Moksha-Marg Prakashak (Hindi). Athava Adhyay.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 15 of 19

 

Page 253 of 350
PDF/HTML Page 281 of 378
single page version

-
सातवाँ अधिकार ][ २६३
जिन्हें करण प्रारम्भ किये द्वितीयादि समय हुए हों, उनके उस समयवालोंके परिणाम तो परस्पर
समान या असमान होते हैं; परन्तु ऊपरके समयवालोंके परिणाम उस समय समान सर्वथा नहीं
होते, अपूर्व ही होते हैं। इसप्रकार अपूर्वकरण
जानना।
तथा जिसमें समान समयवर्ती जीवोंके परिणाम समान ही होते हैं, निवृत्ति अर्थात् परस्पर
भेद उससे रहित होते हैं; जैसे उस करणके पहले समयमें सर्व जीवोंके परिणाम परस्पर समान
होते हैं, उसी प्रकार द्वितीयादि समयोंमें परस्पर समानता जानना; तथा प्रथमादि समयवालोंसे
द्वितीयादि समयवालोंके अनन्तगुनी विशुद्धता सहित होते हैं। इसप्रकार अनिवृत्तिकरण
जानना।
इस प्रकार ये तीन करण जानना।
वहाँ पहले अन्तर्मुहूर्त कालपर्यंत अधःकरण होता है। वहाँ चार आवश्यक होते हैं
समय-समय अनन्तगुनी विशुद्धता होती है; तथा एक (एक) अन्तर्मुहूर्तसे नवीन बन्धकी
स्थिति घटती जाती है, सो स्थितिबन्धापसरण है; तथा प्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग समय-
समय अनन्तगुना बढ़ता है; और अप्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग-बन्ध समय-समय अनन्तवें भाग
होता है
इसप्रकार चार आवश्यक होते हैं।
वहाँ पश्चात् अपूर्वकरण होता है। उसका काल अधःकरणके कालके संख्यातवें भाग
है। उसमें ये आवश्यक और होते हैंएक-एक अन्तर्मुहूर्तसे सत्ताभूत पूर्वकर्मकी स्थिति थी,
उसको घटाता है सो स्थितिकाण्डकघात है; तथा उससे छोटे एक-एक अन्तर्मुहूर्तसे पूर्वकर्मके
अनुभागको घटाता है सो अनुभागकाण्डकघात है; तथा गुणश्रेणीके कालमें क्रमशः असंख्यातगुने
प्रमाणसहित कर्मोंको निर्जराके योग्य करता है सो गुणश्रेणी निर्जरा है। तथा गुण-संक्रमण
यहाँ नहीं होता, परन्तु अन्यत्र अपूर्वकरण हो वहाँ होता है।
१. समए समए भिण्णा भावा तम्हा अपुव्वकरणो हु।।३६।। (लब्धिसार)
जम्हा उवरिमभावा हेट्ठिमभावेहिं णत्थि सरिसत्तं।
तम्हा बिदियं करणं अपुव्वकरणेत्ति णिद्दिट्ठं।।५१।। (लब्धिसार)
करणं परिणामो अपुव्वाणि च ताणि करणाणि च अपुव्वकरणाणि,
असमाणपरिणामा त्ति जं उत्तं होदि।।
(धवला१-९-८-४)
२. एगसमए वट्टंताणं जीवाणं परिणामेहि ण विज्जदे णियट्टी णिव्वित्ती जत्थ ते अणियट्टीपरिणामा।
(धवला १-९-८-४)
एक्कम्हि कालसमये संठाणादीहिं जह णिवट्टंति।
ण णिवट्टंति तहा विय परिणामेहिं मिहो जेहिं।।५६।।
(गोम्मटसार जीवकाण्ड)

Page 254 of 350
PDF/HTML Page 282 of 378
single page version

-
२६४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
इसप्रकार अपूर्वकरण होनेके पश्चात् अनिवृत्तिकरण होता है। उसका काल अपूर्वकरणके
भी संख्यातवें भाग है। उसमें पूर्वोक्त आवश्यक सहित कितना ही काल जानेके बाद
अन्तरकरण
करता है, जो अनिवृत्तिकरणके काल पश्चात् उदय आने योग्य ऐसे मिथ्यात्वकर्मके
मुहूर्तमात्र निषेक उनका अभाव करता है; उन परमाणुओंको अन्य स्थितिरूप परिणमित करता
है। तथा अन्तरकरण करनेके पश्चात् उपशमकरण करता है। अन्तरकरण द्वारा अभावरूप
किये निषेकोंके ऊपरवाले जो मिथ्यात्वके निषेक हैं उनको उदय आनेके अयोग्य बनाता है।
इत्यादिक क्रिया द्वारा अनिवृत्तिकरणके अन्तसमयके अनन्तर जिन निषेकोंका अभाव किया था,
उनका काल आये, तब निषेकोंके बिना उदय किसका आयेगा? इसलिये मिथ्यात्वका उदय
न होनेसे प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है। अनादि मिथ्यादृष्टिके सम्यक्त्व मोहनीय और
मिश्र मोहनीयकी सत्ता नहीं है, इसलिये वह एक मिथ्यात्वकर्मका ही उपशम करके उपशम
सम्यग्दृष्टि होता है। तथा कोई जीव सम्यक्त्व पाकर फि र भ्रष्ट होता है, उसकी दशा भी
अनादि मिथ्यादृष्टि जैसी हो जाती है।
यहाँ प्रश्न है कि परीक्षा करके तत्त्वश्रद्धान किया था, उसका अभाव कैसे हो?
समाधान
जैसे किसी पुरुषको शिक्षा दी। उसकी परीक्षा द्वारा उसे ‘ऐसे ही है’
ऐसी प्रतीति भी आयी थी; पश्चात् किसी प्रकारसे अन्यथा विचार हुआ, इसलिये उस शिक्षामें
सन्देह हुआ कि इसप्रकार है या इसप्रकार? अथवा ‘न जाने किस प्रकार है?’ अथवा उस
शिक्षाको झूठ जानकर उससे विपरीतता हुई तब उसे अप्रतीति हुई और उसके उस शिक्षाकी
प्रतीतिका अभाव हो गया। अथवा पहले तो अन्यथा प्रतीति थी ही, बीचमें शिक्षाके विचारसे
यथार्थ प्रतीति हुई थी; परन्तु उस शिक्षाका विचार किये बहुत काल हो गया, तब उसे भूलकर
जैसी पहले अन्यथा प्रतीति थी वैसी ही स्वयमेव हो गई। तब उस शिक्षाकी प्रतीतिका अभाव
हो जाता है। अथवा यथार्थ प्रतीति पहले तो की, पश्चात् न तो कोई अन्यथा विचार किया,
न बहुत काल हुआ; परन्तु वैसे ही कर्मोदयसे होनहारके अनुसार स्वयमेव ही उस प्रतीतिका
अभाव होकर अन्यथापना हुआ। ऐसे अनेक प्रकारसे उस शिक्षाकी यथार्थ प्रतीतिका अभाव
१. किमंतरकरणं णाम? विवक्खियकम्माणं हेट्ठिमोवरिमट्ठिदीओ मोत्तूण मज्झे अन्तोमुहुत्तमेत्ताणं ट्ठिदीणं
परिणामविसेसेण णिसेगाणमभावीकरणमंतरकरणमिदि भण्णदे।।(जयधवला, अ० प० ९५३)
अर्थ :अन्तरकरणका क्या स्वरूप है? उत्तर :विवक्षितकर्मोंकी अधस्तन और उपरिम स्थितियोंको छोड़कर
मध्यवर्ती अंतर्मुहूर्तमात्र स्थितियोंके निषेकोंका परिणाम विशेषके द्वारा अभाव करनेको अन्तरकरण कहते
हैं।

