Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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आठवाँ अधिकार ][ २८३
किया, उसरूप मनका विकल्प न करना सो मनसे त्याग है, वचन न बोलना सो वचनसे
त्याग है, काय द्वारा नहीं प्रवर्तना सो कायसे त्याग है। इसप्रकार अन्य त्याग व ग्रहण होता
है सो ऐसी पद्धति सहित ही होता है ऐसा जानना।
यहाँ प्रश्न है कि करणानुयोगमें तो केवलज्ञान-अपेक्षा तारतम्य कथन है, वहाँ छठवें
गुणस्थानमें सर्वथा बारह अविरतियोंका अभाव कहा, सो किस प्रकार कहा?
उत्तरःअविरति भी योगकषायमें गर्भित थी, परन्तु वहाँ भी चरणानुयोगकी अपेक्षा
त्यागका अभाव उसका ही नाम अविरति कहा है, इसलिये वहाँ उनका अभाव है। मन-
अविरतिका अभाव कहा, सो मुनिको मनके विकल्प होते हैं; परन्तु स्वेच्छाचारी मनकी पापरूप
प्रवृत्तिके अभावसे मन-अविरतिका अभाव कहा है
ऐसा जानना।
तथा चरणानुयोगमें व्यवहारलोकप्रवृत्तिकी अपेक्षा ही नामादिक कहते हैं। जिस
प्रकार सम्यक्त्वीको पात्र कहा तथा मिथ्यात्वीको अपात्र कहा; सो यहाँ जिसके जिनदेवादिकका
श्रद्धान पाया जाये वह तो सम्यक्त्वी, जिसके उनका श्रद्धान नहीं है वह मिथ्यात्वी जानना।
क्योंकि दान देना चरणानुयोगमें कहा है, इसलिये चरणानुयोगकी ही अपेक्षा सम्यक्त्व-मिथ्यात्व
ग्रहण करना। करणानुयोगकी अपेक्षा सम्यक्त्व-मिथ्यात्व ग्रहण करनेसे वही जीव ग्यारहवें
गुणस्थानमें था और वही अन्तर्मुहूर्तमें पहले गुणस्थानमें आये, तो वहाँ दातार पात्र-अपात्रका
कैसे निर्णय कर सके?
तथा द्रव्यानुयोगकी अपेक्षा सम्यक्त्व-मिथ्यात्व ग्रहण करने पर मुनिसंघमें द्रव्यलिंगी भी
हैं और भावलिंगी भी हैं; सो प्रथम तो उनका ठीक (निर्णय) होना कठिन है; क्योंकि बाह्य
प्रवृत्ति समान है; तथा यदि कदाचित् सम्यक्त्वीको किसी चिह्न द्वारा ठीक (निर्णय) हो जाये
और वह उसकी भक्ति न करे तो औरोंको संशय होगा कि इसकी भक्ति क्यों नहीं की?
इसप्रकार उसका मिथ्यादृष्टिपना प्रगट हो तब संघमें विरोध उत्पन्न हो; इसलिये यहाँ
व्यवहारसम्यक्त्व-मिथ्यात्वकी अपेक्षा कथन जानना।
यहाँ कोई प्रश्न करेसम्यक्त्वी तो द्रव्यलिंगीको अपनेसे हीनगुणयुक्त मानता है, उसकी
भक्ति कैसे करे?
समाधानःव्यवहारधर्मका साधन द्रव्यलिंगीके बहुत है और भक्ति करना भी व्यवहार
ही है। इसलिये जैसेकोई धनवान हो, परन्तु जो कुलमें बड़ा हो उसे कुल अपेक्षा बड़ा
जानकर उसका सत्कार करता है; उसी प्रकार आप सम्यक्त्वगुण सहित है, परन्तु जो
व्यवहारधर्ममें प्रधान हो उसे व्यवहारधर्मकी अपेक्षा गुणाधिक मानकर उसकी भक्ति करता है,
ऐसा जानना। इसीप्रकार जो जीव बहुत उपवासादि करे उसे तपस्वी कहते हैं; यद्यपि कोई

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२८४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
ध्यान-अध्ययनादि विशेष करता है वह उत्कृष्ट तपस्वी है तथापि यहाँ चरणानुयोगमें बाह्यतपकी
ही प्रधानता है, इसलिये उसीको तपस्वी कहते हैं। इस प्रकार अन्य नामादिक जानना।
ऐसे ही अन्य प्रकार सहित चरणानुयोगमें व्याख्यानका विधान जानना।
द्रव्यानुयोगके व्याख्यानका विधान
अब, द्रव्यानुयोगमें व्याख्यानका विधान कहते हैंः
जीवोंके जीवादि द्रव्योंका यथार्थ श्रद्धान जिस प्रकार हो उस प्रकार विशेष, युक्ति,
हेतु, दृष्टान्तादिकका यहाँ निरूपण करते हैं, क्योंकि इसमें यथार्थ श्रद्धान करानेका प्रयोजन
है। वहाँ यद्यपि जीवादि वस्तु अभेद हैं तथापि उनमें भेदकल्पना द्वारा व्यवहारसे द्रव्य-गुण-
पर्यायादिकके भेदोंका निरूपण करते हैं। तथा प्रतीति करानेके अर्थ अनेक युक्तियों द्वारा
उपदेश देते हैं अथवा प्रमाण-नय द्वारा उपदेश देते हैं वह भी युक्त है, तथा वस्तुके अनुमान
प्रत्यभिज्ञानादिक करानेको हेतुदृष्टान्तादिक देते हैं; इसप्रकार यहाँ वस्तुकी प्रतीति करानेको
उपदेश देते हैं।
तथा यहाँ मोक्षमार्गका श्रद्धान करानेके अर्थ जीवादि तत्त्वोंका विशेष, युक्ति, हेतु,
दृष्टान्तादि द्वारा निरूपण करते हैं। वहाँ स्व-पर भेदविज्ञानादिक जिस प्रकार हों उस प्रकार
जीव-अजीवका निर्णय करते हैं; तथा वीतरागभाव जिस प्रकार हो उस प्रकार आस्रवादिकका
स्वरूप बतलाते हैं; और वहाँ मुख्यरूपसे ज्ञान-वैराग्यके कारण जो आत्मानुभवनादिक उनकी
महिमा गाते हैं।
तथा द्रव्यानुयोगमें निश्चय अध्यात्म-उपदेशकी प्रधानता हो, वहाँ व्यवहारधर्मका भी
निषेध करते हैं। जो जीव आत्मानुभवका उपाय नहीं करते और बाह्य क्रियाकाण्डमें मग्न
हैं, उनको वहाँसे उदास करके आत्मानुभवनादिमें लगानेको व्रत-शील-संयमादिकका हीनपना प्रगट
करते हैं। वहाँ ऐसा नहीं जान लेना कि इनको छोड़कर पापमें लगना; क्योंकि उस उपदेशका
प्रयोजन अशुभमें लगानेका नहीं है, शुद्धोपयोगमें लगानेको शुभोपयोगका निषेध करते हैं।
यहाँ कोई कहे कि अध्यात्मशास्त्रमें पुण्य-पाप समान कहे हैं, इसलिये शुद्धोपयोग हो
तो भला ही है, न हो तो पुण्यमें लगो या पापमें लगो?
उत्तरःजैसे शूद्र जातिकी अपेक्षा जाट, चांडाल समान कहे हैं; परन्तु चांडालसे जाट
कुछ उत्तम उत्तम है; वह अस्पृश्य है, यह स्पृश्य है; उसी प्रकार बन्ध कारणकी अपेक्षा
पुण्य-पाप समान हैं; परन्तु पापसे पुण्य कुछ भला है; वह तीव्रकषायरूप है, यह मन्दकषायरूप
है; इसलिये पुण्य छोड़कर पापमें लगना युक्त नहीं है
ऐसा जानना।

