Page 97 of 192
PDF/HTML Page 121 of 216
single page version
(परोक्ष) परोक्षज्ञान हैं । [क्योंकि वे ] (अक्ष मनतैं) इन्द्रियों तथा
हैं । सम्यक्मति-श्रुतज्ञान स्वानुभवकालमें प्रत्यक्ष होते हैं; उनमें
इन्द्रिय और मन निमित्त नहीं हैं । अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान
देशप्रत्यक्ष
Page 98 of 192
PDF/HTML Page 122 of 216
single page version
Page 99 of 192
PDF/HTML Page 123 of 216
single page version
अपरिमित (गुन) गुणोंको और (अनन्ता) अनन्त (परजाय)
पर्यायोंको (एकै काल) एक साथ (प्रगट) स्पष्ट (जानै) जानते हैं
[उस ज्ञानको ] (सकल) सकलप्रत्यक्ष अथवा केवलज्ञान कहते हैं ।
(जगतमें) इस जगतमें (ज्ञान समान) सम्यग्ज्ञान जैसा (आन)
दूसरा कोई पदार्थ (सुखकौ) सुखका (न कारन) कारण नहीं है ।
(इहि) यह सम्यग्ज्ञान ही (जन्मजरामृति-रोग-निवारन) जन्म, जरा
[वृद्धावस्था ] और मृत्युरूपी रोगोंको दूर करनेके लिये (परमामृत)
उत्कृष्ट अमृतसमान है ।
समयमें यथास्थित, परिपूर्णरूपसे स्पष्ट और एकसाथ जानता है,
उस ज्ञानको केवलज्ञान कहते हैं । जो सकलप्रत्यक्ष है ।
असत्य है तथा वे अनन्तको अथवा मात्र अपने आत्माको ही जानते
Page 100 of 192
PDF/HTML Page 124 of 216
single page version
केवली भगवान सर्वज्ञ होनेसे अनेकान्तस्वरूप प्रत्येक वस्तुको
प्रत्यक्ष जानते हैं । (–लघु जैनसिद्धान्त प्रवेशिका प्रश्न-८७)
तीन रोगोंका नाश करनेके लिये उत्तम अमृत-समान है ।
तप करनेसे (जे कर्म) जितने कर्म (झरैं) नाश होते हैं (ते) उतने
कर्म (ज्ञानीके) सम्यग्ज्ञानी जीवके (त्रिगुप्ति तैं) मन, वचन और
कायकी ओरकी प्रवृत्तिको रोकनेसे [निर्विकल्प शुद्ध स्वभावसे ]
Page 101 of 192
PDF/HTML Page 125 of 216
single page version
[यह जीव ] (मुनिव्रत) मुनियोंके महाव्रतोंको (धार) धारण करके
(अनन्तबार) अनन्तबार (ग्रीवक) नववें ग्रैवेयक तक (उपजायो)
उत्पन्न हुआ, (पै) परन्तु (निज आतम) अपने आत्माके (ज्ञान
विना) ज्ञान बिना (लेश) किंचित्मात्र (सुख) सुख (न पायो) प्राप्त
न कर सका ।
कर्मोंका नाश करता है उतने कर्मोंका नाश सम्यग्ज्ञानी
जीव–स्वोन्मुख ज्ञातापनेके कारण स्वरूपगुप्तिसे-क्षणमात्रमें सहज
ही कर डालता है । यह जीव, मुनिके (द्रव्यलिंगी मुनिके)
महाव्रतोंको धारण करके उनके प्रभावसे नववें ग्रैवेयक तकके
विमानोंमें अनन्तबार उत्पन्न हुआ; परन्तु आत्माके भेदविज्ञान
(सम्यग्ज्ञान अथवा स्वानुभव)के बिना जीवको वहाँ भी लेशमात्र सुख
प्राप्त नहीं हुआ ।
अभ्यास (करीजे) करना चाहिये और (संशय) संशय (विभ्रम)
Page 102 of 192
PDF/HTML Page 126 of 216
single page version
छोड़कर (आपो) अपने आत्माको (लख लीजे) लक्षमें लेना चाहिये
अर्थात् जानना चाहिये । [यदि ऐसा नहीं किया तो ] (यह) यह
(मानुष पर्याय) मनुष्य भव (सुकुल) उत्तम कुल और (जिनवानी)
