Chha Dhala (Hindi). Gatha: 8: 6. ashuchi bhAvanA,9: 7. Ashrav bhAvanA,10: 8. sanvar bhAvanA,11: 9. nirjarA bhAvanA,12: 10. lok bhAvanA,13: 11. bodhidurlabh bhAvanA,14: 12. dharm bhAvanA,15: AtmAnubhavroopak bhAvalingi munika swaroop (Dhal 5),1: ahinsA, satyA, Achaurya, brahmacharya mahAvratake lakShan (Dhal 6),2: parigrahtyAg mahAvrat, iryA samiti aur bhAsA samiti (Dhal 6); Panchavee dhalka sarAnsh; Panchavee dhalka bhed-sangrah; Panchavee dhalka lakShan sangrah; Antarpradarshan; Panchavee dhAlki prashnavali; Chhathavee Dhal.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 9 of 11

 

Page 137 of 192
PDF/HTML Page 161 of 216
single page version

background image
अन्वयार्थ :(जिय-तन) जीव और शरीर (जल-पय
ज्यों) पानी और दूधकी भाँति (मेला) मिले हुए हैं (पै) तथापि
(भेला) एकरूप (नहिं) नहीं हैं, (भिन्न-भिन्न) पृथक्-पृथक् हैं, (तो)
तो फि र (प्रगट) जो बाह्यमें प्रगटरूपसे (जुदे) पृथक् दिखाई देते
हैं ऐसे (धन) लक्ष्मी, (धामा) मकान, (सुत) पुत्र और (रामा) स्त्री
आदि (मिलि) मिलकर (इक) एक (क्यों) कैसे (ह्वै) हो सकते
हैं?
भावार्थ :जिसप्रकार दूध और पानी एक आकाश-क्षेत्रमें
मिले हुए हैं; परन्तु अपने-अपने गुण आदिकी अपेक्षासे दोनों
बिलकुल भिन्न-भिन्न हैं; उसीप्रकार यह जीव और शरीर भी मिले
हुए-एकाकार दिखाई देते हैं तथापि वे दोनों अपने-अपने
स्वरूपादिकी अपेक्षासे (स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसे) बिलकुल
पृथक्-पृथक् हैं, तो फि र प्रगटरूपसे भिन्न दिखाई देनेवाले ऐसे
मोटरगाड़ी, धन, मकान, बाग, पुत्र-पुत्री, स्त्री आदि अपने साथ
कैसे एकमेक हो सकते हैं ? अर्थात् स्त्री-पुत्रादि कोई भी परवस्तु
अपनी नहीं है–इसप्रकार सर्व पदार्थोंको अपनेसे भिन्न जानकर

Page 138 of 192
PDF/HTML Page 162 of 216
single page version

background image
स्वसन्मुखतापूर्वक सम्यग्दृष्टि जीव वीतरागताकी वृद्धि करता है, यह
‘‘अन्यत्व भावना’’ है
।।।।
६. अशुचि भावना. अशुचि भावना
पल रुधिर राध मल थैली, कीकस वसादितैं मैली
नव द्वार बहैं घिनकारी, अस देह करे किम यारी ।।।।
अन्वयार्थ :जो (पल) माँस (रुधिर) रक्त (राध)
पीव और (मल) विष्टाकी (थैली) थैली है, (कीकस) ही,
(वसादितैं) चरबी आदिसे (मैली) अपवित्र है और जिसमें
(घिनकारी) घृणा-ग्लानि उत्पन्न करनेवाले (नव द्वार) नौ दरवाजे
(बहैं) बहते हैं, (अस) ऐसे (देह) शरीरमें (यारी) प्रेम-राग
(किमि) कैसे (करै) किया जा सकता है?
भावार्थ :यह शरीर तो माँस, रक्त पीव, विष्टा आदिकी
थैली है और वह हयिाँ, चरबी आदिसे भरा होनेके कारण अपवित्र
है तथा नौ द्वारोंसे मैल बाहर निकलता है, ऐसे शरीरके प्रति मोह-
राग कैसे किया जा सकता है ? यह शरीर ऊपरसे तो मक्खीके
पंख समान पतली चमड़ीमें मढ़ा हुआ है; इसलिये बाहरसे सुन्दर