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आठवाँ अधिकार ][ २८५
तथा जो जीव जिनबिम्ब भक्ति आदि कार्योंमें ही मग्न हैं उनको आत्मश्रद्धानादि करानेको
‘देहमें देव है, मन्दिरोंमें नहीं’इत्यादि उपेदश देते हैं। वहाँ ऐसा नहीं जान लेना कि भक्ति
छोड़कर भोजनादिकसे अपनेको सुखी करना; क्योंकि उस उपदेशका प्रयोजन ऐसा नहीं है।
इसीप्रकार अन्य व्यवहारका निषेध वहाँ किया हो उसे जानकर प्रमादी नहीं होना।
ऐसा जानना कि जो केवल व्यवहारसाधनमें ही मग्न हैं, उनको निश्चयरुचि करानेके अर्थ
व्यवहारको हीन बतलाया है।
तथा उन्हीं शास्त्रोंमें सम्यग्दृष्टिके विषय-भोगादिकको बन्धका कारण नहीं कहा, निर्जराका
कारण कहा; परन्तु यहाँ भोगोंका उपादेयपना नहीं जान लेना। वहाँ सम्यग्दृष्टि की महिमा
बतलानेको जो तीव्रबन्धके कारण भोगादिक प्रसिद्ध थे, उन भोगादिकके होने पर भी
श्रद्धानशक्तिके बलसे मन्द बन्ध होने लगा उसे गिना नहीं और उसी बलसे निर्जरा विशेष
होने लगी, इसलिये उपचारसे भोगोंको भी बन्धका कारण नहीं कहा, निर्जराका कारण कहा।
विचार करने पर भोग निर्जराके कारण हों तो उन्हें छोड़कर सम्यग्दृष्टि मुनिपदका ग्रहण किसलिये
करे? यहाँ इस कथनका इतना ही प्रयोजन है कि देखो, सम्यक्त्वकी महिमा! जिसके बलसे
भोग भी अपने गुणको नहीं कर सकते हैं।
इसी प्रकार अन्य भी कथन हों तो उनका यथार्थपना जान लेना।
तथा द्रव्यानुयोगमें भी चरणानुयोगवत् ग्रहण-त्याग करानेका प्रयोजन है; इसलिये
छद्मस्थके बुद्धिगोचर परिणामोंकी अपेक्षा ही वहाँ कथन करते हैं। इतना विशेष है कि
चरणानुयोगमें तो बाह्यक्रियाकी मुख्यतासे वर्णन करते हैं, द्रव्यानुयोगमें आत्मपरिणामोंकी मुख्यतासे
निरूपण करते हैं; परन्तु करणानुयोगवत् सूक्ष्मवर्णन नहीं करते। उसके उदाहरण देते हैंः
उपयोगके शुभ, अशुभ, शुद्धऐसे तीन भेद कहे हैं; वहाँ धर्मानुरागरूप परिणाम वह
शुभोपयोग, पापानुरागरूप व द्वेषरूप परिणाम वह अशुभोपयोग और राग-द्वेषरहित परिणाम
वह शुद्धोपयोग
ऐसा कहा है; सो इस छद्मस्थके बुद्धिगोचर परिणामोंकी अपेक्षा यह कथन
है; करणानुयोगमें कषायशक्तिकी अपेक्षा गुणस्थानादिमें संक्लेशविशुद्ध परिणामोंकी अपेक्षा निरूपण
किया है वह विवक्षा यहाँ नहीं है।
करणानुयोगमें तो रागादि रहित शुद्धोपयोग यथाख्यातचारित्र होने पर होता है, वह
मोहके नाशसे स्वयमेव होगा; निचली अवस्थावाला शुद्धोपयोगका साधन कैसे करे? तथा
द्रव्यानुयोगमें शुद्धोपयोग करनेका ही मुख्य उपदेश है; इसलिये वहाँ छद्मस्थ जिस कालमें
बुद्धिगोचर भक्ति आदि व हिंसा आदि कार्यरूप परिणामोंको छोड़कर आत्मानुभवनादि कार्योंमें

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२८६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
प्रवर्ते उस काल उसे शुद्धोपयोगी कहते हैं। यद्यपि यहाँ केवलज्ञानगोचर सूक्ष्मरागादिक हैं,
तथापि उसकी विवक्षा यहाँ नहीं की; अपनी बुद्धिगोचर रागादिक छोड़ता है, इस अपेक्षा
उसे शुद्धोपयोगी कहा है।
इसीप्रकार स्व-पर श्रद्धानादिक होने पर सम्यक्त्वादि कहे, वह बुद्धिगोचर अपेक्षासे
निरूपण है; सूक्ष्म भावोंकी अपेक्षा गुणस्थानादिकमें सम्यक्त्वादिका निरूपण करणानुयोगमें पाया
जाता है। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
इसलिये द्रव्यानुयोगके कथनकी विधि करणानुयोगसे मिलाना चाहे तो कहीं तो मिलती
है, कहीं नहीं मिलती। जिसप्रकार यथाख्यातचारित्र होने पर तो दोनों अपेक्षा शुद्धोपयोग है,
परन्तु निचली दशामें द्रव्यानुयोग अपेक्षासे तो कदाचित् शुद्धोपयोग होता है, परन्तु करणानुयोग
अपेक्षा सदाकाल कषाय-अंशके सद्भावसे शुद्धोपयोग नहीं है। इसीप्रकार अन्य कथन जान लेना।
तथा द्रव्यानुयोगमें परमतमें कहे हुए तत्त्वादिकको असत्य बतलानेके अर्थ उनका
निषेध करते हैं; वहाँ द्वेषबुद्धि नहीं जानना। उनको असत्य बतलाकर सत्यश्रद्धान करानेका
प्रयोजन जानना।
इसी प्रकार और भी अनेक प्रकारसे द्रव्यानुयोगमें व्याख्यानका विधान है।
इसप्रकार चारों अनुयोगके व्याख्यानका विधान कहा। वहाँ किसी ग्रन्थमें एक
अनुयोगकी, किसीमें दोकी, किसीमें तीनकी और किसीमें चारोंकी प्रधानता सहित व्याख्यान
होता है; सो जहाँ जैसा सम्भव हो वैसा समझ लेना।
अनुयोगोंके व्याख्यानकी पद्धति
अब, इन अनुयोगोंमें कैसी पद्धतिकी मुख्यता पायी जाती है, सो कहते हैंः
प्रथमानुयोगमें तो अलंकार शास्त्रकी व काव्यादि शास्त्रोंकी पद्धति मुख्य है; क्योंकि
अलंकारादिसे मन रंजायमान होता है, सीधी बात कहनेसे ऐसा उपयोग नहीं लगताजैसा
अलंकारादि युक्तिसहित कथनसे उपयोग लगता है। तथा परोक्ष बातको कुछ अधिकतापूर्वक
निरूपण किया जाये तो उसका स्वरूप भली-भाँति भासित होता है।
तथा करणानुयोगमें गणित आदि शास्त्रोंकी पद्धति मुख्य है; क्योंकि वहाँ द्रव्य-क्षेत्र-
काल-भावके प्रमाणादिकका निरूपण करते हैं; सो गणित-ग्रन्थोंकी आम्नायसे उसका सुगम
जानपना होता है।

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आठवाँ अधिकार ][ २८७
तथा चरणानुयोगमें सुभाषित नीतिशास्त्रोंकी पद्धति मुख्य है; क्योंकि वहाँ आचरण
कराना है; इसलिये लोकप्रवृत्तिके अनुसार नीतिमार्ग बतलाने पर वह आचरण करता है।
तथा द्रव्यानुयोगमें न्यायशास्त्रोंकी पद्धति मुख्य है; क्योंकि वहाँ निर्णय करनेका प्रयोजन
है और न्यायशास्त्रोंमें निर्णय करनेका मार्ग दिखाया है।
इस प्रकार इन अनुयोगोंमें मुख्य पद्धति है और भी अनेक पद्धतिसहित व्याख्यान
इनमें पाये जाते हैं।
यहाँ कोई कहेअलंकार, गणित, नीति, न्यायका ज्ञान तो पण्डितोंके होता है;
तुच्छबुद्धि समझे नहीं, इसलिये सीधा कथन क्यों नहीं किया?
उत्तरःशास्त्र हैं सो मुख्यरूपसे पण्डितों और चतुरोंके अभ्यास करने योग्य हैं, यदि
अलंकारादि आम्नाय सहित कथन हो तो उनका मन लगे। तथा जो तुच्छबुद्धि हैं उनको
पण्डित समझा दें और जो नहीं समझ सकें तो उन्हें मुँहसे सीधा ही कथन कहें। परन्तु
ग्रन्थोंमें सीधा लिखनेसे विशेषबुद्धि जीव अभ्यासमें विशेष नहीं प्रवर्तते, इसलिये अलंकारादि
आम्नाय सहित कथन करते हैं।
इसप्रकार इन चार अनुयोगोंका निरूपण किया।
तथा जैनमतमें बहुत शास्त्र तो चारों अनुयोगोंमें गर्भित हैं।
तथा व्याकरण, न्याय, छन्द, कोषादिक शास्त्र व वैद्यक, ज्योतिष, मन्त्रादि शास्त्र भी
जिनमतमें पाये जाते हैं। उनका क्या प्रयोजन है सो सुनोः
व्याकरण-न्यायादि शास्त्रोंका प्रयोजन
व्याकरण-न्यायादिकका अभ्यास होने पर अनुयोगरूप शास्त्रोंका अभ्यास हो सकता है;
इसलिये व्याकरणादि शास्त्र कहे हैं।
कोई कहेभाषारूप सीधा निरूपण करते तो व्याकरणादिका क्या प्रयोजन था?
उत्तरःभाषा तो अपभ्रंशरूप अशुद्धवाणी है, देश-देशमें और-और हैं; वहाँ महन्त
पुरुष शास्त्रोंमें ऐसी रचना कैसे करें? तथा व्याकरण-न्यायादिक द्वारा जैसे यथार्थ सूक्ष्म अर्थका
निरूपण होता है वैसा सीधी भाषामें नहीं हो सकता; इसलिये व्याकरणादिकी आम्नायसे वर्णन
किया है। सो अपनी बुद्धिके अनुसार थोड़ा-बहुत इनका अभ्यास करके अनुयोगरूप प्रयोजनभूत
शास्त्रोंका अभ्यास करना।
तथा वैद्यकादि चमत्कारसे जिनमतकी प्रभावना हो व औषधादिकसे उपकार भी बने;