जिनवाणीका (सुनिवौ) सुनना (इह विध) ऐसा सुयोग (गये) बीत
जाने पर, (उदधि) समुद्रमें (समानी) समाये-डूबे हुए
(सुमणि ज्यौं) सच्चे रत्नकी भाँति [पुनः ] (न मिलै) मिलना
कठिन है ।
Page 103 of 192
PDF/HTML Page 127 of 216
single page version
जानना चाहिये; क्योंकि जिसप्रकार समुद्रमें डूबा हुआ अमूल्य रत्न
पुनः हाथ नहीं आता; उसीप्रकार मनुष्य शरीर, उत्तम श्रावककुल
और जिनवचनोंका श्रवण आदि सुयोग भी बीत जानेके बाद पुनः-
पुनः प्राप्त नहीं होते । इसलिये यह अपूर्व अवसर न गँवाकर
आत्मस्वरूपकी पहिचान (सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति) करके यह मनुष्य-
जन्म सफल करना चाहिये ।
उसे संशय कहते हैं
नाम विपर्यय है
Page 104 of 192
PDF/HTML Page 128 of 216
single page version
(न आवै) नहीं आते; किन्तु (ज्ञान) सम्यग्ज्ञान (आपको रूप)
आत्माका स्वरूप– [जो ] (भये) प्राप्त होनेके (फि र) पश्चात्
(अचल) अचल (रहावै) रहता है । (तास) उस (ज्ञानको)
सम्यग्ज्ञानका (कारन) कारण (स्व-पर विवेक) आत्मा और
परवस्तुओंका भेदविज्ञान (बखानौ) कहा है, [इसलिये ] (भव्य) हे
भव्य जीवो ! (कोटि) करोड़ों (उपाय) उपाय (बनाय) करके
(ताको) उस भेदविज्ञानको (उर आनौ) हृदयमें धारण करो ।
किन्तु सम्यग्ज्ञान आत्माका स्वरूप है; वह एकबार प्राप्त होनेके
पश्चात् अक्षय हो जाता है– कभी नष्ट नहीं होता, अचल एकरूप
रहता है । आत्मा और परवस्तुओंका भेदविज्ञान ही उस
सम्यग्ज्ञानका कारण है; इसलिये प्रत्येक आत्मार्थी भव्य जीवको
करोड़ों उपाय करके उस भेदविज्ञानके द्वारा सम्यग्दर्शन प्राप्त
करना चाहिये ।
Page 105 of 192
PDF/HTML Page 129 of 216
single page version
(आगे) भविष्यमें (जैहैं) जायेंगे (सो) वह (सब) सब (ज्ञान-तनी)
सम्यग्ज्ञानकी (महिमा) महिमा है–ऐसा (मुनिनाथ) जिनेन्द्रदेवने
कहा है । (विषय-चाह) पाँच इन्द्रियोंके विषयोंकी इच्छारूपी (दव-
Page 106 of 192
PDF/HTML Page 130 of 216
single page version
अरण्य-पुराने वनको (दझावै) जला रहा है (तास) उसकी
शान्तिका (उपाय) उपाय (आन) दूसरा (न) नहीं है; [मात्र ]
(ज्ञान-घनघान) ज्ञानरूपी वर्षाका समूह (बुझावै) शान्त करता है ।
हो रहे हैं; वह इस सम्यग्ज्ञानका ही प्रभाव है । –ऐसा पूर्वाचार्योंने
कहा है । जिसप्रकार दावानल (वनमें लगी हुई अग्नि) वहाँकी
समस्त वस्तुओंको भस्म कर देता है; उसीप्रकार पाँच इन्द्रियों
सम्बन्धी विषयोंकी इच्छा संसारी जीवोंको जलाती है–दुःख देती
है और जिसप्रकार वर्षाकी झड़ी उस दावानलको बुझा देती है;
उसीप्रकार यह सम्यग्ज्ञान उन विषयोंको शान्त कर देता है– नष्ट
कर देता है ।
फलमाहिं) पापके फलमें (विलखौ मत) द्वेष न कर [क्योंकि यह
पुण्य और पाप ] (पुद्गल परजाय) पुद्गलकी पर्यायें हैं । [वे ]
(उपजि) उत्पन्न होकर (विनसै) नष्ट हो जाती हैं और (फि र) पुनः
