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निर्दोष है। और अन्यमतमें कहीं रागादि मिटानेके प्रयोजन सहित कथन करते हैं, कहीं रागादि
बढ़ानेके प्रयोजन सहित कथन करते हैं; इसीप्रकार अन्य भी प्रयोजनकी विरुद्धता सहित कथन
करते हैं, इसलिये अन्यमतका कथन सदोष है। लोकमें भी एक प्रयोजनका पोषण करनेवाले
नाना कथन कहे उसे प्रामाणिक कहा जाता है और अन्य-अन्य प्रयोजनका पोषण करनेवाली
बात करे उसे बावला कहते हैं।
है। समवसरणादि विभूतिकी रचना इन्द्रादिक करते हैं, उनको उसमें रागादिक नहीं है, इसलिये
दोनों बातें सम्भवित हैं। और अन्यमतमें ईश्वरको साक्षीभूत वीतराग भी कहते हैं तथा उसीके
द्वारा किये गये काम-क्रोधादिभाव निरूपित करते हैं, सो एक आत्माको ही वीतरागपना और
काम-क्रोधादि भाव कैसे सम्भवित हैं? इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
कि प्रमाणविरुद्ध कथन कोई नहीं कर सकता। कहीं सौरीपुरमें, कही द्वारावतीमें नेमिनाथ
स्वामीका जन्म लिखा है; सो कहीं भी हो, परन्तु नगरमें जन्म होना प्रमाणविरुद्ध नहीं है,
आज भी होते दिखाई देते हैं।
हैं
और विरुद्ध कथन माननेमें नहीं आता; इसलिये उनके मतमें दोष ठहराते हैं। ऐसा जानकर
एक जिनमतका ही उपदेश ग्रहण करने योग्य है।
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धर्ममें प्रवृत्ति हो उसीका अभ्यास करना। अथवा कभी किसी शास्त्रका अभ्यास करे, कभी
किसी शास्त्रका अभ्यास करे। तथा जैसे
प्रकार उपदेश जहाँ-तहाँ दिया है, उसे सम्यग्ज्ञानमें यथार्थ प्रयोजनसहित पहिचाने तो हित-
अहितका निश्चय हो।
है, आगमज्ञान बिना धर्मका साधन नहीं हो सकता, इसलिये तुम्हें भी यथार्थ बुद्धि द्वारा
आगमका अभ्यास करना। तुम्हारा कल्याण होगा।
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मार्ग जो सम्यग्दर्शनादि उनका स्वरूप बतलाते हैं
है; इसलिये उसीका उपदेश यहाँ देते हैं।
यहाँ कुछ हेतु
प्रयोजन नहीं है। जिनके निमित्तसे दुःख होता जानें उनको दूर करनेका उपाय करते हैं
और जिनके निमित्त सुख होता जानें उनके होनेका उपाय करते हैं।
कुछ भी उपाय कोई नहीं करता।
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अवस्था जैसी हो वैसी होओ, उसे स्ववशतासे भी भोगता है; वहाँ स्वभावमें तर्क नहीं है।
आत्माका ऐसा ही स्वभाव जानना।
अपना नाश मानता है, परन्तु अपना अस्तित्व खोकर भी दुःख दूर करना चाहता है। इसलिये
एक दुःखरूप पर्यायका अभाव करना ही इसका कर्तव्य है।
आकुलता होती है वह रागादिक कषायभाव होने पर होती है; क्योंकि रागादिभावोंसे यह तो
द्रव्योंको अन्य प्रकार परिणमित करना चाहे और वे द्रव्य अन्य प्रकार परिणमित हों; तब इसके
आकुलता होती है। वहाँ या तो अपने रागादि दूर हों, या आप चाहे उसीप्रकार सर्वद्रव्य
परिणमित हों तो आकुलता मिटे; परन्तु सर्वद्रव्य तो इसके आधीन नहीं हैं। कदाचित् कोई
द्रव्य जैसी इसकी इच्छा हो उसी प्रकार परिणमित हो, तब भी इसकी आकुलता सर्वथा दूर
