Moksha-Marg Prakashak (Hindi). Parishisht 1 - Samadhi MaraN Swaroop; Parishisht 2 - Rahasyapurna Chithi.

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नौवाँ अधिकार ][ ३२३
नहीं होगा? होता ही है। इस प्रकार भी मिथ्यादृष्टिके सच्चा तत्त्वश्रद्धान सर्वथा नहीं पाया
जाता, इसलिये उस लक्षणमें अतिव्याप्ति दूषण नहीं लगता।
तथा जो यह तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षण कहा, सो असम्भवी भी नहीं है; क्योंकि सम्यक्त्वके
प्रतिपक्षी मिथ्यात्वका यह नहीं है; उसका लक्षण इससे विपरीततासहित है।
इसप्रकार अव्याप्ति, अतिव्याप्ति, असम्भवपनेसे रहित सर्व सम्यग्दृष्टियोंमें तो पाया जाये
और किसी मिथ्यादृष्टिमें न पाया जायेऐसा सम्यग्दर्शनका सच्चा लक्षण तत्त्वार्थश्रद्धान है।
सम्यक्त्वके विभिन्न लक्षणोंका समन्वय
फि र प्रश्न होता है कि यहाँ सातों तत्त्वोंके श्रद्धानका नियम कहते हो सो नहीं बनता।
क्योंकि कहीं परसे भिन्न अपने श्रद्धानको ही सम्यक्त्व कहते हैं। समयसारमें ‘एकत्वे नियतस्य’
इत्यादि कलश हैउसमें ऐसा कहा है कि इस आत्माका परद्रव्यसे भिन्न अवलोकन वही नियमसे
सम्यग्दर्शन है; इसलिये नवतत्त्वकी संततिको छोड़कर हमारे यह एक आत्मा ही होओ।
तथा कहीं एक आत्माके निश्चयको ही सम्यक्त्व कहते हैं। पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में
‘दर्शनमात्मविनिश्चितिः’ ऐसा पद है, सो उसका यही अर्थ है। इसलिये जीव-अजीवका ही
व केवल जीवका ही श्रद्धान होने पर सम्यक्त्व होता है, सातोंके श्रद्धानका नियम होता तो
ऐसा किसलिये लिखते?
समाधानःपरसे भिन्न अपना श्रद्धान होता है, सो आस्रवादिकके श्रद्धानसे रहित होता
है या सहित होता है? यदि रहित होता है, तो मोक्षके श्रद्धान बिना किस प्रयोजनके अर्थ
ऐसा उपाय करता है? संवर-निर्जराके श्रद्धान बिना रागादिक रहित होकर स्वरूपमें उपयोग
लगानेका किसलिये उद्यम रखता है? आस्रव-बन्धके श्रद्धान बिना पूर्व-अवस्थाको किसलिये
छोड़ता है? इसलिये आस्रवादिकके श्रद्धानरहित आपापरका श्रद्धान करना सम्भवित नहीं है।
तथा यदि आस्रवादिकके श्रद्धान सहित होता है, तो स्वयमेव ही सातों तत्त्वोंके श्रद्धानका
नियम हुआ। तथा केवल आत्माका निश्चय है, सो परका पररूप श्रद्धान हुए बिना आत्माका
श्रद्धान नहीं होता, इसलिये अजीवका श्रद्धान होने पर ही जीवका श्रद्धान होता है। तथा
१. एकत्वे नियतस्यशुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः, पूर्णज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक्।
सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयम्, तन्मुक्त्वा नवतत्त्वसन्ततिमिमामात्मायमेकोऽस्तुनः।।६।।
(समयसार कलश)
२. दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः। स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति बन्धः।।२१६।।

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३२४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
उसके पूर्ववत् आस्रवादिकका भी श्रद्धान होता ही होता है, इसलिये यहाँ भी सातों तत्त्वोंके
ही श्रद्धानका नियम जानना।
तथा आस्रवादिकके श्रद्धान बिना आपापरका श्रद्धान व केवल आत्माका श्रद्धान सच्चा
नहीं होता; क्योंकि आत्मा द्रव्य है, सो तो शुद्ध-अशुद्ध पर्यायसहित है। जैसेतन्तु अवलोकन
बिना पटका अवलोकन नहीं होता, उसी प्रकार शुद्ध-अशुद्ध पर्याय पहिचाने बिना आत्मद्रव्यका
श्रद्धान नहीं होता; उस शुद्ध-अशुद्ध अवस्थाकी पहिचान आस्रवादिककी पहिचानसे होती है।
तथा आस्रवादिकके श्रद्धान बिना आपापरका श्रद्धान व केवल आत्माका श्रद्धान कार्यकारी भी
नहीं है; क्योंकि श्रद्धान करो या न करो, आप है सो आप है ही, पर है सो पर है। तथा
आस्रवादिकका श्रद्धान हो तो आस्रव-बन्धका अभाव करके संवर
निर्जरारूप उपायसे मोक्षपदको
प्राप्त करे। तथा जो आपापरका भी श्रद्धान कराते हैं, सो उसी प्रयोजनके अर्थ कराते हैं;
इसलिये आस्रवादिकके श्रद्धानसहित आपापरका जानना व आपका जानना कार्यकारी है।
यहाँ प्रश्न है कि ऐसा है तो शास्त्रोंमें आपापरके श्रद्धानको व केवल आत्माके श्रद्धानको
ही सम्यक्त्व कहा व कार्यकारी कहा; तथा नवतत्त्वकी संतति छोड़कर हमारे एक आत्माही
होओ
ऐसा कहा, सो किस प्रकार कहा?
समाधानःजिसके सच्चा आपापरका श्रद्धान व आत्माका श्रद्धान हो, उसके सातों
तत्त्वोंका श्रद्धान होता ही होता है। तथा जिसके सच्चा सात तत्त्वोंका श्रद्धान हो उसके
आपापरका व आत्माका श्रद्धान होता ही होता है
ऐसा परस्पर अविनाभावीपना जानकर
आपापरके श्रद्धानको या आत्मश्रद्धानको ही सम्यक्त्व कहा है।
तथा इस छलसे कोई सामान्यरूपसे आपापरको जानकर व आत्माको जानकर
कृतकृत्यपना माने, तो उसके भ्रम है; क्योंकि ऐसा कहा है :
‘‘निर्विशेषं हि सामान्यं भवेत्खरविषाणवत्’’
इसका अर्थ यह हैःविशेषरहित सामान्य है सो गधेके सींग समान है।
इसलिये प्रयोजनभूत आस्रवादिक विशेषों सहित आपापरका व आत्माका श्रद्धान करना
योग्य है। अथवा सातों तत्त्वार्थोंके श्रद्धानसे रागादिक मिटानेके अर्थ परद्रव्योंको भिन्न भाता
है व अपने आत्माको ही भाता है, उसके प्रयोजनकी सिद्धि होती है; इसलिये मुख्यतासे
भेदविज्ञानको व आत्मज्ञानको कार्यकारी कहा है।
१. आलापपद्धति, श्लोक ९

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नौवाँ अधिकार ][ ३२५
तथा तत्त्वार्थ-श्रद्धान किये बिना सर्व जानना कार्यकारी नहीं है, क्योंकि प्रयोजन तो
रागादिक मिटानेका है; सो आस्रवादिकके श्रद्धान बिना यह प्रयोजन भासित नहीं होता; तब
केवल जाननेसे ही मानको बढ़ाता है; रागादिक नहीं छोड़ता, तब उसका कार्य कैसे सिद्ध
होगा? तथा नवतत्त्व संततिका छोड़ना कहा है; सो पूर्वमें नवतत्त्वके विचारसे सम्यग्दर्शन हुआ,
पश्चात् निर्विकल्प दशा होनेके अर्थ नवतत्त्वोंके भी विकल्प छोड़नेकी चाह की। तथा जिसके
पहले ही नवतत्त्वोंका विचार नहीं है, उसको वह विकल्प छोड़नेका क्या प्रयोजन है? अन्य
अनेक विकल्प आपके पाये जाते हैं उन्हींका त्याग करो।
इस प्रकार आपापरके श्रद्धानमें व आत्मश्रद्धानमें साततत्त्वोंके श्रद्धानकी सापेक्षता पायी
जाती है, इसलिये तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यक्त्वका लक्षण है।
फि र प्रश्न है कि कहीं शास्त्रोंमें अरहन्त देव, निर्ग्रन्थ गुरु, हिंसारहित धर्मके श्रद्धानको
सम्यक्त्व कहा है, सो किस प्रकार है?
समाधानःअरहन्त देवादिकके श्रद्धानसे कुदेवादिकका श्रद्धान दूर होनेके कारण
गृहीतमिथ्यात्वका अभाव होता है, उस अपेक्षा इसको सम्यक्त्व कहा है। सर्वथा सम्यक्त्वका
लक्षण यह नहीं है; क्योंकि द्रव्यलिंगी मुनि आदि व्यवहारधर्मके धारक मिथ्यादृष्टियोंके भी ऐसा
श्रद्धान होता है।
अथवा जैसे अणुव्रत, महाव्रत होने पर तो देशचारित्र, सकलचारित्र हो या न हो;
परन्तु अणुव्रत, महाव्रत हुए बिना देशचारित्र, सकलचारित्र कदाचित् नहीं होता; इसलिये इन
व्रतोंको अन्वयरूप कारण जानकर कारणमें कार्यका उपचार करके इनको चारित्र कहा है।
उसी प्रकार अरहन्त देवादिकका श्रद्धान होने पर तो सम्यक्त्व हो या न हो; परन्तु
अरहन्तादिकका श्रद्धान हुए बिना तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यक्त्व कदाचित् नहीं होता; इसलिये
अरहन्तादिकके श्रद्धानको अन्वयरूप कारण जानकर कारणमें कार्यका उपचार करके इस
श्रद्धानको सम्यक्त्व कहा है। इसीसे इसका नाम व्यवहार-सम्यक्त्व है।
अथवा जिसके तत्त्वार्थश्रद्धान हो, उसके सच्चे अरहन्तादिकके स्वरूपका श्रद्धान होता
ही होता है। तत्त्वार्थश्रद्धान बिना पक्षसे अरहन्तादिकका श्रद्धान करे, परन्तु यथावत् स्वरूपकी
पहिचान सहित श्रद्धान नहीं होता। तथा जिसके सच्चे अरहन्तादिकके स्वरूपका श्रद्धान हो,
उसके तत्त्वश्रद्धान होता ही होता है; क्योंकि अरहन्तादिकका स्वरूप पहिचाननेसे जीव-अजीव-
आस्रवादिककी पहिचान होती है।
इसप्रकार इनको परस्पर अविनाभावी जानकर कहीं अरहन्तादिकके श्रद्धानको सम्यक्त्व
कहा है।