Page 139 of 192
PDF/HTML Page 163 of 216
single page version

background image
लगता है, किन्तु यदि उसकी भीतरी हालतका विचार किया जाये
तो उसमें अपवित्र वस्तुएँ भरी हैं; इसलिये उसमें ममत्व, अहंकार
या राग करना व्यर्थ है ।
यहाँ शरीरको मलिन बतलानेका आशय–भेदज्ञान द्वारा
शरीरके स्वरूपका ज्ञान कराके, अविनाशी निज पवित्र पदमें रुचि
कराना है; किन्तु शरीरके प्रति द्वेषभाव उत्पन्न करानेका आशय
नहीं । शरीर तो उसके अपने स्वभावसे ही अशुचिमय है और यह
भगवान आत्मा निजस्वभावसे ही शुद्ध एवं सदा शुचिमय पवित्र
चैतन्य पदार्थ है; इसलिये सम्यग्दृष्टि जीव अपने शुद्ध आत्माकी
सन्मुखता द्वारा अपनी पर्यायमें शुचिताकी (पवित्रताकी) वृद्धि करता
है, यह ‘‘अशुचि भावना’’ है
।।।।
७. आस्रव भावना. आस्रव भावना
जो योगनकी चपलाई, तातैं ह्वै आस्रव भाई
आस्रव दुखकार घनेरे, बुद्धिवन्त तिन्हें निरवेरे ।।।।
अन्वयार्थ :(भाई) हे भव्य जीव ! (योगनकी)
योगोंकी (जो) जो (चपलाई) चंचलता है, (तातैं) उससे (आस्रव)
आस्रव (ह्वै) होता है और (आस्रव) वह आस्रव (घनेरे) अत्यन्त

Page 140 of 192
PDF/HTML Page 164 of 216
single page version

background image
(दुखकार) दुःखदायक है; इसलिये (बुधिवन्त) बुद्धिमान (तिन्हैं)
उसे (निरवेरे) दूर करें।
भावार्थ :विकारी शुभाशुभभावरूप जो अरूपी दशा
जीवमें होती है, वह भाव-आस्रव है और उस समय नवीन
कर्मयोग्य रजकणोंका स्वयं-स्वतः आना (आत्माके साथ एक क्षेत्रमें
आगमन होना) सो द्रव्य-आस्रव है । [उसमें जीवकी अशुद्ध पर्यायें
निमित्तमात्र हैं । ]
पुण्य और पाप दोनों आस्रव और बन्धके भेद हैं
पुण्य– दया, दान, भक्ति, पूजा, व्रत आदि शुभराग सरागी
जीवको होते हैं, वे अरूपी अशुभभाव हैं और वह भावपुण्य है तथा
उस समय नवीन कर्मयोग्य रजकणोंका स्वयं-स्वतः आना
(आत्माके साथ एक क्षेत्रमें आगमन होना) सो द्रव्यपुण्य है । उसमें
जीवकी अशुद्धपर्याय निमित्तमात्र है ।
पाप–हिंसा, असत्य, चोरी इत्यादि जो अशुभभाव हैं वह
भावपाप हैं, और उस समय कर्मयोग्य पुद्गलोंका आगमन होना
सो द्रव्यपाप है। [उसमें जीवकी अशुद्ध पर्यायें निमित्त मात्र हैं । ]
परमार्थसे (वास्तवमें) पुण्य-पाप (शुभाशुभ) आत्माको
अहितकर हैं, तथा वह आत्माकी क्षणिक अशुद्ध अवस्था है । द्रव्य
पुण्य-पाप तो परवस्तु हैं, वे कहीं आत्माका हित-अहित नहीं कर
सकते–ऐसा यथार्थ निर्णय प्रत्येक ज्ञानी जीवको होता है और
इसप्रकार विचार करके सम्यग्दृष्टि जीव स्वद्रव्यके अवलम्बनके
बलसे जितने अंशमें आस्रवभावको दूर करता है, उतने अंशमें
उसे वीतरागताकी वृद्धि होती है–उसे ‘‘आस्रव भावना’’ कहते
हैं
।।।।

