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देवायुकी प्राप्ति अनन्तबार होना लिखा है; सो ऐसे उच्चपद तो तभी प्राप्त करे जब अन्तरंग
परिणामपूर्वक महाव्रत पाले, महामन्दकषायी हो, इस लोक-परलोकके भोगादिककी चाह न हो;
केवल धर्मबुद्धिसे मोक्षाभिलाषी हुआ साधन साधे। इसलिये द्रव्यलिंगीके स्थूल तो अन्यथापना
है नहीं, सूक्ष्म अन्यथापना है; सो सम्यग्दृष्टिको भासित होता है।
सो कहते हैं :
अवस्थाको पहिचानकर मोक्षको चाहते हैं; वे ही सम्यग्दृष्टि जानना।
करते हैं
परद्रव्योंके गुणोंका विचार करके उन्हींको अंगीकार करते हैं।
करते हैं। सो परद्रव्योंमें इष्ट-अनिष्टरूप श्रद्धान वह मिथ्या है।
कोई परद्रव्य तो बुरा
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परन्तु इसके ऐसी समझ नहीं है; यह परद्रव्योंका दोष देखकर उनमें द्वेषरूप उदासीनता करता
है। सच्ची उदासीनता तो उसका नाम है कि किसी भी द्रव्यका दोष या गुण नहीं भासित हो,
इसलिये किसीको बुरा-भला न जानें; स्वको स्व जाने, परको पर जाने, परसे कुछ भी प्रयोजन
मेरा नहीं है ऐसा मानकर साक्षीभूत रहे। सो ऐसी उदासीनता ज्ञानीके ही होती है।
अहिंसादिक पुण्यरूप कार्योंमें प्रवर्तता है। तथा जिस प्रकार पर्यायाश्रित पापकार्योंमें अपना
कर्तापना मानता था, उसी प्रकार अब पुण्यकार्योंमें अपना कर्तापना मानने लगा।
उसी प्रकार उनको मोक्ष नहीं होता; क्योंकि कर्तापनेके श्रद्धानकी समानता है।
ऐसे भाव तो सराग हैं; चारित्र है वह वीतरागभावरूप है। इसलिये ऐसे साधनको मोक्षमार्ग
मानना मिथ्याबुद्धि है।
तुषरहित चावलका संग्रह करता था; उसे देखकर कोई भोला तुषोंको ही चावल मानकर संग्रह
करे तो वृथा खेदखिन्न होगा। वैसे चारित्र दो प्रकारका है
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तथा कितने ही ज्ञानी प्रशस्तरागसहित चारित्र धारण करते हैं; उन्हें देखकर कोई अज्ञानी
प्रशस्तरागको ही चारित्र मानकर संग्रह करे तो वृथा खेदखिन्न ही होगा।
कहो, जितने अंशोंमें राग रहा उतने अंशोंमें राग कहो।
करनेका अभिप्राय नहीं मिटता।
सहता है, शरीरके खंड-खंड होने पर भी व्यग्र नहीं होता, व्रतभंगके अनेक कारण मिलने
पर भी दृढ़ रहता है, किसीसे क्रोध नहीं करता, ऐसे साधनोंका मान नहीं करता, ऐसे साधनोंमें
कोई कपट नहीं है, इन साधनों द्वारा इस लोक-परलोकके विषयसुखको नहीं चाहता; ऐसी
उसकी दशा हुई है। यदि ऐसी दशा न हो तो ग्रैवेयक पर्यन्त कैसे पहुँचे? परन्तु उसे
मिथ्यादृष्टि असंयमी ही शास्त्रमें कहा है। उसका कारण यह है कि उसके तत्त्वोंका श्रद्धान
विचार करने पर कषायोंका अभिप्राय आता है।
सो प्रशस्तराग भी तो कषाय है। कषायको उपादेय माना तब कषाय करनेका ही श्रद्धान
रहा। अप्रशस्त परद्रव्योंसे द्वेष करके प्रशस्त परद्रव्योंमें राग करनेका अभिप्राय हुआ, कुछ
परद्रव्योंमें साम्यभावरूप अभिप्राय नहीं हुआ।
उत्तरः
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उपाय रखता है, थोड़ी कषाय होने पर हर्ष भी मानता है, परन्तु श्रद्धानमें कषायको हेय
ही मानता है। तथा जैसे
