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(भेला) एकरूप (नहिं) नहीं हैं, (भिन्न-भिन्न) पृथक्-पृथक् हैं, (तो)
तो फि र (प्रगट) जो बाह्यमें प्रगटरूपसे (जुदे) पृथक् दिखाई देते
हैं ऐसे (धन) लक्ष्मी, (धामा) मकान, (सुत) पुत्र और (रामा) स्त्री
आदि (मिलि) मिलकर (इक) एक (क्यों) कैसे (ह्वै) हो सकते
हैं?
बिलकुल भिन्न-भिन्न हैं; उसीप्रकार यह जीव और शरीर भी मिले
हुए-एकाकार दिखाई देते हैं तथापि वे दोनों अपने-अपने
स्वरूपादिकी अपेक्षासे (स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसे) बिलकुल
पृथक्-पृथक् हैं, तो फि र प्रगटरूपसे भिन्न दिखाई देनेवाले ऐसे
मोटरगाड़ी, धन, मकान, बाग, पुत्र-पुत्री, स्त्री आदि अपने साथ
कैसे एकमेक हो सकते हैं ? अर्थात् स्त्री-पुत्रादि कोई भी परवस्तु
अपनी नहीं है–इसप्रकार सर्व पदार्थोंको अपनेसे भिन्न जानकर
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‘‘अन्यत्व भावना’’ है
(वसादितैं) चरबी आदिसे (मैली) अपवित्र है और जिसमें
(घिनकारी) घृणा-ग्लानि उत्पन्न करनेवाले (नव द्वार) नौ दरवाजे
(बहैं) बहते हैं, (अस) ऐसे (देह) शरीरमें (यारी) प्रेम-राग
(किमि) कैसे (करै) किया जा सकता है?
है तथा नौ द्वारोंसे मैल बाहर निकलता है, ऐसे शरीरके प्रति मोह-
राग कैसे किया जा सकता है ? यह शरीर ऊपरसे तो मक्खीके
पंख समान पतली चमड़ीमें मढ़ा हुआ है; इसलिये बाहरसे सुन्दर
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तो उसमें अपवित्र वस्तुएँ भरी हैं; इसलिये उसमें ममत्व, अहंकार
या राग करना व्यर्थ है ।
कराना है; किन्तु शरीरके प्रति द्वेषभाव उत्पन्न करानेका आशय
नहीं । शरीर तो उसके अपने स्वभावसे ही अशुचिमय है और यह
भगवान आत्मा निजस्वभावसे ही शुद्ध एवं सदा शुचिमय पवित्र
चैतन्य पदार्थ है; इसलिये सम्यग्दृष्टि जीव अपने शुद्ध आत्माकी
सन्मुखता द्वारा अपनी पर्यायमें शुचिताकी (पवित्रताकी) वृद्धि करता
है, यह ‘‘अशुचि भावना’’ है
आस्रव (ह्वै) होता है और (आस्रव) वह आस्रव (घनेरे) अत्यन्त
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उसे (निरवेरे) दूर करें।
कर्मयोग्य रजकणोंका स्वयं-स्वतः आना (आत्माके साथ एक क्षेत्रमें
आगमन होना) सो द्रव्य-आस्रव है । [उसमें जीवकी अशुद्ध पर्यायें
निमित्तमात्र हैं । ]
उस समय नवीन कर्मयोग्य रजकणोंका स्वयं-स्वतः आना
(आत्माके साथ एक क्षेत्रमें आगमन होना) सो द्रव्यपुण्य है । उसमें
जीवकी अशुद्धपर्याय निमित्तमात्र है ।
सो द्रव्यपाप है। [उसमें जीवकी अशुद्ध पर्यायें निमित्त मात्र हैं । ]
पुण्य-पाप तो परवस्तु हैं, वे कहीं आत्माका हित-अहित नहीं कर
सकते–ऐसा यथार्थ निर्णय प्रत्येक ज्ञानी जीवको होता है और
इसप्रकार विचार करके सम्यग्दृष्टि जीव स्वद्रव्यके अवलम्बनके
बलसे जितने अंशमें आस्रवभावको दूर करता है, उतने अंशमें
उसे वीतरागताकी वृद्धि होती है–उसे ‘‘आस्रव भावना’’ कहते
हैं
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आत्माके (अनुभव) अनुभवमें [शुद्ध उपयोगमें ] (चित) ज्ञानको
(दीना) लगाया है (तिनही) उन्होंने ही (आवत) आते हुए (विधि)
कर्मोंको (रोके) रोका है और (संवर लहि) संवर प्राप्त करके
(सुख) सुखका (अवलोके) साक्षात्कार किया है ।
