Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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सातवाँ अधिकार ][ २४३
द्रव्यलिंगी मुनि अन्तिम ग्रैवेयक तक जाते हैं, और पंचपरावर्तनोंमें इकतीस सागर पर्यन्त
देवायुकी प्राप्ति अनन्तबार होना लिखा है; सो ऐसे उच्चपद तो तभी प्राप्त करे जब अन्तरंग
परिणामपूर्वक महाव्रत पाले, महामन्दकषायी हो, इस लोक-परलोकके भोगादिककी चाह न हो;
केवल धर्मबुद्धिसे मोक्षाभिलाषी हुआ साधन साधे। इसलिये द्रव्यलिंगीके स्थूल तो अन्यथापना
है नहीं, सूक्ष्म अन्यथापना है; सो सम्यग्दृष्टिको भासित होता है।
अब इनके धर्मसाधन कैसे है और उसमें अन्यथापना कैसे है?
सो कहते हैं :
प्रथम तो संसारमें नरकादिके दुःख जानकर, स्वर्गादिमें भी जन्म-मरणादिके दुःख जानकर,
संसारसे उदास होकर मोक्षको चाहते हैं। सो इन दुःखोंको तो दुःख सभी जानते हैं। इन्द्र
अहमिन्द्रादिक विषयानुरागसे इन्द्रियजनित सुख भोगते हैं, उसे भी दुःख जानकर निराकुल सुख-
अवस्थाको पहिचानकर मोक्षको चाहते हैं; वे ही सम्यग्दृष्टि जानना।
तथा विषयसुखादिकका फल नरकादिक है; शरीर अशुचि, विनाशीक है, पोषण योग्य
नहीं है; कुटुम्बादिक स्वार्थके सगे हैं; इत्यादि परद्रव्योंका दोष विचारकर उनका तो त्याग
करते हैं
और व्रतादिकका फल स्वर्ग-मोक्ष है; तपश्चरणादि पवित्र अविनाशी फलके दाता
हैं, उनके द्वारा शरीरका शोषण करने योग्य है; देव-गुरु-शास्त्रादि हितकारी हैं; इत्यादि
परद्रव्योंके गुणोंका विचार करके उन्हींको अंगीकार करते हैं।
इत्यादि प्रकारसे किसी
परद्रव्यको बुरा जानकर अनिष्टरूप श्रद्धान करते हैं, किसी परद्रव्यको भला जानकर इष्ट श्रद्धान
करते हैं। सो परद्रव्योंमें इष्ट-अनिष्टरूप श्रद्धान वह मिथ्या है।
तथा इसी श्रद्धानसे इनके उदासीनता भी द्वेषबुद्धिरूप होती है; क्योंकि किसीको बुरा
जानना उसीका नाम द्वेष है।
कोई कहेगासम्यग्दृष्टि भी तो बुरा जानकर परद्रव्यका त्याग करते हैं?
समाधानःसम्यग्दृष्टि परद्रव्योंको बुरा नहीं जानते, अपने रागभावको बुरा जानते हैं।
आप रागभावको छोड़ते हैं, इसलिये उसके कारण भी त्याग होता है। वस्तुका विचार करनेसे
कोई परद्रव्य तो बुरा
भला है नहीं।
कोई कहेगानिमित्तमात्र तो है?
उत्तर :परद्रव्य कोई जबरन् तो बिगाड़ता नहीं है, अपने भाव बिगड़ें तब वह भी
बाह्य निमित्त है। तथा इसके निमित्त बिना भी भाव बिगड़ते हैं, इसलिये नियमरूपसे निमित्त

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२४४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
भी नहीं है। इसप्रकार परद्रव्यका तो दोष देखना मिथ्याभाव है। रागादिभाव ही बुरे हैं।
परन्तु इसके ऐसी समझ नहीं है; यह परद्रव्योंका दोष देखकर उनमें द्वेषरूप उदासीनता करता
है। सच्ची उदासीनता तो उसका नाम है कि किसी भी द्रव्यका दोष या गुण नहीं भासित हो,
इसलिये किसीको बुरा-भला न जानें; स्वको स्व जाने, परको पर जाने, परसे कुछ भी प्रयोजन
मेरा नहीं है ऐसा मानकर साक्षीभूत रहे। सो ऐसी उदासीनता ज्ञानीके ही होती है।
तथा यह उदासीन होकर शास्त्रमें जो अणुव्रत-महाव्रतरूप व्यवहारचारित्र कहा उसे
अंगीकार करता है, एकदेश अथवा सर्वदेश हिंसादि पापोंको छोड़ता है; उनके स्थान पर
अहिंसादिक पुण्यरूप कार्योंमें प्रवर्तता है। तथा जिस प्रकार पर्यायाश्रित पापकार्योंमें अपना
कर्तापना मानता था, उसी प्रकार अब पुण्यकार्योंमें अपना कर्तापना मानने लगा।
इसप्रकार
पर्यायाश्रित कार्योंमें अहंबुद्धि माननेकी समानता हुई। जैसे‘मैं जीवोंको मारता हूँ, मैं
परिग्रहधारी हूँ’इत्यादि मान्यता थी; उसी प्रकार मैं ‘जीवोंकी रक्षा करता हूँ, मैं नग्न,
परिग्रहरहित हूँ’ऐसी मान्यता हुई। सो पर्यायाश्रित कार्योंमें अहंबुद्धि वही मिथ्यादृष्टि है।
यही समयसार कलश में कहा हैः
ये तु कर्तारमात्मानं पश्यन्ति तमसा तताः
सामान्यजनवत्तेषां न मोक्षोऽपि मुमुक्षुतां।।१९९।।
अर्थःजो जीव मिथ्या-अंधकार व्याप्त होते हुए अपनेको पर्यायाश्रित क्रियाका कर्ता
मानते हैं वे जीव मोक्षाभिलाषी होने पर भी जैसे अन्यमती सामान्य मनुष्योंको मोक्ष नहीं होता;
उसी प्रकार उनको मोक्ष नहीं होता; क्योंकि कर्तापनेके श्रद्धानकी समानता है।
तथा इसप्रकार आप कर्ता होकर श्रावकधर्म अथवा मुनिधर्मकी क्रियाओंमें मन-वचन-
कायकी प्रवृत्ति निरन्तर रखता है, जैसे उन क्रियाओंमें भंग न हो वैसे प्रवर्तता है; परन्तु
ऐसे भाव तो सराग हैं; चारित्र है वह वीतरागभावरूप है। इसलिये ऐसे साधनको मोक्षमार्ग
मानना मिथ्याबुद्धि है।
प्रश्नःसराग-वीतराग भेदसे दो प्रकारका चारित्र कहा है सो किस प्रकार है?
उत्तरःजैसे चावल दो प्रकारके हैंएक तुषसहित हैं और एक तुषरहित हैं।
वहाँ ऐसा जानना कि तुष है वह चावलका स्वरूप नहीं है, चावलमें दोष है। कोई समझदार
तुषरहित चावलका संग्रह करता था; उसे देखकर कोई भोला तुषोंको ही चावल मानकर संग्रह
करे तो वृथा खेदखिन्न होगा। वैसे चारित्र दो प्रकारका है
एक सराग है, एक वीतराग

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सातवाँ अधिकार ][ २४५
है। वहाँ ऐसा जानना कि जो राग है वह चारित्रका स्वरूप नहीं है, चारित्रमें दोष है।
तथा कितने ही ज्ञानी प्रशस्तरागसहित चारित्र धारण करते हैं; उन्हें देखकर कोई अज्ञानी
प्रशस्तरागको ही चारित्र मानकर संग्रह करे तो वृथा खेदखिन्न ही होगा।
यहाँ कोई कहेगा कि पापक्रिया करनेसे तीव्र रागादिक होते थे, अब इन क्रियाओंको
करने पर मन्द राग हुआ; इसलिये जितने अंशमें रागभाव कम हुआ उतने अंशोंमें तो चारित्र
कहो, जितने अंशोंमें राग रहा उतने अंशोंमें राग कहो।
इस प्रकार उसके सराग-चारित्र
सम्भव है।
समाधानःयदि तत्त्वज्ञानपूर्वक ऐसा हो, तब तो तुम कहते हो उसी प्रकार है।
तत्त्वज्ञानके बिना उत्कृष्ट (उग्र) आचरण होने पर भी असंयम नाम ही पाता है, क्योंकि रागभाव
करनेका अभिप्राय नहीं मिटता।
वही बतलाते हैंःद्रव्यलिंगी मुनि राज्यादिकको छोड़कर निर्ग्रन्थ होता है, अट्ठाईस
मूलगुणोंका पालन करता है, उग्रसे उग्र अनशनादि बहुत तप करता है, क्षुधादिक बाईस परीषह
सहता है, शरीरके खंड-खंड होने पर भी व्यग्र नहीं होता, व्रतभंगके अनेक कारण मिलने
पर भी दृढ़ रहता है, किसीसे क्रोध नहीं करता, ऐसे साधनोंका मान नहीं करता, ऐसे साधनोंमें
कोई कपट नहीं है, इन साधनों द्वारा इस लोक-परलोकके विषयसुखको नहीं चाहता; ऐसी
उसकी दशा हुई है। यदि ऐसी दशा न हो तो ग्रैवेयक पर्यन्त कैसे पहुँचे? परन्तु उसे
मिथ्यादृष्टि असंयमी ही शास्त्रमें कहा है। उसका कारण यह है कि उसके तत्त्वोंका श्रद्धान
ज्ञान सच्चा नहीं हुआ है। पहले वर्णन किया उस प्रकार तत्त्वोंका श्रद्धानज्ञान हुआ है;
उसी प्रकार अभिप्रायसे सर्वसाधन करता है; परन्तु उन साधनोंके अभिप्राय की परम्पराका
विचार करने पर कषायोंका अभिप्राय आता है।
किस प्रकार? सो सुनोःयह पापके कारण रागादिकको तो हेय जानकर छोड़ता
है; परन्तु पुण्यके कारण प्रशस्तरागको उपादेय मानता है, उसकी वृद्धिका उपाय करता है,
सो प्रशस्तराग भी तो कषाय है। कषायको उपादेय माना तब कषाय करनेका ही श्रद्धान
रहा। अप्रशस्त परद्रव्योंसे द्वेष करके प्रशस्त परद्रव्योंमें राग करनेका अभिप्राय हुआ, कुछ
परद्रव्योंमें साम्यभावरूप अभिप्राय नहीं हुआ।
यहाँ प्रश्न है कि सम्यग्दृष्टि भी तो प्रशस्तरागका उपाय रखता है?
उत्तरः
जैसे किसीका बहुत दण्ड होता था, वह थोड़ा दण्ड देनेका उपाय रखता
है, थोड़ा दण्ड देकर हर्ष भी मानता है, परन्तु श्रद्धानमें दण्ड देना अनिष्ट ही मानता है;