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२८८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
अथवा जो जीव लौकिक कार्योंमें अनुरक्त हैं वै वैद्यकादि चमत्कारसे जैनी होकर पश्चात् सच्चा
धर्म प्राप्त करके अपना कल्याण करें
इत्यादि प्रयोजन सहित वैद्यकादि शास्त्र कहे हैं।
यहाँ इतना है कि ये भी जैनशास्त्र हैं ऐसा जानकर इनके अभ्यासमें बहुत नहीं
लगना। यदि बहुत बुद्धिसे इनका सहज जानना हो और इनको जाननेसे अपने रागादिक
विकार बढ़ते न जाने, तो इनका भी जानना होओ। अनुयोगशास्त्रवत् ये शास्त्र बहुत कार्यकारी
नहीं हैं, इसलिये इनके अभ्यासका विशेष उद्यम करना योग्य नहीं है।
प्रश्नःयदि ऐसा है तो गणधरादिकने इनकी रचना किसलिये की?
उत्तरःपूर्वोक्त किंचित् प्रयोजन जानकर इनकी रचना की है। जैसेबहुत धनवान
कदाचित् अल्पकार्यकारी वस्तुका भी संचय करता है; परन्तु थोड़े धनवाला उन वस्तुओंका
संचय करे तो धन तो वहाँ लग जाये, फि र बहुत कार्यकारी वस्तुका संग्रह काहेसे करे?
उसी प्रकार बहुत बुद्धिमान गणधरादिक कथंचित् अल्पकार्यकारी वैद्यकादि शास्त्रोंका भी संचय
करते हैं; परन्तु थोड़ा बुद्धिमान उनके अभ्यासमें लगे तो बुद्धि तो वहाँ लग जाये, फि र
उत्कृष्ट कार्यकारी शास्त्रोंका अभ्यास कैसे करे?
तथा जैसेमंदरागी तो पुराणादिमें श्रृंगारादिकका निरूपण करे तथापि विकारी नहीं
होता; परन्तु तीव्र रागी वैसे श्रृंगारादिका निरूपण करे तो पाप ही बाँधेगा। उसी प्रकार
मंदरागी गणधरादिक हैं वे वैद्यकादि शास्त्रोंका निरूपण करें तथापि विकारी नहीं होते; परन्तु
तीव्र रागी उनके अभ्यासमें लग जायें तो रागादिक बढ़ाकर पापकर्मको बाँधेगें
ऐसा जानना।
इसप्रकार जैनमतके उपदेशका स्वरूप जानना।
अनुयोगोंमें दोष-कल्पनाओंका निराकरण
अब इनमें कोई दोष-कल्पना करता है, उसका निराकरण करते हैंः
प्रथमानुयोगमें दोष-कल्पनाका निराकरण
कितने ही जीव कहते हैंप्रथमानुयोगमें श्रृंगारादिक व संग्रामादिकका बहुत कथन
करते हैं, उनके निमित्तसे रागादिक बढ़ जाते हैं, इसलिये ऐसा कथन नहीं करना था, व
ऐसा कथन सुनना नहीं।
उनसे कहते हैंकथा कहना हो तब तो सभी अवस्थाओंका कथन करना चाहिये;
तथा यदि अलंकारादि द्वारा बढ़ाकर कथन करते हैं, सो पण्डितोंके वचन तो युक्तिसहित ही
निकलते हैं।

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आठवाँ अधिकार ][ २८९
और यदि तुम कहोगे कि सम्बन्ध मिलानेको कथन किया होता, बढ़ाकर कथन किसलिये
किया?
उसका उत्तर यह है कि परोक्ष कथनको बढ़ाकर कहे बिना उसका स्वरूप भासित
नहीं होता। तथा पहले तो भोग-संग्रामादि इस प्रकार किये, पश्चात् सबका त्याग करके मुनि
हुए; इत्यादि चमत्कार तभी भासित होंगे जब बढ़ाकर कथन किया जाये।
तथा तुम कहते होउसके निमित्तसे रागादिक बढ़ जाते हैं; सो जैसे कोई चैत्यालय
बनवाये, उसका प्रयोजन तो वहाँ धर्मकार्य करानेका है; और कोई पापी वहाँ पापकार्य करे
तो चैत्यालय बनवानेवालेका तो दोष नहीं है। उसी प्रकार श्रीगुरुने पुराणादिमें श्रृंगारादिका
वर्णन किया; वहाँ उनका प्रयोजन रागादिक करानेका तो है नहीं, धर्ममें लगानेका प्रयोजन
है; परन्तु कोई पापी धर्म न करे और रागादिक ही बढ़ाये तो श्रीगुरुका क्या दोष है?
यदि तू कहे रागादिकका निमित्त हो ऐसा कथन ही नहीं करना था।
उसका उत्तर यह है
सरागी जीवोंका मन केवल वैराग्यकथनमें नहीं लगता। इसलिये
जिसप्रकार बालकको बताशेके आश्रयसे औषधि देते हैं; उसीप्रकार सरागीको भोगादि कथनके
आश्रयसे धर्ममें रुचि कराते हैं।
यदि तू कहेगाऐसा है तो विरागी पुरुषोंको तो ऐसे ग्रन्थोंका अभ्यास करना योग्य
नहीं है?
उसका उत्तर यह हैजिनके अन्तरंगमें रागभाव नहीं हैं, उनको श्रृंगारादि कथन सुनने
पर रागादि उत्पन्न ही नहीं होते। वे जानते हैं कि यहाँ इसी प्रकार कथन करनेकी पद्धति है।
फि र तू कहेगाजिनको श्रृंगारादिका कथन सुनने पर रागादि हो आयें, उन्हें तो
वैसा कथन सुनना योग्य नहीं है?
उसका उत्तर यह हैजहाँ धर्मका ही तो प्रयोजन है और जहाँ-तहाँ धर्मका पोषण
करते हैं ऐसे जैन पुराणादिकमें प्रसंगवश श्रृंगारादिकका कथन किया है। उसे सुनकर
भी जो बहुत रागी हुआ तो वह अन्यत्र कहाँ विरागी होगा? वह तो पुराण सुनना छोड़कर
अन्य कार्य भी ऐसे ही करेगा जहाँ बहुत रागादि हों; इसलिये उसको भी पुराण सुननेसे
थोड़ी-बहुत धर्मबुद्धि हो तो हो। अन्य कार्योंसे तो यह कार्य भला ही है।
तथा कोई कहेप्रथमानुयोगमें अन्य जीवोंकी कहानियाँ हैं, उनसे अपना क्या प्रयोजन
सधता है?
उससे कहते हैंजैसे कामी पुरुषोंकी कथा सुनने पर अपनेको भी कामका प्रेम बढ़ता

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२९० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
है; उसी प्रकार धर्मात्मा पुरुषोंकी कथा सुनने पर अपनेको धर्मकी प्रीति विशेष होती है।
इसलिये प्रथमानुयोगका अभ्यास करना योग्य है।
करणानुयोगमें दोष-कल्पनाका निराकरण
तथा कितने ही जीव कहते हैंकरणानुयोगमें गुणस्थान, मार्गणादिकका व
कर्मप्रकृतियोंका कथन किया व त्रिलोकादिकका कथन किया; सो उन्हें जान लिया कि ‘यह
इस प्रकार है’, ‘यह इस प्रकार है’ इसमें अपना कार्य क्या सिद्ध हुआ? या तो भक्ति करें,
या व्रत-दानादि करें, या आत्मानुभवन करें
इससे अपना भला हो। उनसे कहते हैंपरमेश्वर
तो वीतराग हैं; भक्ति करनेसे प्रसन्न होकर कुछ करते नहीं हैं। भक्ति करनेसे कषाय मन्द
होती है, उसका स्वयमेव उत्तम फल होता है। सो करणानुयोगके अभ्यासमें उससे भी अधिक
मन्द कषाय हो सकती है, इसलिये इसका फल अति उत्तम होता है। तथा व्रत-दानादिक
तो कषाय घटानेके बाह्यनिमित्तके साधन हैं और करणानुयोगका अभ्यास करने पर वहाँ उपयोग
लग जाये तब रागादिक दूर होते हैं सो यह अंतरंगनिमित्तका साधन है; इसलिये यह विशेष
कार्यकारी है। व्रतादिक धारण करके अध्ययनादि करते हैं। तथा आत्मानुभव सर्वोत्तम कार्य
है; परन्तु सामान्य अनुभवमें उपयोग टिकता नहीं है और नहीं टिकता तब अन्य विकल्प
होते हैं; वहाँ करणानुयोगका अभ्यास हो तो उस विचारमें उपयोगको लगाता है।
यह विचार वर्तमान भी रागादिक घटाता है और आगामी रागादिक घटानेका कारण
है, इसलिये यहाँ उपयोग लगाना।
जीवकर्मादिकके नानाप्रकारसे भेद जाने, उनमें रागादिक करनेका प्रयोजन नहीं है,
इसलिये रागादिक बढ़ते नहीं हैं; वीतराग होनेका प्रयोजन जहाँ-तहाँ प्रगट होता है, इसलिये
रागादि मिटानेका कारण है।
यहाँ कोई कहेकोई कथन तो ऐसा ही है, परन्तु दीप-समुद्रादिकके योजनादिका
निरूपण किया उनमें क्या सिद्धि है?
उत्तरःउनको जानने पर उनमें कुछ इष्ट-अनिष्ट बुद्धि नहीं होती, इसलिये पूर्वोक्त सिद्धि
होती है।
फि र वह कहता हैऐसा है तो जिनसे कुछ प्रयोजन नहीं है, ऐसे पाषाणादिकको
भी जानते हुए वहाँ इष्ट-अनिष्टपना नहीं मानते, इसलिये वह भी कार्यकारी हुआ।
उत्तरःसरागी जीव रागादि प्रयोजन बिना किसीको जाननेका उद्यम नहीं करता; यदि
स्वयमेव उनका जानना हो तो अंतरंग रागादिकके अभिप्रायवश वहाँसे उपयोगको छुड़ाना ही
चाहता है। यहाँ उद्यम द्वारा द्वीप
समुद्रादिको जानता है, वहाँ उपयोग लगाता है; सो रागादि

