Chha Dhala (Hindi). Gatha: 15: nirtichAr shrAvak vrat pAlan karanekA phal (Dhal 4),1: bhAvanAoke chintavanakA kAran, usake adhikAree aur usakA phal (Dhal 5),2: bhAvanAokA phal aur mokShasukhkee praptikA samay (Dhal 5),3: 1. anitya bhAvanA (Dhal 5),4: 2. asharan bhAvanA (Dhal 5),5: 3. sansar bhAvanA (Dhal 5),6: 4. ekatva bhAvanA (Dhal 5),7: 5. anyatva bhAvanA (Dhal 5); Chauthee dhalka sArAnsh; Chauthee dhalka bhed-sangrah; Chauthee dhalka lakShan sangrah; Chauthee dhalka antar pradarshan; Chauthee dhAlki prashnavali; Panchavee Dhal.

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अन्वयार्थ :(उर) मनमें (समताभाव) निर्विकल्पता
अर्थात् शल्यके अभावको (धर) धारण करके (सदा) हमेशा
(सामायिक) सामायिक (करिये) करना [सो सामायिक-शिक्षाव्रत
है; ] (परव चतुष्टयमांहि) चार पर्वके दिनोंमें (पाप) पापकार्योंको
छोड़कर (प्रोषध) प्रोषधोपवास (धरिये) करना [सो प्रोषध-उपवास
शिक्षाव्रत है; ] (भोग) एक बार भोगा जा सके ऐसी वस्तुओंका
तथा (उपभोग) बारम्बार भोगा जा सके ऐसी वस्तुओंका
(नियमकरि) परिमाण करके-मर्यादा रखकर (ममत) मोह (निवारै)
छोड़ दे [सो भोग-उपभोगपरिमाणव्रत है; ] (मुनिको) वीतरागी
मुनिको (भोजन) आहार (देय) देकर (फे र) फि र (निज आहारै)
स्वयं भोजन करे [सो अतिथिसंविभागव्रत कहलाता है । ]
भावार्थ :स्वोन्मुखता द्वारा अपने परिणामोंको स्थिर
करके प्रतिदिन विधिपूर्वक सामायिक करना सो सामायिक
शिक्षाव्रत है । १। प्रत्येक अष्टमी तथा चतुर्दशीके दिन कषाय और
व्यापारादि कार्योंको छोड़कर (धर्मध्यानपूर्वक) प्रोषधसहित उपवास
करना सो प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत कहलाता है । २। परिग्रहपरिमाण-
अणुव्रतमें निश्चय की हुई भोगोपभोगकी वस्तुओंमें जीवनपर्यंतके
लिये अथवा किसी निश्चित समयके लिये नियम करना सो
भोगोपभोगपरिमाण शिक्षाव्रत कहलाता है । ३। निर्ग्रंथ मुनि आदि
सत्पात्रोंको आहार देनेके पश्चात् स्वयं भोजन करना सो
अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत कहलाता है ।। १४।।
निरतिचार श्रावकव्रत पालन करनेका फल
बारह व्रत के अतीचार, पन पन न लगावै
मरण-समय संन्यास धारि, तसु दोष नशावै ।।

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यों श्रावक-व्रत पाल, स्वर्ग सोलम उपजावै
तहँतें चय नरजन्म पाय, मुनि ह्वै शिव जावै ।।१५।।
अन्वयार्थ :जो जीव (बारह व्रतके) बारह व्रतोंके
(पन पन) पाँच-पाँच (अतिचार) अतिचारोंको (न लगावै) नहीं
लगाता और (मरण-समय) मृत्यु-कालमें (संन्यास) समाधि (धार)
धारण करके (तसु) उनके (दोष) दोषोंको (नशावै) दूर करता
है वह (यों) इस प्रकार (श्रावक व्रत) श्रावकके व्रत (पाल) पालन
करके (सोलम) सोलहवें (स्वर्ग) स्वर्ग तक (उपजावै) उत्पन्न होता
है, [और ] (तहँतैं) वहाँसे (चय) मृत्यु प्राप्त करके (नरजन्म)
मनुष्यपर्याय (पाय) पाकर (मुनि) मुनि (ह्वै) होकर (शिव) मोक्ष
(जावै) जाता है ।
भावार्थ :जो जीव श्रावकके ऊपर कहे हुए बारह
व्रतोंका विधिपूर्वक जीवनपर्यंत पालन करते हुए उनके पाँच-पाँच
अतिचारोंको भी टालता है और मृत्युकालमें पूर्वोपार्जित दोषोंका
नाश करनेके लिये विधिपूर्वक समाधिमरण
(संल्लेखना) धारण
क्रोधादि के वश होकर विष, शस्त्र अथवा अन्नत्याग आदिसे प्राणत्याग
किया जाता है, उसे ‘‘आत्मघात’’ कहते हैं ‘संल्लेखना’ में
सम्यग्दर्शनसहित आत्मकल्याण (धर्म) के हेतुसे काया और कषाय
को कृश करते हुए सम्यक् आराधनापूर्वक समाधिमरण होता है;
इसलिये वह आत्मघात नहीं; किन्तु धर्मध्यान है

