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जाता, इसलिये उस लक्षणमें अतिव्याप्ति दूषण नहीं लगता।
व केवल जीवका ही श्रद्धान होने पर सम्यक्त्व होता है, सातोंके श्रद्धानका नियम होता तो
ऐसा किसलिये लिखते?
ऐसा उपाय करता है? संवर-निर्जराके श्रद्धान बिना रागादिक रहित होकर स्वरूपमें उपयोग
लगानेका किसलिये उद्यम रखता है? आस्रव-बन्धके श्रद्धान बिना पूर्व-अवस्थाको किसलिये
छोड़ता है? इसलिये आस्रवादिकके श्रद्धानरहित आपापरका श्रद्धान करना सम्भवित नहीं है।
तथा यदि आस्रवादिकके श्रद्धान सहित होता है, तो स्वयमेव ही सातों तत्त्वोंके श्रद्धानका
नियम हुआ। तथा केवल आत्माका निश्चय है, सो परका पररूप श्रद्धान हुए बिना आत्माका
श्रद्धान नहीं होता, इसलिये अजीवका श्रद्धान होने पर ही जीवका श्रद्धान होता है। तथा
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ही श्रद्धानका नियम जानना।
श्रद्धान नहीं होता; उस शुद्ध-अशुद्ध अवस्थाकी पहिचान आस्रवादिककी पहिचानसे होती है।
तथा आस्रवादिकके श्रद्धान बिना आपापरका श्रद्धान व केवल आत्माका श्रद्धान कार्यकारी भी
नहीं है; क्योंकि श्रद्धान करो या न करो, आप है सो आप है ही, पर है सो पर है। तथा
आस्रवादिकका श्रद्धान हो तो आस्रव-बन्धका अभाव करके संवर
इसलिये आस्रवादिकके श्रद्धानसहित आपापरका जानना व आपका जानना कार्यकारी है।
होओ
आपापरका व आत्माका श्रद्धान होता ही होता है
है व अपने आत्माको ही भाता है, उसके प्रयोजनकी सिद्धि होती है; इसलिये मुख्यतासे
भेदविज्ञानको व आत्मज्ञानको कार्यकारी कहा है।
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केवल जाननेसे ही मानको बढ़ाता है; रागादिक नहीं छोड़ता, तब उसका कार्य कैसे सिद्ध
होगा? तथा नवतत्त्व संततिका छोड़ना कहा है; सो पूर्वमें नवतत्त्वके विचारसे सम्यग्दर्शन हुआ,
पश्चात् निर्विकल्प दशा होनेके अर्थ नवतत्त्वोंके भी विकल्प छोड़नेकी चाह की। तथा जिसके
पहले ही नवतत्त्वोंका विचार नहीं है, उसको वह विकल्प छोड़नेका क्या प्रयोजन है? अन्य
अनेक विकल्प आपके पाये जाते हैं उन्हींका त्याग करो।
लक्षण यह नहीं है; क्योंकि द्रव्यलिंगी मुनि आदि व्यवहारधर्मके धारक मिथ्यादृष्टियोंके भी ऐसा
श्रद्धान होता है।
व्रतोंको अन्वयरूप कारण जानकर कारणमें कार्यका उपचार करके इनको चारित्र कहा है।
उसी प्रकार अरहन्त देवादिकका श्रद्धान होने पर तो सम्यक्त्व हो या न हो; परन्तु
अरहन्तादिकका श्रद्धान हुए बिना तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यक्त्व कदाचित् नहीं होता; इसलिये
अरहन्तादिकके श्रद्धानको अन्वयरूप कारण जानकर कारणमें कार्यका उपचार करके इस
श्रद्धानको सम्यक्त्व कहा है। इसीसे इसका नाम व्यवहार-सम्यक्त्व है।
पहिचान सहित श्रद्धान नहीं होता। तथा जिसके सच्चे अरहन्तादिकके स्वरूपका श्रद्धान हो,
उसके तत्त्वश्रद्धान होता ही होता है; क्योंकि अरहन्तादिकका स्वरूप पहिचाननेसे जीव-अजीव-
आस्रवादिककी पहिचान होती है।
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है, ऐसा नियम सम्भव नहीं है?