Page 141 of 192
PDF/HTML Page 165 of 216
single page version

background image
८. संवर भावना. संवर भावना
जिन पुण्य-पाप नहिं कीना, आतम-अनुभव चित दीना
तिनही विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके ।।१०।।
अन्वयार्थ :(जिन) जिन्होंने (पुण्य) शुभभाव और
(पाप) अशुभभाव (नहिं कीना) नहीं किये तथा मात्र (आतम)
आत्माके (अनुभव) अनुभवमें [शुद्ध उपयोगमें ] (चित) ज्ञानको
(दीना) लगाया है (तिनही) उन्होंने ही (आवत) आते हुए (विधि)
कर्मोंको (रोके) रोका है और (संवर लहि) संवर प्राप्त करके
(सुख) सुखका (अवलोके) साक्षात्कार किया है ।
भावार्थ :आस्रवका रोकना सो संवर है । सम्यग्दर्शनादि
द्वारा मिथ्यात्वादि आस्रव रुकते हैं । शुभोपयोग तथा अशुभोपयोग
दोनों बन्धके कारण हैं–ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव पहलेसे ही जानता
है । यद्यपि साधकको निचली भूमिकामें शुद्धताके साथ अल्प
शुभाशुभभाव होते हैं; किन्तु वह दोनोंको बन्धका कारण मानता है;
इसलिये सम्यग्दृष्टि जीव स्वद्रव्यके आलम्बन द्वारा जितने अंशमें
शुद्धता करता है, उतने अंशमें उसे संवर होता है और वह क्रमशः
शुद्धतामें वृद्धि करते हुए पूर्ण शुद्धता अर्थात् संवर प्राप्त करता है ।
यह ‘‘संवर भावना’’ है
।।१०।।

Page 142 of 192
PDF/HTML Page 166 of 216
single page version

background image
९. निर्जरा भावना. निर्जरा भावना
निज काल पाय विधि झरना, तासों निज काज न सरना
तप करि जो कर्म खिपावै, सोई शिवसुख दरसावै ।।११।।
अन्वयार्थ :जो (निज काल) अपनी-अपनी स्थिति
(पाय) पूर्ण होने पर (विधि) कर्म (झरना) खिर जाते हैं (तासों)
उससे (निज काज) जीवका धर्मरूपी कार्य (न सरना) नहीं होता;
किन्तु (जो) [निर्जरा ] (तप करि) आत्माके शुद्ध प्रतपन द्वारा
(कर्म) कर्मोंका (खिपावै) नाश करती है [वह अविपाक अथवा
सकाम निर्जरा है । ] (सोई) वह (शिवसुख) मोक्षका सुख
(दरसावै) दिखलाती है ।
भावार्थ :अपनी-अपनी स्थिति पूर्ण होने पर कर्मोंका
खिर जाना तो प्रति समय अज्ञानीको भी होता है; वह कहीं शुद्धिका
कारण नहीं होता। परन्तु सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र द्वारा अर्थात्
आत्माके शुद्ध प्रतपन द्वारा जो कर्म खिर जाते हैं, वह अविपाक
अथवा सकाम निर्जरा कहलाती है । तदनुसार शुद्धिकी वृद्धि होते-
होते सम्पूर्ण निर्जरा होती है, तब जीव शिवसुख अर्थात् सुखकी

Page 143 of 192
PDF/HTML Page 167 of 216
single page version

background image
पूर्णतारूप मोक्ष प्राप्त करता है । ऐसा जानता हुआ सम्यग्दृष्टि जीव
स्वद्रव्यके आलम्बन द्वारा जो शुद्धिकी वृद्धि करता है, यह ‘‘निर्जरा
भावना’’ है
।।११।।
१०. लोक भावना
किनहू न करौ न धरै को, षड्द्रव्यमयी न हरै को
सो लोकमांहि बिन समता, दुख सहै जीव नित भ्रमता ।।१२।।
अन्वयार्थ :इस लोकको (किनहू) किसीने (न करौ)
बनाया नहीं है, (को) किसीने (न धरै) टिका नहीं रखा है, (को)
कोई (न हरै) नाश नहीं कर सकता; [और यह लोक ]
(षड्द्रव्यमयी) छह प्रकारके द्रव्यस्वरूप है–छह द्रव्योंसे परिपूर्ण है
(सो) ऐसे (लोकमांहि) लोकमें (बिन समता) वीतरागी समता बिना
(नित) सदैव (भ्रमता) भटकता हुआ (जीव) जीव (दुख सहै)
दुःख सहन करता है ।
भावार्थ :ब्रह्मा आदि किसीने इस लोकको बनाया नहीं
है; विष्णु या शेषनाग आदि किसीने इसे टिका नहीं रखा है तथा
महादेव आदि किसीसे यह नष्ट नहीं होता; किन्तु यह छह द्रव्यमय