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करके उसके पाँच अतिचारोंको भी दूर करता है; वह आयु पूर्ण
होने पर मृत्यु प्राप्त करके सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न होता है । फि र
देवायु पूर्ण होने पर मनुष्य भव पाकर, मुनिपद धारण करके मोक्ष
(पूर्ण शुद्धता) प्राप्त करता है ।
सम्यक्चारित्रकी भूमिकामें रहनेवाले रागके कारण वह जीव
स्वर्गमें देवपद प्राप्त करता है; धर्मका फल संसारकी गति नहीं है;
किन्तु संवर-निर्जरारूप शुद्धभाव है; धर्मकी पूर्णता वह मोक्ष है ।
चौथी ढालका सारांश
सम्यग्दर्शनके अभावमें जो ज्ञान होता है उसे कुज्ञान
(मिथ्याज्ञान) कहा जाता है । सम्यग्दर्शन होनेके पश्चात् वही ज्ञान
सम्यग्ज्ञान कहलाता है । इस प्रकार यद्यपि यह दोनों सम्यग्दर्शन
और सम्यग्ज्ञान साथ ही होते हैं; तथापि उनके लक्षण भिन्न-भिन्न
हैं और कारण-कार्य भावका अन्तर है अर्थात् सम्यग्दर्शन
सम्यग्ज्ञानका निमित्तकारण है ।
स्वयंको और परवस्तुओंको स्वसन्मुखतापूर्वक यथावत् जाने
वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है; उसकी वृद्धि होने पर अन्तमें
केवलज्ञान प्राप्त होता है । सम्यग्ज्ञानके अतिरिक्त सुखदायक वस्तु
अन्य कोई नहीं है और वही जन्म, जरा तथा मरणका नाश करता
है । मिथ्यादृष्टि जीवको सम्यग्ज्ञानके बिना करोड़ों जन्म तक तप
तपनेसे जितने कर्मोंका नाश होता है, उतने कर्म सम्यग्ज्ञानी
जीवके त्रिगुप्तिसे क्षणमात्रमें नष्ट हो जाते हैं । पूर्वकालमें जो जीव
मोक्ष गये हैं; भविष्यमें जायेंगे और वर्तमानमें महाविदेहक्षेत्रसे जा
रहे हैं– वह सब सम्यग्ज्ञानका ही प्रभाव है । जिसप्रकार मूसलाधार
वर्षा वनकी भयंकर अग्निको क्षणमात्रमें बुझा देती है; उसीप्रकार

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यह सम्यग्ज्ञान विषय-वासनाको क्षणमात्रमें नष्ट कर देता है ।
पुण्य-पापके भाव वह जीवके चारित्रगुणकी विकारी
(अशुद्ध) पर्यायें हैं; वे रहँटके घड़ोंकी भाँति उल्टी-सीधी होती
रहती हैं; उन पुण्य-पापके फलोंमें जो संयोग प्राप्त होते हैं, उनमें
हर्ष-शोक करना मूर्खता है । प्रयोजनभूत बात तो यह है कि पुण्य-
पाप, व्यवहार और निमित्तकी रुचि छोड़कर स्वोन्मुख होकर
सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना चाहिये ।
आत्मा और परवस्तुओंका भेदविज्ञान होने पर सम्यग्ज्ञान
होता है । इसलिये संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय ( तत्त्वार्थोंका
अनिर्धार) का त्याग करके तत्त्वके अभ्यास द्वारा सम्यग्ज्ञान प्राप्त
करना चाहिये; क्योंकि मनुष्यपर्याय, उत्तम श्रावक कुल और
जिनवाणीका सुनना आदि सुयोग– जिसप्रकार समुद्रमें डूबा हुआ
रत्न पुनः हाथ नहीं आता, इसीप्रकार–बारम्बार प्राप्त नहीं होता ।
ऐसा दुर्लभ सुयोग प्राप्त करके सम्यग्धर्म प्राप्त न करना मूर्खता है ।
सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके फि र सम्यक्चारित्र प्रगट करना
चाहिये; वहाँ सम्यक्चारित्रकी भूमिकामें जो कुछ भी राग रहता है,
वह श्रावकको अणुव्रत और मुनिको पंचमहाव्रतके प्रकारका होता
है; उसे सम्यग्दृष्टि पुण्य मानते हैं ।
न हि सम्यग्व्यपदेशं चारित्रमज्ञानपूर्वकं लभते
ज्ञानान्तरमुक्तं, चारित्राराधनं तस्मात् ।।३८।।
अर्थ–अज्ञानपूर्वक चारित्र सम्यक् नहीं कहलाता; इसलिये चारित्रका
आराधन ज्ञान होनेके पश्चात् कहा है
(पुरुषार्थसिद्धयुपाय गाथा-३८)

