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(सामायिक) सामायिक (करिये) करना [सो सामायिक-शिक्षाव्रत
है; ] (परव चतुष्टयमांहि) चार पर्वके दिनोंमें (पाप) पापकार्योंको
छोड़कर (प्रोषध) प्रोषधोपवास (धरिये) करना [सो प्रोषध-उपवास
शिक्षाव्रत है; ] (भोग) एक बार भोगा जा सके ऐसी वस्तुओंका
तथा (उपभोग) बारम्बार भोगा जा सके ऐसी वस्तुओंका
(नियमकरि) परिमाण करके-मर्यादा रखकर (ममत) मोह (निवारै)
छोड़ दे [सो भोग-उपभोगपरिमाणव्रत है; ] (मुनिको) वीतरागी
मुनिको (भोजन) आहार (देय) देकर (फे र) फि र (निज आहारै)
स्वयं भोजन करे [सो अतिथिसंविभागव्रत कहलाता है । ]
शिक्षाव्रत है । १। प्रत्येक अष्टमी तथा चतुर्दशीके दिन कषाय और
व्यापारादि कार्योंको छोड़कर (धर्मध्यानपूर्वक) प्रोषधसहित उपवास
करना सो प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत कहलाता है । २। परिग्रहपरिमाण-
अणुव्रतमें निश्चय की हुई भोगोपभोगकी वस्तुओंमें जीवनपर्यंतके
लिये अथवा किसी निश्चित समयके लिये नियम करना सो
भोगोपभोगपरिमाण शिक्षाव्रत कहलाता है । ३। निर्ग्रंथ मुनि आदि
सत्पात्रोंको आहार देनेके पश्चात् स्वयं भोजन करना सो
अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत कहलाता है ।। १४।।
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धारण करके (तसु) उनके (दोष) दोषोंको (नशावै) दूर करता
अतिचारोंको भी टालता है और मृत्युकालमें पूर्वोपार्जित दोषोंका
नाश करनेके लिये विधिपूर्वक समाधिमरण
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होने पर मृत्यु प्राप्त करके सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न होता है । फि र
देवायु पूर्ण होने पर मनुष्य भव पाकर, मुनिपद धारण करके मोक्ष
(पूर्ण शुद्धता) प्राप्त करता है ।
किन्तु संवर-निर्जरारूप शुद्धभाव है; धर्मकी पूर्णता वह मोक्ष है ।
सम्यग्ज्ञान कहलाता है । इस प्रकार यद्यपि यह दोनों सम्यग्दर्शन
और सम्यग्ज्ञान साथ ही होते हैं; तथापि उनके लक्षण भिन्न-भिन्न
हैं और कारण-कार्य भावका अन्तर है अर्थात् सम्यग्दर्शन
सम्यग्ज्ञानका निमित्तकारण है ।
केवलज्ञान प्राप्त होता है । सम्यग्ज्ञानके अतिरिक्त सुखदायक वस्तु
अन्य कोई नहीं है और वही जन्म, जरा तथा मरणका नाश करता
है । मिथ्यादृष्टि जीवको सम्यग्ज्ञानके बिना करोड़ों जन्म तक तप
तपनेसे जितने कर्मोंका नाश होता है, उतने कर्म सम्यग्ज्ञानी
जीवके त्रिगुप्तिसे क्षणमात्रमें नष्ट हो जाते हैं । पूर्वकालमें जो जीव
मोक्ष गये हैं; भविष्यमें जायेंगे और वर्तमानमें महाविदेहक्षेत्रसे जा
रहे हैं– वह सब सम्यग्ज्ञानका ही प्रभाव है । जिसप्रकार मूसलाधार
वर्षा वनकी भयंकर अग्निको क्षणमात्रमें बुझा देती है; उसीप्रकार
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रहती हैं; उन पुण्य-पापके फलोंमें जो संयोग प्राप्त होते हैं, उनमें