दोनों बन्धके कारण हैं–ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव पहलेसे ही जानता
है । यद्यपि साधकको निचली भूमिकामें शुद्धताके साथ अल्प
शुभाशुभभाव होते हैं; किन्तु वह दोनोंको बन्धका कारण मानता है;
इसलिये सम्यग्दृष्टि जीव स्वद्रव्यके आलम्बन द्वारा जितने अंशमें
शुद्धता करता है, उतने अंशमें उसे संवर होता है और वह क्रमशः
शुद्धतामें वृद्धि करते हुए पूर्ण शुद्धता अर्थात् संवर प्राप्त करता है ।
यह ‘‘संवर भावना’’ है
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उससे (निज काज) जीवका धर्मरूपी कार्य (न सरना) नहीं होता;
किन्तु (जो) [निर्जरा ] (तप करि) आत्माके शुद्ध प्रतपन द्वारा
(कर्म) कर्मोंका (खिपावै) नाश करती है [वह अविपाक अथवा
सकाम निर्जरा है । ] (सोई) वह (शिवसुख) मोक्षका सुख
(दरसावै) दिखलाती है ।
कारण नहीं होता। परन्तु सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र द्वारा अर्थात्
आत्माके शुद्ध प्रतपन द्वारा जो कर्म खिर जाते हैं, वह अविपाक
अथवा सकाम निर्जरा कहलाती है । तदनुसार शुद्धिकी वृद्धि होते-
होते सम्पूर्ण निर्जरा होती है, तब जीव शिवसुख अर्थात् सुखकी
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स्वद्रव्यके आलम्बन द्वारा जो शुद्धिकी वृद्धि करता है, यह ‘‘निर्जरा
भावना’’ है
कोई (न हरै) नाश नहीं कर सकता; [और यह लोक ]
(षड्द्रव्यमयी) छह प्रकारके द्रव्यस्वरूप है–छह द्रव्योंसे परिपूर्ण है
(सो) ऐसे (लोकमांहि) लोकमें (बिन समता) वीतरागी समता बिना
(नित) सदैव (भ्रमता) भटकता हुआ (जीव) जीव (दुख सहै)
दुःख सहन करता है ।
महादेव आदि किसीसे यह नष्ट नहीं होता; किन्तु यह छह द्रव्यमय
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स्थित रहकर निरन्तर अपनी नई-नई पर्यायों अर्थात् अवस्थाओंसे
उत्पाद-व्ययरूप परिणमन करते रहते हैं । एक द्रव्यमें दूसरे
द्रव्यका अधिकार नहीं है । यह छह द्रव्यस्वरूप लोक वह मेरा
स्वरूप नहीं है, वह मुझसे त्रिकाल भिन्न है, मैं उससे भिन्न हूँ;
मेरा शाश्वत चैतन्य-लोक ही मेरा स्वरूप है –ऐसा धर्मी जीव
विचार करता है और स्वोन्मुखता द्वारा विषमता मिटाकर,
साम्यभाव-वीतरागता बढ़ानेका अभ्यास करता है, यह ‘‘लोक
भावना’’ है
किये; तथापि (सम्यग्ज्ञान) सम्यग्ज्ञान (न लाधौ) प्राप्त न हुआ;
(दुर्लभ) ऐसे दुर्लभ सम्यग्ज्ञानको (मुनि) मुनिराजोंने (निजमें)
अपने आत्मामें (साधौ) धारण किया है ।
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उसने एक बार भी सम्यग्ज्ञान प्राप्त नहीं किया; क्योंकि सम्यग्ज्ञान
प्राप्त करना वह अपूर्व है; उसे तो स्वोन्मुखताके अनन्त पुरुषार्थ
द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है और ऐसा होने पर विपरीत
अभिप्राय आदि दोषोंका अभाव होता है ।
चारों गतिके लौकिक पद अनन्तबार प्राप्त किये हैं; किन्तु निज
आत्माका यथार्थ स्वरूप स्वानुभव द्वारा प्रत्यक्ष करके उसे कभी
नहीं समझा, इसलिये उसकी प्राप्ति अपूर्व है ।
स्वसन्मुखतापूर्वक ऐसा चिंतवन करता है और अपनी बोधि और
शुद्धिकी वृद्धिका बारम्बार अभ्यास करता है, यह ‘‘बोधिदुर्लभ
भावना’’ है
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ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय आदिक (भाव) भाव हैं, (सो) वह (धर्म)