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आठवाँ अधिकार ][ २९१
घटने पर ऐसा कार्य होता है। तथा पाषाणादिकमें इस लोकका कोई प्रयोजन भासित हो
जाये तो रागादिक हो आते हैं और द्वीपादिकमें इस लोक सम्बन्धी कार्य कुछ नहीं है, इसलिये
रागादिकका कारण नहीं है।
यदि स्वर्गादिककी रचना सुनकर वहाँ राग हो, तो परलोक सम्बन्धी होगा; उसका
कारण पुण्यको जाने तब पाप छोड़कर पुण्यमें प्रवर्ते इतना ही लाभ होगा; तथा द्वीपादिकको
जानने पर यथावत् रचना भासित हो तब अन्यमतादिकका कहा झूठ भासित होनेसे सत्य श्रद्धानी
हो और यथावत् रचना जाननेसे भ्रम मिटने पर उपयोगकी निर्मलता हो; इसलिये वह अभ्यास
कार्यकारी है।
तथा कितने ही कहते हैंकरणानुयोगमें कठिनता बहुत है, इसलिये उसके अभ्यासमें
खेद होता है।
उनसे कहते हैंयदि वस्तु शीघ्र जाननेमें आये तो वहाँ उपयोग उलझता नहीं है;
तथा जानी हुई वस्तुको बारम्बार जाननेका उत्साह नहीं होता तब पापकार्योंमें उपयोग लग
जाता है; इसलिये अपनी बुद्धि अनुसार कठिनतासे भी जिसका अभ्यास होता जाने उसका
अभ्यास करना, तथा जिसका अभ्यास हो ही न सके उसका कैसे करे?
तथा तू कहता हैखेद होता है। परन्तु प्रमादी रहनेमें तो धर्म है नहीं; प्रमादसे
सुखी रहे वहाँ तो पाप ही होता है; इसलिये धर्मके अर्थ उद्यम करना ही योग्य है।
ऐसा विचार करके करणानुयोगका अभ्यास करना।
चरणानुयोगमें दोष-कल्पनाका निराकरण
तथा कितने ही जीव ऐसा कहते हैंचरणानुयोगमें बाह्य व्रतादि साधनका उपदेश
है, सो इनसे कुछ सिद्धि नहीं है; अपने परिणाम निर्मल होना चाहिये, बाह्यमें चाहे जैसे प्रवर्तो;
इसलिये इस उपदेशसे पराङ्मुख रहते हैं।
उनसे कहते हैंआत्मपरिणामोंके और बाह्यप्रवृत्तिके निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है।
क्योंकि छद्मस्थके क्रियाएँ परिणामपूर्वक होती हैं; कदाचित् बिना परिणाम कोई क्रिया होती
है, सो परवशतासे होती है। अपने वशसे उद्यमपूर्वक कार्य करे और कहे कि ‘परिणाम
इसरूप नहीं हैं’ सो यह भ्रम है। अथवा बाह्य पदार्थका आश्रय पाकर परिणाम हो सकते
हैं; इसलिये परिणाम मिटानेके अर्थ बाह्य वस्तुका निषेध करना समयसारादिमें कहा है; इसीलिये
रागादिभाव घटने पर अनुक्रमसे बाह्य ऐसे श्रावक-मुनिधर्म होते हैं। अथवा इसप्रकार श्रावक-
मुनिधर्म अंगीकार करने पर पाँचवें-छठवें आदि गुणस्थानोंमें रागादि घटने पर परिणामोंकी प्राप्ति
होती है
ऐसा निरूपण चरणानुयोगमें किया है।

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२९२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा यदि बाह्यसंयमसे कुछ सिद्धि न हो तो सर्वार्थसिद्धिवासी देव सम्यग्दृष्टि बहुत
ज्ञानी हैं उनके तो चौथा गुणस्थान होता है और गृहस्थ श्रावक मनुष्योंके पंचम गुणस्थान
होता है, सो क्या कारण है? तथा तीर्थंकरादिक गृहस्थपद छोड़कर किसलिये संयम ग्रहण
करें? इसलिये यह नियम है कि बाह्य संयम साधन बिना परिणाम निर्मल नहीं हो सकते।
इसलिये बाह्य साधनका विधान जाननेके लिये चरणानुयोगका अभ्यास अवश्य करना चाहिये।
द्रव्यानुयोगमें दोष-कल्पनाका निराकरण
तथा कितने ही जीव कहते हैं कि द्रव्यानुयोगमें व्रत-संयमादि व्यवहारधर्मका हीनपना प्रगट
किया है। सम्यग्दृष्टिके विषय-भोगादिकको निर्जराका कारण कहा हैइत्यादि कथन सुनकर जीव
स्वच्छन्द होकर पुण्य छोड़कर पापमें प्रवर्तेंगे, इसलिये इनका पढ़नासुनना योग्य नहीं है।
उससे कहते हैंजैसे गधा मिश्री खाकर मर जाये तो मनुष्य तो मिश्री खाना नहीं
छोड़ेंगे; उसी प्रकार विपरीतबुद्धि अध्यात्मग्रन्थ सुनकर स्वच्छन्द हो जाये तो विवेकी तो
अध्यात्मग्रन्थोंका अभ्यास नहीं छोड़ेंगे। इतना करे कि जिसे स्वच्छन्द होता जाने, उसे जिसप्रकार
वह स्वच्छन्द न हो उसप्रकार उपदेश दे। तथा अध्यात्मग्रन्थोंमें भी स्वच्छन्द होनेका जहाँ-
तहाँ निषेध करते हैं, इसलिये जो भली-भाँति उनको सुने वह तो स्वच्छन्द होता नहीं; परन्तु
एक बात सुनकर अपने अभिप्रायसे कोई स्वच्छन्द हो तो ग्रन्थका तो दोष है नहीं, उस
जीवका ही दोष है।
तथा यदि झूठे दोषकी कल्पना करके अध्यात्मशास्त्रोंको पढ़ने-सुननेका निषेध करें तो
मोक्षमार्गका मूल उपदेश तो वहाँ है; उसका निषेध करने से तो मोक्षमार्गका निषेध होता है।
जैसे
मेघवर्षा होने पर बहुतसे जीवोंका कल्याण होता है और किसीको उल्टा नुकसान हो,
तो उसकी मुख्यता करके मेघका तो निषेध नहीं करना; उसी प्रकार सभामें अध्यात्म-उपदेश
होने पर बहुतसे जीवोंको मोक्षमार्गकी प्राप्ति होती है, परन्तु कोई उल्टा पापमें प्रवर्ते, तो उसकी
मुख्यता करके अध्यात्मशास्त्रोंका तो निषेध नहीं करना।
तथा अध्यात्मग्रंथोंसे कोई स्वच्छन्द हो; सो वह तो पहले भी मिथ्यादृष्टि था, अब
भी मिथ्यादृष्टि ही रहा। इतना ही नुकसान होगा कि सुगति न होकर कुगति होगी। परन्तु
अध्यात्म-उपदेश न होने पर बहुत जीवोंके मोक्षमार्गकी प्राप्तिका अभाव होता है और इसमें
बहुत जीवोंका बहुत बुरा होता है; इसलिये अध्यात्म-उपदेशका निषेध नहीं करना।
तथा कितने ही जीव कहते हैं कि द्रव्यानुयोगरूप अध्यात्म-उपदेश है वह उत्कृष्ट है;
सो उच्चदशाको प्राप्त हों उनको कार्यकारी है; निचली दशावालोंको व्रतसंयमादिकका ही उपदेश
देना योग्य है।

