Moksha-Marg Prakashak (Hindi). Nauva Adhyay.

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आठवाँ अधिकार ][ ३०३
पोषण किया है; परन्तु रागादि बढ़ानेका प्रयोजन कहीं नहीं है, इसलिये जिनमतका सर्व कथन
निर्दोष है। और अन्यमतमें कहीं रागादि मिटानेके प्रयोजन सहित कथन करते हैं, कहीं रागादि
बढ़ानेके प्रयोजन सहित कथन करते हैं; इसीप्रकार अन्य भी प्रयोजनकी विरुद्धता सहित कथन
करते हैं, इसलिये अन्यमतका कथन सदोष है। लोकमें भी एक प्रयोजनका पोषण करनेवाले
नाना कथन कहे उसे प्रामाणिक कहा जाता है और अन्य-अन्य प्रयोजनका पोषण करनेवाली
बात करे उसे बावला कहते हैं।
तथा जिनमतमें नानाप्रकारके कथन हैं सो भिन्न-भिन्न अपेक्षा सहित हैं वहाँ दोष नहीं
है। अन्यमतमें एक ही अपेक्षा सहित अन्य-अन्य कथन करते हैं वहाँ दोष है। जैसे
जिनदेवके वीतरागभाव है और समवसरणादि विभूति भी पायी जाती है, वहाँ विरोध नहीं
है। समवसरणादि विभूतिकी रचना इन्द्रादिक करते हैं, उनको उसमें रागादिक नहीं है, इसलिये
दोनों बातें सम्भवित हैं। और अन्यमतमें ईश्वरको साक्षीभूत वीतराग भी कहते हैं तथा उसीके
द्वारा किये गये काम-क्रोधादिभाव निरूपित करते हैं, सो एक आत्माको ही वीतरागपना और
काम-क्रोधादि भाव कैसे सम्भवित हैं? इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
तथा कालदोषसे जिनमतमें एक ही प्रकारसे कोई कथन विरुद्ध लिखे हैं; सो यह
तुच्छबुद्धियोंकी भूल है, कुछ मतमें दोष नहीं है। वहाँ भी जिनमतका अतिशय इतना है
कि प्रमाणविरुद्ध कथन कोई नहीं कर सकता। कहीं सौरीपुरमें, कही द्वारावतीमें नेमिनाथ
स्वामीका जन्म लिखा है; सो कहीं भी हो, परन्तु नगरमें जन्म होना प्रमाणविरुद्ध नहीं है,
आज भी होते दिखाई देते हैं।
तथा अन्यमतमें सर्वज्ञादिक यथार्थ ज्ञानियोंके रचे हुए ग्रन्थ बतलाते हैं, परन्तु उनमें
परस्पर विरुद्धता भासित होती है। कहीं तो बालब्रह्मचारीकी प्रशंसा करते हैं, कहीं कहते
हैं
‘पुत्र बिना गति नहीं होती’ सो दोनों सच्चे कैसे हों? ऐसे कथन वहाँ बहुत पाये जाते
हैं। तथा उनमें प्रमाणविरुद्ध कथन पाये जाते हैं। जैसे‘मुखमें वीर्य गिरनेसे मछलीके पुत्र
हुआ’, सो ऐसा इस कालमें किसीके होता दिखाई नहीं देता और अनुमानसे भी नहीं मिलता
ऐसे कथन भी बहुत पाये जाते हैं। यदि यहाँ सर्वज्ञादिककी भूल माने तो वे कैसे भूलेंगे?
और विरुद्ध कथन माननेमें नहीं आता; इसलिये उनके मतमें दोष ठहराते हैं। ऐसा जानकर
एक जिनमतका ही उपदेश ग्रहण करने योग्य है।
अनुयोगोंका अभ्यासक्रम
वहाँ प्रथमानुयोगादिका अभ्यास करना। पहले इसका अभ्यास करना, फि र इसका

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३०४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
करना ऐसा नियम नहीं है, परन्तु अपने परिणामोंकी अवस्था देखकर जिसके अभ्याससे अपनी
धर्ममें प्रवृत्ति हो उसीका अभ्यास करना। अथवा कभी किसी शास्त्रका अभ्यास करे, कभी
किसी शास्त्रका अभ्यास करे। तथा जैसे
—sरोजनामचेमें तो अनेक रकमें जहाँ-तहाँ लिखी
हैं, उनकी खातेमें ठीक खतौनी करे तो लेन-देनका निश्चय हो; उसीप्रकार शास्त्रोंमें तो अनेक
प्रकार उपदेश जहाँ-तहाँ दिया है, उसे सम्यग्ज्ञानमें यथार्थ प्रयोजनसहित पहिचाने तो हित-
अहितका निश्चय हो।
इसलिये स्यात्पदकी सापेक्षता सहित सम्यग्ज्ञान द्वारा जो जीव जिनवचनोंमें रमते हैं,
वे जीव शीघ्र ही शुद्धात्मस्वरूपको प्राप्त होते हैं। मोक्षमार्गमें पहला उपाय आगमज्ञान कहा
है, आगमज्ञान बिना धर्मका साधन नहीं हो सकता, इसलिये तुम्हें भी यथार्थ बुद्धि द्वारा
आगमका अभ्यास करना। तुम्हारा कल्याण होगा।
इति श्री मोक्षमार्गप्रकाशक नामक शास्त्रमें उपदेशस्वरूपप्रतिपादक
आठवाँ अधिकार सम्पूर्ण हुआ।।।।

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आठवाँ अधिकार ][ ३०५
नौवाँ अधिकार
मोक्षमार्गका स्वरूप
दोहाशिव उपाय करतें प्रथम, कारन मंगलरूप
विघन विनाशक सुखकरन, नमौं शुद्ध शिवभूप।।
अब, मोक्षमार्गका स्वरूप कहते हैं। प्रथम, मोक्षमार्गके प्रतिपक्षी जो मिथ्यादर्शनादिका
उनका स्वरूप बतलायाउन्हें तो दुःखका कारण जानकर, हेय मानकर उनका त्याग करना।
तथा बीचमें उपदेशका स्वरूप बतलाया उसे जानकर उपदेशको यथार्थ समझना। अब, मोक्षके
मार्ग जो सम्यग्दर्शनादि उनका स्वरूप बतलाते हैं
उन्हें सुखरूप, सुखका कारण जानकर, उपादेय
मानकर अंगीकार करना; क्योंकि आत्माका हित मोक्ष ही है; उसीका उपाय आत्माका कर्तव्य
है; इसलिये उसीका उपदेश यहाँ देते हैं।
आत्माका हित मोक्ष ही है
वहाँ, आत्माका हित मोक्ष ही है अन्य नहीं;ऐसा निश्चय किसप्रकार होता है सो
कहते हैं।
आत्माके नानाप्रकार गुण-पर्यायरूप अवस्थाएँ पायी जाती हैं; उनमें अन्य तो कोई
अवस्था हो, आत्माका कुछ बिगाड़-सुधार नहीं है; एक दुःख-सुख अवस्थासे बिगाड़-सुधार है।
यहाँ कुछ हेतु
दृष्टान्त नहीं चाहिये; प्रत्यक्ष ऐसा ही प्रतिभासित होता है।
लोकमें जितने आत्मा हैं उनके एक उपाय यह पाया जाता है कि दुःख न हो, सुख
हो; तथा अन्य भी जितने उपाय करते हैं वे सब एक इसी प्रयोजनसहित करते हैं दूसरा
प्रयोजन नहीं है। जिनके निमित्तसे दुःख होता जानें उनको दूर करनेका उपाय करते हैं
और जिनके निमित्त सुख होता जानें उनके होनेका उपाय करते हैं।
तथा संकोचविस्तार आदि अवस्था भी आत्माके ही होती है, व अनेक परद्रव्योंका
भी संयोग मिलता है; परन्तु जिनसे सुख-दुःख होता न जाने, उनके दूर करनेका व होनेका
कुछ भी उपाय कोई नहीं करता।
सो यहाँ आत्मद्रव्यका ऐसा ही स्वभाव जानना। और तो सर्व अवस्थाओंको सह
सकता है, एक दुःखको नहीं सह सकता। परवशतासे दुःख हो तो यह क्या करे, उसे