नहीं होती; सर्व कार्य जैसे यह चाहे वैसे ही हों, अन्यथा न हों, तब यह निराकुल रहे; परन्तु
यह तो हो ही नहीं सकता; क्योंकि किसी द्रव्यका परिणमन किसी द्रव्यके आधीन नहीं है।
इसलिये अपने रागादिभाव दूर होने पर निराकुलता हो, सो यह कार्य बन सकता है; क्योंकि
रागादिभाव आत्माके स्वभाव तो हैं नहीं, औपाधिकभाव हैं, परनिमित्तसे हुए हैं और वह निमित्त
मोहकर्मका उदय है; उसका अभाव होने पर सर्व रागादिक विलय हो जायें तब आकुलताका
नाश होने पर दुःख दूर हो, सुखकी प्राप्ति हो। इसलिये मोहकर्मका नाश हितकारी है।
आकुलता होती है। अथवा यथार्थ सम्पूर्ण वस्तुका स्वभाव नहीं जानता तब रागादिरूप होकर
प्रवर्तता है, वहाँ आकुलता होती है।
नाश होने पर उनका बल नहीं है; अन्तर्मुहूर्तकालमें अपने आप नाशको प्राप्त होते हैं; परन्तु
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भगवान अनन्तसुखरूप दशाको प्राप्त कहे जाते हैं।
रागादिक हों और बाह्य अघाति कर्मोंके उदयसे रागादिकके कारण शरीरादिकका संयोग हो
रहता है, वह कुछ भी आकुलता उत्पन्न नहीं कर सकता; परन्तु पूर्वमें आकुलताका सहकारी
कारण था, इसलिये अघाति कर्मका भी नाश आत्माको इष्ट ही है। केवलीको इनके होने
पर भी कुछ दुःख नहीं है, इसलिये इनके नाशका उद्यम भी नहीं है; परन्तु मोहका नाश
होने पर यह कर्म अपने आप थोड़े ही कालमें सर्वनाशको प्राप्त हो जाते हैं।
जीवोंके बहुत दुःख पाया जाता है, उस अपेक्षासे थोड़े दुःखवालेको सुखी कहते हैं। तथा
उसी अभिप्रायसे थोड़े दुःखवाला अपनेको सुखी मानता है; परमार्थसे सुख है नहीं। तथा
यदि थोड़ा भी दुःख सदाकाल रहता हो तो उसे भी हितरूप ठहरायें, सो वह भी नहीं है;
थोड़े काल ही पुण्यका उदय रहता है और वहाँ थोड़ा दुःख होता है, पश्चात् बहुत दुःख
हो जाता है; इसलिये संसारअवस्था हितरूप नहीं है।
मोहका उदय है; उसको कभी आकुलता बहुत होती है, कभी थोड़ी होती है। थोड़ी आकुलता
हो तब वह अपनेको सुखी मानता है। लोग भी कहते हैं
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तथा आकुलता घटना-बढ़ना भी बाह्य सामग्रीके अनुसार नहीं है, कषायभावोंके घटने-
है। तथा किसीको किसीने बहुत बुरा कहा उसे क्रोध नहीं हुआ तो उसको आकुलता नहीं
होती; और थोड़ी बातें कहनेसे ही क्रोध हो आये तो उसको आकुलता बहुत होती है।
तथा जैसे गायको बछड़ेसे कुछ प्रयोजन नहीं है, परन्तु मोह बहुत है, इसलिये उसकी रक्षा
करनेकी बहुत आकुलता होती है; तथा सुभट के शरीरादिकसे बहुत कार्य सधते हैं, परन्तु
रणमें मानादिकके कारण शरीरादिकसे मोह घट जाये, तब मरनेकी भी थोड़ी आकुलता होती
है। इसलिये ऐसा जानना कि संसार-अवस्थामें भी आकुलता घटने-बढ़नेसे ही सुख-दुःख माने
जाते हैं। तथा आकुलताका घटना-बढ़ना रागादिक कषाय घटने-बढ़नेके अनुसार है।
आकुलता घटती है, तब सुख मानता है
है कि मुझे परद्रव्यके निमित्तसे सुख-दुःख होते हैं। ऐसा जानना भ्रम ही है। इसलिये यहाँ
ऐसा विचार करना कि संसार-अवस्थामें किंचित् कषाय घटनेसे सुख मानते हैं, उसे हित जानते
हैं;