उत्कृष्ट माने वह उसके लक्ष्यको उत्कृष्ट माने ही माने; इसलिये उनको भी सर्वोत्कृष्ट माना
औरको नहीं माना; वही देवका श्रद्धान हुआ। तथा मोक्षके कारण संवर-निर्जरा हैं, इसलिये
इनको भी उत्कृष्ट मानता है; और संवर-निर्जराके धारक मुख्यतः मुनि हैं, इसलिये मुनिको
उत्तम माना औरको नहीं माना; वही गुरुका श्रद्धान हुआ। तथा रागादिक रहित भावका
नाम अहिंसा है, उसीको उपादेय मानते हैं औरको नहीं मानते; वही धर्मका श्रद्धान हुआ।
इस प्रकार तत्त्वश्रद्धानमें गर्भित अरहन्तदेवादिकका श्रद्धान होता है। अथवा जिस निमित्तसे
इसके तत्त्वार्थश्रद्धान होता है, उस निमित्तसे अरहन्तदेवादिकका भी श्रद्धान होता है। इसलिये
सम्यक्त्वमें देवादिकके श्रद्धानका नियम है।
अरहन्तादिकका श्रद्धान हो, उसके तत्त्वश्रद्धान होता है
यथार्थ नहीं पहिचानता, इसलिये सच्चा श्रद्धान भी नहीं होता; क्योंकि जीव-अजीव जाति
पहिचाने बिना अरहन्तादिकके आत्माश्रित गुणोंको व शरीराश्रित गुणोंको भिन्न-भिन्न नहीं
जानता। यदि जाने तो अपने आत्माको परद्रव्यसे भिन्न कैसे न माने? इसलिये प्रवचनसारमें
ऐसा कहा है :
लौकिक अतिशयादिसे अरहन्तका, तपश्चरणादिसे गुरुका और परजीवोंकी अहिंसादिसे धर्मकी
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तत्त्वश्रद्धान होने पर ही जाना जाता है; इसलिये जिसके सच्चा अरहन्तादिकका श्रद्धान हो
उसके तत्त्वश्रद्धान होता ही होता है
यहाँ प्रश्न है कि सच्चा तत्त्वार्थश्रद्धान व आपापरका श्रद्धान व आत्मश्रद्धान व देव-
सो जानी; परन्तु अन्य-अन्य प्रकार लक्षण कहनेका प्रयोजन क्या?
श्रद्धान करना है। तथा आस्रवादिकके श्रद्धानका प्रयोजन रागादिक छोड़ना है, सो आपापरका
भिन्न श्रद्धान होने पर परद्रव्यमें रागादि न करनेका श्रद्धान होता है। इसप्रकार तत्त्वार्थश्रद्धानका
प्रयोजन आपापरके भिन्न श्रद्धानसे सिद्ध होता जानकर इस लक्षणको कहा है।
तत्त्वश्रद्धानका कारण है। सो बाह्य कारणकी प्रधानतासे कुदेवादिकका श्रद्धान छुड़ाकर
सुदेवादिकका श्रद्धान करानेके अर्थ देव-गुरु-धर्मके श्रद्धानको मुख्य लक्षण कहा है।
यहाँ प्रश्न है कि यह चार लक्षण कहे, उनमें यह जीव किस लक्षणको अंगीकार करे?
