Page 253 of 350
PDF/HTML Page 281 of 378
single page version
समान या असमान होते हैं; परन्तु ऊपरके समयवालोंके परिणाम उस समय समान सर्वथा नहीं
होते, अपूर्व ही होते हैं। इसप्रकार अपूर्वकरण
होते हैं, उसी प्रकार द्वितीयादि समयोंमें परस्पर समानता जानना; तथा प्रथमादि समयवालोंसे
द्वितीयादि समयवालोंके अनन्तगुनी विशुद्धता सहित होते हैं। इसप्रकार अनिवृत्तिकरण
वहाँ पहले अन्तर्मुहूर्त कालपर्यंत अधःकरण होता है। वहाँ चार आवश्यक होते हैं
समय अनन्तगुना बढ़ता है; और अप्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग-बन्ध समय-समय अनन्तवें भाग
होता है
अनुभागको घटाता है सो अनुभागकाण्डकघात है; तथा गुणश्रेणीके कालमें क्रमशः असंख्यातगुने
प्रमाणसहित कर्मोंको निर्जराके योग्य करता है सो गुणश्रेणी निर्जरा है। तथा गुण-संक्रमण
यहाँ नहीं होता, परन्तु अन्यत्र अपूर्वकरण हो वहाँ होता है।
तम्हा बिदियं करणं अपुव्वकरणेत्ति णिद्दिट्ठं।।५१।। (लब्धिसार)
करणं परिणामो अपुव्वाणि च ताणि करणाणि च अपुव्वकरणाणि,
असमाणपरिणामा त्ति जं उत्तं होदि।।
ण णिवट्टंति तहा विय परिणामेहिं मिहो जेहिं।।५६।।
Page 254 of 350
PDF/HTML Page 282 of 378
single page version
अन्तरकरण
है। तथा अन्तरकरण करनेके पश्चात् उपशमकरण करता है। अन्तरकरण द्वारा अभावरूप
किये निषेकोंके ऊपरवाले जो मिथ्यात्वके निषेक हैं उनको उदय आनेके अयोग्य बनाता है।
इत्यादिक क्रिया द्वारा अनिवृत्तिकरणके अन्तसमयके अनन्तर जिन निषेकोंका अभाव किया था,
उनका काल आये, तब निषेकोंके बिना उदय किसका आयेगा? इसलिये मिथ्यात्वका उदय
न होनेसे प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है। अनादि मिथ्यादृष्टिके सम्यक्त्व मोहनीय और
मिश्र मोहनीयकी सत्ता नहीं है, इसलिये वह एक मिथ्यात्वकर्मका ही उपशम करके उपशम
सम्यग्दृष्टि होता है। तथा कोई जीव सम्यक्त्व पाकर फि र भ्रष्ट होता है, उसकी दशा भी
अनादि मिथ्यादृष्टि जैसी हो जाती है।
समाधान
सन्देह हुआ कि इसप्रकार है या इसप्रकार? अथवा ‘न जाने किस प्रकार है?’ अथवा उस
शिक्षाको झूठ जानकर उससे विपरीतता हुई तब उसे अप्रतीति हुई और उसके उस शिक्षाकी
प्रतीतिका अभाव हो गया। अथवा पहले तो अन्यथा प्रतीति थी ही, बीचमें शिक्षाके विचारसे
यथार्थ प्रतीति हुई थी; परन्तु उस शिक्षाका विचार किये बहुत काल हो गया, तब उसे भूलकर
जैसी पहले अन्यथा प्रतीति थी वैसी ही स्वयमेव हो गई। तब उस शिक्षाकी प्रतीतिका अभाव
हो जाता है। अथवा यथार्थ प्रतीति पहले तो की, पश्चात् न तो कोई अन्यथा विचार किया,
न बहुत काल हुआ; परन्तु वैसे ही कर्मोदयसे होनहारके अनुसार स्वयमेव ही उस प्रतीतिका
अभाव होकर अन्यथापना हुआ। ऐसे अनेक प्रकारसे उस शिक्षाकी यथार्थ प्रतीतिका अभाव
हैं।
Page 255 of 350
PDF/HTML Page 283 of 378
single page version
‘ऐसे ही है’ ऐसा श्रद्धान हुआ, पश्चात् जैसे पहले कहे थे वैसे अनेक प्रकारसे उस यथार्थ