कषायसे इच्छा उत्पन्न हो उसे पूर्ण करनेकी आकुलता होती है; कदापि सर्वथा निराकुल नहीं
हो सकता; अभिप्रायमें तो अनेक प्रकारकी आकुलता बनी ही रहती है। और कोई आकुलता
मिटानेके बाह्य उपाय करे; सो प्रथम तो कार्य सिद्ध नहीं होता; और यदि भवितव्ययोगसे
वह कार्य सिद्ध हो जाये तो तत्काल अन्य आकुलता मिटानेके उपायमें लगता है। इसप्रकार
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नये-नये विषयसेवनादि कार्योंमें किसलिये प्रवर्त्तता है? इसलिये संसार-अवस्थामें पुण्यके उदयसे
इन्द्र-अहमिन्द्रादि पद प्राप्त करे तो भी निराकुलता नहीं होती, दुःखी ही रहता है। इसलिये
संसार-अवस्था हितकारी नहीं है।
मोक्ष-अवस्था ही हितकारी है। पहले भी संसार-अवस्थाके दुःखका और मोक्ष-अवस्थाके सुखका
विशेष वर्णन किया है, वह इसी प्रयोजनके अर्थ किया है। उसे भी विचार कर मोक्षको
हितरूप जानकर मोक्षका उपाय करना। सर्व उपदेशका तात्पर्य इतना है।
कहो। यदि प्रथम दोनों कारण मिलने पर बनता है तो हमें उपदेश किसलिये देते हो?
और पुरुषार्थसे बनता है तो उपदेश सब सुनते हैं, उनमें कोई उपाय कर सकता है, कोई
नहीं कर सकता; सो कारण क्या?
तीन कारण कहे उनमें काललब्धि व होनहार तो कोई वस्तु नहीं है; जिस कालमें कार्य बनता
है वही काललब्धि और जो कार्य हुआ वही होनहार। तथा जो कर्मके उपशमादिक हैं वह
पुद्गलकी शक्ति है उसका आत्मा कर्ताहर्ता नहीं है। तथा पुरुषार्थसे उद्यम करते हैं सो यह
आत्माका कार्य है; इसलिए आत्माको पुरुषार्थसे उद्यम करनेका उपदेश देते हैं।
जिस कारणसे कार्यकी सिद्धि हो अथवा नहीं भी हो, उस कारणरूप उद्यम करे, वहाँ अन्य
कारण मिलें तो कार्यसिद्धि होती है, न मिलें तो सिद्धि नहीं होती।
होनहार भी हुए और कर्मके उपशमादि हुए हैं तो वह ऐसा उपाय करता है। इसलिये जो
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प्राप्ति होती है
इसलिये जो पुरुषार्थसे मोक्षका उपाय नहीं करता, उसको कोई कारण नहीं मिलते और उसको
मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती
शिक्षामात्र है, फल जैसा पुरुषार्थ करे वैसा लगता है।
मोक्ष चाहता है, कैसे होगा? यह तो भ्रम है।
उत्तरः
होती है, उससे मोहके स्थिति-अनुभाग घटते हैं।
समाधान :
उसीका निर्णय हो सकता है। परन्तु यह अन्य निर्णय करनेमें उपयोग लगाता है, यहाँ उपयोग
नहीं लगाता। सो यह तो इसीका दोष है, कर्मका तो कुछ प्रयोजन नहीं है।
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उपायका पुरुषार्थ बनता है। इसलिये मुख्यतासे तो तत्त्वनिर्णयमें उपयोग लगानेका पुरुषार्थ
करना। तथा उपदेश भी देते हैं, सो यही पुरुषार्थ करानेके अर्थ दिया जाता है, तथा इस
पुरुषार्थसे मोक्षके उपायका पुरुषार्थ अपने आप सिद्ध होगा।
माने तो ऐसी अनीति सम्भव नहीं है। तुझे विषयकषायरूप ही रहना है, इसलिये झूठ बोलता
है। मोक्षकी सच्ची अभिलाषा हो तो ऐसी उक्ति किसलिये बनाये? सांसारिक कार्योंमें अपने
पुरुषार्थसे सिद्धि न होती जाने, तथापि पुरुषार्थसे उद्यम किया करता है, यहाँ पुरुषार्थ खो
