Chha Dhala (Hindi). Gatha: 13,14,14: chhah anAyatan tathA tin mooDhatA dosh,15: avrati samyagdrashtikee devo dwarA pooja aur gyaAnikeegruhathapanems apriti,16: samyaktvakee mahimA, samyagdrashtike anupatti sthAn tathA sarvottam sukh aur sarv dharmakA mool,17: samyagdarshanks binA gyAn aur chAritrakA mithyApanA (Dhal 3),1: samyaggyAnkA lakShan aur usakA samay (Dhal 4),2: samyagdarshan aur samyaggyAname antar (Dhal 4); Teesaree dhalka saransh; Teesaree dhalka bhed sangrah; Teesaree dhalkA lakShan sangrah; Antar-pradarshan; Teesaree dhalkee prashnavali; Chauthee Dhal.

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छन्द १३ (उत्तरार्द्ध)
मद नामक आठ दोष
पिता भूप वा मातुल नृप जो, होय न तौ मद ठानै
मद न रूपकौ, मद न ज्ञानकौ, धन-बलकौ मद भानै ।।१३।।
छन्द १४ (पूर्वार्द्ध)
तपकौ मद न, मद जु प्रभुताकौ, करै न सो निज जानै
मद धारैं तौ यही दोष वसु, समकितकौ मल ठानै ।।
अन्वयार्थ :[जो जीव ] (जो) यदि (पिता) पिता
आदि पितृपक्षके स्वजन (भूप) राजादि (होय) हों (तौ) तो (मद)
अभिमान (न ठानै) नहीं करता, [यदि ] (मातुल) मामा आदि
मातृपक्षके स्वजन (नृप) राजादि (होय) हों तो (मद) अभिमान
(न) नहीं करता, (ज्ञानकौ) विद्याका (मद न) अभिमान नहीं

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करता, (धनकौ) लक्ष्मीका (मद भानै) अभिमान नहीं करता,
(बलकौ) शक्तिका (मद भानै) अभिमान नहीं करता, (तपकौ)
तपका (मद न) अभिमान नहीं करता, (जु) और (प्रभुताकौ)
ऐश्वर्य, बड़प्पनका (मद न करै) अभिमान नहीं करता (सो) वह
(निज) अपने आत्माको (जानै) जानता है । [यदि जीव उनका ]
(मद) अभिमान (धारै) रखता है तो (यही) ऊपर कहे हुए मद
(वसु) आठ (दोष) दोष रूप होकर (समकितकौ) सम्यक्त्वको-
सम्यक्दर्शनको (मल) दूषित (ठानै) करते हैं ।
भावार्थ :पिताके गोत्रको कुल और माताके गोत्रको जाति
कहते हैं ।
(१) पिता आदि पितृपक्षमें राजादि प्रतापी पुरुष होनेसे ‘‘मैं
राजकुमार हूँ आदि’’ अभिमान करना सो कुल-मद है ।
(२) मामा आदि मातृपक्षमें राजादि प्रतापी पुरुष होनेका अभिमान
करना सो जाति-मद है ।
(३) शारीरिक सौन्दर्यका मद करना सो रूप-मद है ।
(४) अपनी विद्याका अभिमान करना सो ज्ञान-मद है ।
(५) अपनी धन-सम्पत्तिका अभिमान करना सो धन-मद है ।
(६) अपनी शारीरिक शक्तिका गर्व करना सो बल-मद है ।
(७) अपने व्रत-उपवासादि तपका गर्व करना सो तप-मद है ।
(८) अपने बड़प्पन और आज्ञाका गर्व करना सो प्रभुता-मद है ।
इस प्रकार कुल, जाति, रूप, ज्ञान, धन, बल, तप और
प्रभुता–यह आठ मद-दोष कहलाते हैं । जो जीव इन आठका गर्व
नहीं करता, वही आत्माका ज्ञान कर सकता है । यदि उनका गर्व

