Chha Dhala (Hindi). Gatha: 3: samyaggyAnke bhed, parokSh aur deshpratyakShke lakShan,4: sakal pratyakSh gyAnkA lakShan aur gyAnkee mahimA,5: gyAni aur agyAnike karm nAshake vishayme antar,6: gyAnke dosh aur manushya paryAyAdikee durlabhata,7: samyaggyAnkee mahimA Aur kAran,8: samyaggyAnkee mahimA Aur vishayechchhA rokanekA upAy,9: punyA-pApame harsh vishAdkA nishedh aur tAtparyakee bAt,10: samyak chAritrakA samay aur bhed tatha ahinsANuvratkA lakShan,11: achaurANuvrat, brahmacharyANuvrat, parigraha primANuvrat tathAdigvratkA lakShan,12: deshavrat (deshavagAshik) nAmak gunvratkA lakShan (Dhal 4),13: anarth dand vratke bhed aur unkA lakShan (Dhal 4),14: sAmAyik, proshadh, bhogopbhog pariman aur atithi sanvibhag vrat (Dhal 4).

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सम्यग्ज्ञानके भेद, परोक्ष और देशप्रत्यक्षके लक्षण
तास भेद दो हैं, परोक्ष परतछि तिन मांहीं
मति श्रुत दोय परोक्ष, अक्षमनतैं उपजाहीं ।।
अवधिज्ञान मनपर्जय दो हैं देश-प्रतच्छा
द्रव्य क्षेत्र परिमाण लिये जानै जिय स्वच्छा ।।।।
अन्वयार्थ :(तास) उस सम्यग्ज्ञानके (परोक्ष) परोक्ष
और (परतछि) प्रत्यक्ष (दो) दो (भेद हैं) भेद हैं; (तिन मांहीं)
उनमें (मति श्रुत) मतिज्ञान और श्रुतज्ञान (दोय) यह दोनों
(परोक्ष) परोक्षज्ञान हैं । [क्योंकि वे ] (अक्ष मनतैं) इन्द्रियों तथा
मनके निमित्तसे (उपजाहीं) उत्पन्न होते हैं । (अवधिज्ञान)
अवधिज्ञान और (मनपर्जय) मनःपर्ययज्ञान (दो) यह दोनों ज्ञान
(देश-प्रतच्छा) देशप्रत्यक्ष (हैं) हैं; [क्योंकि इन ज्ञानोंसे ] (जिय)
जीव (द्रव्य क्षेत्र परिमाण) द्रव्य और क्षेत्रकी मर्यादा (लिये) लेकर
(स्वच्छा) स्पष्ट (जानै) जानता है ।
भावार्थ :इस सम्यग्ज्ञानके दो भेद हैं–(१) प्रत्यक्ष और
(२) परोक्ष; उनमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्षज्ञान हैं; क्योंकि
वे दोनों ज्ञान इन्द्रियों तथा मनके निमित्तसे वस्तुको अस्पष्ट जानते
हैं । सम्यक्मति-श्रुतज्ञान स्वानुभवकालमें प्रत्यक्ष होते हैं; उनमें
इन्द्रिय और मन निमित्त नहीं हैं । अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान
देशप्रत्यक्ष
हैं; क्योंकि जीव इन दो ज्ञानोंसे रूपी द्रव्यको द्रव्य,
१. जो ज्ञान इन्द्रियों तथा मनके निमित्तसे वस्तुको अस्पष्ट जानता है,
उसे परोक्षज्ञान कहते हैं
२. जो ज्ञान रूपी वस्तुको द्रव्य-क्षेत्र-काल और भावकी मर्यादा
पूर्वक स्पष्ट जानता है, उसे देशप्रत्यक्ष कहते हैं

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क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादापूर्वक स्पष्ट जानता है ।
सकल-प्रत्यक्ष ज्ञानका लक्षण और ज्ञानकी महिमा
सकल द्रव्यके गुन अनंत, परजाय अनंता
जानै एकै काल, प्रगट केवलि भगवन्ता ।।
ज्ञान समान न आन जगतमें सुख कौ कारन
इहि परमामृत जन्मजरामृति-रोग-निवारन ।।।।

