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त्याग है, काय द्वारा नहीं प्रवर्तना सो कायसे त्याग है। इसप्रकार अन्य त्याग व ग्रहण होता
है सो ऐसी पद्धति सहित ही होता है ऐसा जानना।
अविरतिका अभाव कहा, सो मुनिको मनके विकल्प होते हैं; परन्तु स्वेच्छाचारी मनकी पापरूप
प्रवृत्तिके अभावसे मन-अविरतिका अभाव कहा है
श्रद्धान पाया जाये वह तो सम्यक्त्वी, जिसके उनका श्रद्धान नहीं है वह मिथ्यात्वी जानना।
क्योंकि दान देना चरणानुयोगमें कहा है, इसलिये चरणानुयोगकी ही अपेक्षा सम्यक्त्व-मिथ्यात्व
ग्रहण करना। करणानुयोगकी अपेक्षा सम्यक्त्व-मिथ्यात्व ग्रहण करनेसे वही जीव ग्यारहवें
गुणस्थानमें था और वही अन्तर्मुहूर्तमें पहले गुणस्थानमें आये, तो वहाँ दातार पात्र-अपात्रका
कैसे निर्णय कर सके?
प्रवृत्ति समान है; तथा यदि कदाचित् सम्यक्त्वीको किसी चिह्न द्वारा ठीक (निर्णय) हो जाये
और वह उसकी भक्ति न करे तो औरोंको संशय होगा कि इसकी भक्ति क्यों नहीं की?
इसप्रकार उसका मिथ्यादृष्टिपना प्रगट हो तब संघमें विरोध उत्पन्न हो; इसलिये यहाँ
व्यवहारसम्यक्त्व-मिथ्यात्वकी अपेक्षा कथन जानना।
व्यवहारधर्ममें प्रधान हो उसे व्यवहारधर्मकी अपेक्षा गुणाधिक मानकर उसकी भक्ति करता है,
ऐसा जानना। इसीप्रकार जो जीव बहुत उपवासादि करे उसे तपस्वी कहते हैं; यद्यपि कोई
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ही प्रधानता है, इसलिये उसीको तपस्वी कहते हैं। इस प्रकार अन्य नामादिक जानना।
है। वहाँ यद्यपि जीवादि वस्तु अभेद हैं तथापि उनमें भेदकल्पना द्वारा व्यवहारसे द्रव्य-गुण-
पर्यायादिकके भेदोंका निरूपण करते हैं। तथा प्रतीति करानेके अर्थ अनेक युक्तियों द्वारा
उपदेश देते हैं अथवा प्रमाण-नय द्वारा उपदेश देते हैं वह भी युक्त है, तथा वस्तुके अनुमान
जीव-अजीवका निर्णय करते हैं; तथा वीतरागभाव जिस प्रकार हो उस प्रकार आस्रवादिकका
स्वरूप बतलाते हैं; और वहाँ मुख्यरूपसे ज्ञान-वैराग्यके कारण जो आत्मानुभवनादिक उनकी
महिमा गाते हैं।
हैं, उनको वहाँसे उदास करके आत्मानुभवनादिमें लगानेको व्रत-शील-संयमादिकका हीनपना प्रगट
करते हैं। वहाँ ऐसा नहीं जान लेना कि इनको छोड़कर पापमें लगना; क्योंकि उस उपदेशका
प्रयोजन अशुभमें लगानेका नहीं है, शुद्धोपयोगमें लगानेको शुभोपयोगका निषेध करते हैं।
पुण्य-पाप समान हैं; परन्तु पापसे पुण्य कुछ भला है; वह तीव्रकषायरूप है, यह मन्दकषायरूप
है; इसलिये पुण्य छोड़कर पापमें लगना युक्त नहीं है
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व्यवहारको हीन बतलाया है।
बतलानेको जो तीव्रबन्धके कारण भोगादिक प्रसिद्ध थे, उन भोगादिकके होने पर भी
श्रद्धानशक्तिके बलसे मन्द बन्ध होने लगा उसे गिना नहीं और उसी बलसे निर्जरा विशेष
होने लगी, इसलिये उपचारसे भोगोंको भी बन्धका कारण नहीं कहा, निर्जराका कारण कहा।