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करता है तो यह मद सम्यग्दर्शनके आठ दोष बनकर उसे दूषित
करते हैं । (छन्द १३ का उत्तरार्द्ध तथा १४ का पूर्वार्द्ध) ।
छन्द १४ (उत्तरार्द्ध)
छह अनायतन तथा तीन मूढ़ता दोष
कुगुरु-कुदेव-कुवृषसेवककी नहिं प्रशंस उचरै है
जिनमुनि जिनश्रुत विन कुगुरादिक, तिन्हैं न नमन करै है ।।१४।।
अन्यवार्थ–[सम्यग्दृष्टि जीव ] (कुगुरु-कुदेव-कुवृष-
सेवककी,) कुगुरु, कुदेव और कुधर्म-सेवककी (प्रशंस) प्रशंसा
(नहिं उचरै है) नहीं करता । (जिन) जिनेन्द्रदेव (मुनि) वीतरागी
मुनि [और ] (जिनश्रुत) जिनवाणी (विन)के अतिरिक्त [जो ]
(कुगुरादि) कुगुरु, कुदेव, कुधर्म हैं (तिन्हें) उन्हें (नमन) नमस्कार
(न करै है) नहीं करता ।
भावार्थ :कुगुरु, कुदेव, कुधर्म; कुगुरु सेवक, कुदेव
सेवक तथा कुधर्म सेवक–यह छह अनायतन (धर्मके अस्थान)
दोष कहलाते हैं । उनकी भक्ति, विनय और पूजनादि तो दूर
रही; किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव उनकी प्रशंसा भी नहीं करता;
क्योंकि उनकी प्रशंसा करनेसे भी सम्यक्त्वमें दोष लगता है ।
सम्यग्दृष्टि जीव जिनेन्द्र देव, वीतरागी मुनि और जिनवाणीके
अतिरिक्त कुदेव और कुशास्त्रादिको (भय, आशा, लोभ और
स्नेह आदिके कारण भी) नमस्कार नहीं करता; क्योंकि उन्हें
नमस्कार करने मात्रसे भी सम्यक्त्व दूषित हो जाता है । कुगुरु-
सेवा, कुदेव-सेवा तथा कुधर्म-सेवा–ये तीन भी सम्यक्त्वके
मूढ़ता नामक दोष हैं
।।१४।।

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अव्रती सम्यग्दृष्टिकी देवों द्वारा पूजा और
गृहस्थपनेमें अप्रीति
दोषरहित गुणसहित सुधी जे, सम्यग्दरश सजैं हैं
चरितमोहवश लेश न संजम, पै सुरनाथ जजैं हैं ।।
गेही पै गृहमें न रचैं, ज्यों जलतैं भिन्न कमल है
नगरनारिकौ प्यार यथा, कादेमें हेम अमल है ।।१५।।
अन्वयार्थ :(जे) जो (सुधी) बुद्धिमान पुरुष [ऊपर
कहे हुए ] (दोष रहित) पच्चीस दोष रहित [तथा ] (गुणसहित)
निःशंकादि आठ गुणों सहित (सम्यग्दरश) सम्यग्दर्शनसे (सजैं हैं)
भूषित हैं [उन्हें ] (चरितमोहवश) अप्रत्याख्यानावरणीय
चारित्रमोहनीय कर्मके उदयवश (लेश) किंचित् भी (संजम) संयम
(न) नहीं है (पै) तथापि (सुरनाथ) देवोंके स्वामी इन्द्र [उनकी ]
(जजैं हैं) पूजा करते हैं; [यद्यपि वे ] (गेही) गृहस्थ हैं (पै) तथापि
(गृहमें) घरमें (न रचैं) नहीं राचते । (ज्यों) जिस प्रकार (कमल)
कमल (जलतैं) जलसे (भिन्न) भिन्न है [तथा ] (यथा) जिस प्रकार
(कादेमें)कीचड़में (हेम) सुवर्ण (अमल है) शुद्ध रहता है,
[उसीप्रकार उनका घरमें ] (नगरनारिकौ) वेश्याके (प्यार यथा)
प्रेमकी भाँति (प्यार) प्रेम [होता है । ]

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भावार्थ :जो विवेकी पच्चीस दोष रहित तथा आठ अंग
(आठ गुण) सहित सम्यग्दर्शन धारण करते हैं, उन्हें
अप्रत्याख्यानावरणीय कषायके तीव्र उदयमें युक्त होनेके कारण,
यद्यपि संयमभाव लेशमात्र नहीं होता; तथापि इन्द्रादि उनकी पूजा
अर्थात् आदर करते हैं । जिस प्रकार पानीमें रहने पर भी कमल
पानीसे अलिप्त रहता है; उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि घरमें रहते हुए भी
गृहस्थदशामें लिप्त नहीं होता, उदासीन (निर्मोही) रहता है । जिस
प्रकार
वेश्याका प्रेम मात्र पैसेमें ही होता है, मनुष्य पर नहीं होता;
उसीप्रकार सम्यग्दृष्टिका प्रेम सम्यक्त्वमें ही होता है; किन्तु
गृहस्थपनेमें नहीं होता
तथा जिस प्रकार सोना कीचड़में पड़े रहने
पर भी निर्मल रहता है; उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि जीव गृहस्थदशामें
रहने पर भी उसमें लिप्त नहीं होता; क्योंकि वह उसे
त्याज्य,
(त्यागने योग्य) मानता है ।
सम्यक्त्वकी महिमा, सम्यग्दृष्टिके अनुत्पत्ति स्थान तथा
सर्वोत्तम सुख और सर्व धर्मका मूल
प्रथम नरक विन षट् भू ज्योतिष वान भवन षंढ नारी
थावर विकलत्रय पशुमें नहिं, उपजत सम्यक्धारी ।।
तीनलोक तिहुँकाल माँहिं नहिं, दर्शन सो सुखकारी
सकल धर्मको मूल यही, इस बिन करनी दुखकारी ।।१६।।
यहाँ वेश्याके प्रेमसे मात्र अलिप्तताकी तुलना की गई है
विषयासक्तोऽपि सदा सर्वारम्भेषु वर्तमानोऽपि
मोहविलासः एषः इति सर्वं मन्यते हेयं ।।३४१।।(स्वामी कार्ति०)
रोगीको औषधिसेवन और बन्दीको कारागृह भी इसके दृष्टान्त हैं