Page 144 of 192
PDF/HTML Page 168 of 216
single page version

background image
लोक स्वयंसे ही अनादि-अनन्त है; छहों द्रव्य नित्य स्व-स्वरूपसे
स्थित रहकर निरन्तर अपनी नई-नई पर्यायों अर्थात् अवस्थाओंसे
उत्पाद-व्ययरूप परिणमन करते रहते हैं । एक द्रव्यमें दूसरे
द्रव्यका अधिकार नहीं है । यह छह द्रव्यस्वरूप लोक वह मेरा
स्वरूप नहीं है, वह मुझसे त्रिकाल भिन्न है, मैं उससे भिन्न हूँ;
मेरा शाश्वत चैतन्य-लोक ही मेरा स्वरूप है –ऐसा धर्मी जीव
विचार करता है और स्वोन्मुखता द्वारा विषमता मिटाकर,
साम्यभाव-वीतरागता बढ़ानेका अभ्यास करता है, यह ‘‘लोक
भावना’’ है
।।१२।।
११. बोधिदुर्लभ भावना. बोधिदुर्लभ भावना
अंतिमग्रीवकलौंकी हद, पायो अनन्त विरियां पद
पर सम्यग्ज्ञान न लाधौ; दुर्लभ निजमें मुनि साधौ ।।१३।।
अन्वयार्थ :(अंतिम) अंतिम-नववें (ग्रीवकलौंकी हद)
ग्रैवेयक तकके (पद) पद (अनन्त विरियां) अनन्तबार (पायो) प्राप्त
किये; तथापि (सम्यग्ज्ञान) सम्यग्ज्ञान (न लाधौ) प्राप्त न हुआ;
(दुर्लभ) ऐसे दुर्लभ सम्यग्ज्ञानको (मुनि) मुनिराजोंने (निजमें)
अपने आत्मामें (साधौ) धारण किया है ।

Page 145 of 192
PDF/HTML Page 169 of 216
single page version

background image
भावार्थ :मिथ्यादृष्टि जीव मंद कषायके कारण अनेक-
बार ग्रैवेयक तक उत्पन्न होकर अहमिन्द्रपदको प्राप्त हुआ है; परन्तु
उसने एक बार भी सम्यग्ज्ञान प्राप्त नहीं किया; क्योंकि सम्यग्ज्ञान
प्राप्त करना वह अपूर्व है; उसे तो स्वोन्मुखताके अनन्त पुरुषार्थ
द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है और ऐसा होने पर विपरीत
अभिप्राय आदि दोषोंका अभाव होता है ।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान आत्माके आश्रयसे ही होते हैं । पुण्यसे,
शुभरागसे, जड़ कर्मादिसे नहीं होते । इस जीवने बाह्य संयोग,
चारों गतिके लौकिक पद अनन्तबार प्राप्त किये हैं; किन्तु निज
आत्माका यथार्थ स्वरूप स्वानुभव द्वारा प्रत्यक्ष करके उसे कभी
नहीं समझा, इसलिये उसकी प्राप्ति अपूर्व है ।
बोधि अर्थात् निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी एकता; उस
बोधिकी प्राप्ति प्रत्येक जीवको करना चाहिये । सम्यग्दृष्टि जीव
स्वसन्मुखतापूर्वक ऐसा चिंतवन करता है और अपनी बोधि और
शुद्धिकी वृद्धिका बारम्बार अभ्यास करता है, यह ‘‘बोधिदुर्लभ
भावना’’ है
।।१३।।
१२. धर्म भावना. धर्म भावना
जो भाव मोहतैं न्यारे, दृग-ज्ञान-व्रतादिक सारे
सो धर्म जबै जिय धारै, तब ही सुख अचल निहारे ।।१४।।

Page 146 of 192
PDF/HTML Page 170 of 216
single page version

background image
अन्वयार्थ :(मोह तैं) मोहसे (न्यारे) भिन्न, (सारे)
साररूप अथवा निश्चय (जो) जो (दृग-ज्ञान-व्रतादिक) दर्शन-
ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय आदिक (भाव) भाव हैं, (सो) वह (धर्म)
धर्म कहलाता है । (जबै) जब (जिय) जीव (धारै) उसे धारण
करता है (तब ही) तभी वह (अचल सुख) अचल सुख-मोक्ष
(निहारै) देखता है–प्राप्त करता है ।
भावार्थ :मोह अर्थात् मिथ्यादर्शन अर्थात् अतत्त्वश्रद्धान;
उससे रहित निश्चयसम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र
(रत्नत्रय) ही साररूप धर्म है । व्यवहार रत्नत्रय वह धर्म नहीं
है–ऐसा बतलानेके लिये यहाँ गाथामें ‘‘सारे’’ शब्दका प्रयोग किया
है । जब जीव निश्चय रत्नत्रयस्वरूप धर्मको स्वाश्रय द्वारा प्रगट
करता है, तभी वह स्थिर, अक्षयसुख (मोक्ष) प्राप्त करता है ।
इसप्रकार चिंतवन करके सम्यग्दृष्टि जीव स्वोन्मुखता द्वारा शुचिकी
वृद्धि बारम्बार करता है । यह ‘‘धर्म भावना’’ है
।।१४।।
आत्मानुभवपूर्वक भावलिंगी मुनिका स्वरूप
सो धर्म मुनिनकरि धरिये, तिनकी करतूति उचरिये
ताकों सुनिये भवि प्रानी, अपनी अनुभूति पिछानी ।।१५।।
अन्वयार्थ :(सो) ऐसा रत्नत्रय (धर्म) धर्म
(मुनिनकरि) मुनियों द्वारा (धरिये) धारण किया जाता है,
(तिनकी) उन मुनियोंकी (करतूति) क्रियाएँ (उचरिये) कही जाती
हैं, (भवि प्रानी) हे भव्य जीवों ! (ताको) उसे (सुनिये) सुनो और
(अपनी) अपने आत्माके (अनुभूति) अनुभवको (पिछानी)
पहिचानो ।