विचार करने पर भोग निर्जराके कारण हों तो उन्हें छोड़कर सम्यग्दृष्टि मुनिपदका ग्रहण किसलिये
करे? यहाँ इस कथनका इतना ही प्रयोजन है कि देखो, सम्यक्त्वकी महिमा! जिसके बलसे
भोग भी अपने गुणको नहीं कर सकते हैं।
तथा द्रव्यानुयोगमें भी चरणानुयोगवत् ग्रहण-त्याग करानेका प्रयोजन है; इसलिये
चरणानुयोगमें तो बाह्यक्रियाकी मुख्यतासे वर्णन करते हैं, द्रव्यानुयोगमें आत्मपरिणामोंकी मुख्यतासे
निरूपण करते हैं; परन्तु करणानुयोगवत् सूक्ष्मवर्णन नहीं करते। उसके उदाहरण देते हैंः
वह शुद्धोपयोग
किया है वह विवक्षा यहाँ नहीं है।
द्रव्यानुयोगमें शुद्धोपयोग करनेका ही मुख्य उपदेश है; इसलिये वहाँ छद्मस्थ जिस कालमें
बुद्धिगोचर भक्ति आदि व हिंसा आदि कार्यरूप परिणामोंको छोड़कर आत्मानुभवनादि कार्योंमें
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तथापि उसकी विवक्षा यहाँ नहीं की; अपनी बुद्धिगोचर रागादिक छोड़ता है, इस अपेक्षा
उसे शुद्धोपयोगी कहा है।
जाता है। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
परन्तु निचली दशामें द्रव्यानुयोग अपेक्षासे तो कदाचित् शुद्धोपयोग होता है, परन्तु करणानुयोग
अपेक्षा सदाकाल कषाय-अंशके सद्भावसे शुद्धोपयोग नहीं है। इसीप्रकार अन्य कथन जान लेना।
प्रयोजन जानना।
होता है; सो जहाँ जैसा सम्भव हो वैसा समझ लेना।
निरूपण किया जाये तो उसका स्वरूप भली-भाँति भासित होता है।
जानपना होता है।
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पण्डित समझा दें और जो नहीं समझ सकें तो उन्हें मुँहसे सीधा ही कथन कहें। परन्तु
ग्रन्थोंमें सीधा लिखनेसे विशेषबुद्धि जीव अभ्यासमें विशेष नहीं प्रवर्तते, इसलिये अलंकारादि
आम्नाय सहित कथन करते हैं।
तथा जैनमतमें बहुत शास्त्र तो चारों अनुयोगोंमें गर्भित हैं।
तथा व्याकरण, न्याय, छन्द, कोषादिक शास्त्र व वैद्यक, ज्योतिष, मन्त्रादि शास्त्र भी
निरूपण होता है वैसा सीधी भाषामें नहीं हो सकता; इसलिये व्याकरणादिकी आम्नायसे वर्णन
किया है। सो अपनी बुद्धिके अनुसार थोड़ा-बहुत इनका अभ्यास करके अनुयोगरूप प्रयोजनभूत
शास्त्रोंका अभ्यास करना।
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धर्म प्राप्त करके अपना कल्याण करें
विकार बढ़ते न जाने, तो इनका भी जानना होओ। अनुयोगशास्त्रवत् ये शास्त्र बहुत कार्यकारी
नहीं हैं, इसलिये इनके अभ्यासका विशेष उद्यम करना योग्य नहीं है।
संचय करे तो धन तो वहाँ लग जाये, फि र बहुत कार्यकारी वस्तुका संग्रह काहेसे करे?
उसी प्रकार बहुत बुद्धिमान गणधरादिक कथंचित् अल्पकार्यकारी वैद्यकादि शास्त्रोंका भी संचय
करते हैं; परन्तु थोड़ा बुद्धिमान उनके अभ्यासमें लगे तो बुद्धि तो वहाँ लग जाये, फि र
उत्कृष्ट कार्यकारी शास्त्रोंका अभ्यास कैसे करे?