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३२६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
यहाँ प्रश्न है कि नारकादि जीवोंके देव-कुदेवादिकका व्यवहार नहीं है और उनके
सम्यक्त्व पाया जाता है; इसलिये सम्यक्त्व होने पर अरहन्तादिकका श्रद्धान होता ही होता
है, ऐसा नियम सम्भव नहीं है?
समाधानःसप्ततत्त्वोंके श्रद्धानमें अरहन्तादिकका श्रद्धान गर्भित है; क्योंकि तत्त्वश्रद्धानमें
मोक्षतत्त्वको सर्वोत्कृष्ट मानते हैं, वह मोक्षतत्त्व तो अरहन्त-सिद्धका लक्षण है। जो लक्षणको
उत्कृष्ट माने वह उसके लक्ष्यको उत्कृष्ट माने ही माने; इसलिये उनको भी सर्वोत्कृष्ट माना
औरको नहीं माना; वही देवका श्रद्धान हुआ। तथा मोक्षके कारण संवर-निर्जरा हैं, इसलिये
इनको भी उत्कृष्ट मानता है; और संवर-निर्जराके धारक मुख्यतः मुनि हैं, इसलिये मुनिको
उत्तम माना औरको नहीं माना; वही गुरुका श्रद्धान हुआ। तथा रागादिक रहित भावका
नाम अहिंसा है, उसीको उपादेय मानते हैं औरको नहीं मानते; वही धर्मका श्रद्धान हुआ।
इस प्रकार तत्त्वश्रद्धानमें गर्भित अरहन्तदेवादिकका श्रद्धान होता है। अथवा जिस निमित्तसे
इसके तत्त्वार्थश्रद्धान होता है, उस निमित्तसे अरहन्तदेवादिकका भी श्रद्धान होता है। इसलिये
सम्यक्त्वमें देवादिकके श्रद्धानका नियम है।
फि र प्रश्न है कि कितने ही जीव अरहन्तादिकका श्रद्धान करते हैं, उनके गुण
पहिचानते हैं और उनके तत्त्वश्रद्धानरूप सम्यक्त्व नहीं होता; इसलिये जिसके सच्चा
अरहन्तादिकका श्रद्धान हो, उसके तत्त्वश्रद्धान होता है
ऐसा नियम सम्भव नहीं है?
समाधानःतत्त्वश्रद्धान बिना अरहन्तादिकके छियालिस आदि गुण जानता है वह
पर्यायाश्रित गुण जानता है; परन्तु भिन्न-भिन्न जीव-पुद्गलमें जिसप्रकार सम्भव हैं, उस प्रकार
यथार्थ नहीं पहिचानता, इसलिये सच्चा श्रद्धान भी नहीं होता; क्योंकि जीव-अजीव जाति
पहिचाने बिना अरहन्तादिकके आत्माश्रित गुणोंको व शरीराश्रित गुणोंको भिन्न-भिन्न नहीं
जानता। यदि जाने तो अपने आत्माको परद्रव्यसे भिन्न कैसे न माने? इसलिये प्रवचनसारमें
ऐसा कहा है :
जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं
सो जाणादि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं।।८०।।
इसका अर्थ यह हैःजो अरहन्तको द्रव्यत्व, गुणत्व, पर्यायत्वसे जानता है वह आत्माको
जानता है; उसका मोह विलयको प्राप्त होता है।
इसलिये जिसके जीवादिक तत्त्वोंका श्रद्धान नहीं है, उसके अरहन्तादिकका भी सच्चा
श्रद्धान नहीं है। मोक्षादिक तत्त्वके श्रद्धान बिना अरहन्तादिकका माहात्म्य यथार्थ नहीं जानता।
लौकिक अतिशयादिसे अरहन्तका, तपश्चरणादिसे गुरुका और परजीवोंकी अहिंसादिसे धर्मकी

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नौवाँ अधिकार ][ ३२७
महिमा जानता है, सो यह पराश्रितभाव है। तथा आत्माश्रित भावोंसे अरहन्तादिकका स्वरूप
तत्त्वश्रद्धान होने पर ही जाना जाता है; इसलिये जिसके सच्चा अरहन्तादिकका श्रद्धान हो
उसके तत्त्वश्रद्धान होता ही होता है
ऐसा नियम जानना।
इस प्रकार सम्यक्त्वका लक्षणनिर्देश किया।
यहाँ प्रश्न है कि सच्चा तत्त्वार्थश्रद्धान व आपापरका श्रद्धान व आत्मश्रद्धान व देव-
गुरु-धर्मका श्रद्धान सम्यक्त्वका लक्षण कहा। तथा इन सर्व लक्षणोंकी परस्पर एकता भी दिखाई
सो जानी; परन्तु अन्य-अन्य प्रकार लक्षण कहनेका प्रयोजन क्या?
उत्तरःयह चार लक्षण कहे, उनमें सच्ची दृष्टिसे एक लक्षण ग्रहण करने पर चारों लक्षणोंका
ग्रहण होता है। तथापि मुख्य प्रयोजन भिन्न-भिन्न विचारकर अन्य-अन्य प्रकार लक्षण कहे हैं।
जहाँ तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षण कहा है, वहाँ तो यह प्रयोजन है कि इन तत्त्वोंको पहिचाने
तो यथार्थ वस्तुके स्वरूपका व अपने हित-अहितका श्रद्धान करे तब मोक्षमार्गमें प्रवर्ते।
तथा जहाँ आपापरका भिन्न श्रद्धान कहा है, वहाँ तत्त्वार्थश्रद्धानका प्रयोजन जिससे सिद्ध
हो, उस श्रद्धानको मुख्य लक्षण कहा है। जीव-अजीव श्रद्धानका प्रयोजन आपापरका भिन्न
श्रद्धान करना है। तथा आस्रवादिकके श्रद्धानका प्रयोजन रागादिक छोड़ना है, सो आपापरका
भिन्न श्रद्धान होने पर परद्रव्यमें रागादि न करनेका श्रद्धान होता है। इसप्रकार तत्त्वार्थश्रद्धानका
प्रयोजन आपापरके भिन्न श्रद्धानसे सिद्ध होता जानकर इस लक्षणको कहा है।
तथा जहाँ आत्मश्रद्धान लक्षण कहा है, वहाँ आपापरके भिन्न श्रद्धानका प्रयोजन इतना
ही है किआपको आप जानना। आपको आप जानने पर परका भी विकल्प कार्यकारी
नहीं है। ऐसे मूलभूत प्रयोजनकी प्रधानता जानकर आत्मश्रद्धानको मुख्य लक्षण कहा है।
तथा जहाँ देव-गुरु-धर्मका श्रद्धान कहा है, वहाँ बाह्य साधनकी प्रधानता की है; क्योंकि
अरहन्तदेवादिकका श्रद्धान सच्चे तत्त्वार्थश्रद्धानका कारण है और कुदेवादिकका श्रद्धान कल्पित
तत्त्वश्रद्धानका कारण है। सो बाह्य कारणकी प्रधानतासे कुदेवादिकका श्रद्धान छुड़ाकर
सुदेवादिकका श्रद्धान करानेके अर्थ देव-गुरु-धर्मके श्रद्धानको मुख्य लक्षण कहा है।
इस प्रकार भिन्न-भिन्न प्रयोजनोंकी मुख्यतासे भिन्न-भिन्न लक्षण कहे हैं।
यहाँ प्रश्न है कि यह चार लक्षण कहे, उनमें यह जीव किस लक्षणको अंगीकार करे?
समाधानः
मिथ्यात्वकर्मके उपशमादि होने पर विपरीताभिनिवेशका अभाव होता है; वहाँ
चारों लक्षण युगपत् पाये जाते हैं। तथा विचार-अपेक्षा मुख्यरूपसे तत्त्वार्थोंका विचार करता