Page 147 of 192
PDF/HTML Page 171 of 216
single page version

background image
भावार्थ :निश्चयरत्नत्रयस्वरूप धर्मको भावलिंगी दिगम्बर
जैन मुनि ही अंगीकार करते हैं–अन्य कोई नहीं । अब, आगे उन
मुनियोंके सकलचारित्रका वर्णन किया जाता है । हे भव्यों ! उन
मुनिवरोंका चारित्र सुनो और अपने आत्माका अनुभव करो
।।१५।।
पाँचवीं ढालका सारांश
यह बारह भावनाएँ चारित्रगुणकी आंशिक शुद्ध पर्यायें हैं;
इसलिये वे सम्यग्दृष्टि जीवको ही हो सकती हैं । सम्यक् प्रकारसे
यह बारह प्रकारकी भावनाएँ भानेसे वीतरागताकी वृद्धि होती है ।
इन बारह भावनाओंका चिंतवन मुख्यरूपसे तो वीतरागी दिगम्बर
जैन मुनिराजको ही होता है तथा गौणरूपसे सम्यग्दृष्टिको भी होता
है । जिसप्रकार पवनके लगनेसे अग्नि भभक उठती है; उसीप्रकार
अन्तरंग परिणामोंकी शुद्धता सहित इन भावनाओंका चिंतवन
करनेसे समताभाव प्रगट होता है और उससे मोक्षसुख प्रगट होता
है । स्वोन्मुखतापूर्वक इन भावनाओंसे संसार, शरीर और भोगोंके
प्रति विशेष उपेक्षा होती है और आत्माके परिणामोंकी निर्मलता
बढ़ती है ।
इन बारह भावनाओंका स्वरूप विस्तारसे जानना हो तो
‘‘स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा,’’ ‘‘ज्ञानार्णव’’ आदि ग्रन्थोंका अवलोकन
करना चाहिये ।
अनित्यादि चिंतवन द्वारा शरीरादिको बुरा जानकर,
अहितकारी मानकर उनसे उदास होनेका नाम अनुप्रेक्षा नहीं है;
क्योंकि यह तो जिसप्रकार पहले किसीको मित्र मानता था, तब
उसके प्रति राग था और फि र उसके अवगुण देखकर उसके प्रति
उदासीन हो गया । उसीप्रकार पहले शरीरादिसे राग था, किन्तु

Page 148 of 192
PDF/HTML Page 172 of 216
single page version

background image
बादमें उनके अनित्यादि अवगुण देखकर उदासीन हो गया; परन्तु
ऐसी उदासीनता तो द्वेषरूप है । किन्तु अपने तथा शरीरादिके
यथावत् स्वरूपको जानकर, भ्रमका निवारण करके, उन्हें भला
जानकर राग न करना तथा बुरा जानकर द्वेष न करना–ऐसी
यथार्थ उदासीनताके हेतु अनित्यता आदिका यथार्थ चिंतवन करना
ही सच्ची अनुप्रेक्षा है ।
(मोक्षमार्गप्रकाशक पृ. २२९, श्री टोडरमल स्मारक
ग्रन्थमालासे प्रकाशित) ।
पाँचवीं ढालका भेद-संग्रह
अनुप्रेक्षा अथवा भावना :– अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व,
अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ
और धर्म–ये बारह हैं ।
इन्द्रियोंके विषय :– स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, और शब्द –ये पाँच
हैं ।
निर्जरा :–के चार भेद हैं–अकाम, सविपाक, सकाम, अविपाक ।
योग :–द्रव्य और भाव ।
परिवर्तन :–पाँच प्रकार हैं– द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव ।
मलद्वार :–दो कान, दो आँखें, दो नासिका छिद्र, एक मुँह तथा
मल-मूत्रद्वार दो–इसप्रकार नौ ।
वैराग्य :–संसार, शरीर और भोग– इन तीनोंसे उदासीनता ।
कुधातु :–पीव, लहू, वीर्य, मल, चरबी, माँस और ही आदि ।