श्रद्धानका अभाव होता है। यह कथन स्थूलरूपसे बतलाया है; तारतम्यसे तो केवलज्ञानमें
भासित होता है कि
सम्यक् श्रद्धानका अभाव होता है। और उसका उदय न हो तब अन्य कारण मिलें या
न मिलें, स्वयमेव सम्यक् श्रद्धान हो जाता है। सो ऐसी अन्तरंग समय-समय सम्बन्धी
सूक्ष्मदशाका जानना छद्मस्थको नहीं होता, इसलिये इसे अपनी मिथ्या-सम्यक् श्रद्धानरूप
अवस्थाके तारतम्यका निश्चय नहीं हो सकता; केवलज्ञानमें भासित होता है।
दर्शनमोहकी तीन प्रकृतियोंकी सत्ता होती है, सो तीनोंका उपशम करके प्रथमोपशम सम्यक्त्वी
होता है। अथवा किसीके सम्यक्त्व मोहनीयका उदय आता है, दो प्रकृतियोंका उदय नहीं
होता, वह क्षयोपशम सम्यक्त्वी होता है; उसके गुणश्रेणी आदि क्रिया नहीं होती तथा
अनिवृत्तिकरण नहीं होता। तथा किसीको मिश्रमोहनीयका उदय आता है, दो प्रकृतियोंका
उदय नहीं होता, वह मिश्रगुणस्थानको प्राप्त होता है, उसके करण नहीं होते।
ही प्राप्त करता है, इसलिये उसका कथन यहाँ नहीं किया है। इसप्रकार सादि मिथ्यादृष्टिका
जघन्य तो मध्यम अन्तर्मुहूर्तमात्र, उत्कृष्ट किंचित् न्यून अर्द्धपुद्गलपरावर्तनमात्र काल जानना।
है और कोई नित्य निगोदसे निकलकर मनुष्य होकर मिथ्यात्व छूटनेके पश्चात् अन्तर्मुहूर्तमें
केवलज्ञान प्राप्त करता है। ऐसा जानकर अपने परिणाम बिगाड़नेका भय रखना और उनके
सुधारनेका उपाय करना।
ही सम्यक्त्वकी प्राप्ति हो जाती है। तथा बहुत काल तक मिथ्यात्वका उदय रहे तो जैसी
Page 256 of 350
PDF/HTML Page 284 of 378
single page version
वह ग्रहण करता है और निगोदादिमें भी रुलता है। इसका कोई प्रमाण नहीं है।
आती। सूक्ष्मकाल मात्र किसी जातिके केवलज्ञानगम्य परिणाम होते हैं। वहाँ अनन्तानुबन्धीका
तो उदय होता है, मिथ्यात्वका उदय नहीं होता। सो आगम-प्रमाणसे उसका स्वरूप जानना।
थोड़ा है, इसलिये इसके भी परिणाम केवलज्ञानगम्य हैं। यहाँ इतना भासित होता है कि
जैसे किसीको शिक्षा दी; उसे वह कुछ सत्य और कुछ असत्य एक ही कालमें माने; उसीप्रकार
तत्त्वोंका श्रद्धान-अश्रद्धान एक ही कालमें हो वह मिश्रदशा है।
तो देव-कुदेवका कुछ निर्णय ही नहीं है; इसलिये इसके तो यह विनय मिथ्यात्व प्रगट है
यहाँ छोटेप्रकारके मिथ्यादृष्टियोंका कथन किया है। उसका प्रयोजन यह जानना कि
ही ऐसे दोष देख-देखकर कषायी नहीं होना; क्योंकि अपना भला-बुरा तो अपने परिणामोंसे
है। औरोंको तो रुचिवान देखें तो कुछ उपदेश देकर उनका भी भला करें। इसलिये अपने
परिणाम सुधारनेका उपाय करना योग्य है; सर्व प्रकारके मिथ्यात्वभाव छोड़कर सम्यग्दृष्टि होना
योग्य है; क्योंकि संसारका मूल मिथ्यात्व है, मिथ्यात्वके समान अन्य पाप नहीं है।
Page 257 of 350
PDF/HTML Page 285 of 378
single page version
पर अन्य अनेक उपाय करने पर भी मोक्षमार्ग नहीं होता। इसलिये जिस-तिस उपायसे
सर्वप्रकार मिथ्यात्वका नाश करना योग्य है।
