिन शुध-उपयोगी मुनि उत्तम निजध्यानी ।।।।
अन्वयार्थ :(बहिरातम) बहिरात्मा, (अन्तरआतम)
अन्तरात्मा [और ] (परमातम) परमात्मा [इस प्रकार ] (जीव)
जीव (त्रिधा) तीन प्रकारके (है) हैं; [उनमें ] (देह जीवको) शरीर
और आत्माको (एक गिने) एक मानते हैं वे (बहिरातम) बहिरात्मा
हैं [और वे बहिरात्मा ] (तत्त्वमुधा) यथार्थ तत्त्वोंसे अजान अर्थात्
तत्त्वमूढ़ मिथ्यादृष्टि हैं । (आतमज्ञानी) आत्माको परवस्तुओंसे भिन्न
जानकर यथार्थ निश्चय करनेवाले (अन्तरआतम) अन्तरात्मा
[कहलाते हैं; वे ] (उत्तम) उत्तम (मध्यम) मध्यम और (जघन)
जघन्य –ऐसे (त्रिविध) तीन प्रकारके हैं; [उनमें ] (द्विविध)
अंतरंग तथा बहिरंग –ऐसे दो प्रकारके (संगबिन) परिग्रह रहित
(शुध उपयोगी) शुद्ध उपयोगी (निजध्यानी) आत्मध्यानी (मुनि)
दिगम्बर मुनि (उत्तम) उत्तम अन्तरात्मा हैं ।
भावार्थ :जीव (आत्मा) तीन प्रकारके हैं–(१) बहिरात्मा,
(२) अन्तरात्मा, (३) परमात्मा । उनमें जो शरीर और आत्माको
एक मानते हैं, उन्हें बहिरात्मा कहते हैं; वे तत्त्वमूढ़ मिथ्यादृष्टि हैं ।
जो शरीर आत्माको अपने भेदविज्ञानसे भिन्न-भिन्न मानते हैं, वे
अन्तरात्मा अर्थात् सम्यग्दृष्टि हैं । अन्तर आत्माके तीन भेद
हैं–उत्तम, मध्यम और जघन्य । उनमें अंतरंग तथा बहिरंग दोनों
प्रकारके परिग्रहसे रहित सातवेंसे लेकर बारहवें गुणस्थान तक
वर्तते हुए शुद्ध-उपयोगी आत्मध्यानी दिगम्बर मुनि उत्तम अन्तरात्मा
हैं
।।।।

Page 60 of 192
PDF/HTML Page 84 of 216
single page version

background image
मध्यम और जघन्य अन्तरात्मा तथा सकल परमात्मा
मध्यम अन्तर-आतम हैं जे, देशव्रती अनगारी
जघन कहे अविरत-समदृष्टि, तीनों शिवमगचारी ।।
सकल निकल परमातम द्वैविध, तिनमें घातिनिवारी
श्री अरिहन्त सकल परमातम लोकालोक निहारी ।।।।
अन्वयार्थ :(अनगारी) छठवें गुणस्थानके समय
अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह रहित यथाजातरूपधर–भावलिंगी मुनि
मध्यम अन्तरात्मा हैं तथा (देशव्रती) दो कषायके अभाव सहित ऐसे
पंचमगुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि श्रावक (मध्यम) मध्यम (अन्तर-
आतम) अन्तरात्मा (हैं) हैं और (अविरत) व्रतरहित (समदृष्टि)
सम्यग्दृष्टि जीव (जघन) जघन्य अन्तरात्मा (कहे) कहलाते हैं;
(तीनों) यह तीनों (शिवमगचारी) मोक्षमार्ग पर चलनेवाले हैं ।
(सकल निकल) सकल और निकलके भेदसे (परमातम) परमात्मा
(द्वैविध) दो प्रकारके हैं (तिनमें) उनमें (घाति) चार घातिकर्मोंको
जीवके भेद-उपभेद