बैठा; इसलिए जानते हैं कि मोक्षको देखादेखी उत्कृष्ट कहता है; उसका स्वरूप पहिचानकर
उसे हितरूप नहीं जानता। हित जानकर उसका उद्यम बने सो न करे यह असम्भव है।
हीनाधिक होती है; इसलिये उनका उदय भी मन्द-तीव्र होता है। उनके निमित्तसे नवीन बन्ध
भी मन्द-तीव्र होता है। इसलिये संसारी जीवोंको कर्मोदयके निमित्तसे कभी ज्ञानादिक बहुत
प्रगट होते हैं; कभी थोड़े प्रगट होते हैं; कभी रागादिक मन्द होते हैं, कभी तीव्र होते हैं।
इसप्रकार परिवर्तन होता रहता है।
तीव्र उदय होनेसे तो विषयकषायादिकके कार्योंमें ही प्रवृत्ति होती है। तथा रागादिकका मन्द
उदय होनेसे बाह्य उपदेशादिकका निमित्त बने और स्वयं पुरुषार्थ करके उन उपदेशादिकमें
उपयोगको लगाये तो धर्मकार्योमें प्रवृत्ति हो; और निमित्त न बने व स्वयं पुरुषार्थ न करे
तो अन्य कार्योंमें ही प्रवर्ते, परन्तु मन्द रागादिसहित प्रवर्ते।
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विचारशक्तिसहित हों, तथा जिनके रागादि मन्द हों; उन्हें उपदेशके निमित्तसे धर्मकी प्राप्ति हो
जाये तो उनका भला हो; तथा इसी अवसरमें पुरुषार्थ कार्यकारी है।
उसका भला हो। यदि इस अवसरमें भी तत्त्वनिर्णय करनेका पुरुषार्थ न करे, प्रमादसे काल
गँवाये
दर्शनमोहका उपशम होगा; तब तत्त्वोंकी यथावत् प्रतीति आयेगी। सो इसका तो कर्तव्य
तत्त्वनिर्णयका अभ्यास ही है, इसीसे दर्शनमोहका उपशम तो स्वयमेव होता है; उसमें जीवका
कर्तव्य कुछ नहीं है।
उदयसे रागादिक होते हैं। वहाँ तीव्र उदय हो तब तो विषयादिमें प्रवर्तता है और मन्द
उदय हो तब अपने पुरुषार्थसे धर्मकार्योमें व वैराग्यादि भावनामें उपयोगको लगाता है; उसके
निमित्तसे चारित्रमोह मन्द हो जाता है;
परिणतिको बढ़ाये वहाँ विशुद्धतासे कर्मकी शक्ति हीन होती है, उससे विशुद्धता बढ़ती है
और उससे कर्मकी शक्ति अधिक हीन होती है। इसप्रकार क्रमसे मोहका नाश करे तब सर्वथा
परिणाम विशुद्ध होते हैं, उनके द्वारा ज्ञानावरणादिक नाश हो तब केवलज्ञान प्रगट होता
है। पश्चात् वहाँ बिना उपाय अघाति कर्मका नाश करके शुद्ध सिद्धपदको प्राप्त करता है।
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और पुरुषार्थ हो सके वहाँ तो प्रमादी नहीं होना; सावधान होकर अपना कार्य करना।
यदि पुरुषार्थ करके निकले तो निकल आयेगा। उसीको निकलनेकी शिक्षा देते हैं। और
न निकले तो धीरे-धीरे बहेगा और फि र पानीका जोर होने पर बहता चला जायेगा। उसी
प्रकार जीव संसारमें भ्रमण करता है, वहाँ कर्मोंका तीव्र उदय हो तब तो उसका पुरुषार्थ
कुछ नहीं है, उपदेश भी कार्यकारी नहीं। और कर्मका मन्द उदय हो तब पुरुषार्थ करके
मोक्षमार्गमें प्रवर्तन करे तो मोक्ष प्राप्त कर ले। उसीको मोक्षमार्गका उपदेश देते हैं। और
मोक्षमार्गमें प्रवर्तन नहीं करे तो किंचित् विशुद्धता पाकर फि र तीव्र उदय आने पर निगोदादि
पर्यायको प्राप्त करेगा।
भव्यजीवोंको प्रवृत्ति करना।