मंदरागी गणधरादिक हैं वे वैद्यकादि शास्त्रोंका निरूपण करें तथापि विकारी नहीं होते; परन्तु
तीव्र रागी उनके अभ्यासमें लग जायें तो रागादिक बढ़ाकर पापकर्मको बाँधेगें
ऐसा कथन सुनना नहीं।
निकलते हैं।
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हुए; इत्यादि चमत्कार तभी भासित होंगे जब बढ़ाकर कथन किया जाये।
तो चैत्यालय बनवानेवालेका तो दोष नहीं है। उसी प्रकार श्रीगुरुने पुराणादिमें श्रृंगारादिका
वर्णन किया; वहाँ उनका प्रयोजन रागादिक करानेका तो है नहीं, धर्ममें लगानेका प्रयोजन
है; परन्तु कोई पापी धर्म न करे और रागादिक ही बढ़ाये तो श्रीगुरुका क्या दोष है?
उसका उत्तर यह है
आश्रयसे धर्ममें रुचि कराते हैं।
अन्य कार्य भी ऐसे ही करेगा जहाँ बहुत रागादि हों; इसलिये उसको भी पुराण सुननेसे
थोड़ी-बहुत धर्मबुद्धि हो तो हो। अन्य कार्योंसे तो यह कार्य भला ही है।
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इसलिये प्रथमानुयोगका अभ्यास करना योग्य है।
इस प्रकार है’, ‘यह इस प्रकार है’ इसमें अपना कार्य क्या सिद्ध हुआ? या तो भक्ति करें,
या व्रत-दानादि करें, या आत्मानुभवन करें
होती है, उसका स्वयमेव उत्तम फल होता है। सो करणानुयोगके अभ्यासमें उससे भी अधिक
मन्द कषाय हो सकती है, इसलिये इसका फल अति उत्तम होता है। तथा व्रत-दानादिक
तो कषाय घटानेके बाह्यनिमित्तके साधन हैं और करणानुयोगका अभ्यास करने पर वहाँ उपयोग
लग जाये तब रागादिक दूर होते हैं सो यह अंतरंगनिमित्तका साधन है; इसलिये यह विशेष
कार्यकारी है। व्रतादिक धारण करके अध्ययनादि करते हैं। तथा आत्मानुभव सर्वोत्तम कार्य
है; परन्तु सामान्य अनुभवमें उपयोग टिकता नहीं है और नहीं टिकता तब अन्य विकल्प
होते हैं; वहाँ करणानुयोगका अभ्यास हो तो उस विचारमें उपयोगको लगाता है।
रागादि मिटानेका कारण है।
चाहता है। यहाँ उद्यम द्वारा द्वीप
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जाये तो रागादिक हो आते हैं और द्वीपादिकमें इस लोक सम्बन्धी कार्य कुछ नहीं है, इसलिये
रागादिकका कारण नहीं है।
जानने पर यथावत् रचना भासित हो तब अन्यमतादिकका कहा झूठ भासित होनेसे सत्य श्रद्धानी
हो और यथावत् रचना जाननेसे भ्रम मिटने पर उपयोगकी निर्मलता हो; इसलिये वह अभ्यास
कार्यकारी है।
जाता है; इसलिये अपनी बुद्धि अनुसार कठिनतासे भी जिसका अभ्यास होता जाने उसका
अभ्यास करना, तथा जिसका अभ्यास हो ही न सके उसका कैसे करे?
