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अभिमान (न ठानै) नहीं करता, [यदि ] (मातुल) मामा आदि
मातृपक्षके स्वजन (नृप) राजादि (होय) हों तो (मद) अभिमान
(न) नहीं करता, (ज्ञानकौ) विद्याका (मद न) अभिमान नहीं
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(बलकौ) शक्तिका (मद भानै) अभिमान नहीं करता, (तपकौ)
तपका (मद न) अभिमान नहीं करता, (जु) और (प्रभुताकौ)
ऐश्वर्य, बड़प्पनका (मद न करै) अभिमान नहीं करता (सो) वह
(निज) अपने आत्माको (जानै) जानता है । [यदि जीव उनका ]
(मद) अभिमान (धारै) रखता है तो (यही) ऊपर कहे हुए मद
(वसु) आठ (दोष) दोष रूप होकर (समकितकौ) सम्यक्त्वको-
सम्यक्दर्शनको (मल) दूषित (ठानै) करते हैं ।
(१) पिता आदि पितृपक्षमें राजादि प्रतापी पुरुष होनेसे ‘‘मैं
(४) अपनी विद्याका अभिमान करना सो ज्ञान-मद है ।
(५) अपनी धन-सम्पत्तिका अभिमान करना सो धन-मद है ।
(६) अपनी शारीरिक शक्तिका गर्व करना सो बल-मद है ।
(७) अपने व्रत-उपवासादि तपका गर्व करना सो तप-मद है ।
(८) अपने बड़प्पन और आज्ञाका गर्व करना सो प्रभुता-मद है ।
नहीं करता, वही आत्माका ज्ञान कर सकता है । यदि उनका गर्व
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करते हैं । (छन्द १३ का उत्तरार्द्ध तथा १४ का पूर्वार्द्ध) ।
(नहिं उचरै है) नहीं करता । (जिन) जिनेन्द्रदेव (मुनि) वीतरागी
मुनि [और ] (जिनश्रुत) जिनवाणी (विन)के अतिरिक्त [जो ]
(कुगुरादि) कुगुरु, कुदेव, कुधर्म हैं (तिन्हें) उन्हें (नमन) नमस्कार
(न करै है) नहीं करता ।
दोष कहलाते हैं । उनकी भक्ति, विनय और पूजनादि तो दूर
रही; किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव उनकी प्रशंसा भी नहीं करता;
क्योंकि उनकी प्रशंसा करनेसे भी सम्यक्त्वमें दोष लगता है ।
सम्यग्दृष्टि जीव जिनेन्द्र देव, वीतरागी मुनि और जिनवाणीके
अतिरिक्त कुदेव और कुशास्त्रादिको (भय, आशा, लोभ और
स्नेह आदिके कारण भी) नमस्कार नहीं करता; क्योंकि उन्हें
नमस्कार करने मात्रसे भी सम्यक्त्व दूषित हो जाता है । कुगुरु-
सेवा, कुदेव-सेवा तथा कुधर्म-सेवा–ये तीन भी सम्यक्त्वके
मूढ़ता नामक दोष हैं
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निःशंकादि आठ गुणों सहित (सम्यग्दरश) सम्यग्दर्शनसे (सजैं हैं)
भूषित हैं [उन्हें ] (चरितमोहवश) अप्रत्याख्यानावरणीय
चारित्रमोहनीय कर्मके उदयवश (लेश) किंचित् भी (संजम) संयम
(न) नहीं है (पै) तथापि (सुरनाथ) देवोंके स्वामी इन्द्र [उनकी ]
(जजैं हैं) पूजा करते हैं; [यद्यपि वे ] (गेही) गृहस्थ हैं (पै) तथापि
(गृहमें) घरमें (न रचैं) नहीं राचते । (ज्यों) जिस प्रकार (कमल)
कमल (जलतैं) जलसे (भिन्न) भिन्न है [तथा ] (यथा) जिस प्रकार
(कादेमें)कीचड़में (हेम) सुवर्ण (अमल है) शुद्ध रहता है,
[उसीप्रकार उनका घरमें ] (नगरनारिकौ) वेश्याके (प्यार यथा)
प्रेमकी भाँति (प्यार) प्रेम [होता है । ]
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अप्रत्याख्यानावरणीय कषायके तीव्र उदयमें युक्त होनेके कारण,