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३०६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
भोगता है; परन्तु स्ववशतासे तो किंचित् भी दुःखको सहन नहीं करता। तथा संकोच-विस्तारादि
अवस्था जैसी हो वैसी होओ, उसे स्ववशतासे भी भोगता है; वहाँ स्वभावमें तर्क नहीं है।
आत्माका ऐसा ही स्वभाव जानना।
देखो, दुःखी हो तब सोना चाहता है; वहाँ सोनेमें ज्ञानादिक मन्द हो जाते हैं, परन्तु
जड़ सरीखा भी होकर दुःखको दूर करना चाहता है। तथा मरना चाहता है; वहाँ मरनेमें
अपना नाश मानता है, परन्तु अपना अस्तित्व खोकर भी दुःख दूर करना चाहता है। इसलिये
एक दुःखरूप पर्यायका अभाव करना ही इसका कर्तव्य है।
तथा दुःख न हो वही सुख है; क्योंकि आकुलतालक्षणसहित दुःख उसका अभाव ही
निराकुललक्षण सुख है; सो यह भी प्रत्यक्ष भासित होता है। बाह्य किसी सामग्रीका संयोग मिले
जिसके अन्तरंगमें आकुलता है वह दुःखी ही है; जिसके आकुलता नहीं है वह सुखी है। तथा
आकुलता होती है वह रागादिक कषायभाव होने पर होती है; क्योंकि रागादिभावोंसे यह तो
द्रव्योंको अन्य प्रकार परिणमित करना चाहे और वे द्रव्य अन्य प्रकार परिणमित हों; तब इसके
आकुलता होती है। वहाँ या तो अपने रागादि दूर हों, या आप चाहे उसीप्रकार सर्वद्रव्य
परिणमित हों तो आकुलता मिटे; परन्तु सर्वद्रव्य तो इसके आधीन नहीं हैं। कदाचित् कोई
द्रव्य जैसी इसकी इच्छा हो उसी प्रकार परिणमित हो, तब भी इसकी आकुलता सर्वथा दूर
नहीं होती; सर्व कार्य जैसे यह चाहे वैसे ही हों, अन्यथा न हों, तब यह निराकुल रहे; परन्तु
यह तो हो ही नहीं सकता; क्योंकि किसी द्रव्यका परिणमन किसी द्रव्यके आधीन नहीं है।
इसलिये अपने रागादिभाव दूर होने पर निराकुलता हो, सो यह कार्य बन सकता है; क्योंकि
रागादिभाव आत्माके स्वभाव तो हैं नहीं, औपाधिकभाव हैं, परनिमित्तसे हुए हैं और वह निमित्त
मोहकर्मका उदय है; उसका अभाव होने पर सर्व रागादिक विलय हो जायें तब आकुलताका
नाश होने पर दुःख दूर हो, सुखकी प्राप्ति हो। इसलिये मोहकर्मका नाश हितकारी है।
तथा उस आकुलताका सहकारी कारण ज्ञानावरणादिकका उदय है। ज्ञानावरण,
दर्शनावरणके उदयसे ज्ञान-दर्शन सम्पूर्ण प्रगट नहीं होते; इसलिये इसको देखने-जाननेकी
आकुलता होती है। अथवा यथार्थ सम्पूर्ण वस्तुका स्वभाव नहीं जानता तब रागादिरूप होकर
प्रवर्तता है, वहाँ आकुलता होती है।
तथा अंतरायके उदयसे इच्छानुसार दानादि कार्य न बनें, तब आकुलता होती है।
उनका उदय है वह मोहका उदय होने पर आकुलताको सहकारी कारण है; मोहके उदयका
नाश होने पर उनका बल नहीं है; अन्तर्मुहूर्तकालमें अपने आप नाशको प्राप्त होते हैं; परन्तु

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नौवाँ अधिकार ][ ३०७
सहकारी कारण भी दूर हो जाये तब प्रगटरूप निराकुलदशा भासित होती है। वहाँ केवलज्ञानी
भगवान अनन्तसुखरूप दशाको प्राप्त कहे जाते हैं।
तथा अघाति कर्मोंके उदयके निमित्तसे शरीरादिकका संयोग होता है; वहाँ मोहकर्मका
उदय होनेसे शरीरादिका संयोग आकुलताको बाह्य सहकारी कारण है। अन्तरंग मोहके उदयसे
रागादिक हों और बाह्य अघाति कर्मोंके उदयसे रागादिकके कारण शरीरादिकका संयोग हो
तब आकुलता उत्पन्न होती है। तथा मोहके उदयका नाश होने पर भी अघाति कर्मका उदय
रहता है, वह कुछ भी आकुलता उत्पन्न नहीं कर सकता; परन्तु पूर्वमें आकुलताका सहकारी
कारण था, इसलिये अघाति कर्मका भी नाश आत्माको इष्ट ही है। केवलीको इनके होने
पर भी कुछ दुःख नहीं है, इसलिये इनके नाशका उद्यम भी नहीं है; परन्तु मोहका नाश
होने पर यह कर्म अपने आप थोड़े ही कालमें सर्वनाशको प्राप्त हो जाते हैं।
इसप्रकार सर्व कर्मोंका नाश होना आत्माका हित है। तथा सर्व कर्मके नाशका ही
नाम मोक्ष है। इसलिये आत्माका हित एक मोक्ष ही है और कुछ नहींऐसा निश्चय करना।
यहाँ कोई कहेसंसारदशामें पुण्यकर्मका उदय होने पर भी जीव सुखी होता है; इसलिये
केवल मोक्ष ही हित है, ऐसा किसलिये कहते हैं?
समाधानःसंसारदशामें सुख तो सर्वथा है ही नहीं; दुःख ही है। परन्तु किसीके कभी
बहुत दुःख होता है, किसीके कभी थोड़ा दुःख होता है; सो पूर्वमें बहुत दुःख था व अन्य
जीवोंके बहुत दुःख पाया जाता है, उस अपेक्षासे थोड़े दुःखवालेको सुखी कहते हैं। तथा
उसी अभिप्रायसे थोड़े दुःखवाला अपनेको सुखी मानता है; परमार्थसे सुख है नहीं। तथा
यदि थोड़ा भी दुःख सदाकाल रहता हो तो उसे भी हितरूप ठहरायें, सो वह भी नहीं है;
थोड़े काल ही पुण्यका उदय रहता है और वहाँ थोड़ा दुःख होता है, पश्चात् बहुत दुःख
हो जाता है; इसलिये संसारअवस्था हितरूप नहीं है।
जैसेकिसीको विषमज्वर है; उसको कभी असाता बहुत होती है, कभी थोड़ी होती
है। थोड़ी असाता हो तो वह अपनेको अच्छा मानता है। लोग भी कहते हैंअच्छा है;
परन्तु परमार्थसे जबतक ज्वरका सद्भाव है तबतक अच्छा नहीं है। उसी प्रकार संसारीको
मोहका उदय है; उसको कभी आकुलता बहुत होती है, कभी थोड़ी होती है। थोड़ी आकुलता
हो तब वह अपनेको सुखी मानता है। लोग भी कहते हैं
सुखी है; परन्तु परमार्थसे जब
तक मोहका सद्भाव है तब तक सुख नहीं है।
तथा सुनो, संसारदशामें भी आकुलता घटने पर सुख नाम पाता है, आकुलता बढ़ने
पर दुःख नाम पाता है; कहीं बाह्यसामग्रीसे सुख-दुःख नहीं है। जैसेकिसी दरिद्रीको किंचित्

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३०८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
धनकी प्राप्ति हुईवहाँ कुछ आकुलता घटनेसे उसे सुखी कहते हैं और वह भी अपनेको
सुखी मानता है। तथा किसी बहुत धनवानको किंचित् धनकी हानि हुईवहाँ कुछ आकुलता
बढ़नेसे उसे दुःखी कहते हैं और वह भी अपनेको दुःखी मानता है।
इसीप्रकार सर्वत्र जानना।
तथा आकुलता घटना-बढ़ना भी बाह्य सामग्रीके अनुसार नहीं है, कषायभावोंके घटने-
बढ़नेके अनुसार है। जैसेकिसीको थोड़ा धन है और उसे सन्तोष है, तो उसे आकुलता
थोड़ी होती है; तथा किसीको बहुत धन है और उसके तृष्णा है, तो उसे आकुलता बहुत
है। तथा किसीको किसीने बहुत बुरा कहा उसे क्रोध नहीं हुआ तो उसको आकुलता नहीं
होती; और थोड़ी बातें कहनेसे ही क्रोध हो आये तो उसको आकुलता बहुत होती है।
तथा जैसे गायको बछड़ेसे कुछ प्रयोजन नहीं है, परन्तु मोह बहुत है, इसलिये उसकी रक्षा
करनेकी बहुत आकुलता होती है; तथा सुभट के शरीरादिकसे बहुत कार्य सधते हैं, परन्तु
रणमें मानादिकके कारण शरीरादिकसे मोह घट जाये, तब मरनेकी भी थोड़ी आकुलता होती
है। इसलिये ऐसा जानना कि संसार-अवस्थामें भी आकुलता घटने-बढ़नेसे ही सुख-दुःख माने
जाते हैं। तथा आकुलताका घटना-बढ़ना रागादिक कषाय घटने-बढ़नेके अनुसार है।
तथा परद्रव्यरूप बाह्यसामग्रीके अनुसार सुख-दुःख नहीं है। कषायसे इसके इच्छा उत्पन्न
हो और इसकी इच्छा अनुसार बाह्यसामग्री मिले, तब इसके कुछ कषायका उपशमन होनेसे
आकुलता घटती है, तब सुख मानता है
और इच्छानुसार सामग्री नहीं मिलती, तब कषाय
बढ़नेसे आकुलता बढ़ती है और दुःख मानता है। सो है तो इसप्रकार; परन्तु यह जानता
है कि मुझे परद्रव्यके निमित्तसे सुख-दुःख होते हैं। ऐसा जानना भ्रम ही है। इसलिये यहाँ
ऐसा विचार करना कि संसार-अवस्थामें किंचित् कषाय घटनेसे सुख मानते हैं, उसे हित जानते
हैं;
तो जहाँ सर्वथा कषाय दूर होने पर व कषायके कारण दूर होने पर परम निराकुलता
होनेसे अनन्त सुख प्राप्त होता हैऐसी मोक्ष-अवस्थाको कैसे हित न मानें?
तथा संसार-अवस्थामें उच्चपदको प्राप्त करे तो भी या तो विषयसामग्री मिलानेकी
आकुलता होती है, या विषय-सेवनकी आकुलता होती है, या अपनेको अन्य किसी क्रोधादि
कषायसे इच्छा उत्पन्न हो उसे पूर्ण करनेकी आकुलता होती है; कदापि सर्वथा निराकुल नहीं
हो सकता; अभिप्रायमें तो अनेक प्रकारकी आकुलता बनी ही रहती है। और कोई आकुलता
मिटानेके बाह्य उपाय करे; सो प्रथम तो कार्य सिद्ध नहीं होता; और यदि भवितव्ययोगसे
वह कार्य सिद्ध हो जाये तो तत्काल अन्य आकुलता मिटानेके उपायमें लगता है। इसप्रकार