४ (एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय), स्थावर, आताप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण।
अप्रशस्तविहायोगति, स्त्रीवेद, नीचगोत्र, तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, तिर्यगायु, उद्योत, संस्थान ४ (न्यग्रोध,
स्वाति, कुब्जक, वामन), संहनन ४ (वज्रनाराच, नाराच अर्धनाराच और कीलित)।
Page 258 of 350
PDF/HTML Page 286 of 378
single page version
उन्हींके उपदेशानुसार उपदेश देते हैं।
हैं; क्योंकि वे जीव सूक्ष्म निरूपणको नहीं पहिचानते, लौकिक कथाओंको जानते हैं, वहाँ
उनका उपयोग लगता है। तथा प्रथमानुयोगमें लौकिक प्रवृत्तिरूप निरूपण होनेसे उसे वे भली-
भाँति समझ जाते हैं। तथा लोकमें तो राजादिककी कथाओंमें पापका पोषण होता है। यहाँ
महन्तपुरुष राजादिककी कथाएँ तो हैं, परन्तु प्रयोजन जहाँ-तहाँ पापको छुड़ाकर धर्ममें लगानेका
Page 259 of 350
PDF/HTML Page 287 of 378
single page version
बुरा, धर्मको भला जानकर धर्ममें रुचिवंत होते हैं।
उदाहरण हुए। तथा शुभ-अशुभ-शुद्धोपयोगको जानता था, व उसके फलको जानता था।
पुराणोंमें उन उपयोगोंकी प्रवृत्ति और उनका फल जीवके हुआ सो निरूपण किया है। वही
उस जाननेका उदाहरण हुआ। इसीप्रकार अन्य जानना।
है
मार्गणा आदि विशेष तथा कर्मोंके कारण
लगते हैं। तथा ऐसे विचारमें उपयोग रम जाये तब पाप-प्रवृत्ति छूटकर स्वयमेव तत्काल धर्म
उत्पन्न होता है; उस अभ्याससे तत्त्वज्ञानकी भी प्राप्ति शीघ्र होती है। तथा ऐसा सूक्ष्म यथार्थ
कथन जिनमतमें ही है, अन्यत्र नहीं है; इसप्रकार महिमा जानकर जिनमतका श्रद्धानी होता है।
Page 260 of 350
PDF/HTML Page 288 of 378
single page version
करणानुयोगमें किये हैं; वहाँ कितने ही विशेषण तो यथावत् निश्चयरूप हैं, कितने ही
उपचारसहित व्यवहाररूप हैं, कितने ही द्रव्य-क्षेत्र-काल भावादिकके स्वरूप प्रमाणादिरूप हैं,
कितने ही निमित्त
तत्त्वोंको जानता था कि यह जीवादिक हैं, परन्तु उन तत्त्वोंके बहुत विशेष जाने तो निर्मल
तत्त्वज्ञान होता है। तत्त्वज्ञान निर्मल होने पर आप ही विशेष धर्मात्मा होता है।
लगाता है, उससे केवलज्ञान द्वारा देखे गये पदार्थोंका जानपना इसके होता है; प्रत्यक्ष-
अप्रत्यक्षका ही भेद है, भासित होनेमें विरुद्धता नहीं है।
‘करण’ अर्थात् गणित-कार्यके कारणरूप सूत्र, उनका जिसमें ‘अनुयोग’
तत्पर हो रहते हैं; उन्हें जिस प्रकार पापकार्योंको छोड़कर धर्मकार्योंमें लगें, उस प्रकार उपदेश
दिया है; उसे जानकर जो धर्म-आचरण करनेको सन्मुख हुए, वे जीव गृहस्थधर्म व मुनिधर्मका
विधान सुनकर आपसे जैसा सधे वैसे धर्म-साधनमें लगते हैं।
बना रहता है, वहाँ तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति होना हो तो हो जाती है।
Page 261 of 350
PDF/HTML Page 289 of 378
single page version
श्रावकदशा
रहता है उसे हेय मानते हैं; सम्पूर्ण वीतरागताको परम धर्म मानते हैं।
दूर होती है। अन्यमत कल्पित तत्त्वादिक झूठ भासित हों तब जिनमत की प्रतीति हो और