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आठवाँ अधिकार ][ २९३
उनसे कहते हैंजिनमतमें यह परिपाटी है कि पहले सम्यक्त्व होता है फि र व्रत
होते हैं; वह सम्यक्त्व स्व-परका श्रद्धान होने पर होता है और वह श्रद्धान द्रव्यानुयोगका
अभ्यास करने पर होता है; इसलिये प्रथम द्रव्यानुयोगके अनुसार श्रद्धान करके सम्यग्दृष्टि हो,
पश्चात् चरणानुयोगके अनुसार व्रतादिक धारण करके व्रती हो।
इसप्रकार मुख्यरूपसे तो
निचली दशामें ही द्रव्यानुयोग कार्यकारी है; गौणरूपसे जिसे मोक्षमार्गकी प्राप्ति होती न जाने
उसे पहले किसी व्रतादिकका उपदेश देते हैं; इसलिये ऊँची दशावालोंको अध्यात्म-अभ्यास योग्य
है
ऐसा जानकर निचली दशावालोंको वहाँसे पराङ्मुख होना योग्य नहीं है।
तथा यदि कहोगे कि ऊँचे उपदेशका स्वरूप निचली दशावालोंको भासित नहीं होता।
उसका उत्तर यह है
और तो अनेक प्रकार की चतुराई जानें और यहाँ मूर्खपना
प्रगट करें, वह योग्य नहीं है। अभ्यास करनेसे स्वरूप भली-भाँति भासित होता है, अपनी
बुद्धि अनुसार थोड़ा-बहुत भासित हो; परन्तु सर्वथा निरुद्यमी होनेका पोषण करें वह तो
जिनमार्गका द्वेषी होना है।
तथा यदि कहोगे कि यह काल निकृष्ट है, इसलिये उत्कृष्ट अध्यात्म-उपदेशकी मुख्यता
नहीं करना।
तो उनसे कहते हैंयह काल साक्षात् मोक्ष न होनेकी अपेक्षा निकृष्ट है,
आत्मानुभवनादिक द्वारा सम्यक्त्वादिक होना इस कालमें मना नहीं है; इसलिये आत्मानुभवनादिकके
अर्थ द्रव्यानुयोगका अवश्य अभ्यास करना।
वही षट्पाहुड़में (मोक्षपाहुड़में) कहा हैः
अज्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाऊण जंति सुरलोए
लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुआ णिव्वुदिं जंति।।७७।।
अर्थःआज भी त्रिरत्नसे शुद्ध जीव आत्माको ध्याकर स्वर्गलोकको प्राप्त होते हैं व
लौकान्तिकमें देवपना प्राप्त करते हैं; वहाँ से च्युत होकर मोक्ष जाते हैं। बहुरि...। इसलिये
इस कालमें भी द्रव्यानुयोगका उपदेश मुख्य चाहिये।
कोई कहता हैद्रव्यानुयोगमें अध्यात्म-शास्त्र हैं; वहाँ स्व-पर भेदविज्ञानादिकका उपदेश
दिया वह तो कार्यकारी भी बहुत है और समझमें भी शीघ्र आता है; परन्तु द्रव्य-गुण-
पर्यायादिकका व प्रमाण-नयादिकका व अन्यमतके कहे तत्त्वादिकके निराकरणका कथन किया,
१. यहाँ ‘बहुरि’ के आगे ३-४ पंक्तियोंका स्थान हस्तलिखित मूल प्रतिमें छोड़ा गया है, जिससे ज्ञात होता
है कि पण्डितप्रवर श्री टोडरमलजी यहाँ कुछ और भी लिखना चाहते थे, किन्तु लिख नहीं सके।

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२९४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
सो उनके अभ्याससे विकल्प विशेष होते हैं और वे बहुत प्रयास करने पर जाननेमें आते
हैं; इसलिये उनका अभ्यास नहीं करना।
उनसे कहते हैंसामान्य जाननेसे विशेष जानना बलवान है। ज्यों-ज्यों विशेष जानता
है त्यों-त्यों वस्तुस्वभाव निर्मल भासित होता है, श्रद्धान दृढ़ होता है, रागादि घटते हैं; इसलिये
उस अभ्यासमें प्रवर्तना योग्य है।
इस प्रकार चारों अनुयोगोंमें दोष-कल्पना करके अभ्याससे पराङ्मुख होना योग्य नहीं है।
व्याकरण-न्यायादि शास्त्रोंकी उपयोगिता
तथा व्याकरण-न्यायादिक शास्त्र हैं, उनका थोड़ा-बहुत अभ्यास करना; क्योंकि उनके
ज्ञान बिना बड़े शास्त्रोंका अर्थ भासित नहीं होता। तथा वस्तुका स्वरूप भी इनकी पद्धति
जानने पर जैसा भासित होता है वैसा भाषादिक द्वारा भासित नहीं होता; इसलिये परम्परा
कार्यकारी जानकर इनका भी अभ्यास करना; परन्तु इन्हींमें फँस नहीं जाना। इनका कुछ
अभ्यास करके प्रयोजनभूत शास्त्रोंके अभ्यासमें प्रवर्तना।
तथा वैद्यकादि शास्त्र हैं उनसे मोक्षमार्गमें कुछ प्रयोजन ही नहीं है; इसलिये किसी
व्यवहारधर्मके अभिप्रायसे बिना खेदके इनका अभ्यास हो जाये तो उपकारादि करना, पापरूप
नहीं प्रवर्तना; और इनका अभ्यास न हो तो मत होओ, कुछ बिगाड़ नहीं है।
इसप्रकार जिनमतके शास्त्र निर्दोष जानकर उपदेश मानना।
अनुयोगोंमें दिखाई देनेवाले परस्पर विरोधका निराकरण
अब, शास्त्रोंमें अपेक्षादिकको न जाननेसे परस्पर विरोध भासित होता है, उसका
निराकरण करते हैं।
प्रथमादि अनुयोगोंकी आम्नायके अनुसार यहाँ जिसप्रकार कथन किया हो, वहाँ
उसप्रकार जान लेना; अन्य अनुयोगके कथनको अन्य अनुयोगके कथनसे अन्यथा जानकर
सन्देह नहीं करना। जैसे
कहीं तो निर्मल सम्यग्दृष्टिके ही शंका, कांक्षा, विचिकित्साका अभाव
कहा; कहीं भयका आठवें गुणस्थान पर्यन्त, लोभका दसवें पर्यन्त, जुगुप्साका आठवें पर्यन्त
उदय कहा; वहाँ विरुद्ध नहीं जानना। सम्यग्दृष्टिके श्रद्धानपूर्वक तीव्र शंकादिकका अभाव
हुआ है अथवा मुख्यतः सम्यग्दृष्टि शंकादि नहीं करता, उस अपेक्षा चरणानुयोगमें सम्यग्दृष्टिके
शंकादिकका अभाव कहा है; परन्तु सूक्ष्मशक्तिकी अपेक्षा भयादिकका उदय अष्टमादि गुणस्थान
पर्यन्त पाया जाता है, इसलिये करणानुयोगमें वहाँ तक उनका सद्भाव कहा है। इसीप्रकार
अन्यत्र जानना।

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आठवाँ अधिकार ][ २९५
पहले अनुयोगोंके उपदेश विधानमें कई उदाहरण कहे हैं, वह जानना अथवा अपनी
बुद्धिसे समझ लेना।
तथा एक ही अनुयोगमें विवक्षावश अनेकरूप कथन करते हैं। जैसेकरणानुयोगमें
प्रमादोंका सातवें गुणस्थानमें अभाव कहा, वहाँ कषायादिक प्रमादके भेद कहे; तथा वहाँ
कषायादिकका सद्भाव दसवें आदि गुणस्थान पर्यन्त कहा, वहाँ विरुद्ध नहीं जानना; क्योंकि
यहाँ प्रमादोंमें तो जिन शुभाशुभभावोंके अभिप्राय सहित कषायादिक होते हैं उनका ग्रहण है
और सातवें गुणस्थानमें ऐसा अभिप्राय दूर हुआ है, इसलिये उनका वहाँ अभाव कहा है।
तथा सूक्ष्मादिभावोंकी अपेक्षा उन्हींका दसवें आदि गुणस्थानपर्यन्त सद्भाव कहा है।
तथा चरणानुयोगमें चोरी, परस्त्री आदि सप्तव्यसनका त्याग पहली प्रतिमामें कहा है,
तथा वहीं उनका त्याग दूसरी प्रतिमामें कहा है, वहाँ विरुद्ध नहीं जानना; क्योंकि सप्तव्यसनमें
तो चोरी आदि कार्य ऐसे ग्रहण किये हैं जिनसे दंडादिक पाता है, लोकमें अति निन्दा होती
है। तथा व्रतोंमें ऐसे चोरी आदि त्याग करने योग्य कहे हैं कि जो गृहस्थधर्मसे विरुद्ध
होते हैं व किंचित् लोकनिंद्य होते हैं
ऐसा अर्थ जानना। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
तथा नाना भावोंकी सापेक्षतासे एक ही भावका अन्य-अन्य प्रकारसे निरूपण करते
हैं। जैसेकहीं तो महाव्रतादिकको चारित्रके भेद कहा, कहीं महाव्रतादि होने पर भी
द्रव्यलिंगीको असंयमी कहा, वहाँ विरुद्ध नहीं जानना; क्योंकि सम्यग्ज्ञान सहित महाव्रतादिक
तो चारित्र हैं और अज्ञानपूर्वक व्रतादिक होने पर भी असंयमी ही है।
तथा जिसप्रकार पाँच मिथ्यात्वोंमें भी विनय कहा है और बारह प्रकारके तपोंमें भी
विनय कहा है वहाँ विरुद्ध नहीं जानना, क्योंकि जो विनय करनेयोग्य नहीं हैंउनकी भी
विनय करके धर्म मानना वह तो विनय मिथ्यात्व है और धर्मपद्धतिसे जो विनय करने योग्य
हैं, उनकी यथायोग्य विनय करना सो विनय तप है।
तथा जिसप्रकार कहीं तो अभिमानकी निन्दा की और कहीं प्रशंसा की, वहाँ विरुद्ध
नहीं जानना; क्योंकि मान कषायसे अपनेको ऊँचा मनवानेके अर्थ विनयादि न करे वह अभिमान
निंद्य ही है और निर्लोभपनेसे दीनता आदि न करे वह अभिमान प्रशंसा योग्य है।
तथा जैसे कहीं चतुराई की निन्दा की, कहीं प्रशंसा की वहाँ विरुद्ध नहीं जानना;
क्योंकि माया कषायसे किसीको ठगनेके अर्थ चतुराई करें वह तो निंद्य ही है और विवेक
सहित यथासम्भव कार्य करनेमें जो चतुराई हो वह श्लाघ्घ ही है। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।