समाधानः
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स्वरूप विचारता है। इस प्रकार ज्ञानमें तो नानाप्रकार विचार होते हैं, परन्तु श्रद्धानमें सर्वत्र
परस्पर सापेक्षपना पाया जाता है। तत्त्वविचार करता है तो भेदविज्ञानके अभिप्राय सहित
करता है और भेदविज्ञान करता है तो तत्त्वविचारादिके अभिप्राय सहित करता है। इसी
प्रकार अन्यत्र भी परस्पर सापेक्षपना है; इसलिये सम्यग्दृष्टिके श्रद्धानमें चारों ही लक्षणोंका
अंगीकार है।
नहीं मानता, उनके नाम-भेदादिकको सीखता है
पर्यायमें अहंबुद्धि है और वस्त्रादिकमें परबुद्धि है, वैसे आत्मामें अहंबुद्धि और शरीरादिमें परबुद्धि
नहीं होती। तथा आत्माका जिनवचनानुसार चिंतवन करे; परन्तु प्रतीतिरूप आपका आपरूप
श्रद्धान नहीं करता है। तथा अरहन्तदेवादिकके सिवा अन्य कुदेवादिकको नहीं मानता; परन्तु
उनके स्वरूपको यथार्थ पहिचानकर श्रद्धान नहीं करता
ले। तथा इस अनुक्रमका उल्लंघन करके
है; अथवा तत्त्वविचारमें भी उपयोग नहीं लगाता, आपापरका भेदविज्ञानी हुआ रहता है; अथवा
आपापरका भी ठीक निर्णय नहीं करता और अपनेको आत्मज्ञानी मानता है। सो सब चतुराईकी
बातें हैं, मानादिक कषायके साधन हैं, कुछ भी कार्यकारी नहीं हैं। इसलिये जो जीव अपना
भला करना चाहे, उसे जब तक सच्चे सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति न हो, तब तक इनको भी अनुक्रमसे
ही अंगीकार करना।
होता है, तथा मोक्षमार्गके विघ्न करनेवाले कुदेवादिकका निमित्त दूर होता है, मोक्षमार्गका सहायक
अरहन्तदेवादिकका निमित्त मिलता है; इसलिये पहले देवादिकका श्रद्धान करना। फि र जिनमतमें
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श्रद्धानकी प्राप्ति होती है। फि र आपापरका भिन्नपना जैसे भासित हो वैसे विचार करता रहे;
क्योंकि इस अभ्याससे भेदविज्ञान होता है। फि र आपमें अपनत्व माननेके अर्थ स्वरूपका विचार
करता रहे; क्योंकि इस अभ्याससे आत्मानुभवकी प्राप्ति होती है।
दर्शनमोह मन्द होता जाये तब कदाचित् सच्चे सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती है। परन्तु ऐसा नियम
तो है नहीं; किसी जीवके कोई प्रबल विपरीत कारण बीचमें हो जाये तो सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति
नहीं होती; परन्तु मुख्यरूपसे बहुत जीवोंके तो इस अनुक्रमसे कार्यसिद्धि होती है; इसलिये इनको
इसप्रकार अंगीकार करना। जैसे
सम्यक्त्वका अर्थी इन कारणोंको मिलाये, पश्चात् बहुत जीवोंके तो सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती ही
है; किसीको न हो तो नहीं भी हो। परन्तु इसे तो अपनेसे बने वह उपाय करना।
यहाँ प्रश्न है कि सम्यक्त्वके लक्षण तो अनेक प्रकार कहे, उनमें तुमने तत्त्वार्थ-श्रद्धान
होता, इसलिये लक्षणको मुख्य किया है। वही बतलाते हैंः
स्वरूप भासित न हो, तब मोक्षमार्ग प्रयोजनकी सिद्धि न हो; व जीवादिकका श्रद्धान हुए
बिना इसी श्रद्धानमें सन्तुष्ट होकर अपनेको सम्यक्त्वी माने; एक कुदेवादिकसे द्वेष तो रखे,
अन्य रागादि छोड़नेका उद्यम न करे;
प्रयोजनकी सिद्धि न हो; व आस्रवादिकका श्रद्धान हुए बिना इतना ही जाननेमें सन्तुष्ट होकर
अपनेको सम्यक्त्वी माने, स्वच्छन्द होकर रागादि छोड़नेका उद्यम न करे;
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न हो, तब मोक्षमार्ग प्रयोजनकी सिद्धि न हो; व जीवादिकके विशेष व आस्रवादिकके स्वरूपका
श्रद्धान हुए बिना इतने ही विचारसे अपनेको सम्यक्त्वी माने, स्वच्छन्द होकर रागादि छोड़नेका
उद्यम न करे।
तथा तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणमें जीव-अजीवादिकका व आस्रवादिकका श्रद्धान होता है,
तथा यह श्रद्धान होने पर सम्यक्त्व होता है, परन्तु यह सन्तुष्ट नहीं होता। आस्रवादिकका
श्रद्धान होनेसे रागादि छोड़कर मोक्षका उद्यम रखता है। इसके भ्रम उत्पन्न नहीं होता। इसलिये
तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणको मुख्य किया है।
तत्त्वार्थश्रद्धानका गर्भितपना विशेष बुद्धिमान हों उन्हींको भासित होता है, तुच्छबुद्धियोंको नहीं
भासित होता; इसलिये तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणको मुख्य किया है।
विपरीताभिनिवेशके भी कारण हो जायें।
निश्चय है। तथा विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धानको कारणभूत श्रद्धान सो व्यवहारसम्यक्त्व है,
क्योंकि कारणमें कार्यका उपचार किया है, सो उपचारका ही नाम व्यवहार है।
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निश्चयसम्यक्त्व है और देव-गुरु-धर्मादिकका श्रद्धान है, सो व्यवहारसम्यक्त्व है।
तथा मिथ्यादृष्टि जीवके देव-गुरु-धर्मादिकका श्रद्धान आभासमात्र होता है और इसके
व्यवहारसम्यक्त्व भी आभासमात्र है; क्योंकि इसके देव-गुरु-धर्मादिकका श्रद्धान है सो
विपरीताभिनिवेशके अभावको साक्षात् कारण नहीं हुआ। कारण हुए बिना उपचार सम्भव
नहीं है; इसलिये साक्षात् कारण-अपेक्षा व्यवहारसम्यक्त्व भी इसके सम्भव नहीं है।
कारण है। तथा कारणमें कार्यका उपचार सम्भव है; इसलिये मुख्यरूप परम्परा कारण-अपेक्षा
मिथ्यादृष्टिके भी व्यवहारसम्यक्त्व कहा जाता है।
कहा है सो किस प्रकार है?