उनके भावको पहिचाननेका अभ्यास रखें, तो शीघ्र ही तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति हो जाये।
इसप्रकार इसको तत्त्वज्ञान हुआ, परन्तु यदि उसके प्रतिपादक द्रव्यानुयोगका अभ्यास करता
रहे तो वह तत्त्वज्ञान रहता है, न करे तो भूल जाता है। अथवा संक्षेपरूपसे तत्त्वज्ञान
हुआ था, वह नाना युक्ति
विचारानुसार होता है; परन्तु प्रयोजन अन्यथा नहीं होता।
Page 262 of 350
PDF/HTML Page 290 of 378
single page version
और यहाँ ग्रन्थकर्ताने अन्य ही प्रकारसे स्तुति करना लिखा है; परन्तु स्तुतिरूप प्रयोजन अन्यथा
नहीं हुआ। तथा परस्पर किन्हींके वचनालाप हुआ; वहाँ उनके तो ही अन्य प्रकार अक्षर
निकले थे, यहाँ ग्रन्थकर्ताने अन्य प्रकार कहे; परन्तु प्रयोजन एक ही दिखलाते हैं। तथा
नगर, वन, संग्रामादिकके नामादिक तो यथावत् ही लिखते हैं और वर्णन हीनाधिक भी
प्रयोजनका पोषण करता हुआ निरूपित करते हैं।
पोषण करनेवाली कोई कथा कही थी ऐसे अभिप्रायका पोषण करते हैं। इसीप्रकार अन्यत्र
जानना।
कहे तो उसे मिथ्यावादी नहीं कहते
जायेगा, तथा कुछ न लिखनेसे उसका भाव भासित नहीं होगा, इसलिये वैराग्यके ठिकाने
थोड़ा-बहुत अपने विचारके अनुसार वैराग्य-पोषक ही कथन करेंगे, सराग-पोषक कथन नहीं
करेंगे। वहाँ प्रयोजन अन्यथा नहीं हुआ इसलिये अयथार्थ नहीं कहते। इसीप्रकार अन्यत्र
जानना।
विशेष उच्चपदकी प्राप्ति हुई, वहाँ उसको उपवासका ही फल निरूपित करते हैं। इसीप्रकार
अन्य जानना।
वैसा फल नहीं हुआ है, परन्तु अन्य किसी कर्मके उदयसे वैसे कार्य हुए हैं; तथापि उनको
उन शीलादिकका ही फल निरूपित करते हैं। उसी प्रकार कोई पापकार्य किया, उसको उसीका
Page 263 of 350
PDF/HTML Page 291 of 378
single page version
हुए; उसे उसी पापकार्यका फल निरूपित करते हैं।
पापका फल बतलायें, पापके फलको धर्मका फल बतलायें, परन्तु ऐसा तो है नहीं। जैसे
दोष नहीं है। अथवा जिसके पितादिकने कोई कार्य किये हों, उसे एक जाति-अपेक्षा उपचारसे
पुत्रादिकका किया कहा जाये तो दोष नहीं है। उसी प्रकार बहुत शुभ व अशुभ कार्योंका
एक फल हुआ, उसे उपचारसे एक शुभ व अशुभकार्यका फल कहा जाये तो दोष नहीं
है। अथवा अन्य शुभ व अशुभकार्यका फल जो हुआ हो उसे एक जाति-अपेक्षा उपचारसे
किसी अन्य ही शुभकार्यका फल कहें तो दोष नहीं है।
करणानुयोगमें निरूपण किया है, सो जानना।
पर होता है; परन्तु निश्चयसम्यक्त्वका तो व्यवहारसम्यक्त्वमें उपचार किया और
व्यवहारसम्यक्त्वके किसी एक अंगमें सम्पूर्ण व्यवहारसम्यक्त्वका उपचार किया
श्रावक तो पंचमगुणस्थानवर्ती होने पर होता है; परन्तु पूर्ववत् उपचारसे इसे श्रावक कहा
है। उत्तरपुराणमें श्रेणिकको श्रावकोत्तम कहा है सो वह तो असंयत था; परन्तु जैन था
इसलिये कहा है। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
Page 264 of 350
PDF/HTML Page 292 of 378
single page version