हर्ष-शोक करना मूर्खता है । प्रयोजनभूत बात तो यह है कि पुण्य-
पाप, व्यवहार और निमित्तकी रुचि छोड़कर स्वोन्मुख होकर
सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना चाहिये ।
अनिर्धार) का त्याग करके तत्त्वके अभ्यास द्वारा सम्यग्ज्ञान प्राप्त
करना चाहिये; क्योंकि मनुष्यपर्याय, उत्तम श्रावक कुल और
जिनवाणीका सुनना आदि सुयोग– जिसप्रकार समुद्रमें डूबा हुआ
रत्न पुनः हाथ नहीं आता, इसीप्रकार–बारम्बार प्राप्त नहीं होता ।
ऐसा दुर्लभ सुयोग प्राप्त करके सम्यग्धर्म प्राप्त न करना मूर्खता है ।
वह श्रावकको अणुव्रत और मुनिको पंचमहाव्रतके प्रकारका होता
है; उसे सम्यग्दृष्टि पुण्य मानते हैं ।
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होता है, और वहाँसे आयु पूर्ण होने पर मनुष्यपर्याय प्राप्त करता
है; फि र मुनिपद प्रगट करके मोक्षमें जाता है; इसलिये
सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक चारित्रका पालन करना वह प्रत्येक आत्मार्थी
जीवका कर्तव्य है ।
वह सच्चा चारित्र नहीं; किन्तु चारित्रमें होनेवाला दोष है; किन्तु
उस भूमिकामें वैसा राग आये बिना नहीं रहता और उस
सम्यक्चारित्रमें ऐसा राग निमित्त होता है; उसे सहचर मानकर
व्यवहार सम्यक्चारित्र कहा जाता है । व्यवहार सम्यक्चारित्रको
सच्चा सम्यक्चारित्र माननेकी श्रद्धा छोड़ देना चाहिये ।
दिशा– पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, वायव्य, नैऋत्य,
मुनि– समस्त व्यापारसे विरक्त, चार प्रकारकी आराधनामें तल्लीन,
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गाथा-७६) । वे निश्चयसम्यग्दर्शन सहित, विरागी होकर,
समस्त परिग्रहका त्याग करके, शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म
अंगीकार करके अन्तरंगमें शुद्धोपयोग द्वारा अपने आत्माका
अनुभव करते हैं, परद्रव्यमें अहंबुद्धि नहीं करते । ज्ञानादि
स्वभावको ही अपना मानते हैं; परभावोंमें ममत्व नहीं करते ।
किसीको इष्ट-अनिष्ट मानकर उसमें राग-द्वेष नहीं करते ।
हिंसादि अशुभ उपयोगका तो उनके अस्तित्व ही नहीं
होता । अनेक बार सातवें गुणस्थानके निर्विकल्प आनन्दमें
लीन होते हैं । जब छठवें गुणस्थानमें आते हैं, तब उन्हें
अट्ठाईस मूलगुणोंको अखण्डितरूपसे पालन करनेका शुभ
विकल्प आता है । उन्हें तीन कषायोंके अभावरूप
निश्चयसम्यक्चारित्र होता है । भावलिंगी मुनिको सदा नग्न-
दिगम्बर दशा होती है; उसमें कभी अपवाद नहीं होता ।
कभी भी वस्त्रादि सहित मुनि नहीं होते ।
हिंसा– (१) वास्तवमें रागादिभावोंका प्रगट न होना सो अहिंसा
जैनशास्त्रोंका संक्षिप्त रहस्य है ।
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अभावपूर्वक) उत्पन्न आत्माकी शुद्धिविशेषको देशचारित्र
कहते हैं । श्रावकदशामें पाँच पापोंका स्थूलरूप-एकदेश