Page 149 of 192
PDF/HTML Page 173 of 216
single page version

background image
पाँचवीं ढालका लक्षण-संग्रह
अनुप्रेक्षा (भावना) :–भेदज्ञानपूर्वक संसार, शरीर और भोगादिके
स्वरूपका बारम्बार विचार करके उनके प्रति उदासीनभाव
उत्पन्न करना ।
अशुभ उपयोग :–हिंसादिमें अथवा कषाय, पाप और व्यसनादि
निन्दापात्र कार्योंमें प्रवृत्ति ।
असुरकुमार :–असुर नामक देवगति-नामकर्मके उदयवाले
भवनवासी देव ।
कर्म :–आत्मा रागादि विकाररूपसे परिणमित हो तो उसमें
निमित्तरूप होनेवाले जड़कर्म-द्रव्यकर्म ।
गति :–नरक, तिर्यंच, देव और मनुष्यरूप जीवकी अवस्थाविशेषको
गति कहते हैं, उसमें गति नामक नामकर्म निमित्त है ।
ग्रैवेयक :–सोलहवें स्वर्गसे ऊपर और प्रथम अनुदिशसे नीचे,
देवोंको रहनेके स्थान ।
देव :–देवगतिको प्राप्त जीवोंको देव कहते हैं; वे अणिमा, महिमा,
लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व –इन
आठ सिद्धि (ऐश्वर्य) वाले होते हैं; उनके मनुष्य समान
आकारवाला सप्त कुधातु रहित सुन्दर शरीर होता है ।
धर्म :–दुःखसे मुक्ति दिलानेवाला निश्चयरत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग;
जिससे आत्मा मोक्ष प्राप्त करता है । (रत्नत्रय अर्थात्
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र । )

Page 150 of 192
PDF/HTML Page 174 of 216
single page version

background image
धर्मके भिन्न-भिन्न लक्षण :–१. वस्तुका स्वभाव वह धर्म; २.
अहिंसा; ३. उत्तमक्षमादि दस लक्षण; ४. निश्चयरत्नत्रय ।
पाप :–मिथ्यादर्शन, आत्माकी विपरीत समझ, हिंसादि अशुभभाव
सो पाप है ।
पुण्य :–दया, दान, पूजा, भक्ति, व्रतादिके शुभभाव, मंदकषाय वह
जीवके चारित्रगुणकी अशुद्ध दशा है । पुण्य-पाप दोनों
आस्रव हैं, बन्धनके कारण हैं ।
बोधि :–सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी एकता ।
मुनि (साधु परमेष्ठी) :–समस्त व्यापारसे विमुक्त, चार प्रकारकी
आराधनामें सदा लीन, निर्ग्रंथ और निर्मोह ऐसे सर्व साधु
होते हैं । समस्त भावलिंगी मुनियोंको नग्न दिगम्बरदशा
तथा साधुके २८ मूलगुण होते हैं ।
योग :–मन, वचन, कायाके निमित्तसे आत्माके प्रदेशोंका कम्पन
होना उसे द्रव्ययोग कहते हैं । कर्म और नोकर्मके ग्रहणमें
निमित्तरूप जीवकी शक्तिको भावयोग कहते हैं ।
शुभ उपयोग :–देवपूजा, स्वाध्याय, दया, दानादि, अणुव्रत-
महाव्रतादि शुभभावरूप आचरण ।
सकलव्रत :– ५- महाव्रत, ५- समिति, ६- आवश्यक, ५-
इन्द्रियजय, ६- केशलोंच, अस्नान, भूमिशयन,
अदन्तधोवन, खड़े-खड़े आहार, दिनमें एक बार आहार-
जल तथा नग्नता आदिका पालन–सो व्यवहारसे सकलव्रत
है और रत्नत्रयकी एकतारूप आत्मस्वभावमें स्थिर होना सो
निश्चयसे सकलव्रत है ।