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नौवाँ अधिकार ][ ३०९
आकुलता मिटानेकी आकुलता निरन्तर बनी रहती है। यदि ऐसी आकुलता न रहे तो वह
नये-नये विषयसेवनादि कार्योंमें किसलिये प्रवर्त्तता है? इसलिये संसार-अवस्थामें पुण्यके उदयसे
इन्द्र-अहमिन्द्रादि पद प्राप्त करे तो भी निराकुलता नहीं होती, दुःखी ही रहता है। इसलिये
संसार-अवस्था हितकारी नहीं है।
तथा मोक्ष-अवस्थामें किसी भी प्रकारकी आकुलता नहीं रही, इसलिये आकुलता
मिटानेका उपाय करनेका भी प्रयोजन नहीं है; सदाकाल शांत रससे सुखी रहते हैं, इसलिये
मोक्ष-अवस्था ही हितकारी है। पहले भी संसार-अवस्थाके दुःखका और मोक्ष-अवस्थाके सुखका
विशेष वर्णन किया है, वह इसी प्रयोजनके अर्थ किया है। उसे भी विचार कर मोक्षको
हितरूप जानकर मोक्षका उपाय करना। सर्व उपदेशका तात्पर्य इतना है।
पुरुषार्थसे ही मोक्षप्राप्ति
यहाँ प्रश्न है कि मोक्षका उपाय काललब्धि आने पर भवितव्यानुसार बनता है, या
मोहादिके उपशमादि होने पर बनता है, या अपने पुरुषार्थसे उद्यम करने पर बनता है सो
कहो। यदि प्रथम दोनों कारण मिलने पर बनता है तो हमें उपदेश किसलिये देते हो?
और पुरुषार्थसे बनता है तो उपदेश सब सुनते हैं, उनमें कोई उपाय कर सकता है, कोई
नहीं कर सकता; सो कारण क्या?
समाधानःएक कार्य होनेमें अनेक कारण मिलते हैं। सो मोक्षका उपाय बनता है वहाँ
तो पूर्वोक्त तीनों ही कारण मिलते हैं और नहीं बनता वहाँ तीनों ही कारण नहीं मिलते। पूर्वोक्त
तीन कारण कहे उनमें काललब्धि व होनहार तो कोई वस्तु नहीं है; जिस कालमें कार्य बनता
है वही काललब्धि और जो कार्य हुआ वही होनहार। तथा जो कर्मके उपशमादिक हैं वह
पुद्गलकी शक्ति है उसका आत्मा कर्ताहर्ता नहीं है। तथा पुरुषार्थसे उद्यम करते हैं सो यह
आत्माका कार्य है; इसलिए आत्माको पुरुषार्थसे उद्यम करनेका उपदेश देते हैं।
वहाँ यह आत्मा जिस कारणसे कार्यसिद्धि अवश्य हो उस कारणरूप उद्यम करे, वहाँ
तो अन्य कारण मिलते ही मिलते हैं और कार्यकी भी सिद्धि होती ही जाती है। तथा
जिस कारणसे कार्यकी सिद्धि हो अथवा नहीं भी हो, उस कारणरूप उद्यम करे, वहाँ अन्य
कारण मिलें तो कार्यसिद्धि होती है, न मिलें तो सिद्धि नहीं होती।
सो जिनमतमें जो मोक्षका उपाय कहा है, इससे मोक्ष होता ही होता है। इसलिये
जो जीव पुरुषार्थसे जिनेश्वरके उपदेशानुसार मोक्षका उपाय करता है उसके काललब्धि व
होनहार भी हुए और कर्मके उपशमादि हुए हैं तो वह ऐसा उपाय करता है। इसलिये जो

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३१० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
पुरुषार्थसे मोक्षका उपाय करता है, उसको सर्व कारण मिलते हैं और उसके अवश्य मोक्षकी
प्राप्ति होती है
ऐसा निश्चय करना। तथा जो जीव पुरुषार्थसे मोक्षका उपाय नहीं करता उसके
काललब्धि व होनहार भी नहीं और कर्मके उपशमादि नहीं हुए हैं तो यह उपाय नहीं करता।
इसलिये जो पुरुषार्थसे मोक्षका उपाय नहीं करता, उसको कोई कारण नहीं मिलते और उसको
मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती
ऐसा निश्चय करना।
तथा तू कहता हैउपदेश तो सभी सुनते हैं, कोई मोक्षका उपाय कर सकता है,
कोई नहीं कर सकता; सो कारण क्या?
उसका कारण यही है कि जो उपदेश सुनकर पुरुषार्थ करते हैं वे मोक्षका उपाय
कर सकते हैं और जो पुरुषार्थ नहीं करते वे मोक्षका उपाय नहीं कर सकते। उपदेश तो
शिक्षामात्र है, फल जैसा पुरुषार्थ करे वैसा लगता है।
फि र प्रश्न है कि द्रव्यलिंगी मुनि मोक्षके अर्थ गृहस्थपना छोड़कर तपश्चरणादि करता है,
वहाँ पुरुषार्थ तो किया, कार्य सिद्ध नहीं हुआ; इसलिये पुरुषार्थ करनेसे तो कुछ सिद्धि नहीं है?
समाधानःअन्यथा पुरुषार्थसे फल चाहे तो कैसे सिद्धि हो? तपश्चरणादि व्यवहार
साधनमें अनुरागी होकर प्रवर्ते उसका फल शास्त्रमें तो शुभबन्ध कहा है और यह उससे
मोक्ष चाहता है, कैसे होगा? यह तो भ्रम है।
फि र प्रश्न है कि भ्रमका भी तो कारण कर्म ही है, पुरुषार्थ क्या करे?
उत्तरः
सच्चे उपदेशसे निर्णय करने पर भ्रम दूर होता है; परन्तु ऐसा पुरुषार्थ नहीं
करता, उसीसे भ्रम रहता है। निर्णय करनेका पुरुषार्थ करेतो भ्रमका कारण जो मोहकर्म,
उसके भी उपशमादि हों तब भ्रम दूर हो जाये; क्योंकि निर्णय करते हुए परिणामोंकी विशुद्धता
होती है, उससे मोहके स्थिति-अनुभाग घटते हैं।
फि र प्रश्न है कि निर्णय करनेमें उपयोग नहीं लगाता, उसका भी तो कारण कर्म है?
समाधान :
एकेन्द्रियादिकके विचार करनेकी शक्ति नहीं है, उनके तो कर्मका ही कारण
है। इसके तो ज्ञानावरणादिकके क्षयोपशमसे निर्णय करनेकी शक्ति हुई है, जहाँ उपयोग लगाये
उसीका निर्णय हो सकता है। परन्तु यह अन्य निर्णय करनेमें उपयोग लगाता है, यहाँ उपयोग
नहीं लगाता। सो यह तो इसीका दोष है, कर्मका तो कुछ प्रयोजन नहीं है।
फि र प्रश्न है कि सम्यक्त्व-चारित्रका घातक मोह है, उसका अभाव हुए बिना मोक्षका
उपाय कैसे बने?