इसलिये इस उपदेशसे पराङ्मुख रहते हैं।
है, सो परवशतासे होती है। अपने वशसे उद्यमपूर्वक कार्य करे और कहे कि ‘परिणाम
इसरूप नहीं हैं’ सो यह भ्रम है। अथवा बाह्य पदार्थका आश्रय पाकर परिणाम हो सकते
हैं; इसलिये परिणाम मिटानेके अर्थ बाह्य वस्तुका निषेध करना समयसारादिमें कहा है; इसीलिये
रागादिभाव घटने पर अनुक्रमसे बाह्य ऐसे श्रावक-मुनिधर्म होते हैं। अथवा इसप्रकार श्रावक-
मुनिधर्म अंगीकार करने पर पाँचवें-छठवें आदि गुणस्थानोंमें रागादि घटने पर परिणामोंकी प्राप्ति
होती है
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होता है, सो क्या कारण है? तथा तीर्थंकरादिक गृहस्थपद छोड़कर किसलिये संयम ग्रहण
करें? इसलिये यह नियम है कि बाह्य संयम साधन बिना परिणाम निर्मल नहीं हो सकते।
इसलिये बाह्य साधनका विधान जाननेके लिये चरणानुयोगका अभ्यास अवश्य करना चाहिये।
अध्यात्मग्रन्थोंका अभ्यास नहीं छोड़ेंगे। इतना करे कि जिसे स्वच्छन्द होता जाने, उसे जिसप्रकार
वह स्वच्छन्द न हो उसप्रकार उपदेश दे। तथा अध्यात्मग्रन्थोंमें भी स्वच्छन्द होनेका जहाँ-
तहाँ निषेध करते हैं, इसलिये जो भली-भाँति उनको सुने वह तो स्वच्छन्द होता नहीं; परन्तु
एक बात सुनकर अपने अभिप्रायसे कोई स्वच्छन्द हो तो ग्रन्थका तो दोष है नहीं, उस
जीवका ही दोष है।
जैसे
होने पर बहुतसे जीवोंको मोक्षमार्गकी प्राप्ति होती है, परन्तु कोई उल्टा पापमें प्रवर्ते, तो उसकी
मुख्यता करके अध्यात्मशास्त्रोंका तो निषेध नहीं करना।
अध्यात्म-उपदेश न होने पर बहुत जीवोंके मोक्षमार्गकी प्राप्तिका अभाव होता है और इसमें
बहुत जीवोंका बहुत बुरा होता है; इसलिये अध्यात्म-उपदेशका निषेध नहीं करना।
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अभ्यास करने पर होता है; इसलिये प्रथम द्रव्यानुयोगके अनुसार श्रद्धान करके सम्यग्दृष्टि हो,
पश्चात् चरणानुयोगके अनुसार व्रतादिक धारण करके व्रती हो।
उसे पहले किसी व्रतादिकका उपदेश देते हैं; इसलिये ऊँची दशावालोंको अध्यात्म-अभ्यास योग्य
है
उसका उत्तर यह है
बुद्धि अनुसार थोड़ा-बहुत भासित हो; परन्तु सर्वथा निरुद्यमी होनेका पोषण करें वह तो
जिनमार्गका द्वेषी होना है।
अर्थ द्रव्यानुयोगका अवश्य अभ्यास करना।
पर्यायादिकका व प्रमाण-नयादिकका व अन्यमतके कहे तत्त्वादिकके निराकरणका कथन किया,
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हैं; इसलिये उनका अभ्यास नहीं करना।
उस अभ्यासमें प्रवर्तना योग्य है।
जानने पर जैसा भासित होता है वैसा भाषादिक द्वारा भासित नहीं होता; इसलिये परम्परा
कार्यकारी जानकर इनका भी अभ्यास करना; परन्तु इन्हींमें फँस नहीं जाना। इनका कुछ
अभ्यास करके प्रयोजनभूत शास्त्रोंके अभ्यासमें प्रवर्तना।
नहीं प्रवर्तना; और इनका अभ्यास न हो तो मत होओ, कुछ बिगाड़ नहीं है।
सन्देह नहीं करना। जैसे
उदय कहा; वहाँ विरुद्ध नहीं जानना। सम्यग्दृष्टिके श्रद्धानपूर्वक तीव्र शंकादिकका अभाव
हुआ है अथवा मुख्यतः सम्यग्दृष्टि शंकादि नहीं करता, उस अपेक्षा चरणानुयोगमें सम्यग्दृष्टिके
शंकादिकका अभाव कहा है; परन्तु सूक्ष्मशक्तिकी अपेक्षा भयादिकका उदय अष्टमादि गुणस्थान