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२९६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा एक ही भावकी कहीं तो उससे उत्कृष्ट भावकी अपेक्षा निन्दा की हो और कहीं
उससे हीन भावकी अपेक्षासे प्रशंसा की हो वहाँ विरुद्ध नहीं जानना। जैसेकिसी
शुभक्रियाकी जहाँ निन्दा की हो वहाँ तो उससे ऊँची शुभक्रिया व शुद्धभावकी अपेक्षा जानना
और जहाँ प्रशंसा की हो वहाँ उससे नीची क्रिया व अशुभक्रियाकी अपेक्षा जानना। इसी
प्रकार अन्यत्र जानना।
तथा इसप्रकार किसी जीवकी ऊँचे जीवकी अपेक्षासे निन्दा की हो वहाँ सर्वथा निन्दा
नहीं जानना और किसीकी नीचे जीवकी अपेक्षासे प्रशंसा की हो सो सर्वथा प्रशंसा नहीं जानना;
परन्तु यथासम्भव उसका गुण-दोष जान लेना।
इसीप्रकार अन्य व्याख्यान जिस अपेक्षा सहित किये हों उस अपेक्षासे उनका अर्थ
समझना।
तथा शास्त्रमें एक ही शब्दका कहीं तो कोई अर्थ होता है, कहीं कोई अर्थ होता है;
वहाँ प्रकरण पहिचानकर उसका सम्भवित अर्थ जानना। जैसेमोक्षमार्गमें सम्यग्दर्शन कहा, वहाँ
दर्शन शब्दका अर्थ श्रद्धान है और उपयोगवर्णनमें दर्शन शब्दका अर्थ वस्तुका सामान्य स्वरूप
ग्रहणमात्र है, तथा इन्द्रियवर्णनमें दर्शन शब्दका अर्थ नेत्र द्वारा देखना मात्र है। तथा जैसे सूक्ष्म
और बादरका अर्थ
वस्तुओंके प्रमाणादिक कथनमें छोटे प्रमाणसहित हो उसका नाम सूक्ष्म और
बड़े प्रमाणसहित हो उसका नाम बादरऐसा होता है। तथा पुद्गलस्कंधादिके कथनमें इन्द्रियगम्य
न हो वह सूक्ष्म और इन्द्रियगम्य हो वह बादरऐसा अर्थ है। जीवादिकके कथनमें ऋद्धि आदिके
निमित्त बिना स्वयमेव न रुके उसका नाम सूक्ष्म और रुके उसका नाम बादरऐसा अर्थ है।
वस्त्रादिकके कथनमें महीनका नाम सूक्ष्म और मोटेका नाम बादरऐसा अर्थ है।
तथा प्रत्यक्ष शब्दका अर्थ लोकव्यवहारमें तो इन्द्रिय द्वारा जाननेका नाम प्रत्यक्ष है,
प्रमाण भेदोंमें स्पष्ट प्रतिभासका नाम प्रत्यक्ष है, आत्मानुभवनादिमें अपनेमें अवस्था हो उसका
नाम प्रत्यक्ष है। तथा जैसे
मिथ्यादृष्टिके अज्ञान कहा, वहाँ सर्वथा ज्ञानका अभाव नहीं
जानना, सम्यग्ज्ञानके अभावसे अज्ञान कहा है। तथा जिसप्रकार उदीरणा शब्दका अर्थ जहाँ
देवादिकके उदीरणा नहीं कही वहाँ तो अन्य निमित्तसे मरण हो उसका नाम उदीरणा है और
दस करणोंके कथनमें उदीरणाकरण देवायुके भी कहा है, वहाँ ऊपरके निषेकोंका द्रव्य
उदयावलीमें दिया जाये उसका नाम उदीरणा है। इसीप्रकार अन्यत्र यथासम्भव अर्थ जानना।
तथा एक ही शब्दके पूर्व शब्द जोड़नेसे अनेक प्रकार अर्थ होते हैं व उसी शब्दके
अनेक अर्थ हैं; वहाँ जैसा सम्भव हो वैसा अर्थ जानना। जैसे‘जीते’ उसका नाम ‘जिन’

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आठवाँ अधिकार ][ २९७
है; परन्तु धर्मपद्धतिमें कर्मशत्रुको जीते उसका नाम ‘जिन’ जानना। यहाँ कर्मशत्रु शब्दको
पहले जोड़नेसे जो अर्थ होता है वह ग्रहण किया, अन्य नहीं किया। तथा जैसे ‘प्राण धारण
करे’ उसका नाम ‘जीव’ है। जहाँ जीवन-मरणका व्यवहार- अपेक्षा कथन हो वहाँ तो इन्द्रियादि
प्राण धारण करे वह जीव है; तथा द्रव्यादिकका निश्चय-अपेक्षा निरूपण हो वहाँ चैतन्यप्राणको
धारण करे वह जीव है। तथा जैसे
समय शब्दके अनेक अर्थ हैं; वहाँ आत्माका नाम
समय है, सर्व पदार्थका नाम समय है, कालका नाम समय है, समयमात्र कालका नाम समय
है, शास्त्रका नाम समय है, मतका नाम समय है। इसप्रकार अनेक अर्थोंमें जैसा जहाँ सम्भव
हो वैसा वहाँ जान लेना।
तथा कहीं तो अर्थ-अपेक्षा नामादिक कहते हैं, कहीं रूढ़ि-अपेक्षा नामादिक कहते हैं।
जहाँ रूढ़ि-अपेक्षा नामादिक लिखे हों वहाँ उनका शब्दार्थ ग्रहण नहीं करना; परन्तु उसका
जो रूढ़िरूप अर्थ हो वही ग्रहण करना। जैसे
सम्यक्त्वादिको धर्म कहा वहाँ तो यह जीवको
उत्तम स्थानमें धारण करता है, इसलिये इसका नाम सार्थ है; तथा धर्मद्रव्यका नाम धर्म कहा
वहाँ रूढ़ि नाम है, इसका अक्षरार्थ ग्रहण नहीं करना; परन्तु इस नामकी धारक एक वस्तु
है, ऐसा अर्थ ग्रहण करना। इसी प्रकार अन्यत्र जानना।
तथा कहीं शब्दका जो अर्थ होता हो वह तो ग्रहण नहीं करना, परन्तु वहाँ जो
प्रयोजनभूत अर्थ हो वह ग्रहण करना। जैसेकहीं किसीका अभाव कहा हो और वहाँ
किंचित् सद्भाव पाया जाये तो वहाँ सर्वथा अभाव नहीं ग्रहण करना; किंचित् सद्भावको
गिनकर अभाव कहा है
ऐसा अर्थ जानना। सम्यग्दृष्टिके रागादिकका अभाव कहा, वहाँ
इसीप्रकार अर्थ जानना। तथा नोकषायका अर्थ तो यह है कि ‘कषायका निषेध’; परन्तु
यह अर्थ ग्रहण नहीं करना; यहाँ तो क्रोधादि समान यह कषाय नहीं है, किंचित् कषाय
हैं, इसलिए नोकषाय हैं
ऐसा अर्थ ग्रहण करना। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
तथा जैसे कहीं किसी युक्तिसे कथन किया हो, वहाँ प्रयोजन ग्रहण करना। समयसार
कलश में यह कहा है कि ‘‘धोबीके दृष्टान्तवत् परभावके त्यागकी दृष्टि यावत् प्रवृत्तिको प्राप्त
नहीं हुई तावत् यह अनुभूति प्रगट हुई’’; सो यहाँ यह प्रयोजन है कि परभावका त्याग
होते ही अनुभूति प्रगट होती है। लोकमें किसीके आते ही कोई कार्य हुआ हो, वहाँ ऐसा
कहते हैं कि ‘यह आया ही नहीं और यह ऐसा कार्य हो गया।’ ऐसा ही प्रयोजन यहाँ
ग्रहण करना। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
१. अवतरति न यावद्वृत्तिमत्यन्तवेगादनवमपरभावत्यागदृष्टान्तदृष्टिः।
झटिति सकलभावैरन्यदीयैर्विमुक्ता स्वयमियमनुभूतिस्तावदाविर्बभूव।।२९।।