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अन्वयार्थ :[जिस ज्ञानसे ] (केवलि भगवन्ता)
केवलज्ञानी भगवान (सकल द्रव्यके) छहों द्रव्योंके (अनन्त)
अपरिमित (गुन) गुणोंको और (अनन्ता) अनन्त (परजाय)
पर्यायोंको (एकै काल) एक साथ (प्रगट) स्पष्ट (जानै) जानते हैं
[उस ज्ञानको ] (सकल) सकलप्रत्यक्ष अथवा केवलज्ञान कहते हैं ।
(जगतमें) इस जगतमें (ज्ञान समान) सम्यग्ज्ञान जैसा (आन)
दूसरा कोई पदार्थ (सुखकौ) सुखका (न कारन) कारण नहीं है ।
(इहि) यह सम्यग्ज्ञान ही (जन्मजरामृति-रोग-निवारन) जन्म, जरा
[वृद्धावस्था ] और मृत्युरूपी रोगोंको दूर करनेके लिये (परमामृत)
उत्कृष्ट अमृतसमान है ।
भावार्थ :(१) जो ज्ञान तीनकाल और तीनलोकवर्ती
सर्व पदार्थों (अनन्तधर्मात्मक सर्व द्रव्य-गुण-पर्यायोंको) प्रत्येक
समयमें यथास्थित, परिपूर्णरूपसे स्पष्ट और एकसाथ जानता है,
उस ज्ञानको केवलज्ञान कहते हैं । जो सकलप्रत्यक्ष है ।
(२) द्रव्य, गुण और पर्यायोंको केवली भगवान जानते हैं;
किन्तु उनके अपेक्षित धर्मोंको नहीं जान सकते –ऐसा मानना
असत्य है तथा वे अनन्तको अथवा मात्र अपने आत्माको ही जानते

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हैं; किन्तु सर्वको नहीं जानते–ऐसा मानना भी न्यायविरुद्ध है ।
केवली भगवान सर्वज्ञ होनेसे अनेकान्तस्वरूप प्रत्येक वस्तुको
प्रत्यक्ष जानते हैं । (–लघु जैनसिद्धान्त प्रवेशिका प्रश्न-८७)
(३) इस संसारमें सम्यग्ज्ञानके समान सुखदायक अन्य
कोई वस्तु नहीं है । यह सम्यग्ज्ञान ही जन्म, जरा और मृत्युरूपी
तीन रोगोंका नाश करनेके लिये उत्तम अमृत-समान है ।
ज्ञानी और अज्ञानीके कर्मनाशके विषयमें अन्तर
कोटि जन्म तप तपैं, ज्ञान विन कर्म झरैं जे
ज्ञानीके छिनमें, त्रिगुप्तितैं सहज टरैं ते ।।
मुनिव्रत धार अनन्त बार ग्रीवक उपजायो
पै निज आतमज्ञान विना, सुख लेश न पायौ ।।।।
अन्वयार्थ :[अज्ञानी जीवको ] (ज्ञान बिना)
सम्यग्ज्ञानके बिना (कोटि जन्म) करोड़ों जन्मों तक (तप तपैं)
तप करनेसे (जे कर्म) जितने कर्म (झरैं) नाश होते हैं (ते) उतने
कर्म (ज्ञानीके) सम्यग्ज्ञानी जीवके (त्रिगुप्ति तैं) मन, वचन और
कायकी ओरकी प्रवृत्तिको रोकनेसे [निर्विकल्प शुद्ध स्वभावसे ]