Page 61 of 192
PDF/HTML Page 85 of 216
single page version

background image
(निवारी) नाश करनेवाले (लोकालोक) लोक तथा अलोकको
(निहारी) जानने-देखनेवाले (श्री अरिहन्त) अरहन्त परमेष्ठी
(सकल) शरीरसहित (परमातम) परमात्मा हैं ।
भावार्थ :(१) जो निश्चयसम्यग्दर्शनादि सहित हैं; तीन
कषाय रहित, शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्मको अंगीकार करके अंतरंगमें
तो उस शुद्धोपयोगरूप द्वारा स्वयं अपना अनुभव करते हैं, किसीको
इष्ट-अनिष्ट मानकर राग-द्वेष नहीं करते, हिंसादिरूप
अशुभोपयोगका तो अस्तित्व ही जिनके नहीं रहा है–ऐसी अन्तरंग-
दशा सहित बाह्य दिगम्बर सौम्य मुद्राधारी हुए हैं और छठवें प्रमत्त-
संयत गुणस्थानके समय अट्ठाईस मूलगुणोंका अखण्डरूपसे पालन
करते हैं वे, तथा जो अनन्तानुबन्धी एवं अप्रत्याख्यानावरणी ऐसी दो
कषायके अभावसहित सम्यग्दृष्टि श्रावक हैं वे मध्यम अन्तरात्मा हैं,
अर्थात् छठवें और पाँचवें गुणस्थानवर्ती जीव मध्यम अन्तरात्मा हैं।
(२) सम्यग्दर्शनके बिना कभी धर्मका प्रारम्भ नहीं होता;
जिसे निश्चयसम्यग्दर्शन नहीं है, वह जीव बहिरात्मा है ।
(३) परमात्माके दो प्रकार हैं–सकल और निकल । (१) श्री
अरिहंत-परमात्मा वे सकल (शरीरसहित) परमात्मा हैं, (२) सिद्ध
परमात्मा वे निकल परमात्मा हैं । वे दोनों सर्वज्ञ होनेसे लोक और
सावयगुणेहिं जुत्ता, पमत्तविरदा य मज्झिमा होंति
श्रावकगुणैस्तु युक्ताः, प्रमत्तविरताश्च मध्यमाः भवन्ति ।।
अर्थ– श्रावकके गुणोंसे युक्त और प्रमत्तविरत मुनि मध्यम अंतरात्मा हैं
(स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा–१९६)
१. स=सहित, कल=शरीर, सकल अर्थात् शरीर सहित
२. नि=रहित, कल=शरीर, निकल अर्थात् शरीर रहित

Page 62 of 192
PDF/HTML Page 86 of 216
single page version

background image
अलोक सहित सर्व पदार्थोंका त्रिकालवर्ती सम्पूर्ण स्वरूप एक
समयमें युगपत् अर्थात् (एकसाथ) जानने-देखनेवाले, सबके ज्ञाता-
द्रष्टा हैं, इससे निश्चित होता है कि–जिस प्रकार सर्वज्ञका ज्ञान
व्यवस्थित है; उसीप्रकार उनके ज्ञानके ज्ञेय–सर्वद्रव्य–छहों द्रव्योंकी
त्रैकालिक क्रमबद्ध पर्यायें भी निश्चित-व्यवस्थित हैं, कोई पर्याय
उल्टी-सीधी अथवा अव्यवस्थित नहीं होती, ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव
मानता है । जिसकी ऐसी मान्यता (–निर्णय) नहीं होती, उसे स्व-
पर पदार्थोंका निश्चय न होनेसे शुभाशुभ विकार और परद्रव्यके साथ
कर्ताबुद्धि-एकताबुद्धि होती ही है; इसलिये वह जीव बहिरात्मा
है
।।।।
निकल परमात्माका लक्षण तथा परमात्माके ध्यानका उपदेश
ज्ञानशरीरी त्रिविध कर्ममल-वर्जित सिद्ध महन्ता
ते हैं निकल अमल परमातम, भोगैं शर्म अनन्ता ।।
बहिरातमता हेय जानि तजि, अन्तरआतम हूजै
परमातमको ध्याय निरन्तर, जो नित आनन्द पूजै ।।।।
अन्वयार्थ :(ज्ञानशरीरी) ज्ञानमात्र जिनका शरीर है
ऐसे (त्रिविध) ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, रागादि भावकर्म तथा
औदारिक शरीरादि नोकर्म–ऐसे तीन प्रकारके (कर्ममल) कर्मरूपी
मैलसे (वर्जित) रहित, (अमल) निर्मल और (महन्ता) महान
(सिद्ध) सिद्ध परमेष्ठी (निकल) निकल (परमातम) परमात्मा हैं ।
वे (अनन्त) अपरिमित (शर्म) सुख (भोगैं) भोगते हैं । इन तीनोंमें
(बहिरातमता) बहिरात्मपनेको (हेय) छोड़ने योग्य (जानि) जानकर
और (तजि) उसे छोड़कर (अन्तर आतम) अन्तरात्मा (हूजै) होना