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नौवाँ अधिकार ][ ३११
उत्तरःतत्त्वनिर्णय करनेमें उपयोग न लगाये वह तो इसीका दोष है। तथा पुरुषार्थसे
तत्त्वनिर्णयमें उपयोग लगाये तब स्वयमेव ही मोहका अभाव होने पर सम्यक्त्वादिरूप मोक्षके
उपायका पुरुषार्थ बनता है। इसलिये मुख्यतासे तो तत्त्वनिर्णयमें उपयोग लगानेका पुरुषार्थ
करना। तथा उपदेश भी देते हैं, सो यही पुरुषार्थ करानेके अर्थ दिया जाता है, तथा इस
पुरुषार्थसे मोक्षके उपायका पुरुषार्थ अपने आप सिद्ध होगा।
और तत्त्वनिर्णय न करनेमें किसी कर्मका दोष है नहीं, तेरा ही दोष है; परन्तु तू
स्वयं तो महन्त रहना चाहता है और अपना दोष कर्मादिकको लगाता है; सो जिन आज्ञा
माने तो ऐसी अनीति सम्भव नहीं है। तुझे विषयकषायरूप ही रहना है, इसलिये झूठ बोलता
है। मोक्षकी सच्ची अभिलाषा हो तो ऐसी उक्ति किसलिये बनाये? सांसारिक कार्योंमें अपने
पुरुषार्थसे सिद्धि न होती जाने, तथापि पुरुषार्थसे उद्यम किया करता है, यहाँ पुरुषार्थ खो
बैठा; इसलिए जानते हैं कि मोक्षको देखादेखी उत्कृष्ट कहता है; उसका स्वरूप पहिचानकर
उसे हितरूप नहीं जानता। हित जानकर उसका उद्यम बने सो न करे यह असम्भव है।
यहाँ प्रश्न है कि तुमने कहा सो सत्य; परन्तु द्रव्यकर्मके उदयसे भावकर्म होता है,
भावकर्मसे द्रव्यकर्मका बन्ध होता है, तथा फि र उसके उदयसे भावकर्म होता हैइसी प्रकार
अनादिसे परम्परा है, तब मोक्षका उपाय कैसे हो?
समाधानःकर्मका बन्ध व उदय सदाकाल समान ही होता रहे तब तो ऐसा ही है;
परन्तु परिणामोंके निमित्तसे पूर्वबद्धकर्मके भी उत्कर्षण-अपकर्षण-संक्रमणादि होनेसे उनकी शक्ति
हीनाधिक होती है; इसलिये उनका उदय भी मन्द-तीव्र होता है। उनके निमित्तसे नवीन बन्ध
भी मन्द-तीव्र होता है। इसलिये संसारी जीवोंको कर्मोदयके निमित्तसे कभी ज्ञानादिक बहुत
प्रगट होते हैं; कभी थोड़े प्रगट होते हैं; कभी रागादिक मन्द होते हैं, कभी तीव्र होते हैं।
इसप्रकार परिवर्तन होता रहता है।
वहाँ कदाचित् संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त पर्याय प्राप्त की, तब मन द्वारा विचार करने
की शक्ति हुई। तथा इसके कभी तीव्र रागादिक होते हैं कभी मन्द होते हैं। वहाँ रागादिकका
तीव्र उदय होनेसे तो विषयकषायादिकके कार्योंमें ही प्रवृत्ति होती है। तथा रागादिकका मन्द
उदय होनेसे बाह्य उपदेशादिकका निमित्त बने और स्वयं पुरुषार्थ करके उन उपदेशादिकमें
उपयोगको लगाये तो धर्मकार्योमें प्रवृत्ति हो; और निमित्त न बने व स्वयं पुरुषार्थ न करे
तो अन्य कार्योंमें ही प्रवर्ते, परन्तु मन्द रागादिसहित प्रवर्ते।
ऐसे अवसरमें उपदेश कार्यकारी
है।

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३१२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
विचारशक्तिरहित जो एकेन्द्रियादिक हैं, उनके तो उपदेश समझनेका ज्ञान ही नहीं है;
और तीव्र रागादिसहित जीवोंका उपयोग उपदेशमें लगता नहीं है। इसलिये जो जीव
विचारशक्तिसहित हों, तथा जिनके रागादि मन्द हों; उन्हें उपदेशके निमित्तसे धर्मकी प्राप्ति हो
जाये तो उनका भला हो; तथा इसी अवसरमें पुरुषार्थ कार्यकारी है।
एकेन्द्रियादिक तो धर्मकार्य करनेमें समर्थ ही नहीं हैं, कैसे पुरुषार्थ करें? और
तीव्रकषायी पुरुषार्थ करे तो वह पापका ही करे, धर्मकार्यका पुरुषार्थ हो नहीं सकता।
इसलिये जो विचारशक्तिसहित हो और जिसके रागादिक मन्द होंवह जीव पुरुषार्थसे
उपदेशादिकके निमित्तसे तत्त्वनिर्णयादिमें उपयोग लगाये तो उसका उपयोग वहाँ लगे और तब
उसका भला हो। यदि इस अवसरमें भी तत्त्वनिर्णय करनेका पुरुषार्थ न करे, प्रमादसे काल
गँवाये
या तो मन्दरागादि सहित विषयकषायोंके कार्योंमें ही प्रवर्ते, या व्यवहारधर्मकार्योंमें प्रवर्ते;
तब अवसर तो चला जायेगा और संसारमें ही भ्रमण होगा।
तथा इस अवसरमें जो जीव पुरुषार्थसे तत्त्वनिर्णय करनेमें उपयोग लगानेका अभ्यास
रखें उनकी विशुद्धता बढ़ेगी; उससे कर्मोंकी शक्ति हीन होगी, कुछ कालमें अपने आप
दर्शनमोहका उपशम होगा; तब तत्त्वोंकी यथावत् प्रतीति आयेगी। सो इसका तो कर्तव्य
तत्त्वनिर्णयका अभ्यास ही है, इसीसे दर्शनमोहका उपशम तो स्वयमेव होता है; उसमें जीवका
कर्तव्य कुछ नहीं है।
तथा उसके होने पर जीवके स्वयमेव सम्यग्दर्शन होता है। और सम्यग्दर्शन होने
पर श्रद्धान तो यह हुआ कि ‘मैं आत्मा हूँ, मुझे रागादिक नहीं करना’; परन्तु चारित्रमोहके
उदयसे रागादिक होते हैं। वहाँ तीव्र उदय हो तब तो विषयादिमें प्रवर्तता है और मन्द
उदय हो तब अपने पुरुषार्थसे धर्मकार्योमें व वैराग्यादि भावनामें उपयोगको लगाता है; उसके
निमित्तसे चारित्रमोह मन्द हो जाता है;
ऐसा होने पर देशचारित्र व सकलचारित्र अंगीकार
करनेका पुरुषार्थ प्रगट होता है। तथा चारित्रको धारण करके अपने पुरुषार्थसे धर्ममें
परिणतिको बढ़ाये वहाँ विशुद्धतासे कर्मकी शक्ति हीन होती है, उससे विशुद्धता बढ़ती है
और उससे कर्मकी शक्ति अधिक हीन होती है। इसप्रकार क्रमसे मोहका नाश करे तब सर्वथा
परिणाम विशुद्ध होते हैं, उनके द्वारा ज्ञानावरणादिक नाश हो तब केवलज्ञान प्रगट होता
है। पश्चात् वहाँ बिना उपाय अघाति कर्मका नाश करके शुद्ध सिद्धपदको प्राप्त करता है।
इसप्रकार उपदेशका तो निमित्त बने और अपना पुरुषार्थ करे तो कर्मका नाश होता
है।