उपाय रखता है, उपाय बन जाने पर हर्ष मानता है।
पाया जाता है। इसलिये अभिप्रायमें विशेष हुआ।
होती है वहाँ तो जैसे अन्य ज्ञेयको जानता है उसी प्रकार दुःखके कारण ज्ञेयको जानता
है; सो ऐसी दशा इसकी होती नहीं है। तथा उनको सहता है वह भी कषायके अभिप्रायरूप
विचारसे सहता है। वह विचार ऐसा होता है कि
प्राप्ति होती है। यदि इनको न सहें और विषयसुखका सेवन करें तो नरकादिककी प्राप्ति
होगी, वहाँ बहुत दुःख होगा
तथा ऐसा विचार होता है कि जो कर्म थे वे भोगे बिना नहीं छूटते; इसलिये मुझे सहने
पड़े। सो ऐसे विचारसे कर्मफलचेतनारूप प्रवर्तता है। तथा पर्यायदृष्टिसे जो परीषहादिरूप
अवस्था होती है उसे अपनेको हुई मानता है, द्रव्यदृष्टिसे अपनी और शरीरादिकी अवस्थाको
भिन्न नहीं पहिचानता। इसीप्रकार नानाप्रकारके व्यवहार
करता है, परन्तु जब तक शीतल वस्तुका सेवन रुचता है तब तक उसके दाहका अभाव
नहीं कहा जाता; उसी प्रकार रागसहित जीव नरकादिकके भयसे विषयसेवनका त्याग करता
है, परन्तु जब तक विषयसेवन रुचता है तब तक उसके रागका अभाव नहीं कहा जाता।
तथा जैसे
परीषहसहनादिको सुखका कारण जानता है और विषयसेवनादिको दुःखका कारण जानता है।
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अभिप्रायका अभाव नहीं होता; और जहाँ राग-द्वेष हैं वहाँ चारित्र नहीं होता। इसलिये यह
द्रव्यलिंगी विषयसेवन छोड़कर तपश्चरणादि करता है तथापि असंयमी ही है। सिद्धान्तमें असंयत
व देशसंयत सम्यग्दृष्टिसे भी इसे हीन कहा है; क्योंकि उनके चौथा-पाँचवाँ गुणस्थान है और
इसके पहला ही गुणस्थान है।
जाते हैं और द्रव्यलिंगी अन्तिम ग्रैवेयकपर्यन्त जाता है। इसलिये भावलिंगी मुनिसे तो
द्रव्यलिंगीको हीन कहो, उसे असंयत व देशसंयत सम्यग्दृष्टिसे हीन कैसे कहा जाय?
पाया जाता हैं, श्रद्धानमें उन्हें भला जानता है; इसलिये श्रद्धानकी अपेक्षा असंयत सम्यग्दृष्टिसे
भी इसके अधिक कषाय है।
है; परन्तु वह कुछ कार्यकारी नहीं है, क्योंकि अघातिया कर्म आत्मगुणके घातक नहीं हैं,
उनके उदयसे उच्च-नीचपद प्राप्त किये तो क्या हुआ? वे तो बाह्य संयोगमात्र संसारदशाके
स्वांग हैं; आप तो आत्मा है; इसलिये आत्मगुणके घातक जो घातियाकर्म हैं उनकी हीनता
कार्यकारी है।
द्रव्यलिंगीके तो सर्व घातिकर्मोंका बन्ध बहुत स्थिति
होती है। इसीसे यह मोक्षमार्गी हुआ है। इसलिये द्रव्यलिंगी मुनिको शास्त्रमें असंयत व
देशसंयत सम्यग्दृष्टिसे हीन कहा है।
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होने पर भी उसकी हीनता ही प्रगट की है। तथा प्रवचनसारमें संसारतत्त्व द्रव्यलिंगीको कहा
है। परमात्मप्रकाश आदि अन्य शास्त्रोंमें भी इस व्याख्यानको स्पष्ट किया है। द्रव्यलिंगीके जो
जप, तप, शील, संयमादि क्रियाएँ पायी जाती हैं उन्हें भी इन शास्त्रोंमें जहाँ-तहाँ अकार्यकारी
बतलाया है, सो वहाँ देख लेना। यहाँ ग्रन्थ बढ़ जानेके भयसे नहीं लिखते हैं।
व्यवहारभासके अवलम्बियोंका कथन किया था, वैसे व्यवहारका अंगीकार करते हैं।