Page 255 of 350
PDF/HTML Page 283 of 378
single page version

-
सातवाँ अधिकार ][ २६५
होता है। उसीप्रकार जीवको जिनदेवका तत्त्वादिरूप उपदेश हुआ; उसकी परीक्षा करके उसे
‘ऐसे ही है’ ऐसा श्रद्धान हुआ, पश्चात् जैसे पहले कहे थे वैसे अनेक प्रकारसे उस यथार्थ
श्रद्धानका अभाव होता है। यह कथन स्थूलरूपसे बतलाया है; तारतम्यसे तो केवलज्ञानमें
भासित होता है कि
‘इस समय श्रद्धान है और इस समय नहीं है;’ क्योंकि यहाँ मूलकारण
मिथ्यात्वकर्म है। उसका उदय हो तब तो अन्य विचारादि कारण मिलें या न मिलें, स्वयमेव
सम्यक् श्रद्धानका अभाव होता है। और उसका उदय न हो तब अन्य कारण मिलें या
न मिलें, स्वयमेव सम्यक् श्रद्धान हो जाता है। सो ऐसी अन्तरंग समय-समय सम्बन्धी
सूक्ष्मदशाका जानना छद्मस्थको नहीं होता, इसलिये इसे अपनी मिथ्या-सम्यक् श्रद्धानरूप
अवस्थाके तारतम्यका निश्चय नहीं हो सकता; केवलज्ञानमें भासित होता है।
इस अपेक्षा
गुणस्थानोंका पलटना शास्त्रमें कहा है।
इसप्रकार जो सम्यक्त्वसे भ्रष्ट हो उसे सादि मिथ्यादृष्टि कहते हैंउसके भी पुनः
सम्यक्त्वकी प्राप्तिमें पूर्वोक्त पाँच लब्धियाँ होती हैं। विशेष इतना कि यहाँ किसी जीवके
दर्शनमोहकी तीन प्रकृतियोंकी सत्ता होती है, सो तीनोंका उपशम करके प्रथमोपशम सम्यक्त्वी
होता है। अथवा किसीके सम्यक्त्व मोहनीयका उदय आता है, दो प्रकृतियोंका उदय नहीं
होता, वह क्षयोपशम सम्यक्त्वी होता है; उसके गुणश्रेणी आदि क्रिया नहीं होती तथा
अनिवृत्तिकरण नहीं होता। तथा किसीको मिश्रमोहनीयका उदय आता है, दो प्रकृतियोंका
उदय नहीं होता, वह मिश्रगुणस्थानको प्राप्त होता है, उसके करण नहीं होते।
इसप्रकार
सादि मिथ्यादृष्टिके मिथ्यात्व छूटने पर दशा होती है। क्षायिक सम्यक्त्वको वेदक सम्यग्दृष्टि
ही प्राप्त करता है, इसलिये उसका कथन यहाँ नहीं किया है। इसप्रकार सादि मिथ्यादृष्टिका
जघन्य तो मध्यम अन्तर्मुहूर्तमात्र, उत्कृष्ट किंचित् न्यून अर्द्धपुद्गलपरावर्तनमात्र काल जानना।
देखो, परिणामोंकी विचित्रता! कोई जीव तो ग्यारहवें गुणस्थानमें यथाख्यातचारित्र प्राप्त
करके पुनः मिथ्यादृष्टि होकर किंचित् न्यून अर्द्धपुद्गलपरावर्तन काल पर्यन्त संसारमें रुलता
है और कोई नित्य निगोदसे निकलकर मनुष्य होकर मिथ्यात्व छूटनेके पश्चात् अन्तर्मुहूर्तमें
केवलज्ञान प्राप्त करता है। ऐसा जानकर अपने परिणाम बिगाड़नेका भय रखना और उनके
सुधारनेका उपाय करना।
तथा उस सादि मिथ्यादृष्टिके थोड़े काल मिथ्यात्वका उदय रहे तो बाह्य जैनीपना नष्ट
नहीं होता, व तत्त्वोंका अश्रद्धान व्यक्त नहीं होता, व विचार किये बिना ही व थोड़े विचारसे
ही सम्यक्त्वकी प्राप्ति हो जाती है। तथा बहुत काल तक मिथ्यात्वका उदय रहे तो जैसी

Page 256 of 350
PDF/HTML Page 284 of 378
single page version

-
२६६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
अनादि मिथ्यादृष्टिकी दशा होती है वैसी इसकी भी दशा होती है। गृहीत-मिथ्यात्वको भी
वह ग्रहण करता है और निगोदादिमें भी रुलता है। इसका कोई प्रमाण नहीं है।
तथा कोई जीव सम्यक्त्वसे भ्रष्ट होकर सासादन होता है और वहाँ जघन्य एक समय
उत्कृष्ट छह आवली प्रमाण काल रहता है। उसके परिणामकी दशा वचन द्वारा कहनेमें नहीं
आती। सूक्ष्मकाल मात्र किसी जातिके केवलज्ञानगम्य परिणाम होते हैं। वहाँ अनन्तानुबन्धीका
तो उदय होता है, मिथ्यात्वका उदय नहीं होता। सो आगम-प्रमाणसे उसका स्वरूप जानना।
तथा कोई जीव सम्यक्त्वसे भ्रष्ट होकर मिश्रगुणस्थानको प्राप्त होता है। वहाँ
मिश्रमोहनीयका उदय होता है, इसका काल मध्यम अन्तर्मुहूर्तमात्र है। सो इसका भी काल
थोड़ा है, इसलिये इसके भी परिणाम केवलज्ञानगम्य हैं। यहाँ इतना भासित होता है कि
जैसे किसीको शिक्षा दी; उसे वह कुछ सत्य और कुछ असत्य एक ही कालमें माने; उसीप्रकार
तत्त्वोंका श्रद्धान-अश्रद्धान एक ही कालमें हो वह मिश्रदशा है।
कितने ही कहते हैं‘हमें तो जिनदेव तथा अन्य देव सर्व ही वन्दन करने योग्य
हैं’इत्यादि मिश्रश्रद्धानको मिश्रगुणस्थान कहते हैं, सो ऐसा नहीं है; यह तो प्रत्यक्ष
मिथ्यात्वदशा है। व्यवहाररूप देवादिकका श्रद्धान होने पर भी मिथ्यात्व रहता है, तब इसके
तो देव-कुदेवका कुछ निर्णय ही नहीं है; इसलिये इसके तो यह विनय मिथ्यात्व प्रगट है
ऐसा जानना।
इसप्रकार सम्यक्त्वके सन्मुख मिथ्यादृष्टियोंका कथन किया, प्रसंग पाकर अन्य भी कथन
किया है।
इसप्रकार जैनमतवाले मिथ्यादृष्टियोंके स्वरूपका निरूपण किया।
यहाँ छोटेप्रकारके मिथ्यादृष्टियोंका कथन किया है। उसका प्रयोजन यह जानना कि
उन प्रकारोंको पहिचानकर अपनेमें ऐसा दोष हो तो उसे दूर करके सम्यक्श्रद्धानी होना औरोंके
ही ऐसे दोष देख-देखकर कषायी नहीं होना; क्योंकि अपना भला-बुरा तो अपने परिणामोंसे
है। औरोंको तो रुचिवान देखें तो कुछ उपदेश देकर उनका भी भला करें। इसलिये अपने
परिणाम सुधारनेका उपाय करना योग्य है; सर्व प्रकारके मिथ्यात्वभाव छोड़कर सम्यग्दृष्टि होना
योग्य है; क्योंकि संसारका मूल मिथ्यात्व है, मिथ्यात्वके समान अन्य पाप नहीं है।
एक मिथ्यात्व और उसके साथ अनन्तानुबन्धीका अभाव होने पर इकतालीस

Page 257 of 350
PDF/HTML Page 285 of 378
single page version

-
सातवाँ अधिकार ][ २६७
प्रकृत्तियोंका तो बन्ध ही मिट जाता है, स्थिति अंतःकोड़ाकोड़ी सागरकी रह जाती है, अनुभाग
थोड़ा ही रह जाता है, शीघ्र ही मोक्षपदको प्राप्त करता है। तथा मिथ्यात्वका सद्भाव रहने
पर अन्य अनेक उपाय करने पर भी मोक्षमार्ग नहीं होता। इसलिये जिस-तिस उपायसे
सर्वप्रकार मिथ्यात्वका नाश करना योग्य है।
इति श्री मोक्षमार्गप्रकाशक नामक शास्त्रमें जैनमतवाले मिथ्यादृष्टियोंका
निरूपण जिसमें हुआ ऐसा (सातवाँ) अधिकार
सम्पूर्ण हुआ।।।।
१ प्रकृतियोंके नाम
मिथ्यात्व सम्बन्धी १६ः
मिथ्यात्व, हुंडकसंस्थान, नपुंसकवेद, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, नरकायु, असंप्राप्तासृपाटिकासंहनन, जाति
४ (एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय), स्थावर, आताप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण।
अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी २५ः
अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ; स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय,
अप्रशस्तविहायोगति, स्त्रीवेद, नीचगोत्र, तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, तिर्यगायु, उद्योत, संस्थान ४ (न्यग्रोध,
स्वाति, कुब्जक, वामन), संहनन ४ (वज्रनाराच, नाराच अर्धनाराच और कीलित)।