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नौवाँ अधिकार ][ ३१३
तथा जब कर्मका उदय तीव्र हो तब पुरुषार्थ नहीं हो सकता; ऊपरके गुणस्थानोंसे
भी गिर जाता है; वहाँ तो जैसी होनहार हो वैसा होता है। परन्तु जहाँ मन्द उदय हो
और पुरुषार्थ हो सके वहाँ तो प्रमादी नहीं होना; सावधान होकर अपना कार्य करना।
जैसेकोई पुरुष नदीके प्रवाहमें पड़ा बह रहा है, वहाँ पानीका जोर हो तब तो
उसका पुरुषार्थ कुछ नहीं, उपदेश भी कार्यकारी नहीं। और पानीका जोर थोड़ा हो तब
यदि पुरुषार्थ करके निकले तो निकल आयेगा। उसीको निकलनेकी शिक्षा देते हैं। और
न निकले तो धीरे-धीरे बहेगा और फि र पानीका जोर होने पर बहता चला जायेगा। उसी
प्रकार जीव संसारमें भ्रमण करता है, वहाँ कर्मोंका तीव्र उदय हो तब तो उसका पुरुषार्थ
कुछ नहीं है, उपदेश भी कार्यकारी नहीं। और कर्मका मन्द उदय हो तब पुरुषार्थ करके
मोक्षमार्गमें प्रवर्तन करे तो मोक्ष प्राप्त कर ले। उसीको मोक्षमार्गका उपदेश देते हैं। और
मोक्षमार्गमें प्रवर्तन नहीं करे तो किंचित् विशुद्धता पाकर फि र तीव्र उदय आने पर निगोदादि
पर्यायको प्राप्त करेगा।
इसलिये अवसर चूकना योग्य नहीं है। अब, सर्व प्रकारसे अवसर आया है, ऐसा
अवसर प्राप्त करना कठिन है। इसलिये श्रीगुरु दयालु होकर मोक्षमार्गका उपदेश देते हैं, उसमें
भव्यजीवोंको प्रवृत्ति करना।
मोक्षमार्गका स्वरूप
अब, मोक्षमार्गका स्वरूप कहते हैंः
जिनके निमित्तसे आत्मा अशुद्ध दशाको धारण करके दुःखी हुआऐसे जो मोहादिक
कर्म उनका सर्वथा नाश होने पर केवल आत्माकी सर्व प्रकार शुद्ध अवस्थाका होनावह मोक्ष
है। उसका जो उपायकारण उसे मोक्षमार्ग जानना।
वहाँ कारण तो अनेक प्रकारके होते हैं। कोई कारण तो ऐसे होते हैं जिनके हुए
बिना तो कार्य नहीं होता और जिनके होने पर कार्य हो या न भी हो। जैसेमुनिलिंग धारण
किये बिना तो मोक्ष नहीं होता; परन्तु मुनिलिंग धारण करने पर मोक्ष होता भी है और नहीं
भी होता। तथा कितने ही कारण ऐसे हैं कि मुख्यतः तो जिनके होने पर कार्य होता है,
परन्तु किसीके बिना हुए भी कार्यसिद्धि होती है। जैसे
अनशनादि बाह्य-तपका साधन करने
पर मुख्यतः मोक्ष प्राप्त करते हैं; परन्तु भरतादिकके बाह्य तप किये बिना ही मोक्षकी प्राप्ति
हुई। तथा कितने ही कारण ऐसे हैं जिनके होने पर कार्यसिद्धि होती ही होती है और जिनके
न होने पर सर्वथा कार्यसिद्धि नहीं होती। जैसे
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी एकता होने पर तो

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३१४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
मोक्ष होता है और उनके न होने पर सर्वथा मोक्ष नहीं होता।ऐसे यह कारण कहे, उनमें
अतिशयपूर्वक नियमसे मोक्षका साधक जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रका एकीभाव सो मोक्षमार्ग
जानना। इन सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्रमें एक भी न हो तो मोक्षमार्ग नहीं होता।
वही ‘सूत्रमें’ कहा हैः‘‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।।’’ (तत्त्वार्थसूत्र ११)
इस सूत्रकी टीकामें कहा है कि यहाँ ‘‘मोक्षमार्गः’’ ऐसा एकवचन कहा, उसका अर्थ
यह है कि तीनों मिलने पर एक मोक्षमार्ग है, अलग-अलग तीन मार्ग नहीं हैं।
यहाँ प्रश्न है कि असंयत सम्यग्दृष्टिके तो चारित्र नहीं है, उसको मोक्षमार्ग हुआ है
या नहीं हुआ है?
समाधानःमोक्षमार्ग उसके होगा, यह तो नियम हुआ; इसलिये उपचारसे इसके मोक्षमार्ग
हुआ भी कहते हैं; परमार्थसे सम्यक्चारित्र होने पर ही मोक्षमार्ग होता है। जैसेकिसी पुरुषको
किसी नगर चलनेका निश्चय हुआ; इसलिये उसको व्यवहारसे ऐसा भी कहते हैं कि ‘यह
उस नगरको चला है’; परमार्थसे मार्गमें गमन करने पर ही चलना होगा। उसी प्रकार
असंयतसम्यग्दृष्टिको वीतरागभावरूप मोक्षमार्गका श्रद्धान हुआ; इसलिये उसको उपचारसे
मोक्षमार्गी कहते हैं; परमार्थसे वीतरागभावरूप परिणमित होने पर ही मोक्षमार्ग होगा। तथा
प्रवचनसारमें भी तीनोंकी एकाग्रता होने पर ही मोक्षमार्ग कहा है। इसलिये यह जानना कि
तत्त्वश्रद्धान-ज्ञान बिना तो रागादि घटानेसे मोक्षमार्ग नहीं है और रागादि घटाये बिना
तत्त्वश्रद्धान-ज्ञानसे भी मोक्षमार्ग नहीं है। तीनों मिलने पर साक्षात् मोक्षमार्ग होता है।
अब, इनका निर्देश, लक्षणनिर्देश और परीक्षाद्वारसे निरूपण करते हैंः
वहाँ ‘सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र मोक्षका मार्ग है’ऐसा नाम मात्र कथन वह
तो ‘निर्देश’ जानना।
तथा अतिव्याप्ति, अव्याप्ति, असम्भवपनेसे रहित हो और जिससे इनको पहिचाना जाये
सो ‘लक्षण’ जानना; उसका जो निर्देश अर्थात् निरूपण सो ‘लक्षणनिर्देश’ जानना।
वहाँ जिसको पहिचानना हो उसका नाम लक्ष्य है, उसके सिवा औरका नाम अलक्ष्य
है। सो लक्ष्य व अलक्ष्य दोनोंमें पाया जाये, ऐसा लक्षण जहाँ कहा जाये वहाँ अतिव्याप्तिपना
जानना। जैसे
आत्माका लक्षण ‘अमूर्तत्त्व’ कहा; सो अमूर्तत्त्वलक्षण लक्ष्य जो आत्मा है उसमें
भी पाया जाता है और अलक्ष्य जो आकाशादिक हैं उनमें भी पाया जाता है; इसलिये यह
‘अतिव्याप्त’ लक्षण है। इसके द्वारा आत्माको पहिचाननेसे आकाशादिक भी आत्मा हो जायेंगे;
यह दोष लगेगा।

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नौवाँ अधिकार ][ ३१५
तथा जो किसी लक्ष्यमें तो हो और किसीमें न हो, ऐसे लक्ष्यके एकदेशमें पाया जाये
ऐसा लक्षण जहाँ कहा जाये वहाँ अव्याप्तिपना जानना। जैसेआत्माका लक्षण केवलज्ञानादिक
कहा जाये; सो केवलज्ञान किसी आत्मामें तो पाया जाता है, किसीमें नहीं पाया जाता; इसलिये
यह ‘अव्याप्त’ लक्षण है। इसके द्वारा आत्माको पहिचाननेसे अल्पज्ञानी आत्मा नहीं होगा;
यह दोष लगेगा।
तथा जो लक्ष्यमें पाया ही नहीं जाये, ऐसा लक्षण जहाँ कहा जायेवहाँ असम्भवपना
जानना। जैसेआत्माका लक्षण जड़पना कहा जाये; सो प्रत्यक्षादि प्रमाणसे यह विरुद्ध है;
क्योंकि यह ‘असम्भव’ लक्षण है। इसके द्वारा आत्मा माननेसे पुद्गलादिक आत्मा हो जायेंगे
और आत्मा है वह अनात्मा हो जायेगा; यह दोष लगेगा।
इस प्रकार अतिव्याप्त, अव्याप्त तथा असम्भवी लक्षण हो वह लक्षणाभास है। तथा
लक्ष्यमें तो सर्वत्र पाया जाये और अलक्ष्यमें कहीं न पाया जाये वह सच्चा लक्षण है। जैसे
आत्माका स्वरूप चैतन्य है; सो यह लक्षण सर्व ही आत्मामें तो पाया जाता है, अनात्मामें कहीं
नहीं पाया जाता; इसलिये यह सच्चा लक्षण है। इसके द्वारा आत्मा माननेसे आत्मा-अनात्माका
यथार्थज्ञान होता है; कुछ दोष नहीं लगता। इसप्रकार लक्षणका स्वरूप उदाहरण मात्र कहा।
अब, सम्यग्दर्शनादिकका सच्चा लक्षण कहते हैंः
सम्यदर्शनका सच्चा लक्षण
विपरीताभिनिवेशरहित जीवादिकतत्त्वार्थश्रद्धान वह सम्यग्दर्शनका लक्षण है। जीव,
अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्षयह सात तत्त्वार्थ हैं। इनका जो श्रद्धान‘ऐसा
ही है, अन्यथा नहीं है’ऐसा प्रतीतिभाव, सो तत्त्वार्थश्रद्धान; तथा विपरीताभिनिवेश जो अन्यथा
अभिप्राय उससे रहित; सो सम्यग्दर्शन है।
यहाँ विपरीताभिनिवेशके निराकरणके अर्थ ‘सम्यक्’ पद कहा है, क्योंकि ‘सम्यक्’ ऐसा
शब्द प्रशंसावाचक है; वहाँ श्रद्धानमें विपरीताभिनिवेशका अभाव होने पर ही प्रशंसा सम्भव
है, ऐसा जानना।
यहाँ प्रश्न है कि ‘तत्त्व’ और ‘अर्थ’ यह दो पद कहे, उनका प्रयोजन क्या?
समाधानः
‘तत्’ शब्द है सो ‘यत्’ शब्दकी अपेक्षा सहित है। इसलिये जिसका प्रकरण
हो उसे तत् कहा जाता है और जिसका जो भाव अर्थात् स्वरूप सो तत्त्व जानना। कारण
कि ‘तस्य भावस्तत्त्व’ ऐसा तत्त्व शब्दका समास होता है। तथा जो जाननेमें आये ऐसा ‘द्रव्य’
व ‘गुण-पर्याय’ उसका नाम अर्थ है। तथा ‘तत्त्वेन अर्थस्तत्त्वार्थः’ तत्त्व अर्थात् अपना स्वरूप,