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अन्वयार्थ :(सम्यक्धारी) सम्यग्दृष्टि जीव (प्रथम
नरक विन) पहले नरकके अतिरिक्त (षट् भू) शेष छह नरकोंमें–
(ज्योतिष) ज्योतिषी देवोंमें, (वान) व्यंतर देवोंमें, (भवन)
भवनवासी देवोंमें (षंढ) नुपंसकोंमें (नारी) स्त्रियोंमें, (थावर) पाँच
स्थावरोंमें, (विकलत्रय) द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंमें
तथा (पशुमें) कर्मभूमिके पशुओंमें (नहिं उपजत) उत्पन्न नहीं
होते । (तीनलोक) तीनलोक (तिहुंकाल) तीनकालमें (दर्शन सो)
सम्यग्दर्शनके समान (सुखकारी) सुखदायक (नहिं) अन्य कुछ
नहीं है, (यही) यह सम्यग्दर्शन ही (सकल धरमको) समस्त
धर्मोंका (मूल) मूल है; (इस बिन) इस सम्यग्दर्शनके बिना
(करनी) समस्त क्रियाएँ (दुखकारी) दुःखदायक हैं ।
भावार्थ :सम्यग्दृष्टि जीव आयु पूर्ण होने पर जब मृत्यु प्राप्त
करते हैं, तब दूसरेसे सातवें नरकके नारकी, ज्योतिषी, व्यन्तर,
भवनवासी, नपुंसक सब प्रकारकी स्त्री, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय,
त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और कर्मभूमिके पशु नहीं होते; (नीच
कुलवाले, विकृत अङ्गवाले, अल्पायुवाले तथा दरिद्री नहीं होते)
विमानवासी देव, भोगभूमिके मनुष्य अथवा तिर्यंच ही होते हैं ।

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कर्मभूमिके तिर्यंच भी नहीं होते । कदाचित् नरकमें जायें तो पहले
नरकसे नीचे नहीं जाते । तीनलोक और तीनकालमें सम्यग्दर्शनके
समान सुखदायक अन्य कोई वस्तु नहीं है । यह सम्यग्दर्शन ही
सर्व धर्मोंका मूल है । इसके अतिरिक्त जितने क्रियाकाण्ड हैं वे
सब दुःखदायक हैं
।।१६।।
सम्यग्दर्शनके बिना ज्ञान और चारित्रका मिथ्यापना
मोक्षमहलकी परथम सीढ़ी, या बिन ज्ञान-चरित्रा
सम्यक्ता न लहै, सो दर्शन धारो भव्य पवित्रा ।।
‘‘दौल’’ समझ सुन चेत सयाने, काल वृथा मत खोवै
यह नरभव फि र मिलन कठिन है, जो सम्यक् नहिं होवै ।।१७।।
ऐसी दशामें सम्यग्दृष्टि प्रथम नरकके नपुंसकोंमें भी उत्पन्न होता है;
उनसे भिन्न अन्य नपुंसकोंमें उसकी उत्पत्ति होनेका निषेध है
टिप्पणी–जिस प्रकार श्रेणिक राजा सातवें नरककी आयुका बन्ध करके
फि र सम्यक्त्व को प्राप्त हुए थे, उससे यद्यपि उन्हें नरकमें तो जाना
ही पड़ा; किन्तु आयु सातवें नरकसे घटकर पहले नरककी ही
रही
इस प्रकार जो जीव सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेसे पूर्व तिर्यंच
अथवा मनुष्य आयुका बन्ध करते हैं, वे भोगभूमि में जाते हैं;
किन्तु कर्मभूमिमें तिर्यंच अथवा मनुष्यरूपमें उत्पन्न नहीं होते