Page 258 of 350
PDF/HTML Page 286 of 378
single page version

-
२६८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
आठवाँ अधिकार
उपदेशका स्वरूप
अब मिथ्यादृष्टि जीवोंको मोक्षमार्गका उपदेश देकर उनका उपकार करना यही उत्तम
उपकार है। तीर्थंकर, गणधरादिक भी ऐसा ही उपकार करते हैं; इसलिये इस शास्त्रमें भी
उन्हींके उपदेशानुसार उपदेश देते हैं।
वहाँ उपदेशका स्वरूप जाननेके अर्थ कुछ व्याख्यान करते हैं; क्योंकि उपदेशको यथावत्
न पहिचाने तो अन्यथा मानकर विपरीत प्रवर्तन करे। इसलिये उपदेशका स्वरूप कहते हैं।
जिनमतमें उपदेश चार अनुयोगके द्वारा दिया है। प्रथमानुयोग, करणानुयोग,
चरणानुयोग, द्रव्यानुयोगयह चार अनुयोग हैं।
वहाँ तीर्थंकरचक्रवर्ती आदि महान पुरुषोंके चारित्रका जिसमें निरूपण किया हो वह
प्रथमानुयोगहै। तथा गुणस्थानमार्गणादिरूप जीवका व कर्मोंका व त्रिलोकादिकका जिसमें
निरूपण हो वह करणानुयोग है। तथा गृहस्थ-मुनिके धर्म-आचरण करनेका जिसमें निरूपण
हो वह चरणानुयोग है। तथा षट्द्रव्य, सप्ततत्त्वादिकका व स्व-परभेद-विज्ञानादिकका जिसमें
निरूपण हो वह द्रव्यानुयोग है।
अनुयोगोंका प्रयोजन
अब इनका प्रयोजन कहते हैंः
प्रथमानुयोगका प्रयोजन
प्रथमानुयोगमें तो संसारकी विचित्रता, पुण्य-पापका फल, महन्त पुरुषोंकी प्रवृत्ति इत्यादि
निरूपणसे जीवोंको धर्ममें लगाया है। जो जीव तुच्छबुद्धि हों वे भी उससे धर्मसन्मुख होते
हैं; क्योंकि वे जीव सूक्ष्म निरूपणको नहीं पहिचानते, लौकिक कथाओंको जानते हैं, वहाँ
उनका उपयोग लगता है। तथा प्रथमानुयोगमें लौकिक प्रवृत्तिरूप निरूपण होनेसे उसे वे भली-
भाँति समझ जाते हैं। तथा लोकमें तो राजादिककी कथाओंमें पापका पोषण होता है। यहाँ
महन्तपुरुष राजादिककी कथाएँ तो हैं, परन्तु प्रयोजन जहाँ-तहाँ पापको छुड़ाकर धर्ममें लगानेका
१. रत्नकरण्ड २-२; २. रत्नकरण्ड २-३; ३. रत्नकरण्ड २-४; ४. रत्नकरण्ड २-५.

Page 259 of 350
PDF/HTML Page 287 of 378
single page version

-
आठवाँ अधिकार ][ २६९
प्रगट करते हैं; इसलिये वे जीव कथाओंके लालचसे तो उन्हें पढ़ते-सुनते हैं और फि र पापको
बुरा, धर्मको भला जानकर धर्ममें रुचिवंत होते हैं।
इसप्रकार तुच्छबुद्धियोंको समझानेके लिये यह अनुयोग है। ‘प्रथम’ अर्थात् ‘अव्युत्पन्न
मिथ्यादृष्टि’, उनके अर्थ जो अनुयोग सो प्रथमानुयोग है। ऐसा अर्थ गोम्मटसारकी टीकामें
किया है।
तथा जिन जीवोंके तत्त्वज्ञान हुआ हो, पश्चात् इस प्रथमानुयोगको पढ़ेसुनें तो उन्हें
यह उसके उदाहरणरूप भासित होता है। जैसेजीव अनादिनिधन है, शरीरादिक संयोगी पदार्थ
हैं, ऐसा यह जानता था। तथा पुराणोंमें जीवोंके भवान्तर निरूपण किये हैं, वे उस जाननेके
उदाहरण हुए। तथा शुभ-अशुभ-शुद्धोपयोगको जानता था, व उसके फलको जानता था।
पुराणोंमें उन उपयोगोंकी प्रवृत्ति और उनका फल जीवके हुआ सो निरूपण किया है। वही
उस जाननेका उदाहरण हुआ। इसीप्रकार अन्य जानना।
यहाँ उदाहरणका अर्थ यह है कि जिस प्रकार जानता था, उसीप्रकार वहाँ किसी
जीवके अवस्था हुई;-इसलिये यह उस जाननेकी साक्षी हुई।
तथा जैसे कोई सुभट हैवह सुभटोंकी प्रशंसा और कायरोंकी निन्दा जिसमें हो, ऐसी
किन्हीं पुराण-पुरुषोंकी कथा सुननेसे सुभटपनेमें अति उत्साहवान होता है; उसीप्रकार धर्मात्मा
है
वह धर्मात्माओंकी प्रशंसा और पापियोंकी निन्दा जिसमें हो, ऐसे किन्हीं पुराण-पुरुषोंकी कथा
सुननेसे धर्ममें अति उत्साहवान होता है।
इसप्रकार यह प्रथमानुयोगका प्रयोजन जानना।
करणानुयोगका प्रयोजन
तथा करणानुयोगमें जीवोंके व कर्मोंके विशेष तथा त्रिलोकादिककी रचना निरूपित करके
जीवोंको धर्ममें लगाया है। जो जीव धर्ममें उपयोग लगाना चाहते हैं वे जीवोंके गुणस्थान-
मार्गणा आदि विशेष तथा कर्मोंके कारण
अवस्थाफल किस-किसके कैसे-कैसे पाये जाते हैं
इत्यादि विशेष तथा त्रिलोकमें नरक-स्वर्गादिके ठिकाने पहिचानकर पापसे विमुख होकर धर्ममें
लगते हैं। तथा ऐसे विचारमें उपयोग रम जाये तब पाप-प्रवृत्ति छूटकर स्वयमेव तत्काल धर्म
उत्पन्न होता है; उस अभ्याससे तत्त्वज्ञानकी भी प्राप्ति शीघ्र होती है। तथा ऐसा सूक्ष्म यथार्थ
कथन जिनमतमें ही है, अन्यत्र नहीं है; इसप्रकार महिमा जानकर जिनमतका श्रद्धानी होता है।
१. प्रथमं मिथ्यादृष्टिमव्रतिकमव्युत्पन्नं वा प्रतिपाद्यमाश्रित्य प्रवृत्तोऽनुयोगोऽधिकारः प्रथमानुयोगः।
(जी० प्र० टी० गा० ३६१-६२)

Page 260 of 350
PDF/HTML Page 288 of 378
single page version

-
२७० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा जो जीव तत्त्वज्ञानी होकर इस करणानुयोगका अभ्यास करते हैं, उन्हें यह उसके
विशेषणरूप भासित होता है। जो जीवादिक तत्त्वोंको आप जानते है, उन्हींके विशेष
करणानुयोगमें किये हैं; वहाँ कितने ही विशेषण तो यथावत् निश्चयरूप हैं, कितने ही
उपचारसहित व्यवहाररूप हैं, कितने ही द्रव्य-क्षेत्र-काल भावादिकके स्वरूप प्रमाणादिरूप हैं,
कितने ही निमित्त
आश्रयादि अपेक्षा सहित हैंइत्यादि अनेक प्रकारके विशेषण निरूपित किये
हैं, उन्हें ज्योंका त्यों मानता हुआ उस करणानुयोगका अभ्यास करता है।
इस अभ्याससे तत्त्वज्ञान निर्मल होता है। जैसेकोई यह तो जानता था कि यह
रत्न है, परन्तु उस रत्नके बहुतसे विशेष जानने पर निर्मल रत्नका पारखी होता है; उसीप्रकार
तत्त्वोंको जानता था कि यह जीवादिक हैं, परन्तु उन तत्त्वोंके बहुत विशेष जाने तो निर्मल
तत्त्वज्ञान होता है। तत्त्वज्ञान निर्मल होने पर आप ही विशेष धर्मात्मा होता है।
तथा अन्य ठिकाने उपयोगको लगाये तो रागादिककी वृद्धि होती है और छद्मस्थका
उपयोग निरन्तर एकाग्र नहीं रहता; इसलिये ज्ञानी इस करणानुयोगके अभ्यासमें उपयोगको
लगाता है, उससे केवलज्ञान द्वारा देखे गये पदार्थोंका जानपना इसके होता है; प्रत्यक्ष-
अप्रत्यक्षका ही भेद है, भासित होनेमें विरुद्धता नहीं है।
इसप्रकार यह करणानुयोगका प्रयोजन जानना।
‘करण’ अर्थात् गणित-कार्यके कारणरूप सूत्र, उनका जिसमें ‘अनुयोग’
अधिकार हो
वह करणानुयोग है। इसमें गणित वर्णनकी मुख्यता हैऐसा जानना।
चरणानुयोगका प्रयोजन
अब चरणानुयोगका प्रयोजन कहते हैं। चरणानुयोगमें नानाप्रकार धर्मके साधन निरूपित
करके जीवोंको धर्ममें लगाते हैं। जो जीव हित-अहितको नहीं जानते, हिंसादिक पापकार्योंमें
तत्पर हो रहते हैं; उन्हें जिस प्रकार पापकार्योंको छोड़कर धर्मकार्योंमें लगें, उस प्रकार उपदेश
दिया है; उसे जानकर जो धर्म-आचरण करनेको सन्मुख हुए, वे जीव गृहस्थधर्म व मुनिधर्मका
विधान सुनकर आपसे जैसा सधे वैसे धर्म-साधनमें लगते हैं।
ऐसे साधनसे कषाय मन्द होती है और उसके फलमें इतना तो होता है कि कुगतिमें
दुःख नहीं पाते, किन्तु सुगतिमें सुख प्राप्त करते हैं; तथा ऐसे साधनसे जिनमतका निमित्त
बना रहता है, वहाँ तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति होना हो तो हो जाती है।
तथा जो जीव तत्त्वज्ञानी होकर चरणानुयोगका अभ्यास करते हैं, उन्हें यह सर्व आचरण