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२४६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
उसी प्रकार सम्यग्दृष्टिके पापरूप बहुत कषाय होती थी, सो वह पुण्यरूप थोड़ी कषाय करनेका
उपाय रखता है, थोड़ी कषाय होने पर हर्ष भी मानता है, परन्तु श्रद्धानमें कषायको हेय
ही मानता है। तथा जैसे
कोई कमाईका कारण जानकर व्यापारादिका उपाय रखता है,
उपाय बन जाने पर हर्ष मानता है; उसी प्रकार द्रव्यलिंगी मोक्षका कारण जानकर प्रशस्तरागका
उपाय रखता है, उपाय बन जाने पर हर्ष मानता है।
इसप्रकार प्रशस्तरागके उपायमें और
हर्षमें समानता होने पर भी सम्यग्दृष्टिके तो दण्ड समान और मिथ्यादृष्टिके व्यापार समान श्रद्धान
पाया जाता है। इसलिये अभिप्रायमें विशेष हुआ।
तथा इसके परीषहतपश्चरणादिकके निमित्तसे दुःख हो उसका इलाज तो नहीं करता;
परन्तु दुःखका वेदन करता है; सो दुःखका वेदन करना कषाय ही है। जहाँ वीतरागता
होती है वहाँ तो जैसे अन्य ज्ञेयको जानता है उसी प्रकार दुःखके कारण ज्ञेयको जानता
है; सो ऐसी दशा इसकी होती नहीं है। तथा उनको सहता है वह भी कषायके अभिप्रायरूप
विचारसे सहता है। वह विचार ऐसा होता है कि
परवशतासे नरकादि गतिमें बहुत दुःख
सहन किये, यह परीषहादिका दुःख तो थोड़ा है। इसको स्ववश सहनेसे स्वर्ग-मोक्ष सुखकी
प्राप्ति होती है। यदि इनको न सहें और विषयसुखका सेवन करें तो नरकादिककी प्राप्ति
होगी, वहाँ बहुत दुःख होगा
इत्यादि विचारसे परीषहोंमें अनिष्टबुद्धि रहती है। केवल
नरकादिके भयसे तथा सुखके लोभसे उन्हें सहन करता है; सो यह सब कषायभाव ही हैं।
तथा ऐसा विचार होता है कि जो कर्म थे वे भोगे बिना नहीं छूटते; इसलिये मुझे सहने
पड़े। सो ऐसे विचारसे कर्मफलचेतनारूप प्रवर्तता है। तथा पर्यायदृष्टिसे जो परीषहादिरूप
अवस्था होती है उसे अपनेको हुई मानता है, द्रव्यदृष्टिसे अपनी और शरीरादिकी अवस्थाको
भिन्न नहीं पहिचानता। इसीप्रकार नानाप्रकारके व्यवहार
विचारसे परीषहादिक सहन करता है।
तथा उसके राज्यादिक विषयसामग्रीका त्याग है और इष्ट भोजनादिकका त्याग करता
रहता है। वह तो जैसे कोई दाहज्वरवाला वायु होनेके भयसे शीतल वस्तु सेवनका त्याग
करता है, परन्तु जब तक शीतल वस्तुका सेवन रुचता है तब तक उसके दाहका अभाव
नहीं कहा जाता; उसी प्रकार रागसहित जीव नरकादिकके भयसे विषयसेवनका त्याग करता
है, परन्तु जब तक विषयसेवन रुचता है तब तक उसके रागका अभाव नहीं कहा जाता।
तथा जैसे
अमृतके आस्वादी देवको अन्य भोजन स्वयमेव नहीं रुचता; उसी प्रकार स्वरसका
आस्वादन करके विषयसेवनकी अरुचि इसके नहीं हुई है। इस प्रकार फलादिककी अपेक्षा
परीषहसहनादिको सुखका कारण जानता है और विषयसेवनादिको दुःखका कारण जानता है।
तथा तत्काल परीषहसहनादिकसे दुःख होना मानता है और विषयसेवनादिकसे सुख

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सातवाँ अधिकार ][ २४७
मानता है; तथा जिनसे सुख-दुःखका होना माना जाये उनमें इष्ट-अनिष्ट बुद्धिसे राग-द्वेषरूप
अभिप्रायका अभाव नहीं होता; और जहाँ राग-द्वेष हैं वहाँ चारित्र नहीं होता। इसलिये यह
द्रव्यलिंगी विषयसेवन छोड़कर तपश्चरणादि करता है तथापि असंयमी ही है। सिद्धान्तमें असंयत
व देशसंयत सम्यग्दृष्टिसे भी इसे हीन कहा है; क्योंकि उनके चौथा-पाँचवाँ गुणस्थान है और
इसके पहला ही गुणस्थान है।
यहाँ कोई कहे कि असंयत व देशसंयत सम्यग्दृष्टिके कषायोंकी प्रवृत्ति विशेष है और
द्रव्यलिंगी मुनिके थोड़ी है; इसीसे असंयत व देशसंयत सम्यग्दृष्टि तो सोलहवें स्वर्गपर्यन्त ही
जाते हैं और द्रव्यलिंगी अन्तिम ग्रैवेयकपर्यन्त जाता है। इसलिये भावलिंगी मुनिसे तो
द्रव्यलिंगीको हीन कहो, उसे असंयत व देशसंयत सम्यग्दृष्टिसे हीन कैसे कहा जाय?
समाधानःअसंयत व देशसंयत सम्यग्दृष्टिके कषयोंकी प्रवृत्ति तो है; परन्तु श्रद्धानमें
किसी भी कषायके करनेका अभिप्राय नहीं है। तथा द्रव्यलिंगीके शुभकषाय करनेका अभिप्राय
पाया जाता हैं, श्रद्धानमें उन्हें भला जानता है; इसलिये श्रद्धानकी अपेक्षा असंयत सम्यग्दृष्टिसे
भी इसके अधिक कषाय है।
तथा द्रव्यलिंगीके योगोंकी प्रवृत्ति शुभरूप बहुत होती है और अघातिकर्मोंमें पुण्य-
पापबन्धका विशेष शुभ-अशुभ योगोंके अनुसार है, इसलिये वह अन्तिम ग्रैवेयकपर्यन्त पहुँचता
है; परन्तु वह कुछ कार्यकारी नहीं है, क्योंकि अघातिया कर्म आत्मगुणके घातक नहीं हैं,
उनके उदयसे उच्च-नीचपद प्राप्त किये तो क्या हुआ? वे तो बाह्य संयोगमात्र संसारदशाके
स्वांग हैं; आप तो आत्मा है; इसलिये आत्मगुणके घातक जो घातियाकर्म हैं उनकी हीनता
कार्यकारी है।
उन घातिया कर्मोंका बन्ध बाह्यप्रवृत्तिके अनुसार नहीं है, अंतरंग कषायशक्तिके अनुसार
है; इसलिये द्रव्यलिंगीकी अपेक्षा असंयत व देशसंयत सम्यग्दृष्टिके घातिकर्मोंका बन्ध थोड़ा है।
द्रव्यलिंगीके तो सर्व घातिकर्मोंका बन्ध बहुत स्थिति
अनुभाग सहित है और असंयत व
देशसंयत सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्वअनन्तानुबन्धी आदि कर्मोंका तो बन्ध है ही नहीं, अवशेषोंका
बन्ध होता है वह अल्प स्थितिअनुभाग सहित होता है। तथा द्रव्यलिंगीके कदापि गुणश्रेणी
निर्जरा नहीं होती, सम्यग्दृष्टिके कदाचित् होती है और देश व सकल संयम होने पर निरन्तर
होती है। इसीसे यह मोक्षमार्गी हुआ है। इसलिये द्रव्यलिंगी मुनिको शास्त्रमें असंयत व
देशसंयत सम्यग्दृष्टिसे हीन कहा है।
समयसार शास्त्रमें द्रव्यलिंगी मुनिकी हीनता गाथा, टीका और कलशोंमें प्रगट की है।