यद्यपि संयमभाव लेशमात्र नहीं होता; तथापि इन्द्रादि उनकी पूजा
अर्थात् आदर करते हैं । जिस प्रकार पानीमें रहने पर भी कमल
पानीसे अलिप्त रहता है; उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि घरमें रहते हुए भी
गृहस्थदशामें लिप्त नहीं होता, उदासीन (निर्मोही) रहता है । जिस
प्रकार
गृहस्थपनेमें नहीं होता
रहने पर भी उसमें लिप्त नहीं होता; क्योंकि वह उसे
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(ज्योतिष) ज्योतिषी देवोंमें, (वान) व्यंतर देवोंमें, (भवन)
भवनवासी देवोंमें (षंढ) नुपंसकोंमें (नारी) स्त्रियोंमें, (थावर) पाँच
स्थावरोंमें, (विकलत्रय) द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंमें
तथा (पशुमें) कर्मभूमिके पशुओंमें (नहिं उपजत) उत्पन्न नहीं
होते । (तीनलोक) तीनलोक (तिहुंकाल) तीनकालमें (दर्शन सो)
सम्यग्दर्शनके समान (सुखकारी) सुखदायक (नहिं) अन्य कुछ
नहीं है, (यही) यह सम्यग्दर्शन ही (सकल धरमको) समस्त
धर्मोंका (मूल) मूल है; (इस बिन) इस सम्यग्दर्शनके बिना
(करनी) समस्त क्रियाएँ (दुखकारी) दुःखदायक हैं ।
भवनवासी, नपुंसक सब प्रकारकी स्त्री, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय,
त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और कर्मभूमिके पशु नहीं होते; (नीच
कुलवाले, विकृत अङ्गवाले, अल्पायुवाले तथा दरिद्री नहीं होते)
विमानवासी देव, भोगभूमिके मनुष्य अथवा तिर्यंच ही होते हैं ।
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समान सुखदायक अन्य कोई वस्तु नहीं है । यह सम्यग्दर्शन ही
सर्व धर्मोंका मूल है । इसके अतिरिक्त जितने क्रियाकाण्ड हैं वे
सब दुःखदायक हैं
उनसे भिन्न अन्य नपुंसकोंमें उसकी उत्पत्ति होनेका निषेध है
ही पड़ा; किन्तु आयु सातवें नरकसे घटकर पहले नरककी ही
रही
किन्तु कर्मभूमिमें तिर्यंच अथवा मनुष्यरूपमें उत्पन्न नहीं होते
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(धारो) धारण करो । (सयाने ‘दौल’) हे समझदार दौलतराम !
सम्यक्पनेको प्राप्त नहीं होते अर्थात् जब तक सम्यग्दर्शन न हो,
तब तक ज्ञान वह मिथ्याज्ञान और चारित्र वह मिथ्याचारित्र
कहलाता है; सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र नहीं कहलाते ।
इसलिये प्रत्येक आत्मार्थीको ऐसा पवित्र सम्यग्दर्शन अवश्य धारण
करना चाहिये । पण्डित दौलतरामजी अपने आत्माको सम्बोध कर
कहते हैं कि–हे विवेकी आत्मा ! तू ऐसे पवित्र सम्यग्दर्शनके
स्वरूपको स्वयं सुनकर अन्य अनुभवी ज्ञानियोंसे प्राप्त करनेमें
सावधान हो; अपने अमूल्य मनुष्यजीवनको व्यर्थ न गँवा । इस
जन्ममें ही यदि सम्यक्त्व प्राप्त न किया तो फि र मनुष्य पर्याय आदि
अच्छे योग पुनः पुनः प्राप्त नहीं होते
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आत्मार्थीको मोक्षमार्गमें प्रवृत्ति करना चाहिये ।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तो वास्तवमें मोक्षमार्ग है और व्यवहार-
सम्यग्दर्शन-चारित्र वह मोक्षमार्ग नहीं है; किन्तु वास्तवमें बन्धमार्ग