Page 261 of 350
PDF/HTML Page 289 of 378
single page version

-
आठवाँ अधिकार ][ २७१
अपने वीतरागभावके अनुसार भासित होते हैं। एकदेश व सर्वदेश वीतरागता होने पर ऐसी
श्रावकदशा
मुनिदशा होती है; क्योंकि इनके निमित्त-नैमित्तिकपना पाया जाता है। ऐसा जानकर
श्रावकमुनिधर्मके विशेष पहिचानकर जैसा अपना वीतरागभाव हुआ हो वैसा अपने योग्य धर्मको
साधते हैं। वहाँ जितने अंशमें वीतरागता होती है उसे कार्यकारी जानते हैं, जितने अंशमें राग
रहता है उसे हेय मानते हैं; सम्पूर्ण वीतरागताको परम धर्म मानते हैं।
ऐसा चरणानुयोगका प्रयोजन है।
द्रव्यानुयोगका प्रयोजन
अब द्रव्यानुयोगका प्रयोजन कहते हैं। द्रव्यानुयोगमें द्रव्योंका व तत्त्वोंका निरूपण करके
जीवोंको धर्ममें लगाते हैं। जो जीव जीवादिक द्रव्योंको व तत्त्वोंको नहीं पहिचानते, आपको
परको भिन्न नहीं जानते; उन्हें हेतुदृष्टान्तयुक्ति द्वारा व प्रमाण-नयादि द्वारा उनका स्वरूप
इस प्रकार दिखाया है जिससे उनको प्रतीति हो जाये। उसके अभ्याससे अनादि अज्ञानता
दूर होती है। अन्यमत कल्पित तत्त्वादिक झूठ भासित हों तब जिनमत की प्रतीति हो और
उनके भावको पहिचाननेका अभ्यास रखें, तो शीघ्र ही तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति हो जाये।
तथा जिनके तत्त्वज्ञान हुआ हो वे जीव द्रव्यानुयोगका अभ्यास करें तो उन्हें अपने
श्रद्धानके अनुसार वह सर्व कथन प्रतिभासित होते हैं। जैसेकिसीने कोई विद्या सीख ली,
परन्तु यदि उसका अभ्यास करता रहे तो वह याद रहती है, न करे तो भूल जाता है।
इसप्रकार इसको तत्त्वज्ञान हुआ, परन्तु यदि उसके प्रतिपादक द्रव्यानुयोगका अभ्यास करता
रहे तो वह तत्त्वज्ञान रहता है, न करे तो भूल जाता है। अथवा संक्षेपरूपसे तत्त्वज्ञान
हुआ था, वह नाना युक्ति
हेतुदृष्टान्तादि द्वारा स्पष्ट हो जाये तो उसमें शिथिलता नहीं हो
सकती। तथा इस अभ्याससे रागादि घटनेसे शीघ्र मोक्ष सधता है।
इसप्रकार द्रव्यानुयोगका प्रयोजन जानना।
अनुयोगोंके व्याख्यानका विधान
अब इन अनुयोगोंमें किस प्रकार व्याख्यान है, सो कहते हैंः
प्रथमानुयोगके व्याख्यानका विधान
प्रथमानुयोगमें जो मूल कथाएँ हैं; वे तो जैसी हैं, वैसी ही निरूपित करते हैं। तथा
उनमें प्रसंगोपात व्याख्यान होता है; वह कोई तो ज्योंका त्यों होता है, कोई ग्रन्थकर्ताके
विचारानुसार होता है; परन्तु प्रयोजन अन्यथा नहीं होता।

Page 262 of 350
PDF/HTML Page 290 of 378
single page version

-
२७२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
उदाहरणःजैसेतीर्थंकर देवोंके कल्याणकोंमें इन्द्र आये, यह कथा तो सत्य है।
तथा इन्द्रने स्तुतिकी, उसका व्याख्यान किया; सो इन्द्रने तो अन्य प्रकारसे ही स्तुति की थी
और यहाँ ग्रन्थकर्ताने अन्य ही प्रकारसे स्तुति करना लिखा है; परन्तु स्तुतिरूप प्रयोजन अन्यथा
नहीं हुआ। तथा परस्पर किन्हींके वचनालाप हुआ; वहाँ उनके तो ही अन्य प्रकार अक्षर
निकले थे, यहाँ ग्रन्थकर्ताने अन्य प्रकार कहे; परन्तु प्रयोजन एक ही दिखलाते हैं। तथा
नगर, वन, संग्रामादिकके नामादिक तो यथावत् ही लिखते हैं और वर्णन हीनाधिक भी
प्रयोजनका पोषण करता हुआ निरूपित करते हैं।
इत्यादि इसी प्रकार जानना।
तथा प्रसंगरूप कथा भी ग्रन्थकर्ता अपने विचारानुसार कहते हैं। जैसेधर्मपरीक्षामें
मूर्खोंकी कथा लिखी; सो वही कथा मनोवेगने कही थी ऐसा नियम नहीं है; परन्तु मूर्खपनेका
पोषण करनेवाली कोई कथा कही थी ऐसे अभिप्रायका पोषण करते हैं। इसीप्रकार अन्यत्र
जानना।
यहाँ कोई कहेअयथार्थ कहना तो जैन-शास्त्रमें सम्भव नहीं है?
उत्तरःअन्यथा तो उसका नाम है जो प्रयोजन अन्यका अन्य प्रगट करे। जैसे
किसीसे कहा कि तू ऐसा कहना, उसने वे ही अक्षर नहीं कहे, परन्तु उसी प्रयोजन सहित
कहे तो उसे मिथ्यावादी नहीं कहते
ऐसा जानना। यदि जैसेका तैसा लिखनेका सम्प्रदाय हो
तो किसीने बहुत प्रकारसे वैराग्य चिन्तवन किया था उसका सर्व वर्णन लिखनेसे ग्रन्थ बढ़
जायेगा, तथा कुछ न लिखनेसे उसका भाव भासित नहीं होगा, इसलिये वैराग्यके ठिकाने
थोड़ा-बहुत अपने विचारके अनुसार वैराग्य-पोषक ही कथन करेंगे, सराग-पोषक कथन नहीं
करेंगे। वहाँ प्रयोजन अन्यथा नहीं हुआ इसलिये अयथार्थ नहीं कहते। इसीप्रकार अन्यत्र
जानना।
तथा प्रथमानुयोगमें जिसकी मुख्यता हो उसीका पोषण करते हैं। जैसेकिसीने उपवास
किया, उसका तो फल अल्प था, परन्तु उसे अन्य धर्मपरिणतिकी विशेषता हुई, इसलिये
विशेष उच्चपदकी प्राप्ति हुई, वहाँ उसको उपवासका ही फल निरूपित करते हैं। इसीप्रकार
अन्य जानना।
तथा जिस प्रकार किसीने शीलादिककी प्रतिज्ञा दृढ़ रखी व नमस्कारमन्त्रका स्मरण
किया व अन्य धर्म-साधन किया, उसके कष्ट दूर हुए, अतिशय प्रगट हुए; वहाँ उन्हींका
वैसा फल नहीं हुआ है, परन्तु अन्य किसी कर्मके उदयसे वैसे कार्य हुए हैं; तथापि उनको
उन शीलादिकका ही फल निरूपित करते हैं। उसी प्रकार कोई पापकार्य किया, उसको उसीका

Page 263 of 350
PDF/HTML Page 291 of 378
single page version

-
आठवाँ अधिकार ][ २७३
तो वैसा फल नहीं हुआ है, परन्तु अन्य कर्मके उदयसे नीचगतिको प्राप्त हुआ अथवा कष्टादिक
हुए; उसे उसी पापकार्यका फल निरूपित करते हैं।
इत्यादि इसी प्रकार जानना।
यहाँ कोई कहेऐसा झूठ फल दिखलाना तो योग्य नहीं है; ऐसे कथनको प्रमाण
कैसे करें?
समाधानःजो अज्ञानी जीव बहुत फल दिखाये बिना धर्ममें न लगें व पाप से न
डरें, उनका भला करनेके अर्थ ऐसा वर्णन करते हैं। झूठ तो तब हो, जब धर्मके फलको
पापका फल बतलायें, पापके फलको धर्मका फल बतलायें, परन्तु ऐसा तो है नहीं। जैसे
दस पुरुष मिलकर कोई कार्य करें, वहाँ उपचारसे एक पुरुषका भी किया कहा जाये तो
दोष नहीं है। अथवा जिसके पितादिकने कोई कार्य किये हों, उसे एक जाति-अपेक्षा उपचारसे
पुत्रादिकका किया कहा जाये तो दोष नहीं है। उसी प्रकार बहुत शुभ व अशुभ कार्योंका
एक फल हुआ, उसे उपचारसे एक शुभ व अशुभकार्यका फल कहा जाये तो दोष नहीं
है। अथवा अन्य शुभ व अशुभकार्यका फल जो हुआ हो उसे एक जाति-अपेक्षा उपचारसे
किसी अन्य ही शुभकार्यका फल कहें तो दोष नहीं है।
उपदेशमें कहीं व्यवहारवर्णन है, कहीं निश्चयवर्णन है। यहाँ उपचाररूप व्यवहारवर्णन
किया है, इसप्रकार इसे प्रमाण करते हैं। इसको तारतम्य नहीं मान लेना; तारतम्यका तो
करणानुयोगमें निरूपण किया है, सो जानना।
तथा प्रथमानुयोगमें उपचाररूप किसी धर्मका अंग होने पर सम्पूर्ण धर्म हुआ कहते
हैं। जैसेजिन जीवोंके शंका-कांक्षादिक नहीं हुए, उनको सम्यक्त्व हुआ कहते हैं; परन्तु किसी
एक कार्यमें शंका-कांक्षा न करनेसे ही तो सम्यक्त्व नहीं होता, सम्यक्त्व तो तत्त्वश्रद्धान होने
पर होता है; परन्तु निश्चयसम्यक्त्वका तो व्यवहारसम्यक्त्वमें उपचार किया और
व्यवहारसम्यक्त्वके किसी एक अंगमें सम्पूर्ण व्यवहारसम्यक्त्वका उपचार किया
इसप्रकार उपचार
द्वारा सम्यक्त्व हुआ कहते हैं।
तथा किसी जैनशास्त्रका एक अंग जानने पर सम्यग्ज्ञान हुआ कहते हैं। सो संशयादि
रहित तत्त्वज्ञान होने पर सम्यग्ज्ञान होता है; परन्तु यहाँ पूर्ववत् उपचारसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं।
तथा कोई भला आचरण होने पर सम्यक्चारित्र हुआ कहते हैं। वहाँ जिसने जैनधर्म
अंगीकार किया हो व कोई छोटी-मोटी प्रतिज्ञा ग्रहण की हो; उसे श्रावक कहते हैं। सो
श्रावक तो पंचमगुणस्थानवर्ती होने पर होता है; परन्तु पूर्ववत् उपचारसे इसे श्रावक कहा
है। उत्तरपुराणमें श्रेणिकको श्रावकोत्तम कहा है सो वह तो असंयत था; परन्तु जैन था
इसलिये कहा है। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।