उसे मुनि कहा है। समवसरणसभामें मुनियोंकी संख्या कही, वहाँ सर्व ही शुद्ध भावलिंगी
मुनि नहीं थे; परन्तु मुनिलिंग धारण करनेसे सभीको मुनि कहा। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
मुनिधर्म ऊँचा है; सो ऊँचा धर्म छोड़कर नीचा धर्म अंगीकार किया वह अयोग्य है; परन्तु
वात्सल्य अंगकी प्रधानतासे विष्णुकुमारजीकी प्रशंसा की है। इस छलसे औरोंको ऊँचा धर्म
छोड़कर नीचा धर्म अंगीकार करना योग्य नहीं है।
दूर करने पर रति माननेका कारण होता है और उन्हें रति करना नहीं है, तब उल्टा उपसर्ग
होता है। इसीसे विवेकी उनके शीतादिकका उपचार नहीं करते। ग्वाला अविवेकी था,
करुणासे यह कार्य किया, इसलिये उसकी प्रशंसा की है, परन्तु छलसे औरोंको धर्मपद्धतिमें
जो विरुद्ध हो वह करना योग्य नहीं है।
रखनेमें अविनय होती है, यथावत् विधिसे ऐसी प्रतिमा नहीं होती, इसलिये इस कार्यमें दोष
है; परन्तु उसे ऐसा ज्ञान नहीं था, उसे तो धर्मानुरागसे ‘मैं और को नमन नहीं करूँगा’
ऐसी बुद्धि हुई; इसलिये उसकी प्रशंसा की है। परन्तु इस छलसे औरोंको ऐसे कार्य करना
योग्य नहीं है।
करनेसे तो निःकांक्षितगुणका अभाव होता है, निदानबन्ध नामक आर्तध्यान होता है, पापका
ही प्रयोजन अन्तरंगमें है, इसलिये पापका ही बन्ध होता है; परन्तु मोहित होकर बहुत
पापबन्धका कारण कुदेवादिका तो पूजनादि नहीं किया, इतना उसका गुण ग्रहण करके उसकी
प्रशंसा करते हैं। इस छलसे औरोंको लौकिक कार्योंके अर्थ धर्म-साधन करना युक्त नहीं है।
इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
Page 265 of 350
PDF/HTML Page 293 of 378
single page version
वचनगोचर होकर छद्मस्थके ज्ञानमें उनका कुछ भाव भासित हो, उस प्रकार संकुचित करके
निरूपण करते हैं। यहाँ उदाहरण
कहे हैं। तथा जीवोंको जाननेके अनेक प्रकार हैं, वहाँ मुख्य चौदह मार्गणाका निरूपण किया
है। तथा कर्मपरमाणु अनन्त प्रकार शक्तियुक्त हैं, उनमें बहुतोंको एक जाति करके आठ
व एक सौ अड़तालीस प्रकृतियाँ कही हैं। तथा त्रिलोकमें अनेक रचनाएँ हैं, वहाँ कुछ मुख्य
रचनाओंका निरूपण कहते हैं। तथा प्रमाणके अनन्त भेद हैं, वहाँ संख्यातादि तीन भेद व
इनके इक्कीस भेद निरूपित किये हैं। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
निरूपित करते हैं। तथा एक वस्तुमें भिन्न-भिन्न गुणोंका व पर्यायोंका भेद करके निरूपण
करते हैं। तथा जीव-पुद्गलादिक यद्यपि भिन्न-भिन्न हैं; तथापि सम्बन्धादिक द्वारा अनेक द्रव्यसे
उत्पन्न गति, जाति आदि भेदोंको एक जीवके निरूपित करते हैं,
तथा कहीं निश्चयवर्णन भी पाया जाता है। जैसे
बहुत कालस्थायी मनुष्यादि पर्यायें व घटादि पर्यायें निरूपित कीं, उनके तो प्रत्यक्ष अनुमानादि
हो सकते हैं; परन्तु प्रतिसमय सूक्ष्मपरिणमनकी अपेक्षा ज्ञानादिकके व स्निग्ध-रूक्षादिकके अंश
निरूपित किये हैं वे आज्ञासे ही प्रमाण होते हैं। इसी प्रकार अन्यत्र जानना।
Page 266 of 350
PDF/HTML Page 294 of 378