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अन्वयार्थ :[यह सम्यग्दर्शन ] (मोक्षमहलकी)
मोक्षरूपी महलकी (परथम) प्रथम (सीढ़ी) सीढ़ी है; (या बिन)
इस सम्यग्दर्शनके बिना (ज्ञान चरित्रा) ज्ञान और चारित्र
(सम्यक्ता) सच्चाई (न लहै) प्राप्त नहीं करते; इसलिये (भव्य) हे
भव्य जीवो ! (सो) ऐसे (पवित्रा) पवित्र (दर्शन) सम्यग्दर्शनको
(धारो) धारण करो । (सयाने ‘दौल’) हे समझदार दौलतराम !
(सुन) सुन (समझ) समझ और (चेत) सावधान हो, (काल)
समयको (वृथा) व्यर्थ (मत खोवै) न गँवा; [क्योंकि ] (जो) यदि
(सम्यक्) सम्यग्दर्शन (नहिं होवै) नहीं हुआ तो (यह) यह
(नरभव) मनुष्य पर्याय (फि र) पुनः (मिलन) मिलना (कठिन है)
दुर्लभ है ।
भावार्थ :यह सम्यग्दर्शन ही मोक्षरूपी महलमें
पहुँचनेकी प्रथम सीढ़ी है । इसके बिना ज्ञान और चारित्र
सम्यक्पनेको प्राप्त नहीं होते अर्थात् जब तक सम्यग्दर्शन न हो,
तब तक ज्ञान वह मिथ्याज्ञान और चारित्र वह मिथ्याचारित्र
कहलाता है; सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र नहीं कहलाते ।
इसलिये प्रत्येक आत्मार्थीको ऐसा पवित्र सम्यग्दर्शन अवश्य धारण
करना चाहिये । पण्डित दौलतरामजी अपने आत्माको सम्बोध कर
कहते हैं कि–हे विवेकी आत्मा ! तू ऐसे पवित्र सम्यग्दर्शनके
स्वरूपको स्वयं सुनकर अन्य अनुभवी ज्ञानियोंसे प्राप्त करनेमें
सावधान हो; अपने अमूल्य मनुष्यजीवनको व्यर्थ न गँवा । इस
जन्ममें ही यदि सम्यक्त्व प्राप्त न किया तो फि र मनुष्य पर्याय आदि
अच्छे योग पुनः पुनः प्राप्त नहीं होते
।।१७।।
सम्यग्दृष्टि जीवकी, निश्चय कुगति न होय
पूर्वबन्ध तें होय तो सम्यक् दोष न कोय ।।

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तीसरी ढालका सारांश
आत्माका कल्याण सुख प्राप्त करनेमें है । आकुलताका मिट
जाना वह सच्चा सुख है; मोक्ष ही सुखरूप है; इसलिये प्रत्येक
आत्मार्थीको मोक्षमार्गमें प्रवृत्ति करना चाहिये ।
निश्चयसम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यग्चारित्र–इन तीनोंकी
एकता सो मोक्षमार्ग है । उसका कथन दो प्रकारसे है । निश्चय-
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तो वास्तवमें मोक्षमार्ग है और व्यवहार-
सम्यग्दर्शन-चारित्र वह मोक्षमार्ग नहीं है; किन्तु वास्तवमें बन्धमार्ग
है; लेकिन निश्चयमोक्षमार्गमें सहचर होनेसे उसे व्यवहारमोक्षमार्ग
कहा जाता है ।
आत्माकी परद्रव्योंसे भिन्नताका यथार्थ श्रद्धान सो निश्चय-
सम्यग्दर्शन है और परद्रव्योंसे भिन्नताका यथार्थ ज्ञान सो निश्चय-
सम्यग्ज्ञान है । परद्रव्योंका आलम्बन छोड़कर आत्मस्वरूपमें लीन
होना सो निश्चयसम्यक्चारित्र है तथा सातों तत्त्वोंका यथावत्
भेदरूप अटल श्रद्धान करना सो व्यवहार-सम्यग्दर्शन कहलाता है ।
यद्यपि सात तत्त्वोंके भेदकी अटल श्रद्धा शुभराग होनेसे वास्तवमें
सम्यग्दर्शन नहीं है; किन्तु निचली दशामें (चौथे, पाँचवें और छठवें
गुणस्थानमें) निश्चयसम्यक्त्वके साथ सहचर होनेसे वह व्यवहार-
सम्यग्दर्शन कहलाता है ।
आठ मद, तीन मूढ़ता, छह अनायतन और शंकादि
आठ–ये सम्यक्त्वके पच्चीस दोष हैं, तथा निःशंकितादि आठ
सम्यक्त्वके अंग (गुण) हैं; उन्हें भलीभाँति जानकर दोषका त्याग
तथा गुणका ग्रहण करना चाहिये ।