पर्यन्त पाया जाता है, इसलिये करणानुयोगमें वहाँ तक उनका सद्भाव कहा है। इसीप्रकार
अन्यत्र जानना।
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कषायादिकका सद्भाव दसवें आदि गुणस्थान पर्यन्त कहा, वहाँ विरुद्ध नहीं जानना; क्योंकि
यहाँ प्रमादोंमें तो जिन शुभाशुभभावोंके अभिप्राय सहित कषायादिक होते हैं उनका ग्रहण है
और सातवें गुणस्थानमें ऐसा अभिप्राय दूर हुआ है, इसलिये उनका वहाँ अभाव कहा है।
तथा सूक्ष्मादिभावोंकी अपेक्षा उन्हींका दसवें आदि गुणस्थानपर्यन्त सद्भाव कहा है।
तो चोरी आदि कार्य ऐसे ग्रहण किये हैं जिनसे दंडादिक पाता है, लोकमें अति निन्दा होती
है। तथा व्रतोंमें ऐसे चोरी आदि त्याग करने योग्य कहे हैं कि जो गृहस्थधर्मसे विरुद्ध
होते हैं व किंचित् लोकनिंद्य होते हैं
तो चारित्र हैं और अज्ञानपूर्वक व्रतादिक होने पर भी असंयमी ही है।
हैं, उनकी यथायोग्य विनय करना सो विनय तप है।
निंद्य ही है और निर्लोभपनेसे दीनता आदि न करे वह अभिमान प्रशंसा योग्य है।
सहित यथासम्भव कार्य करनेमें जो चतुराई हो वह श्लाघ्घ ही है। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
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और जहाँ प्रशंसा की हो वहाँ उससे नीची क्रिया व अशुभक्रियाकी अपेक्षा जानना। इसी
प्रकार अन्यत्र जानना।
परन्तु यथासम्भव उसका गुण-दोष जान लेना।
ग्रहणमात्र है, तथा इन्द्रियवर्णनमें दर्शन शब्दका अर्थ नेत्र द्वारा देखना मात्र है। तथा जैसे सूक्ष्म
और बादरका अर्थ
नाम प्रत्यक्ष है। तथा जैसे
देवादिकके उदीरणा नहीं कही वहाँ तो अन्य निमित्तसे मरण हो उसका नाम उदीरणा है और
दस करणोंके कथनमें उदीरणाकरण देवायुके भी कहा है, वहाँ ऊपरके निषेकोंका द्रव्य
उदयावलीमें दिया जाये उसका नाम उदीरणा है। इसीप्रकार अन्यत्र यथासम्भव अर्थ जानना।
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पहले जोड़नेसे जो अर्थ होता है वह ग्रहण किया, अन्य नहीं किया। तथा जैसे ‘प्राण धारण
करे’ उसका नाम ‘जीव’ है। जहाँ जीवन-मरणका व्यवहार- अपेक्षा कथन हो वहाँ तो इन्द्रियादि
प्राण धारण करे वह जीव है; तथा द्रव्यादिकका निश्चय-अपेक्षा निरूपण हो वहाँ चैतन्यप्राणको
धारण करे वह जीव है। तथा जैसे
है, शास्त्रका नाम समय है, मतका नाम समय है। इसप्रकार अनेक अर्थोंमें जैसा जहाँ सम्भव
हो वैसा वहाँ जान लेना।
जो रूढ़िरूप अर्थ हो वही ग्रहण करना। जैसे
वहाँ रूढ़ि नाम है, इसका अक्षरार्थ ग्रहण नहीं करना; परन्तु इस नामकी धारक एक वस्तु
है, ऐसा अर्थ ग्रहण करना। इसी प्रकार अन्यत्र जानना।
गिनकर अभाव कहा है
यह अर्थ ग्रहण नहीं करना; यहाँ तो क्रोधादि समान यह कषाय नहीं है, किंचित् कषाय
हैं, इसलिए नोकषाय हैं
होते ही अनुभूति प्रगट होती है। लोकमें किसीके आते ही कोई कार्य हुआ हो, वहाँ ऐसा
कहते हैं कि ‘यह आया ही नहीं और यह ऐसा कार्य हो गया।’ ऐसा ही प्रयोजन यहाँ
ग्रहण करना। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
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करे, शीतल औषधिका ग्रहण न करे; यह औषधि औरोंको कार्यकारी है, ऐसा जाने।