Page 107 of 192
PDF/HTML Page 131 of 216
single page version
वास्तवमें (लाख बातकी बात) लाखों बातोंका सार (यही)
इसीप्रकार (लाओ) ग्रहण करो कि (सकल) पुण्य-पापरूप समस्त
(जग-दंद-फंद) जन्म-मरणके द्वन्द [राग-द्वेष ] रूप विकारी-
मलिन भाव (तोरि) तोड़कर (नित) सदैव (आतम ध्याओ) अपने
आत्माका ध्यान करो ।
लाभ है तथा उनके वियोगसे अपनेको हानि है–ऐसा न माने;
क्योंकि पर-पदार्थ सदा भिन्न हैं, ज्ञेयमात्र हैं, उनमें किसीको
अनुकूल-प्रतिकूल अथवा इष्ट-अनिष्ट मानना वह मात्र जीवकी भूल
है; इसलिये पुण्य-पापके फलमें हर्ष-शोक नहीं करना चाहिये ।
Page 108 of 192
PDF/HTML Page 132 of 216
single page version
परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावको वास्तवमें हितकर तथा अहितकर माना
है, उसने अनन्त परपदार्थोंको राग-द्वेष करने योग्य माना है और
अनन्त परपदार्थ मुझे सुख-दुःखके कारण हैं –ऐसा भी माना है;
इसलिये वह भूल छोड़कर निज ज्ञानानंद स्वरूपका निर्णय करके
स्वोन्मुख ज्ञाता रहना ही सुखी होनेका उपाय है ।
जाते हैं, जितने काल तक वे निकट रहें, उतने काल भी वे सुख-
दुःख देनेमें समर्थ नहीं हैं ।
निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक निज आत्मस्वरूपमें एकाग्र (लीन)
होना ही जीवका कर्तव्य है ।
Page 109 of 192
PDF/HTML Page 133 of 216
single page version
पालन करना चाहिये; (तसु) उसके [उस सम्यक्चारित्रके ]
(एकदेश) एकदेश (अरु) और (सकलदेश) सर्वदेश [ऐसे दो ]
जीवोंकी हिंसाका (त्याग) त्याग करना और (वृथा) बिना कारण
(थावर) स्थावर जीवोंका (न सँहारै) घात न करना [वह अहिंसा-
अणुव्रत कहलाता है ] (पर-वधकार) दूसरोंको दुःखदायक
(कठोर) कठोर [और ] (निंद्य) निंद्यनीय (वयन) वचन (नहिं
Page 110 of 192
PDF/HTML Page 134 of 216
single page version
(अणु, देश, स्थूल) चारित्र और (२) सर्वदेश (सकल, महा, सूक्ष्म)
चारित्र । उनमें सकलचारित्रका पालन मुनिराज करते हैं और
देशचारित्रका पालन श्रावक करते हैं । इस चौथी ढालमें
देशचारित्रका वर्णन किया गया है । सकलचारित्रका वर्णन छठवीं
ढालमें किया जायेगा । त्रस जीवोंकी संकल्पी हिंसाका सर्वथा त्याग
करके निष्प्रयोजन स्थावर जीवोंका घात न करना सो
न बोलना [तथा दूसरोंसे न बुलवाना, न अनुमोदना सो सत्य-
अणुव्रत है ] ।
जीवकी संकल्पी हिंसा नहीं करता; किन्तु इस व्रतका धारी
आरम्भी, उद्योगिनी तथा विरोधिनी हिंसाका त्यागी नहीं होता
Page 111 of 192
PDF/HTML Page 135 of 216
single page version
(नाहिं) नहीं (ग्रहे) लेना [उसे अचौर्याणुव्रत कहते हैं ] (निज)
अपनी (वनिता विन) स्त्रीके अतिरिक्त (सकल नारि सों) अन्य
सर्व स्त्रियोंसे (विरत्ता) विरक्त (रहे) रहना [वह ब्रह्मचर्याणुव्रत
है ] (अपनी) अपनी (शक्ति विचार) शक्तिका विचार करके