Page 63 of 192
PDF/HTML Page 87 of 216
single page version

background image
चाहिये और (निरन्तर) सदा (परमातमको) [निज ] परमात्मपदका
(ध्याय) ध्यान करना चाहिए; (जो) जिसके द्वारा (नित) अर्थात्
निरंतर (आनन्द) आनन्द (पूजै) प्राप्त किया जाता है ।
भावार्थ :औदारिक आदि शरीर रहित शुद्ध ज्ञानमय,
द्रव्य-भाव-नोकर्म रहित, निर्दोष और पूज्य सिद्ध परमेष्ठी ‘निकल’
परमात्मा कहलाते हैं; वे अक्षय अनन्तकाल तक अनन्तसुखका
अनुभव करते हैं । इन तीनमें बहिरात्मपना मिथ्यात्वसहित होनेके
कारण हेय (छोड़ने योग्य) है; इसलिये आत्महितैषियोंको चाहिये
कि उसे छोड़कर, अन्तरात्मा (सम्यग्दृष्टि) बनकर परमात्मपना प्राप्त
करें; क्योंकि उससे सदैव सम्पूर्ण और निरंतर अनन्त आनन्द
(मोक्ष)की प्राप्ति होती है
।।।।
अजीव–पुद्गल, धर्म और अधर्मद्रव्यके लक्षण तथा भेद
चेतनता बिन सो अजीव है, पंच भेद ताके हैं
पुद्गल पंच वरन-रस, गंध-दो फरस वसु जाके हैं ।।
जिय पुद्गलको चलन सहाई, धर्मद्रव्य अनरूपी
तिष्ठत होय अधर्म सहाई, जिन बिन-मूर्ति निरूपी ।।।।
अन्वयार्थ :जो (चेतनता-बिन) चेतनता रहित है
(सो) वह (अजीव) अजीव है; (ताके) उस अजीवके (पंच भेद)
पाँच भेद हैं; (जाके पंच वरन-रस) जिसके पाँच वर्ण और रस,
दो गन्ध और (वसू) आठ (फ रस) स्पर्श (हैं) होते हैं, वह
पुद्गलद्रव्य है । जो (जिय) जीवको [और ] (पुद्गलको)
पुद्गलको (चलन सहाई) चलनेमें निमित्त [और ] (अनरूपी)
अमूर्तिक है वह (धर्म) धर्मद्रव्य है तथा (तिष्ठत) गतिपूर्वक
स्थितिपरिणामको प्राप्त [जीव और पुद्गलको ] (सहाई) निमित्त

Page 64 of 192
PDF/HTML Page 88 of 216
single page version

background image
(होय) होता है वह (अधर्म) अधर्म द्रव्य है । (जिन) जिनेन्द्र
भगवानने उस अधर्मद्रव्यको (बिन-मूर्ति) अमूर्तिक, (निरूपी)
अरूपी कहा है ।
भावार्थ :जिसमें चेतना (ज्ञान-दर्शन अथवा जानने-
देखनेकी शक्ति) नहीं होती, उसे अजीव कहते हैं । उस अजीवके
पाँच भेद हैं– पुद्गल, धर्म,
अधर्म, आकाश और काल । जिसमें
रूप, रस, गंध, वर्ण और स्पर्श होते हैं उसे पुद्गल द्रव्य कहते
हैं । जो स्वयं गति करते हैं ऐसे जीव और पुद्गलको चलनेमें जो
निमित्तकारण होता है, वह धर्मद्रव्य है तथा जो स्वयं अपने आप
गतिपूर्वक स्थिर रहे हुए जीव और पुद्गलको स्थिर रहनेमें
निमित्तकारण है, वह अधर्मद्रव्य है । जिनेन्द्र भगवानने इन धर्म,
अधर्म द्रव्योंको तथा जो आगे कहे जायेंगे उन आकाश और काल
धर्म और अधर्मसे यहाँ पुण्य और पाप नहीं; किन्तु छह द्रव्योंमें
आनेवाले धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय नामक दो अजीव
द्रव्य समझना चाहिये