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(छिनमें) क्षणमात्रमें (सहज) सरलतासे (टरै) नष्ट हो जाते हैं ।
[यह जीव ] (मुनिव्रत) मुनियोंके महाव्रतोंको (धार) धारण करके
(अनन्तबार) अनन्तबार (ग्रीवक) नववें ग्रैवेयक तक (उपजायो)
उत्पन्न हुआ, (पै) परन्तु (निज आतम) अपने आत्माके (ज्ञान
विना) ज्ञान बिना (लेश) किंचित्मात्र (सुख) सुख (न पायो) प्राप्त
न कर सका ।
भावार्थ :मिथ्यादृष्टि जीव आत्मज्ञान (सम्यग्ज्ञान)के
बिना करोड़ों जन्मों-भवों तक बालतपरूप उद्यम करके जितने
कर्मोंका नाश करता है उतने कर्मोंका नाश सम्यग्ज्ञानी
जीव–स्वोन्मुख ज्ञातापनेके कारण स्वरूपगुप्तिसे-क्षणमात्रमें सहज
ही कर डालता है । यह जीव, मुनिके (द्रव्यलिंगी मुनिके)
महाव्रतोंको धारण करके उनके प्रभावसे नववें ग्रैवेयक तकके
विमानोंमें अनन्तबार उत्पन्न हुआ; परन्तु आत्माके भेदविज्ञान
(सम्यग्ज्ञान अथवा स्वानुभव)के बिना जीवको वहाँ भी लेशमात्र सुख
प्राप्त नहीं हुआ ।
ज्ञानके दोष और मनुष्यपर्याय आदिकी दुर्लभता
तातैं जिनवर-कथित तत्त्व अभ्यास करीजे
संशय विभ्रम मोह त्याग, आपो लख लीजे ।।
यह मानुषपर्याय, सुकुल, सुनिवौ जिनवानी
इहविधि गये न मिले, सुमणि ज्यौं उदधि समानी ।।।।
अन्वयार्थ :(तातैं) इसलिये (जिनवर-कथित)
जिनेन्द्र भगवानके कहे हुए (तत्त्व) परमार्थ तत्त्वका (अभ्यास)
अभ्यास (करीजे) करना चाहिये और (संशय) संशय (विभ्रम)

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विपर्यय तथा (मोह) अनध्यवसाय [अनिश्चितता ] को (त्याग)
छोड़कर (आपो) अपने आत्माको (लख लीजे) लक्षमें लेना चाहिये
अर्थात् जानना चाहिये । [यदि ऐसा नहीं किया तो ] (यह) यह
(मानुष पर्याय) मनुष्य भव (सुकुल) उत्तम कुल और (जिनवानी)
जिनवाणीका (सुनिवौ) सुनना (इह विध) ऐसा सुयोग (गये) बीत
जाने पर, (उदधि) समुद्रमें (समानी) समाये-डूबे हुए
(सुमणि ज्यौं) सच्चे रत्नकी भाँति [पुनः ] (न मिलै) मिलना
कठिन है ।
भावार्थ :आत्मा और परवस्तुओंके भेदविज्ञानको प्राप्त
करनेके लिये जिनदेव द्वारा प्ररूपित सच्चे तत्त्वोंका पठन-पाठन

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(मनन) करना चाहिये और संशय विपर्यय तथा अनध्यवसाय
–सम्यग्ज्ञानके इन तीन दोषोंको दूर करनेके लिये आत्मस्वरूपको
जानना चाहिये; क्योंकि जिसप्रकार समुद्रमें डूबा हुआ अमूल्य रत्न
पुनः हाथ नहीं आता; उसीप्रकार मनुष्य शरीर, उत्तम श्रावककुल
और जिनवचनोंका श्रवण आदि सुयोग भी बीत जानेके बाद पुनः-
पुनः प्राप्त नहीं होते । इसलिये यह अपूर्व अवसर न गँवाकर
आत्मस्वरूपकी पहिचान (सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति) करके यह मनुष्य-
जन्म सफल करना चाहिये ।
सम्यग्ज्ञानकी महिमा और कारण
धन समाज गज बाज, राज तो काज न आवै
ज्ञान आपको रूप भये, फि र अचल रहावै ।।
तास ज्ञानको कारन, स्व-पर विवेक बखानौ
कोटि उपाय बनाय भव्य, ताको उर आनौ ।।।।
अन्वयार्थ :(धन) पैसा, (समाज) परिवार, (गज)
१. संशय–विरुद्धानेककोटिस्पर्शिज्ञानं संशयः = ‘‘इसप्रकार है अथवा
इसप्रकार ?’’–ऐसा जो परस्पर विरुद्धतापूर्वक दो प्रकाररूप ज्ञान,
उसे संशय कहते हैं
२. विपर्यय–विपरीतैक कोटिनिश्चयो विपर्ययः = वस्तुस्वरूपसे
विरुद्धता-पूर्वक ‘‘यह ऐसा ही है’’–इसप्रकार एकरूप ज्ञानका
नाम विपर्यय है
उसके तीन भेद हैं–कारणविपर्यय, स्वरूप-
विपर्यय तथा भेदाभेदविपर्यय (मोक्षमार्गप्रकाशक पृ. १२३)
३. अनध्यवसाय–किमित्यालोचनमात्रमनध्यवसायः = ‘कुछ है’
–ऐसा निर्णय रहित विचार सो अनध्यवसाय है