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२४८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा पंचास्तिकाय टीकामें जहाँ केवल व्यवहारावलम्बीका कथन किया है वहाँ व्यवहार पंचाचार
होने पर भी उसकी हीनता ही प्रगट की है। तथा प्रवचनसारमें संसारतत्त्व द्रव्यलिंगीको कहा
है। परमात्मप्रकाश आदि अन्य शास्त्रोंमें भी इस व्याख्यानको स्पष्ट किया है। द्रव्यलिंगीके जो
जप, तप, शील, संयमादि क्रियाएँ पायी जाती हैं उन्हें भी इन शास्त्रोंमें जहाँ-तहाँ अकार्यकारी
बतलाया है, सो वहाँ देख लेना। यहाँ ग्रन्थ बढ़ जानेके भयसे नहीं लिखते हैं।
इसप्रकार केवल व्यवहारभासके अवलम्बी मिथ्यादृष्टियोंका निरूपण किया।
उभयाभासी मिथ्यादृष्टि
अब, जो निश्चय-व्यवहार दोनों नयोंके आभासका अवलम्बन लेते हैंऐसे
मिथ्यादृष्टियोंका निरूपण करते हैं।
जो जीव ऐसा मानते हैं कि जिनमतमें निश्चय-व्यवहार दोनों नय कहते हैं, इसलिये
हमें उन दोनोंका अंगीकार करना चाहियेऐसा विचारकर जैसा केवल निश्चयाभासके
अवलम्बियोंका कथन किया था, वैसे तो निश्चयका अंगीकार करते हैं। और जैसे केवल
व्यवहारभासके अवलम्बियोंका कथन किया था, वैसे व्यवहारका अंगीकार करते हैं।
यद्यपि इस प्रकार अंगीकार करनेमें दोनों नयोंके परस्पर विरोध है, तथापि करें क्या?
सच्चा तो दोनों नयोंका स्वरूप भासित हुआ नहीं और जिनमतमें दो नय कहे हैं उनमेंसे किसीको
छोड़ा भी नहीं जाता; इसलिये भ्रमसहित दोनोंका साधन साधते हैं; वे जीव भी मिथ्यादृष्टि
जानना।
अब, इनकी प्रवृत्तिका विशेष बतलाते हैंः
अंतरंगमें आपने तो निर्धार करके यथावत् निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्गको पहिचाना नहीं,
जिनाज्ञा मानकर निश्चय-व्यवहाररूप मोक्षमार्ग दो प्रकार मानतें हैं। सो मोक्षमार्ग दो नहीं हैं,
मोक्षमार्गका निरूपण दो प्रकार है। जहाँ सच्चे मोक्षमार्गको मोक्षमार्ग निरूपित किया जाय सो
‘निश्चय मोक्षमार्ग’ है और जहाँ जो मोक्षमार्ग तो है नहीं, परन्तु मोक्षमार्गका निमित्त है व
सहचारी है उसे उपचारसे मोक्षमार्ग कहा जाय सो ‘व्यवहार मोक्षमार्ग’ है। क्योंकि निश्चय-
व्यवहारका सर्वत्र ऐसा ही लक्षण है। सच्चा निरूपण सो निश्चय, उपचार निरूपण सो व्यवहार;
इसलिये निरूपण-अपेक्षा दो प्रकार मोक्षमार्ग जानना। (किन्तु) एक निश्चय मोक्षमार्ग है, एक
व्यवहार मोक्षमार्ग है
इसप्रकार दो मोक्षमार्ग मानना मिथ्या है।
तथा निश्चय-व्यवहार दोनोंको उपादेय मानता है वह भी भ्रम है; क्योंकि निश्चय-

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सातवाँ अधिकार ][ २४९
व्यवहारका स्वरूप तो परस्पर विरोधसहित है। कारण कि समयसारमें ऐसा कहा हैः
‘‘ववहारोऽभूदत्थो भूदत्थो देसिऊण सुद्धणउ’’
अर्थःव्यवहार अभूतार्थ है, सत्यस्वरूपका निरूपण नहीं करता, किसी अपेक्षा
उपचारसे अन्यथा निरूपण करता है। तथा शुद्धनय जो निश्चय है, वह भूतार्थ है, जैसा
वस्तुका स्वरूप है वैसा निरूपण करता है।
इस प्रकार इन दोनोंका स्वरूप तो विरुद्धतासहित है।
तथा तू ऐसा मानता है कि सिद्धसमान शुद्ध आत्माका अनुभवन सो निश्चय और
व्रत, शील, संयमादिरूप प्रवृत्ति सो व्यवहार; सो तेरा ऐसा मानना ठीक नहीं है; क्योंकि किसी
द्रव्यभावका नाम निश्चय और किसीका नाम व्यवहार
ऐसा नहीं है। एक ही द्रव्यके भावको
उस स्वरूप ही निरूपण करना सो निश्चयनय है, उपचारसे उस द्रव्यके भावको अन्यद्रव्यके
भावस्वरूप निरूपण करना सो व्यवहार है। जैसे
मिट्टीके घड़ेको मिट्टीका घड़ा निरूपित किया
जाय सो निश्चय और घृतसंयोगके उपचारसे उसीको घृतका घड़ा कहा जाय सो व्यवहार।
ऐसे ही अन्यत्र जानना।
इसलिये तू किसीको निश्चय माने और किसीको व्यवहार माने वह भ्रम है।
तथा तेरे माननेमें भी निश्चय-व्यवहारको परस्पर विरोध आया। यदि तू अपनेको
सिद्धसमान शुद्ध मानता है तो व्रतादिक किसलिये करता है? यदि व्रतादिकके साधन द्वारा
सिद्ध होना चाहता है तो वर्तमानमें शुद्ध आत्माका अनुभव मिथ्या हुआ।
इसप्रकार दोनों नयोंके परस्पर विरोध हैं; इसलिये दोनों नयोंका उपादेयपना नहीं
बनता।
यहाँ प्रश्न है कि समयसारादिमें शुद्ध आत्माके अनुभवको निश्चय कहा है; व्रत, तप,
संयमादिको व्यवहार कहा है; उस प्रकार ही हम मानते हैं?
समाधानःशुद्ध आत्माका अनुभव सच्चा मोक्षमार्ग है, इसलिये उसे निश्चय कहा।
यहाँ स्वभावसे अभिन्न, परभावसे भिन्नऐसा ‘शुद्ध’ शब्दका अर्थ जानना। संसारीको सिद्ध
माननाऐसा भ्रमरूप अर्थ ‘शुद्ध’ शब्दका नहीं जानना।
१. ववहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणओ।
भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो।।११।।

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२५० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा व्रत, तप आदि मोक्षमार्ग है नहीं, निमित्तादिककी अपेक्षा उपचारसे इनको मोक्षमार्ग
कहते हैं, इसलिये इन्हें व्यवहार कहा।इसप्रकार भूतार्थ-अभूतार्थ मोक्षमार्गपनेसे इनको
निश्चय-व्यवहार कहा है; सो ऐसा ही मानना। परन्तु यह दोनोंही सच्चे मोक्षमार्ग है, इन दोनोंको
उपादेय मानना; वह तो मिथ्याबुद्धि ही है।
वहाँ वह कहता है कि श्रद्धान तो निश्चयका रखते हैं और प्रवृत्ति व्यवहाररूप रखते
हैं;इसप्रकार हम दोनोंका अंगीकार करते हैं।
सो ऐसा भी नहीं बनता; क्योंकि निश्चयका निश्चयरूप और व्यवहारका व्यवहाररूप
श्रद्धान करना योग्य है। एक ही नयका श्रद्धान होनेसे एकान्त मिथ्यात्व होता है। तथा प्रवृत्तिमें
नयका प्रयोजन ही नहीं है। प्रवृत्ति तो द्रव्यकी परिणति है; वहाँ जिस द्रव्यकी परिणति हो
उसको उसीकी प्ररूपित करे सो निश्चयनय और उसहीको अन्य द्रव्यकी प्ररूपित करे सो
व्यवहारनय;
ऐसे अभिप्रायानुसार प्ररूपणसे उस प्रवृत्तिमें दोनों नय बनते हैं; कुछ प्रवृत्ति ही
तो नयरूप है नहीं। इसलिये इस प्रकार भी दोनों नयोंका ग्रहण मानना मिथ्या है।
तो क्या करें? सो कहते हैंः
निश्चयनयसे जो निरूपण किया हो उसे तो सत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान अंगीकार
करना और व्यवहारनयसे जो निरूपण किया हो उसे असत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान छोड़ना।
यही समयसार कलश में कहा हैः
सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदु क्तं जिनै-
स्तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजितः
सम्यग्निश्चयमेकमेव परमं निष्कम्पमाक्रम्य किं
शुद्धज्ञानघने महिम्नि न निजे बध्नन्ति सन्तो धृतिम्
।।१७३।।
अर्थःक्योंकि सर्व ही हिंसादि व अहिसादिमें अध्यवसाय है सो समस्त ही छोड़ना
ऐसा जिनदेवोंने कहा है। इसलिये मैं ऐसा मानता हूँ कि जो पराश्रित व्यवहार है सो सर्व
ही छुड़ाया है। सन्त पुरुष एक परम निश्चयको ही भले प्रकार निष्कम्परूपसे अंगीकार करके
शुद्धज्ञानघनरूप निजमहिमामें स्थिति क्यों नहीं करते?
भावार्थःयहाँ व्यवहारका तो त्याग कराया है, इसलिये निश्चयको अंगीकार करके
निजमहिमारूप प्रवर्तना युक्त है।