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२९८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा जैसे कहीं कुछ प्रमाणादिक कहे हों, वहाँ वही नहीं मान लेना, परन्तु प्रयोजन
हो वह जानना। ज्ञानार्णव में ऐसा कहा है‘इस कालमें दो-तीन सत्पुरुष हैं’; सो नियमसे
इतने ही नहीं हैं, परन्तु यहाँ ‘थोड़े हैं’ ऐसा प्रयोजन जानना। इसी प्रकार अन्यत्र जानना।
इसी रीति सहित और भी अनेक प्रकार शब्दोंके अर्थ होते हैं, उनको यथासम्भव
जानना, विपरीत अर्थ नहीं जानना।
तथा जो उपदेश हो, उसे यथार्थ पहिचानकर जो अपने योग्य उपदेश हो उसे अंगीकार
करना। जैसेवैद्यक शास्त्रोंमें अनेक औषधियाँ कही हैं, उनको जाने; परन्तु ग्रहण उन्हींका
करे जिनसे अपना रोग दूर हो। अपनेको शीतका रोग हो तो उष्ण औषधिका ही ग्रहण
करे, शीतल औषधिका ग्रहण न करे; यह औषधि औरोंको कार्यकारी है, ऐसा जाने।
उसीप्रकार जैनशास्त्रोंमें अनेक उपदेश हैं, उन्हें जाने; परन्तु ग्रहण उसीका करे जिससे अपना
विकार दूर हो जाये। अपनेको जो विकार हो उसका निषेध करनेवाले उपदेशको ग्रहण करे,
उसके पोषक उपदेशको ग्रहण न करे; यह उपदेश औरोंको कार्यकारी है, ऐसा जाने।
यहाँ उदाहरण कहते हैंजैसे शास्त्रोंमें कहीं निश्चयपोषक उपदेश है, कहीं व्यवहारपोषक
उपदेश है। वहाँ अपनेको व्यवहारका आधिक्य हो तो निश्चयपोषक उपदेशका ग्रहण करके
यथावत् प्रवर्ते और अपनेको निश्चयका आधिक्य हो तो व्यवहारपोषक उपदेशका ग्रहण करके
यथावत् प्रवर्ते। तथा पहले तो व्यवहारश्रद्धानके कारण आत्मज्ञानसे भ्रष्ट हो रहा था, पश्चात्
व्यवहार उपदेशकी ही मुख्यता करके आत्मज्ञानका उद्यम न करे; अथवा पहले तो निश्चयश्रद्धानके
कारण वैराग्यसे भ्रष्ट होकर स्वच्छन्दी हो रहा था, पश्चात् निश्चय उपदेशकी ही मुख्यता करके
विषय-कषायका पोषण करता है। इसप्रकार विपरीत उपदेश ग्रहण करनेसे बुरा ही होता है।
तथा जैसे आत्मानुशासन में ऐसा कहा है कि ‘‘तू गुणवान होकर दोष क्यों लगाता
है? दोषवान होना था तो दोषमय ही क्यों नहीं हुआ?’’ सो यदि जीव आप तो गुणवान
हो और कोई दोष लगता हो वहाँ वह दोष दूर करनेके लिये उस उपदेशको अंगीकार करना।
तथा आप तो दोषवान है और इस उपदेशका ग्रहण करके गुणवान पुरुषोंको नीचा दिखलाये
१. दुःप्रज्ञाबललुप्तवस्तुनिचया विज्ञानशून्याशयाः।
विद्यन्ते प्रतिमन्दिरं निजनिजस्वार्थोद्यता देहिनः।।
आनन्दामृतसिन्धुशीकरचयैर्निर्वाप्य जन्मज्वरं।
ये मुक्तेर्वदनेन्दुवीक्षणपरास्ते सन्ति द्वित्रा यदि।।२४।।
२. हे चन्द्रमः किमिति लाञ्छनवानभूस्त्वं। तद्वान् भवेः किमिति तन्मय एव नाभूः।
किं ज्योत्स्नया मलमलं तव घोषयन्त्या। स्वर्भावन्ननु तथा सति नाऽसि लक्ष्यः।।१४०।।

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आठवाँ अधिकार ][ २९९
तो बुरा ही होगा। सर्वदोषमय होनेसे तो किंचित् दोषरूप होना बुरा नहीं है, इसलिये तुझसे
तो वह भला है। तथा यहाँ यह कहा है कि ‘‘तू दोषमय ही क्यों नहीं हुआ?’’ सो
यह तो तर्क किया है, कहीं सर्वदोषमय होनेके अर्थ यह उपदेश नहीं है। तथा यदि गुणवानकी
किंचित् दोष होने पर निन्दा है तो सर्व दोषरहित तो सिद्ध हैं; निचली दशामें तो कोई गुण
होता ही है।
यहाँ कोई कहेऐसा है तो ‘‘मुनिलिंग धारण करके किंचित् परिग्रह रखे वह भी
निगोद जाता है’’ऐसा षट्पाहुड़ में कैसे कहा है?
उत्तरःऊँची पदवी धारण करके उस पदमें सम्भवित नहीं हैं ऐसे नीचे कार्य करे
तो प्रतिज्ञाभंगादि होनेसे महादोष लगता है और नीची पदवीमें वहाँ सम्भवित ऐसे गुण-दोष
हों, वहाँ उसका दोष ग्रहण करना योग्य नहीं है
ऐसा जानना।
तथा उपदेशसिद्धान्तरत्नमाला में कहा है‘आज्ञानुसार उपदेश देनेवालेका क्रोध भी
क्षमाका भंडार है’; परन्तु यह उपदेश वक्ताको ग्रहण करने योग्य नहीं है। इस उपदेशसे
वक्ता क्रोध करता रहे तो उसका बुरा ही होगा। यह उपदेश श्रोताओंके ग्रहण करने योग्य
है। कदाचित् वक्ता क्रोध करके भी सच्चा उपदेश दे तो श्रोता गुण ही मानेंगे। इसीप्रकार
अन्यत्र जानना।
तथा जैसे किसीको अति शीतांग रोग हो, उसके अर्थ अति उष्ण रसादिक औषधियाँ
कही हैं; उन औषधियोंको जिसके दाह हो व तुच्छ शीत हो वह ग्रहण करे तो दुःख ही
पायेगा। इसीप्रकार किसीके किसी कार्यकी अति मुख्यता हो उसके अर्थ उसके निषेधका अति
खींचकर उपदेश दिया हो; उसे जिसके उस कार्यकी मुख्यता न हो व थोड़ी मुख्यता हो
वह ग्रहण करे तो बुरा ही होगा।
यहाँ उदाहरणजैसे किसीके शास्त्राभ्यासकी अति मुख्यता है और आत्मानुभवका उद्यम
ही नहीं है, उसके अर्थ बहुत शास्त्राभ्यासका निषेध किया है। तथा जिसके शास्त्राभ्यास
नहीं है व थोड़ा शास्त्राभ्यास है, वह जीव उस उपदेशसे शास्त्राभ्यास छोड़ दे और आत्मानुभवमें
उपयोग न रहे तब उसका तो बुरा ही होगा।
जहजायरूवसरिसो तिलतुसमेत्तं ण गिहदि हत्थेसु।
जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदम्।।१८।। (सूत्रपाहुड़)
२. रोसोवि खमाकोसो सुत्तं भासंत जस्सणधणस्य।
उस्सुत्तेण खमाविय दोस महामोह आवासो।।१४।।

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३०० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा जैसे किसीके यज्ञस्नानादि द्वारा हिंसासे धर्म माननेकी मुख्यता है, उसके अर्थ
‘यदि पृथ्वी उलट जाये तब भी हिंसा करनेसे पुण्यफल नहीं होता’ऐसा उपदेश दिया है।
तथा जो जीव पूजनादि कार्यों द्वारा किंचित् हिंसा लगाता है और बहुत पुण्य उपजाता है,
वह जीव इस उपदेशसे पूजनादि कार्य छोड़ दे और हिंसारहित सामायिकादि धर्ममें लगे नहीं
तब उसका तो बुरा ही होगा। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
तथा जैसे कोई औषधि गुणकारी है; परन्तु अपनेको जब तक उस औषधिसे हित
हो तब तक उसका ग्रहण करे; यदि शीत मिटाने पर भी उष्ण औषधिका सेवन करता ही
रहे तो उल्टा रोग होगा। उसीप्रकार कोई धर्मकार्य है; परन्तु अपनेको जब तक उस धर्मकार्यसे
हित हो तब तक उसका ग्रहण करे; यदि उच्च दशा होने पर निचली दशा सम्बन्धी धर्मके
सेवनमें लगे तो उल्टा विकार ही होगा।
यहाँ उदाहरणजैसे पाप मिटानेके अर्थ प्रतिक्रमणादि धर्मकार्य कहे हैं; परन्तु
आत्मानुभव होने पर प्रतिक्रमणादिका विकल्प करे तो उल्टा विकार बढ़ेगा; इसीसे समयसारमें
प्रतिक्रमणादिकको विष कहा है। तथा जैसे अव्रतीको करने योग्य प्रभावनादि धर्मकार्य कहे
हैं, उन्हें व्रती होकर करे तो पाप ही बाँधेगा। व्यापारादि आरम्भ छोड़कर चैत्यालयादि कार्योंका
अधिकारी हो यह कैसे बनेगा? इसीप्रकार अन्यत्र भी जानना।
तथा जैसे पाकादिक औषधियाँ पुष्टकारी हैं, परन्तु ज्वरवान् उन्हें ग्रहण करे तो महादोष
उत्पन्न हो; उसीप्रकार ऊँचा धर्म बहुत भला है, परन्तु अपने विकारभाव दूर न हों और
ऊँचे धर्मका ग्रहण करे तो महान दोष उत्पन्न होगा। यहाँ उदाहरण
जैसे अपना अशुभ
विकार भी नहीं छूटा हो और निर्विकल्प दशाको अंगीकार करे तो उल्टा विकार बढ़ेगा;
तथा भोजनादि विषयोंमें आसक्त हो और आरम्भत्यागादि धर्मको अंगीकार करे तो दोष ही
उत्पन्न होगा। तथा जैसे व्यापारादि करनेका विकार तो छूटे नहीं और त्यागके भेषरूप धर्म
अंगीकार करे तो महान दोष उत्पन्न होगा। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
इसी प्रकार और भी सच्चे विचारसे उपदेशको यथार्थ जानकर अंगीकार करना। बहुत
विस्तार कहाँ तक कहें; अपनेको सम्यग्ज्ञान होने पर स्वयं ही को यथार्थ भासित होता है।
उपदेश तो वचनात्मक है तथा वचन द्वारा अनेक अर्थ युगपत् नहीं कहे जाते; इसलिये उपदेश
तो एक ही अर्थकी मुख्यतासहित होता है।
तथा जिस अर्थका जहाँ वर्णन है, वहाँ उसीकी मुख्यता है, दूसरे अर्थकी वहीं मुख्यता
करे तो दोनों उपदेश दृढ़ नहीं होंगे; इसलिये उपदेशमें एक अर्थको दृढ़ करे; परन्तु सर्व
जिनमतका चिह्न स्याद्वाद है और ‘स्यात्’ पदका अर्थ ‘कथंचित्’ है; इसलिये जो उपदेश हो