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हाथी, (बाज) घोड़ा, (राज) राज्य (तो) तो (काज) अपने काममें
(न आवै) नहीं आते; किन्तु (ज्ञान) सम्यग्ज्ञान (आपको रूप)
आत्माका स्वरूप– [जो ] (भये) प्राप्त होनेके (फि र) पश्चात्
(अचल) अचल (रहावै) रहता है । (तास) उस (ज्ञानको)
सम्यग्ज्ञानका (कारन) कारण (स्व-पर विवेक) आत्मा और
परवस्तुओंका भेदविज्ञान (बखानौ) कहा है, [इसलिये ] (भव्य) हे
भव्य जीवो ! (कोटि) करोड़ों (उपाय) उपाय (बनाय) करके
(ताको) उस भेदविज्ञानको (उर आनौ) हृदयमें धारण करो ।
भावार्थ :भावार्थ :धन-सम्पत्ति, परिवार, नौकर-चाकर, हाथी,
घोड़ा तथा राजादि कोई भी पदार्थ आत्माको सहायक नहीं होते;
किन्तु सम्यग्ज्ञान आत्माका स्वरूप है; वह एकबार प्राप्त होनेके
पश्चात् अक्षय हो जाता है– कभी नष्ट नहीं होता, अचल एकरूप
रहता है । आत्मा और परवस्तुओंका भेदविज्ञान ही उस
सम्यग्ज्ञानका कारण है; इसलिये प्रत्येक आत्मार्थी भव्य जीवको
करोड़ों उपाय करके उस भेदविज्ञानके द्वारा सम्यग्दर्शन प्राप्त
करना चाहिये ।

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सम्यग्ज्ञानकी महिमा और विषयेच्छा रोकनेका उपाय
जे पूरव शिव गये, जाहिं अरु आगे जैहैं
सो सब महिमा ज्ञान-तनी, मुनिनाथ कहै हैं ।।
विषय-चाह दव-दाह, जगत-जन अरनि दझावै
तास उपाय न आन, ज्ञान-घनघान बुझावै ।।।।
अन्वयार्थ :(पूरव) पूर्वकालमें (जे) जो जीव (शिव)
मोक्षमें (गये) गये हैं, [वर्तमानमें ] (जाहिं) जा रहे हैं (अरु) और
(आगे) भविष्यमें (जैहैं) जायेंगे (सो) वह (सब) सब (ज्ञान-तनी)
सम्यग्ज्ञानकी (महिमा) महिमा है–ऐसा (मुनिनाथ) जिनेन्द्रदेवने
कहा है । (विषय-चाह) पाँच इन्द्रियोंके विषयोंकी इच्छारूपी (दव-

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दाह) भयंकर दावानल (जगत-जन) संसारी जीवों रूपी (अरनि)
अरण्य-पुराने वनको (दझावै) जला रहा है (तास) उसकी
शान्तिका (उपाय) उपाय (आन) दूसरा (न) नहीं है; [मात्र ]
(ज्ञान-घनघान) ज्ञानरूपी वर्षाका समूह (बुझावै) शान्त करता है ।
भावार्थ :भूत, वर्तमान और भविष्य –तीनोंकालमें जो
जीव मोक्ष सुखको प्राप्त हुए हैं, होंगे और (वर्तमानमें विदेह-क्षेत्रमें)
हो रहे हैं; वह इस सम्यग्ज्ञानका ही प्रभाव है । –ऐसा पूर्वाचार्योंने
कहा है । जिसप्रकार दावानल (वनमें लगी हुई अग्नि) वहाँकी
समस्त वस्तुओंको भस्म कर देता है; उसीप्रकार पाँच इन्द्रियों
सम्बन्धी विषयोंकी इच्छा संसारी जीवोंको जलाती है–दुःख देती
है और जिसप्रकार वर्षाकी झड़ी उस दावानलको बुझा देती है;
उसीप्रकार यह सम्यग्ज्ञान उन विषयोंको शान्त कर देता है– नष्ट
कर देता है ।
पुण्य-पापमें हर्ष-विषादका निषेध और तात्पर्यकी बात
पुण्य-पाप फलमाहिं, हरख विलखौ मत भाई
यह पुद्गल परजाय, उपजि बिनसै फि र थाई ।।
लाख बातकी बात यही, निश्चय उर लाओ
तोरि सकल जग-दन्द-फंद, नित आतम ध्याओ ।।।।
अन्वयार्थ :(भाई) हे आत्मार्थी प्राणी ! (पुण्य-
फलमाहिं) पुण्यके फलमें (हरख मत) हर्ष न कर और (पाप-
फलमाहिं) पापके फलमें (विलखौ मत) द्वेष न कर [क्योंकि यह
पुण्य और पाप ] (पुद्गल परजाय) पुद्गलकी पर्यायें हैं । [वे ]
(उपजि) उत्पन्न होकर (विनसै) नष्ट हो जाती हैं और (फि र) पुनः