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सातवाँ अधिकार ][ २५१
तथा षट्पाहुड़में कहा हैः
जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्मि
जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणे कज्जे।।३१।। (मोक्षपाहुड़)
अर्थःजो व्यवहारमें सोता है वह योगी अपने कार्यमें जागता है। तथा जो
व्यवहारमें जागता है वह अपने कार्यमें सोता है।
इसलिये व्यवहारनयका श्रद्धान छोड़कर निश्चयनयका श्रद्धान करना योग्य है।
व्यवहारनय स्वद्रव्य
परद्रव्यको व उनके भावोंको व कारणकार्यादिकको किसीको
किसीमें मिलाकर निरूपण करता है; सो ऐसे ही श्रद्धानसे मिथ्यात्व है; इसलिये उसका त्याग
करना। तथा निश्चयनय उन्हींको यथावत् निरूपण करता है, किसीको किसीमें नहीं मिलाता
है; सो ऐसे ही श्रद्धानसे सम्यक्त्व होता है; इसलिये उसका श्रद्धान करना।
यहाँ प्रश्न है कि यदि ऐसा है तो जिनमार्गमें दोनों नयोंका ग्रहण करना कहा है,
सो कैसे?
समाधानःजिनमार्गमें कहीं तो निश्चयनयकी मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे तो
‘सत्यार्थ ऐसे ही है’ऐसा जानना। तथा कहीं व्यवहारनयकी मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे
‘ऐसे है नहीं, निमित्तादिकी अपेक्षा उपचार किया है’ऐसा जानना। इसप्रकार जाननेका नाम
ही दोनों नयोंका ग्रहण है। तथा दोनों नयोंके व्याख्यानको समान सत्यार्थ जानकर ‘ऐसे भी
है, ऐसे भी है’
इसप्रकार भ्रमरूप प्रवर्तनसे तो दोनों नयोंका ग्रहण करना नहीं कहा है।
फि र प्रश्न है कि यदि व्यवहारनय असत्यार्थ है, तो उसका उपदेश जिनमार्गमें किसलिये
दिया? एक निश्चयनयका ही निरूपण करना था।
समाधानःऐसा ही तर्क समयसारमें किया है। वहाँ यह उत्तर दिया है :
जह णवि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा उ गाहेउं
तह ववहारेण विणा परमत्थुवएसणमसक्कं।।।।
अर्थःजिस प्रकार अनार्य अर्थात् म्लेच्छको म्लेच्छभाषा बिना अर्थ ग्रहण करानेमें
कोई समर्थ नहीं है; उसी प्रकार व्यवहारके बिना परमार्थका उपदेश अशक्य है; इसलिये
व्यवहारका उपदेश है।
तथा इसी सूत्रकी व्याख्यामें ऐसा कहा है कि ‘‘व्यवहारनयो नानुसर्त्तव्य’’
१. एवं म्लेच्छस्थानीयत्वाज्जगतो व्यवहारनयोपि म्लेच्छभाषास्थानीयत्वेन परमार्थप्रतिपादकत्वादुपन्यसनीयोऽथ च
ब्राह्मणो न म्लेच्छितव्य इति वचनाद्वयहारनयो नानुसर्तव्यः। (समयसार गाथा ८ की आत्मख्याति टीका)

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२५२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
इसका अर्थ हैःइस निश्चयको अंगीकार करनेके लिये व्यवहार द्वारा उपदेश देते
हैं; परन्तु व्यवहारनय है सो अंगीकार करने योग्य नहीं है।
प्रश्नःव्यवहार बिना निश्चयका उपदेश कैसे नहीं होता? और व्यवहारनय कैसे
अंगीकार नहीं करना? सो कहिए।
समाधानःनिश्चयसे तो आत्मा परद्रव्योंसे भिन्न, स्वभावोंसे अभिन्न स्वयंसिद्ध वस्तु
है; उसे जो नहीं पहिचानते, उनसे इसी प्रकार कहते रहें तब तो वे समझ नहीं पायें।
इसलिये उनको व्यवहारनयसे शरीरादिक परद्रव्योंकी सापेक्षता द्वारा नर-नारक-पृथ्वीकायादिरूप
जीवके विशेष किये
तब मनुष्य जीव है, नारकी जीव है, इत्यादि प्रकार सहित उन्हें जीवकी
पहिचान हुई।
अथवा अभेद वस्तुमें भेद उत्पन्न करके ज्ञानदर्शनादि गुण-पर्यायरूप जीवके विशेष
किये तब जाननेवाला जीव है, देखनेवाला जीव है;इत्यादि प्रकार सहित उनको जीवकी
पहिचान हुई।
तथा निश्चयसे वीतरागभाव मोक्षमार्ग है; उसे जो नहीं पहिचानते उनको ऐसे ही कहते
रहें तो वे समझ नहीं पायें। तब उनको व्यवहारनयसे, तत्त्वश्रद्धानज्ञानपूर्वक परद्रव्यके निमित्त
मिटनेकी सापेक्षता द्वारा व्रत, शील, संयमादिरूप वीतरागभावके विशेष बतलाये; तब उन्हें
वीतरागभावकी पहिचान हुई।
इसी प्रकार अन्यत्र भी व्यवहार बिना निश्चयके उपदेशका न होना जानना।
तथा यहाँ व्यवहारसे नर
नारकादि पर्यायको ही जीव कहा, सो पर्यायको ही जीव
नहीं मान लेना। पर्याय तो जीवपुद्गलके संयोगरूप हैं। वहाँ निश्चयसे जीवद्रव्य भिन्न है,
उसहीको जीव मानना। जीवके संयोगसे शरीरादिकको भी उपचारसे जीव कहा, सो कथनमात्र
ही है, परमार्थसे शरीरादिक जीव होते नहीं
ऐसा ही श्रद्धान करना।
तथा अभेद आत्मामें ज्ञान-दर्शनादि भेद किये, सो उन्हें भेदरूप ही नहीं मान लेना,
क्योंकि भेद तो समझानेके अर्थ किये हैं। निश्चयसे आत्मा अभेद ही है; उसहीको जीव वस्तु
मानना। संज्ञा
संख्यादिसे भेद कहे सो कथनमात्र ही हैं; परमार्थसे भिन्न-भिन्न हैं नहीं;
ऐसा ही श्रद्धान करना।
तथा परद्रव्यका निमित्त मिटानेकी अपेक्षासे व्रतशीलसंयमादिकको मोक्षमार्ग कहा, सो
इन्हींको मोक्षमार्ग नहीं मान लेना; क्योंकि परद्रव्यका ग्रहण-त्याग आत्माके हो तो आत्मा
परद्रव्यका कर्ता-हर्ता हो जाये। परन्तु कोई द्रव्य किसी द्रव्यके आधीन है नहीं; इसलिये