धर्म कहलाता है । (जबै) जब (जिय) जीव (धारै) उसे धारण
करता है (तब ही) तभी वह (अचल सुख) अचल सुख-मोक्ष
(निहारै) देखता है–प्राप्त करता है ।
(रत्नत्रय) ही साररूप धर्म है । व्यवहार रत्नत्रय वह धर्म नहीं
है–ऐसा बतलानेके लिये यहाँ गाथामें ‘‘सारे’’ शब्दका प्रयोग किया
है । जब जीव निश्चय रत्नत्रयस्वरूप धर्मको स्वाश्रय द्वारा प्रगट
करता है, तभी वह स्थिर, अक्षयसुख (मोक्ष) प्राप्त करता है ।
इसप्रकार चिंतवन करके सम्यग्दृष्टि जीव स्वोन्मुखता द्वारा शुचिकी
वृद्धि बारम्बार करता है । यह ‘‘धर्म भावना’’ है
(तिनकी) उन मुनियोंकी (करतूति) क्रियाएँ (उचरिये) कही जाती
हैं, (भवि प्रानी) हे भव्य जीवों ! (ताको) उसे (सुनिये) सुनो और
(अपनी) अपने आत्माके (अनुभूति) अनुभवको (पिछानी)
पहिचानो ।
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मुनियोंके सकलचारित्रका वर्णन किया जाता है । हे भव्यों ! उन
मुनिवरोंका चारित्र सुनो और अपने आत्माका अनुभव करो
यह बारह प्रकारकी भावनाएँ भानेसे वीतरागताकी वृद्धि होती है ।
इन बारह भावनाओंका चिंतवन मुख्यरूपसे तो वीतरागी दिगम्बर
जैन मुनिराजको ही होता है तथा गौणरूपसे सम्यग्दृष्टिको भी होता
है । जिसप्रकार पवनके लगनेसे अग्नि भभक उठती है; उसीप्रकार
अन्तरंग परिणामोंकी शुद्धता सहित इन भावनाओंका चिंतवन
करनेसे समताभाव प्रगट होता है और उससे मोक्षसुख प्रगट होता
है । स्वोन्मुखतापूर्वक इन भावनाओंसे संसार, शरीर और भोगोंके
प्रति विशेष उपेक्षा होती है और आत्माके परिणामोंकी निर्मलता
बढ़ती है ।
करना चाहिये ।
क्योंकि यह तो जिसप्रकार पहले किसीको मित्र मानता था, तब
उसके प्रति राग था और फि र उसके अवगुण देखकर उसके प्रति
उदासीन हो गया । उसीप्रकार पहले शरीरादिसे राग था, किन्तु
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ऐसी उदासीनता तो द्वेषरूप है । किन्तु अपने तथा शरीरादिके
यथावत् स्वरूपको जानकर, भ्रमका निवारण करके, उन्हें भला
जानकर राग न करना तथा बुरा जानकर द्वेष न करना–ऐसी
यथार्थ उदासीनताके हेतु अनित्यता आदिका यथार्थ चिंतवन करना
ही सच्ची अनुप्रेक्षा है ।
और धर्म–ये बारह हैं ।
योग :–द्रव्य और भाव ।
परिवर्तन :–पाँच प्रकार हैं– द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव ।
मलद्वार :–दो कान, दो आँखें, दो नासिका छिद्र, एक मुँह तथा
कुधातु :–पीव, लहू, वीर्य, मल, चरबी, माँस और ही आदि ।
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उत्पन्न करना ।
आठ सिद्धि (ऐश्वर्य) वाले होते हैं; उनके मनुष्य समान
आकारवाला सप्त कुधातु रहित सुन्दर शरीर होता है ।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र । )
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आस्रव हैं, बन्धनके कारण हैं ।
मुनि (साधु परमेष्ठी) :–समस्त व्यापारसे विमुक्त, चार प्रकारकी
होते हैं । समस्त भावलिंगी मुनियोंको नग्न दिगम्बरदशा
तथा साधुके २८ मूलगुण होते हैं ।
निमित्तरूप जीवकी शक्तिको भावयोग कहते हैं ।
अदन्तधोवन, खड़े-खड़े आहार, दिनमें एक बार आहार-
जल तथा नग्नता आदिका पालन–सो व्यवहारसे सकलव्रत
है और रत्नत्रयकी एकतारूप आत्मस्वभावमें स्थिर होना सो
निश्चयसे सकलव्रत है ।