त्याग होता है, उसे अणुव्रत कहा जाता है ।
गुण–द्रव्यके आश्रयसे, उसके सम्पूर्ण भागमें तथा उसकी समस्त
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परोक्ष–जिसमें इन्द्रियादि परवस्तुएँ निमित्तमात्र हैं, ऐसे ज्ञानको
(२) अक्षप्रति–अक्ष = आत्मा अथवा ज्ञान;
पर्याय–गुणोंके विशेष कार्यको (परिणमनको) पर्याय कहते हैं ।
भोग– वह वस्तु जिसे एक ही बार भोगा जा सके ।
मतिज्ञान–(१) पराश्रयकी बुद्धि छोड़कर दर्शन-उपयोगपूर्वक
मतिज्ञान कहते हैं ।
व्यवहारव्रतके शुभभावको महाव्रत नहीं कहा है; किन्तु
बालव्रत-अज्ञानव्रत कहा है । )
ज्ञान ।
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जानता है, उसे केवलज्ञान कहते हैं ।
आत्महित मानना; देहादि परद्रव्यको स्व-रूप मानना,
अपनेसे भिन्न न मानना ।
अपेक्षित धर्मोंको नहीं जान सकते–ऐसा मानना सो असत्य है और
वह अनन्तको अथवा मात्र आत्माको ही जानते हैं; किन्तु सर्वको
नहीं जानते हैं
क्षायोपशमिक ज्ञानवाले जीवोंकी भाँति अवग्रह, ईहा, अवाय और
धारणारूप क्रमसे नहीं जानते; किन्तु सर्व द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव
को युगपत् (एकसाथ) जानते हैं
अमर्यादित) जिसका विस्तार है
सर्वको जानता है
हैं
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भावपूर्वक विरक्त होनेको व्रत कहते हैं । (व्रत सम्यग्दर्शन
होनेके पश्चात् होते हैं और आंशिक वीतरागतारूप
निश्चयव्रत सहित व्यवहारव्रत होते हैं । )
श्रुतज्ञान–(१) मतिज्ञानसे जाने हुए पदार्थोंके सम्बन्धमें अन्य
ओरका लक्ष छोड़ देना) सो समाधि अथवा संल्लेखना
कहलाती है ।
कर सकता है या परका भी ? देव-शास्त्र-गुरु, जीवादि
सात तत्त्व आदिका स्वरूप ऐसा ही होगा ? अथवा जैसा
अन्यमतमें कहा है वैसा ? निमित्त अथवा शुभराग द्वारा
आत्माका हित हो सकता है या नहीं ?
समय तककी है ।
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भोगोपभोगपरिमाणव्रतमें किया जाता है ।
अन्न-जल-खाद्य और स्वाद्य –इन चारों आहारोंका सर्वथा
त्याग होता है । प्रोषध-उपवासमें आरम्भ, विषय-कषाय
और चारों आहारोंका त्याग तथा उसके अगले दिन और
पारणेके दिन अर्थात् अगले-पिछले दिन भी एकाशन किया
जाता है ।
व्यवहारसे भी नहीं भोग सकता; किन्तु मोह द्वारा, मैं इसे
भोगता हूँ –ऐसा मानता है और तत्सम्बन्धी रागको, हर्ष-
शोकको भोगता है । यह बतलानेके लिये उसका कथन
करना सो व्यवहार है । )
उपभोग, केवलज्ञान, गुणव्रत, दिग्व्रत, दुःश्रुति, देशव्रत,
देशप्रत्यक्ष, परिग्रह-परिमाणाणुव्रत, परोक्ष, पापोपदेश, प्रत्यक्ष,
प्रमादचर्या, प्रोषध उपवास, ब्रह्मचर्याणुव्रत, भोगोपभोग-
परिमाणव्रत, भोग, मतिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, विपर्यय, व्रत,
शिक्षाव्रत, श्रुतज्ञान, सकलप्रत्यक्ष, सम्यक्ज्ञान, सत्याणुव्रत,