उसीप्रकार जैनशास्त्रोंमें अनेक उपदेश हैं, उन्हें जाने; परन्तु ग्रहण उसीका करे जिससे अपना
विकार दूर हो जाये। अपनेको जो विकार हो उसका निषेध करनेवाले उपदेशको ग्रहण करे,
उसके पोषक उपदेशको ग्रहण न करे; यह उपदेश औरोंको कार्यकारी है, ऐसा जाने।
यथावत् प्रवर्ते और अपनेको निश्चयका आधिक्य हो तो व्यवहारपोषक उपदेशका ग्रहण करके
यथावत् प्रवर्ते। तथा पहले तो व्यवहारश्रद्धानके कारण आत्मज्ञानसे भ्रष्ट हो रहा था, पश्चात्
व्यवहार उपदेशकी ही मुख्यता करके आत्मज्ञानका उद्यम न करे; अथवा पहले तो निश्चयश्रद्धानके
कारण वैराग्यसे भ्रष्ट होकर स्वच्छन्दी हो रहा था, पश्चात् निश्चय उपदेशकी ही मुख्यता करके
विषय-कषायका पोषण करता है। इसप्रकार विपरीत उपदेश ग्रहण करनेसे बुरा ही होता है।
हो और कोई दोष लगता हो वहाँ वह दोष दूर करनेके लिये उस उपदेशको अंगीकार करना।
तथा आप तो दोषवान है और इस उपदेशका ग्रहण करके गुणवान पुरुषोंको नीचा दिखलाये
आनन्दामृतसिन्धुशीकरचयैर्निर्वाप्य जन्मज्वरं।
ये मुक्तेर्वदनेन्दुवीक्षणपरास्ते सन्ति द्वित्रा यदि।।२४।।
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तो वह भला है। तथा यहाँ यह कहा है कि ‘‘तू दोषमय ही क्यों नहीं हुआ?’’ सो
यह तो तर्क किया है, कहीं सर्वदोषमय होनेके अर्थ यह उपदेश नहीं है। तथा यदि गुणवानकी
किंचित् दोष होने पर निन्दा है तो सर्व दोषरहित तो सिद्ध हैं; निचली दशामें तो कोई गुण
होता ही है।
हों, वहाँ उसका दोष ग्रहण करना योग्य नहीं है
वक्ता क्रोध करता रहे तो उसका बुरा ही होगा। यह उपदेश श्रोताओंके ग्रहण करने योग्य
है। कदाचित् वक्ता क्रोध करके भी सच्चा उपदेश दे तो श्रोता गुण ही मानेंगे। इसीप्रकार
अन्यत्र जानना।
पायेगा। इसीप्रकार किसीके किसी कार्यकी अति मुख्यता हो उसके अर्थ उसके निषेधका अति
खींचकर उपदेश दिया हो; उसे जिसके उस कार्यकी मुख्यता न हो व थोड़ी मुख्यता हो
वह ग्रहण करे तो बुरा ही होगा।
नहीं है व थोड़ा शास्त्राभ्यास है, वह जीव उस उपदेशसे शास्त्राभ्यास छोड़ दे और आत्मानुभवमें
उपयोग न रहे तब उसका तो बुरा ही होगा।
जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदम्।।१८।। (सूत्रपाहुड़)
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वह जीव इस उपदेशसे पूजनादि कार्य छोड़ दे और हिंसारहित सामायिकादि धर्ममें लगे नहीं
तब उसका तो बुरा ही होगा। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
रहे तो उल्टा रोग होगा। उसीप्रकार कोई धर्मकार्य है; परन्तु अपनेको जब तक उस धर्मकार्यसे
हित हो तब तक उसका ग्रहण करे; यदि उच्च दशा होने पर निचली दशा सम्बन्धी धर्मके
सेवनमें लगे तो उल्टा विकार ही होगा।
प्रतिक्रमणादिकको विष कहा है। तथा जैसे अव्रतीको करने योग्य प्रभावनादि धर्मकार्य कहे
हैं, उन्हें व्रती होकर करे तो पाप ही बाँधेगा। व्यापारादि आरम्भ छोड़कर चैत्यालयादि कार्योंका
अधिकारी हो यह कैसे बनेगा? इसीप्रकार अन्यत्र भी जानना।
ऊँचे धर्मका ग्रहण करे तो महान दोष उत्पन्न होगा। यहाँ उदाहरण
तथा भोजनादि विषयोंमें आसक्त हो और आरम्भत्यागादि धर्मको अंगीकार करे तो दोष ही
उत्पन्न होगा। तथा जैसे व्यापारादि करनेका विकार तो छूटे नहीं और त्यागके भेषरूप धर्म