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(थाई) उत्पन्न होती हैं । (उर) अपने अन्तरमें (निश्चय) निश्चयसे-
वास्तवमें (लाख बातकी बात) लाखों बातोंका सार (यही)
इसीप्रकार (लाओ) ग्रहण करो कि (सकल) पुण्य-पापरूप समस्त
(जग-दंद-फंद) जन्म-मरणके द्वन्द [राग-द्वेष ] रूप विकारी-
मलिन भाव (तोरि) तोड़कर (नित) सदैव (आतम ध्याओ) अपने
आत्माका ध्यान करो ।
भावार्थ :आत्मार्थी जीवका कर्तव्य है कि धन, मकान,
दुकान, कीर्ति, निरोगी शरीरादि पुण्यके फल हैं, उनसे अपनेको
लाभ है तथा उनके वियोगसे अपनेको हानि है–ऐसा न माने;
क्योंकि पर-पदार्थ सदा भिन्न हैं, ज्ञेयमात्र हैं, उनमें किसीको
अनुकूल-प्रतिकूल अथवा इष्ट-अनिष्ट मानना वह मात्र जीवकी भूल
है; इसलिये पुण्य-पापके फलमें हर्ष-शोक नहीं करना चाहिये ।

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यदि किसी भी परपदार्थको जीव भला या बुरा माने तो
उसके प्रति राग या द्वेष हुए बिना नहीं रहता । जिसने परपदार्थ-
परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावको वास्तवमें हितकर तथा अहितकर माना
है, उसने अनन्त परपदार्थोंको राग-द्वेष करने योग्य माना है और
अनन्त परपदार्थ मुझे सुख-दुःखके कारण हैं –ऐसा भी माना है;
इसलिये वह भूल छोड़कर निज ज्ञानानंद स्वरूपका निर्णय करके
स्वोन्मुख ज्ञाता रहना ही सुखी होनेका उपाय है ।
पुण्य-पापका बन्ध वह पुद्गलकी पर्यायें (अवस्थाएँ) हैं,
उनके उदयमें जो संयोग प्राप्त हों वे भी क्षणिक संयोगरूपसे आते-
जाते हैं, जितने काल तक वे निकट रहें, उतने काल भी वे सुख-
दुःख देनेमें समर्थ नहीं हैं ।
जैनधर्मके समस्त उपदेशका सार यही है कि–शुभाशुभभाव
वह संसार है; इसलिये उसकी रुचि छोड़कर, स्वोन्मुख होकर
निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक निज आत्मस्वरूपमें एकाग्र (लीन)
होना ही जीवका कर्तव्य है ।
सम्यक्चारित्रका समय और भेद तथा अहिंसाणुव्रत
और सत्याणुव्रतका लक्षण
सम्यग्ज्ञानी होय, बहुरि दिढ़ चारित लीजै
एकदेश अरु सकलदेश, तसु भेद कहीजै ।।
त्रसहिंसाको त्याग, वृथा थावर न सँहारै
पर-वधकार कठोर निंद्य नहिं वयन उचारै ।।१०।।
अन्वयार्थ :(सम्यग्ज्ञानी) सम्यग्ज्ञानी (होय) होकर