भी होता। तथा कितने ही कारण ऐसे हैं कि मुख्यतः तो जिनके होने पर कार्य होता है,
परन्तु किसीके बिना हुए भी कार्यसिद्धि होती है। जैसे
हुई। तथा कितने ही कारण ऐसे हैं जिनके होने पर कार्यसिद्धि होती ही होती है और जिनके
न होने पर सर्वथा कार्यसिद्धि नहीं होती। जैसे
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जानना। इन सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्रमें एक भी न हो तो मोक्षमार्ग नहीं होता।
उस नगरको चला है’; परमार्थसे मार्गमें गमन करने पर ही चलना होगा। उसी प्रकार
असंयतसम्यग्दृष्टिको वीतरागभावरूप मोक्षमार्गका श्रद्धान हुआ; इसलिये उसको उपचारसे
मोक्षमार्गी कहते हैं; परमार्थसे वीतरागभावरूप परिणमित होने पर ही मोक्षमार्ग होगा। तथा
प्रवचनसारमें भी तीनोंकी एकाग्रता होने पर ही मोक्षमार्ग कहा है। इसलिये यह जानना कि
तत्त्वश्रद्धान-ज्ञान बिना तो रागादि घटानेसे मोक्षमार्ग नहीं है और रागादि घटाये बिना
तत्त्वश्रद्धान-ज्ञानसे भी मोक्षमार्ग नहीं है। तीनों मिलने पर साक्षात् मोक्षमार्ग होता है।
जानना। जैसे
‘अतिव्याप्त’ लक्षण है। इसके द्वारा आत्माको पहिचाननेसे आकाशादिक भी आत्मा हो जायेंगे;
यह दोष लगेगा।
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यह ‘अव्याप्त’ लक्षण है। इसके द्वारा आत्माको पहिचाननेसे अल्पज्ञानी आत्मा नहीं होगा;
यह दोष लगेगा।
और आत्मा है वह अनात्मा हो जायेगा; यह दोष लगेगा।
नहीं पाया जाता; इसलिये यह सच्चा लक्षण है। इसके द्वारा आत्मा माननेसे आत्मा-अनात्माका
यथार्थज्ञान होता है; कुछ दोष नहीं लगता। इसप्रकार लक्षणका स्वरूप उदाहरण मात्र कहा।
है, ऐसा जानना।
समाधानः
कि ‘तस्य भावस्तत्त्व’ ऐसा तत्त्व शब्दका समास होता है। तथा जो जाननेमें आये ऐसा ‘द्रव्य’
व ‘गुण-पर्याय’ उसका नाम अर्थ है। तथा ‘तत्त्वेन अर्थस्तत्त्वार्थः’ तत्त्व अर्थात् अपना स्वरूप,
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यह भाव (तत्त्व) है, उसके श्रद्धान बिना केवल भावका ही श्रद्धान कार्यकारी नहीं है। तथा
यदि ‘अर्थश्रद्धान’ ही कहते तो भावके श्रद्धान बिना पदार्थका श्रद्धान भी कार्यकारी नहीं है।
स्वभाव है, पुद्गल मुझसे भिन्न
नहीं है। इसलिये तत्त्वसहित अर्थका श्रद्धान होता है सो ही कार्यकारी है। अथवा
जीवादिकको तत्त्वसंज्ञा भी है और अर्थसंज्ञा भी है, इसलिये ‘तत्त्वमेवार्थस्तत्त्वार्थः’ जो तत्त्व
सो ही अर्थ, उनका श्रद्धान सो सम्यग्दर्शन है।
ही विशेष हैं, इनको अलग कहनेका प्रयोजन क्या?
यहाँ तो मोक्षका प्रयोजन है सो जिन सामान्य या विशेष भावोंका श्रद्धान करनेसे मोक्ष हो
और जिनका श्रद्धान किये बिना मोक्ष न हो; उन्हींका यहाँ निरूपण किया है।
रागादिक त्याग कर मोक्षमार्गमें प्रवर्ते। इसलिये इन दो जातियोंका श्रद्धान होने पर ही मोक्ष
होता है और दो जातियाँ जाने बिना आपापरका श्रद्धान न हो तब पर्यायबुद्धिसे सांसारिक
प्रयोजनका ही उपाय करता है। परद्रव्यमें रागद्वेषरूप होकर प्रवर्ते, तब मोक्षमार्गमें कैसे प्रवर्ते?