छोड़ा भी नहीं जाता; इसलिये भ्रमसहित दोनोंका साधन साधते हैं; वे जीव भी मिथ्यादृष्टि
जानना।
मोक्षमार्गका निरूपण दो प्रकार है। जहाँ सच्चे मोक्षमार्गको मोक्षमार्ग निरूपित किया जाय सो
‘निश्चय मोक्षमार्ग’ है और जहाँ जो मोक्षमार्ग तो है नहीं, परन्तु मोक्षमार्गका निमित्त है व
सहचारी है उसे उपचारसे मोक्षमार्ग कहा जाय सो ‘व्यवहार मोक्षमार्ग’ है। क्योंकि निश्चय-
व्यवहारका सर्वत्र ऐसा ही लक्षण है। सच्चा निरूपण सो निश्चय, उपचार निरूपण सो व्यवहार;
इसलिये निरूपण-अपेक्षा दो प्रकार मोक्षमार्ग जानना। (किन्तु) एक निश्चय मोक्षमार्ग है, एक
व्यवहार मोक्षमार्ग है
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वस्तुका स्वरूप है वैसा निरूपण करता है।
तथा तू ऐसा मानता है कि सिद्धसमान शुद्ध आत्माका अनुभवन सो निश्चय और
द्रव्यभावका नाम निश्चय और किसीका नाम व्यवहार
भावस्वरूप निरूपण करना सो व्यवहार है। जैसे
ऐसे ही अन्यत्र जानना।
तथा तेरे माननेमें भी निश्चय-व्यवहारको परस्पर विरोध आया। यदि तू अपनेको
सिद्ध होना चाहता है तो वर्तमानमें शुद्ध आत्माका अनुभव मिथ्या हुआ।
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उपादेय मानना; वह तो मिथ्याबुद्धि ही है।
नयका प्रयोजन ही नहीं है। प्रवृत्ति तो द्रव्यकी परिणति है; वहाँ जिस द्रव्यकी परिणति हो
उसको उसीकी प्ररूपित करे सो निश्चयनय और उसहीको अन्य द्रव्यकी प्ररूपित करे सो
व्यवहारनय;
स्तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजितः
शुद्धज्ञानघने महिम्नि न निजे बध्नन्ति सन्तो धृतिम्
ही छुड़ाया है। सन्त पुरुष एक परम निश्चयको ही भले प्रकार निष्कम्परूपसे अंगीकार करके
शुद्धज्ञानघनरूप निजमहिमामें स्थिति क्यों नहीं करते?
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व्यवहारनय स्वद्रव्य
करना। तथा निश्चयनय उन्हींको यथावत् निरूपण करता है, किसीको किसीमें नहीं मिलाता
है; सो ऐसे ही श्रद्धानसे सम्यक्त्व होता है; इसलिये उसका श्रद्धान करना।
है, ऐसे भी है’
व्यवहारका उपदेश है।
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इसलिये उनको व्यवहारनयसे शरीरादिक परद्रव्योंकी सापेक्षता द्वारा नर-नारक-पृथ्वीकायादिरूप
जीवके विशेष किये
वीतरागभावकी पहिचान हुई।
तथा यहाँ व्यवहारसे नर
ही है, परमार्थसे शरीरादिक जीव होते नहीं
मानना। संज्ञा
परद्रव्यका कर्ता-हर्ता हो जाये। परन्तु कोई द्रव्य किसी द्रव्यके आधीन है नहीं; इसलिये
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ही मोक्षमार्ग है। वीतरागभावोंके और व्रतादिकके कदाचित् कार्य-कारणपना है, इसलिये
व्रतादिको मोक्षमार्ग कहे सो कथनमात्र ही कथन हैं; परमार्थसे बाह्यक्रिया मोक्षमार्ग नहीं है
यहाँ प्रश्न है कि व्यवहारनय परको उपदेशमें ही कार्यकारी है या अपना भी प्रयोजन
है; परन्तु व्यवहारको उपचारमात्र मानकर उसके द्वारा वस्तुको ठीक प्रकार समझे तब तो
कार्यकारी हो; परन्तु यदि निश्चयवत् व्यवहारको भी सत्यभूत मानकर ‘वस्तु इसप्रकार ही है’
जैसे कोई सच्चे सिंहको न जाने उसे बिलाव ही सिंह है; उसी प्रकार जो निश्चयको नहीं