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३१६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
उससे सहित पदार्थ उनका श्रद्धान सो सम्यग्दर्शन है। यहाँ यदि तत्त्वश्रद्धान ही कहते तो जिसका
यह भाव (तत्त्व) है, उसके श्रद्धान बिना केवल भावका ही श्रद्धान कार्यकारी नहीं है। तथा
यदि ‘अर्थश्रद्धान’ ही कहते तो भावके श्रद्धान बिना पदार्थका श्रद्धान भी कार्यकारी नहीं है।
जैसेकिसीको ज्ञान-दर्शनादिकका तो श्रद्धान होयह जानपना है, यह श्वेतपना है,
इत्यादि प्रतीति हो; परन्तु ज्ञान-दर्शन आत्माका स्वभाव है, मैं आत्मा हूँ तथा वर्णादि पुद्गलका
स्वभाव है, पुद्गल मुझसे भिन्न
अलग पदार्थ है; ऐसा पदार्थका श्रद्धान न हो तो भावका
श्रद्धान कार्यकारी नहीं है। तथा जैसे ‘मैं आत्मा हूँ’ऐसा श्रद्धान किया; परन्तु आत्माका
स्वरूप जैसा है वैसा श्रद्धान नहीं किया तो भावके श्रद्धान बिना पदार्थका भी श्रद्धान कार्यकारी
नहीं है। इसलिये तत्त्वसहित अर्थका श्रद्धान होता है सो ही कार्यकारी है। अथवा
जीवादिकको तत्त्वसंज्ञा भी है और अर्थसंज्ञा भी है, इसलिये ‘तत्त्वमेवार्थस्तत्त्वार्थः’ जो तत्त्व
सो ही अर्थ, उनका श्रद्धान सो सम्यग्दर्शन है।
इस अर्थ द्वारा कहीं तत्त्वश्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहे और कहीं पदार्थश्रद्धानको
सम्यग्दर्शन कहे, वहाँ विरोध नहीं जानना।
इस प्रकार ‘तत्त्व’ और ‘अर्थ’ दो पद कहनेका प्रयोजन है।
तत्त्वार्थ सात ही क्यों?
फि र प्रश्न है कि तत्त्वार्थ तो अनन्त हैं। वे सामान्य अपेक्षासे जीव-अजीवमें सर्व
गर्भित हुए; इसलिये दो ही कहना थे या अनन्त कहना थे। आस्रवादिक तो जीव-अजीवके
ही विशेष हैं, इनको अलग कहनेका प्रयोजन क्या?
समाधानःयदि यहाँ पदार्थश्रद्धान करनेका ही प्रयोजन होता तब तो सामान्यसे या
विशेषसे जैसे सर्व पदार्थोंका जानना हो, वैसे ही कथन करते; वह तो यहाँ प्रयोजन है नहीं;
यहाँ तो मोक्षका प्रयोजन है सो जिन सामान्य या विशेष भावोंका श्रद्धान करनेसे मोक्ष हो
और जिनका श्रद्धान किये बिना मोक्ष न हो; उन्हींका यहाँ निरूपण किया है।
सो जीव-अजीव यह दो तो बहुत द्रव्योंकी एक जाति-अपेक्षा सामान्यरूप तत्त्व कहे।
यह दोनों जाति जाननेसे जीवको आपापरका श्रद्धान होतब परसे भिन्न अपनेको जाने, अपने
हितके अर्थ मोक्षका उपाय करे; और अपनेसे भिन्न परको जाने, तब परद्रव्यसे उदासीन होकर
रागादिक त्याग कर मोक्षमार्गमें प्रवर्ते। इसलिये इन दो जातियोंका श्रद्धान होने पर ही मोक्ष
होता है और दो जातियाँ जाने बिना आपापरका श्रद्धान न हो तब पर्यायबुद्धिसे सांसारिक
प्रयोजनका ही उपाय करता है। परद्रव्यमें रागद्वेषरूप होकर प्रवर्ते, तब मोक्षमार्गमें कैसे प्रवर्ते?

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नौवाँ अधिकार ][ ३१७
इसलिये इन दो जातियोंका श्रद्धान न होने पर मोक्ष नहीं होता। इसप्रकार यह दो सामान्य
तत्त्व तो अवश्य श्रद्धान करने योग्य कहे हैं।
तथा आस्रवादि पाँच कहे, वे जीव-पुद्गलकी पर्याय हैं; इसलिये यह विशेषरूप तत्त्व
हैं; सो इन पाँच पर्यायोंको जाननेसे मोक्षका उपाय करनेका श्रद्धान होता है।
वहाँ मोक्षको पहिचाने तो उसे हित मानकर उसका उपाय करे; इसलिये मोक्षका श्रद्धान
करना।
तथा मोक्षका उपाय संवर-निर्जरा है; सो इनको पहिचाने तो जैसे संवर-निर्जरा हो वैसे
प्रवर्ते, इसलिये संवर-निर्जराका श्रद्धान करना।
तथा संवर-निर्जरा तो अभावलक्षण सहित हैं; इसलिये जिनका अभाव करना है उनको
पहिचानना चाहिये। जैसेक्रोधका अभाव होने पर क्षमा होती है; सो क्रोधको पहिचाने तो
उसका अभाव करके क्षमारूप प्रवर्तन करे। उसी प्रकार आस्रवका अभाव होने पर संवर
होता है और बन्धका एकदेश अभाव होने पर निर्जरा होती है; सो आस्रव-बन्धको पहिचाने
तो उनका नाश करके संवर-निर्जरारूप प्रवर्तन करे; इसलिये आस्रव-बन्धका श्रद्धान करना।
इस प्रकार इन पाँच पर्यायोंका श्रद्धान होने पर ही मोक्षमार्ग होता है, इनको न पहिचाने
तो मोक्षकी पहिचान बिना उसका किसलिये करे? संवर-निर्जराकी पहिचान बिना उनमें कैसे
प्रवर्तन करे? आस्रव-बन्धकी पहिचान बिना उनका नाश कैसे करे?
इसप्रकार इन पाँच
पर्यायोंका श्रद्धान न होने पर मोक्षमार्ग नहीं होता।
इसप्रकार यद्यपि तत्त्वार्थ अनन्त हैं, उनका सामान्य-विशेषसे अनेक प्रकार प्ररूपण हो;
परन्तु यहाँ एक मोक्षका प्रयोजन है; इसलिये दो तो जाति-अपेक्षा सामान्यतत्त्व और पाँच
पर्यायरूप विशेषतत्त्व मिलाकर सात ही कहे।
इनके यथार्थ श्रद्धानके आधीन मोक्षमार्ग है। इनके सिवा औरोंका श्रद्धान हो या
न हो या अन्यथा श्रद्धान हो; किसीके आधीन मोक्षमार्ग नहीं है ऐसा जानना।
तथा कहीं पुण्य-पापसहित नव पदार्थ कहे हैं; सो पुण्य-पाप आस्रवादिकके ही विशेष
हैं, इसलिये सात तत्त्वोंमें गर्भित हुए। अथवा पुण्य-पापका श्रद्धान होने पर पुण्यको मोक्षमार्ग
न माने, या स्वच्छन्दी होकर पापरूप न प्रवर्ते; इसलिये मोक्षमार्गमें इनका श्रद्धान भी उपकारी
जानकर दो तत्त्व विशेषके विशेष मिलाकर नवपदार्थ कहे। तथा समयसारादिमें इनको नवतत्त्व
भी कहा है।
फि र प्रश्नःइनका श्रद्धान सम्यग्दर्शन कहा; सो दर्शन तो सामान्य अवलोकनमात्र और