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जो विवेकी जीव निश्चयसम्यक्त्वको धारण करता है, उसे
जब तक निर्बलता है, तब तक पुरुषार्थकी मन्दताके कारण यद्यपि
किंचित् संयम नहीं होता; तथापि वह इन्द्रादिके द्वारा पूजा जाता
है । तीन लोक और तीन कालमें निश्चयसम्यक्त्वके समान सुखकारी
अन्य कोई वस्तु नहीं है । सर्व धर्मोंका मूल, सार तथा मोक्षमार्गकी
प्रथम सीढ़ी यह सम्यक्त्व ही है; इसके बिना ज्ञान और चारित्र
सम्यक्पनेको प्राप्त नहीं होते; किन्तु मिथ्या ही कहलाते हैं ।
आयुष्यका बन्ध होनेसे पूर्व सम्यक्त्व धारण करनेवाला जीव
मृत्युके पश्चात् दूसरे भवमें नारकी, ज्योतिषी, व्यंतर, भवनवासी,
नपुंसक, स्त्री, स्थावर, विकलत्रय, पशु, हीनांग, नीच गोत्रवाला,
अल्पायु तथा दरिद्री नहीं होता । मनुष्य और तिर्यंच सम्यग्दृष्टि
मरकर वैमानिक देव होता है देव और नारकी सम्यग्दृष्टि मरकर
कर्मभूमिमें उत्तम क्षेत्रमें मनुष्य ही होता है । यदि सम्यग्दर्शन होनेसे
पूर्व–१. देव, २. मनुष्य, ३. तिर्यंच या ४. नरकायुका बन्ध हो
गया हो तो वह मरकर १. वैमानिक देव, २. भोगभूमिका मनुष्य;
३. भोगभूमिका तिर्यंच अथवा ४. प्रथम नरकका नारकी होता है ।
इससे अधिक नीचेके स्थानमें जन्म नहीं होता । –इसप्रकार
निश्चय-सम्यग्दर्शनकी अपार महिमा है ।
इसलिये प्रत्येक आत्मार्थीको सत्शास्त्रोंका स्वाध्याय,
तत्त्वचर्चा, सत्समागम तथा यथार्थ तत्त्वविचार द्वारा निश्चय-
सम्यग्दर्शन प्राप्त करना चाहिये; क्योंकि यदि इस मनुष्यभवमें
निश्चयसम्यक्त्व प्राप्त नहीं किया तो पुनः मनुष्यपर्यायकी प्राप्ति
आदिका सुयोग मिलना कठिन है ।

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तीसरी ढालका भेद-संग्रह
अचेतन द्रव्य :–पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ।
चेतन एक, अचेतन पाँचों, रहे सदा गुण-पर्ययवान
केवल पुद्गल रूपवान है, पाँचों शेष अरूपी जान ।।
अन्तरंग परिग्रह :–१ मिथ्यात्व, ४ कषाय, ९ नोकषाय
आस्रव :–५ मिथ्यात्व, १२ अविरति, २५ कषाय, १५ योग ।
कारण :–उपादान और निमित्त ।
द्रव्यकर्म :–ज्ञानावरणादि आठ ।
नोकर्म :–औदारिक, वैक्रियिक और आहारकादि शरीर ।
परिग्रह :–अन्तरंग और बहिरंग ।
प्रमाद :–४ विकथा, ४ कषाय, ५ इन्द्रिय, १ निद्रा, १ प्रणय
(स्नेह) ।
बहिरंग परिग्रह :– क्षेत्र, मकान, सोना, चाँदी, धन, धान्य, दासी,
दास, वस्त्र और बरतन–यह दस हैं ।
भावकर्म :–मिथ्यात्व, राग, द्वेष, क्रोधादि ।
मद–आठ प्रकारके हैं–
जाति लाभ कुल रूप तप, बल विद्या अधिकार ।
इनको गर्व न कीजिये, ये मद अष्ट प्रकार ।।
मिथ्यात्व :–विपरीत, एकान्त, विनय, संशय, और अज्ञान ।
रस :–खारा, खट्टा, मीठा, कड़वा, चरपरा और कषायला ।
रूप :–(रंग)–काला, पीला, हरा, लाल और सफे द–यह पाँच रूप
हैं ।

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स्पर्श :–हलका, भारी, रूखा, चिकना, कड़ा, कोमल, ठण्डा, गर्म
–यह आठ स्पर्श हैं ।
तीसरी ढालका लक्षण-संग्रह
अनायतन :–कुगुरु, कुदेव, कुधर्म और इन तीनोंके सेवक –ये
छहों अधर्मके स्थानक ।
अनायतनदोष :–सम्यक्त्वका नाश करनेवाले कुदेवादिकी प्रशंसा
करना ।
अनुकम्पा :–प्राणी मात्र पर दयाका भाव ।
अरिहन्त :–चार घातिकर्मोंसे रहित, अनन्तचतुष्टयसहित वीतराग
और केवलज्ञानी परमात्मा ।
अलोक :–जहाँ आकाशके अतिरिक्त अन्य द्रव्य नहीं है, वह
स्थान ।
अविरति :–पापोंमें प्रवृत्ति अर्थात् १. निर्विकार स्वसंवेदनसे विपरीत
अव्रत परिणाम २. छह काय (पाँचों स्थावर तथा एक
त्रसकाय) जीवोंकी हिंसाके त्यागरूप भाव न होना तथा पाँच
इन्द्रिय और मनके विषयोंमें प्रवृत्ति करना –ऐसे बारह प्रकार
अविरति है ।
अविरति सम्यग्दृष्टि :–सम्यग्दर्शन सहित; किन्तु व्रतरहित ऐसे
चौथे गुणस्थानवर्ती जीव ।
आस्तिक्य :–जीवादि छह द्रव्य, पुण्य और पाप, संवर, निर्जरा,
मोक्ष तथा परमात्माके प्रति विश्वास सो आस्तिक्य
कहलाता है ।