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लक्षण बताओ ।
सम्यक्चारित्र, सम्यग्ज्ञानके दोष और संल्लेखना
दोष–आदिके भेद बतलाओ ।
दिग्व्रत, देशव्रत, पापोपदेश–ऐसे नामोंका कारण, पुण्य-
पापके फलमें हर्ष-शोकका निषेध, शिक्षाव्रत नामका कारण,
सम्यग्ज्ञान, ज्ञान, ज्ञानोंकी परोक्षता-प्रत्यक्षता-देशप्रत्यक्षता
और सकलप्रत्यक्षता आदिके कारण बतलाओ ।
उपवासमें तथा प्रोषधोपवासमें, भोग और उपभोगमें, यम और
नियममें, ज्ञानी और अज्ञानीके कर्मनाशमें तथा सम्यग्दर्शन
और सम्यग्ज्ञानमें क्या अन्तर है–वह बतलाओ ।
उपाय, दर्शन और ज्ञानमें पहली उत्पत्ति; धनादिकसे लाभ
न होना, निरतिचार श्रावकव्रत-पालनसे लाभ,
ब्रह्मचर्याणुव्रतीका विचार, भेदविज्ञानकी आवश्यकता,
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मरणसमयका कर्तव्य; वैद्य-डॉक्टरके द्वारा मरण हो; तथापि
अहिंसा, शत्रुका सामना करना–न करना; सम्यग्ज्ञान,
सम्यग्ज्ञान होनेका समय और उसकी महिमा, संल्लेखनाकी
विधि और कर्तव्य, ज्ञानके बिना मुक्ति तथा सुखका अभाव,
ज्ञानका फल तथा ज्ञानी-अज्ञानीका कर्मनाश और विषयोंकी
इच्छाको शांत करनेका उपाय–आदिका वर्णन करो ।
मुक्ति हो सके ऐसा क्षेत्र, व्रतधारीको प्राप्त होनेवाली गति,
प्रयोजनभूत बात, सर्वको जाननेवाला ज्ञान और सर्वोत्तम सुख
देनेवाली वस्तु–इनका नाम बतलाओ ।
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पुरुषार्थी हैं; क्योंकि वे (भव-भोगनतैं) संसार और भोगोंसे (वैरागी)
विरक्त होते हैं और (वैराग्य) वीतरागताको (उपावन) उत्पन्न
करनेके लिये (माई) माता समान (अनुप्रेक्षा) बारह भावनाओंका
(चिन्तैं) चिंतवन करते हैं ।
अत्यन्त विरक्त होते हैं और जिस प्रकार कोई माता पुत्रको जन्म
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इसलिये मुनिराज इन बारह भावनाओंका चिंतवन करते हैं
प्रकार इन बारह भावनाओंका ] (चिंतत) चिंतवन करनेसे (सम
सुख) समतारूपी सुख (जागै) प्रगट होता है । (जब ही) जब
(जिय) जीव (आतम) आत्मस्वरूपको (जानै) जानता है (तब ही)
तभी (जीव) जीव (शिवसुख) मोक्षसुखको (ठानै) प्राप्त करता है ।
समता-शांतिरूपी सुख प्रगट हो जाता है–बढ़ जाता है । जब यह
जीव आत्मस्वरूपको जानता है, तब पुरुषार्थ बढ़ाकर परपदार्थोंसे
सम्बन्ध छोड़कर परमानन्दमय स्वस्वरूपमें लीन होकर समतारसका
पान करता है और अंतमें मोक्षसुख प्राप्त करता है
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(जन) कुटुम्ब (आज्ञाकारी) नौकर-चाकर तथा (इन्द्रिय-भोग) पाँच
इन्द्रियोंके भोग–यह सब (सुरधनु) इन्द्रधनुष तथा (चपला)
बिजलीकी (चपलाई) चंचलता-क्षणिकताकी भाँति (छिन थाई)
क्षणमात्र रहनेवाले हैं ।
विषय–यह सर्व वस्तुएँ क्षणिक हैं–अनित्य हैं–नाशवान हैं ।
जिसप्रकार इन्द्रधनुष और बिजली देखते ही देखते विलीन हो जाते
हैं; उसीप्रकार ये यौवनादि कुछ ही कालमें नाशको प्राप्त होते हैं;