single page version
व्रतादिक पालते हैं; परन्तु उनके अन्तरंग सम्यक्त्वचारित्र शक्ति नहीं है, इसलिये उनको
मिथ्यादृष्टि
शक्तिका सद्भाव है, इसलिये उनको सम्यक्त्वी व व्रती कहते हैं।
अंतरंग कषायशक्ति बहुत है, तो उसे तीव्रकषायी कहते हैं। जैसे
एकेन्द्रियादिक जीव कषायकार्य करते दिखाई नहीं देते, तथापि उनके बहुत कषायशक्तिसे कृष्णादि
लेश्या कही है। तथा सर्वार्थसिद्धिके देव कषायरूप थोड़े प्रवर्तते हैं, उनके बहुत कषायशक्तिसे
असंयम कहा है। और पंचम गुणस्थानी व्यापार, अब्रह्मादि कषायकार्यरूप बहुत प्रवर्तते हैं;
उनके मन्दकषायशक्तिसे देशसंयम कहा है। इसी प्रकार अन्यत्र जानना।
अल्प योग कहा है। जैसे
अन्यत्र जानना।
असाताका उदय कहा है। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
है व सम्यग्दर्शनादिके विषयभूत जीवादिकोंका भी निरूपण सूक्ष्मभेदादि सहित करता है। यहाँ
कोई करणानुयोग अनुसार आप उद्यम करे तो हो नहीं सकता; करणानुयोगमें तो यथार्थ पदार्थ
बतलानेका मुख्य प्रयोजन है, आचरण करानेकी मुख्यता नहीं है। इसलिये यह तो
Page 267 of 350
PDF/HTML Page 295 of 378
single page version
जैसे
करणानुयोगके अनुसार जैसेका तैसा जान तो ले, परन्तु प्रवृत्ति बुद्धिगोचर जैसे भला हो वैसी करे।
छोड़नेके अर्थ उपदेश द्वारा ऐसा कहा है। तारतम्यसे मिथ्यादृष्टिके सभी ज्ञान कुज्ञान हैं,
सम्यग्दृष्टिके सभी ज्ञान सुज्ञान हैं। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
जानना।
है, सो मुख्यपनेसे ऐसा कहा है; तारतम्यसे दोनोंके पाप-पुण्य यथासम्भव पाये जाते हैं।
इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
इस प्रकार करणानुयोगमें व्याख्यानका विधान बतलाया।
हैं। इसलिये व्यवहारनयकी प्रधानतासे नानाप्रकार उपचार-धर्मके भेदादिकोंका इसमें निरूपण
किया जाता है; क्योंकि निश्चयधर्ममें तो कुछ ग्रहण-त्यागका विकल्प नहीं है और इसके निचली
अवस्थामें विकल्प छूटता नहीं है; इसलिये इस जीवको धर्मविरोधी कार्योंको छुडा़नेका और
धर्मसाधनादि कार्योको ग्रहण करानेका उपदेश इसमें है।
Page 268 of 350
PDF/HTML Page 296 of 378
single page version
तथा जिन जीवोंको निश्चय
सुगतिके इन्द्रियसुखोंके कारणरूप पुण्यकार्योंमें लगाया। वहाँ जितने दुःख मिटे उतना ही उपकार
हुआ।
है और सुगतिमें जाता है, वहाँ धर्मके निमित्त प्राप्त होते हैं, इसलिये परम्परासे सुखको प्राप्त
करता है; अथवा कर्म शक्तिहीन हो जाये तो मोक्षमार्गको भी प्राप्त हो जाता है; इसलिये
व्यवहार-उपदेश द्वारा पापसे छुड़ाकर पुण्यकार्योंमें लगाते हैं।
छोड़कर कुछ मन्दकषायी हो जाते हैं, सो मुख्यरूपसे तो इस प्रकार है; परन्तु किसीके न
हों तो मत होओ, श्रीगुरु तो परिणाम सुधारनेके अर्थ बाह्य क्रियाओंका उपदेश देते हैं।
Page 269 of 350
PDF/HTML Page 297 of 378
single page version
बाह्यक्रिया भी सुधर जाती है। परिणाम सुधरने पर बाह्यक्रिया सुधरती ही है; इसलिये श्रीगुरु