जाने उसको व्यवहार ही निश्चयपनेको प्राप्त होता है।
उपचारसे मोक्षमार्ग कहा है, यह तो परद्रव्याश्रित हैं; तथा सच्चा मोक्षमार्ग वीतरागभाव है,
वह स्वद्रव्याश्रित है।
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प्राप्त करेगा। इसलिये ऐसा करना तो निर्विचारीपना है। तथा व्रतादिकरूप परिणतिको मिटाकर
केवल वीतराग
प्रवृत्तिमें व्यवहारको उपादेय मानना वह भी मिथ्याभाव ही है।
विचारोंमें लगते हैं; सो ऐसा आप नहीं है, परन्तु भ्रमसे ‘निश्चयसे मैं ऐसा ही हूँ’
निश्चय तो यथावत् वस्तुको प्ररूपित करता है। प्रत्यक्ष आप जैसा नहीं है वैसा अपनेको
माने तो निश्चय नाम कैसे पाये? जैसा केवल निश्चयाभासवाले जीवके अयथार्थपना पहले कहा
था उसी प्रकार इसके जानना।
उसे नहीं पहिचानता। जैसे
भावकर्म सहित है
ऐसा मानना भ्रम है।
मानी जाय, सो तो है नहीं; संसारीके निश्चयसे मतिज्ञानादिक ही हैं, सिद्धके केवलज्ञान है।
इतना विशेष है कि संसारीके मतिज्ञानादिक कर्मके निमित्तसे हैं, इसलिये स्वभाव-अपेक्षा संसारीमें
केवलज्ञानकी शक्ति कही जाये तो दोष नहीं है। जैसे
निश्चयसे संसारीके भी इनका भिन्नपना है, परन्तु सिद्धकी भाँति इनका कारण कार्य-अपेक्षा सम्बन्ध
भी न माने तो भ्रम ही है। तथा भावकर्म आत्माका भाव है सो निश्चयसे आत्माका ही है,
परन्तु कर्मके निमित्तसे होता है, इसलिये व्यवहारसे कर्मका कहा जाता है। तथा सिद्धकी भाँति
संसारीके भी रागादिक न मानना, उन्हें कर्मका ही मानना वह भी भ्रम है।
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वस्तुको मानता है, परन्तु यथार्थ भावको पहिचानकर नहीं मान सकता
आप कर्ता नहीं है तो ‘मुझको करने योग्य है’
तो भ्रम है।
तथा व्रतादिकमें ग्रहण-त्यागरूप अपना शुभोपयोग हो, वह अपने आश्रित है, उसका आप
कर्ता है; इसलिये उसमें कर्त्तृत्वबुद्धि भी मानना और वहाँ ममत्व भी करना। परन्तु इस
शुभोपयोगको बन्धका ही कारण जानना, मोक्षका कारण नहीं जानना, क्योंकि बन्ध और मोक्षके
तो प्रतिपक्षीपना है; इसलिये एक ही भाव पुण्यबन्धका भी कारण हो और मोक्षका भी कारण
हो
शुभोपयोगको मोक्षमार्ग कहा है; वस्तुका विचार करने पर शुभोपयोग मोक्षका घातक ही है;
क्योंकि बन्धका कारण वह ही मोक्षका घातक है
अशुभोपयोगको छोड़कर शुभमें ही प्रवर्तन करना, क्योंकि शुभोपयोगकी अपेक्षा अशुभोपयोगमें
अशुद्धताकी अधिकता है। तथा शुद्धोपयोग हो तब तो परद्रव्यका साक्षीभूत ही रहता है,
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होती है और अशुभोपयोग हो वहाँ बाह्य अव्रतादिककी प्रवृत्ति होती है; क्योंकि अशुद्धोपयोगके
और परद्रव्यकी प्रवृत्तिके निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध पाया जाता है। तथा पहले अशुभोपयोग
छूटकर शुभोपयोग हो, फि र शुभोपयोग छूटकर शुद्धोपयोग हो
कारणपना हो, तो शुभोपयोगका कारण अशुभोपयोग ठहरे। अथवा द्रव्यलिंगीके शुभोपयोग तो
उत्कृष्ट होता है, शुद्धोपयोग होता ही नहीं; इसलिये परमार्थसे इनके कारण-कार्यपना है नहीं।