उनके विचारकी मुख्यता है; जो ज्ञानमें जीवादिक तत्त्वोंका विचार करे, उसे तत्त्वश्रद्धानी कहते
हैं। इस प्रकार मुख्यता पायी जाती है। सो यह दोनों किसी जीवको सम्यक्त्वके कारण तो होते
हैं, परन्तु इनका सद्भाव मिथ्यादृष्टिके भी सम्भव है; इसलिये इनको व्यवहारसम्यक्त्व कहा है।
विपरीताभिनिवेश नहीं होता; इसलिये भेदविज्ञानीको व आत्मज्ञानीको सम्यग्दृष्टि कहते हैं।
इसप्रकार मुख्यतासे आपापरका श्रद्धान व आत्मश्रद्धान सम्यग्दृष्टिके ही पाया जाता है; इसलिये
इनको निश्चयसम्यक्त्व कहा।
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कहा। अन्य सर्व सम्यक्त्वको निमित्तमात्र हैं व भेद-कल्पना करने पर आत्मा और सम्यक्त्वके
भिन्नता कही जाती है; इसलिये अन्य सर्व व्यवहार कहे हैं
तथा अन्य निमित्तादि अपेक्षा आज्ञासम्यक्त्वादि सम्यक्त्वके दस भेद किये हैं।
वह आत्मानुशासनमें कहा हैः
जिनाज्ञा माननेसे पश्चात् जो तत्त्वश्रद्धान हुआ सो आज्ञासम्यक्त्व है। इसी प्रकार निर्ग्रन्थमार्गके
अवलोकनमें तत्त्वश्रद्धान हो सो मार्गसम्यक्त्व है
प्रतिपादन करनेवाला जो आचारसूत्र, उसे सुनकर जो श्रद्धान करना हो उसे भले प्रकार सूत्रदृष्टि कही है, यह
सूत्रसम्यक्त्व है। तथा बीज जो गणितज्ञानके कारण उनके द्वारा दर्शनमोहके अनुपम उपशमके बलसे, दुष्कर
है जाननेकी गति जिसकी ऐसा पदार्थोंका समूह, उसकी हुई है उपलब्धि अर्थात् श्रद्धानरूप परिणति जिसके,
ऐसा जो करणानुयोगका ज्ञानी भव्य, उसके बीजदृष्टि होती है, यह बीजसम्यक्त्व जानना। तथा पदार्थोंको
संक्षेपपनेसे जानकर जो श्रद्धान हुआ सो भली संक्षेपदृष्टि है, यह संक्षेपसम्यक्त्व जानना। द्वादशांगवाणीको
सुनकर की गई जो रुचि
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कहते हैं।
वहाँ सर्वत्र सम्यक्त्वका स्वरूप तत्त्वार्थश्रद्धान ही जानना।
तथा सम्यक्त्वके तीन भेद किये हैंः
उत्पन्न हो, उसे प्रथमोपशमसम्यक्त्व कहते हैं।
उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हो, वहाँ उस सम्यक्त्वके कालमें मिथ्यात्वके परमाणुओंको मिश्रमोहनीयरूप
व सम्यक्त्वमोहनीयरूप परिणमित करता है तब तीन प्रकृतियोंकी सत्ता होती है; इसलिये अनादि
मिथ्यादृष्टिके एक मिथ्यात्वप्रकृतिकी सत्ता है, उसीका उपशम होता है। तथा सादि मिथ्यादृष्टिके
किसीके तीन प्रकृतियों की सत्ता है, किसीके एककी ही सत्ता है। जिसके सम्यक्त्वकालमें
तीनकी सत्ता हुई थी वह सत्ता पायी जाये, उसके तीनकी सत्ता है और जिसके मिश्रमोहनीय,
सम्यक्त्वमोहनीयकी उद्वेलना हो गई हो, उनके परमाणु मिथ्यात्वरूप परिणमित हो गये हों,
उसके एक मिथ्यात्वकी सत्ता है; इसलिये सादि मिथ्यादृष्टिके तीन प्रकृतियोंका व एक प्रकृतिका
उपशम होता है।
आने योग्य निषेकरूप किये। तथा अनिवृत्तिकरणमें ही किये उपशम विधानसे जो उस कालके
पश्चात् उदय आने योग्य निषेक थे, वे उदीरणारूप होकर इस कालमें उदय न आ सकें