Page 65 of 192
PDF/HTML Page 89 of 216
single page version

background image
द्रव्योंको अमूर्तिक (इन्द्रिय-अगोचर) कहा है ।।।।
आकाश, काल और आस्रवके लक्षण अथवा भेद
सकल द्रव्यको वास जासमें, सो आकाश पिछानो
नियत वर्तना निशि-दिन सो, व्यवहारकाल परिमानो ।।
यों अजीव, अब आस्रव सुनिये, मन-वच-काय त्रियोगा
मिथ्या अविरत अरु कषाय, परमाद सहित उपयोगा ।।।।
अन्वयार्थ :(जासमें) जिसमें (सकल) समस्त
(द्रव्यको) द्रव्योंका (वास) निवास है (सो) वह (आकाश) आकाश
द्रव्य (पिछानो) जानना; (वर्तना) स्वयं प्रवर्तित हो और दूसरोंको
प्रवर्तित होनेमें निमित्त हो वह (नियत) निश्चय कालद्रव्य है; तथा
(निशिदिन) रात्रि, दिवस आदि (व्यवहारकाल) व्यवहारकाल
(परिमानो) जानो । (यों) इस प्रकार (अजीव) अजीवतत्त्वका वर्णन
हुआ । (अब) अब (आस्रव) आस्रवतत्त्व (सुनिये) सुनो । (मन-वच-
काय) मन, वचन और कायाके आलम्बनसे आत्माके प्रदेश चंचल
होनेरूप (त्रियोगा) तीन प्रकारके योग तथा मिथ्यात्व, अविरत,
कषाय (अरु) और (परमाद) प्रमाद (सहित) सहित (उपयोगा)
उपयोग आत्माकी प्रवृत्ति वह (आस्रव) आस्रवतत्त्व कहलाता है ।

Page 66 of 192
PDF/HTML Page 90 of 216
single page version

background image
भावार्थ :जिसमें छह द्रव्योंका निवास है उस स्थानको
+आकाश कहते हैं । जो अपने आप बदलता है तथा अपने आप
बदलते हुए अन्य द्रव्योंको बदलनेमें निमित्त है, उसे
‘‘निश्चयकाल’’ कहते हैं । रात, दिन, घड़ी, घण्टा आदिको
‘‘व्यवहारकाल’’ कहा जाता है । –इस प्रकार अजीवतत्त्वका वर्णन
हुआ । अब, आस्रवतत्त्वका वर्णन करते हैं । उसके मिथ्यात्व,
अविरत, प्रमाद, कषाय और योग –ऐसे पाँच भेद हैं
।।।।
[आस्रव और बन्ध दोनोंमें भेद;–जीवके मिथ्यात्व-मोह-
राग-द्वेषरूप परिणाम वह भाव-आस्रव हैं और उन मलिन भावोंमें
स्निग्धता वह भाव-बन्ध है
]
+जिस प्रकार किसी बरतनमें पानी भरकर उसमें भस्म (राख) डाली
जाये तो वह समा जाती है; फि र उसमें शर्करा डाली जाये वह भी
समा जाती है; फि र उसमें सुइयाँ डाली जायें तो वे भी समा जाती
हैं; उसीप्रकार आकाश में भी मुख्य अवगाहन-शक्ति है; इसलिये
उसमें सर्वद्रव्य एक साथ रह सकते हैं
एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको
रोकता नहीं है
अपनी-अपनी पर्यायरूपसे स्वयं परिणमित होते हुए जीवादिक
द्रव्योंके परिणमनमें जो निमित्त हो उसे कालद्रव्य कहते हैं
जिस
प्रकार कुम्हारके चाकको घूमनेमें धुरी अर्थात् कीली कालद्रव्य
को निश्चयकाल कहते हैं लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं उतने
ही कालद्रव्य (कालाणु) हैं दिन, घड़ी, घण्टा, मास –उसे
व्यवहारकाल कहते हैं
(जैन सिद्धान्त. प्रवेशिका)

Page 67 of 192
PDF/HTML Page 91 of 216
single page version

background image
आस्रवत्यागका उपदेश और बन्ध, संवर, निर्जराका लक्षण
ये ही आतमको दुःख-कारण, तातैं इनको तजिये
जीव प्रदेश बंधै विधिसों सो, बंधन कबहुँ न सजिये ।।
शम-दमतैं जो कर्म न आवैं, सो संवर आदरिये
तप-बल तैं विधि-झरन निरजरा, ताहि सदा आचरिये ।।।।
अन्वयार्थ :(ये ही) यह मिथ्यात्वादि ही (आतमको)
आत्माको (दुःख-करण) दुःखके कारण हैं, (तातैं) इसलिये
(इनको) इन मिथ्यात्वादिको (तजिये) छोड़ देना चाहिये (जीव-
प्रदेश) आत्माके प्रदेशोंका (विधि सों) कर्मोंसे (बन्धै) बँधना वह
(बंधन) बन्ध [कहलाता है ] (सो) वह [बन्ध ] (कबहुँ) कभी भी
(न सजिये) नहीं करना चाहिये । (शम) कषायोंका अभाव [और ]
(दम तैं) इन्द्रियों तथा मनको जीतनेसे (कर्म) कर्म (न आवैं)
नहीं आयें वह (संवर) संवरतत्त्व है; (ताहि) उस संवरको
(आदरिये) ग्रहण करना चाहिये । (तपबल तैं) तपकी शक्तिसे