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३२८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
है, या आपापरका भेदविज्ञान करता है, या आत्मस्वरूपका ही स्मरण करता है, या देवादिकका
स्वरूप विचारता है। इस प्रकार ज्ञानमें तो नानाप्रकार विचार होते हैं, परन्तु श्रद्धानमें सर्वत्र
परस्पर सापेक्षपना पाया जाता है। तत्त्वविचार करता है तो भेदविज्ञानके अभिप्राय सहित
करता है और भेदविज्ञान करता है तो तत्त्वविचारादिके अभिप्राय सहित करता है। इसी
प्रकार अन्यत्र भी परस्पर सापेक्षपना है; इसलिये सम्यग्दृष्टिके श्रद्धानमें चारों ही लक्षणोंका
अंगीकार है।
तथा जिसके मिथ्यात्वका उदय है, उसके विपरीताभिनिवेश पाया जाता है; उसके यह
लक्षण आभासमात्र होते हैं, सच्चे नहीं होते। जिनमतके जीवादिक तत्त्वोंको मानता है, अन्यको
नहीं मानता, उनके नाम-भेदादिकको सीखता है
ऐसा तत्त्वश्रद्धान होता है; परन्तु उनके यथार्थ-
भावका श्रद्धान नहीं होता। तथा आपापरके भिन्नपनेकी बातें करे, चिंतवन करे; परन्तु जैसे
पर्यायमें अहंबुद्धि है और वस्त्रादिकमें परबुद्धि है, वैसे आत्मामें अहंबुद्धि और शरीरादिमें परबुद्धि
नहीं होती। तथा आत्माका जिनवचनानुसार चिंतवन करे; परन्तु प्रतीतिरूप आपका आपरूप
श्रद्धान नहीं करता है। तथा अरहन्तदेवादिकके सिवा अन्य कुदेवादिकको नहीं मानता; परन्तु
उनके स्वरूपको यथार्थ पहिचानकर श्रद्धान नहीं करता
इसप्रकार यह लक्षणाभास मिथ्यादृष्टिके होते
हैं। इनमें कोई होता है, कोई नहीं होता; वहाँ इनके भिन्नपना भी सम्भवित है।
तथा इन लक्षणाभासोंमें इतना विशेष है कि पहले तो देवादिकका श्रद्धान हो, फि र
तत्त्वोंका विचार हो, फि र आपापरका चिंतवन करे, फि र केवल आत्माका चिंतवन करेइस
अनुक्रमसे साधन करे तो परम्परा सच्चे मोक्षमार्गको पाकर कोई जीव सिद्धपदको भी प्राप्त कर
ले। तथा इस अनुक्रमका उल्लंघन करके
जिसके देवादिककी मान्यताका तो कुछ ठिकाना
नहीं है और बुद्धिकी तीव्रतासे तत्त्वविचारादिमें प्रवर्तता है, इसलिये अपनेको ज्ञानी जानता
है; अथवा तत्त्वविचारमें भी उपयोग नहीं लगाता, आपापरका भेदविज्ञानी हुआ रहता है; अथवा
आपापरका भी ठीक निर्णय नहीं करता और अपनेको आत्मज्ञानी मानता है। सो सब चतुराईकी
बातें हैं, मानादिक कषायके साधन हैं, कुछ भी कार्यकारी नहीं हैं। इसलिये जो जीव अपना
भला करना चाहे, उसे जब तक सच्चे सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति न हो, तब तक इनको भी अनुक्रमसे
ही अंगीकार करना।
वही कहते हैंःपहले तो आज्ञादिसे व किसी परीक्षासे कुदेवादिककी मान्यता छोड़कर
अरहन्तदेवादिकका श्रद्धान करना; क्योंकि यह श्रद्धान होने पर गृहीतमिथ्यात्वका तो अभाव
होता है, तथा मोक्षमार्गके विघ्न करनेवाले कुदेवादिकका निमित्त दूर होता है, मोक्षमार्गका सहायक
अरहन्तदेवादिकका निमित्त मिलता है; इसलिये पहले देवादिकका श्रद्धान करना। फि र जिनमतमें

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नौवाँ अधिकार ][ ३२९
कहे जीवादिक तत्त्वोंका विचार करना, नाम-लक्षणादि सीखना; क्योंकि इस अभ्याससे तत्त्वार्थ-
श्रद्धानकी प्राप्ति होती है। फि र आपापरका भिन्नपना जैसे भासित हो वैसे विचार करता रहे;
क्योंकि इस अभ्याससे भेदविज्ञान होता है। फि र आपमें अपनत्व माननेके अर्थ स्वरूपका विचार
करता रहे; क्योंकि इस अभ्याससे आत्मानुभवकी प्राप्ति होती है।
इसप्रकार अनुक्रमसे इनको अंगीकार करके फि र इन्हींमें कभी देवादिकके विचारमें, कभी
तत्त्वविचारमें, कभी आपापरके विचारमें, कभी आत्मविचारमें उपयोग लगाये। ऐसे अभ्याससे
दर्शनमोह मन्द होता जाये तब कदाचित् सच्चे सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती है। परन्तु ऐसा नियम
तो है नहीं; किसी जीवके कोई प्रबल विपरीत कारण बीचमें हो जाये तो सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति
नहीं होती; परन्तु मुख्यरूपसे बहुत जीवोंके तो इस अनुक्रमसे कार्यसिद्धि होती है; इसलिये इनको
इसप्रकार अंगीकार करना। जैसे
पुत्रका अर्थी विवाहादि कारणोंको मिलाये, पश्चात् बहुत पुरुषोंके
तो पुत्रकी प्राप्ति होती ही है; किसीको न हो तो न हो। इसे तो उपाय करना। उसी प्रकार
सम्यक्त्वका अर्थी इन कारणोंको मिलाये, पश्चात् बहुत जीवोंके तो सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती ही
है; किसीको न हो तो नहीं भी हो। परन्तु इसे तो अपनेसे बने वह उपाय करना।
इस प्रकार सम्यक्त्वका लक्षणनिर्देश किया।
यहाँ प्रश्न है कि सम्यक्त्वके लक्षण तो अनेक प्रकार कहे, उनमें तुमने तत्त्वार्थ-श्रद्धान
लक्षणको मुख्य किया सो कारण क्या?
समाधानःतुच्छबुद्धियोंको अन्य लक्षणमें प्रयोजन भासित नहीं होता व भ्रम उत्पन्न होता
है। और इस तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणमें प्रगट प्रयोजन भासित होता है, कुछ भ्रम उत्पन्न नहीं
होता, इसलिये लक्षणको मुख्य किया है। वही बतलाते हैंः
देव-गुरु-धर्मके श्रद्धानमें तुच्छबुद्धियोंको यह भासित हो कि अरहन्तदेवादिकको मानना
औरको नहीं मानना, इतना ही सम्यक्त्व है। वहाँ जीव-अजीवका व बन्ध-मोक्षके कारण-कार्यका
स्वरूप भासित न हो, तब मोक्षमार्ग प्रयोजनकी सिद्धि न हो; व जीवादिकका श्रद्धान हुए
बिना इसी श्रद्धानमें सन्तुष्ट होकर अपनेको सम्यक्त्वी माने; एक कुदेवादिकसे द्वेष तो रखे,
अन्य रागादि छोड़नेका उद्यम न करे;
ऐसा भ्रम उत्पन्न हो।
तथा आपापरके श्रद्धानमें तुच्छबुद्धियोंको यह भासित हो कि आपापरका ही जानना
कार्यकारी है, इसीसे सम्यक्त्व होता है। वहाँ आस्रवादिकका स्वरूप भासित न हो, तब मोक्षमार्ग
प्रयोजनकी सिद्धि न हो; व आस्रवादिकका श्रद्धान हुए बिना इतना ही जाननेमें सन्तुष्ट होकर
अपनेको सम्यक्त्वी माने, स्वच्छन्द होकर रागादि छोड़नेका उद्यम न करे;
ऐसा भ्रम उत्पन्न हो।