(परिग्रह) परिग्रह (थोरो) मर्यादित (राखै) रखना [सो
होने पर भी हिंसाका दोष नहीं लगता
करते हैं; वहाँ सामनेवालेका प्राणघात होने पर भी हिंसाका दोष
नहीं है
Page 112 of 192
PDF/HTML Page 136 of 216
single page version
जाने-आनेकी (प्रमाण) मर्यादा (ठान) रखकर (तसु) उस (सीम)
सीमाका (न नाखै) उल्लंघन न करना [सो दिग्व्रत है ] ।
जैसी वस्तुके अतिरिक्त परायी वस्तु (जिस पर अपना स्वामित्व
न हो) उसके स्वामीके दिये बिना न लेना [तथा उठाकर दूसरेको
न देना ] उसे अचौर्याणुव्रत कहते हैं । अपनी विवाहित स्त्रीके सिवा
अन्य सर्व स्त्रियोंसे विरक्त रहना सो ब्रह्मचर्याणुव्रत है । [पुरुषको
चाहिये कि अन्य स्त्रियोंको माता, बहिन और पुत्री समान माने,
तथा स्त्रीको चाहिये कि अपने स्वामीके अतिरिक्त अन्य पुरुषोंको
पिता, भाई तथा पुत्र समान समझे । ]
उससे अधिककी इच्छा न करे उसे
गया है; इसीकारण वे अणुव्रत कहलाते हैं
Page 113 of 192
PDF/HTML Page 137 of 216
single page version
मर्यादा निश्चित की जाती है; इसलिये उसे दिग्व्रत कहा जाता है ।
उद्यान तथा (बजार) बाजार तक (गमनागमन) जाने-आनेका
(प्रमाण) माप (ठान) रखकर (अन) अन्य (सकल) सबका
(निवारा) त्याग करना [उसे देशव्रत अथवा देशावगाशिक व्रत
कहते हैं । ]
नियमसे) किसी प्रसिद्ध ग्राम, मार्ग, मकान तथा बाजार तक जाने-
आनेकी मर्यादा करके उससे आगेकी सीमामें न जाना सो देशव्रत
कहलाता है ।। ११-१२।। (पूर्वार्द्ध)
Page 114 of 192
PDF/HTML Page 138 of 216
single page version
किसीकी हारका (न चिन्तै) विचार न करना [ उसे अपध्यान-
अनर्थदंडव्रत कहते हैं । ] २. (बनज) व्यापार और (कृषी तैं)
खेतीसे (अघ) पाप (होय) होता है; इसलिये (सो) उसका
(उपदेश) उपदेश (न देय) न देना [उसे पापोपदेश-अनर्थदंडव्रत
कहा जाता है । ] ३. (प्रमाद कर) प्रमादसे [बिना प्रयोजन ]
(जल) जलकायिक, (भूमि) पृथ्वीकायिक, (वृक्ष) वनस्पतिकायिक,
(पावक) अग्निकायिक [और वायुकायिक ] जीवोंका (न विराधै)
घात न करना [सो प्रमादचर्या-अनर्थदंडव्रत कहलाता है । ] ४.
(असि) तलवार, (धनु) धनुष्य, (हल) हल [आदि ]
(हिंसोपकरण) हिंसा होनेमें कारणभूत पदार्थोंको (दे) देकर (यश)
यश (नहिं लाधै) न लेना [सो हिंसादान-अनर्थदंडव्रत कहलाता
Page 115 of 192
PDF/HTML Page 139 of 216
single page version
(कथा) कथाएँ (कबहूँ) कभी भी (न सुनीजै) नहीं सुनना [सो
दुःश्रुति अनर्थदंडव्रत कहा जाता है । ] (और हु) तथा अन्य भी
(अघहेतु) पापके कारण (अनरथ दंड) अनर्थदंड हैं (तिन्हैं) उन्हें
भी (न कीजै) नहीं करना चाहिये ।
कहलाता है ।
स्थावरकायके जीवोंकी हिंसा न करना, उसे प्रमादचर्या-
अनर्थदंडव्रत कहते हैं ।
व्रतको तो सर्वज्ञदेवने बालव्रत कहा है
Page 116 of 192
PDF/HTML Page 140 of 216
single page version
कहलाता है ।। १३।।