ऐसे किये।
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उपशम होता है, क्योंकि इसके तीनकी ही सत्ता पायी जाती है। यहाँ भी अन्तरकरण विधानसे
व उपशम विधानसे उनके उदयका अभाव करता है, वही उपशम है। सो यह
द्वितीयोपशमसम्यक्त्व सप्तमादि ग्यारहवें गुणस्थान पर्यन्त होता है। गिरते हुए किसीके छट्ठे,
पाँचवें और चौथे भी रहता है
रहता है। पश्चात् दर्शनमोहका उदय आता है
तथा जहाँ दर्शनमोहकी तीन प्रकृतियोंमें सम्यक्त्वमोहनीयका उदय हो, अन्य दोका उदय
होता है व सादिमिथ्यादृष्टिके मिथ्यात्वगुणस्थानसे व मिश्रगुणस्थानसे भी इसकी प्राप्ति होती है।
सम्यक्त्वमोहनीय प्रकृति देशघाती है; इसका उदय होने पर भी सम्यक्त्वका घात नहीं होता।
किंचित् मलिनता करे, मूलघात न कर सके, उसीका नाम देशघाती है।
निषेकोंकी सत्ता पायी जाये वही उपशम है और सम्यक्त्वमोहनीयका उदय पाया जाता है, ऐसी
दशा जहाँ हो सो क्षयोपशम है; इसलिये समलतत्त्वार्थश्रद्धान हो वह क्षयोपशमसम्यक्त्व है।
अरहन्तदेवादिमें
उदाहरण व्यवहारमात्र बतलाये, परन्तु नियमरूप नहीं हैं। क्षयोपशमसम्यक्त्वमें जो नियमरूप
कोई मल लगता है सो केवली जानते हैं। इतना जानना कि इसके तत्त्वार्थश्रद्धानमें किसी
प्रकारसे समलपना होता है, इसलिये यह सम्यक्त्व निर्मल नहीं है। इस क्षयोपशमसम्यक्त्वका
एक ही प्रकार है, इसमें कुछ भेद नहीं है।
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मिश्रमोहनीयका भी क्षय करता है वहाँ सम्यक्त्वमोहनीयकी ही सत्ता रहती है। पश्चात्
सम्यक्त्वमोहनीयकी काण्डकघातादि क्रिया नहीं करता, वहाँ कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि नाम पाता
है
वहाँ वेदक नाम पाता है। सो कथनमात्र दो नाम हैं, स्वरूपमें भेद नहीं है। तथा यह
क्षयोपशमसम्यक्त्व चतुर्थादि सप्तमगुणस्थान पर्यन्त पाया जाता है।
तथा तीनों प्रकृतियोंके सर्वथा सर्व निषेकोंका नाश होने पर अत्यन्त निर्मल
सम्यग्दृष्टिको इसकी प्राप्ति होती है।
करे;
रहे तब कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि हो। तथा अनुक्रमसे इन निषेकोंका नाश करके क्षायिकसम्यग्दृष्टि
होता है।
ऐसे तीन भेद सम्यक्त्वके हैं।
तथा अनन्तानुबन्धी कषायकी सम्यक्त्व होने पर दो अवस्थाएँ होती हैं। या तो
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जीवके अप्रशस्त उपशम होता है व किसीके विसंयोजन होता है। तथा क्षायिकसम्यक्त्व है
सो पहले अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन होने पर ही होता है।
उसकी सत्ताका सद्भाव होता है और क्षायिकसम्यग्दृष्टि मिथ्यात्वमें आता नहीं है, इसलिये उसके
अनन्तानुबन्धीकी सत्ता कदाचित् नहीं होती।
सो परमार्थसे है तो ऐसा ही, परन्तु अनन्तानुबन्धीके उदयसे जैसे क्रोधादिक होते हैं वैसे
क्रोधादिक सम्यक्त्व होने पर नहीं होते