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३३० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा आत्मश्रद्धानमें तुच्छबुद्धियोंको यह भासित हो कि आत्माका ही विचार कार्यकारी
है, इसीसे सम्यक्त्व होता है। वहाँ जीव-अजीवादिकका विशेष व आस्रवादिकका स्वरूप भासित
न हो, तब मोक्षमार्ग प्रयोजनकी सिद्धि न हो; व जीवादिकके विशेष व आस्रवादिकके स्वरूपका
श्रद्धान हुए बिना इतने ही विचारसे अपनेको सम्यक्त्वी माने, स्वच्छन्द होकर रागादि छोड़नेका
उद्यम न करे।
इसके भी ऐसा भ्रम उत्पन्न होता है।
ऐसा जानकर इन लक्षणोंको मुख्य नहीं किया।
तथा तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणमें जीव-अजीवादिकका व आस्रवादिकका श्रद्धान होता है,
वहाँ सर्वका स्वरूप भलीभाँति भासित होता है, तब मोक्षमार्गके प्रयोजनकी सिद्धि होती है।
तथा यह श्रद्धान होने पर सम्यक्त्व होता है, परन्तु यह सन्तुष्ट नहीं होता। आस्रवादिकका
श्रद्धान होनेसे रागादि छोड़कर मोक्षका उद्यम रखता है। इसके भ्रम उत्पन्न नहीं होता। इसलिये
तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणको मुख्य किया है।
अथवा तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणमें तो देवादिकका श्रद्धान व आपापरका श्रद्धान व
आत्मश्रद्धान गर्भित होता है, वह तो तुच्छबुद्धियोंको भी भासित होता है। तथा अन्य लक्षणमें
तत्त्वार्थश्रद्धानका गर्भितपना विशेष बुद्धिमान हों उन्हींको भासित होता है, तुच्छबुद्धियोंको नहीं
भासित होता; इसलिये तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणको मुख्य किया है।
अथवा मिथ्यादृष्टिके आभासमात्र यह हों; वहाँ तत्त्वार्थोंका विचार तो शीघ्रतासे
विपरीताभिनिवेश दूर करनेको कारण होता है, अन्य लक्षण शीघ्र कारण न हों, व
विपरीताभिनिवेशके भी कारण हो जायें।
इसलिये यहाँ सर्वप्रकार प्रसिद्ध जानकर विपरीताभिनिवेश रहित जीवादि तत्त्वार्थोंका
श्रद्धान सो ही सम्यक्त्वका लक्षण है, ऐसा निर्देश किया। ऐसे लक्षणनिर्देशका निरूपण किया।
ऐसा लक्षण जिस आत्माके स्वभावमें पाया जाता है, वही सम्यक्त्वी जानना।
सम्यक्त्वके भेद और उनका स्वरूप
अब, इस सम्यक्त्वके भेद बतलाते हैंः
वहाँ प्रथम निश्चय-व्यवहारका भेद बतलाते हैंविपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धानरूप आत्माका
परिणाम वह तो निश्चयसम्यक्त्व है, क्योंकि यह सत्यार्थ सम्यक्त्वका स्वरूप है, सत्यार्थका ही नाम
निश्चय है। तथा विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धानको कारणभूत श्रद्धान सो व्यवहारसम्यक्त्व है,
क्योंकि कारणमें कार्यका उपचार किया है, सो उपचारका ही नाम व्यवहार है।
वहाँ सम्यग्दृष्टि जीवके देव-गुरु-धर्मादिकका सच्चा श्रद्धान है, उसी निमित्तसे इसके

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नौवाँ अधिकार ][ ३३१
श्रद्धानमें विपरीताभिनिवेशका अभाव है। यहाँ विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धान सो तो
निश्चयसम्यक्त्व है और देव-गुरु-धर्मादिकका श्रद्धान है, सो व्यवहारसम्यक्त्व है।
इस प्रकार एक ही कालमें दोनों सम्यक्त्व पाये जाते हैं।
तथा मिथ्यादृष्टि जीवके देव-गुरु-धर्मादिकका श्रद्धान आभासमात्र होता है और इसके
श्रद्धानमें विपरीताभिनिवेशका अभाव नहीं होता; इसलिये यहाँ निश्चयसम्यक्त्व तो है नहीं और
व्यवहारसम्यक्त्व भी आभासमात्र है; क्योंकि इसके देव-गुरु-धर्मादिकका श्रद्धान है सो
विपरीताभिनिवेशके अभावको साक्षात् कारण नहीं हुआ। कारण हुए बिना उपचार सम्भव
नहीं है; इसलिये साक्षात् कारण-अपेक्षा व्यवहारसम्यक्त्व भी इसके सम्भव नहीं है।
अथवा इसके देव-गुरु-धर्मादिकका श्रद्धान नियमरूप होता है, सो विपरीताभिनिवेश-
रहित श्रद्धानको परम्परा कारणभूत है। यद्यपि नियमरूप कारण नहीं है, तथापि मुख्यरूपसे
कारण है। तथा कारणमें कार्यका उपचार सम्भव है; इसलिये मुख्यरूप परम्परा कारण-अपेक्षा
मिथ्यादृष्टिके भी व्यवहारसम्यक्त्व कहा जाता है।
यहाँ प्रश्न है कि कितने ही शास्त्रोंमें देव-गुरु-धर्मके श्रद्धानको व तत्त्वश्रद्धानको तो
व्यवहारसम्यक्त्व कहा है और आपापरके श्रद्धानको व केवल आत्माके श्रद्धानको निश्चयसम्यक्त्व
कहा है सो किस प्रकार है?
समाधानःदेव-गुरु-धर्मके श्रद्धानमें तो प्रवृत्तिकी मुख्यता है; जो प्रवृत्तिमें अरहन्तादिकको
देवादिक माने और को न माने, उसे देवादिकका श्रद्धानी कहा जाता है। और तत्त्वश्रद्धानमें
उनके विचारकी मुख्यता है; जो ज्ञानमें जीवादिक तत्त्वोंका विचार करे, उसे तत्त्वश्रद्धानी कहते
हैं। इस प्रकार मुख्यता पायी जाती है। सो यह दोनों किसी जीवको सम्यक्त्वके कारण तो होते
हैं, परन्तु इनका सद्भाव मिथ्यादृष्टिके भी सम्भव है; इसलिये इनको व्यवहारसम्यक्त्व कहा है।
तथा आपापरके श्रद्धानमें व आत्मश्रद्धानमें विपरीताभिनिवेशरहितपनेकी मुख्यता है।
जो आपापरका भेदविज्ञान करे व अपने आत्माका अनुभव करे उसके मुख्यरूपसे
विपरीताभिनिवेश नहीं होता; इसलिये भेदविज्ञानीको व आत्मज्ञानीको सम्यग्दृष्टि कहते हैं।
इसप्रकार मुख्यतासे आपापरका श्रद्धान व आत्मश्रद्धान सम्यग्दृष्टिके ही पाया जाता है; इसलिये
इनको निश्चयसम्यक्त्व कहा।
ऐसा कथन मुख्यताकी अपेक्षा है। तारतम्यरूपसे यह चारों आभासमात्रमिथ्यादृष्टिके
होते हैं, सच्चे सम्यग्दृष्टिके होते हैं। वहाँ आभासमात्र हैंवे तो नियम बिना परम्परा कारण
हैं और सच्चे हैंसो नियमरूप साक्षात् कारण हैं; इसलिये इनको व्यवहाररूप कहते हैं। इनके

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३३२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
निमित्तसे जो विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धान हुआ सो निश्चयसम्यक्त्व हैऐसा जानना।
फि र प्रश्नःकितने ही शास्त्रोंमें लिखा है कि आत्मा है वही निश्चयसम्यक्त्व है और
सर्व व्यवहार है सो किस प्रकार है?
समाधानःविपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धान हुआ सो आत्माका ही स्वरूप है, वहाँ
अभेदबुद्धिसे आत्मा और सम्यक्त्वमें भिन्नता नहीं है; इसलिये निश्चयसे आत्माको ही सम्यक्त्व
कहा। अन्य सर्व सम्यक्त्वको निमित्तमात्र हैं व भेद-कल्पना करने पर आत्मा और सम्यक्त्वके
भिन्नता कही जाती है; इसलिये अन्य सर्व व्यवहार कहे हैं
ऐसा जानना।
इस प्रकार निश्चयसम्यक्त्व और व्यवहारसम्यक्त्वसे सम्यक्त्वके दो भेद हैं।
तथा अन्य निमित्तादि अपेक्षा आज्ञासम्यक्त्वादि सम्यक्त्वके दस भेद किये हैं।
वह आत्मानुशासनमें कहा हैः
आज्ञामार्गसमुद्भवमुपदेशात्सूत्रबीजसंक्षेपात्
विस्तारार्थाभ्यां भवमवगाढपरमावागाढे च।।११।।
अर्थ :जिन आज्ञासे तत्त्वश्रद्धान हुआ हो सो आज्ञासम्यक्त्व है।
यहाँ इतना जानना‘मुझको जिनआज्ञा प्रमाण है’, इतना ही श्रद्धान सम्यक्त्व नहीं
है। आज्ञा मानना तो कारणभूत है। इसीसे यहाँ आज्ञासे उत्पन्न कहा है। इसलिये पहले
जिनाज्ञा माननेसे पश्चात् जो तत्त्वश्रद्धान हुआ सो आज्ञासम्यक्त्व है। इसी प्रकार निर्ग्रन्थमार्गके
अवलोकनमें तत्त्वश्रद्धान हो सो मार्गसम्यक्त्व है
.........
इसप्रकार आठ भेद तो कारण-अपेक्षा किये। तथा श्रुतकेवलीको जो तत्त्वश्रद्धान है,
१ मार्गसम्यक्त्वके बाद यहाँ पंडितजीकी हस्तलिखित प्रतिमें छह सम्यक्त्वका वर्णन करनेके लिये तीन
पंक्तियोंका स्थान छोड़ा गया है, किन्तु वे लिख नहीं पाये। यह वर्णन अन्य ग्रन्थोंके अनुसार दिया जाता हैः
[तथा उत्कृष्ट पुरुष तीर्थङ्करादिक उनके पुराणोंके उपदेशसे उत्पन्न जो सम्यग्ज्ञान उससे उत्पन्न आगम-
समुद्रमें प्रवीण पुरुषोंके उपदेशादिसे हुई जो उपदेशदृष्टि सो उपदेशसम्यक्त्व है। मुनिके आचरणके विधानको
प्रतिपादन करनेवाला जो आचारसूत्र, उसे सुनकर जो श्रद्धान करना हो उसे भले प्रकार सूत्रदृष्टि कही है, यह
सूत्रसम्यक्त्व है। तथा बीज जो गणितज्ञानके कारण उनके द्वारा दर्शनमोहके अनुपम उपशमके बलसे, दुष्कर
है जाननेकी गति जिसकी ऐसा पदार्थोंका समूह, उसकी हुई है उपलब्धि अर्थात् श्रद्धानरूप परिणति जिसके,
ऐसा जो करणानुयोगका ज्ञानी भव्य, उसके बीजदृष्टि होती है, यह बीजसम्यक्त्व जानना। तथा पदार्थोंको
संक्षेपपनेसे जानकर जो श्रद्धान हुआ सो भली संक्षेपदृष्टि है, यह संक्षेपसम्यक्त्व जानना। द्वादशांगवाणीको
सुनकर की गई जो रुचि
श्रद्धान उसे हे भव्य, तू विस्तारदृष्टि जान, यह विस्तारसम्यक्त्व है। तथा जैनशास्त्रके
वचनके सिवा किसी अर्थके निमित्तसे हुई सो अर्थदृष्टि है, यह अर्थसम्यक्त्व जानना। ]