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जो श्रावक निरतिचार समाधि-मरणको धारण करता है, वह
समतापूर्वक आयु पूर्ण होनेसे योग्तानुसार सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न
होता है, और वहाँसे आयु पूर्ण होने पर मनुष्यपर्याय प्राप्त करता
है; फि र मुनिपद प्रगट करके मोक्षमें जाता है; इसलिये
सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक चारित्रका पालन करना वह प्रत्येक आत्मार्थी
जीवका कर्तव्य है ।
निश्चय सम्यक्चारित्र ही सच्चा चारित्र है–ऐसी श्रद्धा करना,
तथा उस भूमिकामें जो श्रावक और मुनिव्रतके विकल्प उठते हैं
वह सच्चा चारित्र नहीं; किन्तु चारित्रमें होनेवाला दोष है; किन्तु
उस भूमिकामें वैसा राग आये बिना नहीं रहता और उस
सम्यक्चारित्रमें ऐसा राग निमित्त होता है; उसे सहचर मानकर
व्यवहार सम्यक्चारित्र कहा जाता है । व्यवहार सम्यक्चारित्रको
सच्चा सम्यक्चारित्र माननेकी श्रद्धा छोड़ देना चाहिये ।
चौथी ढालका भेद-संग्रह
काल :–निश्चयकाल और व्यवहारकाल अथवा भूत, भविष्य और
वर्तमान ।
चारित्र– मोह-क्षोभरहित आत्माके शुद्ध परिणाम, भावलिंगी
श्रावकपद तथा भावलिंगी मुनिपद ।
ज्ञानके दोष– संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय (अनिश्चितता) ।
दिशा– पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, वायव्य, नैऋत्य,
अग्निकोण, ऊर्ध्व और अधो–यह दस हैं ।
पर्वचतुष्टय– प्रत्येक मासकी दो अष्टमी तथा दो चतुर्दशी ।
मुनि– समस्त व्यापारसे विरक्त, चार प्रकारकी आराधनामें तल्लीन,

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निर्ग्रन्थ और निर्मोह–ऐसे सर्व साधु होते हैं । (नियमसार
गाथा-७६) । वे निश्चयसम्यग्दर्शन सहित, विरागी होकर,
समस्त परिग्रहका त्याग करके, शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म
अंगीकार करके अन्तरंगमें शुद्धोपयोग द्वारा अपने आत्माका
अनुभव करते हैं, परद्रव्यमें अहंबुद्धि नहीं करते । ज्ञानादि
स्वभावको ही अपना मानते हैं; परभावोंमें ममत्व नहीं करते ।
किसीको इष्ट-अनिष्ट मानकर उसमें राग-द्वेष नहीं करते ।
हिंसादि अशुभ उपयोगका तो उनके अस्तित्व ही नहीं
होता । अनेक बार सातवें गुणस्थानके निर्विकल्प आनन्दमें
लीन होते हैं । जब छठवें गुणस्थानमें आते हैं, तब उन्हें
अट्ठाईस मूलगुणोंको अखण्डितरूपसे पालन करनेका शुभ
विकल्प आता है । उन्हें तीन कषायोंके अभावरूप
निश्चयसम्यक्चारित्र होता है । भावलिंगी मुनिको सदा नग्न-
दिगम्बर दशा होती है; उसमें कभी अपवाद नहीं होता ।
कभी भी वस्त्रादि सहित मुनि नहीं होते ।
विकथा– स्त्री, आहार, देश और राज्य–इन चारकी अशुभ भावरूप
कथा सो विकथा है ।
श्रावकव्रत–पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ऐसे
बारह व्रत हैं ।
रोगत्रय– जन्म, जरा और मृत्यु ।
हिंसा– (१) वास्तवमें रागादिभावोंका प्रगट न होना सो अहिंसा
है और रागादि भावोंकी उत्पत्ति होना सो हिंसा है; ऐसा
जैनशास्त्रोंका संक्षिप्त रहस्य है ।