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सातवाँ अधिकार ][ २५३
आत्मा अपने भाव रागादिक हैं उन्हें छोड़कर वीतरागी होता है; इसलिये निश्चयसे वीतरागभाव
ही मोक्षमार्ग है। वीतरागभावोंके और व्रतादिकके कदाचित् कार्य-कारणपना है, इसलिये
व्रतादिको मोक्षमार्ग कहे सो कथनमात्र ही कथन हैं; परमार्थसे बाह्यक्रिया मोक्षमार्ग नहीं है
ऐसा ही श्रद्धान करना।
इसीप्रकार अन्यत्र भी व्यवहारनयका अंगीकार नहीं करना ऐसा जान लेना।
यहाँ प्रश्न है कि व्यवहारनय परको उपदेशमें ही कार्यकारी है या अपना भी प्रयोजन
साधता है?
समाधानःआप भी जब तक निश्चयनयसे प्ररूपित वस्तुको न पहिचाने तब तक
व्यवहारमार्गसे वस्तुका निश्चय करे; इसलिये निचली दशामें अपनेको भी व्यवहारनय कार्यकारी
है; परन्तु व्यवहारको उपचारमात्र मानकर उसके द्वारा वस्तुको ठीक प्रकार समझे तब तो
कार्यकारी हो; परन्तु यदि निश्चयवत् व्यवहारको भी सत्यभूत मानकर ‘वस्तु इसप्रकार ही है’
ऐसा श्रद्धान करे तो उलटा अकार्यकारी हो जाये।
यही पुरुषार्थसिद्ध्युपायमें कहा हैः
अबुधस्य बोधनार्थं मुनीश्वरा देशयन्त्यभूतार्थम्
व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति।।।।
माणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीतसिंहस्य
व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य।।।।
अर्थःमुनिराज अज्ञानीको समझानेके लिये असत्यार्थ जो व्यवहारनय उसका उपदेश
देते हैं। जो केवल व्यवहारको ही जानता है, उसे उपदेश ही देना योग्य नहीं है। तथा
जैसे कोई सच्चे सिंहको न जाने उसे बिलाव ही सिंह है; उसी प्रकार जो निश्चयको नहीं
जाने उसको व्यवहार ही निश्चयपनेको प्राप्त होता है।
यहाँ कोई निर्विचारी पुरुष ऐसा कहे कि तुम व्यवहारको असत्यार्थहेय कहते हो;
तो हम व्रत, शील, संयमादिक व्यवहारकार्य किसलिये करें?सबको छोड़ देंगे।
उससे कहते हैं कि कुछ व्रत, शील, संयमादिकका नाम व्यवहार नहीं है; इनको मोक्षमार्ग
मानना व्यवहार है, उसे छोड़ दे; और ऐसा श्रद्धान कर कि इनको तो बाह्य सहकारी जानकर
उपचारसे मोक्षमार्ग कहा है, यह तो परद्रव्याश्रित हैं; तथा सच्चा मोक्षमार्ग वीतरागभाव है,
वह स्वद्रव्याश्रित है।
इसप्रकार व्यवहारको असत्यार्थहेय जानना। व्रतादिकको छोड़नेसे तो
व्यवहारका हेयपना होता नहीं है।

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२५४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
फि र हम पूछते हैं कि व्रतादिकको छोड़कर क्या करेगा? यदि हिंसादिरूप प्रवर्तेगा
तो वहाँ तो मोक्षमार्गका उपचार भी सम्भव नहीं है; वहाँ प्रवर्तनेसे क्या भला होगा? नरकादि
प्राप्त करेगा। इसलिये ऐसा करना तो निर्विचारीपना है। तथा व्रतादिकरूप परिणतिको मिटाकर
केवल वीतराग
उदासीनभावरूप होना बने तो अच्छा ही है; वह निचली दशामें हो नहीं सकता;
इसलिये व्रतादि साधन छोड़कर स्वच्छन्द होना योग्य नहीं है। इसप्रकार श्रद्धानमें निश्चयको,
प्रवृत्तिमें व्यवहारको उपादेय मानना वह भी मिथ्याभाव ही है।
तथा यह जीव दोनों नयोंका अंगीकार करनेके अर्थ कदाचित् अपनेको शुद्ध सिद्ध
समान रागादि रहित, केवलज्ञानादि सहित आत्मा अनुभवता है, ध्यानमुद्रा धारण करके ऐसे
विचारोंमें लगते हैं; सो ऐसा आप नहीं है, परन्तु भ्रमसे ‘निश्चयसे मैं ऐसा ही हूँ’
ऐसा
मानकर सन्तुष्ट होता है। तथा कदाचित् वचन द्वारा निरूपण ऐसा ही करता है। परन्तु
निश्चय तो यथावत् वस्तुको प्ररूपित करता है। प्रत्यक्ष आप जैसा नहीं है वैसा अपनेको
माने तो निश्चय नाम कैसे पाये? जैसा केवल निश्चयाभासवाले जीवके अयथार्थपना पहले कहा
था उसी प्रकार इसके जानना।
अथवा यह ऐसा मानता है कि इस नयसे आत्मा ऐसा है, इस नयसे ऐसा है। सो
आत्मा तो जैसा है वैसा ही है; परन्तु उसमें नय द्वारा निरूपण करनेका जो अभिप्राय है
उसे नहीं पहिचानता। जैसे
आत्मा निश्चयसे तो सिद्धसमान केवलज्ञानादि सहित, द्रव्यकर्म-
नोकर्म-भावकर्म रहित है और व्यवहारनयसे संसारी मतिज्ञानादि सहित तथा द्रव्यकर्म-नोकर्म-
भावकर्म सहित है
ऐसा मानता है; सो एक आत्माके ऐसे दो स्वरूप तो होते नहीं हैं;
जिस भावका ही सहितपना उस भावका ही रहितपना एक वस्तुमें कैसे सम्भव हो? इसलिये
ऐसा मानना भ्रम है।
तो किस प्रकार है? जैसेराजा और रंक मनुष्यपनेकी अपेक्षा समान हैं; उसी प्रकार
सिद्ध और संसारीको जीवत्वपनेकी अपेक्षा समान कहा है। केवलज्ञानादिकी अपेक्षा समानता
मानी जाय, सो तो है नहीं; संसारीके निश्चयसे मतिज्ञानादिक ही हैं, सिद्धके केवलज्ञान है।
इतना विशेष है कि संसारीके मतिज्ञानादिक कर्मके निमित्तसे हैं, इसलिये स्वभाव-अपेक्षा संसारीमें
केवलज्ञानकी शक्ति कही जाये तो दोष नहीं है। जैसे
रंक मनुष्यमें राजा होनेकी शक्ति पायी
जाती है, उसी प्रकार यह शक्ति जानना। तथा द्रव्यकर्म-नोकर्म पुद्गलसे उत्पन्न हुए हैं, इसलिये
निश्चयसे संसारीके भी इनका भिन्नपना है, परन्तु सिद्धकी भाँति इनका कारण कार्य-अपेक्षा सम्बन्ध
भी न माने तो भ्रम ही है। तथा भावकर्म आत्माका भाव है सो निश्चयसे आत्माका ही है,
परन्तु कर्मके निमित्तसे होता है, इसलिये व्यवहारसे कर्मका कहा जाता है। तथा सिद्धकी भाँति
संसारीके भी रागादिक न मानना, उन्हें कर्मका ही मानना वह भी भ्रम है।

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सातवाँ अधिकार ][ २५५
इस प्रकार नयों द्वारा एक ही वस्तुको एक भाव-अपेक्षा ‘ऐसा भी मानना और ऐसा
भी मानना,’ वह तो मिथ्याबुद्धि है; परन्तु भिन्न-भिन्न भावोंकी अपेक्षा नयोंकी प्ररूपणा है
ऐसा मानकर यथासम्भव वस्तुको मानना सो सच्चा श्रद्धान है। इसलिये मिथ्यादृष्टि अनेकान्तरूप
वस्तुको मानता है, परन्तु यथार्थ भावको पहिचानकर नहीं मान सकता
ऐसा जानना।
तथा इस जीवके व्रत, शील, संयमादिकका अंगीकार पाया जाता है, सो व्यवहारसे
‘ये भी मोक्षके कारण हैं’ऐसा मानकर उन्हें उपादेय मानता है; सो जैसे पहले केवल
व्यवहारावलम्बी जीवके अयथार्थपना कहा था वैसे ही इसके भी अयथार्थपना जानना।
तथा यह ऐसा भी मानता है कि यथायोग्य व्रतादि क्रिया तो करने योग्य है; परन्तु
इसमें ममत्व नहीं करना। सो जिसका आप कर्ता हो, उसमें ममत्व कैसे नहीं किया जाय?
आप कर्ता नहीं है तो ‘मुझको करने योग्य है’
ऐसा भाव कैसे किया? और यदि कर्ता
है तो वह अपना कर्म हुआ, तब कर्ता-कर्म सम्बन्ध स्वयमेव ही हुआ; सो ऐसी मान्यता
तो भ्रम है।
तो कैसे है? बाह्य व्रतादिक हैं वे तो शरीरादि परद्रव्यके आश्रित हैं, परद्रव्यका आप
कर्ता है नहीं; इसलिये उसमें कर्तृत्वबुद्धि भी नहीं करना और वहाँ ममत्व भी नहीं करना।
तथा व्रतादिकमें ग्रहण-त्यागरूप अपना शुभोपयोग हो, वह अपने आश्रित है, उसका आप
कर्ता है; इसलिये उसमें कर्त्तृत्वबुद्धि भी मानना और वहाँ ममत्व भी करना। परन्तु इस
शुभोपयोगको बन्धका ही कारण जानना, मोक्षका कारण नहीं जानना, क्योंकि बन्ध और मोक्षके
तो प्रतिपक्षीपना है; इसलिये एक ही भाव पुण्यबन्धका भी कारण हो और मोक्षका भी कारण
हो
ऐसा मानना भ्रम है।
इसलिये व्रत-अव्रत दोनों विकल्परहित, जहाँ परद्रव्यके ग्रहण-त्यागका कुछ प्रयोजन नहीं
हैऐसा उदासीन वीतराग शुद्धोपयोग वही मोक्षमार्ग है। तथा निचली दशामें कितने ही
जीवोंके शुभोपयोग और शुद्धोपयोगका युक्तपना पाया जाता है; इसलिये उपचारसे व्रतादिक
शुभोपयोगको मोक्षमार्ग कहा है; वस्तुका विचार करने पर शुभोपयोग मोक्षका घातक ही है;
क्योंकि बन्धका कारण वह ही मोक्षका घातक है
ऐसा श्रद्धान करना।
इसप्रकार शुद्धोपयोगको ही उपादेय मानकर उसका उपाय करना और शुभोपयोग
अशुभोपयोगको हेय जानकर उनके त्यागका उपाय करना। जहाँ शुद्धोपयोग न हो सके वहाँ
अशुभोपयोगको छोड़कर शुभमें ही प्रवर्तन करना, क्योंकि शुभोपयोगकी अपेक्षा अशुभोपयोगमें
अशुद्धताकी अधिकता है। तथा शुद्धोपयोग हो तब तो परद्रव्यका साक्षीभूत ही रहता है,