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कषाय :–जो आत्माको दुःख दे, गुणोंके विकासको रोके तथा
परतंत्र करे वह अर्थात् मिथ्यात्व तथा क्रोध, मान, माया और
लोभ–वह कषायभाव हैं ।
गुणस्थान :–मोह और योगके सद्भाव या अभावसे आत्माके गुणों
(सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र)की हीनाधिकतानुसार होनेवाली
अवस्थाओंको गुणस्थान कहते हैं । (वरांगचरित्र पृ. ३६२)
घातिया :–अनन्त चतुष्टयको रोकनेमें निमित्तरूप कर्मको घातिया
कहते हैं ।
चारित्रमोह :–आत्माके चारित्रको रोकनेमें निमित्त सो मोहनीय
कर्म ।
जिनेन्द्र :–चार घातिया कर्मोंको जीतकर केवलज्ञानादि अनन्त
चतुष्टय प्रगट करनेवाले १८ दोषरहित परमात्मा ।
देवमूढ़ता :–भय, आशा, स्नेह, लोभवश रागी-द्वेषी देवोंकी सेवा
करना अथवा उन्हें वंदन-नमस्कार करना ।
देशव्रती :–श्रावकके व्रतोंको धारण करनेवाले सम्यग्दृष्टि, पाँचवें
गुणस्थानमें वर्तनेवाले जीव ।
निमित्तकारण :–जो स्वयं कार्यरूप न हो; किन्तु कार्यकी उत्पत्तिके
समय उपस्थित रहे वह कारण ।
नोकर्म :–औदारिकादि पाँच शरीर तथा छह पर्याप्तियोंके योग्य
पुद्गलपरमाणु नोकर्म कहलाते हैं ।
पाखंडी मूढ़ता :–रागी-द्वेषी और वस्त्रादि परिग्रहधारी, झूठे तथा
कुलिंगी साधुओंकी सेवा करना अथवा उन्हें वंदन-नमस्कार
करना ।

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पुद्गल :–जो पुरे और गले । परमाणु बन्धस्वभावी होनेसे मिलते
हैं तथा पृथक् होते हैं; इसलिये वे पुद्गल कहलाते हैं अथवा
जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श हो वह पुद्गल ।
प्रमाद :–स्वरूपमें असावधानी पूर्वक प्रवृत्ति अथवा धार्मिक कार्योंमें
अनुत्साह ।
प्रशम :–अनन्तानुबन्धी कषायके अन्तपूर्वक शेष कषायोंका अंशतः
मन्द होना सो प्रशम । (पंचाध्यायी भाग २, गाथा ४२८)
मद :–अहंकार, घमण्ड, अभिमान ।
भावकर्म :–मिथ्यात्व, राग-द्वेषादि जीवके मलिन भाव ।
मिथ्यादृष्टि :–तत्त्वोंकी विपरीत श्रद्धा करनेवाले ।
लोकमूढ़ता :–धर्म समझकर जलाशयमें स्नान करना तथा रेत,
पत्थर आदिका ढेर बनाना–आदि कार्य ।
विशेष धर्म :–जो धर्म अमुक विशिष्ट द्रव्यमें रहे, उसे विशेष धर्म
कहते हैं ।
शुद्धोपयोग :–शुभ और अशुभ राग-द्वेषकी परिणतिसे रहित
सम्यग्दर्शन-ज्ञान सहित चारित्रकी स्थिरता ।
सामान्य गुण :–सर्व द्रव्योंमें समानतासे विद्यमान गुणोंको सामान्य
गुण कहते हैं ।
सामान्य :–प्रत्येक वस्तुमें त्रैकालिक द्रव्य-गुणरूप, अभेद एकरूप
भावको सामान्य कहते हैं ।
सिद्ध :–आठ गुणों सहित तथा आठ कर्मों एवं शरीररहित
परमेष्ठी । [व्यवहारसे मुख्य आठ गुण और निश्चयसे अनन्त
गुण प्रत्येक सिद्ध परमात्मामें हैं । ]

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संवेग :–संसारसे भय होना और धर्म तथा धर्मके फलमें परम
उत्साह होना । साधर्मी और पंचपरमेष्ठीमें प्रीतिको भी संवेग
कहते हैं ।
निर्वेद :–संसार, शरीर और भोगोंमें सम्यक् प्रकारसे उदासीनता
अर्थात् वैराग्य ।
अन्तर-प्रदर्शन
(१) जीवके मोह-राग-द्वेषरूप परिणाम वह भाव-आस्रव है और
उस परिणाममें स्निग्धता वह भावबन्ध है ।
(२) अनायतनमें तो कुदेवादिकी प्रशंसा की जाती है; किन्तु
मूढ़तामें तो उनकी सेवा, पूजा और विनय करते हैं ।
(३) माताके वंशको जाति और पिताके वंशको कुल कहा जाता
है ।
(४) धर्मद्रव्य तो छह द्रव्योंमेंसे एक द्रव्य है और धर्म वह वस्तुका
स्वभाव अथवा गुण है ।
(५) निश्चयनय वस्तुके यथार्थ स्वरूपको बतलाता है । व्यवहारनय
स्वद्रव्य-परद्रव्यका अथवा उनके भावोंका अथवा कारण-
कार्यादिकका किसीको किसीमें मिलाकर निरूपण करता है ।
ऐसे ही श्रद्धानसे मिथ्यात्व है; इसलिये उसका त्याग करना
चाहिये ।
(मोक्षमार्ग प्रकाशक अध्याय.७)
(६) निकल ( –शरीर रहित) परमात्मा आठों कर्मोंसे रहित हैं
और सकल (–शरीर सहित) परमात्माको चार अघातिकर्म
होते हैं ।