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(२) संकल्पी, आरम्भी, उद्योगिनी और विरोधिनी ये चार अथवा
द्रव्यहिंसा और भावहिंसा–यह दो ।
चौथी ढालका लक्षण-संग्रह
अणुव्रत–(१) निश्चयसम्यग्दर्शनसहित चारित्रगुणकी आंशिक शुद्धि
होनेसे (अनन्तानुबन्धी तथा अप्रत्याख्यानीय कषायोंके
अभावपूर्वक) उत्पन्न आत्माकी शुद्धिविशेषको देशचारित्र
कहते हैं । श्रावकदशामें पाँच पापोंका स्थूलरूप-एकदेश
त्याग होता है, उसे अणुव्रत कहा जाता है ।
अतिचार–व्रतकी अपेक्षा रखने पर भी उसका एकदेश भंग होना
सो अतिचार है ।
अनध्यवसाय–(मोह)–‘‘कुछ है,’’ किन्तु क्या है उसके निश्चयरहित
ज्ञानको अनध्यवसाय कहते हैं ।
अनर्थदंड–प्रयोजनरहित मन, वचन, कायकी ओरकी अशुभ-
प्रवृत्ति ।
अनर्थदंडव्रत–प्रयोजनरहित मन, वचन, कायकी ओरकी अशुभ-
प्रवृत्तिका त्याग ।
अवधिज्ञान–द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी मर्यादापूर्वक रूपी पदार्थोंको
स्पष्ट जाननेवाला ज्ञान ।
उपभोग–जिसे बारम्बार भोगा जा सके ऐसी वस्तु ।
गुण–द्रव्यके आश्रयसे, उसके सम्पूर्ण भागमें तथा उसकी समस्त
पर्यायोंमें सदैव रह,े उसे गुण अथवा शक्ति कहते हैं ।
गुणव्रत–अणुव्रतोंको तथा मूलगुणोंको पुष्ट करनेवाला व्रत ।

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पर–आत्मासे (जीवसे) भिन्न वस्तुओंको पर कहा जाता है ।
परोक्ष–जिसमें इन्द्रियादि परवस्तुएँ निमित्तमात्र हैं, ऐसे ज्ञानको
परोक्ष ज्ञान कहते हैं ।
प्रत्यक्ष– (१) आत्माके आश्रयसे होनेवाला अतीन्द्रिय ज्ञान ।
(२) अक्षप्रति–अक्ष = आत्मा अथवा ज्ञान;
प्रति = (अक्षके) सन्मुख–निकट ।
प्रति + अक्ष = आत्माके सम्बन्धमें हो ऐसा ।
पर्याय–गुणोंके विशेष कार्यको (परिणमनको) पर्याय कहते हैं ।
भोग– वह वस्तु जिसे एक ही बार भोगा जा सके ।
मतिज्ञान–(१) पराश्रयकी बुद्धि छोड़कर दर्शन-उपयोगपूर्वक
स्वसन्मुखतासे प्रगट होनेवाले निज-आत्माके ज्ञानको
मतिज्ञान कहते हैं ।
(२) इन्द्रियाँ और मन जिसमें निमित्तमात्र हैं ऐसे ज्ञानको
मतिज्ञान कहते हैं ।
महाव्रत–हिंसादि पाँच पापोंका सर्वथा त्याग ।
(निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञान और वीतरागचारित्ररहित मात्र
व्यवहारव्रतके शुभभावको महाव्रत नहीं कहा है; किन्तु
बालव्रत-अज्ञानव्रत कहा है । )
मनःपर्ययज्ञान–द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी मर्यादासे दूसरेके मनमें
रहे हुए सरल अथवा गूढ़ रूपी पदार्थोंको जाननेवाला
ज्ञान ।
केवलज्ञान– जो तीनकाल और तीनलोकवर्ती सर्व पदार्थोंको

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( अनन्तधर्मात्मक सर्व द्रव्य-गुण-पर्यायोंको ) प्रत्येक
समयमें यथास्थित, परिपूर्णरूपसे स्पष्ट और एक साथ
जानता है, उसे केवलज्ञान कहते हैं ।
विपर्यय–विपरीत ज्ञान । जैसे कि–सीपको चाँदी जानना और
चाँदीको सीप जानना । अथवा शुभास्रवसे वास्तवमें
आत्महित मानना; देहादि परद्रव्यको स्व-रूप मानना,
अपनेसे भिन्न न मानना ।
व्रत– शुभकार्य करना और अशुभकार्यको छोड़ना सो व्रत है अथवा
द्रव्य, गुण, पर्यायोंको केवलज्ञानी भगवान जानते हैं; किन्तु उनके
अपेक्षित धर्मोंको नहीं जान सकते–ऐसा मानना सो असत्य है और
वह अनन्तको अथवा मात्र आत्माको ही जानते हैं; किन्तु सर्वको
नहीं जानते हैं
ऐसा मानना भी न्यायसे विरुद्ध है (लघु जैन
सि. प्रवेशिका प्रश्न ८७, पृष्ठ २६) केवलज्ञानी भगवान
क्षायोपशमिक ज्ञानवाले जीवोंकी भाँति अवग्रह, ईहा, अवाय और
धारणारूप क्रमसे नहीं जानते; किन्तु सर्व द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव
को युगपत् (एकसाथ) जानते हैं
इसप्रकार उन्हें सब कुछ
प्रत्यक्ष वर्तता है (प्रवचनसार गाथा २१ की टीका– भावार्थ )
अति विस्तारसे बस होओ, अनिवारित (रोका न जा सके ऐसा–
अमर्यादित) जिसका विस्तार है
ऐसे प्रकाशवाला होनेसे
क्षायिकज्ञान (केवलज्ञान) अवश्यमेव सर्वदा, सर्वत्र, सर्वथा,
सर्वको जानता है
(प्रवचनसार गाथा ४७ की टीका ।)
टिप्पणी–श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानसे सिद्ध
होता है कि प्रत्येक द्रव्यमें निश्चित और क्रमबद्ध पर्यायें होती
हैं
उल्टी-सीधी नहीं होतीं