Page 68 of 192
PDF/HTML Page 92 of 216
single page version

background image
(विधि) कर्मोंका (झरन) एकदेश खिर जाना सो (निरजरा)
निर्जरा है । (ताहि) उस निर्जराको (सदा) सदैव (आचरिये) प्राप्त
करना चाहिये ।
भावार्थ :यह मिथ्यात्वादि ही आत्माको दुःखके कारण
हैं; किन्तु पर पदार्थ दुःखके कारण नहीं हैं; इसलिये अपने
दोषरूप मिथ्याभावोंका अभाव करना चाहिये । स्पर्शोंके साथ
पुद्गलोंका बन्ध, रागादिके साथ जीवका बन्ध और अन्योन्यअवगाह
रूप पुद्गल-जीवात्मक बन्ध कहा है । (प्रवचनसार गाथा १७७)
रागपरिणाम मात्र ऐसा जो भावबन्ध है वह द्रव्यबन्धका हेतु होनेसे
वही निश्चयबन्ध है जो छोड़ने योग्य है ।
(२) मिथ्यात्व और क्रोधादिरूप भाव–इन सबको सामान्य-
रूपसे कषाय कहा जाता है (मोक्षमार्गप्रकाशक, देहली–पृष्ठ ४०)
ऐसे कषायके अभावको शम कहते हैं और दम अर्थात् जो ज्ञेय-
ज्ञायक, संकर दोष टालकर, इन्द्रियोंको जीतकर, ज्ञानस्वभाव द्वारा
अन्य द्रव्यसे अधिक (पृथक् परिपूर्ण) आत्माको जानता है, उसे
निश्चयनयमें स्थित साधु वास्तवमें–जितेन्द्रिय कहते हैं । (समयसार
गाथा–३१)
स्वभाव-परभावके भेदज्ञान द्वारा द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय तथा
उनके विषयोंसे आत्माका स्वरूप भिन्न है–ऐसा जानना उसे
इन्द्रिय-दमन कहते हैं; परन्तु आहारादि तथा पाँच इन्द्रियोंके
विषयरूप बाह्य वस्तुओंके त्यागरूप जो मन्दकषाय है, उससे
वास्तवमें इन्द्रिय-दमन नहीं होता; क्योंकि वह तो शुभराग है, पुण्य
है, इसलिये बन्धका ही कारण है–ऐसा समझना ।
(३) शुद्धात्माश्रित सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्धभाव ही

Page 69 of 192
PDF/HTML Page 93 of 216
single page version

background image
संवर है । प्रथम निश्चयसम्यग्दर्शन होने पर स्वद्रव्यके
आलम्बनानुसार संवर-निर्जरा प्रारम्भ होती है । क्रमशः जितने
अंशमें रागका अभाव हो, उतने अंशमें संवर-निर्जरारूप धर्म होता
है । स्वोन्मुखताके बलसे शुभाशुभ इच्छाका निरोध सो तप है । उस
तपसे निर्जरा होती है ।
(४) संवर :–पुण्य-पापरूप अशुद्धभाव (आस्रव)को आत्माके
शुद्धभाव द्वारा रोकना सो भावसंवर है और तदनुसार नवीन
कर्मोंका आना स्वयं-स्वतः रुक जाये सो द्रव्यसंवर है ।
(५) निर्जरा :– अखण्डानन्द निज शुद्धात्माके लक्षसे
अंशतः शुद्धिकी वृद्धि और अशुद्धिकी अंशतः हानि करना सो
भावनिर्जरा है और उस समय खिरने योग्य कर्मोंका अंशतः छूट
जाना सो द्रव्यनिर्जरा है ।
(लघु जैन सिद्धान्त प्रवेशिका पृष्ठ ४५-४६ प्रश्न १२१)
(६) जीव-अजीवको उनके स्वरूप सहित जानकर स्व तथा
परको यथावत् मानना, आस्रवको जानकर उसे हेयरूप, बन्धको
जानकर उसे अहितरूप, संवरको पहिचानकर उसे उपादेयरूप
तथा निर्जराको पहिचानकर उसे हितका कारण मानना चाहिये
(मोक्षमार्ग प्रकाशक. अध्याय ९, पृष्ठ ४६९)
आस्रव आदिके दृष्टांत–
(१) आस्रव– जिस प्रकार किसी नौकामें छिद्र हो जानेसे उसमें पानी
आने लगता है; उसी प्रकार मिथ्यात्वादि आस्रवके द्वारा आत्मामें
कर्म आने लगते हैं
(२) बंध– जिस प्रकार छिद्र द्वारा पानी नौकामें भर जाता है; उसीप्रकार
कर्मपरमाणु आत्माके प्रदेशोंमें पहुँचते हैं (एक क्षेत्रमें रहते हैं)