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२५६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
वहाँ तो कुछ परद्रव्यका प्रयोजन ही नहीं है। शुभोपयोग हो वहाँ बाह्य व्रतादिककी प्रवृत्ति
होती है और अशुभोपयोग हो वहाँ बाह्य अव्रतादिककी प्रवृत्ति होती है; क्योंकि अशुद्धोपयोगके
और परद्रव्यकी प्रवृत्तिके निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध पाया जाता है। तथा पहले अशुभोपयोग
छूटकर शुभोपयोग हो, फि र शुभोपयोग छूटकर शुद्धोपयोग हो
ऐसी क्रम-परिपाटी है।
तथा कोई ऐसा माने कि शुभोपयोग है सो शुद्धोपयोगका कारण है; सो जैसे अशुभोपयोग
छूटकर शुभोपयोग होता है, वैसे शुभोपयोग छूटकर शुद्धोपयोग होता है। ऐसा ही कार्य-
कारणपना हो, तो शुभोपयोगका कारण अशुभोपयोग ठहरे। अथवा द्रव्यलिंगीके शुभोपयोग तो
उत्कृष्ट होता है, शुद्धोपयोग होता ही नहीं; इसलिये परमार्थसे इनके कारण-कार्यपना है नहीं।
जैसे
रोगीको बहुत रोग था, पश्चात् अल्प रोग रहा, तो वह अल्प रोग तो निरोग होनेका
कारण है नहीं। इतना है कि अल्प रोग रहने पर निरोग होनेका उपाय करे तो हो जाये;
परन्तु यदि अल्प रोगको ही भला जानकर उसको रखनेका यत्न करे तो निरोग कैसे हो? उसी
प्रकार कषायीके तीव्रकषायरूप अशुभोपयोग था, पश्चात् मन्दकषायरूप शुभोपयोग हुआ, तो वह
शुभोपयोग तो निःकषाय शुद्धोपयोग होनेका कारण है नहीं। इतना है कि शुभोपयोग होने पर
शुद्धोपयोगका यत्न करे तो हो जाये; परन्तु यदि शुभोपयोगको ही भला जानकर उसका साधन
किया करे तो शुद्धोपयोग कैसे हो? इसलिये मिथ्यादृष्टिका शुभोपयोग तो शुद्धोपयोगका कारण
है नहीं, सम्यग्दृष्टिको शुभोपयोग होने पर निकट शुद्धोपयोग प्राप्त हो
ऐसी मुख्यतासे कहीं
शुभोपयोगको शुद्धोपयोगका कारण भी कहते हैंऐसा जानना।
तथा यह जीव अपनेको निश्चय-व्यवहाररूप मोक्षमार्गका साधक मानता है। वहाँ पूर्वोक्त
प्रकारसे आत्माको शुद्ध माना सो तो सम्यग्दर्शन हुआ; वैसा ही जाना सो सम्यग्ज्ञान हुआ;
वैसा ही विचारमें प्रवर्तन किया सो सम्यक्चारित्र हुआ। इसप्रकार तो अपनेको निश्चयरत्नत्रय
हुआ मानता है; परन्तु मैं प्रत्यक्ष अशुद्ध; सो शुद्ध कैसे मानता-जानता-विचारता हूँ
इत्यादि
विवेकरहित भ्रमसे संतुष्ट होता है।
तथा अरहंतादिके सिवा अन्य देवादिकको नहीं मानता, व जैनशास्त्रानुसार जीवादिकके
भेद सीख लिये हैं उन्हींको मानता है औरोंको नहीं मानता, वह तो सम्यग्दर्शन हुआ; तथा
जैनशास्त्रोंके अभ्यासमें बहुत प्रवर्तता है सो सम्यग्ज्ञान हुआ; तथा व्रतादिरूप क्रियाओंमें प्रवर्तता
है सो सम्यक्चारित्र हुआ।
इसप्रकार अपनेको व्यवहाररत्नत्रय हुआ मानता है। परन्तु
व्यवहार तो उपचारका नाम है; सो उपचार भी तो तब बनता है जब सत्यभूत निश्चयरत्नत्रयके
कारणादिक हों। जिस प्रकार निश्चयरत्नत्रय सध जाए उसी प्रकार इन्हें साधे तो व्यवहारपना
भी सम्भव हो; परन्तु इसे तो सत्यभूत निश्चयरत्नत्रय की पहिचान ही हुई नहीं, तो यह इसप्रकार

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सातवाँ अधिकार ][ २५७
कैसे साध सकेगा? आज्ञानुसार देखा-देखी साधन करता है। इसलिये इसके निश्चय-व्यवहार
मोक्षमार्ग नहीं हुआ।
निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्गका आगे निरूपण करेंगे, उसका साधन होने पर ही मोक्षमार्ग
होगा।
इसप्रकार यह जीव निश्चयाभासको मानताजानता है; परन्तु व्यवहार-साधनको भी भला
जानता है, इसलिये स्वच्छन्द होकर अशुभरूप नहीं प्रवर्तता है; व्रतादिक शुभोपयोगरूप प्रवर्तता
है, इसलिये अंतिम ग्रैवेयक पर्यन्त पदको प्राप्त करता है। तथा यदि निश्चयाभासकी प्रबलतासे
अशुभरूप प्रवृत्ति हो जाये तो कुगतिमें भी गमन होता है। परिणामोंके अनुसार फल प्राप्त
करता है, परन्तु संसारका ही भोक्ता रहता है; सच्चा मोक्षमार्ग पाए बिना सिद्धपदको नहीं
प्राप्त करता है।
इसप्रकार निश्चयाभास-व्यवहाराभास दोनोंके अवलम्बी मिथ्यादृष्टियोंका निरूपण किया।
सम्यक्त्वसन्मुख मिथ्यादृष्टि
अब, सम्यक्त्वके सन्मुख जो मिथ्यादृष्टि हैं उनका निरूपण करते हैंः
कोई मन्दकषायादिका कारण पाकर ज्ञानावरणादि कर्मोंका क्षयोपशम हुआ, जिससे
तत्त्वविचार करनेकी शक्ति हुई; तथा मोह मन्द हुआ, जिससे तत्त्वविचारमें उद्यम हुआ और
बाह्यनिमित्त देव-गुरु-शास्त्रादिकका हुआ, उनसे सच्चे उपेदशका लाभ हुआ।
वहाँ अपने प्रयोजनभूत मोक्षमार्गके, देव-गुरु-धर्मादिकके, जीवादितत्त्वोंके, तथा निज-परके
और अपनेको अहितकारी-हितकारी भावोंकेइत्यादिके उपदेशसे सावधान होकर ऐसा विचार
किया कि अहो! मुझे तो इन बातोंकी खबर ही नहीं, मैं भ्रमसे भूलकर प्राप्त पर्यायमें ही
तन्मय हुआ; परन्तु इस पर्यायकी तो थोड़े ही कालकी स्थिति है; तथा यहाँ मुझे सर्व निमित्त
मिले हैं, इसलिये मुझे इन बातोंको बराबर समझना चाहिये, क्योंकि इनमें तो मेरा ही प्रयोजन
भासित होता है। ऐसा विचारकर जो उपदेश सुना उसके निर्धार करनेका उद्यम किया।
वहाँ उद्देश, लक्षणनिर्देश और परीक्षा द्वारा उनका निर्धार होता है। इसलिये पहले
तो उनके नाम सीखे, वह उद्देश हुआ। फि र उनके लक्षण जाने। फि र ऐसा सम्भवित है
कि नहीं
ऐसे विचार सहित परीक्षा करने लगे।
वहाँ नाम सीख लेना और लक्षण जान लेना यह दोनों तो उपदेशके अनुसार होते
हैंजैसा उपदेश दिया हो वैसा याद कर लेना। तथा परीक्षा करनेमें अपना विवेक चाहिये।
सो विवेकपूर्वक एकान्तमें अपने उपयोगमें विचार करे कि जैसा उपदेश दिया वैसे ही है या