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हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह–इन पाँच पापोंसे
भावपूर्वक विरक्त होनेको व्रत कहते हैं । (व्रत सम्यग्दर्शन
होनेके पश्चात् होते हैं और आंशिक वीतरागतारूप
निश्चयव्रत सहित व्यवहारव्रत होते हैं । )
शिक्षाव्रत–मुनिव्रत पालन करनेकी शिक्षा देनेवाला व्रत ।
श्रुतज्ञान–(१) मतिज्ञानसे जाने हुए पदार्थोंके सम्बन्धमें अन्य
पदार्थोंको जाननेवाले ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं ।
(२) आत्माकी शुद्ध अनुभूतिरूप श्रुतज्ञानको भावश्रुतज्ञान
कहते हैं ।
संन्यास–(संल्लेखना) आत्माका धर्म समझकर अपनी शुद्धताके
लिये कषायोंको और शरीरको कृश करना (शरीरकी
ओरका लक्ष छोड़ देना) सो समाधि अथवा संल्लेखना
कहलाती है ।
संशय–विरोध सहित अनेक प्रकारोंका अवलम्बन करनेवाला ज्ञान
जैसे कि–यह सीप होगी या चाँदी ? आत्मा अपना ही कार्य
कर सकता है या परका भी ? देव-शास्त्र-गुरु, जीवादि
सात तत्त्व आदिका स्वरूप ऐसा ही होगा ? अथवा जैसा
अन्यमतमें कहा है वैसा ? निमित्त अथवा शुभराग द्वारा
आत्माका हित हो सकता है या नहीं ?
चौथी ढालका अन्तर-प्रदर्शन
१. दिग्व्रतकी मर्यादा तो जीवनपर्यंतके लिये है; किन्तु
देशव्रतकी मर्यादा घड़ी, घण्टा आदि निश्चित किये गये
समय तककी है ।

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२. परिग्रहपरिमाणव्रतमें परिग्रहका जितना प्रमाण (मर्यादा)
किया जाता है, उससे भी कम प्रमाण
भोगोपभोगपरिमाणव्रतमें किया जाता है ।
३. प्रोषधमें तो आरम्भ और विषय-कषायादिका त्याग करने
पर भी एकबार भोजन किया जाता है, उपवासमें तो
अन्न-जल-खाद्य और स्वाद्य –इन चारों आहारोंका सर्वथा
त्याग होता है । प्रोषध-उपवासमें आरम्भ, विषय-कषाय
और चारों आहारोंका त्याग तथा उसके अगले दिन और
पारणेके दिन अर्थात् अगले-पिछले दिन भी एकाशन किया
जाता है ।
४. भोग तो एक ही बार भोगने योग्य होता है; किन्तु उपभोग
बारम्बार भोगा जा सकता है । (आत्मा परवस्तुको
व्यवहारसे भी नहीं भोग सकता; किन्तु मोह द्वारा, मैं इसे
भोगता हूँ –ऐसा मानता है और तत्सम्बन्धी रागको, हर्ष-
शोकको भोगता है । यह बतलानेके लिये उसका कथन
करना सो व्यवहार है । )
चौथी ढालकी प्रश्नावली
१. अचौर्यव्रत, अणुव्रत, अतिचार, अतिथिसंविभाग, अनध्यवसाय,
अनर्थदंड, अनर्थदंडव्रत, अपध्यान, अवधिज्ञान, अहिंसाणुव्रत,
उपभोग, केवलज्ञान, गुणव्रत, दिग्व्रत, दुःश्रुति, देशव्रत,
देशप्रत्यक्ष, परिग्रह-परिमाणाणुव्रत, परोक्ष, पापोपदेश, प्रत्यक्ष,
प्रमादचर्या, प्रोषध उपवास, ब्रह्मचर्याणुव्रत, भोगोपभोग-
परिमाणव्रत, भोग, मतिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, विपर्यय, व्रत,
शिक्षाव्रत, श्रुतज्ञान, सकलप्रत्यक्ष, सम्यक्ज्ञान, सत्याणुव्रत,