परिणाम सुधारनेका मुख्य उपदेश देते हैं।
व्यवहारस्वरूप कहा है उसका श्रद्धान करना; शंकादि पच्चीस दोष न लगाना; निःशंकितादि
अंग व संवेगादिक गुणोंका पालन करना इत्यादि उपदेश देते हैं।
पापोंका त्याग करना, व्रतादि अंगोंका पालन करना इत्यादि उपदेश देते हैं। तथा किसी जीवके
विशेष धर्मका साधन न होता जानकर एक आखड़ी आदिकका ही उपदेश देते हैं। जैसे
पूजा-प्रभावनादि कार्यका उपदेश देते हैं,
है
झूठ भासित हों तब स्वयमेव उनका मानना छूट जाता है, उसका भी निरूपण करते हैं।
तथा सम्यग्ज्ञानके अर्थ संशयादिरहित उन्हीं तत्त्वोंको उसी प्रकार जाननेका उपदेश देते हैं,
वह जाननेको कारण जिनशास्त्रोंका अभ्यास है। इसलिये उस प्रयोजनके अर्थ जिनशास्त्रोंका
भी अभ्यास स्वयमेव होता है; उसका निरूपण करते हैं। तथा सम्यक्चारित्रके अर्थ रागादि
दूर करनेका उपदेश देते हैं; वहाँ एकदेश व सर्वदेश तीव्ररागादिकका अभाव होने पर उनके
निमित्तसे जो एकदेश व सर्वदेश पापक्रिया होती थी वह छूटती है, तथा मंदरागसे श्रावक
है, उसका निरूपण करते हैं।
जिनमतमें जैसा सच्चा परम्परामार्ग है वैसा उपदेश देते हैं।
Page 270 of 350
PDF/HTML Page 298 of 378
single page version
तथा चरणानुयोगमें तीव्र कषायोंका कार्य छुड़ाकर मंदकषायरूप कार्य करनेका उपदेश
घटें उतना ही भला होगा
होती न जाने, उन्हें पूजा-प्रभावनादिक करनेका व चैत्यालयादि बनवानेका व जिनदेवादिकके
आगे शोभादिक, नृत्य-गानादिक करनेका व धर्मात्मा पुरुषोंकी सहाय आदि करनेका उपदेश
देते हैं; क्योंकि इनमें परम्परा कषायका पोषण नहीं होता। पापकार्योंमें परम्परा कषायका
पोषण होता है, इसलिये पापकार्योंसे छुड़ाकर इन कार्योंमें लगाते हैं। तथा थोड़ा-बहुत जितना
छूटता जाने उतना पापकार्य छुड़ाकर उन्हें सम्यक्त्व व अणुव्रतादि पालनेका उपदेश देते हैं।
तथा जिन जीवोंके सर्वथा आरम्भादिककी इच्छा दूर हुई है, उनको पूर्वोक्त पूजादिक कार्य
व सर्व पापकार्य छुड़ाकर महाव्रतादि क्रियाओंका उपदेश देते हैं। तथा किंचित् रागादिक छूटते
जानकर उन्हें दया, धर्मोपदेश, प्रतिक्रमणादि कार्य करनेका उपदेश देते हैं। जहाँ सर्व राग
दूर हुआ हो वहाँ कुछ करनेका कार्य ही नहीं रहा; इसलिये उन्हें कुछ उपदेश ही नहीं है।
उत्पन्न करके धर्मकार्योंमें लगाते हैं। तथा यह जीव इन्द्रियविषय, शरीर, पुत्र, धनादिकके
अनुरागसे पाप करता है, धर्म-पराङ्मुख रहता है; इसलिये इन्द्रियविषयोंको मरण, क्लेशादिके
कारण बतलाकर उनमें अरति कषाय कराते हैं। शरीरादिको अशुचि बतलाकर वहाँ जुगुप्सा
कषाय कराते हैं; पुत्रादिकको धनादिकके ग्राहक बतलाकर वहाँ द्वेष कराते हैं; तथा धनादिकको
मरण, क्लेशादिकका कारण बतलाकर वहाँ अनिष्टबुद्धि कराते हैं।
स्तुतिकरण, पूजा, दान, शीलादिकसे इस लोकमें दारिद्रय कष्ट दूर होते हैं, पुत्र-धनादिककी
प्राप्ति होती है,
यहाँ प्रश्न है कि कोई कषाय छुड़ाकर कोई कषाय करानेका प्रयोजन क्या?