उदय नहीं होता, इसलिये उपचारसे एकेन्द्रियप्रकृतिको भी त्रसपनेका घातकपना कहा जाये
तो दोष नहीं है। उसी प्रकार सम्यक्त्वका घातक तो दर्शनमोह है, परन्तु सम्यक्त्व होने पर
अनन्तानुबन्धी कषायोंका भी उदय नहीं होता, इसलिये उपचारसे अनन्तानुबंधीके भी सम्यक्त्वका
घातकपना कहा जाये तो दोष नहीं है।
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युगपत् होता है। वहाँ चारोंके उत्कृष्ट स्पर्द्धक समान कहे हैं।
उदय हो, वैसा उसके जाने पर नहीं होता। तथा जैसा प्रत्याख्यानके संज्वलनका उदय हो,
वैसा केवल संज्वलनका उदय नहीं होता। इसलिये अनन्तानुबन्धीके जाने पर कुछ कषायोंकी
मन्दता तो होती है, परन्तु ऐसी मन्दता नहीं होती जिसमें कोई चारित्र नाम प्राप्त करे। क्योंकि
कषायोंके असंख्यात लोकप्रमाण स्थान हैं; उनमें सर्वत्र पूर्वस्थानसे उत्तरस्थानमें मन्दता पायी
जाती है; परन्तु व्यवहारसे उन स्थानोंमें तीन मर्यादाएँ कीं। आदिके बहुत स्थान तो असंयमरूप
कहे, फि र कितने ही देशसंयमरूप कहे, फि र कितने ही सकलसंयमरूप कहे। उनमें प्रथम
गुणस्थानसे लेकर चतुर्थ गुणस्थान पर्यन्त जो कषायके स्थान होते हैं वे सर्व असंयमके ही
होते हैं। इसलिये कषायोंकी मन्दता होने पर भी चारित्र नाम नहीं पाते हैं।
है। सो असंयतमें ऐसे कषाय घटती नहीं हैं, इसलिये यहाँ असंयम कहा है। कषायोंका
अधिक
असंयमकी समानता नहीं जानना।
वह तो रोग अवस्थामें नहीं हुई। यहाँ मनुष्यका ही आयु है। उसी प्रकार सम्यक्त्वीके
सम्यक्त्वके नाशका कारण अनन्तानुबन्धीका उदय प्रगट हुआ, उसे सम्यक्त्वका विरोधक सासादन
कहा। तथा सम्यक्त्वका अभाव होने पर मिथ्यात्व होता है, वह तो सासादनमें नहीं हुआ।
यहाँ उपशमसम्यक्त्वका ही काल है
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सम्यक्त्वमार्गणासे जीवका विचार करने पर छह भेद कहे हैं।
तथा मिथ्यात्वसम्यक्त्व कहना ही अशुद्ध है। जैसे संयममार्गणामें असंयम कहा, भव्यमार्गणामें
अभव्य कहा, उसी प्रकार सम्यक्त्वमार्गणामें मिथ्यात्व कहा है। मिथ्यात्वको सम्यक्त्वका भेद
नहीं जानना। सम्यक्त्व-अपेक्षा विचार करने पर कितने ही जीवोंके सम्यक्त्वका अभाव भासित
हो, वहाँ मिथ्यात्व पाया जाता है
हैं, ऐसा जानना।
होते हैं, तब इसके तत्त्वश्रद्धानकी प्राप्ति होती है
इसप्रकार सम्यग्दर्शनका स्वरूप कहा।
अभाव सो निर्विचिकित्सत्व है। तथा तत्त्वोंमें व देवादिकमें अन्यथा प्रतीतिरूप मोहका अभाव
सो अमूढ़दृष्टित्व है। तथा आत्मधर्मका व जिनधर्मका बढ़ाना उसका नाम उपबृंहण है, इसी
अंगका नाम उपगूहन भी कहा जाता है; वहाँ धर्मात्मा जीवोंके दोष ढँकना
है। तथा अपने स्वरूपकी व जिनधर्मकी महिमा प्रगट करना सो प्रभावना है। तथा स्वरूपमें
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यहाँ प्रश्न है कि कितने ही सम्यक्त्वी जीवोंके भी भय, इच्छा, ग्लानि आदि पाये
कैसे कहते हो?