Page 70 of 192
PDF/HTML Page 94 of 216
single page version

background image
मोक्षका लक्षण, व्यवहारसम्यक्त्वका लक्षण तथा कारण
सकल कर्मतैं रहित अवस्था, सो शिव, थिर सुखकारी
इहिविध जो सरधा तत्त्वनकी, सो समकित व्यवहारी ।।
देव जिनेन्द्र, गुरु परिग्रह बिन, धर्म दयाजुत सारो
येहु मान समकितको कारण, अष्ट-अंग-जुत धारो ।।१०।।
अन्वयार्थ :(सकल कर्मतैं) समस्त कर्मोंसे (रहित)
रहित (थिर) स्थिर-अटल (सुखकारी) अनन्त सुखदायक
(अवस्था) दशा-पर्याय सो (शिव) मोक्ष कहलाता है । (इहि विध)
(३) संवर–जिस प्रकार छिद्र बंद करनेसे नौकामें पानीका आना रुक
जाता है; उसी प्रकार शुद्धभावरूप गुप्ति आदिके द्वारा आत्मा में
कर्मोंका आना रुक जाता है
(४) निर्जरा–जिस प्रकार नौकामें आये हुए पानीमेंसे थोड़ा (किसी
बरतनमें भरकर) बाहर फें क दिया जाता है; उसी प्रकार निर्जरा द्वारा
थोड़े-से कर्म आत्मासे अलग हो जाते हैं
(५) मोक्ष– जिस प्रकार नौकामें आया हुआ सारा पानी निकाल देनेसे
नौका एकदम पानी रहित हो जाती है; उसी प्रकार आत्मामेंसे समस्त
कर्म पृथक् हो जानेसे आत्माकी परिपूर्ण शुद्धदशा (मोक्षदशा) प्रगट
हो जाती है अर्थात् आत्मा मुक्त हो जाता है
।।।।

Page 71 of 192
PDF/HTML Page 95 of 216
single page version

background image
इस प्रकार (जो) जो (तत्त्वनकी) सात तत्त्वोंके भेद सहित (सरधा)
श्रद्धा करना सो (व्यवहारी) व्यवहार (समकित) सम्यग्दर्शन है ।
(जिनेन्द्र) वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी (देव) सच्चे देव
(परिग्रह बिन) चौबीस परिग्रहसे रहित (गुरु) वीतराग गुरु [तथा ]
(सारो) सारभूत (दयाजुत) अहिंसामय (धर्म) जैनधर्म (येहु) इन
सबको (समकितको) सम्यग्दर्शनका (कारण) निमित्तकारण (मान)
जानना चाहिये । सम्यग्दर्शनको उसके (अष्ट) आठ (अंगजुत) अंगों
सहित (धारो) धारण करना चाहिये ।
भावार्थ :मोक्षका स्वरूप जानकर उसे अपना परमहित
मानना चाहिये । आठ कर्मोंके सर्वथा नाश पूर्वक आत्माकी जो
सम्पूर्ण शुद्धदशा (पर्याय) प्रगट होती है, उसे मोक्ष कहते हैं । वह
दशा अविनाशी तथा अनन्त सुखमय है– इसप्रकार सामान्य और
विशेषरूपसे सात तत्त्वोंकी अचल श्रद्धा करना उसे
व्यवहारसम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) कहते हैं । जिनेन्द्रदेव, वीतरागी
(दिगम्बर जैन) निर्ग्रन्थ गुरु, तथा जिनेन्द्रप्रणीत अहिंसामय धर्म भी
उस व्यवहार सम्यग्दर्शनके कारण हैं अर्थात् इन तीनोंका यथार्थ
श्रद्धान भी व्यवहार सम्यग्दर्शन कहलाता है । उसे निम्नोक्त आठ
अंगों सहित धारण करना चाहिये । व्यवहार सम्यक्त्वीका स्वरूप
पहले, दूसरे तथा तीसरे छंदके भावार्थमें समझाया है ।
निश्चयसम्यक्त्वके बिना मात्र व्यवहारको व्यवहारसम्यक्त्व नहीं कहा
जाता
।।१०।।
सम्यक्त्वके पच्चीस दोष तथा आठ गुण
वसु मद टारि निवारि त्रिशठता, षट् अनायतन त्यागो
शंकादिक वसु दोष विना, संवेगादिक चित्त पागो ।।