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सामायिक, संशय, स्वस्त्रीसंतोषव्रत तथा हिंसादान आदिके
लक्षण बताओ ।
२. अणुव्रत, अनर्थदंडव्रत, काल, गुणव्रत, देशप्रत्यक्ष, दिशा,
परोक्ष, पर्व, पात्र, प्रत्यक्ष, विकथा, व्रत, रोगत्रय, शिक्षाव्रत,
सम्यक्चारित्र, सम्यग्ज्ञानके दोष और संल्लेखना
दोष–आदिके भेद बतलाओ ।
३. अणुव्रत, अनर्थदंडव्रत, गुणव्रत–ऐसे नाम रखनेका कारण;
अविचल ज्ञानप्राप्ति, ग्रैवेयक तक जाने पर भी सुखका अभाव,
दिग्व्रत, देशव्रत, पापोपदेश–ऐसे नामोंका कारण, पुण्य-
पापके फलमें हर्ष-शोकका निषेध, शिक्षाव्रत नामका कारण,
सम्यग्ज्ञान, ज्ञान, ज्ञानोंकी परोक्षता-प्रत्यक्षता-देशप्रत्यक्षता
और सकलप्रत्यक्षता आदिके कारण बतलाओ ।
४. अणुव्रत और महाव्रतमें, दिग्व्रत और देशव्रतमें, परिग्रह-
परिमाणव्रत और भोगोपभोगपरिमाणव्रतमें, प्रोषध और
उपवासमें तथा प्रोषधोपवासमें, भोग और उपभोगमें, यम और
नियममें, ज्ञानी और अज्ञानीके कर्मनाशमें तथा सम्यग्दर्शन
और सम्यग्ज्ञानमें क्या अन्तर है–वह बतलाओ ।
५. अनध्यवसाय, मनुष्यपर्याय आदिकी दुर्लभता, विपर्यय, विषय-
इच्छा, सम्यग्ज्ञान और संशयके दृष्टान्त दो ।
६. अनर्थदण्डोंका पूर्ण परिमाण, अविचल सुखका उपाय,
आत्मज्ञानकी प्राप्तिका उपाय, जन्म-मरण दूर करनेका
उपाय, दर्शन और ज्ञानमें पहली उत्पत्ति; धनादिकसे लाभ
न होना, निरतिचार श्रावकव्रत-पालनसे लाभ,
ब्रह्मचर्याणुव्रतीका विचार, भेदविज्ञानकी आवश्यकता,

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मनुष्यपर्यायकी दुर्लभता तथा उसकी सफलताका उपाय,
मरणसमयका कर्तव्य; वैद्य-डॉक्टरके द्वारा मरण हो; तथापि
अहिंसा, शत्रुका सामना करना–न करना; सम्यग्ज्ञान,
सम्यग्ज्ञान होनेका समय और उसकी महिमा, संल्लेखनाकी
विधि और कर्तव्य, ज्ञानके बिना मुक्ति तथा सुखका अभाव,
ज्ञानका फल तथा ज्ञानी-अज्ञानीका कर्मनाश और विषयोंकी
इच्छाको शांत करनेका उपाय–आदिका वर्णन करो ।
७. अचल रहनेवाला ज्ञान, अतिथिसंविभागीका दूसरा नाम, तीन
रोगोंका नाश करनेवाली वस्तु, मिथ्यादृष्टि मुनि, वर्तमानमें
मुक्ति हो सके ऐसा क्षेत्र, व्रतधारीको प्राप्त होनेवाली गति,
प्रयोजनभूत बात, सर्वको जाननेवाला ज्ञान और सर्वोत्तम सुख
देनेवाली वस्तु–इनका नाम बतलाओ ।
८. अमुक शब्द, चरण अथवा पद्यका अर्थ और भावार्थ
बतलाओ । चौथी ढालका सारांश कहो ।
९. अणुव्रत, दिग्व्रत, बारह व्रत, शिक्षाव्रत और देशचारित्रके
सम्बन्धमें जो जानते हो वह समझाओ ।
JDJ

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पाँचवीं ढाल
(चाल छन्द)
भावनाओंके चिंतवनका कारण, उसके अधिकारी और
उसका फल
मुनि सकलव्रती बड़भागी, भव-भोगनतैं वैरागी
वैराग्य उपावन माई, चिन्तैं अनुप्रेक्षा भाई ।।।।
अन्वयार्थ :(भाई) हे भव्य जीव ! (सकलव्रती)
महाव्रतोंके धारक (मुनि) भावलिंगी मुनिराज (बड़भागी) महान
पुरुषार्थी हैं; क्योंकि वे (भव-भोगनतैं) संसार और भोगोंसे (वैरागी)
विरक्त होते हैं और (वैराग्य) वीतरागताको (उपावन) उत्पन्न
करनेके लिये (माई) माता समान (अनुप्रेक्षा) बारह भावनाओंका
(चिन्तैं) चिंतवन करते हैं ।
भावार्थ :पाँच महाव्रतोंको धारण करनेवाले भावलिंगी
मुनिराज महापुरुषार्थवान हैं; क्योंकि वे संसार, शरीर और भोगोंसे
अत्यन्त विरक्त होते हैं और जिस प्रकार कोई माता पुत्रको जन्म