Page 264 of 350
PDF/HTML Page 292 of 378
single page version

-
२७४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा जो सम्यक्त्वरहित मुनिलिंग धारण करे, व द्रव्यसे भी कोई प्रतिचार लगाता हो,
उसे मुनि कहते हैं। सो मुनि तो षष्ठादि गुणस्थानवर्ती होने पर होता है; परन्तु पूर्ववत् उपचारसे
उसे मुनि कहा है। समवसरणसभामें मुनियोंकी संख्या कही, वहाँ सर्व ही शुद्ध भावलिंगी
मुनि नहीं थे; परन्तु मुनिलिंग धारण करनेसे सभीको मुनि कहा। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
तथा प्रथमानुयोगमें कोई धर्मबुद्धिसे अनुचित कार्य करे उसकी भी प्रशंसा करते हैं।
जैसेविष्णुकुमारने मुनियोंका उपसर्ग दूर किया सो धर्मानुरागसे किया; परन्तु मुनिपद छोड़कर
यह कार्य करना योग्य नहीं था; क्योंकि ऐसा कार्य तो गृहस्थधर्ममें सम्भव है और गृहस्थधर्मसे
मुनिधर्म ऊँचा है; सो ऊँचा धर्म छोड़कर नीचा धर्म अंगीकार किया वह अयोग्य है; परन्तु
वात्सल्य अंगकी प्रधानतासे विष्णुकुमारजीकी प्रशंसा की है। इस छलसे औरोंको ऊँचा धर्म
छोड़कर नीचा धर्म अंगीकार करना योग्य नहीं है।
तथा जिस प्रकार ग्वालेने मुनिको अग्निसे तपाया, सो करुणासे यह कार्य किया; परन्तु
आये हुए उपसर्गको तो दूर करे, सहज अवस्थामें जो शीतादिकका परीषह होता है, उसे
दूर करने पर रति माननेका कारण होता है और उन्हें रति करना नहीं है, तब उल्टा उपसर्ग
होता है। इसीसे विवेकी उनके शीतादिकका उपचार नहीं करते। ग्वाला अविवेकी था,
करुणासे यह कार्य किया, इसलिये उसकी प्रशंसा की है, परन्तु छलसे औरोंको धर्मपद्धतिमें
जो विरुद्ध हो वह करना योग्य नहीं है।
तथा जैसेवज्रकरण राजाने सिंहोदर राजाको नमन नहीं किया, मुद्रिकामें प्रतिमा रखी;
सो बड़े-बड़े सम्यग्दृष्टि राजादिकको नमन करते हैं, उसमें दोष नहीं है; तथा मुद्रिकामें प्रतिमा
रखनेमें अविनय होती है, यथावत् विधिसे ऐसी प्रतिमा नहीं होती, इसलिये इस कार्यमें दोष
है; परन्तु उसे ऐसा ज्ञान नहीं था, उसे तो धर्मानुरागसे ‘मैं और को नमन नहीं करूँगा’
ऐसी बुद्धि हुई; इसलिये उसकी प्रशंसा की है। परन्तु इस छलसे औरोंको ऐसे कार्य करना
योग्य नहीं है।
तथा कितने ही पुरुषोंने पुत्रादिककी प्राप्तिके अर्थ अथवा रोगकष्टादि दूर करनेके
अर्थ चैत्यालय पूजनादि कार्य किये, स्तोत्रादि किये, नमस्कारमन्त्र स्मरण किया; परन्तु ऐसा
करनेसे तो निःकांक्षितगुणका अभाव होता है, निदानबन्ध नामक आर्तध्यान होता है, पापका
ही प्रयोजन अन्तरंगमें है, इसलिये पापका ही बन्ध होता है; परन्तु मोहित होकर बहुत
पापबन्धका कारण कुदेवादिका तो पूजनादि नहीं किया, इतना उसका गुण ग्रहण करके उसकी
प्रशंसा करते हैं। इस छलसे औरोंको लौकिक कार्योंके अर्थ धर्म-साधन करना युक्त नहीं है।
इसीप्रकार अन्यत्र जानना।

Page 265 of 350
PDF/HTML Page 293 of 378
single page version

-
आठवाँ अधिकार ][ २७५
इसी प्रकार प्रथमानुयोगमें अन्य कथन भी हों, उन्हें यथासम्भव जानकर भ्रमरूप नहीं
होना।
करणानुयोगके व्याख्यानका विधान
अब, करणानुयोगमें किसप्रकार व्याख्यान है सो कहते हैंः
जैसा केवलज्ञान द्वारा जाना वैसा करणानुयोगमें व्याख्यान है। तथा केवलज्ञान द्वारा
तो बहुत जाना, परन्तु जीवके कार्यकारी जीवकर्मादिकका व त्रिलोकादिकका ही निरूपण
इसमें होता है। तथा उनका भी स्वरूप सर्व निरूपित नहीं हो सकता, इसलिये जिस प्रकार
वचनगोचर होकर छद्मस्थके ज्ञानमें उनका कुछ भाव भासित हो, उस प्रकार संकुचित करके
निरूपण करते हैं। यहाँ उदाहरण
जीवके भावोंकी अपेक्षा गुणस्थान कहे हैं, वे भाव
अनन्तस्वरूपसहित वचनगोचर नहीं हैं, वहाँ बहुत भावोंकी एक जाति करके चौदह गुणस्थान
कहे हैं। तथा जीवोंको जाननेके अनेक प्रकार हैं, वहाँ मुख्य चौदह मार्गणाका निरूपण किया
है। तथा कर्मपरमाणु अनन्त प्रकार शक्तियुक्त हैं, उनमें बहुतोंको एक जाति करके आठ
व एक सौ अड़तालीस प्रकृतियाँ कही हैं। तथा त्रिलोकमें अनेक रचनाएँ हैं, वहाँ कुछ मुख्य
रचनाओंका निरूपण कहते हैं। तथा प्रमाणके अनन्त भेद हैं, वहाँ संख्यातादि तीन भेद व
इनके इक्कीस भेद निरूपित किये हैं। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
तथा करणानुयोगमें यद्यपि वस्तुके क्षेत्र, काल, भावादिक अखंडित हैं; तथापि छद्मस्थको
हीनादिक ज्ञान होनेके अर्थ प्रदेश, समय, अविभाग-प्रतिच्छेदादिककी कल्पना करके उनका प्रमाण
निरूपित करते हैं। तथा एक वस्तुमें भिन्न-भिन्न गुणोंका व पर्यायोंका भेद करके निरूपण
करते हैं। तथा जीव-पुद्गलादिक यद्यपि भिन्न-भिन्न हैं; तथापि सम्बन्धादिक द्वारा अनेक द्रव्यसे
उत्पन्न गति, जाति आदि भेदोंको एक जीवके निरूपित करते हैं,
इत्यादि व्याख्यान
व्यवहारनयकी प्रधानता सहित जानना, क्योंकि व्यवहारके बिना विशेष नहीं जान सकता।
तथा कहीं निश्चयवर्णन भी पाया जाता है। जैसे
जीवादिक द्रव्योंका प्रमाण निरूपण किया,
वहाँ भिन्न-भिन्न इतने ही द्रव्य हैं। वह यथासम्भव जान लेना।
तथा करणानुयोगमें जो कथन हैं वे कितने ही तो छद्मस्थके प्रत्यक्ष-अनुमानादिगोचर
होते हैं, तथा जो न हों उन्हें आज्ञाप्रमाण द्वारा मानना। जिस प्रकार जीव-पुद्गलके स्थूल
बहुत कालस्थायी मनुष्यादि पर्यायें व घटादि पर्यायें निरूपित कीं, उनके तो प्रत्यक्ष अनुमानादि
हो सकते हैं; परन्तु प्रतिसमय सूक्ष्मपरिणमनकी अपेक्षा ज्ञानादिकके व स्निग्ध-रूक्षादिकके अंश
निरूपित किये हैं वे आज्ञासे ही प्रमाण होते हैं। इसी प्रकार अन्यत्र जानना।