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(७) सामान्य धर्म अथवा गुण तो अनेक वस्तुओंमें रहता है; किन्तु
विशेष धर्म या विशेष गुण तो अमुक खास वस्तुमें ही होता
है ।
(८) सम्यग्दर्शन अंगी है और निःशंकित अंग उसका एक अंग
है ।
तीसरी ढालकी प्रश्नावली
(१) अजीव, अधर्म, अनायतन, अलोक, अन्तरात्मा, अरिहन्त,
आकाश, आत्मा, आस्रव, आठ अंग, आठ मद, उत्तम
अन्तरात्मा, उपयोग, कषाय, काल, कुल, गन्ध, चारित्रमोह,
जघन्य अन्तरात्मा, जाति, जीव, मद, देवमूढ़ता, द्रव्यकर्म,
निकल, निश्चयकाल, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र, मोक्षमार्ग,
निर्जरा, नोकर्म, परमात्मा, पाखंड़ी मूढ़ता, पुद्गल, बहिरात्मा,
बन्ध, मध्यम अन्तरात्मा, मूढ़ता, मोक्ष, रस, रूप, लोकमूढ़ता,
विशेष, विकलत्रय, व्यवहारकाल, सम्यग्दर्शन, शम, सच्चे
देव-शास्त्र-गुरु, सुख, सकल परमात्मा, संवर, संवेग,
सामान्य, सिद्ध तथा स्पर्श आदिके लक्षण बतलाओ ।
(२) अनायतन और मूढ़तामें, जाति और कुलमें, धर्म और
धर्मद्रव्यमें, निश्चय और व्यवहारमें, सकल और निकलमें,
सम्यग्दर्शन और निःशंकित अंगमें तथा सामान्य और विशेष
आदिमें क्या अन्तर है ।
(३) अणुव्रतीका आत्मा, आत्महित, चेतनद्रव्य, निराकुलदशा
अथवा स्थान, सात तत्त्व, उनका सार, धर्मका मूल, सर्वोत्तम
धर्म, सम्यग्दृष्टिको नमस्कारके अयोग्य तथा हेय-उपादेय
तत्त्वोंके नाम बतलाओ ।

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(४) अघातिया, अंग, अजीव, अनायतन, अन्तरात्मा, अन्तरंग-
परिग्रह, अमूर्तिक द्रव्य, आकाश, आत्मा, आस्रव, कर्म,
कषाय, कारण, काल, कालद्रव्य, गंध, घातिया, जीवतत्त्व,
द्रव्य, दुःखदायक भाव, द्रव्यकर्म, नोकर्म, परमात्मा, परिग्रह,
पुद्गलके गुण, भावकर्म, प्रमाद, बहिरंग परिग्रह, मद,
मिथ्यात्व, मूढ़ता, मोक्षमार्ग, योग, रूपी द्रव्य, रस, वर्ण,
सम्यक्त्वके दोष और सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्रके भेद
बतलाओ ।
(५) तत्त्वज्ञान होने पर भी असंयम; अव्रतीकी पूज्यता, आत्माके
दुःख, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तथा
सम्यग्दृष्टिका कुदेवादिको नमस्कार न करना–आदिके कारण
बतलाओ ।
(६)* अमूर्तिक द्रव्य, परमात्माके ध्यानसे लाभ, मुनिका आत्मा,
मूर्तिक द्रव्य, मोक्षका स्थान और उपाय, बहिरात्मपनेके
त्यागका कारण; सच्चे सुखका उपाय और सम्यग्दृष्टिकी
उत्पत्ति न होनेवाले स्थान–इनका स्पष्टीकरण करो ।
(७) अमुक पद, चरण अथवा छन्दका अर्थ तथा भावार्थ बतलाओ;
तीसरी ढालका सारांश सुनाओ । आत्मा, मोक्षमार्ग, जीव, छह
द्रव्य और सम्यक्त्वके दोष पर लेख लिखो ।
G