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३१८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
श्रद्धान प्रतीतिमात्र; इनके एकार्थपना किस प्रकार सम्भव है?
उत्तरःप्रकरणके वशसे धातुका अर्थ अन्यथा होता है। सो यहाँ प्रकरण मोक्षमार्गका
है। उसमें ‘दर्शन’ शब्दका अर्थ सामान्य अवलोकनमात्र नहीं ग्रहण करना, क्योंकि चक्षु-
अचक्षुदर्शनसे सामान्य अवलोकन तो सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टिके समान होता है, कुछ इससे
मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति-अप्रवृत्ति नहीं होती। तथा श्रद्धान होता है सो सम्यग्दृष्टिके ही होता है,
इससे मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति होती है। इसलिये ‘दर्शन’ शब्दका अर्थ भी यहाँ श्रद्धानमात्र ही
ग्रहण करना।
फि र प्रश्नःयहाँ विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धान करना कहा, सो प्रयोजन क्या?
समाधानःअभिनिवेश नाम अभिप्रायका है। सो जैसा तत्त्वार्थश्रद्धानका अभिप्राय है
वैसा न हो, अन्यथा अभिप्राय हो, उसका नाम विपरीताभिनिवेश है। तत्त्वार्थश्रद्धान करनेका
अभिप्राय केवल उनका निश्चय करना मात्र ही नहीं है; वहाँ अभिप्राय ऐसा है कि जीव-
अजीवको पहिचानकर अपनेको तथा परको जैसाका तैसा माने, तथा आस्रवको पहिचानकर
उसे हेय माने, तथा बन्धको पहिचानकर उसे अहित माने, तथा संवरको पहिचानकर उसे
उपादेय माने, तथा निर्जराको पहिचानकर उसे हितका कारण माने, तथा मोक्षको पहिचानकर
उसको अपना परमहित माने
ऐसा तत्त्वार्थश्रद्धानका अभिप्राय है; उससे उलटे अभिप्रायका नाम
विपरीताभिनिवेश है। सच्चा तत्त्वार्थश्रद्धान होने पर इसका अभाव होता है। इसलिये
तत्त्वार्थश्रद्धान है सो विपरीताभिनिवेशरहित है
ऐसा यहाँ कहा है।
अथवा किसीके आभासमात्र तत्त्वार्थश्रद्धान होता है; परन्तु अभिप्रायमें विपरीतपना नहीं
छूटता। किसी प्रकारसे पूर्वोक्त अभिप्रायसे अन्यथा अभिप्राय अन्तरंगमें पाया जाता है तो उसके
सम्यग्दर्शन नहीं होता। जैसे
द्रव्यलिंगी मुनि जिनवचनोंसे तत्त्वोंकी प्रतीति करे, परन्तु शरीराश्रित
क्रियाओंमें अहंकार तथा पुण्यास्रवमें उपादेयपना इत्यादि विपरीत अभिप्रायसे मिथ्यादृष्टि ही रहता
है। इसलिये जो तत्त्वार्थश्रद्धान विपरीताभिनिवेश रहित है, वही सम्यग्दर्शन है।
इसप्रकार विपरीताभिनिवेशरहित जीवादि तत्त्वार्थोंका श्रद्धानपना सो सम्यग्दर्शनका लक्षण
है, सम्यग्दर्शन लक्ष्य है।
वही तत्त्वार्थसूत्रमें कहा हैः
‘‘तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्’’।।१-२।।
तत्त्वार्थोंका श्रद्धान वही सम्यग्दर्शन है।
तथा सर्वार्थसिद्धि नामक सूत्रोंकी टीका है
उसमें तत्त्वादिक पदोंका अर्थ प्रगट लिखा

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नौवाँ अधिकार ][ ३१९
है तथा साथ ही तत्त्व कैसे कहे सो प्रयोजन लिखा है। उसके अनुसार यहाँ कुछ कथन
किया है ऐसा जानना।
तथा पुरुषार्थसिद्धयुपायमें भी इसीप्रकार कहा हैः
जीवाजीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कर्तव्यम्
श्रद्धानं विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मरूपं तत्।।२२।।
अर्थःविपरीताभिनिवेशसे रहित जीव-अजीवादि तत्त्वार्थोंका श्रद्धान सदाकाल करना
योग्य है। यह श्रद्धान आत्माका स्वरूप है, दर्शन मोह उपाधि दूर होने पर प्रगट होता
है, इसलिये आत्माका स्वभाव है। चतुर्थादि गुणस्थानमें प्रगट होता है, पश्चात् सिद्ध अवस्थामें
भी सदाकाल इसका सद्भाव रहता है
ऐसा जानना।
तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणमें अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असम्भव दोषका परिहार
यहाँ प्रश्न उत्पन्न होता है कि तिर्यंचादि तुच्छज्ञानी कितने ही जीव सात तत्त्वोंका
नाम भी नहीं जान सकते, उनके भी सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति शास्त्रमें कही है; इसलिये तुमने
तत्त्वार्थश्रद्धानपना सम्यक्त्वका लक्षण कहा, उसमें अव्याप्ति दूषण लगता है?
समाधानःजीव-अजीवादिकके नामादिक जानो या न जानो या अन्यथा जानो, उनका
स्वरूप यथार्थ पहिचानकर श्रद्धान करने पर सम्यक्त्व होता है।
वहाँ कोई सामान्यरूपसे स्वरूपको पहिचानकर श्रद्धान करता है, कोई विशेषरूपसे
स्वरूपको पहिचानकर श्रद्धान करता है। इसलिये जो तुच्छज्ञानी तिर्यंचादिक सम्यग्दृष्टि हैं वे
जीवादिकका नाम भी नहीं जानते, तथापि उनका सामान्यरूपसे स्वरूप पहिचानकर श्रद्धान करते
हैं, इसलिये उनके सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है।
जैसेकोई तिर्यंच अपना तथा औरोंका नामादिक तो नहीं जानता; परन्तु आपमें ही
अपनत्व मानता है औरोंको पर मानता है। उसी प्रकार तुच्छज्ञानी जीव-अजीवका नाम नहीं
जानता; परन्तु जो ज्ञानादिस्वरूप आत्मा है उसमें तो अपनत्व मानता है और जो शरीरादि
हैं उनको पर मानता है
ऐसा श्रद्धान उसके होता है; वही जीव-अजीवका श्रद्धान है। तथा
जैसे वही तिर्यंच सुखादिकके नामादिक नहीं जानता है, तथापि सुख-अवस्थाको पहिचानकर
उसके अर्थ आगामी दुःखके कारणको पहिचानकर उसका त्याग करना चाहता है, तथा जो
दुःखका कारण बन रहा है उसके अभावका उपाय करता है। उसी प्रकार तुच्छज्ञानी
मोक्षादिकका नाम नहीं जानता, तथापि सर्वथा सुखरूप मोक्ष-अवस्थाका श्रद्धान करता हुआ
उसके अर्थ आगामी बन्धका कारण जो रागादिक आस्रव उसके त्यागरूप संवर करना चाहता

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३२० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
है, तथा जो संसार दुःखका कारण है उसकी शुद्धभावसे निर्जरा करना चाहता है। इसप्रकार
आस्रवादिकका उसके श्रद्धान है।
इसप्रकार उसके भी सप्ततत्त्वका श्रद्धान पाया जाता है। यदि ऐसा श्रद्धान न हो
तो रागादि त्यागकर शुद्धभाव करनेकी चाह न हो। वही कहते हैंः
यदि जीव - अजीवकी जाति न जानकर आपापरको न पहिचाने तो परमें रागादिक कैसे
न करे? रागादिकको न पहिचाने तो उनका त्याग कैसे करना चाहे? वे रागादिक ही आस्रव
हैं। रागादिकका फल बुरा न जाने तो किसलिये रागादिक छोड़ना चाहे? उन रागादिकका
फल वही बन्ध है। तथा रागादिरहित परिणामको पहिचानता है तो उसरूप होना चाहता
है। उस रागादिरहित परिणामका ही नाम संवर है। तथा पूर्व संसार अवस्थाके कारणकी
हानिको पहिचानता है तो उसके अर्थ तपश्चरणादिसे शुद्धभाव करना चाहता है। उस पूर्व
अवस्थाका कारण कर्म है, उसकी हानि वही निर्जरा है। तथा संसार-अवस्थाके अभावको
न पहिचाने तो संवर-निर्जरारूप किसलिये प्रवर्ते? उस संसार-अवस्थाका अभाव वही मोक्ष है।
इसलिये सातों तत्त्वोंका श्रद्धान होने पर ही रागादिक छोड़कर शुद्धभाव होनेकी इच्छा उत्पन्न
होती है। यदि इनमें एक भी तत्त्वका श्रद्धान न हो तो ऐसी चाह उत्पन्न नहीं होती।
तथा ऐसी चाह तुच्छज्ञानी तिर्यंचादि सम्यग्दृष्टिके होती ही है; इसलिये उसके सात तत्त्वोंका
श्रद्धान पाया जाता है ऐसा निश्चय करना। ज्ञानावरणका क्षयोपशम थोड़ा होनेसे विशेषरूपसे
तत्त्वोंका ज्ञान न हो, तथापि दर्शनमोहके उपशमादिकसे सामान्यरूपसे तत्त्वश्रद्धानकी शक्ति प्रगट
होती है। इसप्रकार इस लक्षणमें अव्याप्ति दूषण नहीं है।
फि र प्रश्नःजिस कालमें सम्यग्दृष्टि विषयकषायोंके कार्यमें प्रवर्तता है उस कालमें सात
तत्त्वोंका विचार ही नहीं है, वहाँ श्रद्धान कैसे सम्भवित है? और सम्यक्त्व रहता ही है;
इसलिये उस लक्षणमें अव्याप्ति दूषण आता है?
समाधानःविचार है वह तो उपयोगके आधीन है; जहाँ उपयोग लगे उसीका विचार
होता है। तथा श्रद्धान है सो प्रतीतिरूप है। इसलिये अन्य ज्ञेयका विचार होने पर व
सोना आदि क्रिया होने पर तत्त्वोंका विचार नहीं है; तथापि उनकी प्रतीति बनी रहती है,
नष्ट नहीं होती; इसलिये उसके सम्यक्त्वका सद्भाव है।
जैसेकिसी रोगी मनुष्यको ऐसी प्रतीति है कि मैं मनुष्य हूँ, तिर्यंचादि नहीं हूँ, मुझे
इस कारणसे रोग हुआ है, अब कारण मिटाकर रोगको घटाकर निरोग होना। तथा वही
मनुष्य अन्य विचारादिरूप प्रवर्तता है, तब उसको ऐसा विचार नहीं होता, परन्तु श्रद्धान ऐसा