अंगीकार करे तो महान दोष उत्पन्न होगा। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
उपदेश तो वचनात्मक है तथा वचन द्वारा अनेक अर्थ युगपत् नहीं कहे जाते; इसलिये उपदेश
तो एक ही अर्थकी मुख्यतासहित होता है।
जिनमतका चिह्न स्याद्वाद है और ‘स्यात्’ पदका अर्थ ‘कथंचित्’ है; इसलिये जो उपदेश हो
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उपदेश किस प्रकार है, किस प्रयोजन सहित है, किस जीवको कार्यकारी है? इत्यादि विचार
करके उसका यथार्थ अर्थ ग्रहण करे। पश्चात् अपनी दशा देखे। जो उपदेश जिसप्रकार
अपनेको कार्यकारी हो उसे उसी प्रकार आप अंगीकार करे; और जो उपदेश जानने योग्य
ही हो तो उसे यथार्थ जान ले। इसप्रकार उपदेशके फलको प्राप्त करे।
जिसमें समझे सो थोड़ा या बहुत उपदेशको ग्रहण करे, परन्तु मुझे यह कार्यकारी है, यह कार्यकारी
नहीं है
न हो तो प्रयोजनको तो नहीं भूले; इतनी सावधानी अवश्य होना चाहिये। जिसमें अपने हितकी
हानि हो, उसप्रकार उपदेशका अर्थ समझना योग्य नहीं है।
यहाँ कोई प्रश्न करे
आठ समयमें छह सौ आठ जीव मोक्ष जाते हैं
होते हैं। करणानुयोगमें देवकी आयु सागरोंप्रमाण और देवांगनाकी आयु पल्योंप्रमाण कही
है।
है; औरोंके कथनकी जैसे विधि मिले वैसे मिला लेना। हजारों मुनि तीर्थंकरके साथ मोक्ष
गये बतलाये, वहाँ यह जानना कि एक ही कालमें इतने मोक्ष नहीं गये हैं, परन्तु जहाँ
तीर्थंकर गमनादि क्रिया मिटाकर स्थिर हुए, वहाँ उनके साथ इतने मुनि तिष्ठे, फि र आगे-
पीछे मोक्ष गये। इसप्रकार प्रथमानुयोग और करणानुयोगका विरोध दूर होता है। तथा देव-
देवांगना साथ उत्पन्न हुए, फि र देवांगनाने चयकर बीचमें अन्य पर्यायें धारण कीं, उनका प्रयोजन
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मिलानेसे विरोध दूर होता है। इसीप्रकार अन्यत्र विधि मिला लेना।
अन्य प्रकारसे लिखी है इत्यादि; एकेन्द्रियादिको कहीं सासादन गुणस्थान लिखा, कहीं नहीं
लिखा इत्यादि;
अर्थ अन्यथा भासित हुआ उसको ऐसे लिखा; अथवा इस कालमें कितने ही जैनमतमें भी
कषायी हुए हैं सो उन्होंने कोई कारण पाकर अन्यथा कथन लिखे हैं। इसप्रकार अन्यथा
कथन हुए, इसलिये जैनशास्त्रोंमें विरोध भासित होने लगा।
हुआ कथन प्रमाण करना। तथा जिनमतके बहुत शास्त्र हैं उनकी आम्नाय मिलाना। जो
कथन परम्परा आम्नायसे मिले उस कथनको प्रमाण करना। इस प्रकार विचार करने पर भी
सत्य-असत्यका निर्णय न हो सके तो ‘जैसे केवलीको भासित हुए हैं वैसे प्रमाण हैं’ ऐसा
मान लेना, क्योंकि देवादिकका व तत्त्वोंका निर्धार हुए बिना तो मोक्षमार्ग होता नहीं है।
उसका तो निर्धार भी हो सकता है, इसलिये कोई उनका स्वरूप विरुद्ध कहे तो आपको
हीे भासित हो जायेगा। तथा अन्य कथनका निर्धार न हो, या संशयादि रहें, या अन्यथा
भी जानपना हो जाये; और केवलीका कहा प्रमाण है
और अन्यमतमें ऐसे कथनको तुम दोष लगाते हो? यह तो तुम्हें राग-द्वेष है?
ही है। अब, जिनमतमें तो एक रागादि मिटानेका प्रयोजन है; इसलिये कहीँ बहुत रागादि
छुड़ाकर थोड़े रागादि करानेके प्रयोजनका पोषण किया है, कहीं सर्व रागादि मिटानेके प्रयोजनका