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नौवाँ अधिकार ][ ३३३
उसे अवगाढ़सम्यक्त्व कहते हैं। केवलज्ञानीके जो तत्त्वश्रद्धान है, उसको परमावगाढ़सम्यक्त्व
कहते हैं।
ऐसे दो भेद ज्ञानके सहकारीपनेकी अपेक्षा किये।
इस प्रकार सम्यक्त्वके दस भेद किये।
वहाँ सर्वत्र सम्यक्त्वका स्वरूप तत्त्वार्थश्रद्धान ही जानना।
तथा सम्यक्त्वके तीन भेद किये हैंः
औपशमिक, २क्षायोपशमिक, ३क्षायिक।
सो यह तीन भेद दर्शनमोहकी अपेक्षा किये हैं।
वहाँ औपशमिक सम्यक्त्वके दो भेद हैंप्रथमोपशमसम्यक्त्व और द्वितीयोपशम-
सम्यक्त्व। वहाँ मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें करण द्वारा दर्शनमोहका उपशम करके जो सम्यक्त्व
उत्पन्न हो, उसे प्रथमोपशमसम्यक्त्व कहते हैं।
वहाँ इतना विशेष हैअनादि मिथ्यादृष्टिके तो एक मिथ्यात्वप्रकृतिकाही उपशम होता
है, क्योंकि इसके मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्वमोहनीयकी सत्ता है नहीं। जब जीव
उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हो, वहाँ उस सम्यक्त्वके कालमें मिथ्यात्वके परमाणुओंको मिश्रमोहनीयरूप
व सम्यक्त्वमोहनीयरूप परिणमित करता है तब तीन प्रकृतियोंकी सत्ता होती है; इसलिये अनादि
मिथ्यादृष्टिके एक मिथ्यात्वप्रकृतिकी सत्ता है, उसीका उपशम होता है। तथा सादि मिथ्यादृष्टिके
किसीके तीन प्रकृतियों की सत्ता है, किसीके एककी ही सत्ता है। जिसके सम्यक्त्वकालमें
तीनकी सत्ता हुई थी वह सत्ता पायी जाये, उसके तीनकी सत्ता है और जिसके मिश्रमोहनीय,
सम्यक्त्वमोहनीयकी उद्वेलना हो गई हो, उनके परमाणु मिथ्यात्वरूप परिणमित हो गये हों,
उसके एक मिथ्यात्वकी सत्ता है; इसलिये सादि मिथ्यादृष्टिके तीन प्रकृतियोंका व एक प्रकृतिका
उपशम होता है।
उपशम क्या? सो कहते हैंःअनिवृत्तिकरणमें किये अन्तरकरणविधानसे जो सम्यक्त्वके
कालमें उदय आने योग्य निषेक थे, उनका तो अभाव किया, उनके परमाणु अन्यकालमें उदय
आने योग्य निषेकरूप किये। तथा अनिवृत्तिकरणमें ही किये उपशम विधानसे जो उस कालके
पश्चात् उदय आने योग्य निषेक थे, वे उदीरणारूप होकर इस कालमें उदय न आ सकें
ऐसे किये।
इसप्रकार जहाँ सत्ता तो पायी जाये और उदय न पाया जायेउसका नाम उपशम है।
यह मिथ्यात्वसे हुआ प्रथमोपशमसम्यक्त्व है, सो चतुर्थादि सप्तम गुणस्थानपर्यन्त पाया
जाता है।

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३३४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा उपशमश्रेणीके सन्मुख होने पर सप्तमगुणस्थानमें क्षयोपशमसम्यक्त्वसे जो
उपशमसम्यक्त्व हो, उसका नाम द्वितीयोपशमसम्यक्त्व है। यहाँ करण द्वारा तीन ही प्रकृतियोंका
उपशम होता है, क्योंकि इसके तीनकी ही सत्ता पायी जाती है। यहाँ भी अन्तरकरण विधानसे
व उपशम विधानसे उनके उदयका अभाव करता है, वही उपशम है। सो यह
द्वितीयोपशमसम्यक्त्व सप्तमादि ग्यारहवें गुणस्थान पर्यन्त होता है। गिरते हुए किसीके छट्ठे,
पाँचवें और चौथे भी रहता है
ऐसा जानना।
इस प्रकार उपशमसम्यक्त्व दो प्रकारका है। यो यह सम्यक्त्व वर्तमानकालमें क्षायिकवत्
निर्मल है; इसके प्रतिपक्षी कर्मकी सत्ता पायी जाती है, इसलिये अन्तर्मुहूर्त कालमात्र यह सम्यक्त्व
रहता है। पश्चात् दर्शनमोहका उदय आता है
ऐसा जानना।
इसप्रकार उपशमसम्यक्त्वका स्वरूप कहा।
तथा जहाँ दर्शनमोहकी तीन प्रकृतियोंमें सम्यक्त्वमोहनीयका उदय हो, अन्य दोका उदय
न हो, वहाँ क्षयोपशमसम्यक्त्व होता है। उपशमसम्यक्त्वका काल पूर्ण होने पर यह सम्यक्त्व
होता है व सादिमिथ्यादृष्टिके मिथ्यात्वगुणस्थानसे व मिश्रगुणस्थानसे भी इसकी प्राप्ति होती है।
क्षयोपशम क्या? सो कहते हैंःदर्शनमोहकी तीन प्रकृतियोंमें जो मिथ्यात्वका अनुभाग
है, उसके अनन्तवें भाग मिश्रमोहनीयका है, उसके अनन्तवें भाग सम्यक्त्वमोहनीयका है। इनमें
सम्यक्त्वमोहनीय प्रकृति देशघाती है; इसका उदय होने पर भी सम्यक्त्वका घात नहीं होता।
किंचित् मलिनता करे, मूलघात न कर सके, उसीका नाम देशघाती है।
सो जहाँ मिथ्यात्व व मिश्रमिथ्यात्वके वर्तमान कालमें उदय आने योग्य निषेकोंका उदय
हुए बिना ही निर्जरा होती है वह तो क्षय जानना और इन्हींके आगामीकालमें उदय आने योग्य
निषेकोंकी सत्ता पायी जाये वही उपशम है और सम्यक्त्वमोहनीयका उदय पाया जाता है, ऐसी
दशा जहाँ हो सो क्षयोपशम है; इसलिये समलतत्त्वार्थश्रद्धान हो वह क्षयोपशमसम्यक्त्व है।
यहाँ जो मल लगता है, उसका तारतम्यस्वरूप तो केवली जानते हैं; उदाहरण बतलानेके
अर्थ चल मलिन अगाढ़पना कहा है। वहाँ व्यवहारमात्र देवादिककी प्रतीति तो हो, परन्तु
अरहन्तदेवादिमें
यह मेरा है, यह अन्यका है, इत्यादि भाव सो चलपना है। शंकादि मल
लगे सो मलिनपना है। यह शान्तिनाथ शांतिकर्ता हैं, इत्यादि भाव सो अगाढ़पना है। ऐसे
उदाहरण व्यवहारमात्र बतलाये, परन्तु नियमरूप नहीं हैं। क्षयोपशमसम्यक्त्वमें जो नियमरूप
कोई मल लगता है सो केवली जानते हैं। इतना जानना कि इसके तत्त्वार्थश्रद्धानमें किसी
प्रकारसे समलपना होता है, इसलिये यह सम्यक्त्व निर्मल नहीं है। इस क्षयोपशमसम्यक्त्वका
एक ही प्रकार है, इसमें कुछ भेद नहीं है।