है; लेकिन निश्चयमोक्षमार्गमें सहचर होनेसे उसे व्यवहारमोक्षमार्ग
कहा जाता है ।
सम्यग्ज्ञान है । परद्रव्योंका आलम्बन छोड़कर आत्मस्वरूपमें लीन
होना सो निश्चयसम्यक्चारित्र है तथा सातों तत्त्वोंका यथावत्
भेदरूप अटल श्रद्धान करना सो व्यवहार-सम्यग्दर्शन कहलाता है ।
यद्यपि सात तत्त्वोंके भेदकी अटल श्रद्धा शुभराग होनेसे वास्तवमें
सम्यग्दर्शन नहीं है; किन्तु निचली दशामें (चौथे, पाँचवें और छठवें
गुणस्थानमें) निश्चयसम्यक्त्वके साथ सहचर होनेसे वह व्यवहार-
सम्यग्दर्शन कहलाता है ।
सम्यक्त्वके अंग (गुण) हैं; उन्हें भलीभाँति जानकर दोषका त्याग
तथा गुणका ग्रहण करना चाहिये ।
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किंचित् संयम नहीं होता; तथापि वह इन्द्रादिके द्वारा पूजा जाता
है । तीन लोक और तीन कालमें निश्चयसम्यक्त्वके समान सुखकारी
अन्य कोई वस्तु नहीं है । सर्व धर्मोंका मूल, सार तथा मोक्षमार्गकी
प्रथम सीढ़ी यह सम्यक्त्व ही है; इसके बिना ज्ञान और चारित्र
सम्यक्पनेको प्राप्त नहीं होते; किन्तु मिथ्या ही कहलाते हैं ।
नपुंसक, स्त्री, स्थावर, विकलत्रय, पशु, हीनांग, नीच गोत्रवाला,
अल्पायु तथा दरिद्री नहीं होता । मनुष्य और तिर्यंच सम्यग्दृष्टि
मरकर वैमानिक देव होता है देव और नारकी सम्यग्दृष्टि मरकर
कर्मभूमिमें उत्तम क्षेत्रमें मनुष्य ही होता है । यदि सम्यग्दर्शन होनेसे
पूर्व–१. देव, २. मनुष्य, ३. तिर्यंच या ४. नरकायुका बन्ध हो
गया हो तो वह मरकर १. वैमानिक देव, २. भोगभूमिका मनुष्य;
३. भोगभूमिका तिर्यंच अथवा ४. प्रथम नरकका नारकी होता है ।
इससे अधिक नीचेके स्थानमें जन्म नहीं होता । –इसप्रकार
निश्चय-सम्यग्दर्शनकी अपार महिमा है ।
सम्यग्दर्शन प्राप्त करना चाहिये; क्योंकि यदि इस मनुष्यभवमें
निश्चयसम्यक्त्व प्राप्त नहीं किया तो पुनः मनुष्यपर्यायकी प्राप्ति
आदिका सुयोग मिलना कठिन है ।
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आस्रव :–५ मिथ्यात्व, १२ अविरति, २५ कषाय, १५ योग ।
कारण :–उपादान और निमित्त ।
द्रव्यकर्म :–ज्ञानावरणादि आठ ।
नोकर्म :–औदारिक, वैक्रियिक और आहारकादि शरीर ।
परिग्रह :–अन्तरंग और बहिरंग ।
प्रमाद :–४ विकथा, ४ कषाय, ५ इन्द्रिय, १ निद्रा, १ प्रणय
इनको गर्व न कीजिये, ये मद अष्ट प्रकार ।।
रस :–खारा, खट्टा, मीठा, कड़वा, चरपरा और कषायला ।
रूप :–(रंग)–काला, पीला, हरा, लाल और सफे द–यह पाँच रूप
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अरिहन्त :–चार घातिकर्मोंसे रहित, अनन्तचतुष्टयसहित वीतराग
त्रसकाय) जीवोंकी हिंसाके त्यागरूप भाव न होना तथा पाँच
इन्द्रिय और मनके विषयोंमें प्रवृत्ति करना –ऐसे बारह प्रकार
अविरति है ।
कहलाता है ।
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लोभ–वह कषायभाव हैं ।
अवस्थाओंको गुणस्थान कहते हैं । (वरांगचरित्र पृ. ३६२)
करना ।
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जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श हो वह पुद्गल ।
भावकर्म :–मिथ्यात्व, राग-द्वेषादि जीवके मलिन भाव ।