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आठवाँ अधिकार ][ ३०१
उसे सर्वथा नहीं जान लेना। उपदेशके अर्थको जानकर वहाँ इतना विचार करना कि यह
उपदेश किस प्रकार है, किस प्रयोजन सहित है, किस जीवको कार्यकारी है? इत्यादि विचार
करके उसका यथार्थ अर्थ ग्रहण करे। पश्चात् अपनी दशा देखे। जो उपदेश जिसप्रकार
अपनेको कार्यकारी हो उसे उसी प्रकार आप अंगीकार करे; और जो उपदेश जानने योग्य
ही हो तो उसे यथार्थ जान ले। इसप्रकार उपदेशके फलको प्राप्त करे।
यहाँ कोई कहेजो तुच्छबुद्धि इतना विचार न कर सके वह क्या करे?
उत्तरःजैसे व्यापारी अपनी बुद्धिके अनुसार जिसमें समझे सो थोड़ा या बहुत व्यापार करे,
परन्तु नफा-नुकसानका ज्ञान तो अवश्य होना चाहिये। उसीप्रकार विवेकी अपनी बुद्धिके अनुसार
जिसमें समझे सो थोड़ा या बहुत उपदेशको ग्रहण करे, परन्तु मुझे यह कार्यकारी है, यह कार्यकारी
नहीं है
इतना तो ज्ञान अवश्य होना चाहिये। सो कार्य तो इतना है कि यथार्थ श्रद्धान-ज्ञान करके
रागादि घटाना। सो यह कार्य अपना सिद्ध हो उसी उपदेशका प्रयोजन ग्रहण करे; विशेष ज्ञान
न हो तो प्रयोजनको तो नहीं भूले; इतनी सावधानी अवश्य होना चाहिये। जिसमें अपने हितकी
हानि हो, उसप्रकार उपदेशका अर्थ समझना योग्य नहीं है।
इसप्रकार स्याद्वाददृष्टि सहित जैनशास्त्रोंका अभ्यास करनेसे अपना कल्याण होता है।
यहाँ कोई प्रश्न करे
जहाँ अन्य-अन्य प्रकार सम्भवित हों वहाँ तो स्याद्वाद सम्भव
है; परन्तु एक ही प्रकारसे शास्त्रमें परस्पर विरोध भासित हो वहाँ क्या करें? जैसे
प्रथमानुयोगमें एक तीर्थंकरके साथ हजारों मोक्ष गये बतलाये हैं; करणानुयोगमें छह महिना
आठ समयमें छह सौ आठ जीव मोक्ष जाते हैं
ऐसा नियम कहा है। प्रथमानुयोगमें ऐसा
कथन किया है कि देव-देवांगना उत्पन्न होकर फि र मरकर साथ ही मनुष्यादि पर्यायमें उत्पन्न
होते हैं। करणानुयोगमें देवकी आयु सागरोंप्रमाण और देवांगनाकी आयु पल्योंप्रमाण कही
है।
इत्यादि विधि कैसे मिलती है?
उत्तरःकरणानुयोगमें जो कथन है वह तो तारतम्य सहित है और अन्य अनुयोगमें
कथन प्रयोजनानुसार है; इसलिये करणानुयोगका कथन तो जिस प्रकार किया है उसी प्रकार
है; औरोंके कथनकी जैसे विधि मिले वैसे मिला लेना। हजारों मुनि तीर्थंकरके साथ मोक्ष
गये बतलाये, वहाँ यह जानना कि एक ही कालमें इतने मोक्ष नहीं गये हैं, परन्तु जहाँ
तीर्थंकर गमनादि क्रिया मिटाकर स्थिर हुए, वहाँ उनके साथ इतने मुनि तिष्ठे, फि र आगे-
पीछे मोक्ष गये। इसप्रकार प्रथमानुयोग और करणानुयोगका विरोध दूर होता है। तथा देव-
देवांगना साथ उत्पन्न हुए, फि र देवांगनाने चयकर बीचमें अन्य पर्यायें धारण कीं, उनका प्रयोजन

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३०२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
न जानकर कथन नहीं किया। फि र वे साथ मनुष्यपर्यायमें उत्पन्न हुए। इसप्रकार विधि
मिलानेसे विरोध दूर होता है। इसीप्रकार अन्यत्र विधि मिला लेना।
फि र प्रश्न है कि इसप्रकारके कथनोंमें भी किसी प्रकार विधि मिलती है। परन्तु
कहीं नेमिनाथ स्वामीका सौरीपुरमें, कहीं द्वारावतीमें जन्म कहा; तथा रामचन्द्रादिककी कथा अन्य-
अन्य प्रकारसे लिखी है इत्यादि; एकेन्द्रियादिको कहीं सासादन गुणस्थान लिखा, कहीं नहीं
लिखा इत्यादि;
इन कथनोंकी विधि किसप्रकार मिलेगी?
उत्तरःइसप्रकार विरोध सहित कथन कालदोषसे हुए हैं। इस कालमें प्रत्यक्षज्ञानी
व बहुश्रुतोंका तो अभाव हुआ और अल्पबुद्धि ग्रंथ करनेके अधिकारी हुए उनको भ्रमसे कोई
अर्थ अन्यथा भासित हुआ उसको ऐसे लिखा; अथवा इस कालमें कितने ही जैनमतमें भी
कषायी हुए हैं सो उन्होंने कोई कारण पाकर अन्यथा कथन लिखे हैं। इसप्रकार अन्यथा
कथन हुए, इसलिये जैनशास्त्रोंमें विरोध भासित होने लगा।
जहाँ विरोध भासित हो वहाँ इतना करना कि यह कथन करनेवाले बहुत प्रामाणिक
हैं या यह कथन करनेवाले बहुत प्रामाणिक हैं? ऐसे विचार करके बड़े आचार्यादिकोंका कहा
हुआ कथन प्रमाण करना। तथा जिनमतके बहुत शास्त्र हैं उनकी आम्नाय मिलाना। जो
कथन परम्परा आम्नायसे मिले उस कथनको प्रमाण करना। इस प्रकार विचार करने पर भी
सत्य-असत्यका निर्णय न हो सके तो ‘जैसे केवलीको भासित हुए हैं वैसे प्रमाण हैं’ ऐसा
मान लेना, क्योंकि देवादिकका व तत्त्वोंका निर्धार हुए बिना तो मोक्षमार्ग होता नहीं है।
उसका तो निर्धार भी हो सकता है, इसलिये कोई उनका स्वरूप विरुद्ध कहे तो आपको
हीे भासित हो जायेगा। तथा अन्य कथनका निर्धार न हो, या संशयादि रहें, या अन्यथा
भी जानपना हो जाये; और केवलीका कहा प्रमाण है
ऐसा श्रद्धान रहे तो मोक्षमार्गमें विघ्न
नहीं है, ऐसा जानना।
यहाँ कोई तर्क करे कि जैसे नानाप्रकारके कथन जिनमतमें कहे हैं वैसे अन्यमतमें
भी कथन पाये जाते हैं। सो अपने मतके कथनका तो तुमने जिस-तिसप्रकार स्थापन किया
और अन्यमतमें ऐसे कथनको तुम दोष लगाते हो? यह तो तुम्हें राग-द्वेष है?
समाधानःकथन तो नानाप्रकारके हों और एक ही प्रयोजनका पोषण करें तो कोई
दोष नहीं, परन्तु कहीं किसी प्रयोजनका और कहीं किसी प्रयोजनका पोषण करें तो दोष
ही है। अब, जिनमतमें तो एक रागादि मिटानेका प्रयोजन है; इसलिये कहीँ बहुत रागादि
छुड़ाकर थोड़े रागादि करानेके प्रयोजनका पोषण किया है, कहीं सर्व रागादि मिटानेके प्रयोजनका