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सकलव्रती हैं ।
है; इतना इन दोनोंमें अन्तर है ।
धर्मभावना, निश्चयधर्म, बोधिदुर्लभभावना, लोकभावना,
संवरभावना, सकामनिर्जरा, सविपाकनिर्जरा आदिके लक्षण
समझाओ ।
और अन्यत्वभावनामें अन्तर बतलाओ ।
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सांसारिक सुखोंकी असारता आदिके कारण बतलाओ ।
निरर्थकता, बारह भावनाओंके चिंतवनसे लाभ, मंत्रादिकी
सार्थकता और निरर्थकता । वैराग्यकी वृद्धिका उपाय,
इन्द्रधनुष्य तथा बिजलीका दृष्टान्त क्या समझाते हैं? लोकका
कर्ता-हर्ता माननेसे हानि, समता न रखनेसे हानि, सांसारिक
सुखका परिणाम और मोक्ष-सुखकी प्राप्तिका समय-आदिका
स्पष्ट वर्णन करो ।
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(दरवहिंसा) द्रव्यहिंसा (टरी) दूर हो जाती है और (रागादि भाव)
राग-द्वेष, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि भावोंको (निवारतैं)
दूर करनेसे (भावित हिंसा) भावहिंसा भी (न अवतरी) नहीं होती,
(जिनके) उन मुनियोंको (लेश) किंचित् (मृषा) झूठ (न) नहीं
होती, (जल) पानी और (मृण) मिट्टी (हू) भी (बिना दीयो) दिये
बिना (न गहैं) ग्रहण नहीं करते तथा (अठदशसहस) अठारह
हजार (विध) प्रकारके (शील) शीलको-ब्रह्मचर्यको (धर) धारण
करके (नित) सदा (चिद्ब्रह्ममें) चैतन्यस्वरूप आत्मामें (रमि रहैं)
लीन रहते हैं ।
निर्विकल्प ध्यानदशारूप सातवाँ गुणस्थान बारम्बार आता ही है ।
छठवें गुणस्थानके समय उन्हें पंच महाव्रत, नग्नता, समिति आदि
अट्ठाईस मूलगुणके शुद्धभाव होते हैं; किन्तु उसे वे धर्म नहीं मानते
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परिणति निरन्तर वर्तती ही है ।
काम, क्रोध, मान इत्यादि भावोंकी उत्पत्ति होना सो भावहिंसा है ।
वीतरागी मुनि (साधु) यह दो प्रकारकी हिंसा नहीं करते; इसलिये
उनको (१) अहिंसा महाव्रत
होता है । अन्य किसी वस्तुकी तो बात ही क्या, किन्तु मिट्टी और
पानी भी दिये बिना ग्रहण नहीं करते; इसलिये उनको (३)
अचौर्यमहाव्रत होता है । शीलके अठारह हजार भेदोंका सदा पालन
करते हैं और चैतन्यरूप आत्मस्वरूपमें लीन रहते हैं; इसलिये
उनको (४) ब्रह्मचर्य (आत्म-स्थिरतारूप) महाव्रत होता है
प्रकारकी हिंसा न करना सो अहिंसा महाव्रत है–इत्यादि
इसलिये प्रमाद न होने पर भी मुनिराज नदी तथा झरने आदिका
प्रासुक हुआ जल, भस्म (राख) तथा अपने आप गिरे हुए सेमल
के फल और तुम्बीफल आदिका ग्रहण कर सकते हैं –ऐसा
‘‘श्लोकवार्तिकालंकार’’ का अभिमत है
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प्रकारके (बाहिर) बहिरंग (संग) परिग्रहसे (टलैं) रहित होते हैं ।
(परमाद) प्रमाद-असावधानी (तजि) छोड़कर (चौकर) चार हाथ
(मही) जमीन (लखि) देखकर (ईर्या) ईया (समिति तैं) समितिसे
(चलैं) चलते हैं और (जिनके) जिन मुनिराजोंके (मुखचन्द्र तैं)
मुखरूपी चन्द्रसे (जग सुहितकर) जगतका सच्चा हित करनेवाला
तथा (सब अहितकर) सर्व अहितका नाश करनेवाला, (श्रुति
सुखद) सुननेमें प्रिय लगे ऐसा (सब संशय) समस्त संशयोंका (हरैं)
नाशक और (भ्रम रोगहर) मिथ्यात्वरूपी रोगको हरनेवाला (वचन-
अमृत) वचनरूपी अमृत (झरैं) झरता है ।
परिग्रहत्याग-महाव्रत होता है । दिनमें सावधानीपूर्वक चार हाथ