Page 151 of 192
PDF/HTML Page 175 of 216
single page version

background image
सकलव्रती :–(सकलव्रतोंके धारक) रत्नत्रयकी एकतारूप स्वभावमें
स्थिर रहनेवाले महाव्रतके धारक दिगम्बर मुनि वे निश्चय
सकलव्रती हैं ।
अन्तर-प्रदर्शन
१. अनुप्रेक्षा और भावना पर्यायवाची शब्द हैं; उनमें कोई अन्तर
नहीं है ।
२. धर्मभावनामें तो बारम्बार विचारकी मुख्यता है और धर्ममें निज
गुणोंमें स्थिर होनेकी प्रधानता है ।
३. व्यवहार सकलव्रतमें तो पापोंका सर्वदेश त्याग किया जाता
है और व्यवहार अणुव्रतमें उनका एकदेश त्याग किया जाता
है; इतना इन दोनोंमें अन्तर है ।
पाँचवीं ढालकी प्रश्नावली
१. अनित्यभावना, अन्यत्वभावना, अविपाकनिर्जरा, अकामनिर्जरा,
अशरणभावना, अशुचिभावना, आस्रवभावना, एकत्वभावना,
धर्मभावना, निश्चयधर्म, बोधिदुर्लभभावना, लोकभावना,
संवरभावना, सकामनिर्जरा, सविपाकनिर्जरा आदिके लक्षण
समझाओ ।
२. सकलव्रतमें और विकलव्रतमें, अनुप्रेक्षामें और भावनामें, धर्ममें
और धर्मद्रव्यमें, धर्ममें और धर्मभावनामें तथा एकत्वभावना
और अन्यत्वभावनामें अन्तर बतलाओ ।
३. अनुप्रेक्षा, अनित्यता, अन्यत्व और अशरणपनेका स्वरूप
दृष्टान्त सहित समझाओ ।

Page 152 of 192
PDF/HTML Page 176 of 216
single page version

background image
४. अकाम निर्जराका निष्प्रयोजनपना, अचल सुखकी प्राप्ति,
कर्मके आस्रवका निरोध, पुण्यके त्यागका उपदेश और
सांसारिक सुखोंकी असारता आदिके कारण बतलाओ ।
५. अमुक भावनाका विचार और लाभ, आत्मज्ञानकी प्राप्तिका
समय और लाभ, इन्द्रधनुष, औषधि सेवनकी सार्थकता-
निरर्थकता, बारह भावनाओंके चिंतवनसे लाभ, मंत्रादिकी
सार्थकता और निरर्थकता । वैराग्यकी वृद्धिका उपाय,
इन्द्रधनुष्य तथा बिजलीका दृष्टान्त क्या समझाते हैं? लोकका
कर्ता-हर्ता माननेसे हानि, समता न रखनेसे हानि, सांसारिक
सुखका परिणाम और मोक्ष-सुखकी प्राप्तिका समय-आदिका
स्पष्ट वर्णन करो ।
६. अमुक शब्द, चरण तथा छन्दका अर्थ-भावार्थ समझाओ ।
लोकका नक शा बनाओ और पाँचवीं ढालका सारांश कहो ।

Page 153 of 192
PDF/HTML Page 177 of 216
single page version

background image


छठवीं ढाल

(हरिगीत छन्द)
अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य महाव्रतके लक्षण
षट्काय जीव न हननतैं, सब विध दरवहिंसा टरी
रागादि भाव निवारतैं, हिंसा न भावित अवतरी ।।
जिनके न लेश मृषा न जल, मृण हू बिना दीयो गहैं
अठदशसहसविध शीलधर, चिद्ब्रह्ममें नित रमि रहैं ।।।।
अन्वयार्थ :(षट्काय जीव) छह कायके जीवोंको (न
हननतैं) घात न करनेके भावसे (सब विध) सर्व प्रकारकी
(दरवहिंसा) द्रव्यहिंसा (टरी) दूर हो जाती है और (रागादि भाव)
राग-द्वेष, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि भावोंको (निवारतैं)
दूर करनेसे (भावित हिंसा) भावहिंसा भी (न अवतरी) नहीं होती,
(जिनके) उन मुनियोंको (लेश) किंचित् (मृषा) झूठ (न) नहीं
होती, (जल) पानी और (मृण) मिट्टी (हू) भी (बिना दीयो) दिये
बिना (न गहैं) ग्रहण नहीं करते तथा (अठदशसहस) अठारह
हजार (विध) प्रकारके (शील) शीलको-ब्रह्मचर्यको (धर) धारण
करके (नित) सदा (चिद्ब्रह्ममें) चैतन्यस्वरूप आत्मामें (रमि रहैं)
लीन रहते हैं ।
भावार्थ :निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक स्वरूपमें निरन्तर
एकाग्रतापूर्वक रमण करना ही मुनिपना है । ऐसी भूमिकामें
निर्विकल्प ध्यानदशारूप सातवाँ गुणस्थान बारम्बार आता ही है ।
छठवें गुणस्थानके समय उन्हें पंच महाव्रत, नग्नता, समिति आदि
अट्ठाईस मूलगुणके शुद्धभाव होते हैं; किन्तु उसे वे धर्म नहीं मानते