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२५८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
अन्यथा है? वहाँ अनुमानादि प्रमाणसे बराबर समझे। अथवा उपदेश तो ऐसा है और ऐसा
न मानें तो ऐसा होगा; सो इनमें प्रबल युक्ति कौन है और निर्बल युक्ति कौन है? जो
प्रबल भासित हो उसे सत्य जाने। तथा यदि उपदेशमें अन्यथा सत्य भासित हो, अथवा
उसमें सन्देह रहे, निर्धार न हो; तो जो विशेषज्ञ हों उनसे पूछे और वे उत्तर दें उसका
विचार करे। इसी प्रकार जब तक निर्धार न हो तब तक प्रश्न-उत्तर करे। अथवा
समानबुद्धिके धारक हों उनसे अपना विचार जैसा हुआ हो वैसा कहे और प्रश्न-उत्तर द्वारा
परस्पर चर्चा करे; तथा जो प्रश्नोत्तरमें निरूपण हुआ हो उसका एकान्तमें विचार करे।
इसीप्रकार जब तक अपने अंतरंगमें
जैसा उपदेश दिया था वैसा ही निर्णय होकर
भाव
भासित न हो तब तक इसी प्रकार उद्यम किया करे।
तथा अन्यमतियों द्वारा जो कल्पित तत्त्वोंका उपदेश दिया गया है, उससे जैन उपदेश
अन्यथा भासित हो व सन्देह होतब भी पूर्वोक्त प्रकारसे उद्यम करे।
ऐसा उद्यम करने पर जैसा जिनदेवका उपदेश है वैसा ही सत्य है, मुझे भी इसी
प्रकार भासित होता हैऐसा निर्णय होता है; क्योंकि जिनदेव अन्यथावादी हैं नहीं।
यहाँ कोई कहे कि जिनदेव यदि अन्यथावादी नहीं हैं तो जैसा उनका उपदेश है
वैसा ही श्रद्धान कर लें, परीक्षा किसलिये करें?
समाधानःपरीक्षा किये बिना यह तो मानना हो सकता है कि जिनदेवने ऐसा कहा
है सो सत्य है; परन्तु उनका भाव अपनेको भासित नहीं होगा। तथा भाव भासित हुए
बिना निर्मल श्रद्धान नहीं होता; क्योंकि जिसकी किसीके वचनसे ही प्रतीतिकी जाय, उसकी
अन्यके वचनसे अन्यथा भी प्रतीति हो जाय; इसलिये शक्तिअपेक्षा वचनसे की गई प्रतीति
अप्रतीतिवत् है। तथा जिसका भाव भासित हुआ हो, उसे अनेक प्रकारसे भी अन्यथा नहीं
मानता; इसलिये भाव भासित होने पर जो प्रतीति होती है वही सच्ची प्रतीति है।
यहाँ यदि कहोगे कि पुरुषकी प्रमाणतासे वचनकी प्रमाणता की जाती है? तो पुरुषकी
भी प्रमाणता स्वयमेव तो नहीं होती; उसके कुछ वचनोंकी परीक्षा पहले कर ली जाये, तब
पुरुषकी प्रमाणता होती है।
प्रश्नःउपदेश तो अनेक प्रकारके हैं, किस-किसकी परीक्षा करें?
समाधानःउपदेशमें कोई उपादेय, कोई हेय, तथा कोई ज्ञेयतत्त्वोंका निरूपण किया
जाता है। उपादेयहेय तत्त्वोंकी तो परीक्षा कर लेना, क्योंकि इनमें अन्यथापना होनेसे अपना
बुरा होता है। उपादेयको हेय मान लें तो बुरा होगा, हेयको उपादेय मान लें तो बुरा होगा।

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सातवाँ अधिकार ][ २५९
फि र वह कहेगास्वयं परीक्षा न की और जिनवचनसे ही उपादेयको उपादेय जानें
तथा हेयको हेय जानें तो इसमें कैसे बुरा होगा?
समाधानःअर्थका भाव भासित हुए बिना वचनका अभिप्राय नहीं पहिचाना जाता।
यह तो मानलें कि मैं जिनवचनानुसार मानता हूँ, परन्तु भाव भासित हुए बिना अन्यथापना
हो जाये। लोकमें भी नोकरको किसी कार्यके लिये भेजते हैं; वहाँ यदि वह उस कार्यका
भाव जानता हो तो कार्यको सुधारेगा; यदि भाव भासित नहीं होगा तो कहीं चूक जायेगा।
इसलिये भाव भासित होनेके अर्थ हेय
उपादेय तत्त्वोंकी परीक्षा अवश्य करना चाहिये।
फि र वह कहता हैयदि परीक्षा अन्यथा हो जाये तो क्या क्या करें?
समाधानःजिनवचन और अपनी परीक्षामें समानता हो, तब तो जाने कि सत्य परीक्षा
हुई है। जब तक ऐसा न हो तब तक जैसे कोई हिसाब करता है और उसकी विधि न
मिले तब तक अपनी चूकको ढूँढता है; उसी प्रकार यह अपनी परीक्षामें विचार किया करे।
तथा जो ज्ञेयतत्त्व हैं उनकी परीक्षा हो सके तो परीक्षा करे; नहीं तो यह अनुमान
करे कि जो हेयउपादेय तत्त्व ही अन्यथा नहीं कहे, तो ज्ञेयतत्त्वोंको अन्यथा किसलिये
कहेंगे? जैसेकोई प्रयोजनरूप कार्योंमें भी झूठ नहीं बोलता, वह अप्रयोजन झूठ क्यों
बोलेगा? इसलिये ज्ञेयतत्त्वोंका स्वरूप परीक्षा द्वारा भी अथवा आज्ञासे जाने। यदि उनका
यथार्थ भाव भासित न हो तो भी दोष नहीं है।
इसीलिये जैनशास्त्रोंमें जहाँ तत्त्वादिकका निरूपण किया; वहाँ तो हेतु, युक्ति आदि
द्वारा जिस प्रकार उसे अनुमानादिसे प्रतीति आये उसीप्रकार कथन किया है। तथा त्रिलोक,
गुणस्थान, मार्गणा, पुराणादिकके कथन आज्ञानुसार किये हैं। इसलिये हेयोपादेय तत्त्वोंकी
परीक्षा करना योग्य है।
वहाँ जीवादिक द्रव्यों व तत्त्वोंको तथा स्व-परको पहिचानना। तथा त्यागने योग्य
मिथ्यात्वरागादिक और करने योग्य सम्यग्दर्शनादिकका स्वरूप पहिचानना। तथा निमित्त-
नैमित्तिकादिक जैसे हैं, वैसे पहिचानना।इत्यादि मोक्षमार्गमें जिनके जाननेसे प्रवृत्ति होती
है, उन्हें अवश्य जानना। सो इनकी तो परीक्षा करना। सामान्यरूपसे किसी हेतु-युक्ति द्वारा
इनको जानना, व प्रमाण
नय द्वारा जानना, व निर्देशस्वामित्वादिसे और सत्संख्यादिसे इनके
विशेष जानना। जैसी बुद्धि होजैसा निमित्त बने, उसी प्रकार इनको सामान्य-विशेषरूपसे
पहिचानना। तथा इस जाननेमें उपकारी गुणस्थानमार्गणादिक व पुराणादिक व व्रतादिक
क्रियादिकका भी जानना योग्य है। यहाँ जिनकी परीक्षा हो सके उनकी परीक्षा करना, न
हो सके उनकी आज्ञानुसार जानकारी करना।