Page 266 of 350
PDF/HTML Page 294 of 378
single page version

-
२७६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा करणानुयोगमें छद्मस्थोंकी प्रवृत्तिके अनुसार वर्णन नहीं किया है, केवल- ज्ञानगम्य
पदार्थोंका निरूपण है। जिस प्रकार कितने ही जीव तो द्रव्यादिकका विचार करते हैं व
व्रतादिक पालते हैं; परन्तु उनके अन्तरंग सम्यक्त्वचारित्र शक्ति नहीं है, इसलिये उनको
मिथ्यादृष्टि
अव्रती कहते हैं। तथा कितने ही जीव द्रव्यादिकके व व्रतादिकके विचार रहित
हैं, अन्य कार्योंमें प्रवर्तते हैं, व निद्रादि द्वारा निर्विचार हो रहे हैं; परन्तु उनके सम्यक्त्वादि
शक्तिका सद्भाव है, इसलिये उनको सम्यक्त्वी व व्रती कहते हैं।
तथा किसी जीवके कषायोंकी प्रवृत्ति तो बहुत है और उसके अंतरंग कषायशक्ति थोड़ी
है, तो उसे मन्दकषायी कहते हैं। तथा किसी जीवके कषायोंकी प्रवृत्ति तो थोड़ी है और उनके
अंतरंग कषायशक्ति बहुत है, तो उसे तीव्रकषायी कहते हैं। जैसे
व्यंतरादिक देव कषायोंसे
नगर नाशादि कार्य करते हैं, तथापि उनके थोड़ी कषायशक्तिसे पीत लेश्या कही है। और
एकेन्द्रियादिक जीव कषायकार्य करते दिखाई नहीं देते, तथापि उनके बहुत कषायशक्तिसे कृष्णादि
लेश्या कही है। तथा सर्वार्थसिद्धिके देव कषायरूप थोड़े प्रवर्तते हैं, उनके बहुत कषायशक्तिसे
असंयम कहा है। और पंचम गुणस्थानी व्यापार, अब्रह्मादि कषायकार्यरूप बहुत प्रवर्तते हैं;
उनके मन्दकषायशक्तिसे देशसंयम कहा है। इसी प्रकार अन्यत्र जानना।
तथा किसी जीवके मन-वचन-कायकी चेष्टा थोड़ी होती दिखाई दे, तथापि कर्माकर्षण
शक्तिकी अपेक्षा बहुत योग कहा है। किसीके चेष्टा बहुत दिखाई दे, तथापि शक्तिकी हीनतासे
अल्प योग कहा है। जैसे
केवली गमनादि क्रियारहित हुए, वहाँ भी उनके योग बहुत कहा
है। द्वीन्द्रियादिक जीव गमनादि करते हैं, तथापि उनके योग अल्प कहा है। इसीप्रकार
अन्यत्र जानना।
तथा कहीं जिसकी व्यक्तता कुछ भासित नहीं होती, तथापि सूक्ष्मशक्तिके सद्भावसे
उसका वहाँ अस्तित्व कहा है। जैसेमुनिके अब्रह्म कार्य कुछ नहीं है, तथापि नववें
गुणस्थानपर्यन्त मैथुन संज्ञा कही है। अहमिन्द्रोंके दुःखका कारण व्यक्त नहीं है, तथापि कदाचित्
असाताका उदय कहा है। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
तथा करणानुयोग सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रादिक धर्मका निरूपण कर्मप्रकृतियोंके
उपशमादिककी अपेक्षासहित, सूक्ष्मशक्ति जैसे पायी जाती है वैसे गुणस्थानादिमें निरूपण करता
है व सम्यग्दर्शनादिके विषयभूत जीवादिकोंका भी निरूपण सूक्ष्मभेदादि सहित करता है। यहाँ
कोई करणानुयोग अनुसार आप उद्यम करे तो हो नहीं सकता; करणानुयोगमें तो यथार्थ पदार्थ
बतलानेका मुख्य प्रयोजन है, आचरण करानेकी मुख्यता नहीं है। इसलिये यह तो

Page 267 of 350
PDF/HTML Page 295 of 378
single page version

-
आठवाँ अधिकार ][ २७७
चरणानुयोगादिकके अनुसार प्रवर्तन करे, उससे जो कार्य होना है वह स्वयमेव ही होता है।
जैसे
आप कर्मोके उपशमादि करना चाहे तो कैसे होंगे? आप तो तत्त्वादिकका निश्चय करनेका
उद्यम करे, उससे स्वयमेव ही उपशमादि सम्यक्त्व होते हैं। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
एक अन्तर्मुहूर्तमें ग्यारहवें गुणस्थानसे गिरकर क्रमशः मिथ्यादृष्टि होता है और चढ़कर
केवलज्ञान उत्पन्न करता है। सो ऐसे सम्यक्त्वादिके सूक्ष्मभाव बुद्धिगोचर नहीं होते। इसलिये
करणानुयोगके अनुसार जैसेका तैसा जान तो ले, परन्तु प्रवृत्ति बुद्धिगोचर जैसे भला हो वैसी करे।
तथा करणानुयोगमें कहीं उपदेशकी मुख्यता सहित व्याख्यान होता है, उसे सर्वथा उसी
प्रकार नहीं मानना। जैसेहिंसादिकके उपायको कुमतिज्ञान कहा है; अन्य मतादिकके
शास्त्राभ्यासको कुश्रुतज्ञान कहा है; बुरा दिखे, भला न दिखे, उसे विभंगज्ञान कहा है; सो इनको
छोड़नेके अर्थ उपदेश द्वारा ऐसा कहा है। तारतम्यसे मिथ्यादृष्टिके सभी ज्ञान कुज्ञान हैं,
सम्यग्दृष्टिके सभी ज्ञान सुज्ञान हैं। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
तथा कहीं स्थूल कथन किया हो उसे तारतम्यरूप नहीं जानना। जिस प्रकार व्याससे
तीनगुनी परिधि कही जाती है, परन्तु सूक्ष्मतासे कुछ अधिक तीनगुनी होती है। इसीप्रकार अन्यत्र
जानना।
तथा कहीं मुख्यताकी अपेक्षा व्याख्यान हो उसे सर्वप्रकार नहीं जानना। जैसेमिथ्यादृष्टि
और सासादन गुणस्थानवालोंको पापजीव कहा है, असंयतादि गुणस्थानवालोंको पुण्यजीव कहा
है, सो मुख्यपनेसे ऐसा कहा है; तारतम्यसे दोनोंके पाप-पुण्य यथासम्भव पाये जाते हैं।
इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
ऐसे ही और भी नानाप्रकार पाये जाते हैं, उन्हें यथासम्भव जानना।
इस प्रकार करणानुयोगमें व्याख्यानका विधान बतलाया।
चरणानुयोगके व्याख्यानका विधान
अब, चरणानुयोगमें व्याख्यानका विधान बतलाते हैंः
चरणानुयोगमें जिसप्रकार जीवोंके अपनी बुद्धिगोचर धर्मका आचरण हो वैसा उपदेश
दिया है। वहाँ धर्म तो निश्चयरूप मोक्षमार्ग है वही है, उसके साधनादिक उपचारसे धर्म
हैं। इसलिये व्यवहारनयकी प्रधानतासे नानाप्रकार उपचार-धर्मके भेदादिकोंका इसमें निरूपण
किया जाता है; क्योंकि निश्चयधर्ममें तो कुछ ग्रहण-त्यागका विकल्प नहीं है और इसके निचली
अवस्थामें विकल्प छूटता नहीं है; इसलिये इस जीवको धर्मविरोधी कार्योंको छुडा़नेका और
धर्मसाधनादि कार्योको ग्रहण करानेका उपदेश इसमें है।