Page 271 of 350
PDF/HTML Page 299 of 378
single page version
उसके जीनेकी आशा हो तब बादमें ज्वरको भी मिटानेका उपाय करता है। उसी प्रकार
कषाय तो सभी हेय हैं; परन्तु किन्हीं जीवोंके कषायोंसे पापकार्य होता जाने, वहाँ श्रीगुरु
उनको पुण्यकार्यके कारणभूत कषाय होनेका उपाय करते हैं, पश्चात् उसके सच्ची धर्मबुद्धि
हुई जानें तब बादमें वह कषाय मिटानेका उपाय करते हैं। ऐसा प्रयोजन जानना।
अन्यमतके भी उदाहरणादि कहते हैं। जैसे
अन्यत्र कहते हैं।
उसका उत्तरः
अन्यत्र नहीं है’
झूठ नहीं है। तथा बृहस्पतिका नाम ‘सुरगुरु’ लिखा है व मंगलका नाम ‘कुज’ लिखा है
सो ऐसे नाम अन्यमत अपेक्षा हैं।
दोष नहीं है।
Page 272 of 350
PDF/HTML Page 300 of 378
single page version
आचरण नहीं हो सकता। यहाँ आचरण करनेका प्रयोजन है।
अभिप्राय नहीं है और लोकमें जिसका नाम त्रसघात है उसे नहीं करता है; इसलिये उस
अपेक्षा उसके त्रसहिंसाका त्याग है।
छोटी होती है कि जो दृष्टिगोचर न हो और उनकी स्थिति पृथ्वी, जलादिकमें ही है
स्थावर-त्रसहिंसाका अभिप्राय नहीं है। तथा लोकमें भूमि खोदना तथा अप्रासुक जलसे क्रिया
करना इत्यादि प्रवृत्तिका नाम स्थावरहिंसा है और स्थूल त्रस जीवोंको पीड़ित करनेका नाम
त्रसहिंसा है
पर्यन्त है, अन्तरंग परिग्रह दसवें गुणस्थानपर्यन्त है, बाह्यपरिग्रह समवसरणादि केवलीके भी होता
है; परन्तु (मुनिको) प्रमादसे पापरूप अभिप्राय नहीं है और लोकप्रवृत्तिमें जिन क्रियाओं द्वारा
‘यह झूठ बोलता है, चोरी करता है, कुशील सेवन करता है, परिग्रह रखता है’
हो जाये सो हुआ नहीं है; परन्तु स्थूलरूपसे विषयेच्छाका अभाव हुआ है और बाह्यविषयसामग्री
मिलानेकी प्रवृत्ति दूर हुई है; इसलिये उनके इन्द्रियविषयका त्याग कहा है।
तथा व्रती जीव त्याग व आचरण करता है सो चरणानुयोगकी पद्धति अनुसार व
जो त्रस देखे जाते हैं उनकी हिंसाका त्याग बनता ही नहीं। वहाँ जिस त्रसहिंसाका त्याग