Page 72 of 192
PDF/HTML Page 96 of 216
single page version

background image
अष्ट अंग अरु दोष पचीसों, तिन संक्षेपै कहिये
बिन जानेतैं दोषगुनन कों, कैसे तजिये गहिये ।।११।।
अन्वयार्थ :(वसु) आठ (मद) मदका (टारि) त्याग
करके, (त्रिशठता) तीन प्रकारकी मूढताको (निवारि) हटाकर,
(षट्) छह (
अनायतन) अनायतनोंका (त्यागो) त्याग करना
चाहिये । (शंकादिक) शंकादि (वसु) आठ (दोष विना) दोषोंसे
रहित होकर (संवेगादिक) संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य और
प्रशममें (चित) मनको (पागो) लगाना चाहिये । अब, सम्यक्त्वके
(अष्ट) आठ (अंग) अंग (अरु) और (पचीसों दोष) पच्चीस
दोषोंको (संक्षेपै) संक्षेपमें (कहिये) कहा जाता है; क्योंकि (बिन
जाने तैं) उन्हें जाने बिना (दोष) दोषोंको (कैसे) किस प्रकार
(तजिये) छोड़ें और (गुननको) गुणोंको किस प्रकार (गहिये) ग्रहण
करें ?
भावार्थ :आठ मद, तीन मूढ़ता, छह अनायतन (अधर्म
स्थान) और आठ शंकादि दोष; –इस प्रकार सम्यक्त्वके पच्चीस
दोष हैं । संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य और प्रशम सम्यग्दृष्टिको होते
हैं । सम्यक्त्वके अभिलाषी जीवको सम्यक्त्वके इन पच्चीस दोषोंका
त्याग करके उन भावनाओंमें मन लगाना चाहिये । अब सम्यक्त्वके
आठ गुणों (अंगों) और पच्चीस दोषोंका संक्षेपमें वर्णन किया जाता
है; क्योंकि जाने और समझे बिना दोषोंको कैसे छोड़ा जा सकता
है तथा गुणोंको कैसे ग्रहण किया जा सकता है ?
।।११।।
अन ++ आयतन = अनायतन = धर्मका स्थान न होना

Page 73 of 192
PDF/HTML Page 97 of 216
single page version

background image
सम्यक्त्वके आठ अंग (गुण) और शंकादि आठ दोषोंका
लक्षण
जिनवचमें शंका न धार वृष, भव-सुख-वाँछा भानै
मुनि-तन मलिन न देख घिनावै, तत्त्व-कुतत्त्व पिछानै ।।
निज गुण अरु पर औगुण ढांके, वा निजधर्म बढ़ावै
कामादिक कर वृषतैं चिगते, निज-परको सुिद्रढ़ावै ।।१२।।

Page 74 of 192
PDF/HTML Page 98 of 216
single page version

background image
अन्वयार्थ :. (जिन वचमें) सर्वज्ञदेवके कहे हुए
तत्त्वोंमें (शंका) संशय-सन्देह (न धार) धारण नहीं करना [सो
निःशंकित अंग है; ] २. (वृष) धर्मको (धार) धारण करके (भव-
सुख-वाँछा) सांसारिक सुखोंकी इच्छा (भानै) न करे [सो
निःकांक्षित अंग है; ] ३. (मुनि-तन) मुनियोंके शरीरादि (मलिन)
मैले (देख) देखकर (न घिनावै) घृणा न करना [सो निर्विचिकित्सा
अंग है; ] ४. (तत्त्व-कुतत्त्व) सच्चे और झूठे तत्त्वोंकी (पिछानै)
पहिचान रखे [सो अमूढ़दृष्टि अंग है; ]
. (निजगुण) अपने गुणोंको (अरु) और (पर औगुण) दूसरेके
अवगुणोंको (ढाँके) छिपाये (वा) तथा (निजधर्म) अपने
छन्द १३ (पूर्वार्द्ध)
धर्मीसों गौ-वच्छ-प्रीति सम, कर जिनधर्म दिपावै
इन गुणतैं विपरीत दोष वसु, तिनकों सतत खिपावै ।।