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नौवाँ अधिकार ][ ३३५
इतना विशेष है कि क्षायिकसम्यक्त्वके सन्मुख होने पर अन्तर्मुहूर्तकालमात्र जहाँ
मिथ्यात्वकी प्रकृतिका क्षय करता है, वहाँ दो ही प्रकृतियोंकी सत्ता रहती है। पश्चात्
मिश्रमोहनीयका भी क्षय करता है वहाँ सम्यक्त्वमोहनीयकी ही सत्ता रहती है। पश्चात्
सम्यक्त्वमोहनीयकी काण्डकघातादि क्रिया नहीं करता, वहाँ कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि नाम पाता
है
ऐसा जानना।
तथा इस क्षयोपशमसम्यक्त्वका ही नाम वेदकसम्यक्त्व है। जहाँ मिथ्यात्वमिश्रमोहनीयकी
मुख्यतासे कहा जाये, वहाँ क्षयोपशम नाम पाता है। सम्यक्त्वमोहनीयकी मुख्यतासे कहा जाये,
वहाँ वेदक नाम पाता है। सो कथनमात्र दो नाम हैं, स्वरूपमें भेद नहीं है। तथा यह
क्षयोपशमसम्यक्त्व चतुर्थादि सप्तमगुणस्थान पर्यन्त पाया जाता है।
इसप्रकार क्षयोपशमसम्यक्त्वका स्वरूप कहा।
तथा तीनों प्रकृतियोंके सर्वथा सर्व निषेकोंका नाश होने पर अत्यन्त निर्मल
तत्त्वार्थश्रद्धान हो सो क्षायिकसम्यक्त्व है। सो चतुर्थादि चार गुणस्थानोंमें कहीं क्षयोपशम-
सम्यग्दृष्टिको इसकी प्राप्ति होती है।
कैसे होती है? सो कहते हैंःप्रथम तीन करण द्वारा वहाँ मिथ्यात्वके परमाणुओंको
मिश्रमोहनीय व सम्यक्त्वमोहनीयरूप परिणमित करे व निर्जरा करे; इसप्रकार मिथ्यात्वकी सत्ता
नाश करे। तथा मिश्रमोहनीयके परमाणुओंको सम्यक्त्वमोहनीयरूप परिणमित करे व निर्जरा
करे;
इसप्रकार मिश्रमोहनीयका नाश करे। तथा सम्यक्त्वमोहनीयके निषेक उदयमें आकर खिरें,
उसकी बहुत स्थिति आदि हो तो उसे स्थितिकाण्डकादि द्वारा घटाये। जहाँ अन्तर्मुहूर्त स्थिति
रहे तब कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि हो। तथा अनुक्रमसे इन निषेकोंका नाश करके क्षायिकसम्यग्दृष्टि
होता है।
सो यह प्रतिपक्षी कर्मके अभावसे निर्मल है व मिथ्यात्वरूप रंजनाके अभावसे वीतराग है;
इसका नाश नहीं होता। जबसे उत्पन्न हो तबसे सिद्ध अवस्था पर्यन्त इसका सद्भाव है।
इसप्रकार क्षायिकसम्यक्त्वका स्वरूप कहा।
ऐसे तीन भेद सम्यक्त्वके हैं।
तथा अनन्तानुबन्धी कषायकी सम्यक्त्व होने पर दो अवस्थाएँ होती हैं। या तो
अप्रशस्त उपशम होता है या विसंयोजन होता है।
वहाँ जो करण द्वारा उपशमविधानसे उपशम हो, उसका नाम प्रशस्त उपशम है।
उदयका अभाव उसका नाम अप्रशस्त उपशम है।

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३३६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
सो अनन्तानुबन्धीका प्रशस्त उपशम तो होता ही नहीं, अन्य मोहकी प्रकृतियोंका होता
है। तथा इसका अप्रशस्त उपशम होता है।
तथा जो तीन करण द्वारा अनन्तानुबन्धीके परमाणुओंको अन्य चारित्रमोहकी प्रकृतिरूप
परिणमित करके उनकी सत्ता नाश करे, उसका नाम विसंयोजन है।
सो इनमें प्रथमोपशमसम्यक्त्वमें तो अनन्तानुबन्धीका अप्रशस्त उपशम ही है। तथा
द्वितीयोपशमसम्यक्त्वकी प्राप्ति पहले अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन होने पर ही होती हैऐसा
नियम कोई आचार्य लिखते हैं, कोई नियम नहीं लिखते। तथा क्षयोपशमसम्यक्त्वमें किसी
जीवके अप्रशस्त उपशम होता है व किसीके विसंयोजन होता है। तथा क्षायिकसम्यक्त्व है
सो पहले अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन होने पर ही होता है।
ऐसा जानना।
यहाँ यह विशेष है कि उपशम तथा क्षयोपशमसम्यक्त्वीके अनन्तानुबन्धीके विसंयोजनसे
सत्ताका नाश हुआ था, वह फि र मिथ्यात्वमें आये तो अनन्तानुबन्धीका बन्ध करे, वहाँ फि र
उसकी सत्ताका सद्भाव होता है और क्षायिकसम्यग्दृष्टि मिथ्यात्वमें आता नहीं है, इसलिये उसके
अनन्तानुबन्धीकी सत्ता कदाचित् नहीं होती।
यहाँ प्रश्न है कि अनन्तानुबन्धी तो चारित्रमोहकी प्रकृति है, सो चारित्रका घात करे,
इससे सम्यक्त्वका घात किस प्रकार सम्भव है?
समाधानःअनन्तानुबन्धीके उदयसे क्रोधादिरूप परिणाम होते हैं, कुछ अतत्त्वश्रद्धान
नहीं होता; इसलिये अनन्तानुबन्धी चारित्रका ही घात करती है, सम्यक्त्वका घात नहीं करती।
सो परमार्थसे है तो ऐसा ही, परन्तु अनन्तानुबन्धीके उदयसे जैसे क्रोधादिक होते हैं वैसे
क्रोधादिक सम्यक्त्व होने पर नहीं होते
ऐसा निमित्त-नैमित्तिकपना पाया जाता है। जैसे
त्रसपनेकी घातक तो स्थावरप्रकृति ही है, परन्तु त्रसपना होने पर एकेन्द्रियजातिप्रकृतिका भी
उदय नहीं होता, इसलिये उपचारसे एकेन्द्रियप्रकृतिको भी त्रसपनेका घातकपना कहा जाये
तो दोष नहीं है। उसी प्रकार सम्यक्त्वका घातक तो दर्शनमोह है, परन्तु सम्यक्त्व होने पर
अनन्तानुबन्धी कषायोंका भी उदय नहीं होता, इसलिये उपचारसे अनन्तानुबंधीके भी सम्यक्त्वका
घातकपना कहा जाये तो दोष नहीं है।
यहाँ फि र प्रश्न है कि अनन्तानुबंधी भी चारित्रका ही घात करती है, तो इसके जानेपर
कुछ चारित्र हुआ कहो। असंयत गुणस्थानमें असंयम किसलिये कहते हो?
समाधानःअनन्तानुबन्धी आदि भेद हैं वे तीव्रमन्द कषायकी अपेक्षा नहीं हैं; क्योंकि

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नौवाँ अधिकार ][ ३३७
मिथ्यादृष्टिके तीव्र कषाय होने पर व मन्दकषाय होने पर अनन्तानुबंधी आदि चारोंका उदय
युगपत् होता है। वहाँ चारोंके उत्कृष्ट स्पर्द्धक समान कहे हैं।
इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीके साथ जैसा तीव्र उदय अप्रत्याख्यानादिकका हो,
वैसा उसके जाने पर नहीं होता। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानके साथ जैसा प्रत्याख्यान संज्वलनका
उदय हो, वैसा उसके जाने पर नहीं होता। तथा जैसा प्रत्याख्यानके संज्वलनका उदय हो,
वैसा केवल संज्वलनका उदय नहीं होता। इसलिये अनन्तानुबन्धीके जाने पर कुछ कषायोंकी
मन्दता तो होती है, परन्तु ऐसी मन्दता नहीं होती जिसमें कोई चारित्र नाम प्राप्त करे। क्योंकि
कषायोंके असंख्यात लोकप्रमाण स्थान हैं; उनमें सर्वत्र पूर्वस्थानसे उत्तरस्थानमें मन्दता पायी
जाती है; परन्तु व्यवहारसे उन स्थानोंमें तीन मर्यादाएँ कीं। आदिके बहुत स्थान तो असंयमरूप
कहे, फि र कितने ही देशसंयमरूप कहे, फि र कितने ही सकलसंयमरूप कहे। उनमें प्रथम
गुणस्थानसे लेकर चतुर्थ गुणस्थान पर्यन्त जो कषायके स्थान होते हैं वे सर्व असंयमके ही
होते हैं। इसलिये कषायोंकी मन्दता होने पर भी चारित्र नाम नहीं पाते हैं।
यद्यपि परमार्थसे कषायका घटना चारित्रका अंश है, तथापि व्यवहारसे जहाँ ऐसा
कषायोंका घटना हो जिससे श्रावकधर्म या मुनिधर्मका अंगीकार हो, वही चारित्र नाम पाता
है। सो असंयतमें ऐसे कषाय घटती नहीं हैं, इसलिये यहाँ असंयम कहा है। कषायोंका
अधिक
हीनपना होने पर भी, जिस प्रकार प्रमत्तादि गुणस्थानोंमें सर्वत्र सकलसंयम ही नाम
पाता है, उसी प्रकार मिथ्यात्वादि असंयत पर्यन्त गुणस्थानोंमें असंयम नाम पाता है। सर्वत्र
असंयमकी समानता नहीं जानना।
यहाँ फि र प्रश्न है कि अनन्तानुबंधी सम्यक्त्वका घात नहीं करती है तो इसका उदय
होने पर सम्यक्त्वसे भ्रष्ट होकर सासादन गुणस्थानको कैसे प्राप्त करता है?
समाधानःजैसे किसी मनुष्यके मनुष्यपर्याय नाशका कारण तीव्र रोग प्रगट हुआ हो,
उसको मनुष्यपर्यायका छोड़नेवाला कहते हैं। तथा मनुष्यपना दूर होने पर देवादिपर्याय हो,
वह तो रोग अवस्थामें नहीं हुई। यहाँ मनुष्यका ही आयु है। उसी प्रकार सम्यक्त्वीके
सम्यक्त्वके नाशका कारण अनन्तानुबन्धीका उदय प्रगट हुआ, उसे सम्यक्त्वका विरोधक सासादन
कहा। तथा सम्यक्त्वका अभाव होने पर मिथ्यात्व होता है, वह तो सासादनमें नहीं हुआ।
यहाँ उपशमसम्यक्त्वका ही काल है
ऐसा जानना।
इस प्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्टयकी सम्यक्त्व होने पर अवस्था होती नहीं, इसलिये
सात प्रकृतियोंके उपशमादिकसे भी सम्यक्त्वकी प्राप्ति कही जाती है।