जैसे
परन्तु यदि अल्प रोगको ही भला जानकर उसको रखनेका यत्न करे तो निरोग कैसे हो? उसी
प्रकार कषायीके तीव्रकषायरूप अशुभोपयोग था, पश्चात् मन्दकषायरूप शुभोपयोग हुआ, तो वह
शुभोपयोग तो निःकषाय शुद्धोपयोग होनेका कारण है नहीं। इतना है कि शुभोपयोग होने पर
शुद्धोपयोगका यत्न करे तो हो जाये; परन्तु यदि शुभोपयोगको ही भला जानकर उसका साधन
किया करे तो शुद्धोपयोग कैसे हो? इसलिये मिथ्यादृष्टिका शुभोपयोग तो शुद्धोपयोगका कारण
है नहीं, सम्यग्दृष्टिको शुभोपयोग होने पर निकट शुद्धोपयोग प्राप्त हो
वैसा ही विचारमें प्रवर्तन किया सो सम्यक्चारित्र हुआ। इसप्रकार तो अपनेको निश्चयरत्नत्रय
हुआ मानता है; परन्तु मैं प्रत्यक्ष अशुद्ध; सो शुद्ध कैसे मानता-जानता-विचारता हूँ
जैनशास्त्रोंके अभ्यासमें बहुत प्रवर्तता है सो सम्यग्ज्ञान हुआ; तथा व्रतादिरूप क्रियाओंमें प्रवर्तता
है सो सम्यक्चारित्र हुआ।
कारणादिक हों। जिस प्रकार निश्चयरत्नत्रय सध जाए उसी प्रकार इन्हें साधे तो व्यवहारपना
भी सम्भव हो; परन्तु इसे तो सत्यभूत निश्चयरत्नत्रय की पहिचान ही हुई नहीं, तो यह इसप्रकार
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मोक्षमार्ग नहीं हुआ।
है, इसलिये अंतिम ग्रैवेयक पर्यन्त पदको प्राप्त करता है। तथा यदि निश्चयाभासकी प्रबलतासे
अशुभरूप प्रवृत्ति हो जाये तो कुगतिमें भी गमन होता है। परिणामोंके अनुसार फल प्राप्त
करता है, परन्तु संसारका ही भोक्ता रहता है; सच्चा मोक्षमार्ग पाए बिना सिद्धपदको नहीं
प्राप्त करता है।
बाह्यनिमित्त देव-गुरु-शास्त्रादिकका हुआ, उनसे सच्चे उपेदशका लाभ हुआ।
तन्मय हुआ; परन्तु इस पर्यायकी तो थोड़े ही कालकी स्थिति है; तथा यहाँ मुझे सर्व निमित्त
मिले हैं, इसलिये मुझे इन बातोंको बराबर समझना चाहिये, क्योंकि इनमें तो मेरा ही प्रयोजन
भासित होता है। ऐसा विचारकर जो उपदेश सुना उसके निर्धार करनेका उद्यम किया।
कि नहीं
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न मानें तो ऐसा होगा; सो इनमें प्रबल युक्ति कौन है और निर्बल युक्ति कौन है? जो
प्रबल भासित हो उसे सत्य जाने। तथा यदि उपदेशमें अन्यथा सत्य भासित हो, अथवा
उसमें सन्देह रहे, निर्धार न हो; तो जो विशेषज्ञ हों उनसे पूछे और वे उत्तर दें उसका
विचार करे। इसी प्रकार जब तक निर्धार न हो तब तक प्रश्न-उत्तर करे। अथवा
समानबुद्धिके धारक हों उनसे अपना विचार जैसा हुआ हो वैसा कहे और प्रश्न-उत्तर द्वारा
परस्पर चर्चा करे; तथा जो प्रश्नोत्तरमें निरूपण हुआ हो उसका एकान्तमें विचार करे।
इसीप्रकार जब तक अपने अंतरंगमें
बिना निर्मल श्रद्धान नहीं होता; क्योंकि जिसकी किसीके वचनसे ही प्रतीतिकी जाय, उसकी
अन्यके वचनसे अन्यथा भी प्रतीति हो जाय; इसलिये शक्तिअपेक्षा वचनसे की गई प्रतीति
अप्रतीतिवत् है। तथा जिसका भाव भासित हुआ हो, उसे अनेक प्रकारसे भी अन्यथा नहीं
मानता; इसलिये भाव भासित होने पर जो प्रतीति होती है वही सच्ची प्रतीति है।
पुरुषकी प्रमाणता होती है।