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तत्त्व तो अवश्य श्रद्धान करने योग्य कहे हैं।
होता है और बन्धका एकदेश अभाव होने पर निर्जरा होती है; सो आस्रव-बन्धको पहिचाने
तो उनका नाश करके संवर-निर्जरारूप प्रवर्तन करे; इसलिये आस्रव-बन्धका श्रद्धान करना।
प्रवर्तन करे? आस्रव-बन्धकी पहिचान बिना उनका नाश कैसे करे?
पर्यायरूप विशेषतत्त्व मिलाकर सात ही कहे।
न माने, या स्वच्छन्दी होकर पापरूप न प्रवर्ते; इसलिये मोक्षमार्गमें इनका श्रद्धान भी उपकारी
जानकर दो तत्त्व विशेषके विशेष मिलाकर नवपदार्थ कहे। तथा समयसारादिमें इनको नवतत्त्व
भी कहा है।
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अचक्षुदर्शनसे सामान्य अवलोकन तो सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टिके समान होता है, कुछ इससे
मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति-अप्रवृत्ति नहीं होती। तथा श्रद्धान होता है सो सम्यग्दृष्टिके ही होता है,
इससे मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति होती है। इसलिये ‘दर्शन’ शब्दका अर्थ भी यहाँ श्रद्धानमात्र ही
ग्रहण करना।
अभिप्राय केवल उनका निश्चय करना मात्र ही नहीं है; वहाँ अभिप्राय ऐसा है कि जीव-
अजीवको पहिचानकर अपनेको तथा परको जैसाका तैसा माने, तथा आस्रवको पहिचानकर
उसे हेय माने, तथा बन्धको पहिचानकर उसे अहित माने, तथा संवरको पहिचानकर उसे
उपादेय माने, तथा निर्जराको पहिचानकर उसे हितका कारण माने, तथा मोक्षको पहिचानकर
उसको अपना परमहित माने
तत्त्वार्थश्रद्धान है सो विपरीताभिनिवेशरहित है
सम्यग्दर्शन नहीं होता। जैसे
है। इसलिये जो तत्त्वार्थश्रद्धान विपरीताभिनिवेश रहित है, वही सम्यग्दर्शन है।
तथा सर्वार्थसिद्धि नामक सूत्रोंकी टीका है
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किया है ऐसा जानना।
है, इसलिये आत्माका स्वभाव है। चतुर्थादि गुणस्थानमें प्रगट होता है, पश्चात् सिद्ध अवस्थामें
भी सदाकाल इसका सद्भाव रहता है
तत्त्वार्थश्रद्धानपना सम्यक्त्वका लक्षण कहा, उसमें अव्याप्ति दूषण लगता है?
जीवादिकका नाम भी नहीं जानते, तथापि उनका सामान्यरूपसे स्वरूप पहिचानकर श्रद्धान करते
हैं, इसलिये उनके सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है।
जानता; परन्तु जो ज्ञानादिस्वरूप आत्मा है उसमें तो अपनत्व मानता है और जो शरीरादि
हैं उनको पर मानता है
उसके अर्थ आगामी दुःखके कारणको पहिचानकर उसका त्याग करना चाहता है, तथा जो
दुःखका कारण बन रहा है उसके अभावका उपाय करता है। उसी प्रकार तुच्छज्ञानी
मोक्षादिकका नाम नहीं जानता, तथापि सर्वथा सुखरूप मोक्ष-अवस्थाका श्रद्धान करता हुआ
उसके अर्थ आगामी बन्धका कारण जो रागादिक आस्रव उसके त्यागरूप संवर करना चाहता
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आस्रवादिकका उसके श्रद्धान है।
हैं। रागादिकका फल बुरा न जाने तो किसलिये रागादिक छोड़ना चाहे? उन रागादिकका
फल वही बन्ध है। तथा रागादिरहित परिणामको पहिचानता है तो उसरूप होना चाहता
है। उस रागादिरहित परिणामका ही नाम संवर है। तथा पूर्व संसार अवस्थाके कारणकी
हानिको पहिचानता है तो उसके अर्थ तपश्चरणादिसे शुद्धभाव करना चाहता है। उस पूर्व
अवस्थाका कारण कर्म है, उसकी हानि वही निर्जरा है। तथा संसार-अवस्थाके अभावको
न पहिचाने तो संवर-निर्जरारूप किसलिये प्रवर्ते? उस संसार-अवस्थाका अभाव वही मोक्ष है।
इसलिये सातों तत्त्वोंका श्रद्धान होने पर ही रागादिक छोड़कर शुद्धभाव होनेकी इच्छा उत्पन्न
होती है। यदि इनमें एक भी तत्त्वका श्रद्धान न हो तो ऐसी चाह उत्पन्न नहीं होती।
तथा ऐसी चाह तुच्छज्ञानी तिर्यंचादि सम्यग्दृष्टिके होती ही है; इसलिये उसके सात तत्त्वोंका
श्रद्धान पाया जाता है ऐसा निश्चय करना। ज्ञानावरणका क्षयोपशम थोड़ा होनेसे विशेषरूपसे
तत्त्वोंका ज्ञान न हो, तथापि दर्शनमोहके उपशमादिकसे सामान्यरूपसे तत्त्वश्रद्धानकी शक्ति प्रगट
होती है। इसप्रकार इस लक्षणमें अव्याप्ति दूषण नहीं है।
इसलिये उस लक्षणमें अव्याप्ति दूषण आता है?