मिथ्यादृष्टि :–तत्त्वोंकी विपरीत श्रद्धा करनेवाले ।
लोकमूढ़ता :–धर्म समझकर जलाशयमें स्नान करना तथा रेत,
गुण प्रत्येक सिद्ध परमात्मामें हैं । ]
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कहते हैं ।
कार्यादिकका किसीको किसीमें मिलाकर निरूपण करता है ।
ऐसे ही श्रद्धानसे मिथ्यात्व है; इसलिये उसका त्याग करना
चाहिये ।
होते हैं ।
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है ।
अन्तरात्मा, उपयोग, कषाय, काल, कुल, गन्ध, चारित्रमोह,
जघन्य अन्तरात्मा, जाति, जीव, मद, देवमूढ़ता, द्रव्यकर्म,
निकल, निश्चयकाल, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र, मोक्षमार्ग,
निर्जरा, नोकर्म, परमात्मा, पाखंड़ी मूढ़ता, पुद्गल, बहिरात्मा,
बन्ध, मध्यम अन्तरात्मा, मूढ़ता, मोक्ष, रस, रूप, लोकमूढ़ता,
विशेष, विकलत्रय, व्यवहारकाल, सम्यग्दर्शन, शम, सच्चे
देव-शास्त्र-गुरु, सुख, सकल परमात्मा, संवर, संवेग,
सामान्य, सिद्ध तथा स्पर्श आदिके लक्षण बतलाओ ।
सम्यग्दर्शन और निःशंकित अंगमें तथा सामान्य और विशेष
आदिमें क्या अन्तर है ।
धर्म, सम्यग्दृष्टिको नमस्कारके अयोग्य तथा हेय-उपादेय
तत्त्वोंके नाम बतलाओ ।
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कषाय, कारण, काल, कालद्रव्य, गंध, घातिया, जीवतत्त्व,
द्रव्य, दुःखदायक भाव, द्रव्यकर्म, नोकर्म, परमात्मा, परिग्रह,
पुद्गलके गुण, भावकर्म, प्रमाद, बहिरंग परिग्रह, मद,
मिथ्यात्व, मूढ़ता, मोक्षमार्ग, योग, रूपी द्रव्य, रस, वर्ण,
सम्यक्त्वके दोष और सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्रके भेद
बतलाओ ।
सम्यग्दृष्टिका कुदेवादिको नमस्कार न करना–आदिके कारण
बतलाओ ।
त्यागका कारण; सच्चे सुखका उपाय और सम्यग्दृष्टिकी
उत्पत्ति न होनेवाले स्थान–इनका स्पष्टीकरण करो ।
द्रव्य और सम्यक्त्वके दोष पर लेख लिखो ।
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सम्यग्ज्ञान ] (बहु धर्मजुत) अनेक धर्मात्मक (स्व-पर अर्थ) अपना
और दूसरे पदार्थोंका (प्रगटावन) ज्ञान करानेमें (भान) सूर्य समान
है ।
यथावत् दर्शाता है; उसीप्रकार जो अनेक धर्मयुक्त स्वयं अपनेको
(आत्माको) तथा पर पदार्थोंको
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(भिन्न) भिन्न (अराधौ) समझना चाहिये; क्योंकि (लक्षण) उन
दोनोंके लक्षण [क्रमशः ] (श्रद्धा) श्रद्धा करना और (जान) जानना
है तथा (सम्यक्) सम्यग्दर्शन (कारण) कारण है और (ज्ञान)
सम्यग्ज्ञान (कारज) कार्य है । (सोई) यह भी (दुहूमें) दोनोंमें
(भेद) अन्तर (अबाधौ) निर्बाध है । [जिसप्रकार ] (युगपत्) एक
साथ (होते हू) होने पर भी (प्रकाश) उजाला (दीपकतैं) दीपककी
ज्योतिसे (होई) होता है उसीप्रकार ।
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शुद्धपर्याय है । पुनश्च, सम्यग्दर्शनका लक्षण विपरीत अभिप्राय-
रहित तत्त्वार्थश्रद्धा है और सम्यग्ज्ञानका लक्षण संशय
भिन्न-भिन्न हैं ।
होते हैं; तथापि दीपक हो तो प्रकाश होता है; इसलिये दीपक
कारण है और प्रकाश कार्य है; उसीप्रकार ज्ञान-श्रद्धान भी हैं ।
है ।