Page 75 of 192
PDF/HTML Page 99 of 216
single page version

background image
आत्मधर्मको (बढ़ाये) बढ़ये अर्थात् निर्मल बनाए [सो उपगूहन अंग
है ]; ६. (कामादिक कर) काम-विकारादिके कारण (वृषतैं) धर्मसे
(चिगते) च्युत होते हुए (निज-परको) अपनेको तथा परको (सु
ि
द्रढावै) उसमें पुनः दृढ़ करे [सो स्थितिकरण अंग है । ] ७. (धर्मी
सों) अपने साधर्मीजनोंसे (गौ-वच्छ-प्रीति सम) बछड़े पर गायकी
प्रीति समान (कर) प्रेम रखना [सो वात्सल्य अंग है ] और
(जिनधर्म) जैनधर्मकी (दिपावै) शोभामें वृद्धि करना [सो प्रभावना
अंग है । ] (इन गुणतैं) इन [आठ ] गुणोंसे (विपरीत) उल्टे (वसु)
आठ (दोष) दोष हैं, (तिनको) उन्हें (सतत) हमेशा (खिपावै) दूर
करना चाहिये ।
भावार्थ :१. तत्त्व यही है, ऐसा ही है, अन्य नहीं है
तथा अन्य प्रकारसे नहीं है–इस प्रकार यथार्थ तत्त्वोंमें अचल श्रद्धा
होना सो निःशंकित अंग कहलाता है ।
टिप्पणी :–अव्रती सम्यग्दृष्टि जीव भोगोंको कभी भी
आदरणीय नहीं मानते; किन्तु जिस प्रकार कोई बन्दी कारागृहमें
(इच्छा न होने पर भी) दुःख सहन करता है; उसीप्रकार वे अपने
पुरुषार्थकी निर्बलतासे गृहस्थदशामें रहते हैं; किन्तु रुचिपूर्वक
भोगोंकी इच्छा नहीं करते; इसलिये उन्हें निःशंकित और
निःकांक्षित अंग होनेमें कोई बाधा नहीं आती ।
२. धर्म सेवन करके उसके बदलेमें सांसारिक सुखोंकी इच्छा
न करना उसे निःकांक्षित अंग कहते हैं ।
३. मुनिराज अथवा अन्य किसी धर्मात्माके शरीरको मैला
देखकर घृणा न करना उसे निर्विचिकित्सा अंग कहते हैं ।
४. सच्चे और झूठे तत्त्वोंकी परीक्षा करके मूढ़ताओं तथा

Page 76 of 192
PDF/HTML Page 100 of 216
single page version

background image
अनायतनोंमें न फँसना वह अमूढ़दृष्टि अंग है ।
५. अपनी प्रशंसा करानेवाले गुणोंको तथा दूसरेकी निंदा
करानेवाले दोषोंको ढँकना और आत्मधर्मको बढ़ाना (निर्मल
रखना) सो उपगूहन अंग है ।
टिप्पणी :– उपगूहनका दूसरा नाम ‘‘उपबृंहण’’ भी
जिनागममें आता है; जिससे आत्मधर्ममें वृद्धि करने को भी उपगूहन
कहा जाता है । श्री अमृतचन्द्रसूरिने अपने पुरुषार्थसिद्धयुपायके
२७वें श्लोकमें भी यही कहा है–
धर्माऽभिवर्द्धनीयः सदात्मनो मार्दवादिभावनया
परदोषनिगूहनमपि विधेयमुपबृंहणगुणार्थम् ।।२७।।
६. काम, क्रोध, लोभ आदि किसी भी कारणसे (सम्यक्त्व और
चारित्रसे) भ्रष्ट होते हुए अपनेको तथा परको पुनः उसमें
स्थिर करना स्थितिकरण अंग है ।
७. अपने साधर्मी जन पर बछड़ेसे प्यार रखनेवाली गायकी भाँति
निरपेक्ष प्रेम रखना सो वात्सल्य अंग है ।
८. अज्ञान-अन्धकारको दूर करके विद्या-बल-बुद्धि आदिके द्वारा
शास्त्रमें कही हुई योग्य रीतिसे अपने सामर्थ्यानुसार
जैनधर्मका प्रभाव प्रगट करना वह प्रभावना अंग है ।
–इन अंगों (गुणों)से विपरीत १. शंका, २. कांक्षा,
३. विचिकित्सा, ४. मूढ़दृष्टि, ५. अनुपगूहन, ६. अस्थितिकरण,
७. अवात्सल्य और ८. अप्रभावना –ये सम्यक्त्वके आठ दोष हैं,
इन्हें सदा दूर करना चाहिये । (१२-१३ पूर्वार्द्ध)