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३३८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
फि र प्रश्नःसम्यक्त्वमार्गणाके छह भेद किये हैं, सो किस प्रकार हैं?
समाधानःसम्यक्त्वके तो भेद तीन ही हैं। तथा सम्यक्त्वके अभावरूप मिथ्यात्व है।
दोनोंका मिश्रभाव सो मिश्र है। सम्यक्त्वका घातक भाव सो सासादन है। इस प्रकार
सम्यक्त्वमार्गणासे जीवका विचार करने पर छह भेद कहे हैं।
यहाँ कोई कहे कि सम्यक्त्वसे भ्रष्ट होकर मिथ्यात्वमें आया हो उसे मिथ्यात्व-सम्यक्त्व
कहा जाये। परन्तु यह असत्य है, क्योंकि अभव्यके भी उसका सद्भाव पाया जाता है।
तथा मिथ्यात्वसम्यक्त्व कहना ही अशुद्ध है। जैसे संयममार्गणामें असंयम कहा, भव्यमार्गणामें
अभव्य कहा, उसी प्रकार सम्यक्त्वमार्गणामें मिथ्यात्व कहा है। मिथ्यात्वको सम्यक्त्वका भेद
नहीं जानना। सम्यक्त्व-अपेक्षा विचार करने पर कितने ही जीवोंके सम्यक्त्वका अभाव भासित
हो, वहाँ मिथ्यात्व पाया जाता है
ऐसा अर्थ प्रगट करनेके अर्थ सम्यक्त्वमार्गणामें मिथ्यात्व
कहा है। इसीप्रकार सासादन, मिश्र भी सम्यक्त्वके भेद नहीं हैं। सम्यक्त्वके भेद तीन ही
हैं, ऐसा जानना।
यहाँ कर्मके उपशमादिकसे उपशमादि सम्यक्त्व कहे, सो कर्मके उपशमादिक इसके करनेसे
नहीं होते। यह तो तत्त्वश्रद्धान करनेका उद्यम करे, उसके निमित्तसे स्वयमेव कर्मके उपशमादिक
होते हैं, तब इसके तत्त्वश्रद्धानकी प्राप्ति होती है
ऐसा जानना।
ऐसे सम्यक्त्वके भेद जानना।
इसप्रकार सम्यग्दर्शनका स्वरूप कहा।
सम्यग्दर्शनके आठ अंग
तथा सम्यग्दर्शनके आठ अंग कहे हैं :निःशंकितत्व, निःकांक्षितत्व, निर्विचिकित्सत्व,
अमूढ़दृष्टित्व, उपबृंहण, स्थितिकरण, प्रभावना और वात्सल्य।
वहाँ भयका अभाव अथवा तत्त्वोंमें संशयका अभाव सो निःशंकितत्व है तथा
परद्रव्यादिमें रागरूप वांछाका अभाव सो निःकांक्षितत्व है। तथा परद्रव्यादिमें द्वेषरूप ग्लानिका
अभाव सो निर्विचिकित्सत्व है। तथा तत्त्वोंमें व देवादिकमें अन्यथा प्रतीतिरूप मोहका अभाव
सो अमूढ़दृष्टित्व है। तथा आत्मधर्मका व जिनधर्मका बढ़ाना उसका नाम उपबृंहण है, इसी
अंगका नाम उपगूहन भी कहा जाता है; वहाँ धर्मात्मा जीवोंके दोष ढँकना
ऐसा उसका अर्थ
जानना। तथा अपने स्वभावमें व जिनधर्ममें अपनेको व परको स्थापित करना सो स्थितिकरण
है। तथा अपने स्वरूपकी व जिनधर्मकी महिमा प्रगट करना सो प्रभावना है। तथा स्वरूपमें

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नौवाँ अधिकार ][ ३३९
व जिनधर्ममें व धर्मात्मा जीवोंमें अति प्रीतिभाव, सो वात्सल्य है। ऐसे यह आठ अंग जानना।
जैसे मनुष्य-शरीरके हस्त-पादादिक अंग हैं, उसी प्रकार यह सम्यक्त्वके अंग हैं।
यहाँ प्रश्न है कि कितने ही सम्यक्त्वी जीवोंके भी भय, इच्छा, ग्लानि आदि पाये
जाते हैं और कितने ही मिथ्यादृष्टियोंके नहीं पाये जाते; इसलिये निःशंकितादिक अंग सम्यक्त्वके
कैसे कहते हो?
समाधानःजैसे मनुष्य-शरीरके हस्त-पादादिक अंग कहे जाते हैं; वहाँ कोई मनुष्य ऐसा
भी हो जिसके हस्त-पादादिमें कोई अंग न हो; वहाँ उसके मनुष्य-शरीर तो कहा जाता है,
परन्तु उन अंगों बिना वह शोभायमान सकल कार्यकारी नहीं होता। उसी प्रकार सम्यक्त्वके
निःशंकितादि अंग कहे जाते हैं; वहाँ कोई सम्यक्त्वी ऐसा भी हो जिसके निःशंकितत्वादिमें
कोई अंग न हो; वहाँ उसके सम्यक्त्व तो कहा जाता है, परन्तु इन अंगोंके बिना वह निर्मल
सकल कार्यकारी नहीं होता। तथा जिसप्रकार बन्दरके भी हस्त-पादादि अंग होते हैं, परन्तु
जैसे मनुष्यके होते हैं वैसे नहीं होते; उसीप्रकार मिथ्यादृष्टियोंके भी व्यवहाररूप निःशंकितादिक
अंग होते हैं, परन्तु जैसे निश्चयकी सापेक्षता-सहित सम्यक्त्वीके होते हैं वैसे नहीं होते।
सम्यग्दर्शनके पच्चीस दोष
तथा सम्यक्त्वमें पच्चीस मल कहे हैंःआठ शंकादिक, आठ मद, तीन मूढ़ता, षट्
अनायतन, सो यह सम्यक्त्वीके नहीं होते। कदाचित् किसीको कोई मल लगे, परन्तु सम्यक्त्वका
सर्वथा नाश नहीं होता, वहाँ सम्यक्त्व मलिन ही होता है
ऐसा जानना। बहु...........
इति श्री मोक्षमार्गप्रकाशक नामक शास्त्रमें ‘मोक्षमार्गका स्वरूप’ प्रतिपादक
नौवाँ अधिकार पूर्ण हुआ।।।।