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नौवाँ अधिकार ][ ३२१
ही रहा करता है। उसी प्रकार इस आत्माको ऐसी प्रतीति है कि ‘मैं आत्मा हूँ, पुद्गलादि
नहीं हूँ, मेरे आस्रवसे बन्ध हुआ है, सो अब, संवर करके, निर्जरा करके, मोक्षरूप होना।’
तथा वही आत्मा अन्य विचारादिरूप प्रवर्तता है तब उसके ऐसा विचार नहीं होता, परन्तु
श्रद्धान ऐसा ही रहा करता है।
फि र प्रश्न है कि ऐसा श्रद्धान रहता है तो बन्ध होनेके कारणोंमें कैसे प्रवर्तता है?
उत्तरः
जैसे वही मनुष्य किसी कारणके वश रोग बढ़ने के कारणोंमें भी प्रवर्तता है,
व्यापारादिक कार्य व क्रोधादिक कार्य करता है, तथापि उस श्रद्धानका उसके नाश नहीं होता;
उसी प्रकार वही आत्मा कर्म-उदय निमित्तके वश बन्ध होनेके कारणोंमें भी प्रवर्तता है, विषय-
सेवनादि कार्य व क्रोधादि कार्य करता है, तथापि उस श्रद्धानका उसे नाश नहीं होता।
इसका विशेष निर्णय आगे करेंगे।
इसप्रकार सप्त तत्त्वका विचार न होने पर भी श्रद्धानका सद्भाव पाया जाता है,
इसलिये वहाँ अव्याप्तिपना नहीं है।
फि र प्रश्नःउच्च दशामें जहाँ निर्विकल्प आत्मानुभव होता है वहाँ तो सप्त तत्त्वादिकके
विकल्पका भी निषेध किया है। सो सम्यक्त्वके लक्षणका निषेध करना कैसे सम्भव है?
और वहाँ निषेध सम्भव है तो अव्याप्ति दूषण आया?
उत्तरःनिचली दशामें सप्त तत्त्वोंके विकल्पोंमें उपयोग लगाया, उससे प्रतीतिको दृढ़
किया और विषयादिकसे उपयोग छुड़ाकर रागादि घटाये। तथा कार्य सिद्ध होने पर कारणोंका
भी निषेध करते हैं; इसलिये जहाँ प्रतीति भी दृढ़ हुई और रागादिक दूर हुए, वहाँ उपयोग
भ्रमानेका खेद किसलिये करें? इसलिये वहाँ उन विकल्पोंका निषेध किया है। तथा सम्यक्त्वका
लक्षण तो प्रतीति ही है; सो प्रतीतिका तो निषेध नहीं किया। यदि प्रतीति छुड़ाई हो तो
इस लक्षणका निषेध किया कहा जाये, सो तो है नहीं। सातों तत्त्वोंकी प्रतीति वहाँ भी
बनी रहती है, इसलिये यहाँ अव्याप्तिपना नहीं है।
फि र प्रश्न है कि छद्मस्थके तो प्रतीति-अप्रतीति कहना सम्भव है, इसलिये वहाँ सप्त
तत्त्वोंकी प्रतीति सम्यक्त्वका लक्षण कहा सो हमने माना; परन्तु केवलीसिद्ध भगवानके तो
सर्वका जानपना समानरूप है, वहाँ सप्त तत्त्वोंकी प्रतीति कहना सम्भव नहीं है और उनके
सम्यक्त्वगुण पाया ही जाता है, इसलिये वहाँ उस लक्षणका अव्याप्तिपना आया?
समाधानःजैसे छद्मस्थके श्रुतज्ञानके अनुसार प्रतीति पायी जाती है, उसी प्रकार
केवलीसिद्धभगवानके केवलज्ञानके अनुसार प्रतीति पायी जाती है। जो सप्त तत्त्वोंका स्वरूप
पहले ठीक किया था, वही केवलज्ञान द्वारा जाना, वहाँ प्रतीतिका परमावगाढ़पना हुआ; इसीसे

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३२२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
परमावगाढ़ सम्यक्त्व कहा। जो पहले श्रद्धान किया था, उसको झूठ जाना होता तो वहाँ
अप्रतीति होती; सो तो जैसा सप्त तत्त्वोंका श्रद्धान छद्मस्थके हुआ था, वैसा ही केवली
सिद्ध भगवानके पाया जाता है; इसलिये ज्ञानावरणादिककी हीनताअधिकता होने पर भी
तिर्यंचादिक व केवलीसिद्ध भगवानके सम्यक्त्वगुण समान ही कहा है।
तथा पूर्व-अवस्थामें यह माना था कि संवरनिर्जरासे मोक्षका उपाय करना। पश्चात्
मुक्त अवस्था होने पर ऐसा मानने लगे कि संवर-निर्जरासे हमारा मोक्ष हुआ। तथा पहले
ज्ञानकी हीनतासे जीवादिकके थोड़े विशेष जाने थे, पश्चात् केवलज्ञान होने पर उनके सर्व
विशेष जाने; परन्तु मूलभूत जीवादिकके स्वरूपका श्रद्धान जैसा छद्मस्थके पाया जाता है वैसा
ही केवलीके पाया जाता है। तथा यद्यपि केवली
सिद्ध भगवान अन्य पदार्थोंको भी प्रतीति
सहित जानते हैं, तथापि वे पदार्थ प्रयोजनभूत नहीं हैं; इसलिये सम्यक्त्वगुणमें सप्त तत्त्वोंका
ही श्रद्धान ग्रहण किया है। केवली
सिद्धभगवान रागादिरूप नहीं परिणमित होते, संसार-
अवस्थाको नहीं चाहते; सो यह इस श्रद्धानका बल जानना।
फि र प्रश्न है कि सम्यग्दर्शनको तो मोक्षमार्ग कहा था, मोक्षमें इसका सद्भाव कैसे
कहते हैं?
उत्तरः कोई कारण ऐसा भी होता है जो कार्य सिद्ध होने पर भी नष्ट नहीं होता।
जैसेकिसी वृक्षके किसी एक शाखासे अनेक शाखायुक्त अवस्था हुई, उसके होने पर वह
एक शाखा नष्ट नहीं होती; उसी प्रकार किसी आत्माके सम्यक्त्वगुणसे अनेक गुणयुक्त मुक्त
अवस्था हुई, उसके होने पर सम्यक्त्वगुण नष्ट नहीं होता। इस प्रकार केवली
सिद्धभगवानके
भी तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षण सम्यक्त्व ही पाया जाता है, इसलिये वहाँ अव्याप्तिपना नहीं है।
फि र प्रश्नःमिथ्यादृष्टिके भी तत्त्वश्रद्धान होता हैऐसा शास्त्रमें निरूपण है।
प्रवचनसारमें आत्मज्ञानशून्य तत्त्वश्रद्धान अकार्यकारी कहा है; इसलिये सम्यक्त्वका लक्षण
तत्त्वार्थश्रद्धान कहने पर उसमें अतिव्याप्ति दूषण लगता है?
समाधानःमिथ्यादृष्टिके जो तत्त्वश्रद्धान कहा है, वह नामनिक्षेपसे कहा हैजिसमें
तत्त्वार्थश्रद्धानका गुण नहीं और व्यवहारमें जिसका नाम तत्त्वश्रद्धान कहा जाये वह मिथ्यादृष्टिके
होता है; अथवा आगमद्रव्यनिक्षेपसे होता है
तत्त्वार्थश्रद्धानके प्रतिपादक शास्त्रोंका अभ्यास
करता है, उनका स्वरूप निश्चय करनेमें उपयोग नहीं लगाता हैऐसा जानना। तथा यहाँ
सम्यक्त्वका लक्षण तत्त्वार्थश्रद्धान कहा है, सो भावनिक्षेपसे कहा है। ऐसा गुणसहित सच्चा
तत्त्वार्थश्रद्धान मिथ्यादृष्टिके कदाचित् नहीं होता। तथा आत्मज्ञानशून्य तत्त्वार्थश्रद्धान कहा है
वहाँ भी वही अर्थ जानना। जिसके सच्चे जीव-अजीवादिका श्रद्धान हो उसके आत्मज्ञान कैसे