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(बहुरि) फि र (दिढ़) दृढ़ (चारित) सम्यक्चारित्र (लीजै)का
पालन करना चाहिये; (तसु) उसके [उस सम्यक्चारित्रके ]
(एकदेश) एकदेश (अरु) और (सकलदेश) सर्वदेश [ऐसे दो ]
(भेद) भेद (कहीजै) कहे गये हैं । [उनमें ] (त्रसहिंसाको) त्रस
जीवोंकी हिंसाका (त्याग) त्याग करना और (वृथा) बिना कारण
(थावर) स्थावर जीवोंका (न सँहारै) घात न करना [वह अहिंसा-
अणुव्रत कहलाता है ] (पर-वधकार) दूसरोंको दुःखदायक
(कठोर) कठोर [और ] (निंद्य) निंद्यनीय (वयन) वचन (नहिं

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उचारै) न बोलना [वह सत्य-अणुव्रत कहलाता है । ]
भावार्थ :सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके सम्यक्चारित्र प्रगट
करना चाहिये । उस सम्यक्चारित्रके दो भेद हैं– (१) एकदेश
(अणु, देश, स्थूल) चारित्र और (२) सर्वदेश (सकल, महा, सूक्ष्म)
चारित्र । उनमें सकलचारित्रका पालन मुनिराज करते हैं और
देशचारित्रका पालन श्रावक करते हैं । इस चौथी ढालमें
देशचारित्रका वर्णन किया गया है । सकलचारित्रका वर्णन छठवीं
ढालमें किया जायेगा । त्रस जीवोंकी संकल्पी हिंसाका सर्वथा त्याग
करके निष्प्रयोजन स्थावर जीवोंका घात न करना सो
अहिंसा
अणुव्रत है । दूसरेके प्राणोंको घातक, कठोर तथा निंद्यनीय वचन
न बोलना [तथा दूसरोंसे न बुलवाना, न अनुमोदना सो सत्य-
अणुव्रत है ] ।
अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत, परिग्रहपरिमाणाणुव्रत तथा
दिग्व्रतका लक्षण
जल-मृतिका विन और नाहिं कछु गहै अदत्ता
निज वनिता विन सकल नारिसों रहै विरत्ता ।।
अपनी शक्ति विचार, परिग्रह थोरो राखै
दश दिश गमन प्रमाण ठान, तसु सीम न नाखै ।।११।।
अन्वयार्थ :(जल-मृतिका विन) पानी और मिट्टीके
टिप्पणी–(१) अहिंसाणुव्रतका धारण करनेवाला जीव ‘‘यह जीव घात
करने योग्य है, मैं इसे मारूँ’’–इसप्रकार संकल्पसहित किसी त्रस
जीवकी संकल्पी हिंसा नहीं करता; किन्तु इस व्रतका धारी
आरम्भी, उद्योगिनी तथा विरोधिनी हिंसाका त्यागी नहीं होता

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अतिरिक्त (और कछु) अन्य कोई वस्तु (अदत्ता) बिना दिये
(नाहिं) नहीं (ग्रहे) लेना [उसे अचौर्याणुव्रत कहते हैं ] (निज)
अपनी (वनिता विन) स्त्रीके अतिरिक्त (सकल नारि सों) अन्य
सर्व स्त्रियोंसे (विरत्ता) विरक्त (रहे) रहना [वह ब्रह्मचर्याणुव्रत
है ] (अपनी) अपनी (शक्ति विचार) शक्तिका विचार करके
(परिग्रह) परिग्रह (थोरो) मर्यादित (राखै) रखना [सो
(२) प्रमाद और कषायमें युक्त होनेसे जहाँ प्राणघात किया जाता है वहीं
हिंसाका दोष लगता है; जहाँ वैसा कारण नहीं है, वहाँ प्राणघात
होने पर भी हिंसाका दोष नहीं लगता
जिस प्रकार–प्रमादरहित
मुनि गमन करते हैं; वैद्य, डॉक्टर करुणाबुद्धिपूर्वक रोगीका उपचार
करते हैं; वहाँ सामनेवालेका प्राणघात होने पर भी हिंसाका दोष
नहीं है
(३) निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक पहले दो कषायोंका अभाव हुआ हो
उस जीवको सच्चे अणुव्रत होते हैं जिसे निश्चयसम्यग्दर्शन न हो
उसके व्रतको सर्वज्ञदेवने बालव्रत (अज्ञानव्रत) कहा है