सोना आदि क्रिया होने पर तत्त्वोंका विचार नहीं है; तथापि उनकी प्रतीति बनी रहती है,
नष्ट नहीं होती; इसलिये उसके सम्यक्त्वका सद्भाव है।
मनुष्य अन्य विचारादिरूप प्रवर्तता है, तब उसको ऐसा विचार नहीं होता, परन्तु श्रद्धान ऐसा
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नहीं हूँ, मेरे आस्रवसे बन्ध हुआ है, सो अब, संवर करके, निर्जरा करके, मोक्षरूप होना।’
तथा वही आत्मा अन्य विचारादिरूप प्रवर्तता है तब उसके ऐसा विचार नहीं होता, परन्तु
श्रद्धान ऐसा ही रहा करता है।
उत्तरः
उसी प्रकार वही आत्मा कर्म-उदय निमित्तके वश बन्ध होनेके कारणोंमें भी प्रवर्तता है, विषय-
सेवनादि कार्य व क्रोधादि कार्य करता है, तथापि उस श्रद्धानका उसे नाश नहीं होता।
इसका विशेष निर्णय आगे करेंगे।
और वहाँ निषेध सम्भव है तो अव्याप्ति दूषण आया?
भी निषेध करते हैं; इसलिये जहाँ प्रतीति भी दृढ़ हुई और रागादिक दूर हुए, वहाँ उपयोग
भ्रमानेका खेद किसलिये करें? इसलिये वहाँ उन विकल्पोंका निषेध किया है। तथा सम्यक्त्वका
लक्षण तो प्रतीति ही है; सो प्रतीतिका तो निषेध नहीं किया। यदि प्रतीति छुड़ाई हो तो
इस लक्षणका निषेध किया कहा जाये, सो तो है नहीं। सातों तत्त्वोंकी प्रतीति वहाँ भी
बनी रहती है, इसलिये यहाँ अव्याप्तिपना नहीं है।
सम्यक्त्वगुण पाया ही जाता है, इसलिये वहाँ उस लक्षणका अव्याप्तिपना आया?
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अप्रतीति होती; सो तो जैसा सप्त तत्त्वोंका श्रद्धान छद्मस्थके हुआ था, वैसा ही केवली
ज्ञानकी हीनतासे जीवादिकके थोड़े विशेष जाने थे, पश्चात् केवलज्ञान होने पर उनके सर्व
विशेष जाने; परन्तु मूलभूत जीवादिकके स्वरूपका श्रद्धान जैसा छद्मस्थके पाया जाता है वैसा
ही केवलीके पाया जाता है। तथा यद्यपि केवली
ही श्रद्धान ग्रहण किया है। केवली
अवस्था हुई, उसके होने पर सम्यक्त्वगुण नष्ट नहीं होता। इस प्रकार केवली
तत्त्वार्थश्रद्धान कहने पर उसमें अतिव्याप्ति दूषण लगता है?
होता है; अथवा आगमद्रव्यनिक्षेपसे होता है
तत्त्वार्थश्रद्धान मिथ्यादृष्टिके कदाचित् नहीं होता। तथा आत्मज्ञानशून्य तत्त्वार्थश्रद्धान कहा है
वहाँ भी वही अर्थ जानना। जिसके सच्चे जीव-अजीवादिका श्रद्धान हो उसके आत्मज्ञान कैसे