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चौथी ढाल
सम्यग्ज्ञानका लक्षण और उसका समय
सम्यक् श्रद्धा धारि पुनि, सेवहु सम्यग्ज्ञान
स्व-पर अर्थ बहुधर्मजुत, जो प्रगटावन भान ।।।।
अन्यवार्थ–(सम्यक् श्रद्धा) सम्यग्दर्शन (धारि) धारण करके
(पुनि) फि र (सम्यग्ज्ञान) सम्यग्ज्ञानका (सेवहु) सेवन करो; [जो
सम्यग्ज्ञान ] (बहु धर्मजुत) अनेक धर्मात्मक (स्व-पर अर्थ) अपना
और दूसरे पदार्थोंका (प्रगटावन) ज्ञान करानेमें (भान) सूर्य समान
है ।
भावार्थ :सम्यग्दर्शन सहित सम्यग्ज्ञानको दृढ़ करना
चाहिये । जिस प्रकार सूर्य समस्त पदार्थोंको तथा स्वयं अपनेको
यथावत् दर्शाता है; उसीप्रकार जो अनेक धर्मयुक्त स्वयं अपनेको
(आत्माको) तथा पर पदार्थोंको
ज्योंका त्यों बतलाता है, उसे
सम्यग्ज्ञान कहते हैं ।
. स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञान प्रमाणम्
(प्रमेयरत्नमाला, प्र. उ. सूत्र- १)

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सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानमें अन्तर
(रोला छन्द)
सम्यक् साथै ज्ञान होय, पै भिन्न अराधौ
लक्षण श्रद्धा जान, दुहूमें भेद अबाधौ ।।
सम्यक् कारण जान, ज्ञान कारज है सोई
युगपत् होते हू, प्रकाश दीपकतैं होई ।।।।
अन्वयार्थ :(सम्यक् साथै) सम्यग्दर्शनके साथ
(ज्ञान) सम्यग्ज्ञान (होय) होता है । (पै) तथापि [उन दोनोंको ]
(भिन्न) भिन्न (अराधौ) समझना चाहिये; क्योंकि (लक्षण) उन
दोनोंके लक्षण [क्रमशः ] (श्रद्धा) श्रद्धा करना और (जान) जानना
है तथा (सम्यक्) सम्यग्दर्शन (कारण) कारण है और (ज्ञान)
सम्यग्ज्ञान (कारज) कार्य है । (सोई) यह भी (दुहूमें) दोनोंमें
(भेद) अन्तर (अबाधौ) निर्बाध है । [जिसप्रकार ] (युगपत्) एक
साथ (होते हू) होने पर भी (प्रकाश) उजाला (दीपकतैं) दीपककी
ज्योतिसे (होई) होता है उसीप्रकार ।
भावार्थ :सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान यद्यपि एकसाथ
प्रगट होते हैं; तथापि वे दोनों भिन्न-भिन्न गुणोंकी पर्यायें हैं ।

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सम्यग्दर्शन श्रद्धागुणकी शुद्धपर्याय है और सम्यग्ज्ञान ज्ञानगुणकी
शुद्धपर्याय है । पुनश्च, सम्यग्दर्शनका लक्षण विपरीत अभिप्राय-
रहित तत्त्वार्थश्रद्धा है और सम्यग्ज्ञानका लक्षण संशय
आदि दोष
रहित स्व-परका यथार्थतया निर्णय है –इस प्रकार दोनोंके लक्षण
भिन्न-भिन्न हैं ।
तथा सम्यग्दर्शन निमित्तकारण है और सम्यग्ज्ञान नैमित्तिक
कार्य है–इसप्रकार उन दोनोंमें कारण-कार्यभावसे भी अन्तर है ।
प्रश्न :–ज्ञान-श्रद्धान तो युगपत् (एकसाथ) होते हैं, तो
उनमें कारण-कार्यपना क्यों कहते हो ?
उत्तर :–‘‘वह हो तो वह होता है’’–इस अपेक्षासे कारण-
कार्यपना कहा है । जिसप्रकार दीपक और प्रकाश दोनों युगपत्
होते हैं; तथापि दीपक हो तो प्रकाश होता है; इसलिये दीपक
कारण है और प्रकाश कार्य है; उसीप्रकार ज्ञान-श्रद्धान भी हैं ।
(मोक्षमार्गप्रकाशक (देहली) पृष्ठ १२६)
जब तक सम्यग्दर्शन नहीं होता तब तक का ज्ञान सम्यग्ज्ञान
नहीं कहलाता । –ऐसा होनेसे सम्यग्दर्शन वह सम्यग्ज्ञानका कारण
है ।
१. संशय, विमोह, (विभ्रम-विपर्यय) अनिर्धार
२. पृथगाराधनमिष्टं दर्शनसहभाविनोऽपि बोधस्य
लक्षणभेदेन यतो, नानात्वं संभवत्यनयोः ।।३२।।
सम्यग्ज्ञानं कार्यं सम्यक्त्वं कारणं वदन्ति जिनाः
ज्ञानाराधनमिष्टं सम्यक्त्वानन्तरं तस्मात् ।।३३।।
कारणकार्यविधानं, समकालं जायमानयोरपि हि
दीपप्रकाशयोरिव, सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटम् ।।३४।।
(–श्री अमृतचन्द्राचार्यदेवरचित पुरुषार्थसिद्धि-उपाय)