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३४० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
परिशिष्ट १
समाधिमरण स्वरूप
[ पंडितप्रवर टोडरमलजीके सुपुत्र पंडित गुमानीरामजी द्वारा रचित ]
[आचार्य पं० टोडरमलजीके सहपाठी और धर्मप्रभावनामें उत्साहप्रेरक ब्र० राजमलजी कृत
‘‘ज्ञानानंद निर्भर निजरस श्रावकाचार’’ नामक ग्रंथमेंसे यह अधिकार बहुत सुन्दर जानकर आत्मधर्म
अंक २५३-५४में दिया था। उसीमेंसे शुरूका अंश यहाँ दिया जाता है।]
हे भव्य! तू सून! अब समाधिमरणका लक्षण वर्णन किया जाता है। समाधि नाम निःकषायका
है, शान्त परिणामोंका है; भेदविज्ञानसहित, कषायरहित शान्त परिणामोंसे मरण होना समाधिमरण है।
संक्षिप्तरूपसे समाधिमरणका यही वर्णन है। विशेषरूपसे कथन आगे किया जा रहा है।
सम्यग्ज्ञानी पुरुषका यह सहज स्वभाव ही है कि वह समाधिमरणकी ही इच्छा करता है,
उसकी हंमेशा यही भावना रहती है। अन्तमें मरण समय निकट आने पर वह इसप्रकार सावधान
होता है, जिसप्रकार वह सोया हुआ सिंह सावधान होता है
जिसको कोई पुरुष ललकारे कि ‘‘हे
सिंह! तुम्हारे पर बैरियों की फौज आक्रमण कर रही है, तुम पुरुषार्थ करो और गुफा से बाहर
निकलो। जब तक बैरियोंका समूह दूर है तब तक तुम तैयार हो जाओ और बैरियोंकी फौजको
जीत लो। महान् पुरुषोंकी यही रीति है कि वे शत्रुके जागृत होनेसे पहले तैयार होते हैं।’’
उस पुरुषके ऐसे वचन सुनकर शार्दूल तत्क्षण ही उठा और उसने ऐसी गर्जना की कि
मानों आषाढ़ मासमें इन्द्रने ही गर्जनाकी हो।
मृत्युको निकट जानकर सम्यग्ज्ञानी पुरुष सिंहकी तरह सावधान होता है और कायरपनेको
दूरसे ही छोड़ देता है।
सम्यग्दृष्टि कैसा है?
उसके हृदयमें आत्माका स्वरूप दैदीप्यमान प्रगटरूपसे प्रतिभासता है। वह ज्ञानज्योतिके लिये
आनन्दरससे परिपूर्ण है। वह अपनेको साक्षात् पुरुषाकार, अमूर्तिक, चैतन्यधातुका पिंड, अनन्त अक्षय
गुणोंसे युक्त चैतन्यदेव ही जानता है। उसके अतिशयसे ही वह परद्रव्यके प्रति रंचमात्र भी रागी
नहीं होता।
सम्यग्दृष्टि रागी क्यों नहीं होता?
वह अपने निजस्वरूपको ज्ञाता, दृष्टा, परद्रव्योंसे भिन्न, शाश्वत और अविनाशी जानता है
और परद्रव्यको तथा रागादिकको क्षणभंगुर, अशाश्वत, अपने स्वभावसे भलीभाँति भिन्न जानता है।
इसलिये सम्यग्ज्ञानी कैसे डरे?.........
१ क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं।

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पहला अधिकार ][ ३४१
परिशिष्ट २
रहस्यपूर्ण चिट्ठी
[ आचार्यकल्प पंडित टोडरमलजी द्वारा लिखित ]
सिद्ध श्री मुलताननगर महा शुभस्थानमें साधर्मी भाई अनेक उपमा योग्य अध्यात्मरस
रोचक भाई श्री खानचंदजी, गंगाधरजी, श्रीपालजी, सिद्धारथजी, अन्य सर्व साधर्मी योग्य लिखी
टोडरमलके श्री प्रमुख विनय शब्द अवधारण करना।
यहाँ यथासम्भव आनन्द है, तुम्हारे चिदानन्दघनके अनुभवसे सहजानन्दकी वृद्धि
चाहिये।
अपरंच तुम्हारा एक पत्र भाईजी श्री रामसिंहजी भुवानीदासजी पर आया था। उसके
समाचार जहानाबादसे मुझको अन्य साधर्मियोंने लिखे थे।
सो भाईजी, ऐसे प्रश्न तुम सरीखे ही लिखें। इस वर्तमानकालमें अध्यात्मरसके रसिक
बहुत थोड़े हैं। धन्य हैं जो स्वात्मानुभवकी बात करते हैं। वही कहा हैः
तत्प्रति प्रीतिचित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता।
निश्चितं स भवेद्भव्यो भाविनिर्वाणभाजनम्।।
पद्मनंदिपंचविंशतिका (एकत्वाशीतिः २३)
अर्थःजिस जीवने प्रसन्न चित्तसे इस चेतनस्वरूप आत्माकी बात भी सुनी है, वह
निश्चयसे भव्य है। अल्पकालमें मोक्षका पात्र है।
सो भाईजी, तुमने प्रश्न लिखे उनके उत्तर अपनी बुद्धि अनुसार कुछ लिखते हैं सो
जानना और अध्यात्मआगमकी चर्चागर्भित पत्र तो शीघ्र शीघ्र दिया करें, मिलाप तो कभी
होगा तब होगा और निरन्तर स्वरूपानुभवनका अभ्यास रखोगेजी। श्रीरस्तु।
अब, स्वानुभवदशामें प्रत्यक्ष-परोक्षादिक प्रश्नोंके उत्तर स्वबुद्धि अनुसार लिखते हैं।
वहाँ प्रथम ही स्वानुभवका स्वरूप जाननेके निमित्त लिखते हैंः
जीव पदार्थ अनादिसे मिथ्यादृष्टि है। वहाँ स्व-परके यथार्थरूपसे विपरीत श्रद्धानका
नाम मिथ्यात्व है। तथा जिसकाल किसी जीवके दर्शनमोहके उपशम-क्षय-क्षयोपशमसे स्व-परके
यथार्थ श्रद्धानरूप तत्त्वार्थश्रद्धान हो तब जीव सम्यक्त्वी होता है; इसलिये स्व-परके श्रद्धानमें
शुद्धात्मश्रद्धानरूप निश्चयसम्यक्त्व गर्भित है।
तथा यदि स्व-परका श्रद्धान नहीं है और जिनमतमें कहे जो देव, गुरु, धर्म उन्हींको

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३४२ ] [ रहस्यपूर्ण चिठ्ठी
मानता है; व सप्त तत्त्वोंको मानता है; अन्यमतमें कहे देवादि व तत्त्वादिको नहीं मानता है;
तो इसप्रकार केवल व्यवहारसम्यक्त्वसे सम्यक्त्वी नाम नहीं पाता; इसलिये स्व-पर भेदविज्ञानसहित
जो तत्त्वार्थश्रद्धान हो उसीको सम्यक्त्व जानना।
तथा ऐसा सम्यक्त्वी होने पर जो ज्ञान पंचेन्द्रिय व छट्ठे मनके द्वारा क्षयोपशमरूप
मिथ्यात्वदशामें कुमति-कुश्रुतिरूप हो रहा था, वही ज्ञान अब मतिश्रुतरूप सम्यग्ज्ञान हुआ।
सम्यक्त्वी जितना कुछ जाने वह जानना सर्व सम्यग्ज्ञानरूप है।
यदि कदाचित् घट-पटादिक पदार्थोंको अयथार्थ भी जाने तो वह आवरणजनित
औदयिक अज्ञानभाव है। जो क्षयोपशमरूप प्रगट ज्ञान है वह तो सर्व सम्यग्ज्ञान ही है,
क्योंकि जाननेमें विपरीतरूप पदार्थोंको नहीं साधता। सो यह सम्यग्ज्ञान केवलज्ञानका अंश
है; जैसे थोड़ा-सा मेघपटल विलय होने पर कुछ प्रकाश प्रगट होता है, वह सर्व प्रकाशका
अंश है।
जो ज्ञान मति-श्रुतरूप हो प्रवर्तता है वही ज्ञान बढ़ते-बढ़ते केवलज्ञानरूप होता है;
सम्यग्ज्ञानकी अपेक्षा तो जाति एक है।
तथा इस सम्यक्त्वीके परिणाम सविकल्प तथा निर्विकल्प होकर दो प्रकार प्रवर्ते हैं।
वहाँ जो परिणाम विषय-कषायादिरूप व पूजा, दान, शास्त्राभ्यासादिकरूप प्रवर्तता है, उसे
सविकल्परूप जानना।
यहाँ प्रश्नःशुभाशुभरूप परिणमित होते हुए सम्यक्त्वका अस्तित्व कैसे पाया जाय?
समाधानःजैसे कोई गुमाश्ता सेठके कार्यमें प्रवर्तता है, उस कार्यको अपना भी कहता
है, हर्ष-विषादको भी प्राप्त होता है, उस कार्यमें प्रवर्तते हुए अपनी और सेठकी जुदाईका
विचार नहीं करता; परन्तु अंतरंग श्रद्धान ऐसा है कि यह मेरा कार्य नहीं है। ऐसा कार्य
करता गुमाश्ता साहूकार है। यदि सेठके धनको चुराकर अपना माने तो गुमाश्ता चोर हुआ।
उसी प्रकार कर्मोदयजनित शुभाशुभरूप कार्यको करता हुआ तद्रूप परिणमित हो; तथापि
अंतरंगमें ऐसा श्रद्धान है कि यह कार्य मेरा नहीं है। यदि शरीराश्रित व्रत
संयमको भी
अपना माने तो मिथ्यादृष्टि होय। सो ऐसे सविकल्प परिणाम होते हैं।
अब, सविकल्पके ही द्वारा निर्विकल्प परिणाम होनेका विधान कहते हैंः
वही सम्यक्त्वी कदाचित् स्वरूपध्यान करनेको उद्यमी होता है, वहाँ प्रथम भेदविज्ञान
स्व-परका करे; नोकर्मद्रव्यकर्म-भावकर्मरहित केवल चैतन्य-चमत्कारमात्र अपना स्वरूप जाने;