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परिग्रहपरिमाणाणुव्रत है ] (दस दिश) दस दिशाओंमें (गमन)
जाने-आनेकी (प्रमाण) मर्यादा (ठान) रखकर (तसु) उस (सीम)
सीमाका (न नाखै) उल्लंघन न करना [सो दिग्व्रत है ] ।
भावार्थ :जन-समुदायके लिये जहाँ रोक न हो तथा
किसी विशेष व्यक्तिका स्वामित्व न हो–ऐसी पानी तथा मिट्टी
जैसी वस्तुके अतिरिक्त परायी वस्तु (जिस पर अपना स्वामित्व
न हो) उसके स्वामीके दिये बिना न लेना [तथा उठाकर दूसरेको
न देना ] उसे अचौर्याणुव्रत कहते हैं । अपनी विवाहित स्त्रीके सिवा
अन्य सर्व स्त्रियोंसे विरक्त रहना सो ब्रह्मचर्याणुव्रत है । [पुरुषको
चाहिये कि अन्य स्त्रियोंको माता, बहिन और पुत्री समान माने,
तथा स्त्रीको चाहिये कि अपने स्वामीके अतिरिक्त अन्य पुरुषोंको
पिता, भाई तथा पुत्र समान समझे । ]
अपनी शक्ति और योग्यताका ध्यान रखकर जीवनपर्यन्तके
लिये धन-धान्यादि बाह्य-परिग्रहका परिमाण (मर्यादा) बाँधकर
उससे अधिककी इच्छा न करे उसे
परिग्रहपरिमाणाणुव्रत कहते
हैं ।
टिप्पणी–(१) यह पाँच (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और
परिग्रहपरिमाण) अणुव्रत हैं हिंसादिकको लोकमें भी पाप माना
जाता है; उनका इन व्रतोंमें एकदेश (स्थूलरूपसे) त्याग किया
गया है; इसीकारण वे अणुव्रत कहलाते हैं
(२) निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक प्रथम दो कषायोंका अभाव हुआ हो
उस जीवको सच्चे अणुव्रत होते हैं जिसे निश्चयसम्यग्दर्शन न हो
उसके व्रतोंको सर्वज्ञदेवने बालव्रत (अज्ञानव्रत) कहा है

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दसों दिशाओंमें आने-जानेकी मर्यादा निश्चित करके
जीवनपर्यन्त उसका उल्लंघन न करना सो दिग्व्रत है । दिशाओंकी
मर्यादा निश्चित की जाती है; इसलिये उसे दिग्व्रत कहा जाता है ।
देशव्रत (देशावगाशिक) नामक गुणव्रतका लक्षण
ताहूमें फि र ग्राम गली, गृह बाग बजारा
गमनागमन प्रमाण ठान अन, सकल निवारा ।।१२।।
(पूर्वार्द्ध)
अन्वयार्थ :(फि र) फि र (ताहूमें) उसमें [किन्हीं
प्रसिद्ध-प्रसिद्ध ] (ग्राम) गाँव, (गली) गली, (गृह) मकान, (बाग)
उद्यान तथा (बजार) बाजार तक (गमनागमन) जाने-आनेका
(प्रमाण) माप (ठान) रखकर (अन) अन्य (सकल) सबका
(निवारा) त्याग करना [उसे देशव्रत अथवा देशावगाशिक व्रत
कहते हैं । ]
भावार्थ :दिग्व्रतमें जीवनपर्यन्त की गई जाने-आनेके
क्षेत्रकी मर्यादामें भी (घड़ी, घण्टा, दिन, महीना आदि कालके
नियमसे) किसी प्रसिद्ध ग्राम, मार्ग, मकान तथा बाजार तक जाने-
आनेकी मर्यादा करके उससे आगेकी सीमामें न जाना सो देशव्रत
कहलाता है ।। ११-१२।। (पूर्वार्द्ध)
अनर्थदंडव्रतके भेद और उनका लक्षण
काहूकी धनहानि, किसी जय हार न चिन्तै
देय न सो उपदेश, होय अघ वनज-कृषी तैं ।।१२।।
(उत्तरार्द्ध)