परन्तु उन अंगों बिना वह शोभायमान सकल कार्यकारी नहीं होता। उसी प्रकार सम्यक्त्वके
निःशंकितादि अंग कहे जाते हैं; वहाँ कोई सम्यक्त्वी ऐसा भी हो जिसके निःशंकितत्वादिमें
कोई अंग न हो; वहाँ उसके सम्यक्त्व तो कहा जाता है, परन्तु इन अंगोंके बिना वह निर्मल
सकल कार्यकारी नहीं होता। तथा जिसप्रकार बन्दरके भी हस्त-पादादि अंग होते हैं, परन्तु
जैसे मनुष्यके होते हैं वैसे नहीं होते; उसीप्रकार मिथ्यादृष्टियोंके भी व्यवहाररूप निःशंकितादिक
अंग होते हैं, परन्तु जैसे निश्चयकी सापेक्षता-सहित सम्यक्त्वीके होते हैं वैसे नहीं होते।
सर्वथा नाश नहीं होता, वहाँ सम्यक्त्व मलिन ही होता है
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अंक २५३-५४में दिया था। उसीमेंसे शुरूका अंश यहाँ दिया जाता है।]
संक्षिप्तरूपसे समाधिमरणका यही वर्णन है। विशेषरूपसे कथन आगे किया जा रहा है।
होता है, जिसप्रकार वह सोया हुआ सिंह सावधान होता है
निकलो। जब तक बैरियोंका समूह दूर है तब तक तुम तैयार हो जाओ और बैरियोंकी फौजको
जीत लो। महान् पुरुषोंकी यही रीति है कि वे शत्रुके जागृत होनेसे पहले तैयार होते हैं।’’
गुणोंसे युक्त चैतन्यदेव ही जानता है। उसके अतिशयसे ही वह परद्रव्यके प्रति रंचमात्र भी रागी
नहीं होता।
इसलिये सम्यग्ज्ञानी कैसे डरे?.........
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टोडरमलके श्री प्रमुख विनय शब्द अवधारण करना।
निश्चितं स भवेद्भव्यो भाविनिर्वाणभाजनम्।।
यथार्थ श्रद्धानरूप तत्त्वार्थश्रद्धान हो तब जीव सम्यक्त्वी होता है; इसलिये स्व-परके श्रद्धानमें
शुद्धात्मश्रद्धानरूप निश्चयसम्यक्त्व गर्भित है।
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तो इसप्रकार केवल व्यवहारसम्यक्त्वसे सम्यक्त्वी नाम नहीं पाता; इसलिये स्व-पर भेदविज्ञानसहित
जो तत्त्वार्थश्रद्धान हो उसीको सम्यक्त्व जानना।
क्योंकि जाननेमें विपरीतरूप पदार्थोंको नहीं साधता। सो यह सम्यग्ज्ञान केवलज्ञानका अंश
है; जैसे थोड़ा-सा मेघपटल विलय होने पर कुछ प्रकाश प्रगट होता है, वह सर्व प्रकाशका
अंश है।
सविकल्परूप जानना।
विचार नहीं करता; परन्तु अंतरंग श्रद्धान ऐसा है कि यह मेरा कार्य नहीं है। ऐसा कार्य
करता गुमाश्ता साहूकार है। यदि सेठके धनको चुराकर अपना माने तो गुमाश्ता चोर हुआ।
उसी प्रकार कर्मोदयजनित शुभाशुभरूप कार्यको करता हुआ तद्रूप परिणमित हो; तथापि
अंतरंगमें ऐसा श्रद्धान है कि यह कार्य मेरा नहीं है। यदि शरीराश्रित व्रत