वे कोई पदार्थ नित्य और स्थायी नहीं हैं; किन्तु निज शुद्धात्मा
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जीवको अनित्यादि एक भी भावना यथार्थ नहीं होती
उन सबका (मृग हरि ज्यों) जिसप्रकार हिरनको सिंह मार डालता
है; उसीप्रकार (काल) मृत्यु (दले) नाश करता है । (मणि)
चिन्तामणि आदि मणिरत्न, (मंत्र) बड़े-बड़े रक्षामंत्र; (तंत्र) तंत्र,
(बहु होई) बहुतसे होने पर भी (मरते) मरनेवालेको (कोई) वे
कोई (न बचावै) नहीं बचा सकते ।
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मार डालता है; उसीप्रकार–काल अर्थात् मृत्यु नाश करता है ।
चिंतामणि आदि मणि, मंत्र और जंत्र-तंत्रादि कोई भी मृत्युसे नहीं
बचा सकता ।
कर सकनेमें समर्थ नहीं है; इसलिये परसे रक्षाकी आशा करना
व्यर्थ है । सर्वत्र-सदैव एक निज आत्मा ही अपना शरण है । आत्मा
निश्चयसे मरता ही नहीं; क्योंकि वह अनादि-अनन्त है–ऐसा
स्वोन्मुखतापूर्वक चिंतवन करके सम्यग्दृष्टि जीव वीतरागताकी वृद्धि
करता है, यह ‘‘अशरण भावना’’ है
परावर्तन पाँच प्रकारसे परिभ्रमण (करै है) करता है । (संसार)
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इसमें (सुख) सुख (लगारा) लेशमात्र भी (नाहिं) नहीं है ।
काल, भव तथा भाव) परावर्तन करता रहता है; किन्तु कभी शांति
प्राप्त नहीं करता; इसलिए वास्तवमें संसारभाव सर्वप्रकारसे
साररहित है, उसमें किंचित्मात्र सुख नहीं है; क्योंकि जिसप्रकार
सुखकी कल्पना की जाती है, वैसा सुखका स्वरूप नहीं है और
जिसमें सुख मानता है वह वास्तवमें सुख नहीं है; किन्तु वह
परद्रव्यके आलम्बनरूप मलिन भाव होनेसे आकुलता उत्पन्न
करनेवाला भाव है । निज आत्मा ही सुखमय है, उसके ध्रुवस्वभावमें
संसार है ही नहीं –ऐसा स्वोन्मुखतापूर्वक चिंतवन करके सम्यग्दृष्टि
जीव वीतरागतामें वृद्धि करता है, यह ‘‘संसार भावना’’ है
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ते) वे सब (जिय) यह जीव (एक हि) अकेला ही (भोगै) भोगता
है; (सुत) पुत्र (दारा) स्त्री (सीरी) साथ देनेवाले (न होय) नहीं
होते । (सब) वे सब (स्वारथके) अपने स्वार्थके (भीरी) सगे (हैं)
हैं ।
अहित कर सकता है –परका कुछ नहीं कर सकता । इसलिये
जीव जो भी शुभ या अशुभ भाव करता है, उनका फल (आकुलता)
वह स्वयं अकेला ही भोगता है, उसमें अन्य कोई-स्त्री, पुत्र,
मित्रादि सहायक नहीं हो सकते; क्योंकि वे सब पर पदार्थ हैं और
वे सब पदार्थ जीवको ज्ञेयमात्र हैं; इसलिये वे वास्तवमें जीवके
सगे-सम्बन्धी हैं ही नहीं; तथापि अज्ञानी जीव उन्हें अपना मानकर
दुःखी होता है । परके द्वारा अपना भला-बुरा होना मानकर परके
साथ कर्तृत्व-ममत्वका अधिकार मानता है; वह अपनी भूलसे ही
अकेला दुःखी होता है ।
मानकर अपनी निश्चयपरिणति द्वारा शुद्ध एकत्वकी वृद्धि करता है,
यह ‘‘एकत्व भावना’’ है