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कर प्रमाद जल भूमि, वृक्ष पावक न विराधै
असि धनु हल हिंसोपकरण नहिं दे यश लाधै ।।
रागद्वेष-करतार, कथा कबहूँ न सुनीजै
और हु अनरथदंड, हेतु अघ तिन्हैं न कीजै ।।१३।।
अन्वयार्थ :. (काहूकी) किसीके (धनहानि) धनके
नाशका, (किसी) किसीकी (जय) विजयका [अथवा ] (हार)
किसीकी हारका (न चिन्तै) विचार न करना [ उसे अपध्यान-
अनर्थदंडव्रत कहते हैं । ] २. (बनज) व्यापार और (कृषी तैं)
खेतीसे (अघ) पाप (होय) होता है; इसलिये (सो) उसका
(उपदेश) उपदेश (न देय) न देना [उसे पापोपदेश-अनर्थदंडव्रत
कहा जाता है । ] ३. (प्रमाद कर) प्रमादसे [बिना प्रयोजन ]
(जल) जलकायिक, (भूमि) पृथ्वीकायिक, (वृक्ष) वनस्पतिकायिक,
(पावक) अग्निकायिक [और वायुकायिक ] जीवोंका (न विराधै)
घात न करना [सो प्रमादचर्या-अनर्थदंडव्रत कहलाता है । ] ४.
(असि) तलवार, (धनु) धनुष्य, (हल) हल [आदि ]
(हिंसोपकरण) हिंसा होनेमें कारणभूत पदार्थोंको (दे) देकर (यश)
यश (नहिं लाधै) न लेना [सो हिंसादान-अनर्थदंडव्रत कहलाता

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है । ] ५. (राग-द्वेष-करतार) राग और द्वेष उत्पन्न करनेवाली
(कथा) कथाएँ (कबहूँ) कभी भी (न सुनीजै) नहीं सुनना [सो
दुःश्रुति अनर्थदंडव्रत कहा जाता है । ] (और हु) तथा अन्य भी
(अघहेतु) पापके कारण (अनरथ दंड) अनर्थदंड हैं (तिन्हैं) उन्हें
भी (न कीजै) नहीं करना चाहिये ।
भावार्थ :किसीके धनका नाश, पराजय अथवा विजय
आदिका विचार न करना सो पहला अपध्यान-अनर्थदंडव्रत
कहलाता है ।
(१) हिंसारूप पापजनक व्यापार तथा खेती आदिका
उपदेश न देना वह पापोपदेश-अनर्थदंडव्रत है ।
(२) प्रमादवश होकर पानी ढोलना, जमीन खोदना, वृक्ष
काटना, आग लगाना–इत्यादिका त्याग करना अर्थात् पाँच
स्थावरकायके जीवोंकी हिंसा न करना, उसे प्रमादचर्या-
अनर्थदंडव्रत कहते हैं ।
(३) यश प्राप्तिके लिये, किसीके माँगने पर हिंसाके कारण-
भूत हथियार न देना सो हिंसादान-अनर्थदंडव्रत कहलाता है ।
(४) राग-द्वेष उत्पन्न करनेवाली विकथा और उपन्यास या
अनर्थदंड दूसरे भी बहुतसे हैं पाँच तो स्थूलताकी अपेक्षासे
अथवा दिग्दर्शनमात्र हैं वे सब पापजनक हैं; इसलिये उनका
त्याग करना चाहिये पापजनक निष्प्रयोजन कार्य अनर्थदंड
कहलाता है
निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक, पहले दो कषायोंका अभाव हुआ
हो उस जीवको सच्चे अणुव्रत होते हैं, निश्चयसम्यग्दर्शन न हो उसके
व्रतको तो सर्वज्ञदेवने बालव्रत कहा है

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श्रृंगारिक कथाओंके श्रवणका त्याग करना सो दुःश्रुति-अनर्थदंडव्रत
कहलाता है ।। १३।।
सामायिक, प्रोषध, भोगोपभोगपरिमाण और
अतिथिसंविभागव्रत
धर उर समताभाव, सदा सामायिक करिये
परव चतुष्टयमांहि, पाप तज प्रोषध धरिये ।।
भोग और उपभोग, नियमकरि ममत निवारै
मुनिको भोजन देय फे र निज करहि अहारै ।।१४।।