Page 155 of 192
PDF/HTML Page 179 of 216
single page version

background image
तथा उस काल भी उन्हें तीन कषाय चौकड़ीके अभावरूप शुद्ध
परिणति निरन्तर वर्तती ही है ।
छह काय (पृथ्वीकाय आदि पाँच स्थावर काय तथा एक
त्रस काय)के जीवोंका घात करना सो द्रव्यहिंसा है और राग, द्वेष,
काम, क्रोध, मान इत्यादि भावोंकी उत्पत्ति होना सो भावहिंसा है ।
वीतरागी मुनि (साधु) यह दो प्रकारकी हिंसा नहीं करते; इसलिये
उनको (१) अहिंसा महाव्रत
होता है । स्थूल या सूक्ष्म–ऐसे दोनों
प्रकारकी झूठ वे नहीं बोलते; इसलिये उनको (२) सत्य महाव्रत
होता है । अन्य किसी वस्तुकी तो बात ही क्या, किन्तु मिट्टी और
पानी भी दिये बिना ग्रहण नहीं करते; इसलिये उनको (३)
अचौर्यमहाव्रत होता है । शीलके अठारह हजार भेदोंका सदा पालन
करते हैं और चैतन्यरूप आत्मस्वरूपमें लीन रहते हैं; इसलिये
उनको (४) ब्रह्मचर्य (आत्म-स्थिरतारूप) महाव्रत होता है
।।।।
परिग्रहत्याग महाव्रत, ईर्या समिति और भाषा समिति
अंतर चतुर्दस भेद बाहिर, संग दसधातैं टलैं
परमाद तजि चौकर मही लखि, समिति ईर्यातैं चलैं ।।
यहाँ वाक्य बदलनेसे महाव्रतोंके लक्षण बनते हैं, जैसे कि–दोनों
प्रकारकी हिंसा न करना सो अहिंसा महाव्रत है–इत्यादि
अदत्त वस्तुओंका प्रमादसे ग्रहण करना ही चोरी कहलाती है;
इसलिये प्रमाद न होने पर भी मुनिराज नदी तथा झरने आदिका
प्रासुक हुआ जल, भस्म (राख) तथा अपने आप गिरे हुए सेमल
के फल और तुम्बीफल आदिका ग्रहण कर सकते हैं –ऐसा
‘‘श्लोकवार्तिकालंकार’’ का अभिमत है
(पृ. ४६३)

Page 156 of 192
PDF/HTML Page 180 of 216
single page version

background image
अन्वयार्थ :[वे वीतरागी दिगम्बर जैन मुनि ]
(चतुर्दस भेद) चौदह प्रकारके (अन्तर) अंतरंग तथा (दसधा) दस
प्रकारके (बाहिर) बहिरंग (संग) परिग्रहसे (टलैं) रहित होते हैं ।
(परमाद) प्रमाद-असावधानी (तजि) छोड़कर (चौकर) चार हाथ
(मही) जमीन (लखि) देखकर (ईर्या) ईया (समिति तैं) समितिसे
(चलैं) चलते हैं और (जिनके) जिन मुनिराजोंके (मुखचन्द्र तैं)
मुखरूपी चन्द्रसे (जग सुहितकर) जगतका सच्चा हित करनेवाला
तथा (सब अहितकर) सर्व अहितका नाश करनेवाला, (श्रुति
सुखद) सुननेमें प्रिय लगे ऐसा (सब संशय) समस्त संशयोंका (हरैं)
नाशक और (भ्रम रोगहर) मिथ्यात्वरूपी रोगको हरनेवाला (वचन-
अमृत) वचनरूपी अमृत (झरैं) झरता है ।
भावार्थ :वीतरागी मुनि चौदह प्रकारके अन्तरंग और
दस प्रकारके बहिरंग परिग्रहोंसे रहित होते हैं; इसलिये उनको (५)
परिग्रहत्याग-महाव्रत होता है । दिनमें सावधानीपूर्वक चार हाथ
जग-सुहितकर सब अहितहर, श्रुति सुखद सब संशय हरैं
भ्रमरोग-हर जिनके वचन, मुखचन्द्रतैं अमृत झरैं ।।।।