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हो जाये। लोकमें भी नोकरको किसी कार्यके लिये भेजते हैं; वहाँ यदि वह उस कार्यका
भाव जानता हो तो कार्यको सुधारेगा; यदि भाव भासित नहीं होगा तो कहीं चूक जायेगा।
इसलिये भाव भासित होनेके अर्थ हेय
मिले तब तक अपनी चूकको ढूँढता है; उसी प्रकार यह अपनी परीक्षामें विचार किया करे।
यथार्थ भाव भासित न हो तो भी दोष नहीं है।
गुणस्थान, मार्गणा, पुराणादिकके कथन आज्ञानुसार किये हैं। इसलिये हेयोपादेय तत्त्वोंकी
परीक्षा करना योग्य है।
इनको जानना, व प्रमाण
हो सके उनकी आज्ञानुसार जानकारी करना।
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है। इसप्रकार साधन करते हुए जब तक (१) सच्चा तत्त्वश्रद्धान न हो, (२) ‘यह इसीप्रकार
है’
इसी भवमें या अन्य पर्यायमें सम्यक्त्वको प्राप्त करेगा।
मिथ्यात्वकर्मका अनुभाग हीन होता है। जहाँ उसका उदय न हो वहीं सम्यक्त्व हो जाता
है।
सम्यक्त्व हो सकता है। सिद्धान्तमें ‘‘तन्निसर्गादधिगमाद्वा’’ (तत्त्वार्थसूत्र १-३) ऐसा सूत्र है।
इसका अर्थ यह है कि वह सम्यग्दर्शन निसर्ग अथवा अधिगमसे होता है। वहाँ देवादिक
बाह्यनिमित्तके बिना हो उसे निसर्गसे हुआ कहते हैं; देवादिकके निमित्तसे हो, उसे अधिगमसे
हुआ कहते हैं।
तत्त्वविचारवाला इनके बिना भी सम्यक्त्वका अधिकारी होता है।
तत्त्वविचार होने पर ही होता है।
तप सम्यक्त्वके साथ भी होते हैं और पहले
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सम्यक्त्व हो पश्चात् ही व्रतादिकको धारण करते हैं, किन्हींको युगपत् भी हो जाते हैं।
इसप्रकार यह तत्त्वविचारवाला जीव सम्यक्त्वका अधिकारी है; परन्तु उसके सम्यक्त्व हो ही
हो, ऐसा नियम नहीं है; क्योंकि शास्त्रमें सम्यक्त्व होनेसे पूर्व पंचलब्धियोंका होना कहा है।
रहना उपशम
घटता जाये और कितनी ही पापप्रकृत्तियोंका बन्ध क्रमशः मिटता जाये
‘ऐसे ही है’
दिया, उसे जानकर विचार करे कि यह उपदेश दिया सो किस प्रकार है? पश्चात् विचार
करने पर उसके ‘ऐसा ही है’
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उसी जीवके करणलब्धि होती है।
उसी प्रकार तत्त्वोपदेशका विचार ऐसा निर्मल होने लगा कि जिससे उसको शीघ्र ही उसका
श्रद्धान हो जायेगा। तथा इन परिणामोंका तारतम्य केवलज्ञान द्वारा देखा, उसका निरूपण
करणानुयोगमें किया है।
त्रिकालवर्ती सर्व करणलब्धिवाले जीवोंके परिणामोंकी अपेक्षा ये तीन नाम हैं। वहाँ करण
नाम तो परिणामका है।
समय अनन्तगुनी विशुद्धतासे बढ़ते गये, तथा उसके द्वितीय-तृतीय आदि समयोंमें जैसे परिणाम
हों वैसे किन्हीं अन्य जीवोंके प्रथम समयमें ही हों और उनके उससे समय-समय अनन्तगुनी
विशुद्धतासे बढ़ते हों
द्वितीयादि समयोंमें नहीं होते, बढ़ते ही होते हैं; तथा यहाँ अधःकरणवत् जिन जीवोंके करणका
पहला समय ही हो, उन अनेक जीवोंके परिणाम परस्पर समान भी होते हैं और अधिक-
हीन विशुद्धता सहित भी होते हैं; परन्तु यहाँ इतना विशेष हुआ कि इसकी उत्कृष्टतासे भी
द्वितीयादि समयवालेके जघन्य परिणाम भी अनन्तगुनी विशुद्धता सहित ही होते हैं। इसीप्रकार