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देती है; उसीप्रकार यह बारह भावनाएँ वैराग्य उत्पन्न करती हैं;
इसलिये मुनिराज इन बारह भावनाओंका चिंतवन करते हैं
।।।।
भावनाओंका फल और मोक्षसुखकी प्राप्तिका समय
इन चिन्तत समसुख जागै, जिमि ज्वलन पवनके लागै
जबही जिय आतम जानै, तबही जिय शिवसुख ठानै ।।।।
अन्वयार्थ :(जिमि) जिसप्रकार (पवनके) वायुके
(लागै) लगनेसे (ज्वलन) अग्नि (जागै) भभक उठती है, [उसी-
प्रकार इन बारह भावनाओंका ] (चिंतत) चिंतवन करनेसे (सम
सुख) समतारूपी सुख (जागै) प्रगट होता है । (जब ही) जब
(जिय) जीव (आतम) आत्मस्वरूपको (जानै) जानता है (तब ही)
तभी (जीव) जीव (शिवसुख) मोक्षसुखको (ठानै) प्राप्त करता है ।
भावार्थ :जिसप्रकार वायु लगनेसे अग्नि एकदम भभक
उठती है; उसीप्रकार इन बारह भावनाओंका बारंबार चिंतवन करनेसे
समता-शांतिरूपी सुख प्रगट हो जाता है–बढ़ जाता है । जब यह
जीव आत्मस्वरूपको जानता है, तब पुरुषार्थ बढ़ाकर परपदार्थोंसे
सम्बन्ध छोड़कर परमानन्दमय स्वस्वरूपमें लीन होकर समतारसका
पान करता है और अंतमें मोक्षसुख प्राप्त करता है
।।।।

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उन बारह भावनाओंका स्वरूप कहा जाता है–
१. अनित्य भावना. अनित्य भावना
जोबन गृह गो धन नारी, हय गय जन आज्ञाकारी
इन्द्रिय-भोग छिन थाई, सुरधनु चपला चपलाई ।।।।
अन्वयार्थ :(जोबन) यौवन, (गृह) मकान, (गो)
गाय-भैंस, (धन) लक्ष्मी, (नारी) स्त्री, (हय) घोड़ा (गय) हाथी,
(जन) कुटुम्ब (आज्ञाकारी) नौकर-चाकर तथा (इन्द्रिय-भोग) पाँच
इन्द्रियोंके भोग–यह सब (सुरधनु) इन्द्रधनुष तथा (चपला)
बिजलीकी (चपलाई) चंचलता-क्षणिकताकी भाँति (छिन थाई)
क्षणमात्र रहनेवाले हैं ।
भावार्थ :यौवन, मकान, गाय-भैंस, धन-सम्पत्ति, स्त्री,
घोड़ा-हाथी, कुटुम्बीजन, नौकर-चाकर तथा पाँच इन्द्रियोंके
विषय–यह सर्व वस्तुएँ क्षणिक हैं–अनित्य हैं–नाशवान हैं ।
जिसप्रकार इन्द्रधनुष और बिजली देखते ही देखते विलीन हो जाते
हैं; उसीप्रकार ये यौवनादि कुछ ही कालमें नाशको प्राप्त होते हैं;
वे कोई पदार्थ नित्य और स्थायी नहीं हैं; किन्तु निज शुद्धात्मा

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ही नित्य और स्थायी है ।
ऐसा स्वोन्मुखतापूर्वक चिंतवन करके, सम्यग्दृष्टि जीव
वीतरागताकी वृद्धि करता है, यह ‘‘अनित्य भावना’’ है । मिथ्यादृष्टि
जीवको अनित्यादि एक भी भावना यथार्थ नहीं होती
।।।।
२. अशरण भावना. अशरण भावना
सुर असुर खगाधिप जेते, मृग ज्यों हरि, काल दले ते
मणि मंत्र तंत्र बहु होई, मरते न बचावै कोई ।।।।
अन्वयार्थ :(सुर असुर खगाधिप) देवोंके इन्द्र,
असुरोंके इन्द्र और खगेन्द्र [गरुड़, हंस ] (जेते) जो-जो हैं (ते)
उन सबका (मृग हरि ज्यों) जिसप्रकार हिरनको सिंह मार डालता
है; उसीप्रकार (काल) मृत्यु (दले) नाश करता है । (मणि)
चिन्तामणि आदि मणिरत्न, (मंत्र) बड़े-बड़े रक्षामंत्र; (तंत्र) तंत्र,
(बहु होई) बहुतसे होने पर भी (मरते) मरनेवालेको (कोई) वे
कोई (न बचावै) नहीं बचा सकते ।
भावार्थ :इस संसारमें जो-जो देवेन्द्र, असुरेन्द्र, खगेन्द्र,