Page 268 of 350
PDF/HTML Page 296 of 378
single page version

-
२७८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
वह उपदेश दो प्रकारसे दिया जाता हैएक तो व्यवहारका ही उपदेश देते हैं, एक
निश्चयसहित व्यवहारका उपदेश देते हैं।
वहाँ जिन जीवोंके निश्चयका ज्ञान नहीं है व उपदेश देने पर भी नहीं होता दिखाई
देता ऐसे मिथ्यादृष्टि जीव कुछ धर्मसन्मुख होने पर उन्हें व्यवहारका ही उपदेश देते हैं।
तथा जिन जीवोंको निश्चय
व्यवहारका ज्ञान है व उपदेश देने पर उनका ज्ञान होता दिखाई
देता हैऐसे सम्यग्दृष्टि जीव व सम्यक्त्वसन्मुख मिथ्यादृष्टि जीव उनको निश्चयसहित व्यवहारका
उपदेश देते हैं; क्योंकि श्रीगुरु सर्व जीवोंके उपकारी हैं।
सो असंज्ञी जीव तो उपदेश ग्रहण करने योग्य नहीं हैं, उनका तो उपकार इतना
ही किया कि और जीवोंको उनकी दयाका उपदेश दिया।
तथा जो जीव कर्मप्रबलतासे निश्चयमोक्षमार्गको प्राप्त नहीं हो सकते, उनका इतना ही
उपकार किया कि उन्हें व्यवहारधर्मका उपदेश देकर कुगतिके दुःखोंके कारण पापकार्य छुड़ाकर
सुगतिके इन्द्रियसुखोंके कारणरूप पुण्यकार्योंमें लगाया। वहाँ जितने दुःख मिटे उतना ही उपकार
हुआ।
तथा पापीको तो पापवासना ही रहती है और कुगतिमें जाता है, वहाँ धर्मका निमित्त
नहीं है, इसलिये परम्परासे दुःख ही प्राप्त करता रहता है। तथा पुण्यवानको धर्मवासना रहती
है और सुगतिमें जाता है, वहाँ धर्मके निमित्त प्राप्त होते हैं, इसलिये परम्परासे सुखको प्राप्त
करता है; अथवा कर्म शक्तिहीन हो जाये तो मोक्षमार्गको भी प्राप्त हो जाता है; इसलिये
व्यवहार-उपदेश द्वारा पापसे छुड़ाकर पुण्यकार्योंमें लगाते हैं।
तथा जो जीव मोक्षमार्गको प्राप्त हुए व प्राप्त होने योग्य हैं; उनका ऐसा उपकार
किया कि उनको निश्चयसहित व्यवहारका उपदेश देकर मोक्षमार्गमें प्रवर्तित किया।
श्रीगुरु तो सर्वका ऐसा ही उपकार करते हैं; परन्तु जिन जीवोंका ऐसा उपकार न
बने तो श्रीगुरु क्या करें?जैसा बना वैसा ही उपकार किया; इसलिये दो प्रकारसे उपदेश
देते हैं।
वहाँ व्यवहार-उपदेशमें तो बाह्य क्रियाओंकी ही प्रधानता है; उनके उपदेशसे जीव
पापक्रिया छोड़कर पुण्यक्रियाओंमें प्रवर्तता है, वहाँ क्रियाके अनुसार परिणाम भी तीव्रकषाय
छोड़कर कुछ मन्दकषायी हो जाते हैं, सो मुख्यरूपसे तो इस प्रकार है; परन्तु किसीके न
हों तो मत होओ, श्रीगुरु तो परिणाम सुधारनेके अर्थ बाह्य क्रियाओंका उपदेश देते हैं।

Page 269 of 350
PDF/HTML Page 297 of 378
single page version

-
आठवाँ अधिकार ][ २७९
तथा निश्चयसहित व्यवहारके उपदेशमें परिणामोंकी ही प्रधानता है; उसके उपदेशसे
तत्त्वज्ञानके अभ्यास द्वारा व वैराग्य-भावना द्वारा परिणाम सुधारे वहाँ परिणामके अनुसार
बाह्यक्रिया भी सुधर जाती है। परिणाम सुधरने पर बाह्यक्रिया सुधरती ही है; इसलिये श्रीगुरु
परिणाम सुधारनेका मुख्य उपदेश देते हैं।
इसप्रकार दो प्रकारके उपदेशमें जहाँ व्यवहारका ही उपदेश हो वहाँ सम्यग्दर्शनके अर्थ
अरहन्तदेव, निर्ग्रन्थ गुरु, दया-धर्मको ही मानना औरको नहीं मानना; तथा जीवादिक तत्त्वोंका
व्यवहारस्वरूप कहा है उसका श्रद्धान करना; शंकादि पच्चीस दोष न लगाना; निःशंकितादि
अंग व संवेगादिक गुणोंका पालन करना इत्यादि उपदेश देते हैं।
तथा सम्यग्ज्ञानके अर्थ जिनमतके शास्त्रोंका अभ्यास करना, अर्थव्यंजनादि अंगोंका
साधन करना इत्यादि उपदेश देते हैं। तथा सम्यक्चारित्रके अर्थ एकदेश व सर्वदेश हिंसादि
पापोंका त्याग करना, व्रतादि अंगोंका पालन करना इत्यादि उपदेश देते हैं। तथा किसी जीवके
विशेष धर्मका साधन न होता जानकर एक आखड़ी आदिकका ही उपदेश देते हैं। जैसे
भीलको कौएका माँस छुड़वाया, ग्वालेको नमस्कारमन्त्र जपनेका उपदेश दिया, गृहस्थको चैत्यालय,
पूजा-प्रभावनादि कार्यका उपदेश देते हैं,
इत्यादि जैसा जीव हो उसे वैसा उपदेश देते हैं।
तथा जहाँ निश्चयसहित व्यवहारका उपदेश हो, वहाँ सम्यग्दर्शनके अर्थ यथार्थ तत्त्वोंका
श्रद्धान कराते हैं। उनका तो निश्चयस्वरूप है सो भूतार्थ है, व्यवहारस्वरूप है सो उपचार
है
ऐसे श्रद्धानसहित व स्व-परके भेदज्ञान द्वारा परद्रव्यमें रागादि छोड़नेके प्रयोजनसहित उन
तत्त्वोंका श्रद्धान करनेका उपदेश देते हैं। ऐसे श्रद्धानसे अरहन्तादिके सिवा अन्य देवादिक
झूठ भासित हों तब स्वयमेव उनका मानना छूट जाता है, उसका भी निरूपण करते हैं।
तथा सम्यग्ज्ञानके अर्थ संशयादिरहित उन्हीं तत्त्वोंको उसी प्रकार जाननेका उपदेश देते हैं,
वह जाननेको कारण जिनशास्त्रोंका अभ्यास है। इसलिये उस प्रयोजनके अर्थ जिनशास्त्रोंका
भी अभ्यास स्वयमेव होता है; उसका निरूपण करते हैं। तथा सम्यक्चारित्रके अर्थ रागादि
दूर करनेका उपदेश देते हैं; वहाँ एकदेश व सर्वदेश तीव्ररागादिकका अभाव होने पर उनके
निमित्तसे जो एकदेश व सर्वदेश पापक्रिया होती थी वह छूटती है, तथा मंदरागसे श्रावक
मुनिके व्रतोंकी प्रवृत्ति होती है और मंदरागका भी अभाव होने पर शुद्धोपयोगकी प्रवृत्ति होती
है, उसका निरूपण करते हैं।
तथा यथार्थ श्रद्धान सहित सम्यग्दृष्टियोंके जैसे कोई यथार्थ आखड़ी होती है या भक्ति
होती है या पूजा-प्रभावनादि कार्य होते हैं या ध्यानादिक होते हैं उनका उपदेश देते हैं।
जिनमतमें जैसा सच्चा परम्परामार्ग है वैसा उपदेश देते हैं।

Page 270 of 350
PDF/HTML Page 298 of 378
single page version

-
२८० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
इस तरह दो प्रकारसे चरणानुयोगमें उपदेश जानना।
तथा चरणानुयोगमें तीव्र कषायोंका कार्य छुड़ाकर मंदकषायरूप कार्य करनेका उपदेश
देते हैं। यद्यपि कषाय करना बुरा ही है, तथापि सर्व कषाय न छूटते जानकर जितने कषाय
घटें उतना ही भला होगा
ऐसा प्रयोजन वहाँ जानना। जैसेजिन जीवोंके आरम्भादिक
करनेकी व मन्दिरादि बनवानेकी, व विषय सेवनकी व क्रोधादि करनेकी इच्छा सर्वथा दूर
होती न जाने, उन्हें पूजा-प्रभावनादिक करनेका व चैत्यालयादि बनवानेका व जिनदेवादिकके
आगे शोभादिक, नृत्य-गानादिक करनेका व धर्मात्मा पुरुषोंकी सहाय आदि करनेका उपदेश
देते हैं; क्योंकि इनमें परम्परा कषायका पोषण नहीं होता। पापकार्योंमें परम्परा कषायका
पोषण होता है, इसलिये पापकार्योंसे छुड़ाकर इन कार्योंमें लगाते हैं। तथा थोड़ा-बहुत जितना
छूटता जाने उतना पापकार्य छुड़ाकर उन्हें सम्यक्त्व व अणुव्रतादि पालनेका उपदेश देते हैं।
तथा जिन जीवोंके सर्वथा आरम्भादिककी इच्छा दूर हुई है, उनको पूर्वोक्त पूजादिक कार्य
व सर्व पापकार्य छुड़ाकर महाव्रतादि क्रियाओंका उपदेश देते हैं। तथा किंचित् रागादिक छूटते
जानकर उन्हें दया, धर्मोपदेश, प्रतिक्रमणादि कार्य करनेका उपदेश देते हैं। जहाँ सर्व राग
दूर हुआ हो वहाँ कुछ करनेका कार्य ही नहीं रहा; इसलिये उन्हें कुछ उपदेश ही नहीं है।
ऐसा क्रम जानना।
तथा चरणानुयोगमें कषायी जीवोंको कषाय उत्पन्न करके भी पापको छुड़ाते हैं और
धर्ममें लगाते हैं। जैसेपापका फल नरकादिकके दुःख दिखाकर उनको भय कषाय उत्पन्न
करके पापकार्य छुड़वाते हैं, तथा पुण्यके फल स्वर्गादिकके सुख दिखाकर उन्हें लोभ कषाय
उत्पन्न करके धर्मकार्योंमें लगाते हैं। तथा यह जीव इन्द्रियविषय, शरीर, पुत्र, धनादिकके
अनुरागसे पाप करता है, धर्म-पराङ्मुख रहता है; इसलिये इन्द्रियविषयोंको मरण, क्लेशादिके
कारण बतलाकर उनमें अरति कषाय कराते हैं। शरीरादिको अशुचि बतलाकर वहाँ जुगुप्सा
कषाय कराते हैं; पुत्रादिकको धनादिकके ग्राहक बतलाकर वहाँ द्वेष कराते हैं; तथा धनादिकको
मरण, क्लेशादिकका कारण बतलाकर वहाँ अनिष्टबुद्धि कराते हैं।
इत्यादि उपायोंसे विषयादिमें
तीव्र राग दूर होनेसे उनके पापक्रिया छूटकर धर्ममें प्रवृत्ति होती है। तथा नामस्मरण,
स्तुतिकरण, पूजा, दान, शीलादिकसे इस लोकमें दारिद्रय कष्ट दूर होते हैं, पुत्र-धनादिककी
प्राप्ति होती है,
इसप्रकार निरूपण द्वारा उनके लोभ उत्पन्न करके उन धर्मकार्योंमें लगाते हैं।
इसी प्रकार अन्य उदाहरण जानना।
यहाँ प्रश्न है कि कोई कषाय छुड़ाकर कोई कषाय करानेका प्रयोजन क्या?