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२६० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
इस प्रकार जाननेके अर्थ कभी स्वयं ही विचार करता है, कभी शास्त्र पढ़ता है,
कभी सुनता है, कभी अभ्यास करता है, कभी प्रश्नोत्तर करता है,इत्यादिरूप प्रवर्तता है।
अपना कार्य करनेका इसको हर्ष बहुत है, इसलिये अन्तरंग प्रतीतिसे उसका साधन करता
है। इसप्रकार साधन करते हुए जब तक (१) सच्चा तत्त्वश्रद्धान न हो, (२) ‘यह इसीप्रकार
है’
ऐसी प्रतीति सहित जीवादितत्त्वोंका स्वरूप आपको भासित न हो, (३) जैसे पर्यायमें अहंबुद्धि
है वैसे केवल आत्मामें अहंबुद्धि न आये, (४) हित-अहितरूप अपने भावोंको न पहिचाने
तब तक सम्यक्त्वके सन्मुख मिथ्यादृष्टि है। यह जीव थोड़े ही कालमें सम्यक्त्वको प्राप्त होगा;
इसी भवमें या अन्य पर्यायमें सम्यक्त्वको प्राप्त करेगा।
इस भवमें अभ्यास करके परलोकमें तिर्यंचादि गतिमें भी जाये तो वहाँ संस्कारके बलसे
देव-गुरु-शास्त्रके निमित्त बिना भी सम्यक्त्व हो जाये, क्योंकि ऐसे अभ्यासके बलसे
मिथ्यात्वकर्मका अनुभाग हीन होता है। जहाँ उसका उदय न हो वहीं सम्यक्त्व हो जाता
है।
मूलकारण यही है। देवादिकका तो बाह्य निमित्त है; सो मुख्यतासे तो इनके निमित्तसेही
सम्यक्त्व होता है; तारतम्यसे पूर्व अभ्यास-संस्कारसे वर्तमानमें इनका निमित्त न हो तो भी
सम्यक्त्व हो सकता है। सिद्धान्तमें ‘‘तन्निसर्गादधिगमाद्वा’’ (तत्त्वार्थसूत्र १-३) ऐसा सूत्र है।
इसका अर्थ यह है कि वह सम्यग्दर्शन निसर्ग अथवा अधिगमसे होता है। वहाँ देवादिक
बाह्यनिमित्तके बिना हो उसे निसर्गसे हुआ कहते हैं; देवादिकके निमित्तसे हो, उसे अधिगमसे
हुआ कहते हैं।
देखो, तत्त्वविचारकी महिमा! तत्त्वविचाररहित देवादिककी प्रतीति करे, बहुत शास्त्रोंका
अभ्यास करे, व्रतादिक पाले, तपश्चरणादि करे, उसको तो सम्यक्त्व होनेका अधिकार नहीं; और
तत्त्वविचारवाला इनके बिना भी सम्यक्त्वका अधिकारी होता है।
तथा किसी जीवको तत्त्वविचार होनेके पहिले कोई कारण पाकर देवादिककी प्रतीति
हो, व व्रत-तपका अंगीकार हो, पश्चात् तत्त्वविचार करे; परन्तु सम्यक्त्वका अधिकारी
तत्त्वविचार होने पर ही होता है।
तथा किसीको तत्त्वविचार होनेके पश्चात् तत्त्वप्रतीति न होनेसे सम्यक्त्व तो नहीं हुआ
और व्यवहारधर्मकी प्रतीतिरुचि हो गई, इसलिये देवादिककी प्रतीति करता है व व्रत-तपको
अंगीकार करता है। किसीको देवादिककी प्रतीति और सम्यक्त्व युगपत होते हैं तथा व्रत-
तप सम्यक्त्वके साथ भी होते हैं और पहले
पीछे भी होते हैं। देवादिककी प्रतीतिका तो

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सातवाँ अधिकार ][ २६१
नियम है, उसके बिना सम्यक्त्व नहीं होता। व्रतादिका नियम है नहीं; बहुत जीव तो पहले
सम्यक्त्व हो पश्चात् ही व्रतादिकको धारण करते हैं, किन्हींको युगपत् भी हो जाते हैं।
इसप्रकार यह तत्त्वविचारवाला जीव सम्यक्त्वका अधिकारी है; परन्तु उसके सम्यक्त्व हो ही
हो, ऐसा नियम नहीं है; क्योंकि शास्त्रमें सम्यक्त्व होनेसे पूर्व पंचलब्धियोंका होना कहा है।
पाँच लब्धियोंका स्वरूप
क्षयोपशम, विशुद्ध, देशना, प्रायोग्य, करण। वहाँ जिसके होने पर तत्त्वविचार हो
सकेऐसा ज्ञानावरणादि कर्मोंका क्षयोपशम हो अर्थात् उदयकालको प्राप्त सर्वघाती स्पर्द्धकोंके
निषेकोंके उदयका अभाव सो क्षय, तथा अनागतकालमें उदय आने योग्य उन्हींका सत्तारूप
रहना उपशम
ऐसी देशघाती स्पर्द्धकोंके उदय सहित कर्मोंकी अवस्था उसका नाम क्षयोपशम
है; उसकी प्राप्ति सो क्षयोपशमलब्धि है।
तथा मोहका मन्द उदय आनेसे मन्दकषायरूप भाव हों कि जहाँ तत्त्वविचार हो सके
तो विशुद्धलब्धि है।
तथा जिनदेवके उपदिष्ट तत्त्वका धारण हो, विचार हो, सो देशनालब्धि है। जहाँ
नरकादिमें उपदेशका निमित्त न हो वहाँ वह पूर्व संस्कारसे होती है।
तथा कर्मोंकी पूर्वसत्ता अंतःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण रह जाये और नवीन बन्ध
अंतःकोड़ाकोड़ी प्रमाण उसके संख्यातवें भागमात्र हो, वह भी उस लब्धिकालसे लगाकर क्रमशः
घटता जाये और कितनी ही पापप्रकृत्तियोंका बन्ध क्रमशः मिटता जाये
इत्यादि योग्य
अवस्थाका होना सो प्रायोग्यलब्धि है।
सो ये चारों लब्धियाँ भव्य या अभव्यके होती हैं। ये चार लब्धियाँ होनेके बाद
सम्यक्त्व हो तो हो, न हो तो नहीं भी होऐसा ‘लब्धिसार’ में कहा है। इसलिये उस
तत्त्वविचारवालेको सम्यक्त्व होनेका नियम नहीं है। जैसेकिसीको हितकी शिक्षा दी, उसे
जानकर वह विचार करे कि यह जो शिक्षा दी सो कैसे है? पश्चात् विचार करने पर उसके
‘ऐसे ही है’
ऐसी उस शिक्षाकी प्रतीति हो जाये; अथवा अन्यथा विचार हो या अन्य विचारमें
लगकर उस शिक्षाका निर्धार न करे तो प्रतीति नहीं भी हो; उसी प्रकार श्रीगुरुने तत्त्वोपदेश
दिया, उसे जानकर विचार करे कि यह उपदेश दिया सो किस प्रकार है? पश्चात् विचार
करने पर उसके ‘ऐसा ही है’
ऐसी प्रतीति हो जाये; अथवा अन्यथा विचार हो या अन्य
विचारमें लगकर उपदेशका निर्धार न करे तो प्रतीति नहीं भी हो, सो मूल कारण मिथ्याकर्म
१. लब्धिसार, गाथा ३

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२६२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
है, उसका उदय मिटे तो प्रतीति हो जाये, न मिटे तो नहीं हो;ऐसा नियम है। उसका
उद्यम तो तत्त्वविचार करना मात्र ही है।
तथा पाँचवीं करणलब्धि होने पर सम्यक्त्व हो ही होऐसा नियम है। सो जिसके
पहले कही हुई चार लब्धियाँ तो हुई हों और अंतर्मुहूर्त पश्चात् जिसके सम्यक्त्व होना हो
उसी जीवके करणलब्धि होती है।
सो इस कारणलब्धिवालेके बुद्धिपूर्वक तो इतना ही उद्यम होता है कि उस तत्त्वविचारमें
उपयोगको तद्रूप होकर लगाये, उससे समय-समय परिणाम निर्मल होते जाते है। जैसेकिसीको
शिक्षाका विचार ऐसा निर्मल होने लगा कि जिससे उसको शीघ्र ही उसकी प्रतीति हो जायेगी;
उसी प्रकार तत्त्वोपदेशका विचार ऐसा निर्मल होने लगा कि जिससे उसको शीघ्र ही उसका
श्रद्धान हो जायेगा। तथा इन परिणामोंका तारतम्य केवलज्ञान द्वारा देखा, उसका निरूपण
करणानुयोगमें किया है।
इस करणलब्धिके तीन भेद हैंअधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण। इनका
विशेष व्याख्यान तो लब्धिसार शास्त्रमें किया है वहाँसे जानना। यहाँ संक्षेपमें कहते हैं।
त्रिकालवर्ती सर्व करणलब्धिवाले जीवोंके परिणामोंकी अपेक्षा ये तीन नाम हैं। वहाँ करण
नाम तो परिणामका है।
जहाँ पहले और पिछले समयोंके परिणाम समान हों सो अधःकरण है। जैसे
किसी जीवके परिणाम उस करणके पहले समयमें अल्प विशुद्धतासहित हुए, पश्चात् समय-
समय अनन्तगुनी विशुद्धतासे बढ़ते गये, तथा उसके द्वितीय-तृतीय आदि समयोंमें जैसे परिणाम
हों वैसे किन्हीं अन्य जीवोंके प्रथम समयमें ही हों और उनके उससे समय-समय अनन्तगुनी
विशुद्धतासे बढ़ते हों
इसप्रकार अधःप्रवृत्तिकरण जानना।
तथा जिसमें पहले और पिछले समयोंके परिणाम समान न हों, अपूर्व ही हों, वह
अपूर्वकरण है। जैसे कि उस करणके परिणाम जैसे पहले समयमें हों वैसे किसी भी जीवके
द्वितीयादि समयोंमें नहीं होते, बढ़ते ही होते हैं; तथा यहाँ अधःकरणवत् जिन जीवोंके करणका
पहला समय ही हो, उन अनेक जीवोंके परिणाम परस्पर समान भी होते हैं और अधिक-
हीन विशुद्धता सहित भी होते हैं; परन्तु यहाँ इतना विशेष हुआ कि इसकी उत्कृष्टतासे भी
द्वितीयादि समयवालेके जघन्य परिणाम भी अनन्तगुनी विशुद्धता सहित ही होते हैं। इसीप्रकार
१. लब्धिसार, गाथा ३५