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(पक्षियोंके राजा) आदि हैं, उन सबका–जिसप्रकार हिरनको सिंह
मार डालता है; उसीप्रकार–काल अर्थात् मृत्यु नाश करता है ।
चिंतामणि आदि मणि, मंत्र और जंत्र-तंत्रादि कोई भी मृत्युसे नहीं
बचा सकता ।
यहाँ ऐसा समझना कि निज आत्मा ही शरण है; उसके
अतिरिक्त अन्य कोई शरण नहीं है । कोई जीव अन्य जीवकी रक्षा
कर सकनेमें समर्थ नहीं है; इसलिये परसे रक्षाकी आशा करना
व्यर्थ है । सर्वत्र-सदैव एक निज आत्मा ही अपना शरण है । आत्मा
निश्चयसे मरता ही नहीं; क्योंकि वह अनादि-अनन्त है–ऐसा
स्वोन्मुखतापूर्वक चिंतवन करके सम्यग्दृष्टि जीव वीतरागताकी वृद्धि
करता है, यह ‘‘अशरण भावना’’ है
।।।।
३. संसार भावना. संसार भावना
चहुँगति दुःख जीव भरै है, परिवर्तन पंच करै है
सबविधि संसार असारा, यामें सुख नाहीं लगारा ।।।।
अन्वयार्थ :(जीव) जीव (चहुँगति) चार गतिमें
(दुःख) दुःख (भरै है) भोगता है और (परिवर्तन पंच) पाँच
परावर्तन पाँच प्रकारसे परिभ्रमण (करै है) करता है । (संसार)

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संसार (सबविधि) सर्व प्रकारसे (असारा) साररहित है, (यामें)
इसमें (सुख) सुख (लगारा) लेशमात्र भी (नाहिं) नहीं है ।
भावार्थ :जीवकी अशुद्ध पर्याय वह संसार है । अज्ञानके
कारण जीव चार गतिमें दुःख भोगता है और पाँच (द्रव्य, क्षेत्र,
काल, भव तथा भाव) परावर्तन करता रहता है; किन्तु कभी शांति
प्राप्त नहीं करता; इसलिए वास्तवमें संसारभाव सर्वप्रकारसे
साररहित है, उसमें किंचित्मात्र सुख नहीं है; क्योंकि जिसप्रकार
सुखकी कल्पना की जाती है, वैसा सुखका स्वरूप नहीं है और
जिसमें सुख मानता है वह वास्तवमें सुख नहीं है; किन्तु वह
परद्रव्यके आलम्बनरूप मलिन भाव होनेसे आकुलता उत्पन्न
करनेवाला भाव है । निज आत्मा ही सुखमय है, उसके ध्रुवस्वभावमें
संसार है ही नहीं –ऐसा स्वोन्मुखतापूर्वक चिंतवन करके सम्यग्दृष्टि
जीव वीतरागतामें वृद्धि करता है, यह ‘‘संसार भावना’’ है
।।।।
४. एकत्व भावना. एकत्व भावना
शुभ-अशुभ करमफल जेते, भोगै जिय एक हि तेते
सुत-दारा होय न सीरी, सब स्वारथके हैं भीरी ।।।।

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अन्वयार्थ :(जेते) जितने (शुभ-करमफल)
शुभकर्मके फल और (अशुभ-करमफल) अशुभकर्मके फल हैं (ते
ते) वे सब (जिय) यह जीव (एक हि) अकेला ही (भोगै) भोगता
है; (सुत) पुत्र (दारा) स्त्री (सीरी) साथ देनेवाले (न होय) नहीं
होते । (सब) वे सब (स्वारथके) अपने स्वार्थके (भीरी) सगे (हैं)
हैं ।
भावार्थ :जीवका सदा अपने स्वरूपसे अपना एकत्व
और परसे विभक्तपना है; इसलिये वह स्वयं ही अपना हित अथवा
अहित कर सकता है –परका कुछ नहीं कर सकता । इसलिये
जीव जो भी शुभ या अशुभ भाव करता है, उनका फल (आकुलता)
वह स्वयं अकेला ही भोगता है, उसमें अन्य कोई-स्त्री, पुत्र,
मित्रादि सहायक नहीं हो सकते; क्योंकि वे सब पर पदार्थ हैं और
वे सब पदार्थ जीवको ज्ञेयमात्र हैं; इसलिये वे वास्तवमें जीवके
सगे-सम्बन्धी हैं ही नहीं; तथापि अज्ञानी जीव उन्हें अपना मानकर
दुःखी होता है । परके द्वारा अपना भला-बुरा होना मानकर परके
साथ कर्तृत्व-ममत्वका अधिकार मानता है; वह अपनी भूलसे ही
अकेला दुःखी होता है ।
संसारमें और मोक्षमें यह जीव अकेला ही है–ऐसा जानकर
सम्यग्दृष्टि जीव निज शुद्ध आत्माके साथ ही सदैव अपना एकत्व
मानकर अपनी निश्चयपरिणति द्वारा शुद्ध एकत्वकी वृद्धि करता है,
यह ‘‘एकत्व भावना’’ है
।।।।
५. अन्यत्व भावना. अन्यत्व भावना
जल-पय ज्यों जिय-तन मेला, पै भिन्न-भिन्न नहिं भेला
तो प्रगट जुदे धन-धामा, क्यों ह्वै इक मिलि सुत-रामा ।।।।