Page 271 of 350
PDF/HTML Page 299 of 378
single page version

-
आठवाँ अधिकार ][ २८१
समाधानः जैसे रोग तो शीतांग भी है और ज्वर भी है; परन्तु किसीका शीतांगसे
मरण होता जाने, वहाँ वैद्य उसको ज्वर होनेका उपाय करता है और ज्वर होनेके पश्चात्
उसके जीनेकी आशा हो तब बादमें ज्वरको भी मिटानेका उपाय करता है। उसी प्रकार
कषाय तो सभी हेय हैं; परन्तु किन्हीं जीवोंके कषायोंसे पापकार्य होता जाने, वहाँ श्रीगुरु
उनको पुण्यकार्यके कारणभूत कषाय होनेका उपाय करते हैं, पश्चात् उसके सच्ची धर्मबुद्धि
हुई जानें तब बादमें वह कषाय मिटानेका उपाय करते हैं। ऐसा प्रयोजन जानना।
तथा चरणानुयोगमें जैसे जीव पाप छोड़कर धर्ममें लगें वैसे अनेक युक्तियों द्वारा वर्णन
करते हैं। वहाँ लौकिक दृष्टान्त, युक्ति, उदाहरण, न्यायवृत्तिके द्वारा समझाते हैं व कहीं
अन्यमतके भी उदाहरणादि कहते हैं। जैसे
‘सूक्तमुक्तावली’ में लक्ष्मीको कमलवासिनी कही
व समुद्रमें विष और लक्ष्मी उत्पन्न हुए उस अपेक्षा उसे विषकी भगिनी कही है। इसीप्रकार
अन्यत्र कहते हैं।
वहाँ कितने ही उदाहरणादि झूठे भी हैं; परन्तु सच्चे प्रयोजनका पोषण करते हैं, इसलिये
दोष नहीं है।
यहाँ कोई कहे कि झूठका तो दोष लगता है?
उसका उत्तरः
यदि झूठ भी है और सच्चे प्रयोजनका पोषण करे तो उसे झूठ नहीं
कहते। तथा सच भी है और झूठे प्रयोजनका पोषण करे तो वह झूठ ही है।
अलंकारयुक्तिनामादिकमें वचन अपेक्षा झूठ-सच नहीं है, प्रयोजन अपेक्षा झूठ-सच
है। जैसेतुच्छ शोभासहित नगरीको इन्द्रपुरीके समान कहते हैं सो झूठ है, परन्तु शोभाके
प्रयोजनका पोषण करता है, इसलिये झूठ नहीं है। तथा ‘इस नगरीमें छत्रको ही दंड है
अन्यत्र नहीं है’
ऐसा कहा सो झूठ है; अन्यत्र भी दण्ड देना पाया जाता है, परन्तु वहाँ
अन्यायवान थोड़े हैं और न्यायवानको दण्ड नहीं देते, ऐसे प्रयोजनका पोषण करता है, इसलिये
झूठ नहीं है। तथा बृहस्पतिका नाम ‘सुरगुरु’ लिखा है व मंगलका नाम ‘कुज’ लिखा है
सो ऐसे नाम अन्यमत अपेक्षा हैं।
इनका अक्षरार्थ है सो झूठा है; परन्तु वह नाम उस
पदार्थका अर्थ प्रगट करता है, इसलिये झूठ नहीं है।
इसप्रकार अन्य मतादिकके उदाहरणादि देते हैं सो झूठ हैं; परन्तु उदाहरणादिकका
तो श्रद्धान कराना है नहीं, श्रद्धान तो प्रयोजनका कराना है और प्रयोजन सच्चा है, इसलिये
दोष नहीं है।
तथा चरणानुयोगमें छद्मस्थकी बुद्धिगोचर स्थूलपनेकी अपेक्षासे लोकप्रवृत्तिकी मुख्यता

Page 272 of 350
PDF/HTML Page 300 of 378
single page version

-
२८२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
सहित उपदेश देते हैं; परन्तु केवलज्ञानगोचर सूक्ष्मपनेकी अपेक्षा नहीं देते; क्योंकि उसका
आचरण नहीं हो सकता। यहाँ आचरण करनेका प्रयोजन है।
जैसेअणुव्रतीके त्रसहिंसाका त्याग कहा है और उसके स्त्री-सेवनादि क्रियाओंमें त्रसहिंसा
होती है। यह भी जानता है कि जिनवाणीमें यहाँ त्रस कहे हैं; परन्तु इसके त्रस मारनेका
अभिप्राय नहीं है और लोकमें जिसका नाम त्रसघात है उसे नहीं करता है; इसलिये उस
अपेक्षा उसके त्रसहिंसाका त्याग है।
तथा मुनिके स्थावरहिंसाका भी त्याग कहा है; परन्तु मुनि, पृथ्वी, जलादिमें गमनादि
करते हैं वहाँ सर्वथा त्रसका भी अभाव नहीं है; क्योंकि त्रस जीवोंकी भी अवगाहना इतनी
छोटी होती है कि जो दृष्टिगोचर न हो और उनकी स्थिति पृथ्वी, जलादिकमें ही है
ऐसा
मुनि जिनवाणीसे जानते हैं व कदाचित् अवधिज्ञानादि द्वारा भी जानते हैं; परन्तु उनके प्रमादसे
स्थावर-त्रसहिंसाका अभिप्राय नहीं है। तथा लोकमें भूमि खोदना तथा अप्रासुक जलसे क्रिया
करना इत्यादि प्रवृत्तिका नाम स्थावरहिंसा है और स्थूल त्रस जीवोंको पीड़ित करनेका नाम
त्रसहिंसा है
उसे नहीं करते; इसलिये मुनिको सर्वथा हिंसाका त्याग कहते हैं। तथा इसीप्रकार
असत्य, स्तेय, अब्रह्म, परिग्रहका त्याग कहा है।
केवलज्ञानके जाननेकी अपेक्षा तो असत्यवचनयोग बारहवें गुणस्थानपर्यन्त कहा है,
अदत्तकर्मपरमाणु आदि परद्रव्यका ग्रहण तेरहवें गुणस्थानपर्यन्त है, वेदका उदय नववें गुणस्थान-
पर्यन्त है, अन्तरंग परिग्रह दसवें गुणस्थानपर्यन्त है, बाह्यपरिग्रह समवसरणादि केवलीके भी होता
है; परन्तु (मुनिको) प्रमादसे पापरूप अभिप्राय नहीं है और लोकप्रवृत्तिमें जिन क्रियाओं द्वारा
‘यह झूठ बोलता है, चोरी करता है, कुशील सेवन करता है, परिग्रह रखता है’
इत्यादि नाम
पाता है, वे क्रियाएँ इनके नहीं है; इसलिये असत्यादिका इनके त्याग कहा जाता है।
तथा जिस प्रकार मुनिके मूलगुणोंमें पंचेन्द्रियोंके विषयका त्याग कहा है; परन्तु इन्द्रियोंका
जानना तो मिटता नहीं है और विषयोंमें राग-द्वेष सर्वथा दूर हुआ हो तो यथाख्यातचारित्र
हो जाये सो हुआ नहीं है; परन्तु स्थूलरूपसे विषयेच्छाका अभाव हुआ है और बाह्यविषयसामग्री
मिलानेकी प्रवृत्ति दूर हुई है; इसलिये उनके इन्द्रियविषयका त्याग कहा है।
इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
तथा व्रती जीव त्याग व आचरण करता है सो चरणानुयोगकी पद्धति अनुसार व
लोकप्रवृत्तिके अनुसार त्याग करता है। जैसेकिसीने त्रसहिंसाका त्याग किया, वहाँ
चरणानुयोगमें व लोकमें जिसे त्रसहिंसा कहते हैं उसका त्याग किया है, केवलज्ञानादि द्वारा
जो त्रस देखे जाते हैं उनकी हिंसाका त्याग बनता ही नहीं। वहाँ जिस त्रसहिंसाका त्याग